Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 561
________________ ५०८] [ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् स्थविर भगवान् ने पुण्डरीक राजा से पूछा अर्थात् अपने विहार की उसे सूचना दी। तदनन्तर वे बाहर जाकर जनपद-विहार विहरने लगे। उस समय कण्डरीक अनगार उस रोग आतंक से मुक्त हो जाने पर भी उस मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में मूछित, गृद्ध, आसक्त और तल्लीन हो गए। अतएव वे पुण्डरीक राजा से पूछ कर अर्थात् कहकर बाहर जनपदों में उग्र विहार करने में समर्थ न हो सके। शिथिलाचारी होकर वहीं रहने लगे। १५-तए णं से पोंडरीए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे ण्हाए अंतउरपरियालसंपरिवुडे जेणेव कंडरीए अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कंडरीयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-'धन्ने सि णं तुमं देवाणुप्पिया! कयत्थे कयपुण्णे कयलक्खणे, सुलद्धे णं देवाणुप्पिया! तव माणुस्सए जम्म-जीवियफले, जे णं तुमं रजं च जाव अंतेउरं च छड्डइत्ता विगोवइत्ता जाव पव्वइए। अहं णं अहण्णे अकयपुण्णे रज्जे जाव अंतउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए जाव अझोववन्ने नो संचाएमि जाव पव्वइत्तए। तं धन्नो सि णं तुमं देवाणुप्पिया! जाव जीवियफले।' तत्पश्चात् पुण्डरीक राजा ने इस कथा का अर्थ जाना अर्थात् जब उसे यह बात विदित हुई, तब वह स्नान करके और विभूषित होकर तथा अन्तःपुर के परिवार से परिवृत होकर जहाँ कण्डरीक अनगार थे वहाँ आया। आकर उसने कण्डरीक को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की। फिर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय! आप धन्य हैं, कृतार्थ हैं, कृतपुण्य हैं और सुलक्षण वाले हैं। देवानुप्रिय! आपको मनुष्य के जन्म और जीवन का फल सुन्दर मिला है, जो आप राज्य को और अन्तःपुर को त्याग कर और दुत्कार कर प्रव्रजित हुए हैं। और मैं अधन्य हूँ, पुण्यहीन हूँ, यावत् राज्य में, अन्त:पुर में और मानवीय कामभोगों में मूर्च्छित यावत् तल्लीन हो रहा हूँ, यावत् दीक्षित होने के लिए समर्थ नहीं हो पा रहा हूँ। अतएव देवानुप्रिय! आप धन्य हैं, यावत् आपको जन्म और जीवन का सुन्दर फल प्राप्त हुआ है। १६-तएणं से कंडरीए अणगारे-पुंडरीयस्स एयमटुं णो आढाइ जाव[णो परियाणाइ, तुसिणीए] संचिट्ठइ। तए णं कंडरीए पुंडरीएणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्ते समाणे अकामए अवस्सवसे लजाए गारवेण य पोंडरीयं रायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता थेरेहिं सद्धिं बहिया जणवय विहारं विहरइ। तए णं से कंडरीय थेरिहिं सद्धिं किंचि कालं उग्गंउग्गेणं विहरइ। तओ पच्छा समणत्तणपरितंते समणत्तणणिव्विण्णे समणत्तणणिब्भत्थिए समणगुणमुक्कजोगी थेराणं अंतियाओ सणियं सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव पुंडरीगिणी णयरी, जेणेव पुंडरीयस्स भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असोगवणियाए असोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टगंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता ओहयमणसंकप्पे जाव झियायमाणे संचिट्ठइ। तत्पश्चात् कण्डरीक अनगार ने पुण्डरीक राजा की इस बात का आदर नहीं किया। यावत् वह मौन बने रहे। तब पुण्डरीक ने दूसरी और तीसरी बार भी यही कहा। तत्पश्चात् इच्छा न होने पर भी विवशता के कारण, लज्जा से और बड़े भाई के गौरव के कारण पुण्डरीक राजा से पूछा-अपने जाने के

Loading...

Page Navigation
1 ... 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662