Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा ८-तए णं से कंडरीए जाव थेरे वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता तमेव चाउघंटं आसरहं दुरूहइ, जाव पच्चोरुहइ, जेणेव पुंडरीए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जावपुंडरीए एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए थेराणं अंतिए जाव धम्मे निसंते, से धम्मे अभिरुइए, तए णं देवाणुप्पिया! जाव पव्वइत्तए।'
तत्पश्चात् कंडरीक ने यावत् स्थविर मुनि को वन्दन किया। वन्दन-नमस्कार करके उनके पास से निकला। निकल कर चार घंटों वाले घोड़ों के रथ पर आरूढ़ हुआ, यावत् राजभवन में आकर उतरा। रथ से उतर कर पुंडरीक राजा के पास गया, वहाँ जाकर हाथ जोड़ कर यावत् पुंडरीक से कहा-'देवानुप्रिय! मैंने स्थविर मुनि से धर्म सुना है और वह धर्म मुझे रुचा है। अतएव हे देवानुप्रिय! मैं यावत् प्रव्रज्या अंगीकार करने की इच्छा करता हूँ।'
९-तए णं पुंडरीए राया कंडरीयं जुवरायं एवं वयासी-' मा णं तुमं देवाणुप्पिया! इदाणिं मुंडे जाव पव्वयाहि, अहं णं तुम महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचामि।
तए णं से कंडरीए पुंडरीयस्स रण्णो एयमटुं णो आढाइ, जाव तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं पुंडरीए राया कंडरीयं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी जाव तुसिणीए संचिट्ठइ।'
तब पुंडरीक राजा ने कंडरीक युवराज से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय! तुम इस समय मुंडित होकर यावत् दीक्षा ग्रहण मत करो। मैं तुम्हें महान्-महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त करना चाहता हूँ।'
तब कंडरीक ने पुंडरीक राजा के इस अर्थ का आदर नहीं किया-स्वीकार नहीं किया; वह यावत् मौन रहा। तब पुंडरीक राजा ने दूसरी बार और तीसरी बार भी कण्डरीक से इस प्रकार कहा, यावत् कण्डरीक फिर भी मौन ही रहा।
१०-तएणं पुंडरीए कंडरीयं कुमारं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहिं पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य ताहे अकामए चेव एयमटुं अणुमण्णित्था जाव णिक्खमणाभिसेएणं अभिसिंचइ जाव थेराणं सीसभिक्खं दलयइ। पव्वइए, अणगारे जाए, एक्कारसंगविऊ।
तएणं थेरा भगवंतो अन्नया कयाइं पुंडरीगिणीओ नयरीओ नलिनीवणाओ उजाणाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरंति।
तत्पश्चात् जब पुण्डरीक राजा, कण्डरीक कुमार को बहुत कहकर और समझा-बुझा कर और विज्ञप्ति करके रोकने में समर्थ न हुआ, तब इच्छा न होने पर भी उसने यह बात मान ली, अर्थात् दीक्षा की
आज्ञा दे दी, यावत् उसे निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त किया, यहाँ तक कि स्थविर मुनि को शिष्य-भिक्षा प्रदान की। तब कंडरीक प्रव्रजित हो गया, अनगार हो गया, यावत् ग्यारह अंगों का वेत्ता हो गया।
तत्पश्चात् स्थविर भगवान् अन्यदा कदाचित् पुण्डरीकिणी नगरी के नलिनीवन उद्यान से बाहर निकले। निकल कर बाहर जनपद-विहार करने लगे।