Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[४६३ पुव्वगहियं भत्तपाणं परिद्ववेत्ता सेत्तुंजं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहित्तए, संलेहणा-झूसणाझोसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगंते परिट्ठवंति, परिट्ठवित्ता जेणेव सेत्तुंजे पव्वए तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सेत्तुंजं पव्वयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरंति।
'हे देवानुप्रिय! (हम आपकी अनुमति लेकर भिक्षा के लिए नगर में गये थे। वहाँ हमने सुना है कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि) यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं। अत: हे देवानुप्रिय! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान् के निर्वाण का वृत्तान्त सुनने से पहले ग्रहण किये हुए आहर-पानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हों तथा संलेखना करके झोषणा (कर्म-शोषण की क्रिया) का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरें-रहें, इस प्रकार कह कर सबने परस्पर के इस अर्थ (विचार) को अंगीकार किया। अंगीकार करके वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया। परठ कर जहाँ शत्रुजय पर्वत था, वहाँ गए। शत्रुजय पर्वत पर आरूढ़ हुए। आरूढ़ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे। पाण्डवों का निर्वाण
. २२७–तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा समाइयमाइयाइं चोइस पुव्वाइं अहिजित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्ठाए कीरइ णग्गभावे जाव' तमटुं आराहेंति। आराहित्ता अणंते जाव केवलवरनाणदंसणे समुप्पाडेत्ता जाव सिद्धा।
___तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से आत्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुंडता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया। उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ। यावत् वे सिद्ध हो गये। आर्या द्रौपदी का स्वर्गवास
२२८–तएणंसा दोवई अजा सुव्वयाणं अजियाणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्करस्स अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिक्वंता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना।
दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् द्रौपदी आर्या ने सुव्रता आर्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया। अन्त में एक मास की संलेखना करके. आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके (यथासम प्राप्त होकर) ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया।
२२९-तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता।तत्थ णं दोवइस्स'
१. ओववाइय सूत्र १५४,
२. पाठान्तर–'दुवयस्स।'