Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सत्रहवाँ अध्ययन : आकीर्ण] किया और उन्हें विदा किया।
२६–तए णं से कणगकेऊ राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता सक्कारेई, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ।
तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने कालिक-द्वीप भेजे हुए कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुला कर उनका भी सत्कार-सम्मान किया और उन्हें विदा कर दिया।
२७–तए णं से कणगकेऊ राया असमद्दए सद्दावेइ. सदावित्ता एवं वयासी-'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! मम आसे विणएह।'
तए णं ते आसमद्दगा तह त्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता ते आसे बहूहिं मुहबंधेहि य, कण्णबंधेहि य, णासाबंधेहि य, वालबंधेहि य, खुरबंधेहि य कडगबंधेहि य खलिणबंधेहि य, अहिलाणेहि य, पडयाणेहि य, अंकणाहि य, वेलप्पहारेहि य, वित्तप्पहारेहि य, लयप्पहारेहि य, कसप्पहारेहि य, छिवप्पहारेहि य विणयंति, विणइत्ता कणगकेउस्स रण्णे उवणेति।
तत्पश्चात् कनककेतु राजा ने अश्वमर्दकों (अश्वपालों) को बुलाया और उनसे कहा-'देवानुप्रियो! तुम मेरे अश्वों को विनीत करो-प्रशिक्षित करो।'
. तब अश्वमर्दकों ने बहुत अच्छा' कहकर राजा का आदेश स्वीकार किया। स्वीकार करके उन्होंने उन अश्वों को मुख बाँधकर, कान बाँधकर, नाक बाँधकर, झौंरा (पूछ के बालों का अग्रभाग) बाँधकर, खुर बाँधकर. कटक बाँधकर. चौकडी चढाकर. तोबरा चढाकर. पटतानक (पलान के नीचे का पट्टा) लगा कर, खस्सी करके, वेलाप्रहार करके, बेंतों का प्रहार करके, लताओं का प्रहार करके, चाबुकों का प्रहार करके तथा चमड़े के कोड़ों का प्रहार करके विनीत किया-प्रशिक्षित किया। विनीत करके वे राजा कनककेतु के पास ले आये।
२८-तए णं से कणगकेऊ ते आसमद्दए सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारित्ता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। तए णं ते आसा बहूहिं मुहबंधेहि य जाव छिवप्पहारेहि य बहूणि सारीरमाणसाणि दुक्खाइं पावेंति।
तत्पश्चात् कनककेतु ने उन अश्वमर्दकों का सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया। उसके बाद वे अश्व-मुखबंधन से यावत् चमड़े के चाबुकों के प्रहार से बहुत शारीरिक और मानसिक दुःखों को प्राप्त हुए।
२९–एवामेव समणाउसो! जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा पव्वइए समाणे इवेंसु सद्द-फरिस-रस-रुव-गंधेसु सज्जति, रजति, गिज्झति, मुज्झति, अज्झोववजति, से णं इह लोगे चेव बहूणं समणाय य जाव सावियाण य हीलणिज्जे जाव [चाउरंतसंसारकंतारं भुजो भुजो] अणुपरियट्टिस्सइ।
___ इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो निर्ग्रन्थ या निग्रंथी दीक्षित होकर प्रिय शब्द स्पर्श रस रूप और गंध में गृद्ध होता है, मुग्ध होता है और आसक्त होता है, वह इसी लोक में बहुत श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों तथा श्राविकाओं की अवहेलना का पात्र होता है, चातुर्गतिक संसारअटवी में पुनः-पुनः भ्रमण करता है।