Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[४३७ उस काल और उस समय में, हस्तिनापुर नगर में युधिष्ठिर राजा द्रौपदी देवी के साथ महल की छत पर सुख से सोया हुआ था।
१५२-तए णं से पुव्वसंगतिए देवे जेणेव जुहिट्ठिले राया, जेणेव दोवई देवी, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दोवईए देवीए ओसोवणियं दलयइ, दलइत्ता दोवई देविं गिण्हइ, गिण्हित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए जेणेव अमरकंका, जेणेव पउमणाभस्स भवणे, तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पउमणाभस्स भवणंसि असोगवणियाए दोवई देविं ठावेइ, ठावित्ता
ओसोवणिं अवहरइ, अवहरित्ता जेणेव पउमणाभेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता एवं वयासी'एस णं देवाणुप्पिया! मए हथिणाउराओ दोवई देवी इह हव्वमाणीया, तव असोगवणियाए चिट्ठइ, अतो परं तुमं जाणसि'त्ति कटु जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए।
उस समय वह पूर्वसंगतिक देव जहाँ राजा युधिष्ठिर था और जहाँ द्रौपदी देवी थी, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर उसने द्रौपदी देवी को अवस्वापिनी निद्रा दी-अवस्वापिनी विद्या से निद्रा में सुला दिया। द्रौपदी देवी ग्रहण करके, देवोचित उत्कृष्ट गति से अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ के भवन में आ पहुँचा। आकर पद्मनाभ के भवन में, अशोकवाटिका में, द्रौपदी देवी को रख दिया। रख कर अवस्वापिनी विद्या का संहरण किया। संहरण करके जहाँ पद्मनाभ था, वहाँ आया। आकर इस प्रकार बोला-'देवानुप्रिय! मैं हस्तिनापुर से द्रौपदी देवी को शीघ्र ही यहाँ ले आया हूँ। वह तुम्हारी अशोकवाटिका में है। इससे आगे तुम जानो।' इतना कह कर वह देव जिस ओर से आया था उसी ओर लौट गया।
___ विवेचन-प्रस्तुत आगम में तथा अन्य अन्य कथानकप्रधान आगमों में भी जहाँ गति की तीव्रता प्रदर्शित करना अभीष्ट होता है, वहाँ गति के साथ कोई विशेषण लगाया गया है। यहाँ 'उक्किट्ठाए देवगईए' में 'देव' यह विशेषण है। इसका अभिप्राय यह है कि तीव्र और मन्द, ये शब्द सापेक्ष हैं। इन शब्दों से किसी नियत अर्थ का बोध नहीं होता। एक बालक अथवा अतिशय वृद्ध की अपेक्षा जो गति तीव्र कही जा सकती है, वही एक बलवान् युवा की अपेक्षा मन्द भी हो सकती है। साइकिल की तीव्र गति मोटर की अपेक्षा मन्द है और वायुयान की अपेक्षा मोटर की गति मन्द है। अतएव तीव्रता की विशेषता दिखलाने के लिए ही यहाँ 'उत्कृष्ट देवगति से' ऐसा कहा गया है। तात्पर्य यह है कि यहाँ देवगति की अपेक्षा से ही तीव्रता समझना चाहिए, मेंढक या मनुष्यादि की अपेक्षा से नहीं। अन्यत्र भी यही आशय समझना चाहिए।
१५३-तए णंसा दोवई देवी तओ मुहत्तंतरस्स पडिबुद्ध समाणीतं भवणं असोगवणियं च अपच्चभिजाणमाणी एवं वयासी-नो खलु अम्हं एस सए भवणे, णो खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण णजइ णं अहं केणई देवेण वा, दाणवेण वा, किंपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा, गंधव्वेण वा, अन्नस्स रण्णो असोगवणियंसाहरिय'त्ति कटुं ओहयमणसंकप्पा जाव झियायइ।
तत्पश्चात् थोड़ी देर में जब द्रौपदी देवी की निद्रा भंग हुई तो वह अशोकवाटिका को पहचान न सकी। तब मन ही मन कहने लगी-'यह भवन मेरा अपना नहीं है, वह अशोकवाटिका मेरी अपनी नहीं है। न जाने किस देव ने, दानव ने, किंपुरुष ने, किन्नर ने, महोरग ने, या गन्धर्व ने किसी दूसरे राजा की अशोकवाटिका में मेरा संहरण किया है। इस प्रकार विचार करके वह भग्न-मनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने लगी।