Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[४३९ करके श्रीकृष्ण का उल्लेख किया। उसकी चारित्रिक दृढ़ता में संदेह करने का कोई कारण नहीं है। सूत्रकार ने देवता के मुख से भी यही कहलवा दिया है कि द्रौपदी पाण्डवों के सिवाय अन्य पुरुष की कामना त्रिकाल में भी नहीं कर सकती। वह तो किसी युक्ति से श्रीकृष्ण के आने तक समय निकालना चाहती थी। उसकी युक्ति काम कर गई।
उधर पद्मनाभ ने बड़ी सरलता से द्रोपदी की बात मान्य कर ली। इसका कारण उसका यह विश्वास रहा होगा कि कहाँ जम्बूद्वीप और कहाँ धातकीखंडद्वीप! दोनों द्वीपों के बीच दो लाख योजन के महान् विस्तार वाला लवणसमुद्र है। प्रथम तो श्रीकृष्ण को पता ही नहीं चलेगा कि द्रौपदी कहाँ है! पता भी चला तो उनका यहाँ पहुँचना असंभव है।
अपने इस विश्वास के कारण पद्मनाभ ने द्रौपदी की शर्त आनाकानी किए बिना स्वीकार कर ली। इसके अतिरिक्त कामान्ध पुरुष की विवेकशक्ति भी नष्ट हो जाती है। द्रौपदी की गवेषणा
__१५७–तए णं से जुहिट्ठिले राया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धे समाणे दोवइं देविं पासे अपासमाणी सयणिज्जाओ उढेइ, उठ्ठित्ता दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, करित्ता दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खुइं वा पवित्तिं वा अलभमाणे जेणेव पंडुराया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पंडुरायं एवं वयासी
इधर द्रौपदी का हरण हो जाने के पश्चात् थोड़ी देर में युधिष्ठिर राजा जागे। वे द्रौपदी देवी को अपने पास न देखते हुए शय्या से उठे। उठकर सब तरफ द्रौपदी देवी की मार्गणा-गवेषणा करने लगे। किन्तु द्रौपदी देवी की कहीं भी श्रुति (शब्द), क्षुति (छींक वगैरह) या प्रवृत्ति (खबर) न पाकर जहाँ पाण्डु राजा थे वहाँ पहुँचे। वहाँ पहुँचकर पाण्डु राजा से इस प्रकार बोले
१५८–एवं खलु ताओ! ममं आगासतलगंसि पसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी न णज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेन वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा गंधव्वेण वा, हिया वा, णीया वा, अवक्खित्ता वा? इच्छामि णं ताओ! दोवईए देवीए सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए।
हे तात! मैं आकाशतल (अगासी) पर सो रहा था। मेरे पास से द्रौपदी देवी को न जाने कौन देव, दानव, किन्नर, महोरग अथवा गंधर्व हरण कर गया, ले गया या खींच ले गया! तो हे तात! मैं चाहता हूँ कि द्रौपदी देवी की सब तरफ मार्गणा की जाय।
१५९-तएणं से पंडुराया कोडुंबियपुरिसेसद्दावेइ, सद्दावित्ताएवंवयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया!हत्थिणाउरे नयरे सिंघाडग-तिय-चउक्क-चच्चर-महापह-पहेसु महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणा उग्घोसेमाणा एवंवदह-एवंखलुदेवाणुप्पिया! जुहिट्ठिल्लस्सरण्णो आगासतलगंसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवई देवी नणज्जइ केणइ देवेण वा, दाणवेण वा, किंपुरिसेण वा, किन्नरेण वा, महोरगेण वा, गंधव्वेण वा हिया वा नीया वा अवक्खित्ता वा? तं जो णं देवाणुप्पिया! दोवईए देवीए सुई वा खुइं वा पवितिं वा परिकहेइ तस्स णं पंडुराया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ'त्ति कटु घोसणं घोसवेह, घोसावित्ता एयामाणत्तियं पच्चप्पिणह।'