Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[३९९
प्रकार-श्वास कास योनिशूल यावत् कोढ़। तत्पश्चात् नागश्री ब्राह्मणी सोलह रोगातंकों से पीड़ित होकर अतीव दुःख के वशीभूत होकर, कालमास में काल करके छठी पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की स्थिति वाले नारक के रूप में उत्पन्न हुई।
३०-सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता मच्छेसु उव्वन्ना, तत्थ णं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए कालमासे कालं किच्चा अहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसाए तित्तीससागरोवमठिइएसु नेरइएसु उववन्ना।
___ तत्पश्चात् नरक से सीधी निकल कर वह नागश्री मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई-उसका वध शस्त्र से किया गया। अतएव दाह की उत्पत्ति से कालमास में काल करके, नीचे सातवीं पृथ्वी (नरकभूमि) में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारक पर्याय में उत्पन्न हुई।
___३१-सा णं तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता दोच्चं पिमच्छेसु उववजइ, तत्थ वियणं सत्थवज्झा दाहवक्कंतीए दोच्चं पिअहे सत्तमीए पुढवीए उक्कोसंतेत्तीससागरोवमठिइएसुनेरइएसुउववज्जइ।
तत्पश्चात् नागश्री सातवीं पृथ्वी से निकल कर सीधी दूसरी बार मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी उसका शस्त्र से वध किया गया और दाह की उत्पत्ति होने से मृत्यु को प्राप्त होकर पुनः नीचे सातवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की आयु वाले नारकों में उत्पन्न हुई।
३२-सा णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता तच्चं पिमच्छेसु उववन्ना, तत्थ वियणं सत्थवज्झा जाव कालं किच्चा दोच्चं पिछट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु उववन्ना।
सातवीं पृथ्वी से निकल कर तीसरी बार भी मत्स्ययोनि में उत्पन्न हुई। वहाँ भी वह शस्त्र से वध करने योग्य हुई। यावत् काल करके दूसरी बार छठी पृथ्वी में बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु वाले नारकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई।
३३-तओऽणंतरं उव्वट्टित्ता उरएसु, एवं जहा गोसाले तहा नेयव्वं जाव रयणप्पहाए सत्तसु उववन्ना। तओ उववट्टित्ता जाव इमाइं खहयरविहाणाइं जाव अदुत्तरं च णं खरबायरपुढविकाइयत्ताए तेसु अणेगसयसहस्सखुत्तो।
वहाँ से निकलकर वह उरगयोनि में उत्पन्न हुई। इस प्रकार जैसे गोशालक के विषय में (भगवतीसूत्र में) कहा है, वही सब वृत्तान्त यहाँ समझना चाहिए, यावत् रत्नप्रभा आदि सातों नरक भूमियों में उत्पन्न हुई। वहाँ से निकल कर यावत् खेचरों की विविध योनियों में उत्पन्न हुई। तत्पश्चात् खर (कठिन) बादर पृथ्वीकाय के रूप में अनेक लाख बार उत्पन्न हई।
विवेचन-नागश्री ने जो पाप किया वह असाधारण था। धर्मरुचि एक महान् संयमनिष्ठ साधु थे। जगत् के समस्त प्राणियों को आत्मवत् जानने वाले, करुणा के सागर थे। कीड़ी जैसे क्षुद्र प्राणियों की रक्षा के लिए जिन्होंने शरीरोत्सर्ग कर दिया, उनसे अधिक दयावान् अन्य कौन होगा? अन्तिम समय में भी उनका समाधिभाव खंडित नहीं हुआ। उन्होंने आलोचना प्रतिक्रमण किया और समाधिभाव में स्थिर रहे। चित्त की शान्ति और समता को यथावत् अखंडित रखा। नागश्री ब्राह्मणी के प्रति लेशमात्र भी द्वेषभाव उनके मन में नहीं
१. देखो नन्दन मणियार अध्ययन