Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
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है। जान पड़ता है कि दोनों पाठों में से किसी एक में पद आगे-पीछे हो गए हैं। या तो संक्षिप्त पाठ में 'जाव सुद्धागणी इ वा' होना चाहिए अथवा विस्तृत पाठ में 'मुम्मुरे इ वा' शब्द अन्त में होना चाहिए। टीका वाली प्रति में भी यहाँ गृहीत संक्षिप्त पाठ के अनुसार ही पाठ है। इस व्यतिक्रम को लक्ष्य में रखकर यहां विस्तृत पाठ कोष्ठक में न देकर विवेचन में दिया गया है। विस्तृत पाठ के शब्दों का भावार्थ इस प्रकार है
सुकुमालिका के हाथ का स्पर्श ऐसा था कि (मानो तलवार हो), करोंत हो, छुरा हो, कदम्बचीरिका हो, शक्ति नामक शस्त्र का अग्रभाग हो, भिंडिमाल शस्त्र का अग्रभाग हो, सुइयों का समूह हो-अनेक सुइयों की नोंकें हों, बिच्छू का डंक हो, कपिकच्छू-एक दम खुजली उत्पन्न करने वाली वनस्पति-करेंच हो, अंगार (ज्वालारहित अग्निकण) हो, मुर्मुर (अग्निमिश्रित भस्म) हो, अर्चि (ईंधन से लगी अग्नि) हो, ज्वाला (ईंधन से पृथक् ज्वाला-लपट) हो, अलात (जलती लकड़ी) हो या शुद्धाग्नि (लोहे के पिण्ड के अन्तर्गत अग्नि) हो।
क्या सुकुमालिका के हाथ का स्पर्श वास्तव में ऐसा था? · नहीं, इनसे भी अधिक अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम था।
४७-सए णं से सागरदत्ते सत्थवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मित्तणाइ [नियगसयणसंबन्धि-परियणं] विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुष्फवत्थ जाव [गंधमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता] संमाणेत्ता पडिविसजेइ।
तए णं सागरए दारए सुमालियाए सद्धिं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धिं तलिगंसि निवजइ।
तत्पश्चात् सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों आत्मीय जनों, स्वजनों, संबन्धियों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र [गंध, माला, अलंकार से सत्कृत एवं] सम्मानित करके विदा किया।
तत्पश्चात् सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह (शयनागार) था, वहाँ आया। आकर सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया-लेटा।
४८-तएणं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासंपडिसंवेदेइ, से जहानामए असिपत्ते इ वा जाव' अमणामयरागंचेव अंगफासं पच्चणुभवमाणे विहरइ। तए णं से सागरए दारए अंगफासं असहमाणे अवसव्वसे महत्तमित्तं संचिट्टइ।तएणंसेसागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सुमालियाए दारियाए पासाओ उढेइ, उद्वित्ता जेणेव सए सयणिजे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ।
उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि। वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श को अनुभव करता रहा। तत्पश्चात् सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हुआ, विवश होकर, मुहूर्त्तमात्र-कुछ समय तक-वहाँ रहा। फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उठा और जहाँ अपनी
१. अ. १६ सूत्र ४६