Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी]
[४२७ ११९-तएणं तंदोवइंरायवरकन्नं अंतेउरियाओसव्वालंकारविभूसियं करेंति, किंते? वरपायपत्तणेउरा जाव' चेडिया-चक्कवाल-मयहरग-विंदपरिक्खित्ता अंतेउराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्टाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड्डावियाए लेहियाए सद्धि चाउग्घंटं आसरहं दुरूहइ।
तत्पश्चात् अन्त:पुर की स्त्रियों ने राजवरकन्या द्रौपदी को सब अलंकारों से विभूषित किया। किस प्रकार? पैरों में श्रेष्ठ नूपुर पहनाए, (इसी प्रकार सब अंगों में भिन्न-भिन्न आभूषण पहनाए) यावत् वह दासियों के समूह से परिवृत होकर अन्तःपुर से बाहर निकली। बाहर निकलकर जहाँ बाह्य उपस्थानशाला (सभा) थी और जहाँ चार घंटाओं वाला अश्वरथ था, वहाँ आई। आकर क्रीड़ा कराने वाली धाय और लेखिका (लिखने वाली) दासी के साथ चार घंटा वाले रथ पर आरूढ़ हुई।
_१२०–तए णं धट्टज्जुण्णे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ। तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झमझेणंजेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेह, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहिता किड्डावियाए लेहिगाए य संद्धिं सयंवरमंडवं अणुपविसइ, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट तेसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ।
___ उस समय धृष्टद्युम्न-कुमार ने द्रौपदी का सारथ्य किया, अर्थात् सारथी का कार्य किया। तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी कांपिल्यपुर नगर के मध्य में होकर जिधर स्वयंवर-मंडप था, उधर पहुँची। वहाँ पहुँच कर रथ रोका गया और रथ के नीचे उतरी। नीचे उतर कर क्रीड़ा कराने वाली धाय और लेखिका दासी के साथ उसने स्वयंवरमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके वासुदेव प्रभृति बहुसंख्यक हजारों राजाओं को प्रणाम किया।
१२१-तए णं सा दोवई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंडं, किं ते? पाउल-मल्लियचंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधद्धणिं मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिजं गिण्हइ।
तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी ने एक बड़ा श्रीदामकाण्ड (सुशोभित मालाओं का समूह) ग्रहण किया। वह कैसा था? पाटल, मल्लिका, चम्पक आदि यावत् सप्तपर्ण आदि के फूलों से गूंथा हुआ था। अत्यन्त गंध को फैला रहा था। अत्यन्त सुखद स्पर्श वाला था और दर्शनीय था।
१२२-तए णं सा किड्डाविया सुरूवा जाव [साभावियघंसं चोद्दहजणस्स उस्सुयकरं विचित्तमणि-रयणवद्धच्छरुहं] वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पसंकेतबिंबसंदंसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसिए पवररायसीहे। फुड-विसय-विसुद्ध-रिभिय-गंभीरमहुर-भणिया सा तेसिं सव्वेसिंपत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंस-सत्त-सामत्थ-गोत्त-विक्कंति-कंतिबहुविहआगम-माहप्प-रूव-जोव्वणगुण-लावण्ण-कुल-सील-जाणिया कित्तणं करेइ।
तत्पश्चात् उस क्रीड़ा कराने वाली यावत् सुन्दर रूप वाली धाय ने बाएँ हाथ में चिलचिलाता हुआ दर्पण लिया [वह दर्पण स्वाभाविक घर्षणा से युक्त एवं तरुण जनों में उत्सुकता उत्पन्न करने वाला था। उसकी