Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ]
दारिका के साथ वासगृह में प्रविष्ट हुआ और सुकुमालिका दारिका के साथ एक शय्या में सोया ।
उस समय उस द्रमक पुरुष ने सुकुमालिका के अंगस्पर्श को उसी प्रकार अनुभव किया। शेष वृत्तान्त सागरदारक के समान समझना चाहिए। यावत् वह शय्या से उठा । उठ कर शयनागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर अपना वही सिकोरे का टुकड़ा और घड़े का टुकड़ा ले करके जिधर से आया था, उधर ही ऐसा चला गया मानो किसी कसाईखाने से मुक्त हुआ हो या मरने वाले पुरुष से छुटकारा पाकर काक भागा हो।
'वह द्रमक पुरुष चल दिया।' यह सोचकर सुकुमालिका भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता करने
लगी ।
६६ - तए णं सा भद्दा कल्लं पाउप्पभायाए दासचेडिं सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासीजाव सागरदत्तस्स एयमट्ठे निवेदेइ। तए णं से सागरदत्ते तहेव संभंते समाणे जेणेव वासहरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं अंके निवेसेइ, निवेसित्ता एवं वयासी - अहो णं तुमं पुत्ता ! पुरापोराणाणं जाव [ दुच्चिण्णाणं दुप्पराकंताणं कडाण पावाणं कम्माणं पावं फलवित्तिविसेसं ] पच्चणुब्भवमाणी विहरसि, तं मा णं तुमं पुत्ता ! ओहयमणसंकप्पा जाव झियाहि, तुमं णं पुत्ता! मम महाणसंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा पोट्टिला' जाव परिभाएमाणी विहराहि ।'
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तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने दूसरे दिन प्रभात होने पर दासचेटी को बुलाया। बुलाकर पूर्ववत् कहा - सागरदत्त के प्रकरण में कथित दातौन- पानी ले जाने आदि का वृत्तान्त यहाँ जानना चाहिए। यहाँ तक कि दासचेटी ने सागरदत्त सार्थवाह के पास जाकर यह अर्थ निवेदन किया। तब सागरदत्त उसी प्रकार संभ्रान्त होकर वासगृह में आया। आकर सुकुमालिका को गोद में बिठलाकर कहने लगा- 'हे पुत्री ! तू पूर्वजन्म में किये हिंसा आदि दुष्कृत्यों द्वारा उपार्जित पापकर्मों का फल भोग रही है। अतएव बेटी ! भग्नमनोरथ होकर यावत् चिन्ता मत कर । हे पुत्री मेरी भोजनशाला में तैयार हुए विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य आहार को - पोट्टिला की तरह कहना चाहिए - यावत् श्रमणों आदि को देती हुई रह ।
सुकुमालिका की दानशाला
६७ - तए णं सा सूमालिया दारिया एयमठ्ठे पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता महासंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं जाव दलमाणी विहरइ |
ते काणं तेणं समएणं गोवालियाओ अज्जाओ बहुस्सुयाओ एवं जहेव तेयलिणाए सुव्वयाओ तहेव समोसढाओ, तहेव संघाडओ जाव अणुपविट्ठे, तहेव जाव सूमालिया पडिलाभित्ता एवं वयासी - ' एवं खलु अज्जाओ ! अहं सागरस्स अणिट्ठा जाव अमणामा, नेच्छइ णं सागरए मम नामं वा जाव परिभोगं वा, जस्स जस्स वि य णं दिज्जामि तस्स तस्स वि य णं अणिट्ठा जाव अमणामा भवामि, तुब्भे य णं अज्जाओ! बहुनायाओ, एवं जहा पोट्टिला जाव उवलद्धे जेणं अहं सागरस्स दारगस्स इट्ठा कंता जाव भवेज्जामि । '
१ - २. देखिए तेतलिपुत्र अध्ययन १४