Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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कटुक
३९८]
[ज्ञाताधर्मकथा वशीभूत हो गए] और मिसमिसाने (जलने) लगे। वे वहीं जा पहुंचे जहाँ नागश्री थी। उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा
___ 'अरी नागश्री! अप्रार्थित (मरण) की प्रार्थना करने वाली! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने! अभागिनी! अतीव दुर्भागिनी! निंबोली के समान
! तझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साध और साध रूप धारी को मासखमण के पारणक में शरद सम्बन्धी यावत् विषैला शाक बहरा कर मार डाला!'
___ इस प्रकार कह कर उन ब्राह्मणों ने ऊँचे-नीचे आक्रोश (तू मर जा, आदि) वचन कह कर आक्रोश किया अर्थात् गालियाँ दीं, ऊँचे-नीचे उद्धंसना वचन (तू नीच कुल की है, आदि) कह कर उद्धंस्सना की, ऊँचेनीचे भर्त्सना वचन (निकल जा हमारे घर से, आदि) कहकर भर्त्सना की तथा ऊँचे-नीचे निश्छोटन वचन (हमारे गहने, कपड़े उतार दे, इत्यादि) कह कर निश्छोटना की, 'हे पापिनी तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की। इस प्रकार तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से निकाल दिया।
२८-तए णंसा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडगतिय-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहूजणेणं हीलिजमाणी खिंसिजमाणी निंदिजमाणी गरहिजमाणी तजिजमाणी पव्वहिजमाणी धिक्कारिजमाणी थक्कारिजमाणी कत्थड ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडीखंडनिवसनाखंडमल्लग-खंडघडग-हत्थगया फुट्ट-हडाहडसीसा मच्छियाचडगरेणं अनिजमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं-बलियाए वित्तिं कप्पेमाणी विहरइ।
तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से निकली हुई चम्पानगरी में शृंगाटकों (सिंघाड़े के आकार के मार्गों) में, त्रिक (तीन रास्ते जहाँ मिलते हों ऐसे मार्गों) में, चतुष्क (चौकों) में, चत्वरों (चबूतरों) तथा चतुर्मुख (चार द्वार वाले देवकुल आदि) में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सा (बुराई) की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हुई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने को स्थान पा सकी। टुकड़े-टुकड़े साँधे हुई वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हाथ में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों के झुंड भिन-भिना रहे थे, ऐसी वह नागश्री घर-घर देहबलि (अपने-अपने घरों पर फैंकी हुई बलि) के द्वारा अपनी जीविका चलाती हुई-पेट पालती हुई भटकने लगी।
२९-तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए तब्भंवसि चेव सोलसरोगायंका पाउब्भूया, तंजहा-सासे कासे जोणिसूले जाव कोढे।तएणं नागसिरी माहणी सोलसेंहि रोगायंकेहिं अभिभूया समाणी अट्टदुहट्टवसट्टा कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्सोसेणं बावीससागरोवमठिइएसु नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ना।
तदनन्तर उस नागश्री ब्राह्मणी को उसी (वर्तमान) भव में सोलह रोगातंक उत्पन्न हुए। वे इस