Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३०२]
[ज्ञाताधर्मकथा विहसित (मुस्कराहट) को कटाक्षों को, कामक्रीडाजनित निःश्वासों को, स्त्री के इच्छित अंग के मर्दन को, उपललित (विशेष प्रकार की क्रीड़ा) को, स्थित (गोद में या भवन में बैठने) को, गति को, प्रणय-कोप को तथा प्रसादित (कुपित को रिझाने) को स्मरण करते हुए जिनरक्षित की मति राग से मोहित हो गई। वह विवश हो गया-अपने पर काबू न रख सका, कर्म के अधीन हो गया और वह लज्जा के साथ पीछे की ओर उसके मुख की तरफ देखने लगा।
५७-तए णं जिणरक्खियं समुप्पत्रकलुणभावं मच्चु-गलत्थल्ल-णोल्लियमई अवयक्खंतं तहेव जक्खे उ सेलए जाणिऊण सणियं सणियं उव्विहइ नियगपिट्ठाहि विगयसत्थं ।
तत्पश्चात् जिनरक्षित को देवी पर अनुराग उत्पन्न हुआ, अतएव मृत्यु रूपी राक्षस ने उसके गले में हाथ डालकर उसकी मति फेर दी, अर्थात् उसकी बुद्धि मृत्यु की तरफ जाने की हो गई। उसने देवी की ओर देखा, यह बात शैलक यक्ष ने अवधिज्ञान से जान ली और (चित्त की) स्वस्थता से रहित उसको धीर-धीरे अपनी पीठ से गिरा दिया।
विवेचन-देवी ने जिनपालित और जिनरक्षित को पहले कठोर वचनों से और फिर कोमल, लुभावने वचनों से अपने अनुकूल करने का यत्न किया। कठोर वचन प्रतिकूल उपसर्ग के और कोमल वचन अनुकूल उपसर्ग के द्योतक हैं। कथानक से स्पष्ट है कि मनुष्य प्रतिकूल उपसर्गों को तो प्रायः सरलता से सहन कर लेता है किन्तु अनुकूल उपसर्गों को सहन करना अत्यन्त दुष्कर है। जिनपालित की भाँति दृढ़मनस्क साधक दोनों प्रकार के उपसर्गों के उपस्थित होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा पर अचल-अटल रहते हैं, किन्तु अल्पसत्त्व साधक अनुकूल उपसर्गों के आने पर जिनरक्षित की तरह भ्रष्ट हो जाते हैं। अतएव साधक को अनुकूल उपसर्गों को अतिदुस्सह समझकर उनसे अधिक सतर्क रहना चाहिए।
रत्नद्वीप की देवी सम्पूर्ण रूप से विषयान्ध थी। उसके दिल में सार्थवाहपुत्रों के प्रति प्रेम, ममता की भावना नहीं थी, वह उन्हें मात्र वासनातृप्ति का साधन मानती थी। इससे स्पष्ट है कि वैषयिक अनुराग का सर्वस्व मात्र स्वार्थ है। इसमें दया-ममता नहीं होती, अन्यथा वह जिनरक्षित के, जैसा कि आगे निरूपण किया गया है, तलवार से टुकड़े-टुकड़े क्यों करती? उसकी स्वार्थान्धता और क्रूरता इन और अगले पाठ से स्पष्ट हो जाती है। विषयवासना की अनर्थकारिता का यह स्पष्ट उदाहरण है।
५८-तएणं सा रयणदीवदेवया निस्संसा कलुणं जिणरक्खियं सकलुसा सेलगपिट्ठाहि उवयंतं 'दास! मओसि'त्ति जंपमाणी, अप्पत्तं सागरसलिलं, गेण्हिय बाहाहिआरसंतं उड्ढं उव्विहइ अंबरतले, ओवयमाणं च मंडलग्गेण पडिच्छित्ता नीलुप्पल-गवल-अयसिप्पगासेण असिवरेणं खंडाखंडिं करेइ, करित्ता तत्थ विलवमाणं तस्स य सरसवहियस्स घेत्तूण अंगमंगाई सरुयिराइं उक्खित्तबलिं चउद्दिसिं करेइ सा पंजली पहिट्ठा।
तत्पश्चात् उस निर्दय और पापिनी रत्नद्वीप की देवी ने दयनीय जिनरक्षित को शैलक की पीठ से गिरता देख कर कहा-'रे दास! तू मरा।' इस प्रकार कह कर, समुद्र के जल तक पहुँचने से पहले ही, दोनों हाथों से पकड़ कर, चिल्लाते हुए जिनरक्षित को ऊपर उछाला। जब वह नीचे की ओर आने
१. पाठान्तर-विगयसड्ढो