Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ ज्ञाताधर्मकथा
२२ – तए णं रायगिहे णयरे इमेयारूवं घोसणं सोच्चा णिसम्म बहवे वेज्जा व वेज्जपुत्ता य जाव कुसलपुत्ता य सत्थकोसहत्थगया य सिलियाहत्थगया य गुलियाहत्थगया य ओसहभेसज्ज - हत्थगया य सएहिं सएहिं गेहेहिंतो निक्खमंति, निक्खमित्ता रायगिहं मज्झमज्झेणं जेणेव णंदस्स मणियारसेट्ठिस्स गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता णंदस्स मणियारसेट्ठिस्स सरीरं पासंति, सिं रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, णंदस्स मणियारसेट्ठिस्स बहूहिं उव्वलणेहि य उव्वट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासहि य वत्थकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुढ (ट) वाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य सिलिया गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसिं सोलसण्हं रोगायंकाणं गमवि रोगायंके उवसामित्तए । नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए ।
राजगृहनगर में इस प्रकार की घोषणा सुनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यात् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश (शस्त्रों की पेटी) लेकर, शिलिका (शस्त्रों को तीखा करने का पाषाण) हाथ में लेकर, गोलियाँ हाथ में लेकर और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से निकले। निकल कर राजगृह के बीचोंबीच होकर नंद मणिकार के घर आए। उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा और नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा। फिर उद्वलन ( एक विशेष प्रकार के लेप) द्वारा, उद्वर्तन (उबटन जैसे लेप) द्वारा, स्नेह पान ( औषधियाँ डाल कर पकाये हुए घी-तेल आदि) द्वारा, वमन द्वारा, विरेचन द्वारा, स्वेदन से ( पसीना निकाल कर ), अवदहन से (डाम लगा कर), अपस्नान (जल में चिकनापन दूर करने वाली वस्तुएँ मिलाकर किये हुए स्नान) से, अनुवासना से (गुदामार्ग से चमड़े के यंत्र द्वारा उदर में तेल आदि पहुँचा कर) वस्तिकर्म से (गुदा में बत्ती आदि डाल कर भीतरी सफाई करके), निरूह द्वारा (चर्मयंत्र का प्रयोग करके, अनुवासना की तरह गुदामार्ग से पेट में कोई वस्तु पहुँचा कर), शिरावेध से (नस काट कर रक्त निकालकर या रक्त ऊपर से डाल कर ), तक्षण से (छुरा आदि से चमड़ी आदि छील कर ), प्रक्षण (थोड़ी चमड़ी काटने से, शिरावेष्ट से ( मस्तक पर बांधे चमड़े पर पकाए हुए तेल आदि के सिंचन से), तर्पण (स्निग्ध पदार्थों के चुपड़ने से, पुटपाक (आग में पकाई औषधों) से, पत्तों से, रोहिणी आदि की छालों से, गिलोय आदि वेलों से, मूलों से, कंदों से, पुष्पों से, फलों से, बीजों से, शिलिका (घासविशेष) से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से (अनेक औषधें मिला कर तैयार की हुई दवाओं) से, उन सोलह रोगातंकों में से एकएक रोगातंक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगातंक को शान्त करने में समर्थ न हो सके।
विवेचन - प्राचीन काल में आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति कितनी विकसित थी, चिकित्सा के कितने रूप प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट विदित किया जा सकता है। आयुर्वेद का इतिहास लिखने में यह उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है । आधुनिक ऍलोपैथी के लगभग सभी रूप इसमें समाहित हो जाते हैं, यही नहीं बल्कि अनेक रूप तो ऐसे भी हैं जो आधुनिक पद्धति में भी नहीं पाये जाते । इससे स्पष्ट है कि आधुनिक यन्त्रों के अभाव में भी आयुर्वेद खूब विकसित हो चुका था।