Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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३५८]
[ज्ञाताधर्मकथा
असणपाणखाइमसाइमेणं पुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता सम्माणित्ता पडिविसज्जेइ।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने पोट्टिला दारिका को भार्या के रूप में आई हुई देखा। देखकर वह पोट्टिला के साथ पट्ट पर बैठा। बैठ कर श्वेत-पीत (चांदी-सोने के) कलशों से उसने स्वयं स्नान किया। स्नान करके अग्नि में होम किया। तत्पश्चात् पोट्टिला भार्या के मित्रजनों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों का अशन पान खादिम स्वादिम से तथा पुष्प वस्त्र गंध माला और अलंकार आदि से सत्कार-सम्मान करके उन्हें विदा किया।
१४–तए णं से तेयलिपुत्ते, पोट्टिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरालाइं जाव [माणुस्साई भोगभोगाइं भुंजमाणे] विहरइ।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अमात्य पोट्टिला भार्या में अनुरक्त होकर, अविरक्त-आसक्त होकर उदार यावत् [मानव सम्बन्धी भोगने योग्य भोग भोगता] हुआ रहने लगा।
१५-तए णं से कणगरहे राया रज्जे य रठे य बले य वाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे य मुच्छिए गढिए गिद्धे अन्झोववण्णे जाए जाए पुत्ते वियंगेइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुलियाओ छिंदइ, अप्पेगइयाणं हत्थंगुट्ठए छिंदइ, एवं पायंगुलियाओ पायंगुट्ठए वि कन्नसक्कुलीए वि नासापुडाई फालेइ, अंगमंगाई वियंगेइ।
कनकरथ राजा राज्य में, राष्ट्र में, बल (सेना में), वाहनों में, कोष में, कोठार में तथा अन्त:पुर में अत्यन्त आसक्त था, लोलुप-गृद्ध और लालसामय था। अतएव वह जो-जो पुत्र उत्पन्न होते उन्हें विकलांग कर देता था। किन्हीं की हाथ की अंगुलियाँ काट देता, किन्हीं के हाथ का अंगूठा काट देता, इसी प्रकार किसी के पैर की अंगुलियाँ, पैर का अंगूठा, कर्णशष्कुली (कान की पपड़ी) और किसी का नासिकापुट काट देता था। इस प्रकार उसने सभी पुत्रों को अवयवविकल-विकलांग कर दिया था।
विवेचन-कनकरथ को भय था कि यदि मेरा कोई पुत्र वयस्क हो गया तो संभव है वह मुझे सत्ताच्युत करके स्वयं राजसिंहासन पर आसीन हो जाए। मगर विकलांग पुरुष राजसिंहासन का अधिकारी नहीं हो सकता था। अतएव वह अपने प्रत्येक पुत्र को अंगहीन बना देता था।
राज्यलोलुपता अथवा सत्ता के प्रति आसक्ति जब अपनी सीमा का उल्लंघन कर जाती है तब कितनी अनर्थजनक हो जाती है और सत्तालोलुप मनुष्य को अध:पतन की किस सीमा तक ले जाती है, कनकरथ राजा इस सत्य का ज्वलन्त उदाहरण है। राज्यलोभ ने उसे विवेकान्ध बना दिया था और वह मानो स्वयं को अजरअमर मान रहा था।
१६-तए णं तीसे पउमावईए देवीए अन्नया पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अयमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जिथा एवं खलु कणगरहे राया रज्जे य जाव' पुत्ते वियंगेइ जाव' अंगमंगाई वियंगेइ, तं जइ अहं दारयं पयायामि, सेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं चेव
१. अ. १४ सूत्र १५
२. अ. १४ सूत्र १५