Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ ज्ञाताधर्मकथा
देवाप्पिया! अम्हं इमे विपुले धण जाव [ कणग-रयण-मणि-मोत्तिय संख-सिल-प्पवालरत्तरयण-संत-सार ] सावतेज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तुं, पकामं परिभाएउं, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाकल्लिं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेउं उवक्खडेउं परिभुंजेमाणाणं विहरित्तए ।
किसी समय, एक बार एक साथ मिले हुए [ साथ ही बैठे हुए] उन तीनों ब्राह्मणों में इस प्रकार का समुल्लाप (वार्तालाप) हुआ - 'देवानुप्रियो ! हमारे पास यह प्रभूत धन यावत् [ कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लाल आदि सारभूत] स्वापतेय-द्रव्य आदि विद्यमान है। सात पीढ़ियों तक खूब दिया जाय, खूब भोगा और बाँटा जाय तो भी पर्याप्त है। अतएव हे देवानुप्रियो ! हम लोगों को एक-दूसरे के घरों में प्रतिदिन बारी-बारी से विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम - यह चार प्रकार का आहार बनवा - बनवा कर एक साथ बैठ कर भोजन करना अच्छा रहेगा।'
५ - अन्नमन्नस्स एयमट्ठं पडिसुर्णेति, कल्लाकल्लिं अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता परिभुंजेमाणा विहरंति ।
तीनों ब्राह्मणबन्धुओं ने आपस की यह बात स्वीकार की। वे प्रतिदिन एक-दूसरे के घरों में प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाने लगे और बनवा कर साथ-साथ भोजन करने लगे।
श्री द्वारा कटुक तूंबे का शाक पकाना
६ - तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था । तए णं सा नागसिरी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता एगं महं सालइयं ' तित्तालाउअं बहूसंभार - संजुत्तं णेहावगाढं उवक्खडेइ, एगं बिंदुयं करयलंसि आसाइए, तं खारं कडुयं अखज्जं अभोजं विसब्भूयं जाणित्ता एवं वयासी - 'धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभगणिंबोलियाए, जीए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढ़े उवक्खडिए सुबहुदव्वक्खए नेहक्खए य कए ।
तत्पश्चात् एक बार नागश्री ब्राह्मणी के यहाँ भोजन की बारी आई। तब नाग श्री ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाया। भोजन बना कर एक बड़ा-सा शरद् ऋतु सम्बन्धी अथवा सार (रस) युक्त तूंबा (तूंबे का शाक) बहुत-से मसाले डाल कर और तेल से व्याप्त (छौंक कर तैयार किया। उस शाक में से एक बूंद अपनी हथेली में लेकर चखा तो मालूम हुआ कि यह खारा, कड़वा, अखाद्य और विष जैसा है। यह जान कर वह मन ही मन कहने लगी- 'मुझे अधन्या, पुण्यहीना, अभागिनी, भाग्यहीन, अत्यन्त अभागिनीनिंबोली के समान अनादरणीय नाग श्री को धिक्कार है, जिस (मैं) ने यह शरद् ऋतु सम्बन्धी या रसदार तूंबा बहुत-से मसालों से युक्त और तेल से छौंका हुआ तैयार किया। इसके लिए बहुत-सा द्रव्य बिगाड़ा और तेल का भी सत्यानाश किया।
१. 'सालइय' शब्द के टीकाकार ने दो संस्कृत रूप बतलाए हैं- 'शारदिक' और 'सारचित । '