Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा
वंदित्तानमंसित्ता एयमटुं विणएणंभुजोभुजो खामेमि।'एवं संपेहेइ, संपेहित्ता, हाए चाउरंगिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे, जेणेव तेयलिपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं अणगारंवंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एयमढेचविणएणं भुजो भुजोखामेइ, नच्चासन्ने जाव [नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे पंजलिउडे अभिमुहे विणएणं] पज्जुवासइ।
__ तत्पश्चात् कनकध्वज राजा इस कथा का अर्थ जानता हुआ अर्थात् यह वृत्तान्त जान कर (मन ही मन) बोला-निस्सन्देह मेरे द्वारा अपमानित होकर तेतलिपुत्र ने मुण्डित होकर दीक्षा अंगीकार की है। अतएव मैं जाऊँ और तेतलिपुत्र अनगार को वन्दना करूँ, नमस्कार करूँ, और वन्दना-नमस्कार करके इस बात के लिए-अपमानित करने के लिए-विनयपूर्वक बार-बार क्षमा याचना करूँ।' कनकध्वज ने ऐसा विचार किया। विचार करके स्नान किया। फिर चतुरंगिणी सेना के साथ जहाँ प्रमदवन उद्यान था और जहाँ तेतलिपुत्र अनगार थे, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर तेतलिपुत्र अनगार को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस बात के लिए विनय के साथ पुनः पुनः क्षमायाचना की।न अधिक दूर और न अधिक समीप-यथायोग्य स्थान पर बैठ कर धर्म श्रवण की अभिलाषा करता हुआ, हाथ जोड़कर नमस्कार करता हुआ सम्मुख होकर विनय के साथ वह उपासना करने लगा।
५७–तएणं से तेयलिपुत्ते अणगारे कणगज्झयस्सरन्नो तीसे यमहइमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ।
तए णं कणगज्झए राया तेयलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं सावगधम्म परिवज्जइ। पडिवजित्ता समणोवासए जाए जाव' अहिगयजीवाजीवे।
तत्पश्चात् तेतलिपुत्र अनगार ने कनकध्वज राजा को और उपस्थित महती परिषद् को धर्म का उपदेश दिया।
उस समय कनकध्वज राजा ने तेतलिपुत्र केवली से धर्मोपदेश श्रवणकर और उसे हृदय में धारण करके पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म अंगीकार किया। श्रावकधर्म अंगीकार करके वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया।
५८-तएणं तेयलिपुत्ते केवली बहूणि वासाणि केवलिपरियागंपाउणित्ता जाव सिद्धे। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र केवली बहुत वर्षों तक केवली-अवस्था में रहकर यावत् सिद्ध हुए।
५९-एवं खलुजंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चोदसमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि।
श्री सुधर्मास्वामी अपने उत्तर का उपसंहार करते हुए कहते हैं-'हे जम्बू! इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर ने चौदहवें ज्ञात-अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ कहा है। जैसा मैंने सुना वैसा ही कहा है।
॥चौदहवाँ अध्ययन समाप्त॥
१. अ. १२ सूत्र २४