Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा गृहत्याग कर अनगार रूप में प्रव्रजित होकर) पाँच इन्द्रियाँ के कामभोगों में आसक्त नहीं होता और अनुरक्त नहीं होता, वह इसी भव में बहुत-से श्रमणों, श्रमणियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और परलोक में भी दुःख नहीं पाता है, जैसे-हाथ, कान, नाक आदि का छेदन, हृदय एवं वृषणों का उत्पाटन, फांसी आदि। उसे अनादि अनन्त संसार-अटवी में चतुरशीति योनियों में भ्रमण नहीं करना पड़ता। वह अनुक्रम से संसार कान्तार को पार कर जाता है-सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
__ १३–तत्थं णं जे से अप्पेगइया पुरिसा धण्णस्स एयमटुं नो सद्दहति नो पत्तियंत्ति नो रोयंति, धन्नस्स एयमटुं असद्दहमाणा जेणेव ते णंदिफला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छिता तेसिं नंदिफलाणं मूलाणी य जाव वीसमंति, तेसिं णं आवाए भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणा जाव ववरोवेंति।
उनमें से जिन कितनेक पुरुषों ने धन्य-सार्थवाह की इस बात पर श्रद्धा नहीं की, प्रतीति नहीं की, रुचि नहीं की, वे धन्य-सार्थवाह की बात पर श्रद्धा न करते हुए जहाँ नन्दीफल वृक्ष थे, वहाँ गये। जाकर उन्होंने उन नन्दीफल वृक्षों के मूल आदि का भक्षण किया और उनकी छाया में विश्राम किया। उन्हें तात्कालिक सुख तो प्राप्त हुआ, किन्तु बाद में उनका परिणमन होने पर उन्हें जीवन से मुक्त होना पड़ा-मृत्यु का ग्रास बनना पड़ा।
१४-एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वइए पंचसुकामगुणेसु सज्जेइ, जाव अणुपरियट्टिस्सइ, जहा व ते पुरिसा।
____ इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु या साध्वी प्रव्रजित होकर पाँच इन्द्रियों के विषयभोगों में आसक्त होता है, वह उन पुरुषों की तरह यावत् हस्तच्छेदन, कर्णच्छेदन, हृदयोत्पाटन आदि पूर्वोक्त दुःखों का भागी होता है और चतुर्गतिरूप संसार में पुन:पुनः परिभ्रमण करता है। धन्य-सार्थवाह का अहिच्छत्रा पहुँचना
१५-तएणंसेधण्णेसगडीसागडं जोयावेइजोयावित्ताजेणेवअहिच्छत्ताणयरीतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरीए बहिया अग्गुजाणे सत्थनिवेसं करेई, करित्ता सगडी सागडं मोयावेइ।
तए णं धण्णे सत्थवाहे महत्थं महग्धं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेण्हइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहिं सद्धिं संपरिवुडे अहिच्छत्तं नयरिं मझमझेणं अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ।उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ।
इसके पश्चात् धन्य-सार्थवाह ने गाड़ी-गाड़े जुतवाए। जुतवाकर वह जहाँ अहिच्छत्रा नगरी थी, वहाँ पहुँचा। वहाँ पहुँचकर अहिच्छत्रा नगरी के बाहर प्रधान उद्यान में पड़ाव डाला और गाड़ी-गाड़े खुलवा दिए।
फिर धन्य-सार्थवाह ने महामूल्यवान् और राजा के योग्य उपहार लिया और बहुत पुरुषों के साथ, उनसे परिवृत होकर' अहिच्छत्रा नगरी में मध्यभाग में होकर प्रवेश किया। प्रवेश करके कनककेतु राजा के पास गया। वहाँ जाकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके राजा का अभिनन्दन किया। अभिनन्दन करने के पश्चात् वह बहुमूल्य उपहार उसके समीप रख दिया।