Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी
सार : संक्षेप
मनुष्य कभी-कभी साधारण-से लाभ की इच्छा से प्रेरित होकर ऐसा अत्यन्त कुत्सित एवं क्रूर कर्म कर बैठता है कि उसका उसे अतीव दारुण दुष्फल भोगना पड़ता है। उसका भविष्य दीर्घातिदीर्घ काल के लिए घोर अन्धकारमय बन जाता है। द्रौपदी-ज्ञात इस तथ्य को सरल, सरस और सुगम रूप से प्रदर्शित करता है।
द्रौपदी के जीव की कथा उसके नागश्री ब्राह्मणी के भव से प्रारम्भ होती है। नागश्री अपने परिवार के लिए भोजन तैयार करती है। उसने तुंबे का उत्तम शाक बनाया। मगर जब चखकर देखा तो ज्ञात हुआ कि तुंबा कटुक-विषाक्त है। उसने उपालम्भ अथवा अपयश से बचने के लिए उस शाक को एक जगह छिपाकर रख दिया। पारिवारिक जन भोजन करके अपने-अपने काम में लग गए। घर में जब नागश्री अकेली रह गई तब मासखमण के पारणक के दिन धर्मरुचि अनगार भिक्षा के लिए उसके घर पहुँचे। नाग से अमृत की आशा नहीं की जा सकती, उससे तो विष ही मिल सकता है। नागश्री मानवी के रूप में नागिन थी। उसने परम तपस्वी मुनि को विष ही प्रदान किया-विषाक्त तुंबे का शाक उनके पात्र में उंडेल दिया। .
मुनि धर्मरुचि वही आहार लेकर अपने गुरु के पास पहुंचते हैं। गुरुजी उसकी गंध से ही समझ जाते हैं कि यह शाक-आहार विषैला है। फिर भी उसमें से एक बूंद लेकर चखते हैं और धर्मरुचि को परठ देने का आदेश देते हैं। कहते हैं-यह शाक प्राणहारी है।
धर्मरुचि परठने जाते हैं। उसमें से एक बूंद लेकर भूमि पर डाल कर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करते हैं। कीड़ियां आती हैं, ज्यों ही उसके रस का आस्वादन करती हैं, प्राण गँवा बैठती हैं। यह दृश्य देखकर मुनि का सदय हृदय दहल उठता है। सोचते हैं-सारा का सारा शाक परठ दिया जाए तो असंख्य जानवरों का घात हो जाएगा। इससे तो यही श्रेयस्कर है कि मैं अपने ही उदर में इसे परठ लूँ! मुनि यही करते हैं। समाधिपूर्वक उनके जीवन का अन्त हो जाता है।
मगर नागश्री का पाप छिपा न रहा। सर्वत्र उसकी चर्चा फैल गई। घर वालों ने ताड़ना-तर्जना करके उसे बाहर निकाल दिया। वह भिखारिन बन गई। उस समय की उसकी दुर्दशा का मूल में जो चित्रण किया गया है, वह मूल से ही ज्ञात होगा। अन्तिम अवस्था में वह एक साथ सोलह भयानक रोगों से ग्रस्त होकर, अत्यन्त तीव्र दुःखों का अनुभव करती-हाय-हाय करती मरती है और छठी नरकभूमि में पैदा होती है। इसके साथ उसके तीव्रतम पाप-कर्म के फलभोग का जो सिलसिला शुरू होता है, वह इतने दीर्घ-अतिदीर्घ काल तक चालू रहता है कि वहाँ वर्षों की और युगों की गणना भी हार मान जाती है। वह प्रत्येक नरक में सागरोपमों की आयु से, एकाधिक वार जन्म लेती है, बीच-बीच में मत्स्य आदि की योनियों में भी जन्म लेती है। शस्त्रों से उसका वध किया जाता है। जलचर, नभचर और भूचर, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय आदि-आदि तिर्यंचपर्यायों में