Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र]
[३६५ ३२-तए णं सा पोट्टिला ताओ अजाओ एवं वयासी-इच्छामि णं अज्जाओ! तुम्हं अंतिए केवलिपन्नतं धम्मं निसामित्तए।तए णं ताओ अजाओ पोट्टिलाए विचित्तं धम्मं परिकहेंति। तए णं सा पाट्टिला धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठा एवं वयासी-'सदहामि णं अज्जाओ! निग्गंथं पावयणं जाव' से जहेयं तुब्भे वयह, इच्छामि णं अहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव सत्त सिक्खावइयं गिहिधम्म पडिवजित्तए।'
अहासुहं देवाणुप्पिए!
तत्पश्चात् पोट्टिला ने उन आर्याओं से कहा-हे आर्याओ! मैं आपके पास से केवलिप्ररूपित धर्म सुनना चाहती हूँ। तब उन आर्याओं ने पोट्टिला को अद्भुत या अनेक प्रकार के धर्म का उपदेश दिया। पोट्टिला धर्म का उपदेश सुनकर और हृदय में धारण करके हृष्ट-तुष्ट होकर इस प्रकार बोली-'आर्याओ! मैं निर्ग्रन्थप्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ। जैसा आपने कहा, वह वैसा ही है। अतएव मैं आपके पास से पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत वाले श्रावक के धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ।'
तब आर्याओं ने कहा-देवानुप्रिये! जैसे सुख उपजे, वैसा करो।
३३-तए णं सा पोट्टिला तासिं अजाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव धम्म पडिवज्जइ, ताओ. अजाओ वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पडिविसज्जेइ।
तए णं सा पोट्टिला समणोवासिया जाया जाव समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं ओसह-भेसजेणं पाडिहारिएणं पीढ-फलगसेज्जा-संथारएणं पडिलाभमाणी विहरइ।
___ तत्पश्चात् उस पोट्टिला ने उन आर्याओं से पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत वाला केवलिप्ररूपित धर्म अंगीकार किया। उन आर्याओं को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके उन्हें विदा किया।
तत्पश्चात् पोट्टिला श्रमणोपासिका हो गई, यावत् साधु-साध्वियों को प्रासुक-अचित्त, एषणीयआधाकर्मादि दोषों से रहित-कल्पनीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज एवं प्रातिहारिक-वापिस लौटा देने के योग्य पीढ़ा, पाटा, शय्या-उपाश्रय और संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि प्रदान करती हुई विचरने लगी।
___३४-तएणं तीसे पोट्टिलाए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसिकुडुंबजागरियं जागरमाणीए अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-'एवं खलु अहं तेयलिपुत्तस्स पुट्विं इट्ठा ५ आसि, इयाणिं अणिट्ठा ५ जाया जाव' परिभोगं वा, तं सेयं खलु मम सुव्वयाणं अज्जाणं अंतिए पव्वइत्तए।' एवं संपेहेइ।संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए जेणेव तेयलिपुत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया! मए सुव्वयाणं अजाणं अंतिए धम्मे निसंते जाव से विय मे धम्मे इच्छिए पीडिच्छिए अभिरुइए।तं इच्छामि णं तुब्भेहि अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए।'
१. अ. १ सूत्र ११५
२. अ. १४ सूत्र ३१