Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
नवम अध्ययन : माकन्दी ]
५३ – इमस्स उ अणेगझस-मगर- विविधसावय
-
स्याउलघरस्स रयणागरस्स मज्झे ।
अप्पा वहेमि तुझ पुरओ एहि,
णियत्ताहि जइ सि कुविओ खमाहि एक्कावराहं मे ॥ ६ ॥
'अनेक सैकड़ों मत्स्य, मगर और विविध क्षुद्र जलचर प्राणियों से व्याप्त-गृह-रूप या मत्स्य आदि के घर - स्वरूप इस रत्नाकर के मध्य में तुम्हारे सामने मैं अपना वध करती हूँ । (अगर तुम ऐसा नहीं चाहते हो तो) आओ, वापिस लौट चलो। अगर तुम कुपित हो गये हो तो मेरा एक अपराध क्षमा करो' ॥ ६ ॥
५४ - तुज्झ य विगयघणविमलससिमंडलगारसस्सिरीयं,
सारयनवकमल-कुमुदकुवलयविमलदलनिकरसरिसनिभं ।
नयणं (निभनयणं ) वयणं पिवासागयाए सद्धा मे पेच्छिउं जे अवलोएहि, ता इओ ममं णाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं ॥ ७ ॥
[ ३०१
' तुम्हारा मुख मेघ - विहीन विमल चन्द्रमा के समान है। तुम्हारे नेत्र शरदऋतु के सद्य: विकसित कमल (सूर्यविकासी), कुमुद ( चन्द्रविकासी) और कुवलय (नील कमल) के पत्तों के समान अत्यन्त शोभायमान हैं। ऐसे नेत्र वाले तुम्हारे मुख के दर्शन की प्यास (इच्छा) से मैं यहाँ आई हूँ। तुम्हारे मुख को देखने की मेरी अभिलाषा है। हे नाथ! तुम इस ओर मुझे देखो, जिससे मैं तुम्हारा मुख-कमल देख लूँ' ॥७॥
५५ – एवं सप्पणयसरलमहुराइं पुणो पुणो कलुणाई ।
·
वयणाई जंपमाणी सा पावा मग्गओ समण्णेइ पावहियया ॥ ७ ॥
इस प्रकार प्रेमपूर्ण, सरल और मधुर वचन बार-बार बोलती हुई वह पापिनी और पापपूर्ण हृदय वाली देवी मार्ग में पीछे-पीछे चलने लगी ॥ ८ ॥
-
५६ – तए णं से जिणरक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेण कण्णसुह-मणोहरेणं तेहि सप्पण - सरल - महुर- भणिएहिं संजायविउणराए रयणदीवस्स देवयाए तीसे सुंदरथण-जहणवयण-कर-चरण-नयण - लावण्ण-रूव- जोव्वणसिरिं च दिव्वं सरभ - सउवगूहियाई जाई विब्बोय - विलसियाणि य विहसिय-सकडक्ख - दिट्टि - निस्ससिय-मलिय-उवललिय-ठियगमण-पणय-ख्रिज्जिय-पासादियाणि य सरमाणे रागमोहियमई अवसे कम्मवसगए अवयक्खइ मग्गओ सविलियं ।
तत्पश्चात् कानों को सुख देने वाले और मल को हरण करने वाले आभूषणों के शब्द से तथा उन पूर्वोक्त प्रणययुक्त, सरल और मधुर वचनों से जिनरक्षित का मन चलायमान हो गया। उसे पहले की अपेक्षा उस पर दुगना राग उत्पन्न हो गया। वह रत्नद्वीप की देवी के सुन्दर स्तन, जघन, मुख, हाथ, पैर और नेत्र के लावण्य की, रूप (शरीर के सौन्दर्य) की और यौवन की लक्ष्मी (शोभा-सुन्दरता) को स्मरण करने लगा। उसके द्वारा हर्ष या उतावली के साथ किये गये आलिंगनों को, विब्बोकों (चेष्टाओं) को, विलासों (नेत्र के विकारों) को,