Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम अध्ययन : माकन्दी]
[२८९ भुंजमाणा नो विहरह, तो भे इमेणं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासेणं खुरधारेणं असिणा रत्तगंडमंसुयाई माउयाहिं उवसोहियाइं तालफलाणि व सीसाइं एगंते एडेमि।'
'अरे माकन्दी के पुत्रो! अप्रार्थित (मौत) की इच्छा करने वालो! यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए रहोगे तो तुम्हारा जीवन है-तुम जीते बचोगे, और यदि तुम मेरे साथ विपुल कामभोग भोगते हुए नहीं रहोगे तो इस नील कमल, भैंस के सींग, नील द्रव्य की गुटिका (गोली) और अलसी के फूल के समान काली और छुरे की धार के समान तीखी तलवार से तुम्हारे इन मस्तकों को ताड़फल की तरह काट कर एकान्त में डाल दूंगी, जो गंडस्थलों को और दाढ़ी-मूंछों को लाल करने वाले हैं और मूंछों से सुशोभित हैं, अथवा जो माता-पिता आदि के द्वारा सँवार कर सुशोभित किए हुए केशों से शोभायमान हैं।'
१८-तए णं ते मागंदियदारगा रयणदीवदेवयाए अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म भीया संजायभया करयल जाव एवं वयासी-जंणं देवाणुप्पिया वइस्ससि तस्स आणाउववायवयणनिद्देसे चिट्ठिस्सामो।
___ तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र रत्नद्वीप की देवी से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके भयभीत हो उठे। उन्हें भय उत्पन्न हुआ। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये! जो कहेंगी, हम आपकी आज्ञा, उपपात (सेवा), वचन (आदेश) और निर्देश (कार्य करने) में तत्पर रहेंगे।' अर्थात् आपके सभी आदेशों का पालन करेंगे।
१९-तए णं सारयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव पासायवडेंसए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता असुभपुग्गलावहारं करेइ, करित्ता सुभपोग्गलपक्खेवं करेइ, करित्ता पच्छा तेहिं सद्धिं विउलाइंभोगभोगाइं जमाणी विहरइ। कल्लाकल्लिच अमयफलाइंउवणेइ।
तत्पश्चात् रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दी के पुत्रों को ग्रहण किया-साथ लिया। लेकर जहाँ अपना उत्तम प्रासाद था, वहाँ आई। आकर अशुभ पुद्गलों को दूर किया और शुभ पुद्गलों का प्रक्षेपण किया और फिर उनके साथ विपुल कामभोगों का सेवन करने लगी। प्रतिदिन उनके लिए अमृत जैसे मधुर फल लाने लगी।
२०-तए णं सा रयणद्दीवदेवया सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा लवणसमुद्दे ति-सत्त-खुत्तोअणुपरियट्टिव्वेत्तिजंकिंचितत्थतणंवापत्तंवाकटुंवा कयवरं वा असुई पूईयं दुरभिगंधमचोक्खं तं सव्वं आहुणिय आहुणिय तिसत्तखुत्तो एगंते एडेयव्वं ति कटुणिउत्ता।
तत्पश्चात् रत्नद्वीप की उस देवी को शक्रेन्द्र के वचन-आदेश से सुस्थित नामक लवणसमुद्र के अधिपति देव ने कहा-'तुम्हें इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटना है। वह इसलिए कि वहाँ जो भी तृण (घास), पत्ता, काष्ठ, कचरा, अशुचि (अपवित्र वस्तु) सड़ी-गली वस्तु या दुर्गन्धित वस्तु आदि गन्दी चीज हो, वह सब इक्कीस बार हिला-हिला कर, समुद्र से निकाल कर एक तरफ डाल देना।' इस प्रकार कह कर उस देवी को समुद्र की सफाई के कार्य में नियुक्त किया। देवी का आदेश
२१-तए णं सा रयणद्दीवदेवया ते मागंदियदारए एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा तं चेव जाव णिउत्ता। तं जाव अहं