Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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नवम अध्ययन : माकन्दी]
[२९३ माकन्दीपुत्रों का वन-गमन
२८-तए णं ते मागंदियदारया तओ मुहत्तंतरस्स पासायवडिंसए सई वा रइंवा धिइंवा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलुदेवाणुप्पिया! रयणद्दीवदेवया अम्हे एवं वयासीएवं खलु अहं सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा जाव वावत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गमित्तए।' अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरंति।
तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही (थोड़ी ही देर में) उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे इस प्रकार कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय।' तो हे देवानुप्रिय! हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिये। दोनों भाइयों ने आपस में इस विचार को अंगीकार किया। वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आये। आकर उस वन के अन्दर बावड़ी आदि में यावत् क्रीड़ा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे।
२९-तएणं ते मागंदियदारया तत्थ विसइंवा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्लेवणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु या जाव आलीघरएसु य विहरंति।
तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए उत्तर दिशा के वनखण्ड में गये। वहाँ जाकर बावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे।
३०-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव पच्चस्थमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाव विहरंति।
तत्पश्चात् माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शांति न पाते हुए पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गये। जाकर यावत् विहार करने लगे।
___३१-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी- एवंखलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणद्दीवदेवया एवं वयासी-'एवंखलुअहं देवाणुप्पिया! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्ठिएण लवणाहिवइणा जावमा णं तुब्भंसरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ।' तं भवियव्वं एत्थ कारणेणं। सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमटुं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
तब वे माकंदीपुत्र वहां भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे'हे देवानुप्रिय! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-'देवानुप्रियो! शक्र के वचनादेश से लवणाधिपति सुस्थित ने मुझे समुद्र की स्वच्छता के कार्य में नियुक्त किया है। यावत् तुम दक्षिण दिशा के वन- खण्ड में मत जाना। कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय। तो इसमें कोई कारण होना चाहिए। अतएव हमें दक्षिण दिशा के वनखण्ड में भी जाना चाहिए।' इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे के इस विचार को स्वीकार