Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ ज्ञाताधर्मकथा
हे मेघ ! उस समय तुम जीर्ण, जरा से जर्जरित शरीर वाले, शिथिल एवं सलों वाली चमड़ी से व्याप्त गावाले दुर्बल, थके हुए, भूखे-प्यासे, शारीरिक शक्ति से हीन, सहारा न होने से निर्बल, सामर्थ्य से रहित और चलने फिरने की शक्ति से रहित एवं ठूंठ की भाँति स्तब्ध रह गये। 'मैं वेग से चलूँ' ऐसा विचार कर ज्यों ही पैर पसारा कि विद्युत से आघात पाये हुए रजतगिरी के शिखर के समान सभी अंगों से तुम धड़ाम से धरती पर गिर पड़े।
पुनर्जन्म
८८ ]
१८७ – तए णं तव मेहा! सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव (विउला कक्खडा पगाढा चंडा दुक्खा दुरहियासा । पित्तज्जरपरिगयसरीरे) दाहवक्कंतीए यावि विहरसि । तए णं तुमं मेहा! तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाइं वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एवं वासस्यं परमाउं पालइत्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नयरे सेणियस्स रन्नो धारिणीय देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पच्चायाए ।
तत्पश्चात् हे मेघ! तुम्हारे शरीर में उत्कट [विपुल, कर्कश - कठोर, प्रगाढ़, दुःखमय और दुस्सह ] वेदना उत्पन्न हुई। शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में जलन होने लगी। तुम ऐसी स्थिति में रहे। तब हे मेघ! तुम उस उत्कट यावत् दुस्सह वेदना को तीन रात्रि - दिवस पर्यन्त भोगते रहे । अन्त में सौ वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में राजगृह नगर में श्रेणिक राजा की धारिणी देवी की कूंख में कुमार के रूप में उत्पन्न हुए।
मृदु उपालंभ
१८८—तए णं तुमं मेहा! आणुपुव्वेणं गब्भवासाओ निखंते समाणे उम्मुक्कबालभावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। तं जड़ जाव तुमं मेहा! तिरिक्खजोणिय-भावमुवागएणं अप्पडिलद्ध-सम्मत्तरयणलंभेणं से पाए पाणाणुकंपा अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते, किमंग पुण तुमं मेहा! इयाणि विपुलकुलसमुब्भवे णं निरुवहयसरीर-दंतलद्धपंचिंदिए णं एवं उट्ठाण -बल-वीरिय- पुरिसगार - परक्कम - संजुत्ते णं मम अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए य उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अइगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्थसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणि य जाव रयरेणुगुंडणाणि य नो सम्मं सहसि खमसि, तितिक्खिसि, अहियासेसि ?
तत्पश्चात् हे मेघ! तुम अनुक्रम से गर्भवास से बाहर आये - तुम्हारा जन्म हुआ। बाल्यावस्था से मुक्त हुए और युवावस्था को प्राप्त हुए। तब मेरे निकट मुंडित होकर गृहवास से (मुक्त हो) अनगार हुए। तो हे मेघ ! जब तुम तिर्यंचयोनि रूप पर्याय को प्राप्त थे और जब तुम्हें सम्यक्त्व - रत्न का लाभ भी नहीं हुआ था, उस समय भी तुमने प्राणियों की अनुकम्पा से प्रेरित होकर यावत् अपना पैर अधर ही रखा था, नीचे नहीं टिकाया था, तो फिर हे मेघ ! इस जन्म में तो तुम विशाल कुल में जन्मे हो, तुम्हें उपघात से रहित शरीर प्राप्त हुआ है। प्राप्त हुई पांचों इन्द्रियों का तुमने दमन किया है और उत्थान (विशिष्ट शारीरिक चेष्टा), बल ( शारीरिक