Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
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(अहिंसा आदि पांच महाव्रतों) और पांच नियमों (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरध्यान) से युक्त दस प्रकार के शौचमूलक परिव्राजक-धर्म का, दानधर्म का, शौचधार्म का और तीर्थस्नान का उपदेश और प्ररूपण करता था। गेरू से रंगे हुए श्रेष्ठ वस्त्र धारण करता था । त्रिदंड, कुण्डिका- कमंडलु, मयूरपिच्छ का छत्र, छन्नालिक (काष्ठ का एक उपकरण), अंकुश (वृक्ष के पत्ते तोड़ने का एक उपकरण ) पवित्री (ताम्र धातु की बनी अंगूठी) और केसरी (प्रमार्जन करने का वस्त्रखण्ड), यह सात उपकरण उसके हाथ में रहते थे । एक हजार परिव्राजकों से परिवृत वह शुक परिव्राजक जहाँ सौगंधिका नगरी थी और जहाँ परिव्राजकों का आवसथ (मठ) था, वहाँ आया। आकर परिव्राजकों के उस मठ में उसने अपने उपकरण रखे और सांख्यमत के अनुसार अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरने लगा ।
३२ – तए णं सोगंधियाए सिंघाडग-लिंग- चउक्क-चच्चर ( चउम्मुह- महापह - पहेसु ) बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ - एवं खलु सुए परिव्वायइ इह हव्वमागए जाव विहरइ । परिसा निग्गया । सुदंसणो निग्गए ।
तब उस सौगंधिक नगरी के शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क, चत्वर (चतुर्मुख, महापथ, पथों) में अनेक मनुष्य एकत्रित होकर परस्पर ऐसा कहने लगे - 'निश्चय ही शुक परिव्राजक यहाँ आये हैं यावत् आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं।' तात्पर्य यह कि शुक परिव्राजक के आगमन की गली-गली और चौराहों में चर्चा होने लगी। उपदेश - श्रवण के लिए परिषद् निकली। सुदर्शन भी निकला। शुक की धर्मदेशना
३३- तए णं. से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसिं च बहूणं संखाणं परिकहेइ – एवं खलु सुदंसणा ! अम्हं सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते । से वि य सोए दुविहे पण्णत्ते, तंजहादव्वसोए य भावसोए य । दव्वसोए य उदएणं मट्टियाए य । भावसोए दब्भेहि य मंतेहि य । जं णं अम्हं देवाणुप्पिया! किंचि असुई भवइ, तं सव्वं सज्जो पुढवीए आलिप्पड़, तओ पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जइ, तओ तं असुई सुई भवइ । एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति ।
तणं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोच्चा हट्टे, सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेues, गेण्हित्ता परिव्वायए विपुलेण असण- पाण- खाइम - साइम-वत्थेणं पडिलाभेमाणे जाव विहरइ । तए णं से सुए परिव्वायए सोगंधियाओ नयरीओ निग्गच्छिइ निग्गच्छत्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ |
तत्पश्चात् शुक परिव्राजक ने उस परिषद् को, सुदर्शन को तथा अन्य बहुत-से श्रोताओं को सांख्यमत का उपदेश दिया। यथा - हे सुदर्शन ! हमारा धर्म शौचमूलक कहा गया है। यह शौच दो प्रकार का हैद्रव्यशौच और भावशौच । द्रव्यशौच जल से और मिट्टी से होता है। भावशौच दर्भ से और मंत्र से होता है । है देवानुप्रिय ! हमारे मत के अनुसार जो कोई वस्तु अशुचि होती है, वह सब तत्काल पृथ्वी (मिट्टी) से मांज दी
है और फिर शुद्ध जल से धो ली जाती है। तब अशुचि, शुचि हो जाती है। इसी प्रकार निश्चय ही जीव जलस्नान से अपनी आत्मा को पवित्र करके बिना विघ्न के स्वर्ग प्राप्त करते हैं ।