Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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१८८]
[ज्ञाताधर्मकथा
पंथक की क्षमाप्रार्थना
६७-तए णं से पंथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयलयरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं वयासी-'अहं णं भंते! पंथए कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिकंते, चाउम्मासियं पडिक्कंते चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघट्टेमि। तं खमंतु णं देवाणुप्पिया! खमंतु मेऽवराहं, तुमं णं देवाणुप्पिया! णाइभुजो एवं करणयाए'त्ति कटु सेलयं अणगारं एयमटुं सम्मं विणएणं भुजो खामेइ।
शैलक ऋषि के इस प्रकार कहने पर पंथक मुनि भयभीत हो गये, त्रास को और खेद को प्राप्त हुए। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके कहने लगे-'भगवन्! मैं पंथक हूँ। मैंने कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण किया है और चौमासी प्रतिक्रमण करता हूं। अतएव चौमासी खामणा देने के लिए आप देवानुप्रिय को वन्दना करते समय, मैंने अपने मस्तक से आपके चरणों का स्पर्श किया है। सो देवानुप्रिय! क्षमा कीजिये, मेरा अपराध क्षमा कीजिये। देवानुप्रिय! फिर ऐसा नहीं करूंगा।' इस प्रकार कह कर शैलक अनगार को सम्यक् रूप से, विनयपूर्वक इस अर्थ (अपराध) के लिए वे पुनःपुनः खमाने लगे। शैलक का पुनर्जागरण
६८-तए णं सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-‘एवं खलु अहं रजं च जाव ओसन्नो जाव उउबद्धपीढ-फलग-सेजा-संथारए पमत्ते विहरामि।तं नो खलु कप्पड़ समणाणं णिग्गंथाणं पासत्थाणं जाव विहंरित्तए। सेयं खलु मे कल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीठ-फलग-सेजा-संथारयं पच्चप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए।' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव विहरइ।
पंथक के द्वारा इस प्रकार कहने पर उन शैलक राजर्षि को इस प्रकार का यह विचार उत्पन्न हआ'मैं राज्य आदि का त्याग करके भी यावत् अवसन्न-आलसी आदि होकर शेष काल में भी पीठ, फलक आदि रख कर विचर रहा हूँ-रह रहा हूँ। श्रमण निर्ग्रन्थों को पार्श्वस्थ-शिथिलाचारी होकर रहना नहीं कल्पता। अत एव कल मंडुक राजा से पूछ कर, पडिहारी पीठ, फलक, शय्या और संस्तारक वापिस देकर, पंथक अनगार के साथ, बाहर अभ्युद्यत (उग्र) विहार से विचरना ही मेरे लिए श्रेयस्कर है।' उन्होंने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन यावत् उसी प्रकार करके विहार कर दिया।
६९-एवामेव समणाउसो! जो निग्गंथो वा निग्गंथी वा ओसन्ने जाव संथारए पमत्ते विहरइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं हीलणिज्जे, संसारो भाणियव्यो।
___ हे आयुष्मन् श्रमणो! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी आलसी होकर, संस्तारक आदि के विषय में प्रमादी होकर रहता है, वह इसी लोक में बहुत-से श्रमणों, बहुत-सी श्रमणियों, बहुत-से श्रावकों और बहुतसी श्राविकाओं की हीलता का पात्र होता है। यावत् वह चिरकाल पर्यन्त संसार-भ्रमण करता है। यहाँ संसारपरिभ्रमण का विस्तृत वर्णन पूर्ववत् कह लेना चाहिए।