Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
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करने का परामर्श अटपटा प्रतीत होता है। किन्तु यहाँ विशेष ध्यान देने योग्य बात उनके शिष्यों का विनयविवेक है। उन्होंने जब विहार करने का निर्णय किया तब भी शैलक ऋषि के प्रति उनके मन में दुर्भावना नहीं है, घृणा नहीं है, विरोध का भाव नहीं है । सम्बन्ध-विच्छेद की कल्पना भी नहीं है। वे शैलक की अनुमति लेकर ही विहार करने का निश्चय करते हैं और एक मुनि पंथक को उनकी सेवा में छोड़ जाते हैं। इससे संकेत मिलता है कि अपने को उग्राचारी मान कर अभिमान करने और दूसरे को हीनाचारी होने के कारण घृणित समझने की मनोवृत्ति उनमें नहीं थी । वास्तव में साधु का हृदय विशाल और उदार होना चाहिए। इस उदार व्यवहार का सुफल शैलक ऋषि का पुनः अपनी साधु-मर्यादा में लौटने के रूप में हुआ ।
६५ - तए णं से पंथए सेलयस्स सेज्जा - संथारय- उच्चार- पासवण - खेल - संघाण-मत्त ओसह - भेसज्ज - भत्त पाणएणं अगिलाए विणएणं वेयावडियं करेइ ।
तसे सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं असण- पाण- खाइमसाइमं आहारमाहारिए सबहुं मज्जपाणयं पीए पुव्वावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते ।
तब वह पंथक अनगार शैलक राजर्षि की शय्या संस्तारक, उच्चार, प्रस्रवण, श्लेष्म, संघाण (नासिकामल) के पात्र, औषध, भेषज, आहार, पानी आदि से विना ग्लानि, विनयपूर्वक वैयावृत्य करने लगे । तत्पश्चात् किसी समय शैलक राजर्षि कार्तिकी चौमासी के दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार करके और बहुत अधिक मद्यपान करके सायंकाल के समय आराम से सो रहे थे। शैलक का कोप
६६ - तए णं से पंथए कत्तियचा उम्मासियंसि कयकाउस्सग्ग देवसियं पडिक्कमणं पडिक्कंते चाउम्मासियं पडिक्कमिउंकामे सेलयं रायरिसिं खामणट्टयाए सीसेणं पाएसु संघट्टेइ । तणं सेलए पंथणं सीसेणं पाएसु संघट्टिए समाणे आसुरुत्ते जाव (रुट्ठे कुविए चंडिक्किए) मिसमिसेमाणे उट्ठेइ, उट्ठिता एवं वयासी - ' से केस णं भो ! एस अपत्थियपत्थिए जाव ( दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसिए सिरि-हिरि - थिइ - कित्ति - ) परिवज्जिए जेणं ममं सुहपसुत्तं पाए संघट्टेइ ?'
उस समय पंथक मुनि ने कार्तिकी की चौमासी के दिन कायोत्सर्ग करके दैवसिक प्रतिक्रमण करके, चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करने की इच्छा से शैलक राजर्षि को खमाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों को स्पर्श किया।
पंथक के द्वारा मस्तक से चरणों का स्पर्श करने पर शैलक राजर्षि एकदम क्रुद्ध हुए, यावत् [ रुष्ट हुए, कुपित हुए, अत्यन्त उग्र हो गए, ] क्रोध से मिसमिसाने लगे और उठ गये । उठकर बोले- 'अरे, कौन है यह अप्रार्थित (मौत) की इच्छा करने वाला, यावत् [ अत्यन्त अपलक्षण वाला, काली पापी चतुर्दशी का जन्मा, श्री हृी (लज्जा ) धृति और कीर्ति से] सर्वथा शून्य, जिसने सुखपूर्वक सोये हुए मेरे पैरों का स्पर्श किया ?"