Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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सप्तम अध्ययन : रोहिणीज्ञात ]
[२०७
तत्पश्चात् धन्य-सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित और संतुष्ट हुआ। उसे अपने घर के हिरण्य की (आभूषणों की) कांसा आदि बर्तनों की, दूष्य- रेशमी आदि मूल्यवान् वस्त्रों की, विपुल धन, धान्य, कनक रत्न, मणि, मुक्ता, शंख, शिला, प्रवाल, लाल-रत्न आदि स्वापतेय (सम्पत्ति) की भाण्डागारिणी (भंडारी के रूप में) नियुक्त कर दिया ।
२७ - एवामेव समणाउसो ! जाव पंच य से महव्वयाइं रक्खियाइं भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं, बहूणं समणीणं बहूण सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्जे, जहा जाव से रक्खिया ।
इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! यावत् (दीक्षित होकर) हमारा जो साधु या साध्वी पांच महाव्रतों की रक्षा करता है, वह इसी भव में बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों और बहुत-सी श्राविकाओं का अर्चनीय (पूज्य) होता है, वन्दनीय, पूजनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, होता है, जैसे- वह रक्षिका ।
२८ - रोहिणिया वि एवं चेव । नवरं - 'तुब्भे ताओ! मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि, जेण अहं तुब्धं ते पंच सालिअक्खए पडिनिज्जाएमि ।'
तणं से धणे सत्थवाहे रोहिणिं एवं वयासी - 'कहं णं तुमं मम पुत्ता! ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाइस्ससि ?'
तणं सा रोहिणी धणं एवं वयासी - ' एवं खलु ताओ! इओ तुब्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव' बहवे कुंभसया जाया, तेणेव कमेणं । एवं खलु ताओ! तुब्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमि ।'
रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिये । विशेष यह कि जब धन्य सार्थवाह ने उससे पांच दाने मांगे तो उसने कहा- ' - 'तात ! आप मुझे बहुत-से गाड़े-गाड़ियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पांच शालि के दाने लौटाऊँ ।'
तब धन्य - सार्थवाह ने रोहिणी से कहा- ' कर कैसे देगी ?"
तब रोहिणी ने धन्य - सार्थवाह से कहा - ' तात ! इससे पहले के पांचवें वर्ष में इन्हीं मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के समक्ष आपने पाँच दाने दिये थे । यावत् वे अब सैकड़ों कुम्भ प्रमाण हो गये हैं, इत्यादि पूर्वोक्त दानों की खेती करने, संभालने आदि का वृत्तान्त दोहरा लेना चाहिए। इस प्रकार हे तात! मैं आपको वह पांच शालि दाने गाड़ा- गाड़ियों में भर कर देती हूँ ।
२९ - तए णं से धणे सत्थवाहे रोहिणीयाए सुबहुयं सगडसागडं दलयइ, तए णं रोहिणी सुबहुसगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता कोट्ठागारे विहाडे, विहाडित्ता पल्ले उब्भिदइ, उब्भिदित्ता सगडीसागडं भरेइ, भरित्ता रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ ।
१. सप्तम अ. ९-१५
-'पुत्री ! तू मुझे वह पांच शालि के दाने गाड़ा गाड़ी में भर