Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
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सहज प्रश्न हो सकता है कि नित्यता और अनित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक साथ एक ही पदार्थ में किस प्रकार रह सकते हैं ?
उत्तर इस प्रकार है- प्रत्येक पदार्थ वस्तु के दो पहलू हैं- द्रव्य और पर्याय । ये दोनों मिलकर ही वस्तु कहलाते हैं । द्रव्य के विना पर्याय और पर्याय के विना द्रव्य होता नहीं है । उदाहरणार्थ - आत्मा द्रव्य है और वह किसी न किसी पर्याय के साथ ही रहती है। द्रव्य और पर्याय परस्पर भिन्न भी हैं और अभिन्न भी हैं। इनमें से वस्तु का द्रव्यांश शाश्वत है, इस दृष्टि से वस्तु नित्य है । पर्याय-अंश पलटता रहता है अतएव पर्याय की दृष्टि से वस्तु अनित्य है । हमारा अनुभव और आधुनिक विज्ञान इस सत्य का समर्थन करता है।
सामान्य और विशेष धर्म प्रत्येक पदार्थ के अभिन्न अंग हैं। इनमें से सामान्य को प्रधान रूप से दृष्टि में रख कर जब पदार्थों का निरीक्षण किया जाता है तो उनमें एकरूपता प्रतीत होती है और जब विशेष को मुख्य करके देखा जाता है तो जिनमें एकरूपता प्रतीत होती थी उन्हीं में अनेकता - भिन्नता जान पड़ती है । अतः सामान्य की अपेक्षा एकत्व और विशेष की अपेक्षा अनेकत्व सिद्ध होता है।
शुक की प्रव्रज्या
५१ - एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावच्चापुत्तं वंदइ, नमसई, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी'इच्छामि णं भंते! तुब्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए ।' धम्मकहा भाणियव्वा । तणं सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म एवं वयासी'इच्छामि णं भंते ! परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए । '
'अहासुहं देवाणुप्पिया !' जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे तिदंडयं जाव' धाउरत्ताओ य एते एडेड़, एडित्ता सयमेव सिहं उप्पाडेइ, उपाडित्ता जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता थावच्चापुत्तं अणगारं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अन्तिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वइए । सामाइयमाइयाइं चोहसपुव्वाइं अहिज्जइ । तए णं थावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए वियरइ ।
थावच्चापुत्र के उत्तर से शुक परिव्राजक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ। उसने थावच्चापुत्र को वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना और नमस्कार करके इस प्रकार कहा- 'भगवन्! मैं आपके पास से केवलीप्ररूपित धर्म सुनने की अभिलाषा करता हूँ । यहाँ धर्मकथा का वर्णन औपपातिक सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिये ।
तत्पश्चात् शुक परिव्राजक थावच्चापुत्र से धर्मकथा सुन कर और उसे हृदय में धारण करके इस प्रकार बोला- ' 'भगवन्! मैं एक हजार परिव्राजकों के सथ देवानुप्रिय के निकट मुंडित होकर प्रव्रजित होना
चाहता हूँ।'
थावच्चापुत्र अनगार बोले - 'देवानुप्रिय ! जिस प्रकार सुख उपजे वैसा करो ।' यह सुनकर यावत् उत्तरपूर्व दिशा में जाकर शुक परिव्राजक ने त्रिदंड आदि उपकरण यावत् गेरू से रंगे वस्त्र एकान्त
१. पंचम अ. सूत्र ३०