Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ ज्ञाताधर्मकथा
५ - तस्स णं भग्गकूवस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, fraud किण्होभासे जाव [ नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे णिद्धे णिद्धोभासे तिव्वे तिव्वोभासे, किण्हे किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छाए, गिद्धे णिद्धच्छाए, तिव्वे तिव्वच्छाए, घण-कडिअकडिच्छाए ] रम्मे महामेहनिउरंबभूए बहूहिं रुक्खेहि गुच्छे गुम्मेहि य लयाहि य वल्लीहि य तणेहि य कुसेहि य खाणुएहि य संछन्ने पलिच्छन्ने तो झुसरे वाहिं गंभीरे अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था ।
उस भग्न कूप से न अधिक दूर न अधिक समीप एक जगह एक बड़ा मालुकाकच्छ था । वह अंजन के समान कृष्ण वर्ण वाला था और कृष्ण-प्रभा वाला था- देखने वालों को कृष्ण वर्ण ही दिखाई देता था, यावत् [ मयूर की गर्दन के समान नील था, नील-प्रभा वाला था, तोते की पूँछ के समान हरित और हरित - प्रभा वाला था । वल्ली आदि से व्याप्त होने के कारण शीत स्पर्श वाला था और शीत-स्पर्श वाला ही प्रतीत होता था । वह रूक्ष नहीं बल्कि स्निग्ध था एवं स्निग्ध ही प्रतीत होता था । उसके वर्णादि गुण प्रकर्षवान् थे। वह कृष्ण होते हुए कृष्ण छाया वाला, इसी प्रकार नील, नील छाया वाला, हरित, हरित छाया वाला, शीत, शीत छाया वाला, तीव्र, तीव्र छाया वाला, और अत्यन्त सघन छाया वाला था] रमणीय और महामेघों के समूह जैसा था। वह बहुत-से वृक्षों, गुच्छों, गुल्मों, लताओं, बेलों, तृणों, कुशों (दर्भ) और ठूंठों से व्याप्त था और चारों ओर से आच्छादित था। वह अन्दर से पोला अर्थात् विस्तृत था और बाहर से गंभीर था, अर्थात् अन्दर दृष्टि का संचार न हो सकने के कारण सघन था । अनेक सैकड़ों हिंसक पशुओं अथवा सर्पों के कारण शंकाजनक था ।
विवेचन - मालुक, वृक्ष की एक जाति है। उसके फल में एक ही गुठली होती है । अथवा मालुक अर्थ ककड़ी, फूटककड़ी आदि भी होता है। उनकी झाड़ी मालुकाकच्छ कहलाती है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी वस्तु का असली वर्ण अन्य प्रकार का होता है किन्तु बहुत समीपता अथवा बहुत दूरी के कारण वह वर्ण अन्य - भिन्न प्रकार का भासित - प्रतीत होता है। मालुकाकच्छ के विषय में ऐसा नहीं था । वह जिस वर्ण का था उसी वर्ण का जान पड़ता था । यही प्रकट करने के लिए कहा गया है कि वह कृष्ण वर्ण वाला और कृष्णप्रभा वाला था, आदि ।
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६. - तत्थ णं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्थवाहे अड्डे दित्ते जाव [ वित्थिण्ण - विउल सयणासण-भवण-जाव - वाहणाइण्णे बहुदासी - दास - गो-महिस - गवेलग्गप्पभूए बहुधणबहुजायरूव-रयए आओग-पओग-संपत्ते विच्छड्डिय] विउलभत्तपाणे । तस्स णं धन्नस्स सत्थवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लक्खण- वंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाण- पडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगी ससिसोमागारा कंता पियदंसणा सुरूवा करयलपरिमियतिवलियमज्झा कुंडलुल्लिहियगंडलेहा कोमुइरयणियरपडिपुण्णसोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा जाव [ संगय-गय- हसिय- भणिय - विहिय-विलाससललिय-संलाव- निउण- जुत्तोवयार-कुसल पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा ] पडिरूवा वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था ।
राजगृह नगर में धन्य नामक सार्थवाह था । वह समृद्धिशाली था, तेजस्वी था, [उसके यहाँ विस्तीर्ण