Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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द्वितीय अध्ययन : संघाट ]
धन्य के घर से भोजन
३३ – तए णं सा भद्दा भारिया कल्लं जाव' जलंते विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं उवक्खडेइ उवक्खडित्ता भोयणपिडयं करेइ, करिता भायणाइं पक्खिवइ, पक्खिवित्ता लंछियमुद्दियं करेइ । करित्ता एगं च सुरभिवारिपडिपुण्णं दगवारयं करे । करित्ता पंथयं दासचेडं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी - 'गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिया! इमं विपुलं असण- पाण- खाइमसाइमं गहाय चरगसालाए धन्नस्स सत्थवाहस्स उवणेहि ।'
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भद्रा भार्या ने अगले दिन यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन तैयार किया। भोजन तैयार करके भोजन रखने का पिटक (वाँस की छावड़ी) ठीक-ठाक किया और उसमें भोजन के पात्र रख दिये। फिर उस पिटक को लांछित और मुद्रित कर दिया, अर्थात् उस पर रेखा आदि के चिह्न बना दिये और मोहर लगा दी। सुगंधित जल से परिपूर्ण छोटा-सा घड़ा तैयार किया। फिर पंथक दास चेटक को आवाज दी और कहा - 'दे देवानुप्रिय ! तू जा। यह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम लेकर कारागार में धन्य सार्थवाह के पास ले जा ।'
३४—तए णं से पंथए भद्दाए सत्थवाहीए एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठे तं भोयणपिडयं तं च सुरभि-वरवारिपडिपुण्णं दगवारयं गेण्हइ । गेण्हित्ता सयाओ गिहाओ पिडिनिक्खमइ । पडिनिक्खमित्ता रायगिहे नगरे मज्झमज्झेणं जेणेव चारगसाला, जेणेव धन्ने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छइ । उवागच्छित्ता भोयणपिडयं ठावेइ, ठावेत्ता उल्लंछइ, उल्लंछित्ता भायणाई गेहइ । गेण्हित्ता भायणाई धोवेइ, धोवित्ता हत्थसोयं दलयइ दलइत्ता धण्णं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असणपाण- खाइम - साइमेणं परिवेसेइ ।
तत्पश्चात् पंथक ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट होकर उस भोजन-पिटक को और उत्तम सुगंधित जल से परिपूर्ण घट को ग्रहण किया। ग्रहण करके अपने घर से निकला । निकल कर राजगृह के मध्य मार्ग में होकर जहाँ कारागार था और जहाँ धन्य सार्थवाह था, वहाँ पहुँचा। पहुँच कर भोजन का पिटक रख दिया। उसे लांछन और मुद्रा से रहित किया, अर्थात् उस पर बना हुआ चिह्न हटाया और मोहर हटा दी । फिर भोजन के पात्र लिए, उन्हें धोया और फिर हाथ धोने का पानी दिया। तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह को वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन परोसा ।
I
भोजन में से विभाग
३५ - तए णं से विजए तक्करे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी - 'तुमं णं देवाणुप्पिया ! माओ विपुलाओ असण- पाण- खाइम - साइमाओ संविभागं करेहि । '
तणं से धणे सत्थवाहे विजयं तक्करं एवं वयासी - ' अवियाइं अहं विजया ! एवं विपुलं असण- पाण- खाइम - साइमं कायाणं वा सुणगाणं वा दलएज्जा, उक्कुरुडियाए वा णं
१. प्र. अ. सूत्र २८