Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पञ्चम अध्ययन : शैलक ]
[ १६३
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव चतुरंगिणी सेना के साथ विजय नामक उत्तम हाथी पर आरूढ़ होकर जहाँ थावच्चा गाथापत्नी का भवन था वहीं आये। आकर थावच्चापुत्र से इस प्रकार बोले
देवानुप्रिय ! तुम मुंडित होकर प्रव्रज्या ग्रहण मत करो। मेरी भुजाओं की छाया के नीचे रह कर मनुष्य संबन्धी विपुल कामभोगों को भोगो । केवल देवानुप्रिय के अर्थात् तुम्हारे ऊपर होकर जाने वाले वायुका को रोकने में तो समर्थ नहीं हूँ किन्तु इसके सिवाय देवानुप्रिय को (तुम्हें) जो कोई भी सामान्य पीड़ा या विशेष पीड़ा उत्पन्न होगी, उस सबका निवारण करूँगा ।'
१८–तए णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते सयाणे कण्हं वासुदेवं एवं वयासी - 'जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम जीवियंतकरणं मच्चुं एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूवविणासिणिं सरीरं अइवयमाणिं निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सर कामभीगे भुंजमाणे विहरामि ।
तब कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर थावच्चापुत्र ने कृष्ण वासुदेव से इस प्रकार कहा'देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करने वाले आते हुए मरण को रोक दें और शरीर पर आक्रमण करने वाली एवं शरीर के रूप-सौन्दर्य का विनाश करने वाली जरा को रोक सकें, तो मैं आपकी भुजाओं की छाया के नीचे रह कर मनुष्य संबन्धी विपुल कामभोग भोगता हुआ विचरूँ।'
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१९ – तए णं से कण्हे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी – 'एए णं देवाणुप्पिया ! दूरइक्कमणिज्जा, णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा दाणवेण वाणिवारित्तए णण्णत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं ।'
तत्पश्चात् थावच्चापुत्र के द्वारा इस प्रकार कहने पर कृष्ण वासुदेव ने थावच्चापुत्र से इस प्रकार कहा - 'हे देवानुप्रिय ! मरण और जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। अतीव बलशाली देव अथवा दानव द्वारा भी इनका निवारण नहीं किया जा सकता। हाँ, अपने द्वारा उपार्जित पूर्व कर्मों का क्षय ही इन्हें रोक सकता है।'
२० - 'तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! अन्नाण-मिच्छत्त- अविरइ - कसाय - अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए । '
(कृष्ण वासुदेव के कथन के उत्तर में थावच्चापुत्र ने कहा - ) 'तो हे देवानुप्रिय ! इसी कारण मैं अज्ञान, मिथ्यात्व, अविरति और कषाय द्वारा संचित, अपने आत्मा के कर्मों का क्षय करना चाहता हूँ।'
विवेचन - श्रीकृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि के परम भक्त और गृहस्थावस्था के आत्मीय जन भी थे। थावच्चा गाथापत्नी को अपनी ओर से दीक्षासत्कार करने का वचन दे चुके थे। फिर भी वे थावच्चापुत्र को दीक्षा न लेकर अपने संरक्षण में लेने को कहते हैं । इसका तात्पर्य थावच्चापुत्र की मानसिक स्थिति को परखना ही है। वे जानना चाहते थे कि थावच्चापुत्र के अन्तस् में वास्तविक वैराग्य है अथवा नहीं? किसी गार्हस्थ उद्वेग के कारण ही तो वह दीक्षा लेने का मनोरथ नहीं कर रहे हैं ? मुनिदीक्षा जीवन के अन्तिम क्षण तक उग्र साधना है और सच्चे तथा परिपक्व वैराग्य से ही उसमें सफलता प्राप्त होती है । थावच्चापुत्र परख में खरा सिद्ध हुआ । उसके एक ही वाक्य ने कृष्ण जी को निरुत्तर कर दिया। उन्हें पूर्ण सन्तोष हो गया।
- संचियस्स