Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ ज्ञाताधर्मकथा
तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव थावच्चापुत्र को आगे करके जहाँ अरिहन्त अरिष्टनेमि थे, वहाँ आये, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए। यावत् भगवान् अरिष्टनेमि की तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, फिर वन्दन - नमस्कार किया । वन्दन - नमस्कार करके इस प्रकार कहा - 'देवानुप्रिय । यह थावच्चापुत्र, थावच्चा गाथापत्नी का एकलौता पुत्र है। यह इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, अतिशय मनोहर, स्थिरतासम्पन्न, विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत और अनुमत है । रत्नों की पिटारी जैसा है। रत्न है, रत्न जैसा है, जीवन के लिए उच्छ्वास सदृश है। हृदय को प्रमोद उत्पन्न करने वाला है। गूलर के फूल के समान, इसके नाम का श्रवण भी दुर्लभ है, दर्शन की तो बात क्या ? जैसे उत्पल, पद्म अथवा कुमुद - चन्द्रविकासी कमल कीचड़ में उत्पन्न होता है, जल में वृद्धि पाता है किन्तु कीचड़ और जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार थावच्चापुत्र कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है किन्तु काम-भोगों में लिप्त नहीं हुआ है । देवानुप्रिय ! यह संसार के भय से उद्वेग पाया है, जन्म-जरा-मरण से भयभीत है, अतः देवानुप्रिय (आप) के निकट मुंडित होकर गृहत्याग करके अनगारदीक्षा अंगीकार करना चाहता है। हम आप देवानुप्रिय को शिष्य - भिक्षा प्रदान कर रहे हैं। देवानुप्रिय ! इस शिष्य - भिक्षा को स्वीकार करें।'
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कृष्ण वासुदेव के इस प्रकार कहने पर अर्हत् अरिष्टनेमि ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की । थावच्चापुत्र ईशान दिशा में जाकर आभरण, पुष्पमाला और अलंकारों का परित्याग किया।
तत्पश्चात् थावच्चा सार्थवाही ने हंस के चिह्न वाले वस्त्र में आभरण, माला और अलंकारों को ग्रहण किया। ग्रहण करके मोतियों के हार, जल की धार, सिन्दुवार के फूलों तथा छिन्न हुई मोतियों की कतार के समान आँसू त्यागती हुई इस प्रकार कहने लगी- 'हे पुत्र ! इस प्रव्रज्या के विषय में यत्न करना, हे पुत्र ! शुद्ध क्रिया करने में घटना करना और हे पुत्र ! चारित्र का पालन करने में पराक्रम करना । इस विषय में तनिक भी प्रमाद न करना।' इस प्रकार कहकर वह जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई।
२४ - तए णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, जाव पव्वइए। तए णं से थावच्चापुत्ते अणगारे जाए इरियासमिए भासासमिए जाव विहरइ ।
तत्पश्चात्, थावच्चापुत्र ने हजार पुरुषों के साथ स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, यावत् प्रव्रज्या अंगीकार की। उसके बाद थावच्चापुत्र अनगार हो गया। ईर्यासमिति से युक्त, भाषासमिति से युक्त होकर यावत् साधुता के समस्त गुणों से सम्पन्न होकर विचरने लगा।
२५ - तए णं से थावच्चापुत्ते अरहओ अरिट्ठनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जइ । अहिज्जित्ता बहूहिं जाव चउत्थेणं विहरइ । तए णं अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इब्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयइ ।
तत्पश्चात् थावच्चापुत्र अरिहन्त अरिष्टनेमि के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक से आरम्भ करके चौदह पूर्वों का अध्ययन करके, बहुत से अष्टमभक्त षष्टभक्त यावत् चतुर्थभक्त (उपवास) आदि करते हुए विचरने लगे। तत्पश्चात् अरिहन्त अरिष्टनेमि ने थावच्चापुत्र अनगार को उनके साथ दीक्षित होने वाले इभ्य आदि एक हजार अनगार शिष्य के रूप में प्रदान किये।