Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह थोड़ी देर बाद आश्वस्त हुआ-होश में आया, उसके प्राण मानो वापिस लौटे, उसने देवदत्त बालक की सब ओर ढूंढ-खोज की, मगर कहीं भी देवदत्त बालक का पता न चला, छींक आदि का शब्द भी न सुन पड़ा और न समाचार मिला। तब वह अपने घर पर आया। आकर बहुमूल्य भेंट ली और जहाँ नगररक्षक-कोतवाल आदि थे, वहाँ पहुँच कर वह बहुमूल्य भेंट उनके सामने रखी और इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रियो ! मेरा पुत्र और भद्रा भार्या का आत्मज देवदत्त नामक बालक हमें इष्ट है, यावत् (कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम है,) गूलर के फूल के समान उसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो फिर दर्शन का तो कहना ही क्या है!
२७-तएणं सा भद्दा देवदिन्नंण्हायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलयइ, जाव पायवडिए तं मम निवेदेइ। तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं कयं (करित्तए-करेह)।
धन्य सार्थवाह ने आगे कहा-भद्रा ने देवदत्त को स्नान करा कर और समस्त अलंकारों से विभूषित करके पंथक के हाथ में सौंप दिया। यावत् पंथक ने मेरे पैरों में गिर कर मुझसे निवेदन किया (किस प्रकार पंथक बालक को बाहर ले गया, उसे एक स्थान पर बिठाकर स्वयं खेल में बेभान हो गया, इत्यादि पिछला सब वृत्तान्त यहाँ दोहरा लेना चाहिये) तो हे देवानुप्रियो ! मैं चाहता हूँ कि आप देवदत्त बालक की सब जगह मार्गणा-गवेषणा करें।
विवेचन-यहाँ यह उल्लेखनीय है कि धन्य सार्थवाह नगररक्षकों के समक्ष अपने पुत्र के गुम हो जाने की फरियाद लेकर जाता है तो बहुमूल्य भेंट साथ ले जाता है और नगररक्षकों के सामने वह भेंट रखकर फरियाद करता है। अन्यत्र भी आगमिक कथाओं में इसी प्रकार का उल्लेख मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि रिश्वत का रोग आधुनिक युग की देन नहीं है, यह प्राचीन काल में भी था और सभी समयों में इसका अस्तित्व रहा है। अन्यथा ऐसे विषय में भेंट की क्या आवश्यकता थी? गुम हुए बालक को खोजना नगररक्षकों का कर्तव्य है। राजा अथवा शासन की ओर से उनकी नियुक्ति ही इस कार्य के लिए थी।
धन्य कोई सामान्य जन नहीं था, सार्थवाह था। सार्थवाह का समाज में उच्च एवं प्रतिष्ठित स्थान होता है। जब उस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी भेंट (रिश्वत) देनी पड़ी तो साधारण जनों की क्या स्थिति होती होगी, यह समझना कठिन नहीं।
२८-तए णं ते नगरगोत्तिया धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलिय-सरासणवट्टिया जाव (पिणद्धगेविजा आविद्धविमलवरचिंधपट्टा) गहियाउहपहरणा धण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अइगमणाणि य जाव' पवासुय मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमंति।पडिणिक्खमित्ता जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छंति। उवागच्छित्ता देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं निच्चेटुं जीवविप्पजढं पासंति। पासित्ता हा हा अहो अकज्जमिति कटु देवदिन्नं दारयं भग्गकूवाओ उत्तारेंति। उत्तारित्ता धण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थे णं दलयंति।
तत्पश्चात् उन नगररक्षकों ने धन्य सार्थवाह के ऐसा कहने पर कवच (बख्तर) तैयार किया, उसे
१. द्वि. अ. सूत्र ९