Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
१०२]
[ज्ञाताधर्मकथा 'भगवन्!' इस प्रकार कह कर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिय के अन्तेवासी मेघ अनगार थे। भगवन्! वह मेघ अनगार काल-मास में अर्थात् मृत्यु के अवसर पर काल करके किस गति में गये? और किस जगह उत्पन्न हुए?'
२१४-'गोयमाइ'समणे भगवं महावीरे भगवंगोयमंएवं वयासी–‘एवं खलु गोयमा! मम अन्तेवासी मेहे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव' विणीए। से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाइं एक्कारस अंगाई अहिजइ।अहिजित्ता बारस भिक्खुपडिमाओ गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं काएणं फासेत्ता जाव' किट्टेत्ता मए अब्भणुनाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेइ।खामित्ता तहारूवेहिं जाव (कडाईणेहिं) विउलं पव्वयं दुरूहइ। दुरूहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ। संथरित्ता दब्भसंथारोवगए सयमेव पंचमहव्वए उच्चारेइ।बारस वासाइंसामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिक्कन्ते उद्धियसल्ले समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उद्धंचंदिम-सूर-गहगण-नक्खत्त-तारा-रूवाणं बहूइंजोयणाई बहूइंजोयणसयाई, बहूइंजोयणसहस्साई, बहूइंजोयणसयसहस्साइं, बहूइंजोयणकोडीओ, बहूई जोयणकोडाकोडीओ उड़े दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभ-लंतग-महासुक्कसहस्सारा-णय-पाणया-रण-च्चुए तिन्नि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे।
'हे गौतम!' इस प्रकार कह कर श्रमण भगवान् महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहाहे गौतम! मेरा अन्तेवासी मेघ नामक अनगार प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था। उसने तथारूप स्थविरों से सामायिक से प्रारम्भ करके ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बारह भिक्षु-प्रतिमाओं का और गुणरत्नसंवत्सर नामक तप का काय से स्पर्श करके यावत् कीर्तन करके, मेरी आज्ञा लेकर गौतम आदि स्थविरों को खमाया। खमाकर तथारूप यावत् स्थविरों के साथ विपुल पर्वत पर आरोहण किया। दर्भ का संथारा बिछाया। फिर दर्भ के संथारे पर स्थित होकर स्वयं ही पांच महाव्रतों का उच्चारण किया, बारह वर्ष तक साधुत्व-पर्याय का पालन करके एक मास की संलेखना से अपने शरीर को क्षीण करके, साठ भक्त अनशन से छेदन करके, आलोचना-प्रतिक्रमण करके, शल्यों को निर्मूल करके समाधि को प्राप्त होकर, काल-मास में मृत्यु को प्राप्त करके, ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप ज्योतिषचक्र से बहुत योजन, बहुत सैकड़ों योजन, बहुत हजारों योजन, बहुत लाखों योजन, बहुत करोड़ों योजन और बहुत कोड़ाकोड़ी योजन लांघकर, ऊपर जाकर सौधर्म ईशान सनत्कुमार माहेन्द्र ब्रह्मलोक लान्तक महाशुक्र सहस्रार आनत प्राणत आरण और अच्युत देवलोकों तथा तीन सौ अठारह नवग्रैवेयक के विमानावासों को लांघ कर वह विजय नामक अनुत्तर महाविमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ है।
१. प्र. अ. सूत्र २१२
२. प्र. अ. सूत्र १९६