Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा ध्येय की पर्ति के लिए शरीर का संरक्षण किया जाता है, उस ध्येय की पूर्ति उससे न हो सके, बल्कि उस ध्येय की पूर्ति में बाधक बन जाए तब उसका परित्याग कर देना ही श्रेयस्कर होता है। प्राणान्तकारी कोई उपसर्ग आ जाए, दुर्भिक्ष के कारण जीवन का अन्त समीप जान पड़े, वृद्धावस्था अथवा असाध्य रोग उत्पन्न हो जाय तो इस अवस्था में हाय-हाय करते हुए-आर्तध्यान के वशीभूत होकर प्राण त्यागने की अपेक्षा समाधिपूर्वक स्वेच्छा से शरीर को त्याग दें। ऐसा करने से पूर्ण शान्ति और अखण्ड समभाव बना रहता है।
समाधिमरण अंगीकार करने से पूर्व साधक को यदि अवसर मिलता है तो वह उसके लिए तैयारी कर लेता है। वह तैयारी संलेखना के रूप में होती है। काय और कषायों को कृश और कृशतर करना संलेखना है। कभी-कभी यह तैयारी बारह वर्ष पहले से प्रारंभ हो जाती है।
__ ऐसी स्थिति में समाधिमरण को आत्मघात समझना विचारहीनता है। पर-घात की भांति आत्मघात भी जिनागम के अनुसार घोर पाप है-नरक का कारण है। आत्मघात कषाय के तीव्र आवेश में किया जाता है जब कि समाधिमरण कषायों की उपशान्ति होने पर उच्चकोटि के समभाव की अवस्था में किया जा सकता है।
मेघ मुनि का शरीर जब संयम में पुरुषार्थ करने में सहायक नहीं रहा तब उन्होंने पादपोपगमन समाधिमरण ग्रहण किया और उस जर्जरित देह से जीवन का अन्तिम लाभ प्राप्त किया।
२०५–एवं संपेहेए संपेहित्ता कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव' जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्त वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुवासइ।
___ मेघ मुनि ने इस प्रकार विचार किया। विचार करके दूसरे दिन रात्रि के प्रभात रूप में परिणत होने पर यावत् सूर्य के जाज्वल्यमान होने पर जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ पहुँचे। पहुंचकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार, दाहिनी ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वंदना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके न बहुत समीप और न बहुत दूर, योग्य स्थान पर रह कर भगवान् की सेवा करते हुए, नमस्कार करते हुए, सन्मुख विनय के साथ दोनों हाथ जोड़कर उपासना करने लगे। अर्थात् बैठ गए।
२०६-मेहे त्ति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वयासी-'से णूणं तव मेहा! राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव (चिंतिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे ) समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं आरोलेणं जाव जेणेव अहं तेणेव हव्वमागए। से णूणं मेहा! अढे समढे ?'
'हंता अत्थि।' 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।' 'हे मेघ!' इस प्रकार संबोधन करके श्रमण भगवान् महावीर ने मेघ अनगार से इस भाँति कहा
१. प्र. अ. सूत्र २८