Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात]
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'निश्चय ही हे मेघ! रात्रि में, मध्यरात्रि के समय, धर्म-जागरणा जागते हुए तुम्हें इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ है कि इस प्रकार निश्चय ही मैं इस प्रधान तप के कारण दुर्बल हो गया हूँ, इत्यादि पूर्वोक्त यहाँ कह लेना चाहिए यावत् तुम तुरन्त मेरे निकट आये हो। हे मेघ! क्या यह अर्थ समर्थ है? अर्थात् यह बात सत्य है?'
मेघ मुनि बोले-'जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है।' तब भगवान् ने कहा-'देवानुप्रिय! जैसे सुख उपजे वैसा करो। प्रतिबंध न करो।'
२०७-तए णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भुणुन्नाए समाणे हट्ठ जाव हियाए उठाए उढेइ, उठाए उतॄत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहेइ, आरुहिता गोयमाइ समणे निग्गंथे निग्गंथीओ यखामेई, खामेत्ता य ताहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणियं सणियं दुरूहइ, दुरूहित्ता सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता दब्भसंथारगं संथरइ, संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरूहित्ता पुरत्थाभिमुहे संपलियंकनिसने करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट वयासी
' नमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव' संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव' संपाविउकामस्समम धम्मायरियस्स।वंदामिणं भगवंतंतत्थगयं इहागए, पासह मे भगवं तत्थगए इहगयं' ति कट्ट वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
तत्पश्चात् मेघ अनगार श्रमण भगवान् महावीर की आज्ञा प्राप्त करके हृष्ट-तुष्ट हुए। उनके हृदय में आनन्द हुआ। वह उत्थान करके उठे और उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार दक्षिण दिशा से आरम्भ करके प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके स्वयं ही पाँच महाव्रतों का उच्चारण किया और गौतम आदि साधुओं को तथा साध्वियों को खमाया। खमा कर तथारूप (चारित्रवान्) और योगवहन आदि किये हुए स्थविर सन्तों के साथ धीरे-धीरे विपुल नामक पर्वत पर आरूढ हुए। आरूढ होकर स्वयं ही सघन मेघ के समान पृथ्वी-शिलापट्टक की प्रतिलेखना की। प्रतिलेखना करके दर्भ का संथारा बिछाया और उस पर आरूढ हो गये। पूर्व दिशा के सम्मुख पद्मासन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़कर और उन्हें मस्तक से स्पर्श करके (अंजलि करके) इस प्रकार बोले
'अरिहन्त भगवानों को यावत् सिद्धि को प्राप्त सब तीर्थंकरों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य यावत् सिद्धिगति को प्राप्त करने के इच्छुक श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार हो। वहाँ (गुणशील चैत्य में) स्थित भगवान् को यहाँ (विपुलाचल पर) स्थित मैं वन्दना करता हूँ। वहाँ स्थित भगवान् यहाँ स्थित मुझको देखें। इस प्रकार कहकर भगवान् को वन्दना की; नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार कहा
२०८-पुवि पि य णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए
१-२. प्र. अ. सूत्र २८