Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा
है। प्रतिलेखन करके डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करता है। डाभ के संथारे का प्रतिलेखन करके उस पर आसीन होता है। आसीन होकर अष्टमभक्त तप ग्रहण करता है। ग्रहण करके पौषधशाला में पौषधयुक्त होकर, ब्रह्मचर्य अंगीकार करके पहले के मित्र देव का मन में पुनः पुनः चिन्तन करता है।
विवेचन-तेले की तपस्या अष्टमभक्त कहलाती है, क्योंकि पूर्ण रूप से इसे सम्पन्न करने के लिए आठ वार का भक्त-आहार त्यागना आवश्यक है। अष्टमभक्त प्रारंभ करने के पहले दिन एकाशन करना, तीन दिन के छह वार के आहार का त्याग करना और फिर अगले दिन भी एकाशन करना, इस प्रकार आठ वार का आहार त्यागना चाहिए। उपवास और बेला आदि के संबंध में भी यही समझना चाहिए। तभी चतुर्थभक्त, पष्ठभक्त आदि संज्ञाएं वास्तविक रूप में सार्थक होती हैं। देव का आगमन
६८-तए णं तस्स अभयकुमारस्स अट्ठमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति। ततेणं पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणं चलियं पासति, पासित्ता ओहिं पउंजति।तते णं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव' समुष्पजित्था-'एवं खलु मम पुव्वसंगतिए जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे दाहिणड्डभरहे वासे रायगिहे नयरे पोसहसालाए अभए नामं कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठति। सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए।' एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणति, समोहणित्ता खंजेजाइं जोयणाई दंडं निसिरति। तंजहा
जब अभयकुमार का अष्टमभक्त तप प्रायः पूर्ण होने आया, तब पूर्वभव के मित्र देव का आसन चलायमान हुआ। तब पूर्वभव का मित्र सौधर्मकल्पवासी देव अपने आसन को चलित हुआ देखता है और देखकर अवधिज्ञान का उपयोग लगाता है। तब पूर्वभव के मित्र देव को इस प्रकार का यह आन्तरिक विचार उत्पन्न होता है-'इस प्रकार मेरा पूर्वभव का मित्र अभयकुमार जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, दक्षिणार्ध भरत में, राजगृह नगर में, पौषधशाला में अष्टमभक्त ग्रहण करके मन में बार-बार मेरा स्मरण कर रहा है। अतएव मुझे अभयकुमार के समीप प्रकट होना (जाना) योग्य है।' देव इस प्रकार विचार करके उत्तरपूर्व दिग्भाग (ईशानकोण) में जाता है और वैक्रियसमुद्घात करता है, अर्थात् उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीव-प्रदेशों को बाहर निकालता है। जीव-प्रदेशों को बाहर निकाल कर संख्यात योजनों का दंड बनाता है। वह इस प्रकार
६९-रयणाणं १ बइराणं २ वेरुलियाणं ३ लोहियक्खाणं ४ मसारगल्लाणं ५ हंसगब्भाणं ६ पुलगाणं ७ सोगंधियाणं ८ जोइरसाणं ९ अंकाणं १० अंजणाणं ११ रययाणं १२ जायरूवाणं १३ अंजणपुलयाणं १४ फलिहाणं १५ रिट्ठाणं १६ अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिसाडित्ता अहासुहुमे पोग्गले परिगिण्हति, परिगिण्हइत्ता अभयकुमारमणुकंपमाणे देरे पुव्वभजणियनेह पीइ-बहुमाण-जायसोगे, तओ विमाणवरपुण्डरियाओ रयणुत्तमाओ १. प्र. अ. सूत्र ६६