Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[ज्ञाताधर्मकथा सीयाओ पच्चोरुहइ।
___तत्पश्चात् मेघकुमार राजगृह के बीचों-बीच होकर निकला। निकल कर जहाँ गुणशील चैत्य था, वहां आया आकर पुरुषसहस्रवाहिनी पालकी से नीचे उतरा।
१५६-तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कटु जेणामेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छंति।उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तोआयाहिणं पयाहिणं करेन्ति। करित्ता वंदंति, नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी
'एस णं देवाणुप्पिया! मेहे कुमारे अम्हं एके पुत्ते (इढे कंते जाव पिये मणुण्णे मणामे थेजे वेसासिए सम्मए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणभूए) जीवियऊसासए हिययणंदिजणए उंबरपुष्फमिव दुल्लहे सवणयाए किमंग पुण दरिसणयाए? से जहानामए उप्पलेइ वा, पउमेइ वा, कुमुदेइ वा, पंके जाए जले संवड्डिए नोवलिप्पइ पंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं, एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्डे, नोवलिप्पइ कामरएणं, नोवलिप्पइ भोगरएणं, एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउव्विग्गे, भीए जम्मणजरमरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्बइत्तए। अम्हे णं देवाणुप्पियाणं सिस्सभिक्खं दलयामी। पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सभिक्खं।'
तत्पश्चात् मेघकुमार के माता-पिता मेघकुमार को आगे करके जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे, वहाँ आते हैं। आकर श्रमण भगवान् महावीर की तीन बार दक्षिण तरफ से आरंभ करके प्रदक्षिणा करते हैं। करके वन्दन करते हैं, नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहते हैं
हे देवानुप्रिय! यह मेघकुमार हमारा इकलौता पुत्र है। (यह हमें इष्ट है, कान्त है, प्रिय, मनोज्ञ, मणाम-विश्वासपात्र, सम्मत, बहुमत, अनुमत, आभूषणों के पिटारे के समान, रत्न(रत्न जैसा) प्राणों के समान और उच्छ्वास के समान है। हृदय को आनन्द प्रदान करने वाला है। गूलर के पुष्प के समान इसका नाम श्रवण करना भी दुर्लभ है तो दर्शन की बात क्या है? जैसे उत्पल (नील कमल), पद्म (सूर्यविकासी कमल) अथवा कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) कीच में उत्पन्न होता है और जल में वृद्धि पाता है, फिर भी पंक की रज से अथवा जल की रज (कण) से लिप्त नहीं होता, इसी प्रकार मेघकुमार कामों में उत्पन्न हुआ और भोगों में वृद्धि पाया है, फिर भी काम-रज से लिप्त नहीं हुआ, भोगरज से लिप्त नहीं हुआ। हे देवानुप्रिय! यह मेघकुमार संसार के भय से उद्विग्न हुआ है और जन्म जरा मरण से भयभीत हुआ है। अतः देवानुप्रिय (आप) के समीप मुंडित होकर, गृहत्याग करके साधुत्व की प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहता है। हम देवानुप्रिय को शिष्यभिक्षा देते हैं। हे देवानुप्रिय! आप शिष्यभिक्षा अंगीकार कीजिए।
१५७–तए णं से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे एयमटुं सम्म पडिसुणेइ।
तए णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवक्कमइ। अवक्कमित्ता सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ।