Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ]
विवेचन-साधु-संस्था साम्यवाद की सजीव प्रतीक है। उसमें गृहस्थावस्था की सम्पन्नता-असम्पन्नता आधार पर किसी भी प्रकार का भेद नहीं होता । आगमों में उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती सम्राट् के दास का भी दास यदि पहले दीक्षित हो चुका है और उसके पश्चात् स्वयं चक्रवर्ती दीक्षित होता है तो वह उस पर्यायज्येष्ठ पूर्वावस्था के दास के दास को भी उसी प्रकार वन्दन - नमस्कार करता है जैसे अन्य ज्येष्ठ मुनियों
इस प्रकार साधु की दृष्टि में भौतिक सम्पत्ति का मूल्य नहीं होता, केवल आत्मिक वैभव - रत्नत्रय का ही महत्त्व होता है। इसी नीति के अनुसार मेघ मुनि को सोने के लिए स्थान दिया गया था।
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१६३ – तए णं 'मेहा' इ समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं एवं वयासी - ' से णूणं तुमं मेहा! पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं, निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव' महालियं चणं राई णो संचाएमि मुहुत्तमवि अच्छि निमीलावेत्तए' तए णं तुब्धं मेहा! इमे एयारूवे अज्झथिए समुपज्जित्था - 'जया णं अहं अगारमज्झे वसामि तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति जाव' परियाणंति, जप्पभि च णं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयामि, तप्पभिड़ं च णं मम समणा णो आढायंति, जाव नो परियाणंति । अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगइया वायणाए जाव पाय-य-रेणुगुंडियं करेन्ति । तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि अगारमज्झे आवसित्तए' त्ति कट्ट एवं संपेहेसि । संपेहित्ता अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे जाव णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणिं खवेसि । खवित्ता जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए। से नूणं मेहा! एस अट्ठे समट्ठे ?'
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'हंता अट्ठे समट्ठे । '
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तत्पश्चात् 'हे मेघ' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने मेघकुमार से इस प्रकार कहा- 'हे मेघ ! तुम रात्रि के पहले और पिछले काल के अवसर पर, श्रवण निर्ग्रन्थों के वाचना पृच्छना आदि के लिए आवागमन करने के कारण, लम्बी रात्रि पर्यन्त थोड़ी देर के लिए भी आँख नहीं मीच सके। मेघ ! तब तुम्हारे मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ - जब मैं गृहवास में निवास करता था, तब श्रमण निर्ग्रन्थ मेरा आदर करते थे यावत् मुझे जानते थे; परन्तु जब से मैंने मुंडित होकर, गृहवास से निकल कर साधुता की दीक्षा ली है, तब से श्रमण निर्ग्रन्थ न मेरा आदर करते हैं, न मुझे जानते हैं । इसके अतिरिक्त श्रमण रात्रि में कोई वाचना के लिए यावत् (पृच्छना आदि के लिए) आते-जाते मेरे बिस्तर को लांघते हैं यावत् मुझे पैरों की रज से भरते हैं। अतएव मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि प्रभात होने पर श्रमण भगवान् महावीर से पूछ कर मैं पुनः गृहवास में बसने लगूँ।' तुमने इस प्रकार का विचार किया है। विचार करके आर्त्तध्यान के कारण दुःख से पीडित एवं संकल्प-विकल्प से युक्त मानस वाले होकर नरक की तरह ( वेदना में) रात्रि व्यतीत की है। रात्रि व्यतीत करके शीघ्रतापूर्वक मेरे पास आए हो ! हे मेघ ! यह अर्थ समर्थ है - मेरा यह कथन सत्य है ?" मेघकुमार ने उत्तर दिया- जी हाँ, यह अर्थ समर्थ है - प्रभो ! आपका कथन यथार्थ है । प्रतिबोध : पूर्वभवकथन
१६४ – एवं खलु मेहा! तुमं इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयड्डगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियणामधेज्जे सेए संखदलउज्जल - विमल-निम्मल-दहिघण- गोखीरफेण-रयणियर (दगरय-रययणियर) प्यासे सत्तुस्सेहे णवायए दसपरिणाहे सत्तंगपइट्ठिए सोमे समिए सुरूवे
१. प्र. अ. सूत्र १६१,
२- ३. प्र. अ. सूत्र १६१,