Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : उत्क्षिप्तज्ञात ]
[ ८३
हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्वओ समंता दिसोदिसिं विप्पलाइत्था ।
तणं तव मेहा! तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव' समुप्पज्जित्था - ‘कहिं णं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुव्वे । 'तए णं तव मेहा! लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं, अज्झवसाणेणं सोयणेणं, सुभेणं परिणामेणं, तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं, ईहापोह - मग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुव्वे जाइसरणे समुप्पज्जित्था ।
तब एक बार कभी ग्रीष्मकाल के अवसर पर ज्येष्ठ मास में, वन के दावानल की ज्वालाओं से वनप्रदेश जलने लगे। दिशाएँ धूम से व्याप्त हो । उस समय तुम बवण्डर की तरह इधर-उधर भागदौड़ करने लगे । भयभीत हुए, व्याकुल हुए और बहुत डर गए। तब बहुत से हाथियों यावत् हथिनियों आदि के साथ, उनसे परिवृत होकर, चारों ओर एक दिशा से दूसरी दिशा में भागे ।
हे मेघ! उस समय उस वन के दावानल को देखकर तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन एवं मानसिक विचार उत्पन्न हुआ - ' लगता है जैसे इस प्रकार की अग्नि की उत्पत्ति मैंने पहले भी कभी अनुभव की है।' तत्पश्चात् है मेघ ! विशुद्ध होती हुई लेश्याओं, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और जातिस्मरण को आवृत करने वाले (मतिज्ञानावरण) कर्मों का क्षयोपशम होने से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए तुम्हें संज्ञी जीवों को प्राप्त होने वाला जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ।
१७६ – तए णं तुमं मेहा! एयमहं सम्मं अभिसमेसि - ' एवं खलु मया आईए दोच्चे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे वेयड्डगिरिपायमूले जाव' तत्थ णं मया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए । 'तणं तुमं मेहा! तस्सेव दिवसस्स पच्चावरण्हकाल-समयंसि नियएणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था । तए णं तुमं मेहा ! सत्तुस्सेहे जाव' सन्निजाइस्सरणे चउदंते मेरुप्पभे नाम हत्थी होत्था ।
तत्पश्चात् मेघ! तुमने यह अर्थ - वृत्तान्त सम्यक् प्रकार से जान लिया कि - 'निश्चय ही मैं व्यतीत हुए दूसरे भव में, इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरतक्षेत्र में, वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सुखपूर्वक विचरता था । वहाँ इस प्रकार का महान् अग्नि का संभव - प्रादुर्भाव मैंने अनुभव किया है।' तदनन्तर हे मेघ! तुम उस भव में उसी दिन के अन्तिम प्रहर तक अपने यूथ के साथ विचरण करते थे । हे मेघ ! उसके बाद शत्रु हाथी की मार से मृत्यु को प्राप्त होकर दूसरे भव: सात हाथ ऊँचे यावत् जातिस्मरण से युक्त, चार दाँत वाले मेरुप्रभ नामक हाथी हुए ।
१७७–तए णं तुज्झं मेहा! अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - 'तं सेयं खलु मम इयाणिं गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंजायकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए' त्ति कट्टु एवं संपेहेसि । संपेहित्ता सुहं सुहेणं विहरसि ।
तत्पश्चात् हे मेघ! तुम्हें इस प्रकार का अध्यवसाय - चिन्तन, संकल्प उत्पन्न हुआ कि - 'मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि इस समय गंगा महानदी के दक्षिणी किनारे पर विन्ध्याचल की तलहटी में दावानल से रक्षा करने के लिए अपने यूथ साथ बड़ा मंडल बनाऊँ।' इस प्रकार विचार करके तुम सुखपूर्वक विचरने लगे ।
१. प्र. अ. सूत्र १६२
२. प्र. अ. सूत्र १६६
३. प्र. अ. सूत्र १६४,