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आदर्श-जीवन ।
छगनको लेकर मेरे घर आना। श्रीयुत नानचंद अच्छे श्रद्धालु श्रावक थे । साधुओंके पूरे भक्त थे। नगरसेठके यहाँ अक्सर जाया आया करते थे । सेठकी इच्छानुसार नानचंदभाई आपको लेकर सेठके घर गये ।
सेटने आपसे पूछा:- "तुम साधु क्यों होना चाहते हो ?" आपने उत्तर दियाः-" आत्मकल्याणके लिए।" " तुम्हें किसीने बहकाया है ? " " नहीं।" "घरमें दुःख है ?" " नहीं।"
सेठने इसी तरहकी अनेक बातें पूछीं। आपको डराया; लालच दिखाया, मगर आप अपनी भावना पर स्थिर रहे। सेठने एक जरीकी टोपी मँगाई और कहा:-" यह तुम पहनो; मुझे तुम्हारी सादी टोपी दे दो। मैं इसको बतौर यादगारके अपने संदूकमें रक्तूंगा।"
आपने फर्माया:-"यदि आप इस टोपीको रखना चाहते हैं तो इसमें मेरी कोई हानि नहीं है। चार दिन बाद इसे उतारता चार दिन पहले ही आपके भेट कर जाऊँगा। मगर आपकी जरीकी टोपीका बोझा उठानेके लिए मुझसे न कहिए । सादी टोपीका बोझा उठानेमें भी असमर्थ, आपकी जरीकी टोपीका मार कसे सह सकूँगा ?
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