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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાન” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૪
નૃત્યરત્ન કોશ ભાગ - ૧
: દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી કચ્છવાગડ સમુદાયના
અધ્યાત્મયોગી પૂ. આ. શ્રી કલાપૂર્ણસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના શિષ્ય પૂ. આ. શ્રી કલાપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના આજ્ઞાવર્તિની પૂ.સા.શ્રી અતિમુક્તાશ્રીજી મ., પૂ.સા.શ્રી અભ્યુદયાશ્રીજી મ. તથા પૂ.સા. શ્રી અનંતકીર્તિશ્રીજી મ. ની પ્રેરણાથી
અમીરનગર સોસાયટી, સાબરમતી શ્રાવિકાઓની જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
190
138
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(04)
210
274
286
216
532
113
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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075
076
સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
077
1 ભારતનો જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પસ્થાપત્ય
079
શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - १
081 बृह६ शिल्प शास्त्र भाग - २
જૈન ચિત્ર કલ્પબૂમ ભાગ-૧
જૈન ચિત્ર કલ્પવ્રૂમ ભાગ-૨
082 ह शिल्पशास्त्र भाग - 3
O83 आयुर्वेधना अनुभूत प्रयोगो भाग-१
084 ल्याए 125
ORS विश्वलोचन कोश
086 | Sथा रत्न छोश भाग-1
0875था रत्न छोश भाग-2
હસ્તસગ્રીવનમ્
088
089
090
એન્દ્રચતુર્વિશનિકા
સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
गुभ.
शुभ,
गुभ.
गुभ.
शुभ
श्री साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
श्री विद्या साराभाई नवाब
श्री साराभाई नवाब
सं.
श्री मनसुखलाल भुदरमल
श्री जगन्नाथ अंबाराम
शुभ.
शुभ.
शुभ.
शुभ,
गु४.
सं.हिं श्री नंदलाल शर्मा
गुभ.
गुभ.
सं
सं.
श्री जगन्नाथ अंबाराम
श्री जगन्नाथ अंबाराम
पू. कान्तिसागरजी
श्री वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
पू. मेघविजयजीगणि
पू.यशोविजयजी, पू. पुण्यविजयजी
आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
374
238
194
192
254
260
238
260
114
910
436
336
230
322
114
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
122
208 70
310
462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर ( राजस्थान ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट )
द्वारा प्रकाशित
• राडास्मान पुरातन गम माला ,
प्रधान संपादक पुरातत्त्वाचार्य, मुनि जिनविजय [सम्मान्य संचालक - राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर]
प्रकाशनकर्ता संचालक-राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
जयपुर (राजस्थान)
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राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
राजस्थान सरकार द्वारा प्रस्थापित राजस्थानमें प्राचीन साहित्यके संग्रह, संरक्षण, संशोधन
और प्रकाशन कार्यका महत् प्रतिष्ठान
राजस्थानका सुविशाल प्रदेश, अनेकानेक शताब्दियोंसे भारतका एक हृदयस्वरूप स्थान बना हुआ होनेसे विभिन्न जनपदीय संस्कृतियोंका यह एक केन्द्रीय एवं समन्वय भूमि सा संस्थान बना हुआ है। प्राचीनतम आदिकालीन वनवासी भिल्लादि जातियोंके साथ, इतिहासयुगीन आर्य जातिके भिन्न भिन्न जनसमूहोंका यह प्रिय प्रदेश बना हुआ है । वैदिक, जैन, बौद्ध, शैव, भागवत एवं शाक्त आदि नाना प्रकारके धार्मिक तथा दार्शनिक संप्रदायोंके अनुयायी जनों का यहां स्वस्थ और सहिष्णुतापूर्ण सन्निवेश हुआ है। कालक्रमानुसार मौर्य, शक, क्षत्रप, गुप्त, हूण, प्रतिहार, गुहिलोत, परमार, चालुक्य, चाहमान, राष्ट्रकूट आदि भिन्न भिन्न राजवंशोंकी राज्यसत्ताएं इस प्रदेशमें स्थापित होती गईं और उनके शासनकालमें यहांकी जनसंस्कृति और राष्ट्र सम्पत्ति यथेष्ट रूपमें विकसित और समुन्नत बनती रही। लोगों की सुख-समृद्धि के साथ विद्यावानोंकी विद्योपासना भी वैसी ही प्रगतिशील बनी रही, जिसके परिणाममें, समयानुसार, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओंमें असंख्य ग्रन्थोंकी रचनारूप साहित्यिक समृद्धि भी इस प्रदेशमें विपुल प्रमाणमें निर्मित होती गई।
इस प्रदेशमें रहनेवाली जनताका सांस्कृतिक और आध्यात्मिक अनुराग अद्भुत रहा है, और इसके कारण राजस्थानके गांव-गांवमें आज भी नाना प्रकारके पुरातन देवस्थानों और धर्मस्थानोंका गौरवोसादक अस्तित्व हमें दृष्टिगोचर हो रहा है । राजस्थानीय जनता इस प्रकार के उत्तम सांस्कृतिक - आध्यात्मिक अनुरागके कारण विद्योपासक वर्गद्वारा स्थान-स्थान पर विद्यामठों, उपाश्रयों, आश्रमों और देवमन्दिरोंमें वाङ्मयात्मक साहित्यके संग्रहरूप ज्ञानभण्डार-सरस्वतीभण्डार भी यथेष्ट परिमाणमें स्थापित थे। ऐतिहासिक उल्लेखोंके आधारसे ज्ञात होता है कि राजस्थानके अनेकानेक प्राचीन नगर - जैसे आघाट, भिनमाल, जाबालिपुर, सत्यपुर, सीरोही, वाहडमेर, नागौर, मेडता, जैसलमेर, सोजत, पाली फलोदी, जोधपुर, बीकानेर, सुजानगढ, भटिंडा, रणथंभोर, मांडल, चितौड, अजमेर, नराना, आभेर, सांगानेर, किसनगढ, चूरू, फतेहपुर, सीकर आदि सेंकडों स्थानोंमें, अच्छे अच्छे ग्रन्थभण्डार विद्यमान थे। इन भण्डारोंमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओंमें रचे गये हजारों ग्रन्थोंकी हस्तलिखित, मूल्यवान् पोथियां संगृहीत थीं। इनमें से अब केवल जैसलमेर जैसे कुछ-एक स्थानोंके ग्रन्यभण्डार ही किसी प्रकार सुरक्षित रह पाये हैं । मुसलमानों और इंग्रेजों जैसे विदेशीय राज्यलोलुपोंके संहारात्मक आक्रमणों के कारण, हमारी वह. प्राचीन साहित्य-सम्पत्ति बहुत कुछ नष्ट हो गई। जो कुछ बची-खुची थी वह भी पिछले १००-१५० वर्षों के अन्दर, राजस्थानसे बहार - काशी, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, बंगलोर, पूना, बडौदा, अहमदाबाद आदि स्थानों में स्थापित नूतन साहित्यिक संस्थाओंके संग्रहोंमें बडी तादादमें जाती रही है। और तदुपरान्त युरोप एवं अमेरिकाके भिन्न भिन्न ग्रन्थालयोंमें भी हजारों अन्य राजस्थानसे पहुंचते रहे हैं । इस प्रकार यद्यपि राजस्थानका प्राचीन साहित्य भण्डार एक प्रकारसे अब खाली हो गया है; तथापि, खोज करने पर, अब भी हजारों ग्रन्थ यत्रतत्र उपलब्ध हो रहे हैं जो राजस्थान के लिये नितान्त अमूल्य निधि स्वरूप हो कर अत्यन्त ही सुरक्षणीय एवं संग्रहणीय हैं।
२]
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हर्ष और सन्तोषका विषय है कि राजस्थान सरकारने हमारी विनम्र प्रेरणासे प्रेरित हो कर, इस राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर ( राजस्थान ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीटयूट) की स्थापना की है और इसके द्वारा राजस्थानके अवशिष्ट प्राचीन ज्ञानभण्डारकी सुरक्षा करनेका समुचित कार्य प्रारंभ किया है । इस कार्यालय द्वारा राजस्थानके गांव-गांवमें ज्ञात होने वाले ग्रंथों की खोज की जा रही है और जहां कहींसे एवं जिस किसीके पास उपयोगी ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं उनको खरीद कर सुरक्षित रखनेका प्रबन्ध किया जा रहा है । सन् १९५० में इस प्रतिष्ठानकी प्रायोगिक स्थापना की गई थी, और अब पिछले वर्ष, १९५६ के प्रारंभसे, सरकारने इसको स्थायी रूप दे दिया है और इसका कार्यक्षेत्र भी कुछ विस्तृत बनाया गया है । अब तकके प्रायोगिक कार्य के परिणाममें भी इस प्रतिष्ठानमें प्रायः १०००० जितने पुरातन हस्तलिखित ग्रन्थों का एक अच्छा मूल्यवान् संग्रह संचित हो चुका है । आशा है कि भविष्यमें यह कार्य और भी अधिक वेग धारण करता जायगा और दिन-प्रति-दिन अधिकाधिक उन्नति करता जायगा।
जिस प्रकार उक्त रूपसे इस प्रतिष्ठानके प्रस्थापित करने का एक उद्देश्य राजस्थान की प्राचीन साहियिक संपत्तिका संरक्षण करनेका है वैसा ही अन्य उद्देश्य इस साहित्यनिधिके बहुमूल्य रत्नस्वरूप ग्रन्थोंको प्रकाशमें लानेका भी है। राजस्थान में उक्त रूपमें जो प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उनमें सेंकडों प्रन्थ तो ऐसे हैं जो अभी तक प्रकाशमें नहीं आये हैं; और सें फडों ही ऐसे हैं जिनके नाम तक भी अभी तक विद्वानोंको ज्ञात नहीं है। यह सब कोई जानते हैं कि इन ग्रन्थों में हमारे राष्ट्र के प्राचीन सांस्कृतिक इतिहासकी विपुल साधन-सामग्री छिपी पड़ी है। हमारे पूर्वज हजारों वर्षों तक जो ज्ञानार्जन करते रहे उसका निष्कर्ष और नवनीत नीकाल नीकाल कर, वे अपनी भावी सन्ततिके उपयोगके लिये इन ग्रन्थाः त्मक कृतियोंमें संचित करते गये । व्याकरण, कोष, काव्य, नाटक, अलंकार, छन्द, ज्योतिष, वैद्यक, कामविज्ञान, अर्थशास्त्र, शिल्पकला आदि लौकिक विद्याओंके ज्ञानके साथ श्रुति, स्मृति, पुराण, धर्मसूत्र, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, जैन, बौद्ध, शाक्त, तंत्र, मंत्र आदि धार्मिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विद्याओंके रहस्य भी इन ग्रन्थोंमें नाना स्वरूपोंमें ग्रथित किये हुए हैं । इसी प्रकार, युग युगमें होने वाले अनेक शूर-वीर, दानी-ज्ञानी, सन्त-महन्त, त्यागी-वैरागी, भक्त-विरक्त आदि गुण विशिष्ट नर-नारी जनोंके जीवन और कार्योंके विविध वर्णन - चित्रण भी इन्हीं ग्रन्थोंमें अन्तर्निहित हैं । अर्थात् हमारे राष्ट्रकी सर्व प्रकारकी गौरव-गरिमा विषयक कथा-गाथाकी रक्षा करने वाला हमारा यही एकमात्र प्राचीन साहित्यसंग्रह है। इसी के प्रकाशसे संसारमें भारतका गुरुपद ज्ञात हुआ और स्थापित हुआ है। यद्यपि आज तक इनमेंसे हजारों ही प्राचीन ग्रन्थ, प्रकाशमें आ चुके हैं, फिर भी हजारों ही ऐसे ग्रन्थ और बाकी हैं जो अन्धकारके तलघरमें दटे पड़े हैं । इनका उद्धार करना और इन्हें प्रकाशमें रखना यह अब इस नूतन जीवन प्राप्त नव्य भारतके प्रत्येक व्यक्ति और संस्थाका परम कर्तव्य है। इसी कर्तव्यको लक्ष्य कर, इस संस्था द्वारा 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' के प्रकाशनका आयोजन भी किया गया है । इसके द्वारा संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और देश्य भाषाओं में निबद्ध विविध विषयों के प्राचीन ग्रन्थ, तज्ज्ञ एवं सुयोग्य विद्वानोंसे संशोधित और संपादित हो कर प्रकाशित किये जा रहे हैं । अब तक कोई छोटे बडे २० ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं और प्रायः ३० से अधिक ग्रन्थ प्रेसोंमें छप रहे हैं। राजस्थान सरकार वर्तमानमें, इस कार्यके लिये प्रतिवर्ष २०००० रूपये खर्च कर रही है-पर हमारी कामना है कि भविष्यमें यह रकम बढाई जाय और तदनुसार अधिक संख्यामें इन प्राचीन ग्रन्थोंका समुद्धार और प्रकाशन कार्य किया जाय ।
साहित्यका प्रकाश ही प्रजाके अज्ञानान्धकारको नष्ट कर, उसे दिव्यताका दर्शन कराता है ।
माघ शुक्ला १४, वि० सं० २०१३. (जीवनके ७० वें वर्षका प्रथम दिन)।
मुनि जिन विजय
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमालाके कुछ ग्रन्थ
प्रकाशित ग्रन्थ
३ करुणामृतप्रपा - ठकुर सोमेश्वर
४ बालशिक्षाव्याकरण - ठकुर संग्रामसिंह . संस्कृत
५ पदार्थरत्नमञ्जूषा-पं० कृष्णमिश्र प्रमाण मारी-तार्किक चूडामणि सर्वदेवा- काव्यप्रकाशा संकेत-भद्र सोमेश्वर
चार्य प्रणीत। तीन व्याख्याओंसे समलंकृत। ७ वसन्तविलास - फागु काव्य २ यन्त्रराजरचना-जयपुर नरेश महाराज
८ नृत्यरत्नकोश- राजाधिराज कुंभकर्ण देव सवाई जयसिंह समारचित ।
९ नन्दोपाख्यान - संस्कृत और राजस्थानी ३ महर्षिकुलवैभवम् - विद्यावाचस्पति स्व. श्रीमधुसूदन ओझाविरचित।
१० रत्नकोश - विविधवस्तुसंग्रह विचारात्मक ४ तर्कसंग्रह-फकिका- पं० क्षमाकल्याण कृत।
११ चान्द्रव्याकरणम् - आचार्य चन्द्रगोमि ५ कारकसंबन्धोद्योत-पं. रभसनन्दिकृत। १२ स्वयंभू छंद - स्वयंभू कवि ६ वृत्तिदीपिका-पं० मौलिकृष्णभट्ट कृत। १३ प्राकृतानन्द - कवि रघुनाथ ७ शब्दरत्नप्रदीप - संक्षिप्त संस्कृत शब्दकोष। १४ मुग्धावबोध आदि औक्तिक संग्रह ८ कृष्णगीति- कवि सोमनाथकृत गीतिकाव्य। १५ कविकौस्तुभ-पं० रघुनाथ मनोहर ९ शंगारहारावलि- हर्षकवि विरचित। १६ दुर्गापुष्पांजलि -पं० दुर्गाप्रसादजी १० चक्रपाणिविजयमहाकाव्य - पं० लक्ष्मी- १७ दशकण्ठवधम् - , धरभट्ट रचित।
१८ कर्णकुतूहल नाटक ११ राजविनोद काव्य - कवि उदयराज रचित। १९ कृष्णलीलामृत काव्य १२ नृत्तसंग्रह-नाट्यविषयक पठनीय ग्रन्थ । ' १३ नृत्यरत्नकोश- महाराणा कुम्भकर्ण प्रणीत। राज्यस्थानी भाषाग्रन्थ १४ उक्तिरत्नाकर-पण्डित साधुसुन्दरगणी कृत। १ बांकीदासरी बातां- चारणकवि बांकीदास १५ कविदर्पण - प्राकृत छन्दोरचनात्मक ग्रन्थ । २ मुंहता नैणसीरी ख्यात- जोधपुरके १६ वृत्तजातिसमुच्चय - विरहाङ्क कवि कृत। मुंहता नेणसी लिखित १७ ईश्वरविलास महाकाव्य - पं० कृष्णभट्ट- ३ गोरा बादल-पदमिणी चउपई - जैन कविकृत।
यति कवि हेमरतन कृत राजस्थानी भाषा ग्रन्थ ४ राठोड वंशरी विगत - राठोडोंके १ कान्हड दे प्रबन्ध - कवि पद्मनाभ रचित। इतिहासकी कथाएं। २ क्यामखां रासा- मुस्लिम कवि जानकृत। ५ राजस्थानी साहित्य संग्रह - राजस्थानी ३ लावारासा- चारणकविया गोपालदानकृत। भाषा में लिखित विविध वृत्तान्त । प्रेसोंमें छप रहे ग्रन्थ
६ दाढाला एकल गिडरी बात - राजस्थानी
भाषाकी एक सरस प्रहसनात्मक रचना । (क) संस्कृत ग्रन्थ
७ सुजान संवत - कवि उदयराम रचित ' १ त्रिपुराभारती- लघुपंडित
८ चन्द्रवंशावलि-कवि मतिराम कृत २ शकुनप्रदीप - लावण्य शर्मा
९ राजस्थानी दूहा संग्रह इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त अनेकानेक संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी - हिन्दी भाषामें रचे गये ग्रन्थोंका संशोधन - संपादन आदि कार्य किया जा रहा है।
इसी तरह राष्ट्र - भाषा हिन्दीमें भी उच्च कोटिके ग्रन्थोंके प्रकाशनका आयोजन चल रहा है।
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त्यान पुरातन ग्रन्थमाला प्रधान संपादक- पुरातत्त्वाचार्य, जिनविजय मुनि [सम्मान्य संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर]
चित्रकूटाधिपति-कुम्भकर्ण-नृपतिप्रणीत नृत्य रत्न कोश
(प्रथम भाग)
राजस्थान राज्य संस्थापित राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
जयपुर (राजस्थान)
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राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला
राजस्थान राज्यद्वारा प्रकाशित सामान्यतः अखिलभारतीय तथा विशेषतः राजस्थानदेशीय पुरातन कालीन - संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी मादि भाषानिबद्ध
विविधवाङ्मयप्रकाशिनी विशिष्ट ग्रन्यावलि
प्रधान संपादक पुरातत्त्वाचार्य, जिनविजय मुनि [ ऑनररि मेंबर ऑफ जर्मन ओरिएन्टल सोसाइटी, जर्मनी ] .
सम्मान्य सदस्य भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मन्दिर, पूना; गुजरात साहित्य समा, अहमदाबाद विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोधप्रतिष्ठान होसियारपुर निवृत्त सम्मान्य नियामक
(जॉनररि डॉयरेक्टर)-भारतीय विद्याभवन, बंबई.
waaz ग्रन्थाङ्क २४ EEEEE मेदपाटदेशीय चित्रकूटाधिपति कुम्भकर्ण नृपति प्रणीत
नृत्य रत्न कोश
[प्रथम भाग]
प्रकाशक
राजस्थान राज्याशानुसार संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर
जयपुर (राजस्थान)
माघ विक्रमाब्द २०१३
राज्यनियमानुसार- सर्वाधिकार सुरक्षित
र
· फरवरी खिस्ताब्द १९५७
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राजस्थानान्तर्गत-मेदपाटदेशीय - चित्रकूटदुर्गाधिपति नृपति कुम्भकर्णदेव प्रणीत
नृत्य रत्न कोश
[ विविधपाठभेदादि समलंकृत - प्रथमवार प्रकाशित ] ( प्रथम भाग - पूर्वार्ध)
संपादक
प्रा. रसिकलाल छोटालाल परीख
( अध्यक्ष - गुजरातविद्यासभाऽन्तर्गत - भो. जे. उच्चाध्ययन - संशोधन विद्यामन्दिर, अहमदाबाद )
तथा
डॉ. प्रियबाला शाहा, एम्. ए. पीएच्. डी. (बंबई) डी.लिट्. ( पारस )
( प्रा. प्राचीन भारतीय इतिहास तथा संस्कृति विभाग, रामानन्द महाविद्यालय, अहमदाबाद )
प्रकाशनकर्ता
राजस्थान राज्याशानुसार
संचालक, राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर जयपुर (राजस्थान )
विक्रमाब्द २०१३ ]
*
[ खिस्ताब्द १९५७
मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस,
२६ - २८ कोलभाट स्ट्रीट, बंबई २.
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पृ.
१-७०
.
..
७०-८२
... नृत्यरत्नकोश- अनुक्रम १ प्रथमोल्लासे - प्रथममङ्गपरीक्षणम् २ , द्वितीयं प्रत्यङ्गपरीक्षणम् ३ , तृतीयमुपाङ्गपरीक्षणम् ४ , चतुर्थ आहार्याभिनयपरीक्षणम् ५ द्वितीयोल्लासे प्रथम स्थानकपरीक्षणम् ६ , द्वितीयं शुद्धचारीपरीक्षणम्
, तृतीयं देशीचारी परीक्षणम् " कलानिधिग्रन्थोद्धृतदेशी
चार्यादिलक्षणम् ". चतुर्थ मण्डललक्षणम्
८२-१०२ , १०२-१०६ , १०७-११८
११९-१२५ १२६-१३२
., १३३-१३८
॥ १३८-१४४
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प्रधानसंपादकीय किंचित् प्रास्ताविक
विशाल राजस्थानान्तर्गत मेदपाट (मेवाड) देशकी महत्ता भारतविभुत है । इस मेवाडके मस्तकस्थानीय चित्रकूट (चित्तौड) का - जिसको कवियोंने पृथ्वीके मुकुटकी उपमा दी है-ऐतिहासिक गौरव, भारतके भूत कालमें अपना अनन्य स्थान रखता है। अतः आधुनिक भारतका प्रत्येक राष्ट्रभक्त इस पुण्यभूमि चित्तौडकी यात्रा करना अपना परम कर्तव्य समझता है । इसी चित्तौडके दुर्गरूप मुकुटमें कलगीके समान, वह जगत्प्रसिद्ध कीर्तिस्तंभ विराजमान है, जिसके चित्र भारतके प्राचीन स्थापत्य विषयक प्रत्येक प्रन्थमें और इतिहास विषयक प्रत्येक पुस्तकमें दृष्टिगोचर होते रहते हैं । चित्तौडके यात्रीको, बहुत दूरसे, सबसे प्रथम दर्शन, इसी कीर्तनरूप कीर्तिस्तंभके होते हैं। चित्रकूट के सबसे बडे वीर और विद्वान् नृपति महाराणा कुंभकर्णने (जिनका अधिक लोकप्रिय नाम संक्षेपमें कुंभा प्रसिद्ध है ) यह कीर्तिस्तंभ बनवाया था। स्थापत्य कलाकी दृष्टि से महाराणा कुंभाकी यह कृति अपने ढंगकी अनुपम है। सारे भारतवर्षमें इस प्रकारका अन्य कोई कीर्तिस्तंभ विद्यमान नहीं है। ___महाराणा कुंभा, जैसे वीरशिरोमणि नृपति थे वैसे ही वे कला और विद्याके विषयमें भी अद्भुत प्रतिभासंपन्न और निर्माण कार्य-कुशल व्यक्ति थे। उनके अद्भुतकलाप्रेमके द्योतक, चित्तौडके कीर्तिस्तंभके अतिरिक्त, आरावली पर्वतमालाके सबसे सुन्दरतम शिखर पर सुशोभित कुंभलमेर. नामक दुर्ग और उसके अनेकानेक स्थान विद्यमान हैं। उन्हीके कलाप्रेमसे प्रोत्साहित हो कर, आबूप्रदेश निवासी धन्ना नामक पोरवाड जातिके जैन वणिक्ने आरावलीकी उपत्यकामें राणकपुरका वह अद्भुत जैन मन्दिर बनवाया जो अपनी विशालता एवं कलामयताकी दृष्टि से, न केवल भारतमें ही अपितु सारे एशिया खण्डमें, एक दर्शनीय स्थान बना हुआ है। महाराणा कुंभाके संरक्षणमें उस मन्दिरका निर्माण हुआ अतः उस स्थानका नाम ही राणकपुरके रूपमें सुप्रसिद्ध हुआ।
इन्हीं महाराणा कुम्भकर्णका बनाया हुआ साहित्यिक कीर्तिस्तंभस्वरूप 'संगीतराज' नामक संस्कृत भाषाका महान ग्रन्थ उपलब्ध होता है जिसका एक भाग, प्रस्तुत रूपमें, विद्वानोंके करकमलमें उपस्थित है। यह संगीतराज ग्रन्थ बहुत बड़ा है । सोलह हजार श्लोकों जितना इसका परिमाण है । १६-१६ अक्षरोंकी एक पंक्तिके हिसाबसे ३२००० पंक्तियोंमें यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ है । ग्रन्थके नामसे ही ज्ञात होता है कि भारतीय संगीत कलाके विषयमें इस ग्रन्थमें सर्वाङ्ग परिपूर्ण विवेचन किया गया है । हमारे देशकी प्राचीन परंपरानुसार संगीतके अन्तर्गत, उससे संबद्ध नृत्य और वाद्य कलाका भी समावेश हो जाता है । अतः इस ग्रन्थमें गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों विषयका बहुत ही विस्तृत और वैविध्यपूर्ण विवेचन किया गया है।
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नृत्यरत्नकोश
राजस्थानके एक महान् नृपतिकी अनुपम साहित्यिक कृति होनेके कारण, इस ग्रन्थराजके प्रकाशनका महत् कार्य 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' द्वारा करनेका हमने आयोजन किया है । इस ग्रन्थका प्रारंभिक अंशात्मक कुछ भाग 'पाठ्य रत्नकोश के नामसे बीकानेरके सुप्रसिद्ध अनूप पुस्तकालयके तत्त्वावधानमें प्रकट किया गया थापर साधनाभाव से आगेका काम स्थगित कर दिया गया ।
*
I
प्रस्तुत 'नृत्यरत्नकोश' की एक प्राचीन पोथी बडोदांके 'गायकवाड प्राच्य विद्यामन्दिर' के ग्रन्थ संग्रह में, प्राध्यापक श्री रसिकलालजी परीखके देखनेमें आई जिसके बारेमें उनने मुझसे जिक्र किया। सुश्री डॉ० प्रियबाला शाहा, जो उन दिनों प्राध्यापक परीखजीके समीप नृत्यकला विषयक साहित्यका विशेष अवलोकन एवं अनुसन्धान कार्य कर रही थीं, बडोदा जा कर वह पोथी ले आईं और मुझे दिखाई । पोथीका दर्शनमात्र करते ही मुझे प्रन्थकी विशिष्टता प्रतीत हो गई और तुरन्त मैंने श्री परीखजी तथा सुश्री प्रियबालाको इसका संपादन कार्य करनेकी प्रेरणा दी और राजस्थान पुरातन प्रन्थमाला द्वारा इसको प्रकाशित करनेकी योजना की । खोज करने पर ज्ञात हुआ कि इस ग्रन्थकी दो अन्य प्राचीन प्रतियां बीकानेर के अनूप पुस्तकालय में सुरक्षित हैं । पर वह पुस्तकालय, बीकानेर महाराजके निजी अधिकारमें होनेसे उनकी प्राप्तिकी समस्या हमारे सम्मुख उपस्थित हुई । प्रसंगवश स्वर्गवासी भारतीय लोकसभा अध्यक्ष माननीय श्री मावलंकरजीसे जिक्र किया, तो उनने बीकानेर महाराजको अपना निजी पत्र भेज कर हमारे लिये उक्त मूल्यवान् पोथियोंकी प्राप्ति सुलभ कर दी ।
इन पोथियोंके आधारसे, प्रेस कॉपी तैयार होने पर अहमदाबादके ही एक प्रेस में मुद्रणकार्य प्रारंभ कराया गया । कुछ समय बाद सुश्री डॉ. प्रियबाला, अपने अध्ययनमें विशेष प्रगति करनेकी दृष्टिसे, फ्रान्स में पारिस- युनिवर्सिटीमें प्रविष्ट होने चली गईं । प्रा० श्री परीखजी भी, गुजरात विद्या सभा अन्तर्गत उच्च अध्ययन एवं संशोधन कार्यकारी भो० जे० विद्या मन्दिरकी नाना प्रकारकी प्रवृत्तियों में अत्यधिक व्यस्त रहनेके कारण, इस ग्रन्थका मुद्रणकार्य प्रायः ४ वर्ष तक स्थगित सा ही रहा । सुश्री डॉ० प्रियबालाके विदेशसे वापस आने पर, मुद्रणका कार्य फिर हाथमें लिया गया । पर अहमदाबादके जिस प्रेसमें प्रथम यह कार्य प्रारंभ किया गया था उसका काम संतोष जनक न होनेसे एवं प्रेसकी स्थिति भी अन्याधीन हो जानेसे, बंबईके सुप्रसिद्ध निर्णय सागर प्रेसमें इस मुद्रणका प्रबन्ध किया गया ।
ग्रन्थका वर्ण्य विषय एक प्रकारसे सर्वथा पारिभाषात्मक हो कर गीत-नृत्यादि कलाविशेषज्ञके सु-अभ्यस्त तथा स्वानुभवप्राप्त ज्ञानसे विशिष्ट संबन्ध रखता है | अतः इसका संपादन कार्य ही विद्वान् समुचित रूपसे कर सकता है जिसका साहित्यिक अध्ययन एवं प्रायोगिक अनुभव - दोनों ही यथेष्ट प्रमाणमें हों । प्रस्तुत ग्रन्थके संपादक
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किञ्चित् प्रास्ताविक द्वय इस विषयके उत्तम विशेषज्ञ हैं। श्री परीखजी गुजरातके ख्यातिप्राप्त नाट्यकारएवं नाट्यकलाविदोंके अग्र दिग्दर्शक हैं । संगीतराज महाग्रन्थका प्रस्तुत 'नृत्य रत्नकोश' प्रकरण ४ उल्लासोंमें विभक्त है । इनमें से प्रथम दो उल्लास, प्रथम भागके रूपमें, प्रकट किये जा रहे हैं । अवशिष्ट २ उल्लास, द्वितीय भागमें आवेंगे, जो प्रेसमें छप रहा है । संपादकोंकी लिखी गई विस्तृत प्रस्तावना आदि विवेचना, उसी द्वितीय भागमें दी जायगी; तथा ग्रन्थकी प्राचीन प्रतियां एवं उनके बारेमें जानने योग्य अन्यान्य सब बातोंका विवरण भी उसीमें दिया जायगा।
इस संगीतराज ग्रन्थके भिन्न भिन्न खण्डोंकी जो प्राचीन पोथियां प्राप्त हो रही हैं, उनमें, परस्पर, ग्रन्थकर्ताविषयक प्रशस्यात्मक विशिष्ट उल्लेखोंमें विचित्र पाठ भेद मिलता है। एक प्रतिमें महाराणा कुंभकर्णकी जगह, किसी महाराज कालसेन और उसकी कीर्तिकथासूचक वर्ण्य प्रशस्ति दी हुई मिलती है । बीकानेरसे प्रकाशित 'पाख्य रत्नकोश की प्रस्तावनामें, उसके संपादक विद्वान् डॉ० कुन्हनराजाने इस विषयको ले कर बडे तर्क-वितर्क किये हैं और ग्रन्थकर्ताके बारेमें, वे एक प्रकारसे, बडे भ्रममें पड गये हैं। हमको इस भ्रमके निराकरणके लिये उन पोथियों ही से प्रत्यक्ष सामग्री प्राप्त है अतः इसका वर्णन भी उसी अगले भागमें दिया जायगा । बंबई - भारतीय विद्या भवन ।
मुनि जिन विजय दिनांक - २७, जनवरी. १९५७ ।
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मेदपाटदेशाधीश्वर-श्रीकुम्भकर्णनृपति-विरचितः
नत्य रत्न कोशः।
प्रथमोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् ।
[मङ्गलम् ।] उचैर्नाथ सृजाङ्गहाररचनां सद्धस्तकोल्लासिनी
‘खान्येवं करणानि योजय पदे मा संभ्रमं प्रापय । कौचे चारचयाशयानुगतिकाश्चारी शुभे मण्डले
संप्रोक्तोऽद्रिजयेति सौरतरसे नृत्यन् शिवः पातु वः॥ १ एतत् किं जलमाङ्गिक ननु मृषा किं वाचिकं तन्यते
नो मिथ्या सहशं तदेवमधुनाऽऽहार्य विभो युज्यते। 10 मुग्धे सात्त्विकमेतदन्न विदितं किं नेति ते तत्त्वतो ......गङ्गां मूर्द्धनि गोपतो विजयते शम्भोगिरां विभ्रमः॥ २ .
शिरोदेशे[चन्द्रं १] रुचिरकरपद्मेऽक्षवलयं . बरे वक्षःपीठे पृथुभुजगहारोज्वलमणिम् । शिवां पार्वे कव्यां फणिमणिगणारब्धरशनां पवाजे विभ्राणः कटकमहिजं वोऽवतु शिवः॥
[नाट्यशास्त्रस्य निष्पत्तिः।। पाव्या(नाव्या ?)देरुपयोगार्थमथ नृत्यं प्रपश्यते । - तदभावे यतः सर्व निर्जीवमिव भासते ॥
न नृत्येन समं किञ्चिद् दृश्यं श्रव्यं च विद्यते। चतुर्वर्गफलावाप्तिर्नृत्यादेव यतः स्मृता ॥ कैश्चिद् ब्रह्मादिभिर्धर्मः कैश्चिदर्थोऽप्युपार्जितः। कैश्चित् कामफलं प्राप्तं कैश्चिन्मोक्षोऽपि नृत्यतः॥ .. प्रागल्भ्यमप्रगल्भानां सौभाग्यं च तदर्थिनाम् ।
उत्साहो हीनमनसां कीर्तिरौदार्यशालिनाम् ॥ 't a begins :-श्रीगणेशाय नमः, BG ० ॥ श्रीगोपीजनवल्लभाय नमः ॥ 1 ABO द्वार। 2 ABO °री। 3 B0 द्रियते। 4 ABC °देशेरुचि। 5 ABO मणि। 6 Bo-*ता। 70 चि ब्रह्मा।
४20
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नृ० र० को० उल्लास १, परीक्षण १ [ नाट्यशास्त्रपारम्पर्यम्
ईश्वराणां विलास स्पैर्य चञ्चलचेतसाम् । दुःखिनां धैर्यकरणमिन्द्रियाणां तु कार्मणम् ॥ यूनां शृङ्गारसर्वखं मानो मानवतामिदम् । एतद् धन्यतमं लोके खर्गेऽप्येतत् प्रशस्यते ॥ भूपानामभिषेचने पुरगृहप्रवेशिके कर्मणि "प्रेष्ठानामपि सङ्गमे सुतजनौ पर्वस्वभीष्टातिषु । यात्रायां विजयोत्सवे सुरगमे वैवाहिके मङ्गले मङ्गल्येषु च सर्वकर्मसु तथा यज्ञादिपूर्त्तेष्वपि ॥
*
१०
[ नाट्यशास्त्रस्य पारम्पर्यम् । ]
मङ्गल्यं जनताप्रियं नरपतिप्रेष्ठं विशेषादिदं शोभाव्यं परमेतदेव जगतां नृत्यं प्रमोदास्पदम् । 'इन्द्राभ्यर्थनया पुरेदमखिलं साङ्गं विधाताऽभ्यधात्
सोऽपीदं भरताय साङ्गमदिशत् तत्प्रार्थनाभ्यर्थितः ॥ ११ नाव्यादित्रितयं ततः स तु सुतैः साकं शतेनाप्सरोवृन्वैश्वापि शिवाग्रतोऽयमहिम प्रायुक्त तत् प्रीतिविद् । एवं प्रीतिपरम्परापरवशोऽप्यस्मै तदादीदृशत् शम्भुस्ताण्डवमुद्धताङ्गरचनं खोपक्रमं तण्डुना ॥ लास्यं चास्य पुरः पुरा स्वभणितैरङ्गैर्द्विपञ्चैर्युतं
१२
पार्वत्याः समदीदृशत् स भगवान् सर्वज्ञचूडामणिः । नन्वेतद् विदितं परोन्नतिभृतोऽन्योत्कर्ष सर्वकषाः
प्रायेणैव परोन्नतिं धृतिभृतः के वा सहन्ते बुधाः ॥ १३ एवं ते भरतात्मजा गणवरात्तण्डोर्विदित्वाऽवदन्
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'मयेभ्यः किल ताण्डवं गिरिसुता वाणात्मजां तामुषाम् । लास्यं साङ्गमबीभणत् पुनरुषा गोपीगणं प्रीतितस्तेन प्राप्य ततः समग्रमुदितं सौराष्ट्रयोषाग्रतः ॥ नानादेशसमुद्भवाश्च ललनांस्ताभिस्ततः शिक्षिता
स्ताभ्योऽप्यत्र परम्परागतमिदं लोके प्रतिष्ठामगात् । पार्थायैतदुपादिशत् पुनरिदं गन्धर्वलोकाधिपः
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१४
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श्रीमान् चित्ररथस्तदेतदखिलं मार्गाभिधं तत्त्वतः ॥
१५
❤
1 ABC इन्द्रोभ्य' । 2 ABC ° त्या समु' | 3 B0 मर्तेभ्यः । 24 4B0 ° मा नाभि ।
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संग्रहः] मु०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १ तेनेदं च विराटराजदुहिता संशिक्षितात्रोत्तरा
तस्योच्छित्तिरभूदिहापि कियता कालेन तद् वै पुनः । आराध्याखिललोकशोकशमनं शम्भु नृपः साकल
स्तस्मात् साङ्गमवाप्य महँनिवहायोपादिशद् विस्तरात्॥१६ कालेनाथ पुनर्विलीनमिव तद् दृष्ट्वा गणग्रामणी
शम्भुः कुम्भनृपोपधिः प्रयतते वक्तुं विदामग्रणीः।। 'नाव्यादित्रिविधोपपत्तिकलनोपेतस्य तस्याधुना
नानार्थाभिनयप्रपञ्चरचनारम्यः क्रमो वर्ण्यते ॥
[ शास्त्रसंग्रहः।] निष्पत्ति व्यशास्त्रस्य तत्पारम्पर्यकीर्तनम् । निर्मिति व्यशालाया निवेशोऽथ सभापतेः ॥ संनिवेशः सभायाश्च सर्वरङ्गार्थकीर्तनम् । कीर्तनं पूर्वरङ्गाङ्गप्रत्याहारादिलक्ष्मणः ॥ [आदौ १] सम्यक् नान्दीलक्ष्म ध्रुवा सोपोहना ततः। पात्रस्याथ प्रवेशश्च तथैवाङ्गनिरूपणम् ॥ प्रत्यङ्गालक्ष्मोपाङ्गानां लक्ष्माभिनयलक्षणम् । हस्तस्य करणं हस्तक्षेत्रस्यापि च लक्षणम् ॥ प्रचारो हस्तयोस्तद्वद्धस्तकर्माण्यनुक्रमात्। स्थानकानि तथा चार्यों द्विविधा मण्डलान्यपि ॥ द्विविधानि तथा नृत्तकरणानि तथैव च । तानि चोत्लुतिपूर्वाणि कलासाश्च सरेचकाः॥ करणैरभिनिवृत्ता अङ्गहारा द्विधा ततः। वृत्तयश्च तथा न्यायाश्चातुर्विध्यमुपाश्रिताः॥ देशनृत्तविधिद्वैधा तथा परिवडिर्मता। नृत्तं पेरणिनस्तस्य लक्षणं पात्रलक्ष्म च ॥ लास्याङ्गानां तथा लक्ष्मोपाध्यायाचार्ययोस्तथा। नटनर्तकयोस्तबल्लक्ष्म वैतालिकस्य च ॥ लक्षणं रेचकस्याथ देशीनुत्तभिदां तथा। लक्षणं रासकादीनां लक्ष्म कोहाण्टिकस्य तु॥ 1 ABG °योगादि। 2 B0 नट्यादि। 3 ABO 'नादी। ...
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नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [नाट्यशालानिर्माणम् वृत्तश्रमविधिस्तद्वत् संप्रदायस्य लक्षणम् । तद्गताच गुणा दोषाः क्रमेणैतत् प्रकाश्यते ॥ २८
10
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[ नाट्यशालानिमाणम् ।] निष्पत्तिर्नाव्यशास्त्रस्य तत्पारम्पर्यकीर्तनम् । उभयं पूर्वमेवोक्तमथ निर्माणमुच्यते ॥ नाट्यशालागतं तत्र परीक्षेत भुवं पुरः। नाव्यवेश्मगतः कुर्याद् वास्तु लक्षणलक्षितम् ॥ दोषैरदूषिता भूमिः समा गौरी स्थिरा दृढा । अनूषरा भूमिदोषैः कीलकायैरदूषिता॥ लागलोल्लिखिता शस्ता तत्राणि समासतः। हस्तपुष्यानुराधान्त्यसौम्यचित्रोत्तरासु च ॥ द्विदैवत्ये दिने शस्ते विष्टयाधैरपरिप्लुते। पुण्याहवाचनाद्येन नाव्यवेश्म समारभेत् ॥ समां कृत्वा भुवं तत्र सितं सूत्रं प्रयत्नतः। कपोसाद्यन्यतरजं दृढं नूनं प्रसारयेत् ॥ · यदाकृष्टं बलात् पुम्भिनं त्रुट्यति कदाचन ।
मध्य-त्रिभाग-तुर्याशे त्रुटिते क्रमतो भवेत् ॥ विभु-राष्ट्र प्रयोक्तॄणां फलं दोषावहं तथा । हस्तात् प्रसार्यमाणेऽस्मिन् भ्रष्टेऽप्यपचयो भवेत् ॥ ततः सूत्रं दृढं कार्य नाव्यवेश्मविनिर्मिती । तत् त्रिधा गदितं वेश्म निकृष्टं चतुरस्रकम् ॥ त्र्यसं चेति पुनर्मध्यं दीर्घ सममिति द्विधा । तत्राचं देवतागारमतिदीर्घमनुत्तमम् ॥ चतुरस्रं च यद् दीर्घ भूपतीनां तदीरितम् । ब्राह्मणादेहं प्रोक्तं चतुरस्त्रं समं बुधैः ॥ शूद्रादिहीनवर्णानां वेश्म त्र्यस्रमिहोदितम् । प्रेक्षागृहाणां निर्माणे प्रमाणं विश्वकर्मणा ॥ निर्दिष्टं तत् प्रबोद्धव्यमणुश्चैव रजस्तथा। वालो लिक्षा च यूका च यवाश्चैवाङ्गुलं तथा ॥
.20
1 Boइट। 20 तर्दिष्ट ।
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नापशालानिर्माणम् ] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण १ _एकैकोत्तरवृद्ध्या च क्रमावष्टगुणं त्विवम् ।
हस्ताङ्गुलानां विंशत्या चतुरन्वितया मितः॥ ... चतुर्हस्तो भवेद् दण्डो नाव्यवेश्ममिती सदा।. तत्र स्यानाकिनां वेश्म 'सप्तविंशतिदण्डकम् ॥ वैये विस्तरतस्तत् स्यात् तदर्धेन मितं पुनः। वृणां षोडशभिर्दण्डैर्मितमायामतो मतम् ॥ 'त्रिरष्टभिस्तु विस्तारे तत्र सूत्रं प्रसारयेत्। नाव्यवेश्म न कर्तव्यमत ऊर्ध्वं कदाचन ॥ . . प्रेक्षागृहाणां सर्वेषां मध्यमं मानमिष्यते । यतस्तस्मिन् कृतं पाठ्यं गेयं च अव्यतां ब्रजेत् ॥ संसाध्या भूमिरायामे पूर्वपश्चिमयोर्दिशोः। पक्षिणोत्तरविस्तारो प्रतीच्या विभजेच्च ताम् ॥ दण्डैश्चतुभिाभ्यां च द्वाभ्यामष्टाभिरेव च । चत्वारः स्युः क्रमाद् भागास्तेषु पश्चिमतो भवेत् ॥ नेपथ्यस्य गृहीतस्य पुरतो रङ्गशीर्षभूः। तवग्रतो रङ्गपीठं तत् पुरस्तात् सभास्पदम् ॥ भुवमित्थं विभज्याथ बलिं दद्यान्निशामुखे । ब्राह्मणांस्तर्पयित्वा च नानारत्नैरलङ्कृतान् ॥ मृदङ्गपटवाथैश्च शङ्खदुन्दुभिगोमुखैः।। सर्वातोयैः प्रणुदितैरुलूलध्वनिपेशलैः ।। काषायवसनादीनां पाषण्ज्यामिणां तथा। उत्सारणमनिष्टानां कृत्वा दिक्षु दशखपि। पुष्पाक्षतादिभिर्मत्रैस्तल्लिङ्गैः शुचिमानसः॥ यादृशं दिशि यस्यां स्याद् दैवतं निगमोदितम्। ताशस्तत्र दातव्यो बलिर्मअपुरस्कृतः॥ . . . सितरक्तनीलकृष्णपीतधूम्रारुणामलम् । प्रागादिदिक्पतिभ्योऽनं कल्पयेत् प्रयतात्मवान् ॥
५४
1 AB0 °श्मनिती। 2 AB0 °सप्तावि। 3 ABO तिरष्ट। ..
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० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [नाव्यशालानिया मुहूर्तेनानुकूलेन भूलेन अवणेन था। रोहिण्यां 'वोपोषितः सनुपाध्यायः समाहितः॥ ५५ स्तम्भाना स्थापनं कुर्याल्लने सद्ग्रहवीक्षिते। सुशिल्पिघटिताः स्थाप्याः कुम्भिकाः पूर्वमेव ताः॥ . अन्तर्बहिर्मानसूत्रादर्धेन स्युः स्थिरं स्थिताः। अग्निकोणं पुरस्कृत्य स्तम्भाः स्युर्ब्राह्मणादयः ॥ खर्णताम्ररूप्यलोहस्तन्मूलेऽनुक्रमात् क्षिपेत् । स्तम्भान् संपूजयेत् पश्चाद् वस्त्रमाल्यानुलेपनैः ॥ पीतै रक्तस्तथा श्वेतैनर्जीलैश्चैव यथाक्रमम् । पायसं गुडोदनं च कृतानं कृशरां तथा ॥ ... .. द्विजेभ्यो भोजनं दद्यात् स्तम्भानुक्रमतः सुधीः। तानुत्थाप्य शनैर्विद्वांश्चल-कम्पविवर्जितान् ॥ . स्थापयेत् कुम्भिकाशीर्षे शान्तिपाठपुरस्सरम् ।। यतस्तचलने राष्ट्रेनावृष्टिः कम्पने तथा ॥ परचक्रभयं तस्मात् तत्र यत्नो विधीयते। स्तम्भस्थापनमन्त्रोऽयं प्रणवादिनमोन्तकः ॥ यथाचलो गिरिमेंरुहिमवांश्च महाचलः। जयावहो नरेन्द्रस्य तथात्वमचलो भव ॥ अनेन स्थापितान् स्तम्भान् पश्येद् दक्षिणतो नगान् । विप्रराजन्ययोर्मध्ये भुवा खाक्रान्तया सह ॥ सौम्ये सप्तापरांस्तद्वन्मध्यतो वैश्यशूद्रयोः। एवमष्टादशैते स्युः स्तम्भाः साष्टकरान्तराः॥ भुवा खाकान्तया साकं दक्षिणेतरपार्श्वयोः। पूर्वपश्चिमयोस्तद्वद्धस्तषोडशकान्तरौ ॥ द्वौ द्वौ स्तम्भौ समारोप्यौ खार्धाकान्तभुवौ पृथक् । तयोर्मध्ये तथा स्तम्भौ साष्टहस्तान्तरौ पृथक् ॥ खार्धाकान्तभुवौ स्थाप्यौ द्वौ द्वौ पश्चिम पूर्वयोः। एवं स्युर्वसवस्तम्भाश्वार्थ' मध्यभुवि क्रमात् ॥
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1 B0 वापा। 2 ABC °ध्याय स। 3 ABO स्तंभास्युः । 5 ABO °च॥ । 6 B0 °मर्व। 7 ABO श्वथ।
4 ABC
अलं'।
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नाबालानिर्माणम्] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
स्थितस्तम्भानुसारेण सप्त सप्तापरान् सुधी। विन्यसेत् सूत्रमास्फाल्य चतसृष्वपि पत्रिषु ॥ पञ्चहस्तमितायामान विस्तारे हस्तमात्रकान् । चतुःपञ्चाशदुदितान् सह पूर्वैमनोरमान् ॥ .. यत्पतिद्वितयं पार्थे पति मध्यतः स्थिता। तासु कोष्ठाष्टकं कार्य समन्तादष्टहस्तकम् ॥ मध्यपङ्क्तेस्तु ये पक्षी पार्श्वतः समवस्थिते। तन्मध्ये तु स्थिते पती ये ते पूर्वेऽष्टकोष्ठकैः ॥ दैर्येऽष्टहस्तकैासे चतुर्हस्तविभूषितैः। विस्तारायामयोर्यद्वा तां भूमि विभजेद् बुधः॥ द्वात्रिंशता तथा हस्तैश्चतुःषष्ट्या यथाविधि। द्वात्रिंशदेवं कोष्ठाः स्युश्चतुरस्रा मनोहराः॥
आयामे परिणाहे च करैः षोडशभिर्मितम् । .. मध्यकोष्ठचतुष्कं तु रङ्गपीठं प्रकल्पयेत् ॥
पूर्ववद्रङ्गपीठस्य वह्निकोणादिकोणगान् । ब्राह्मणाद्युपधिस्तम्भान् स्थापयेत् शिल्पिसत्तमः॥ करैः षोडशभिः सम्यगन्तरालविभूषितान् । चतुस्त्रिंशत् पुनः स्तम्भानन्यान् वेधविवर्जितान् ॥ साष्टहस्तान्तरान् विद्वान यथाभागमवस्थितान् । स्थापयेदेवमेतस्मिन्नष्टत्रिंशन्मनोहरान् ॥ यद्वा द्वात्रिंशता हस्तैरायामपरिणाहयो चतुरस्रां भुवं कृत्वा स चतुःषष्टिकोष्ठकम् ॥ मध्ये कोष्ठचतुष्केऽस्यां रङ्गपीठं प्रकल्पयेत् । रङ्गपीठात् पृष्ठभागे रङ्गशीर्ष प्रकल्पयेत् ॥ तत्पूर्वभागे नेपथ्यभवनं साधु कारयेत् । . अग्निकोणादिषु ततः क्रमेण स्तम्भवेशनम् ॥
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- 1 BG 'सुधी। 2 B0 चतुर्हस्तविभूषितैः षष्ट्या यथाविधिः while though A has the same reading it has these" "marks of deletion: .
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नृ० १० को०-उल्लास १, परीक्षणे १ [नाट्यशालांनिर्माणम् ब्राणायुपंविच्छन 'पीठनेपथ्यवेश्मनोः। .. 'खार्याक्रान्तं भुवा साकं चतुर्हस्तान्तरालतः ॥ प्रतिकोणं यथा कोणस्तम्भाभ्यां सह सर्वतः। तथा षोडश संस्थायाः स्तम्भाः सूत्रानुरोधतः॥ आयामे तेऽष्टहस्ताः स्युर्विस्तारे स्युश्चतुःकराः। चतसृष्वपि काष्ठासु रङ्गपीठस्य कोष्ठकाः॥ ते त्रयस्त्रयोऽसंभूय स्युश्चतुःषष्टिसंख्यकाः। स्तम्भा एकोनपञ्चाशनाव्यवेश्मनि कोष्ठकाः ॥ मूर्ध्नि तेषां विचित्राणि काष्ठानि परिकल्पयेत् । भरणाख्येषु काठेषु विचित्राः शालभञ्जिकाः ॥ .. कार्या मूर्द्धसु तेषां स्युर्धरिण्यः शिल्पिसंस्कृताः । ताखथ स्थापनीयं स्यात् तिर्यग् दारुचयं दृढम् ॥ परस्परं संहताः स्युः पटिकास्तत्र दारुजाः।
सुश्लिष्टसंधिकं रन्ध्र निर्मुक्तं स्याद् यथा तथा ॥ 15. छावनीयं प्रयत्नेन काष्ठानामन्तरालकम् ।
छादनक्रममाश्रित्य परं लोहानुसारतः॥ तथा सुधा निघेयाऽत्र यथा चन्द्रकराः परम् । तत्रानुबिम्बमासाद्य चन्द्रकोटिभ्रमावहाः ॥ स्युरेवं भित्तिकर्मायो शिल्पिवयः प्रयोजयेत् । स्तम्भ वा नागदन्तं वा वातायनमथापि वा ॥ कोणं वासप्रतिद्वारं द्वारं विद्धं न कारयेत् । दृढमूला समा भित्तिः पक्वेष्टकचिता हढा ॥ यथोचितद्वारदेशस्तम्भाच्छादनोचिता। चन्द्रबिम्बप्रतीकाशा सुधालेपविभूषिता॥ विचित्रचित्र संयुक्ता वात्स्यायनविनिर्मितैः । रतप्रबन्धरुचिरा नानानाटकचित्रिता ॥ नायिकानायको पेतनानारूपविचित्रिता। लताशृङ्खलिकापिण्डीभेदबन्धविनिर्मितैः॥ 1 80 पीठे ने। 2 ABC स्वस्वाक्रान्तं । 3 BC स्तम्भास्यसह। 4 BG तेषा। 5 450 साति ! 6 80 सुयुका। 7 B0 °नायिको ।
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नाटयशालानिर्माणम् ] नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण १ श्रीकुम्भकर्णसङ्गीत -गीतगोविन्दरूपकैः ।
www.
कर्तव्या चित्रिता भित्तिर्विचित्रा चित्रकर्मठैः ॥ नेपथ्यवेश्मनस्तत्र द्वारं पश्चिमतः स्मृतम् । एकमन्यद् रङ्गपीठप्रवेशाय प्रयोजयेत् ॥ पूर्वतो द्वारमेवं स्यात् तत्र द्वारद्वयं शुभम् । नेपथ्यमन्दिरे तत्र रङ्गशीर्ष प्रकल्पयेत् ॥ षदारुकयुतं तस्य विधिरत्र प्रपञ्च्यते । पूर्वद्वारस्य पार्श्वस्यं कर्तव्यं स्तम्भयुग्मकम् ॥ तदवश्चोर्ध्वतश्चापि दारुद्वन्द्वं मनोहरम् । farari कार्यमेतत् षड्दारुकं भवेत् ॥ ब्राह्मणादिचतुः स्तम्भाभ्यन्तराले यदीरितम् । रङ्गपीठं च तत् कार्य नात्युचं नातिनिम्नकम् ॥ समन्तादष्टहस्तं तदादर्शतलसंनिभम् । लिग्धं समतलं स्वच्छं तत्र स्यान्मत्तवारणी ॥
दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थस्तम्भयुग्मसमाश्रया । साधारकाष्ठरुचिरा वर्णकैरुपभूषिता ॥
रत्नानि चात्र देयानि वज्रं पूर्वदिशि स्मृतम् । वैदूर्य दक्षिणे पार्श्वे पश्चिमे स्फटिकं तथा ॥ उत्तरे तु प्रवालं स्याद् मध्ये कनकमीरितम् । एवमेतस्य विदुषा कर्तव्योपरिभूमिका ॥ चतुरस्तम्भसमायुक्ता सुवर्णकलशोज्वला । यथा शैलगुहाकारो जायते नाट्यमण्डपः ॥ गम्भीरशब्दवान् मन्दवातायनपरिष्कृतः । निर्वातोऽतिप्रयत्नेन, यस्मादेवं कृते सति ॥ कुतपस्य प्रजायेत गम्भीरध्वनितोचिता । पुरतो रङ्गपीठस्य मध्यपङ्क्तेः सुकोष्ठके ॥ पश्चमे वाथ षष्ठे वा स्थानं कार्य सभापतेः । निवेशनार्थमुत्सेवेनार्धहस्तं तु तत् स्मृतम् ॥
२ नृ० रत्न०
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४० रू को उल्लास १, परीक्षण १ [सभापति सुधाधवलितं शुलं मानाभगिमनोहरम् ।। अन्येष्वपि च कोष्ठेषु यथायोग्योन्नतानि तु॥
सनानि प्रकल्प्यानि विविधानि शुभानि च । नेपथ्यभित्तितो भित्तिं दशहस्तान्तरां दृढाम् ॥ पञ्चहस्तोन्नतां कुर्यात् परितोऽन्यां सनिर्गमाम् । तत्र रक्षिजनाः स्थाप्या अप्रमत्ताः समन्ततः॥ एवंविधानसंयुक्तं नाट्यवेश्म भुवो विमुः। जयायुःकीर्तिजननमन्यथा न शुभावहम् ॥
॥ इति नेपथ्यगृहलक्षणम् ॥
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[ सभापतिलक्षणम् ।] रामाधुत्तमनायकप्रतिनिधिः स्वस्थः कुलीनो युवा
पात्रापात्र विशेषवित् स्थिरतमप्रेमा कलाकोविदः । गीतज्ञः सकलागमार्थनिपुणो 'विद्वत्प्रियः सत्यवाक्
खाधीनाखिलसेवको बहुधनोऽभीष्टार्थदानोबुरः॥ ११४ रूपखी परचित्तविद् गुणगणग्राही कृतज्ञो गुणी
धर्मिष्ठो रसभावविजनमनोहारी सुवेषः सुखी । शृङ्गारी बहुदोऽनपेक्ष्यविभवः कीर्तिप्रियः कामुकः प्राप्तौचित्यविशेषविच्छुचिमनाः प्रोक्तः समाधीश्वरः ॥ ११५
॥ इति सभापतिलक्षणम् ॥
[ सभासन्निवेशः।] पीठस्यास्य पुरः सभास्तरणयुक्सद्वेदिकायां विभु
मं खस्थविचित्ररत्नखचितं सिंहासनं भाखरम् । अध्यासीत तदग्रदेशमहितो मन्त्री ततो दक्षिणे
नानाशास्त्रकलाविशेषकुशलाः काव्यानिष्ठामिताः ।। ११६ विश्वार्थाभिनयप्रपञ्चचतुरास्तौर्यत्रिकज्ञा रसा.
वेशाभिज्ञ नवीनबुद्धिविभवाः खखामिचेतोविदः।। भावज्ञाः कवयो विशेषविदुषः सत्पण्डितामात्र ये
वैद्या ज्योतिषशास्त्रनिष्ठधिषणा ये भूपतेर्वल्लभाः॥ ११७ - 1 ABO विद्विति। 2 ARC °मिक्षनन । 3 ABO नष्ठ । .......
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मालभिवेशः] • नृ० र० को०-उल्लासर, परीक्षण १
ते स्युदक्षिणतो विभोर्नवनवखखोचितान्यासना.. न्यध्यास्य प्रतिभाविशेषविजितेन्द्रज्या सभापण्डिताः।
वामेनास्य पुनः सुता नरपतेनैपुण्यभाजो जना...... ... ये चान्येऽभिनयप्रवीणमतयो नृत्येष्वमिज्ञाः पुनः॥ ११८
पृष्ठे चास्य वराङ्गना नरपतेः स्युरिनार्यो लसत्
तारुण्याकरभूमयो वसतयो लावण्यलीलाश्रियाम् । चित्रालतिभूषिताः सिततरैर्नेत्राञ्चलैः कामिना ___ यूनां चित्तविवेकवैभवमलं संच्छादयन्त्यो निजैः॥ ११९ चञ्चद्रनमयोरुनूपुररणत्कारैर्विलासोल्लसद्-.
भावैर्मानससंभवं निजनिजैरुद्वोधयन्त्योऽन्वहम् । संसिञ्जत्करचारुचामरमरुत्संवीजयन्त्यः स्मित___ ज्योत्लाशुभ्रितदिङ्मुखाः परवशीकारैकसत्कर्मणा ॥ १२० अग्रे वेत्रधरा नृपेङ्गितविदो मान्येतरज्ञानिनो
दक्षा रक्षणकर्मणि प्रतिपदं संप्राप्तसंवेदकाः। प्रोवञ्चज्जयजीवमङ्गलशिरःसेवा विदग्धाः सदा • तिष्ठेयुः परितः समीरितदृशो नित्यं नृपस्याग्रतः॥ १२१ शश्वद्राजकुलोद्भवाः सुनिपुणा नित्यानुरक्ता नृपे
नो भिन्ना न च संहता परिगतान्योन्यानुरागस्टहाः । स्पर्धाबन्धमनोहरा परिगतानेकास्त्रविद्योद्धरा
स्तिष्ठेयुः परितोऽस्य रक्षणविधावुद्यत्समस्तायुधाः ॥ १२२20 - नानादेशविचारचारुमतयो नाट्यागमे पारगा
वैदग्ध्यामृतवाहिनीजलधयश्चाञ्चल्यलेशोज्झिताः। द्रष्टारो विविधक्षितीश्वरसभास्थानस्य मानेप्सवो वर्तेयुः परितोऽस्य बन्दिनिवहास्तत्कर्मसंशंसिनः॥ १२३
॥ इति सभासन्निवेशः॥
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...
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[पूर्वरङ्गः।] एवं तत्र समग्रलक्षणपरीवारे सभानायके- .. .. ___ऽध्यासीने रुचिरोरुमौक्तिकमणिप्रायं सुसिंहासनम् । 1 Bo °न्द्रेस्याः। 2 ABC मलः। 3 BG सेवादि ।
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नृ० १० को०- उल्लास १, परीक्षण १
नाट्याचार्य उपेत्य तत्तदुचितप्रावीण्यविद्भिः समं वयैः संविदधाति रूपकविधेस्तं पूर्वरङ्गं सुधीः ॥ अभिनेयार्थतादात्म्यपटुः स्फुटतरो नटः । पदार्थाभिनयाचित्रं व्यञ्जयन् स्यात् तदग्रतः ॥ रसाभिधायकं नाट्यशब्दे नाव्येऽपि वृत्तितः । लक्षणाया वर्तमानमुभयं दर्शयन् स्फुटम् ॥ तथा च नृत्यशब्दार्थमुभयानुग्रहं वदन् । नृत्ये चाभिनये साक्षाद् वक्ति लक्षणयान्वयम् ॥ नाट्येनाभिनयं नृत्यशब्देन च रसं पुनः । वृत्त्या लक्षणया साक्षादुभयं दर्शयन् पदम् ॥ करणाङ्गहारनिचयैर्नृत्तमत्रोपदर्शयन् । रसः सभ्ये नटे वास्य विकलस्य जिहीर्षया ॥ स्वात्मानं तन्मयं कुर्वन्निव रङ्गमुपाश्रयेत् । ततः कुतपविन्यासाद्यङ्गप्रचयपेशलम् ॥ सूत्रधारः पूर्वरङ्गं प्रयुङ्क्ते नाट्यतत्त्वगम् । यतो रसात्मकस्यास्य प्रयोगे प्रयुयुक्षिते ॥ रज्यते वै सहृदयैः पूर्वरङ्गस्ततः स्मृतः । संपादभागः सकलः परिवर्तैः समन्वितः ॥ प्रयोगोऽयं यतो रङ्गे पूर्वमेव प्रयुज्यते । तेनोक्ता भरताचार्यप्रमुखैः पूर्वरङ्गता ॥ रङ्गशब्देन तत् कर्मोच्यते तौर्यत्रिकाश्रितम् । तत्पूर्वभागो विद्वद्भिः पूर्वरङ्ग उदीरितः ॥ सोपोहनास्तद्विना वा ध्रुवा उत्थापनीमुखाः । सूत्रधारप्रवेशार्था यतोऽस्मिन् पूर्वमेव हि । प्रयुज्यते ततः पूर्वरङ्गता वास्य संमता ॥ चतुरस्र यत्र भेदाद् द्विविधः स पुनर्द्विधा । शुद्धचित्रविभेदेन पृथगेवं चतुर्विधः ॥ करणाङ्गहारराहित्यं शुद्धता चित्रता पुनः । तत्सद्भावोऽथ चित्राद्यैर्मार्गैर्भिन्नवायुतः ॥ 1 BO प्रयुते ।
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संग्रहः] नृ० २० को०-उल्लास १, परीक्षण १ चतुरस्रस्तथा यस्स्रः षड्विधः केचिदिच्यते । केषांचन मते मिश्रो द्वयं संमिश्रणान्मिथः ॥
*
[ पूर्वरङ्गाङ्गसंग्रहः । ]
अथाभिधास्यते सम्यक् पूर्वरङ्गाङ्गसंग्रहम् । प्रत्याहारोऽवतरणमाश्रवणारम्भवक्त्रपाणी च । परिघट्टनाथ संघोटनाथ मार्गासारितं च [१] ॥ आसारितोत्थापिन्यौ नान्दी शुष्का च कृष्टाह्वा । रहद्वारं चारी सैव महत्पूर्विका त्रिगतम् ॥ प्रस्तावनेति कथितान्येतान्यङ्गानि भारते पूर्वैः । अङ्गैरेभि'रिहाङ्गी 'निष्पन्नः पूर्वरङ्गोऽयम् । तेभ्यो नैवाभिन्नो भिन्नोऽपि प्रेक्ष्यते कचित् सद्भिः ॥
*
[ प्रत्याहारः । ] उत्थापनीप्रयोगे [च] प्राधान्येनोपकल्पिते । प्रत्याहाराचयं याता प्राच्योदीच्यां गतामत्र ।
*
अत्राश्रावणिकाद्यं यदङ्गषट्कं क्रमेणोक्तम् । देवस्तवार्थमपदं पदबद्धं वा द्विधा तदुद्दिष्टम् । अपदं तत्र तु गीतं निर्गीतं कीर्तितं तच ॥ यत् पदबद्धं गीतं तद्देवप्रीतिदं बहिर्गीतम् । तस्मात् पदैर्निबद्धं प्रयोज्यमाश्रावणादीह ॥
*
प्रायेण तु बहिर्गीतमन्तर्जवनिकागतैः । तन्त्री भाण्डकृतं तज्ज्ञैः प्रयोक्तव्यमतन्द्रितैः ॥ ततो जवनिकां हित्वा समस्तकुतपैः सह । नृत्य - पाठ्यकृतानि स्युः पूर्वरङ्गाङ्गकानि तु ॥ ततः पुनः प्रयोक्तात्र मन्द्रकादेस्तु मध्यतः । प्रयोज्यं किश्चिदेकं तु वर्द्धमानमथापि वा ॥ पूर्वरङ्गे प्रयुञ्जीत ततोऽन्याङ्गसमुच्चयम् । अथामीषां क्रमाद् वक्ष्ये लक्षणानि समासतः ॥ ज्ञेयः कुतपविन्यासः प्रत्याहारः स चेदृशः । 1 ABO अङ्गैरिमि० । 2 ABC निष्पनः । 3 ABO वक्षे |
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० २० को०-उल्लास १, परीक्षण १
प्राङ्मुखः स्यान्माईलिको रङ्गे प्रत्यगवस्थितः । गान्धर्वाचार्यकी याम्ये रङ्गभूमावुदङ्मुखौ ॥ तस्य दक्षे मौखरिको 'वैणिको वामदेशगः । निवेशनं गायकानाम्
॥ इति प्रत्याहारः ॥
*
[ अवतरणम् । ]
[ अवतरणादीनि
- तथावतरणं स्मृतम् ॥
तच रङ्गोत्तरस्यां स्याद् याम्यदिग्मुखगोचरम् । पञ्चषैर्विस्तृता इस्तैस्तथा 'वसुकरायता ॥ शरच्चन्द्रप्रतीकाशाऽथवा बालार्कसंनिभा । नानावर्णाऽथवा रत्ननिकरैः खचिता नवा || कोणेषु परितश्चापि मुक्ताजालपरिष्कृता । चिह्नितां दैवतैस्तत्तत्स्थान भागनिवेशितैः ॥ मध्ये महेश्वरः पार्श्वे चतुर्मुखचतुर्भुजौ । सूर्याचन्द्रमसौ तेषां सव्यदक्षिणपार्श्वयोः ॥ तारकाः स्युस्तत्परितो देव्यस्तत्कोणगाः स्मृताः । वायौ सरखती वही तारकान्वीशकोणगा ॥ 'भैरवी नैऋते कामगामिनी दक्षिणे पुनः । गोरक्षः सिद्धनाथस्तु पश्चिमे पूर्वदिग्गतः ॥ मीननाथ उत्तरस्यां चतुरङ्गः क्रमादिमाः । देवताः पूजयेत् पूर्व स्थानेषूक्तेषु मन्त्रवित् ॥ ॥ इति अवतरणम् ॥
*
[ आश्रावणा । ]
तत आश्रावणापाणित्रयः क्रमवशेन यत् । स्वल्पमादौ श्रूयमाणं मृदङ्गाद्यस्य मार्जनम् । तस्मात् तल्लक्षणं पूर्व मया सम्यगुदीरितम् ॥ ॥ इति आश्रावणा ॥
*
[ आरम्भः । ]
ततः खल्पेष्ववहितेष्वङ्गमारम्भसंज्ञकम् । तद् यत्र गायकाः साक्षात् सप्तखरपरिग्रहम् ॥ 1 BO षिणिको । . 2 ABO वस्तु । 3 ABC नैर्ऋतौ । 4 ABO श्रवत् ।
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] नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण- १
कृत्वा कुर्युस्तालयुक्तं गीतं तत्र ध्रुवाः पुनः । सप्तखरोद्भवास्ताः स्युः सुगतिश्च सुगन्धिनी ॥ रौद्री पाञ्चादनी तद्वत् पाञ्चालिन्यथ देवती । अश्विनीति क्रमादाभिर्ग्रहणं स्यात् प्रसादनम् ॥ चतुरस्रभिदास्तिस्रस्तिस्रोऽप्याद्यासु तत्पराः । तिस्रस्त्र्यस्त्रभिदाखेवं दैतिनीवदिहाश्विनी || एतगाथाभिरा तोद्यवादनं राजशिष्यया ।
॥ इत्यारम्भः ॥
[ वक्रपाणि: । ] तथा पाणिविभागार्थं वक्रपाणिर्विधीयते ॥ अत्र वक्राङ्गान्तमाहुः दुष्करं पाणिरुच्यते । गाथालक्षितपूर्वाला 'पाभिरातोद्यवादनम् ॥ - ॥ इति वक्रपाणिः ॥
*
[ परिघट्टना । ] 'तरुयोजःकरणार्थं च भवेच्च परिघट्टना । एतगाथाभिरातोद्यं वादयेद वादकोत्तमः ॥ ॥ इति परिघट्टना ॥
[ संघोटना ।]
वाद्यवृत्तिविभागार्थं भवेत् संघोटनाविधिः । अङ्गुष्ठाभ्यां च तर्जन्या तत्रीवादनतो भवेत् । गाथाभिरुक्तपूर्वाभिरिहातोयं प्रवादयेत् ॥ ॥ इति संघोटना ॥
*
[ मार्गासारितम् । ]
ती भाण्डसमायोगाद् मार्गासारितमिष्यते । चित्रादि त्रिषु मार्गेषु करणैर्धातुभिः समम् ॥
॥ इति मार्गासारितम् ॥
*
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I ABO स्ता। 2 ABC 'रात्मेद्द' | 3. ABC पूर्वायाला । 4. App: तंत्रौजः । 5 430 संखोटमा ।
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०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [सारित
[आसारितम्] तालो मृगस्तत्री च कचिदेकैकशः कचित् । युग्मीभूय प्रधानं स्याद् गुणः सर्वव्यपेक्षया । षड् सुवाः क्रमतोऽत्र स्युः 'प्राधान्ये त्रितयस्य तु ॥ १६८ अथासारितमत्र स्यान्मार्गासारितपूर्वकम् । आपूर्वात सरतेर्धातो रूपे पाताः पुरोदिताः॥ 'आसार्यन्त इति प्रोक्ता बुधैरासारिताभिधाः। एतस्योदाहृतिः पूर्वमुक्ता लक्षणपूर्विका ॥
॥ इत्यासारितम् ॥
[पाठवृद्धियुक्तियुक्तमासारितम् । ]] 'यान्यवोचमहं पूर्व गीतकानि चतुर्दश। वर्धमानादिकं चैव सर्वमत्रैव योजयेत् ॥ उपक्रमे गीतकानां प्रयोगसूचनादिभिः। उपोयन्ते खरा यस्मात् तस्मादुक्तमुपोहनम् ॥ . तदुक्तं पूर्वमस्माभिश्चतस्रः कण्डिका अपि। विशालासंगते तत्र कनिष्ठासारितोद्भवे ॥ मध्यमासारिताजाता विशाला संगता तथा। सुनन्देति च तिस्रोऽपि ज्येष्ठासारितसंभवाः॥ सुमुखी च सुनन्दा च संगता च विशालिका । उक्तपाते क्रमैरेतैरासारितविधिक्रमात् ॥
. १७५ पिण्डीबन्धाः प्रदर्श्यन्ते वर्धमानक्रमेण च । ते चेष्ट देवतारूपा इष्टचित्राश्रिता अथ ॥ विलम्बितलयेऽभीष्टमान आसारितस्य तु । कलाकलापसंयुक्तोपोहनस्यार्थभागिकाः ॥ समाश्चतस्रश्चतुरा नर्तक्यः पुष्पपाणयः। अन्तर्धानमपाकृत्यालकुयूँ रङ्गभूमिकाम् ॥
१७८ तत्रावकीर्य पुष्पाणि नमस्कुर्युः क्रमेण ताः ।
इन्द्रादिलोकपालेभ्यः परिवर्त्य चतुर्दिशम् ॥ -: TAB प्रधान्ये। 2 ABO आचार्यन्त। 8 ABO यान्येवो । 4 BG. देवाता 5 B0 पुष्पपुष्पपाणयः।
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दियुकमासारितम् ] नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण १
वन्दनानि प्रकुर्वन्ति पुनश्च परिवर्तनात् । उपोहनार्थाभिनयमङ्गहारैः प्रयुज्य ताः ॥ पिण्डं बघ्नन्ति तत्रस्थाः कनिष्ठासारिताश्रयम् उपोहनं पञ्चकलं सूचया भावयन्ति ताः ॥ वैशाखरेचितेनासामेका भूत्वा पृथक् ततः । अभिनीयोपोहनार्थ दर्शयेच्च तदेतराः ॥ पर्यस्तकायङ्गहारैः प्रनृत्येयुस्ततस्तु ताः । पिण्डीबन्धं समास्थाय भावयन्त्यङ्कुरेण तु ॥ प्रथमोपोहनस्यार्थं परिवर्त्य पुनश्च ताः । वैशाखरेचितं कृत्वा करणं रङ्गपीठके ॥ विकीर्य पुष्पनिचयं कुर्युर्वस्तु विभावनम् । ताभ्य एका' विनिश्चित्य प्रथमं वस्तु भावयेत् ॥ तदेव चारु चातुर्याद् दर्शयेनृत्यतः पुनः । ततः पिण्डीगताः सर्वाः पिण्डीबन्धमुपागताः ॥ सूचया षट्कलं कुर्युर्द्वितीयोपोहनं पुनः । तस्यैवं करणं ज्ञेयं तदर्थस्य विभावनम् ॥ अपसृत्य द्वितीयाथ ताभ्यो वस्तु द्वितीयकम् । 'चचत्पुटेन तालेनाभिनयेत् प्रथमा तदा ॥ नृत्येवङ्गहारेण चतस्रो मिलिताः पुनः । विषाय शृङ्खलाबन्धं द्वितीयस्यात्र वस्तुनः ॥ अङ्कुरेण पुनः कुर्युरुपोहनमथैकिका । ताभ्यो निःसृत्याभिनयेद् द्वितीयं वस्तु तत्परम् ॥ प्रदर्शयन्त्यह' हरिस्तदर्थं मिलिता अथ । पिण्डीबन्धं समास्थाय समं कुर्युरुपोहनम् ॥ एवं तृतीयाऽभिनये तृतीयं वस्तु रङ्गगा । षट् पितापुत्रकेण द्वे कुर्यातामङ्गहारतः ॥ नर्तक्यो 'मिलिताः पश्चाल्लताबन्धमुपाश्रिताः । अङ्कुरेण पुनः कुर्युरुपोहनमथ स्फुटम् ॥
1.4 कुयुर्कुयु । 2 ABC एक । 5 ABC यत्यङ्ग । 6 ABO मिमिलाः । ३ मु० रन०
3 ABC षट्फलं ।
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4 ABC चचत् ।
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मुं० २० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [पाठवृद्धियुक्तमासारितम् अन्योन्यं मिलिताः प्राग्वत् तृतीया प्रथमान्विता।। तृतीयं वस्त्वभिनयेनृत्यं कुर्यादू द्वितीयिका ॥ ततः सङ्गत्य पिण्डीस्थाः कुर्युस्तुर्यमुपोहनम् । सूचयाष्टकलं पश्चादपसृत्य चतुर्थिका ॥ चतुर्थ वस्त्वभिनयेदङ्गहारं ततः परा। कुर्वीरन मिलितास्तिस्रश्चतस्रोऽपि ततः परम् ॥ अङ्करेण चतुर्थस्य वस्तुनो भेद्यकाभिधम्। बन्धमास्थाय कुरिनुपोहनमतः परम् ॥ विश्लिष्यान्योन्यमाद्याभ्यां द्वाभ्यां साकं तृतीयया । अङ्गहारैरभिनयेचतुर्थी वस्तु तुर्यकम् ॥ अथ सर्वासु नर्तक्यः पिण्डीबन्धमुपाश्रिताः। चतुर्थोपोहनं कुर्युरपमृत्य तृतीयिका ॥ . तृतीयं वस्त्वभिनयेत् तिस्रो नृत्यन्ति तत्पराः। लताबन्धमथास्थाय कुयुः पूर्वमुपोहनम् ॥ प्रथमं वस्त्वभिनयेत् प्रथमाऽपश्रिता ततः। तदेतराः प्रनृत्यन्ति मिलिताः पुनरेव ताः॥ कुसुमाञ्जलिमाकीर्य चतस्रोऽपि तदा समम् । अङ्गहारैः प्रनृत्याथो भवन्त्यपश्रितास्तु ताः॥ पिण्डी शृङ्खलिका चैव लताबन्धोऽथ भेद्यकः । पिण्डीबन्धश्चतुर्थेऽपि तल्लक्षणमथोच्यते ॥ स चेष्टदेवता'रूपोऽनुकारेण स्मृतो बुधैः। तस्य देहानुकारेण विधेया च विपश्चिता ॥ पिण्डाकारेण विज्ञेयः पिण्डीबन्धस्तदा पुनः। शृङ्खलात्मा भवेद् गुल्मो लता जालखरूपिणी ॥ 'संदंशो भेद्यको रूपं चतुर्थमिदमीरितम् । सूचा स्यात् पिण्डिकाबन्धादड्डुरैः शृङ्खलादिभिः॥ उभयं स्मृतमारोहेऽवरोहेऽङ्कुर ईरितः। यस्मिन्नासारित पूर्यदीरितमुपोहनम् ॥ ----२०७ 1 ABG °तारुनुकारेण । 2 ABO चा। 8 0 संघशो।
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हत्थापना] नृ०२० को-उल्लास १, परीक्षण १
प्रतिवस्तु तवावृत्तिरिति केचन मन्वते। स्फुट रक्तं विभक्तं च समं शुद्धप्रहारजम् ॥ २०८ मृत्यानुगं वर्धमाने वाद्यवादनमिष्यते। कनिष्ठासारितस्यायं विधिरुक्तः सविस्तरः॥ अन्येष्वासारितेवेष विज्ञातव्यो विधिर्बुधैः। सर्वेष्वासारितेष्वत्र नर्तकीनां प्रवेशनम् । वैशाखरेचितेन स्यादिति राजेन्द्रसंमतम् ॥
२१० नर्तक्यः षोडशैवं सुकुसुमनिचयं रङ्गभूमौ विकीर्य
प्रीत्यै शम्भोः प्रनृत्यन्त्यसकृदभिनयैरर्थजातं प्रदर्य । एतद् वै पात्रवृद्धिप्रभवमविकलं वर्धमानं प्रयोज्यं 10
शम्भोरग्रेऽथ सर्वक्षितिपतिपुरतो नाल्पभूभतुरग्रे॥ २११ : यस्मात् सर्वक्षितीशः खयमिह भगवानित्थमावेदितं प्राग- अन्यत्रैकं सुगीतं विधिवदनुभवाद् देशकालानुरोधात् । योज्यं गीतप्रवीणैरभिमतसुरताप्रीतये युक्तियुक्तं क्षोणीसुश्रोणिभा निगदितमखिलं बुद्धिसंस्थं विधाय॥ २१२15
. ॥इति पाठवृद्धियुक्तियुक्तमासारितम् ॥
20
२१४
.. [उत्थापना] अतः परं प्रवक्ष्यामि ध्रुवामुत्थापनाभिधाम् । सूत्रधारप्रवेशार्थ प्रयोगं 'नान्दिपाठकाः॥ उत्थापयन्ति रङ्गेऽस्मिन् प्रयोगं पूर्वमेव यत् । तस्मादुत्थापनं प्रोक्तं राजराजेन धीमता ॥ गौ लो ग्लो लास्त्रयो गश्च लौ ग एकादशाक्षरैः। चतुर्भिश्चरणैः प्रोक्ता ध्रुवा प्रागुक्ततालयुक् ॥ . ' यथा
गङ्गातरङ्गपरिधौतजटम् ___गौरीकुचद्वयनिषिक्तकरम् । देवेन्द्रमुख्यसुरपूज्यपदम्
वन्दामहे शिवममेयपदम् ॥ शतौ द्विद्विकलौ सं चैककलं त्रिकलस्तु सं। प्रत्येकं चरणेष्वत्र लयत्रितयमेव च ॥
_ . 1 ABC नादि ।
26
२१७30
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०२० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [उत्थापना परिवर्तास्तु चत्वारस्तेषामाद्यस्थिते लये। द्वात्रिंशता कलानां स्यात् लये मध्ये द्वितीयकः॥ २१८ सोऽपि तावत् कलस्तावान् तृतीयोऽपि कलस्ततः।... तावानेव चतुर्थस्तु परं 'तस्याद्भुते लये ॥ ध्रुवेयं चतुरस्रा स्यादस्यां पाणित्रयं भवेत् । संनिपातैश्चतुर्भिः स्यात् परिवर्त इहैककः ॥ प्रथमे वा द्वितीये वा तृतीये संनिपातके। पूर्वस्मिन् परिवर्तेऽत्र वाद्यभाण्डपरिग्रहः। सूत्रधारप्रवेशोऽत्र द्वितीये परिवर्तके ॥ तत्पारिपार्श्वको स्यातां सभृङ्गारकजर्जरौ । . . . सपुष्पाञ्जलयः शुक्लवस्त्राः सुमनसस्त्रयः। कृतमङ्गलसंस्कारा वैष्णवस्थानके स्थिताः ॥ प्रविशेयुस्ततः सूत्रधारः पञ्चपदीं व्रजेत्। पक्षिणं चरणं पार्धाकान्तचार्या समुत्क्षिपेत् ॥ तालत्रयं ततः सूच्या वामं चरणमुत्क्षिपेत् । सद्वयः सूत्रधारोऽथ गत्वा पञ्चपदीं शनैः॥ २२४ रङ्गमध्ये पुष्पमोः पूजयेत् पद्मसंभवम् । नमस्कुर्यात् ततो देवं मनोवाकायकर्मभिः॥ कलामिः स्यात् षोडशभिः पञ्चपद्यां प्रवेशनम् । पुष्पाञ्जलिविमोक्षे तु कलाष्टकमुदीरितम् ॥ तावतैव तु कालेन द्वितीये परिवर्तके। नमस्कार्य देवतानां तृतीये परिवर्तके ॥ आक्रामेन्मण्डलं पूर्ण दक्षिणं पादमुद्धरन् । सूच्या सव्येन वक्षं च विद्वपक्षेण वामकम् । सूच्यैवैवं प्रकुर्वीत मण्डलस्य प्रदक्षिणम् ॥ आचम्य प्रोक्ष्य कर्तव्यं जर्जरग्रहणं ततः। अन्योन्यं पादयोर्वेधश्चतुष्कल उदाहृतः । प्रदक्षिणं चाष्टकलमाचामे निकलेन तु ॥
.
--
1480 सस्थाद्भुते। 2 ABO कलं।
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२३०
... २३१
उत्थापना] नु०.२० को०-उल्लास १, परीक्षण १
जर्जरग्रहणं कार्य कलयैकिकयैव तु।..... तृतीये परिवर्ते च तत्र ममिमं जपेत् ॥ ... नक्षत्रेभिजिति त्वं तु प्रसूतः शत्रुकर्शनः । जयं चाभ्युदयं चैव पार्थिवाय प्रयच्छ वै ॥ चतुर्थे परिवर्तेऽथ सूत्रभृत् कुतपोन्मुखः । विक्षेपवेधौ रचयन् पदों पञ्चपदी ब्रजेत् ॥ शशताशा सन्निपातौ पातास्यस्रधुवागताः। द्वादशैस्तैर्द्विगुणितैः परिवर्तद्वयं भवेत् ॥ परिवर्तद्वयं चात्र कला द्वादशकं भवेत् । आदावन्तेऽष्टमे तुर्ये दशमे गाः परे चलाः॥ इयमुत्थापनी यस्तापातास्तालादिका इह । चतुरस्रात् पादहीना:
- २३२
२३३
२३४ 10
16
[परिवर्तिनी।]
अथ स्यात् परिवर्तिनी ॥ २३५ - सूत्रभृत्ममुखा अस्यां परिवर्त्य चतुर्दिशम् ।
कुर्वन्ति लोकपालानां वन्दनानि यतस्ततः॥...२३६ परिवर्तिनी ध्रुवाऽस्यां तु सर्वे ला अन्तिमो गुरुः ।।
चत्वारश्चरणा छन्दो जगती चातिपूर्विका॥........ २३७ • यथा-त्रिनयनमभिनवमृषभगति, अनपररवनववनकलनम् ।
मदनकदनकरनयनवरं भजत भुवनभयशमनशिवम् ॥ २३८ 20 अस्यामाथाश्चतस्रः स्युः कला गुरुतया [च या]। चतुलाः स्युः परा इत्थं कलाः षोडश कीर्तिताः॥ २३९ । ताभिरष्टौ संनिपाताः संनिपातद्वयं तथा। भवेत् प्रतिदिशं कुर्यात् दिङ्नाथेभ्यो नमः क्रमात्॥ २४० विक्षेपवेधौ रचयन् पूर्वोक्तः क्रमतः सुधीः । प्राङ्मुखः प्रणमेत् पश्चपदीं गच्छन् सुराधिपम् ॥ २ उत्क्षिप्य दक्षिणं पादं वामवेधेन पूर्ववत् । ...... कुर्वन् पश्चपदीं तत्र निवर्तेत कलाद्वयात् ॥ ....... कलाद्वयेन गमनमियमत्र चतुष्कली। .. एकैकाशाधिनाथस्य नमस्करणकर्मणि ॥
२४३३० 1 ABO कलाये। 2 0 भूत्। 3 ABO पदो। 4 ABO °र्विकाम् ।..
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RR:
को-उल्लास १, परीक्षण १ [परिवर्तिनी एवं चतुर्दिगीशानां नमस्कारावनन्तरम् । : शिव-विष्णु-विरचिभ्यः प्राङ्मुखो रङ्गमध्यगः। पुंस्त्रीनपुंसकपदैनमस्कुर्यात् क्रमेण तु ॥ दूरमुत्क्षिप्तमत्र स्यात् पुरुषं स्त्रीपदं पुनः। किश्चिदुत्क्षिप्तपरमं समं क्षिप्तं नपुंसकम् ॥ . पुमानित्यं दक्षपादं कृत्वा त्रेधा नमस्क्रियाम्'। कुर्यान्नारी तु वामांहिमेवं कृत्वा द्विधा चरेत् । दक्षं न घुससंज्ञेयमुभयोस्तुल्यलक्षणम् ॥ . स्त्री विष्णुः पुरुषः शम्भुः पदं ब्रह्मा नपुंसकम् । एवं कृते सूत्रभृता विधिना परिवर्तने ॥ .. २४७ चतुर्वर्णानि कुसुमान्यादायाञ्जलिना नटी। प्रविशेत् तत्मवेशे च भुवा मावेशकी यथा ॥ २४८ सत्पुस्तकोल्लसितपाणितलामुद्यच्छशाङ्कसमकान्तिमुखाम् । भक्तेष्टदानकरपद्मयुगां वन्दामहे कमलसम्भवजाम् ॥ २४९ सूत्रधाराञ्जलौ पुष्पमोक्षं कृत्वा चरेन्नटी । दिक्पतीनां वन्दनानि सूत्रधारोक्तवर्त्मना ॥ आतोद्यवादनं तत्र विना गानेन वर्णितम् । नानावणैश्च कुसुमैर्जर्जरातोद्यपूजनम् ॥ सूत्रमृनर्तकी तद्वत् सूत्रधारस्य चार्चयेत् । तदाक्षिप्तिकिका ज्ञेया बा सात्र यथा भवेत् ॥ २५२ कुण्डलमण्डितगण्डयुगं भूधरकन्दरकृतवसतिम् । सुन्दरचन्द्रकलाकलितं शम्भुमहं प्रणमामि विभुम् ॥ २५३ चतुर्भिश्वरणरेवं भूषितामनुमातृभिः । आक्षिप्तिका ध्रुवा कार्या व्यपकृष्टामहं ब्रुवे ॥ चतुरनामष्टकलां स्थायिवर्णा स्थिते लये । खद्वयं गद्वयं गो लौ गावेवं चरणाकिता॥ पतौ षोडशमात्राभिरपकृष्टा ध्रुवा यथा।
1 ABO पदैन । 2 ABG नमस्कृयाम् । 3 ABO 'पुनषं । 4 80 प्रवेश । 5 BC °मह।
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२५६
३०२० को उल्लास १, परीक्षण १ हेलाविदलितकामशरीरं लीलानिर्जितदानवराजम् ।। देहा/कृतभूधरसूनुं वन्दे शम्भु त्रिभुवननाथम् ॥ शशताताशसं द्विः समितिपाताः कलाष्टके । ध्रुवाभिश्चतसृभिः स्यात् परिवर्तोऽग्रिमः पुनः। शेषास्त्रयस्तु तिमृभिस्तत्राचा परिकीर्तिता ॥ इहाभिदधिरे केचिद् गणैस्तां भ्यादिभिः पृथक् । ध्रुवयोः परिवर्तिन्या कृता नृत्यं पुरा यथा ॥ प्रथमे परिवर्ते तु ताभ्यो वक्रोद्भवस्तथा । बहुपादो वहिजश्चेत्याशीघ्रत्यप्रपश्चनम् ॥ परिवर्तेषु शेषेषु विवध्युर्विधिनोदितम् ।
॥ इति परिवर्तिनी॥
• [ नान्दी।] इमां मीत्वा पठेन्नान्दी सूत्रधारः समाहितः। मध्यमं खरमाश्रित्य देवद्विजमहीभृताम् ॥ आशीर्वाचनसंयुक्तं पदैरष्टभिरन्विताम्। दशभिः केचिदिच्छन्ति पदैर्द्वादशभिः परे ॥
२६१ देवेभ्योऽस्तु नमस्कृतिविजकुलं संवर्धतां श्रेयसा
पृथ्वीशः पृथिवीं प्रशास्तु सकलां भूरस्तु सस्योत्तरा। काले वर्षतु पुण्यवारिजलदो नन्दन्तु गावश्चिरं
देशः क्षेमसुभिक्षवान् भवतु नो राजास्तु सद्धर्मवान् ॥ २६२ 20 राष्ट्रं चास्तु निरामयं च लभतां रङ्गः प्रतिष्ठां परों
प्रेक्षाकर्तुरिहास्तु धर्मविभवो ब्रह्मद्विषो यान्त्वधः। कीर्तिः काव्यकृतोऽस्तु भक्तिरचला भूयादुमेशे सदा
तत्तद्भरिभिरन्वहं विलसतादू धर्मस्य रक्षाकरः॥ २६३ एवं द्वादशभिर्युक्ता पदैनान्दी निदर्शिता। . . 25 अन्य भेदद्वयं चास्या ऊपतामनया दिशा ॥. .. २६४ 'नान्दीपदान्तरेष्वेवमेवं भूयादितीरिणौ । ... उक्तार्थसप्रपञ्चज्ञौ भवेतां पारिपार्श्वकौ ॥
२६५ 1 ABO नादी।
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१०.२० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [पूर्वरविधि तत् समयमात्यादिनान्दीमेक्समुखयम् । .. 'भरतादू क्षेयमत्रोक्तविस्तरः स्यान्महानिति ॥
॥ इति नान्दी॥
[शुष्कापकृष्टा ।] 5 . यत्र शुष्काक्षरैरेव धपकृष्टा तु या ध्रुवा।
यस्मादभिनयात् 'सूत्रं प्रथमं ह्यभिसार्यते ॥ तस्मात् शुष्कापकृष्टयं जर्जरश्लोकदर्शिका ।
॥ इति शुष्कापकृष्टा ॥
[पूर्वरङ्गविधिः। 10 रङ्गद्वारमतो ज्ञेयं वागङ्गाभिनयात्मकम् ॥
नेयं चारीप्रचारं सहत इह मही न क्षमं वः प्लुतीनां
ब्रामं सन्म क चाशापदमिह भगवंस्ते भुजोत्क्षेपणानाम् । ब्रह्माण्डाघात भीत्या परिहर विषमं ताण्डवाटोपमेवं
नृत्यारम्भे भवान्या भवतु जनमुदेऽभ्यर्थितश्चन्द्रचूडः॥ २६९ वागङ्गाभिनयोपेतमिति पचमुदाहृतम् । शेष लक्षणमेतस्य भरतादवगम्यताम् ॥ ततश्चारीसंशं समं शृङ्गारचरणाद् भवेत् । रौद्रप्रचरणात्रापि [१दन] महाचारीति कीर्तिता॥ विदूषकः सूत्रधारस्तथा वै पारिपार्श्वकः। यत्र कुर्वन्ति संजल्पं तदत्र त्रिगतं मतम् ॥ प्रकृतस्यैव कार्यस्य सिद्धत्वस्थानुसूचकम् । उपायोपेयभावेन कार्यसिद्धिव्यपाश्रयम् ॥ कविनानालङ्कतं च वाक्यं यत्र प्रयुज्यते । सा स्यात् प्ररोचना नाम वस्तुप्रस्तावनाभिधा॥ एभिरङ्गैः प्रयुक्तैः स्यात् तत्तदैवतपूजनम् । केषाचिल्लक्षणं प्रोक्तमिहोदाहरणैः सह ॥ प्रयोगस्य फलं शेष लक्ष्मोदाहरणे तथा । भरतादवगन्तव्यं नेह विस्तरशङ्कया ।
॥ इति पूर्वरङ्गविधिः॥
25
..
.
२७६
1 ABC भरतान् । 2 ABC सूत्र । 3 ABO शुष्का च कृष्टा । - 4 B0 संबोस । 5 B0 ब्रह्माण्डघोत । 6 ABO °भ्यार्थित ।
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विं , लास्वं च] नृ० र० को-उल्लास १, परीक्षणा १
[अभिनयनृत्यम् ।] *निष्क्रान्ते सूत्रधारेऽथ पारिपाचकसंयुते।। प्रविशेग्नर्तकी तत्रायतस्थानकमाश्रिता॥ नत्वा देवानथ क्षिप्त्वा रङ्गे पुष्पाञ्जलिं ततः। अभिनेतुं प्रक्रमतेऽभिनयान सा यथारसम् ॥ वक्ष्येऽतोऽभिनयानादावभिनेयार्थसाधनम् । यस्मादुपेयधीने स्याद्विनोपायधिया कचित् ॥ व्यञ्जयन्ती रतिमुखान् भावान् या वासनामयान् ।। रसावसानाभिनयो भवन्ती व्यातिनंटे। 'चातुर्विध्यात् खहेतोः स चतुर्धा गदितो बुधैः । । आङ्गिको वाचिकस्तद्वदाहार्यः सात्त्विकः परः॥ तत्राङ्गिकोऽङ्गनिवृत्तः शिरःप्रभृतिभिर्भवेत्। . गाथागीतः प्रबन्धाद्यो वाचिकस्तद्भवत्वतः॥ भूषणादिरिहाहार्यमाहार्यस्तत्मकाशितः। सीदत्यस्मिन् मनः सत्त्वं सात्त्विकस्तेन भावितः॥ एवं व्यवस्थिते राजा शास्त्रसागरपारगः। आङ्गिके सात्त्विकाहार्यान्तर्भावाद्वक्ति तद्विदः॥' नाव्यमार्गोपाधिभिन्नं द्विधा नृत्यमुदीरितम्। नृतेः क्तप्रत्यये रूपं देशीवृत्तमिहोदितम् ॥ नाट्यं मार्ग च देशीयमुत्तमं मध्यमं तथा। अधर्म क्रमतो ज्ञेयं नृत्यत्रितयमुत्तमैः॥ -
[लास्यम् ।] लास्यताण्डवभेदेन त्रयमेतद् द्विधा कृतम् । ललना ललितैरङ्गरचनोपचितैः शुभैः॥ प्रयोगैः सुकुमारैर्यत् साधितं लास्यमत्र तत् । लासाः [स्त्री पुंसयो वास्तत्राही ये(हर्थि) तु तद्धिते ॥ २८८ साधावर्थे लास्यशब्दः कामोल्लसनहेतुकः।। मृदङ्गहारकरणे चारी 'चरणकोमलः॥.
* Verses 277 to 284 are repeated in ABC as 81 to 88 of the preceding section. 1 BC चातुर्वेधाः A. चातुर्विध्याः । 2 ABC तद्विताम् । A B तद्विदः। 3 ABO ललिते। 4 ABO रचण ।
४र०कोशे
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२० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [ताण्डवं, सामान्यामि
[ताण्डवम् ।] ताण्डवं तद्भवेद्यत्तु प्राधान्येन प्रवर्तितम् । करणैरङ्गहारैश्च प्रयोगे उद्धतैरिह ॥ 'तण्डना निर्मिते नृत्ये प्राहुर्भेदत्रयं परे। विषमं विकटं लम्वित्यत्र तद्विषमं मतम् ॥ यदभ्यासवशाद्रबुभ्रमणादि प्रदर्श्यते। विरूपवेषावयवव्यापारं विषमं मतम् ॥ करणैरञ्चिताद्यैर्यत् प्रयुक्तं तद्भवेल्लघु। सङ्कीर्ण तद्भवेनृत्यं यदेतत्रयसंकरात् ॥ सर्वेष्वभिनयेष्वत्र व्यापारैराङ्गिकैर्यतः। . उत्पद्यन्ते नृत्यभेदाः सप्रपञ्चा अनेकशः॥ अतः प्रयत्नतः सर्वान् तानहं वच्मि यत्नतः। अत्राङ्गाभिनयः साक्षादङ्गविज्ञानपूर्वकः॥
तत्राङ्गानि शिरो हस्तौ वक्षः पार्वे कटीतटम् । 16 पादाविति षडुक्तानि भरताचार्यसंमते॥ यथा चाह भगवान् भरताचार्य:
[सामान्याभिनयः।] सामान्यामिनयो नाम ज्ञेयो वागङ्गसत्त्वजः।
तत्र कार्यः प्रयत्नस्तु नाट्यं सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ ...इह भावा रसाश्चैव दृष्ट्यामेव प्रतिष्ठिताः।
दृष्ट्या हि सूचितो भावः पश्चादङ्गविभाव्यते॥ न बङ्गाभिनयात् कश्चिद् ऋते रागः प्रवर्तते ।
सर्वस्य सहजो रागः सर्वो घभिनयोऽर्थजः॥ ....वासयानीह शास्त्राणि वाशिष्ठानि तथैव च । 25 तमाद्वाचः परं नास्ति वाचः सर्वस्य कारणम् ।।
एतेभिनयविशेषाः कर्तव्याः सर्वभावसंपन्नाः।
अन्येऽपि लौकिका ये ते सर्वे लोकतः साध्याः॥ C. नानाविधैर्यथा पुष्पैर्मालां बनाति माल्यकृत् ।
अङ्गोपाङ्गै रसै वैस्तथा नाट्यं प्रयोजयेत् ॥ 30 .. या यस्य लालानियता गातश्च
Fari: रङ्गप्रवृत्तस्य विधानयुक्ता।
३०२
1B तमना।
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समाजामिनयः] नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण १
तामेव कुर्याववियुक्तसत्त्वो
यावत् रङ्गात् प्रतिनिःसृतः स्यात् ॥ ..... ३०३ एवमेते मया प्रोक्ता भावा अभिनयं प्रति। नोक्ता येऽपि तु तेऽप्यत्र लोकात् ग्राह्यास्तु पण्डितैः॥ ३०४ यानि वाच्यैस्तु न ब्रूयात् तानि गीतैरुदाहरेत् । न तैरेव हि वाक्यार्थैरथ प्राकेवलाश्रयः॥ श्रव्यं श्रवणयोगेन दृश्यं दृष्टिविचारणैः। आत्मस्थं वा परस्थं वा मध्यस्थं च विनिर्दिशेत् ॥ एवमन्येष्वपि तथा नानाकार्यार्थदर्शनात् । विनावाचा'नुभावो वा विज्ञेयोऽर्थवशाबुधैः॥ . ३०७10 धैर्यलीलाङ्गहारः स्यात् पुरुषाणां तु चेष्टितम् । हस्तपादाङ्गसञ्चारः स स्त्रीणां ललितो भवेत् । नराणां प्रमदानां च भावाभिनयनं पृथक् ॥ लोको वेदस्तथाध्यात्म प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् । लोकाध्यात्मपदार्थेषु प्रायो नाट्यं व्यवस्थितम् ॥ देवतानामृषीणां च राज्ञां लोकस्य चैव हि । पूर्ववृत्तानुचरितं नाव्यमित्यभिधीयते ॥ एवं लोकस्य या वार्ता नानावस्थान्तरात्मिका। सा'नाव्ये संविधातव्या नाव्यहेतोः प्रयोक्तृभिः॥ ३११ यानि शास्त्राणि ये धर्मा यानि शिल्पानि याः क्रियाः। 20 लोकधर्मप्रवृत्तानि नाव्यमित्यभिधीयते ॥
३१२ . न च शक्यं हि लोकस्य स्थावरस्य चरस्य च। शास्त्रेण नियमं कर्तुं नानाचेष्टाविधि प्रति ॥ नानाशीलाः प्रकृतयः शीले नाट्यं प्रतिष्ठितम् । तमाल्लोकप्रमाणं हि नाव्यं ज्ञेयं प्रयोक्तृभिः॥ ३१४25 .
नाव्यप्रकाराः कथिता मयैते
विज्ञाय सम्यङ् मनुजैः प्रयोज्याः। नाव्यस्य तत्त्वानुगतः प्रयोगः 'संमानमग्र्यं लभते हि रङ्गे ॥
॥ इति सामान्याभिनयः॥
1 AB वोगा। 2 ABO सानाट्ये। 3 ABC समान ।
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नृ०र० को पल्लास १, परीक्षण १ [चित्र आहार्यामिनयाँ स्वर
[चित्राभिनयः।] अनाथभिनयस्यैव यो विशेषः कचित् कचित् । अनुक्तमुच्यते चित्रः स चित्राभिनयः स्मृतः ॥ रम्मोर्वशी'प्रभृतिमिर्दिव्यं नाट्यं प्रवर्तितम् । तथैव मानुषे लोके पार्थिवानां गृहेषु च ॥ सङ्गीतपरिक्लेशा नित्यं प्रमदाजनस्य गुणहेतुः । यन्मधुरकर्कशत्वं भजते नाव्यं प्रयोगेण ॥
॥ इति चित्राभिनयः॥
.. [आहार्याभिनयः। यतोऽलंकार्यशेषत्वमलङ्कारस्य वर्ण्यते। आहार्याभिनयस्यातो नाङ्गिकात् पृथगर्थता ॥ शेषत्वाद्गुणतापत्तेर्न प्रधानत्वमिष्यते। गुणः प्रकृत्यङ्गमतोऽन्याङ्गता संमता सताम् ॥ . अन्याङ्गमप्रधानं स्यादतो न वसकः(? रसक)खतः। अङ्गेषु मुकुटादीनां शब्देषु यमकादिवत् ॥ न संस्कार-विशेषत्वात् पृथक्त्वं कस्यचिन्मतम् । सालङ्कारैर्वचोगुम्फैरङ्गैर्भूषाविभूषितैः॥ विभागादेरभिव्यक्ते रसाभिव्यञ्जकत्वतः। भूषणानां न भूष्येभ्यो गणना पृथगीप्सिता॥ यथा धुतादिके मूर्ध्नि क्रियाभेदाद्भवेद्भिदा। एवं भूषाविभेदेन भेद इत्येव सुन्दरम् ॥ उपाङ्गता वाऽमीषां स्यात् पृथग्वृत्तेरभावतः। तथा हि त्रितये यस्मिन् चतस्रो वृत्तयः स्मृताः॥
३२५
25
[भारत्यादिवृत्तयः।] भारती सात्त्वती चैव कैशिक्यारभटीति च । 'वर्तन्तेभिनया यस्मादाखासां वृत्तिता ततः॥ ३२६ भारत्यभ्यर्हिता यत्र वृत्तिः सा भारती मता। वृत्तिः सा कैशिकी या तु कैश्यवत् सोक्षम्यशालिनी ॥ ३२७ 140 °वसी; 0 रंभासी। 2 BC गताम् । 3 ABO वर्तते । 4 80 वृत्ति।
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साविकभावपरीक्षा] नृ० र० को०-उल्लास १६परीक्षण१
२९. अभिनेयपरां शोभा काञ्चित् संपादयन्सानि ।। आरं स्यात् 'शातदन्तस्य योगायोषा भटा स्मृत्यः ३२८ तवृत्तिरिव या वृत्तिर्भवेदारभटी तु सा। ऋग्यजुःसामवेदेभ्यो वेदाचाथर्वणात्तथा ॥ क्रमाखाताश्चतस्रस्तु नानाभेदोपहिताः। भारत्यां वाचिकाः सर्वे वर्तन्तेऽभिनया इह ॥ . तिसृष्वन्यासु वर्तन्तेऽभिनया आङ्गिका पुनः ।....... वृत्ति? त्य)भावादभिनयो नाहार्योनार्यसंमतः॥ .. ३३१
३३२
[सात्त्विकभावपरीक्षा ।] अतः 'कायमनोवाग्भिनिमित्तैत्रिविधैरिह। निर्वृत्तत्वात् त्रिधैते स्युरिति केचन मन्यते ॥ विचारस्यासहत्वेन.नैताक्ततरं यतः। साविका आङ्गिकेष्वेव पर्यवस्यन्ति तत्त्वतः ॥ ३३३ नटस्यातत्वरूपस्य किं तादात्म्यमतो न हि । स्तम्भादीनां सात्त्विकत्वं केवलानामिहोदितम् ॥ ३३४ अथ प्रयत्ननिवृत्त्याः सात्त्विकाश्चेद्भवन्मते। .. मतमेवं वचोभरिङ्गीकारोचिता त्विह ॥ एत एव प्रयत्नेन निवृत्त्याः सर्व एव वा। स्तम्भाद्या उत रत्यादिस्थायिनो व्यभिचारिणः ॥ ३३६20 तथा हि विवदन्तेऽत्र सत्त्वे प्रावादुका यथा...' विकाराद्वायुसंरोधनिर्मितात् सात्त्विकाज(स)। भघोटादयः श्वासोच्छ्रासादेवासनामयात्। ... विवंशो वायुसरोपा सिद्धसंवेद्यलक्षणः ॥ .. ३३८
चिराचिरखरूपेण सत्वमित्यभिधीयते। . : शिक्षाभ्यासाचिरतरमाधैर्नाव्यकर्मणि ॥ .
वासनाभिनयनेतद्दलोल्लटसंमते। . यथा तदानीं नो कर्ता तादात्म्यं नैव किचन ॥ . ३४० भावः खसुखदुःखाभ्यां के भेदा वेशकश्चन(?) . . . . ३४१ 180 शानदंतस्य; A शास्त्रत्रदंतस्य । 2 BO नयाहार्योत्रार्यसमंततः। 3 B0 कामपतो। 4 ABO स्वासोत्स्वासो। 5 ABO °धा सिधा ।
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३४२
नगरको उल्लास १, परीक्षण १ [साविकमावता लयतालावसानस्य विषयेष्ववधानतः । प्रणीतमा प्रयोगत्वासंभवात् लौकिकाः स्मृताः॥ स्तम्भादीनां तु पाखानां हेतवो नान्तराः कचित् । अतः सविषयत्वं नो सहमाना इमे स्फुटम् ॥ रत्याश्य इव खीयवलनेन खकार्यगम् । प्रयताचं 'विरुध्याथो रत्यादि समनन्तरम् ॥ उभूतास्त इव पायगुणशून्यतयात्र तु। उच्यन्ते सात्त्विका प्रान्तचित्तवृत्तिविशेषिकाः॥ ३४५ षाधवस्तुविशेषाभिमुख्यापेक्षाविनाकृतम् । रत्यादिरूपसापेक्षमन्तःकरणमुच्यते॥ शुद्धं सत् तन्मते सत्त्वं केषाञ्चन मते पुनः। ... बीजस्थानीयमव्यक्तरूपं सत्त्वमुदीरितम् ॥ मनसा सहितं 'चास्य तत्त्वमेव कचिन्मते। सत्त्वशब्दाभिधेयाश्य)यत्स्थानं तत् सात्त्विकं मतम् ॥ ३४८ बाघार्थविषयकोषादिकानां परिणामतः। तदीयपरिपाकस्य परिपोषखरूपतः॥ स्तम्भादि कारयन्ति ये रतिक्रोधादयो यतः। उदासन्ते सविषया अतस्तद्वयतिरेकिणः॥ ग्लान्यालस्यश्रमाचासुस्तु) विषया भावतो यदि । यथा ये पायहेतुकाः सन्तो वैवर्येनोपलक्षिताः॥ सात्त्विकान्तःपातित्वेन गणिताः पूर्वसूरिभिः। अबादयो बायधूमशीतादिकनिमित्तकाः॥ ३५२ व्यजनग्रहणायेनाभिनयेनोपलक्षिताः। असात्त्विकेऽपि तन्मध्ये गणिता भवभूतिना ॥ ३५३ कथं वा रतिनिर्वेदादिकमत्राभिनीयते। नटेन निरपेक्षेण मानसव्यावृतेरिह ॥ इत्यादिकं तथा स्तम्भादिकं तस्मात्समं मतम् । नैवं खभोजनादौ तु जनो व्यग्रमना अपि ॥ ३५५ सकृन्मनः प्रयुज्यापि कुर्वन् चक्रमणादिकम् । दृश्यतेऽन्यमना नैव स्तम्भादिजनने क्षमः॥ 1 50 विरुध्यायो। 2 ABC चास। 3 BO नैव ।
20
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३५४
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साविकमान परीक्षा ] नृ० १० को०- उल्लास १, परीक्षण १
तस्मादनन्यमनसो जायन्ते ते नु साविक स्तम्भादीनां न चैवं स्यात् समाधानं तु मानसम् ॥ हेतुः समानकालीनोऽष्टको दयनिमित्ततः । तद्वाष्पं जनयेयुर्ये नटबुद्धयवसायकाः ॥ ते स्युर्नटगतानां तु बाह्यषाष्पादिहेतवः । एवं ते सात्त्विकाः सत्त्वेनाहताः संसदि स्फुटम् ॥ वाक्यगाथादिभिर्गम्या नैवमवघटेत हि । एवं ते ह्यभिनीयेरन्नट (? टा) नेत्रजलादिभिः ॥ नैवं नटानामन्योन्यं प्रसिद्धा एव तेन तत् । यतोऽस्यैवं प्रसिद्धाभिधानेऽस्य क्वचित् तत्कृतेः ॥ शिष्यानौपयिका तत्र किं फलं वद तत्त्ववित् । नैवं तथाविधे बुद्धयवसायेऽष्टकस्य तु ॥ मानसैकाग्र्यहेतुत्वे यौगपद्योदयाप्तितः । बाह्यबाष्पाष्टकस्यास्य यौगपद्यादयोऽपि च । तत्र सामग्र्यन्तरं चेत् किमवान्तरकल्पनैः ॥ सुलयमनुसरामि स्थानकं स्वीकरोमि
स्फुरितमनुभवामि स्थायिरूपं सलीलम् । परमिह रचयामि प्रीतिदृष्टिं च कान्ताम्
X
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ध्रुवमुपरि नयाम्युत्फुल्ल विस्फारतारम् ॥ इत्यादयोऽध्यवसाया गण्या नटगता न हि । अन्तर्भावो न सर्वेषामुक्तेष्वेवावकल्पते ॥ न चातिव्यग्रमनसा तारकाया विलोलनम् । शक्यक्रियां (? यं) न वा योग्याभ्यासशिक्षात्र कारणम् ॥ ३६६ स्तम्भादावपि सा तुल्ययोगक्षेमात्र दृश्यते । एकाग्र्यबुद्धयवसायशून्ये नाव्ये नटेन च ॥ किञ्चिदप्यधुना कर्तुमशक्यं विद्यते कचित् । नटस्याध्यवसायानां लौकिकेनानुकारिणा ॥ निर्वेदादिभाववर्गगणने किं फलं वद । बायोsपि दृश्यते स्तम्भो भयहर्षादिकैरपि ॥ व्यजनग्रहणाचापि खेदाभिनयने कचित । मन्दसत्वे नटेकीदितापात् खेदः प्रतीयते ॥
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1 ABO कादयनिमित्ततः । 2 ABC जनयेयं । 3 ABO कचितत् ।
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१० ।
-उस १, परीक्षण १ [ सावि
नैतदरिद्रगृहिणीविवाहोत्सवतुल्यताम् । अवश्यकरणीयत्वादारोहतीति भवद्वचः ॥
नैवमेवंविधस्यापि नटमा नोपपद्यते । 'तदान्यपात्रमध्ये किं क्रियते व्यजनाग्रहः ॥ केचित्वथवा कार्यः स्वयं सामाजिकेन किम् । अन्येषु सात्त्विकेष्वेवमेव दूषणकल्पना ॥ तेषां महानुभावानां सात्त्विकानां हृदः स्फुटम् । कलुषीकरणाज्जातः शङ्कुशङ्कासमागतः ॥ विशीर्णफलवानोक्तफलः फलतु किं फलः । सत्वाख्येन प्रयत्नेनाभिनीयन्ते तु तेऽत्र ते ॥ भावाः स्युः सात्त्विकास्तस्मात् किं तथा ये तथा न हि । बाष्पगद्गदमुख्याः स्युस्तथा 'वेदोद्गमादयः ॥ प्रयत्नेनाभिनिर्वहेतुश्चेत् सात्त्विके भवेत् । तत्पुंप्रयत्न निर्वपद्मकोशादिभिर्भवेत् ॥ वर्षधारादिकेतेऽभिनेये सात्त्विकता न किम् । अथ चेद्र्यतिरेकस्ते तेभ्यस्तेषामिमे यथा ॥ रत्यादयश्चित्तवृत्तिनिर्वेदात् पूर्वमेव तु । निवेदनं 'प्रकुर्वन्ति ततः प्राणमधान्तरम् ॥ तन्मांस (?) विश्वरूपाभ्यां सत्त्वं कलुषयत्यपि । अन्तःकरणसत्त्वस्य वायुराश्रयतां गतः ॥ क्रोधाद्या अपि दृश्यन्ते विकाराः प्राणसंभवाः । प्राणसूत्रपरिप्रोते संविदभ्यासचित्रिते ।। विकारो जायते देहे तत्र चित्प्रत्ययेन च । रत्यादिरप्रसरणखभावः प्राणभूमिकाम् ॥ अनधिष्ठाय सहसाऽस्तमेति स यदा पुनः । परामर्शाल्लक्षणीयामवधानधुरं व्रजेत् ॥ तदा स प्रसरत्येव प्राणभूमौ तथाविधः । तामसत्वान्न नैर्मल्यसाधुतोपचितः परम् ॥ सत्त्वमित्युच्यते सांख्यप्रसिद्धं सत्त्वमित्युत । न तस्य प्राणदेहे च विकारः संभवेत् कचित् ॥ 1 ABC कोई | 24 बिकु ।
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साविक भाव परीक्षा ] नृ० १० को०- उल्लास १, परीक्षण १
धूमविधूसरवदनप्रकृतिविजिह्मस्वभावस्य । नैते लोके दृष्टाः क्वचिदपि सत्त्वे विकारास्तु ॥ तथा च राहुल:सत्त्वं रजस्तम इति प्रथिता गुणा ये
चित्तं तदात्मकमिहोपदिशन्ति सन्तः । सत्त्वोत्कटं मनसि ये प्रभवन्ति भावास्ते सात्त्विका निगदिता मुनिभिः पुराणैः ॥ इति
लाघवे च प्रकाशे च तारतम्यस्य संभवात् । दृष्टः क्रोधभयादौ च तथा सत्त्वस्य संभवः ॥ तत्प्राणभूम्यां प्रसृतप्राणसंवेदवृत्तयः । देहेनैव तावदमी संवित्वीकारवर्जिताः ॥ 'बाह्याख्यजडरूपेण, भौतिकेन तथा पुनः । इन्द्रजालादिविशदविभावेन तथैव च ॥ रत्यादिकेनातिचर्व्यमाणगोचरतां गतैः । अनुभावैर्गम्यमाना भजन्ते भावशब्दताम् ॥ ते च सत्त्वे प्राणमये भवत्वात् सात्त्विका मताः । ते सत्त्वेन चित्तवृत्ते (?त्तौ) चर्व्यमाणा विधानतः ॥ निर्वृत्ता इति विज्ञेयाः सात्त्विकास्तद्यथोच्यते । मनःप्रभवतो वस्तु सत्त्वं प्राणात्मकं मतम् ॥ सीवत्यस्मिन् मनः सत्त्वोत्कर्षात् साधुत्वतोऽपि च । केचित् सत्त्वेन संजल्पखभावां शब्दभावनाम् ॥ आहुः सूक्ष्मवासनादिस्वरूपेण व्यवस्थिताम् । तथा चिरतराभ्यास भावनाया विकल्पतः ॥ संजल्पतोद्भिन्नवृत्तेः सनाम्नो मनसोद्भवः । यस्मिन् तत् सत्त्वमित्युक्तं ननु किं केवलो (१ ले ) भवेत् ॥ ३९६ प्राणभूते सत्वरूपे तत्र को हेतुरुच्यते । तस्मात् सत्त्वाद्धेतुभूतादाहितं यत्समन्ततः ॥ मनः संवेदनं तस्य संबन्धान्मनसोऽपि च । समाधानाच्च रत्यादि विषयस्य तु *** ॥
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1 BC drop बा। 2 ABC शूक्ष्म । 3 BC मनसं । - ५ नृ० रा०
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[ सात्विकभाववा
नृ० ८० कौ० - उल्लास १, परीक्षण १
चर्न्यमाणादिरूपेणोत्पद्यते प्रकृतित्वतः । स्तम्भाद्यैरान्तरैः पूर्वमभिन्नक्रमरूपधृक ॥ एवमुक्तात् त्रिःप्रकारात् सत्त्वादुत्पाद्यतेऽत्र यः । स सात्त्विक इति ख्यात इति चेदुच्यते त्वया ॥ तवं रतिनिर्वेदप्रमुखा अपि सात्त्विकाः । स्थानभेदोपसंक्रान्तावस्थान्तरयुजो न 'किम् ॥ एवमेकोनपञ्चाशज्जाता भावास्तु सात्त्विकाः । अत्राहुः केचिदाचार्याः स्थायिषु व्यभिचारिणः ॥ पर्यवस्यन्ति तेषां च रूपं प्रसरणाद्वहिः । अन्तोष्टारेचन (?) स्तम्भादिके दुर्योजमेव तत् ॥ तथा ह्येते प्रोततया घराद्यं भूतपश्चकम् । प्रपञ्चयति प्राणोऽथ खतनश्चेष्टतेऽपि च ॥ तावलम्बते प्राणं धराद्यं भूतपञ्चकम् । प्राणो यां यां चित्तवृत्तिं कुरुते खात्मनि 'श्रिताम् ॥ संपादयति तां तां स स्तम्भस्वेदादिभावताम् । तथा ह्यत्र क्रोधभयहर्षादिविहिता अमी ॥ देहक्रियाप्रयनेच्छादय एकखरूपिणः । चित्तवृत्तिस्तम्भमात्राकारा स्युर्व्यभिचारिणः ॥ अमीभिरेव स्तम्भाद्यैर्नाट्ये संगृह्य वर्णिताः । यथोद्वेगा वैमनस्यं बाह्यवैवर्ण्यहेतुके ॥ तस्मात् सर्वचित्तवृत्तिकलापोऽष्टक एव यत् । अन्तर्भूतः स चैवात्रानुभावेष्वत एव सः ॥ तदुक्ती संगृहीतः स्यादन्यत्राप्येवमूयताम् । जिभागप्रधाने तु प्राणे संक्रान्त उच्यते ॥ चित्तवृत्तिगणो बाह्यस्तैजसस्तु तथा पुनः । क्रोध इत्युच्यते तीव्रातीव्रत्वेनोपलक्षितः ॥ आकाशस्यानुग्रहे तु प्रलयः परिकीर्तितः । न तत्पूर्वं ततः पश्चात् खेदवारीति केचन ॥ तामवस्थां परिप्राप्तोऽथावहित्थादि भावकः । बहिर्विकारपर्यन्तप्राप्तो ऽत्र परिदृश्यते ॥ 1 BO कि । 2 ABC° निस्त्रिताम् । 3 ABO थबहि ।
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सात्विकभावपरीक्षा] नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
तदत्रान्तर्मनोरूपत्वाख्याभावाचवायतः। .... भौतिकाख्यविकारान्ता चेतोवृत्तिरिह स्फुटा॥ प्राणभूमौ तु विश्रान्ता दर्शिता स्थूलदर्शिना। अत्राष्टत्वं स्थूलशा वस्तुतोऽनन्तता मता ॥ र(?)त्युच्चलतया श्वासोच्छ्रासरूपतयान्यकः । क्रोधोऽन्तरा समुदितो बाह्योऽन्यः खेदहेतुकः॥ आनन्दोऽप्येवमेवेष्टः शोकजे तु गलग्रहे। अन्योन्य एव तेनाष्टाविति स्थूलदृशां दृशा ॥ देहात्ममानिनां तेन नीचानां झटिति स्फुरन् । उत्तमानां तु देहादिव्यतिरिक्तात्ममानिनाम् ॥ ४१८10 विवेकशालिनां चान्तर्न बहिश्यते कचित् । योगिनां सर्वथा नेति तैर्यथैवोपदिश्यते ॥
४१९ अतो भूतानुग्रहाचाष्टधा प्राणाद्यनुग्रहात् । स मनोजवलनाद् ध्यानाद् रोमहर्षः प्रजायते ॥ अयमों मया यावदुपयोगं प्रदर्शितः । आगमस्यानुरोधेन लोकाभिप्रायवेदिना ॥ नाव्याभिप्रायमाश्रित्य सात्त्विकत्वं निरूप्यते । अत्र प्रयत्ननिर्वाः सात्त्विका इति संमतम् ॥ ४२२ रोमाञ्चादि यथा बाद्यमान्तरं स्यात्तथा नटैः। कर्तुं न शक्यते व्यग्रैः शिक्षामात्रोपजीविभिः॥
४२३ 20 अलमेतेन 'चेन्नैवं लोकानुकृतिरूपकम् । सात्त्विकं तद्भवा भावाः सात्त्विका आन्तरा मताः॥ प्राणाचनुग्रहाते स्युरितराङ्गं तथेप्सिताः। ननु बाष्पादि यहाचं नाव्यमस्तु-तदत्र किम् ॥ तेनान्तरालिकेन स्यात् कृत्वे(?त्ये)नेति तथा न हि । इदमत्र तु तात्पर्य ये भावा नाव्यगामिनः॥ कुर्वन्ति सुखदुःखे ये तथा येऽभिनयन्ति ते। बाह्यादयस्तु ते कार्या यथा नो शङ्कितास्तथा ॥ ४२७ बाह्यधूमादिहेतूस्था दुःखजैरान्तरालिकैः। . बाष्पादिभिस्तुल्यरूपा नाट्यधर्मिप्रयोजिताः ॥
४२८30 1 60 विधाता। 2 ABO मेवष्टः। 3 ABC °शालिनी। 4 0 योनिनां। 5 ABO माता । 6 ABO सटा। 7 ABC अलमेते च तेनैवं । 8 ABC °भाषा। 9 BC नामस्तु। 10 ABC धर्मी।
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नुर6 को-उल्लास १, परीक्षण १ [आङ्गिकनुस्वक्रमः नियन्ते प्रेक्षकैश्च सत्यत्वेनान्तरालिकाः। रामादिकाभिनेयानां प्रतीतिप्रत्ययस्य च ॥ विरोधित्वसमत्वाभ्यां श्रुतत्वेनोपरञ्जिताः। नटज्ञानविरोधेन चैवं रूपद्वयस्य च ॥ . अनुसारेणानुगाम्य रूपं भातीति सांप्रतम् । अत्र दुःखमदुःखेन सुखं चासुखितेन च ॥ नाभिनेतुं क्षमं तस्मादितयाभिस्युतेन च । द्रष्टव्यावश्रुरोमाञ्चाविति सात्त्विकनिर्णयः ।। अत्र प्रयत्ननिर्वर्ये समाने भाववर्गगे। अतिप्रसक्तिमुखेषु दोषरूपस्थितेषु च ॥ सात्त्विका आङ्गिकेष्वेव युज्यन्त इति सांप्रतम्। .. 'तस्मान्मुख्यावभिनयौ वागङ्गप्रभवी मतौ ॥ अर्थप्रतीत्युपायत्वाद्वाचिकोऽपि हि तद्गुणः ।
मुख्यत्वमाङ्गिकस्यैव यदारादुपकारकः॥ 16 वाचिकोऽपि भवेदर्थप्रतीतिद्वारतोऽस्य च ।
एवं नानामुनि मतोऽभिनयोऽत्र विवेचितः॥ चतुर्धा च त्रिधा द्वेधैका सत्येवमप्ययम् । चतुर्विधो भुवो भा लक्ष्यते लक्ष्मविन्मुदे ॥ शाखावृत्ताकुरोपाधिभेदात्तत्राङ्गिक स्त्रिधा। वर्तनाः करयोः शाखास्तत्र वैचित्र्यचित्रिताः॥ अङ्गोपाङ्ग चयैस्तत्र स्थानकैरुपबृंहितैः। करणैरङ्गहारैश्च निवृत्तं वृत्तमुच्यते ॥ अकुरोऽप्यङ्गव्यापारो दृष्टिप्राधान्यमाश्रितः। भूतवाक्याविषयश्चित्तवृत्त्यर्पणक्षमः ॥" स एव "सूचीसंज्ञः स्याद्राविवाक्यार्थसूचनात् । आरभटी सात्त्वती च कैशिकीति तिसृष्वपि ॥ शाखा चैवाङ्कुरो "वृत्तं वर्तन्तेन यथाक्रमात् । देशकालवयोवस्थावेषभूषणशक्तितः॥ भाव्यते तद्गतो भेदो भावकैरञ्जसा स्वतः। रसाभिव्यक्तिपर्यन्तो वृत्ति त्रितयवाचिकम् ॥ ४४३
1 ABO लिकः। 2 ABO शुत्वत्वे i 3 ABO नुगाम्ये। 4 ABO °न्मुखाव' । 5 ABO मते। 6 ABO द्वेधौकधा। 7 B0 कत्रिधा। 8 B0 कयैस्तत्र । 9 80 निवृत्त । 10 B0 'पणास | 11 AB0 सूचात् । 12 ABC नृत्यं । 13 B0 तृतयवाचिकम् ।
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आफ्रिकनृत्यक्रमः] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
'संस्मृतो नृत्यशब्देनाङ्गिकोऽप्यत्राभिधीयते। लक्षणां वृत्तिमाश्रित्य नाव्यशब्दोऽपि वर्तते ।। ४४४ नृत्याभिधेऽङ्गाभिनये 'प्रोक्तं पूर्वमिदं मया। नृतेः क्यप्प्रत्यये नृत्यशब्दः कर्मविवक्षया ॥
४४५ भावोपसर्जनो यत्र रसो मुख्यः प्रकाशते । तनाव्यपूर्वकं नृत्यं मार्गनृत्यं तदुच्यते॥ रसोपसर्जनीभूतो यत्र भावः प्रकाशते। मार्गो भावाभिधस्तस्मान्मृग्यतेऽत्र रसो यतः॥ नाव्यमार्गोपाधिभिन्नं द्विधा नृत्यमुदीरितम् । . नृतेः क्तप्रत्यये रूपं देशीनृत्तमिहोदितम् ॥ ..... ४४८10 नन्वत्र प्रत्ययैकार्थे मार्गदेशीति का भिदा। उच्यतेऽत्र तदैक्येऽपि यो यत्र विनियुज्यते ॥ ४४९ विवक्षावशतो ब्रूते स तमर्थमिति स्थितम् । पङ्कजत्वे समानेऽपि लोके पझे तदीरितम् ॥ विवक्षा चात्र शोभायां हस्ते हस्तैकदेशवत् । नृत्ये नृत्यैकदेशेऽपि नृत्यशब्दाद् द्वयोर्ग्रहः॥ . नाव्यधर्म(?मी)लोकधर्मीत्येवं रूपविशेषणात् । इति कर्तव्यता तस्य द्विविधा परिकीर्तिता ॥ नाव्यधर्मी द्विधा तत्र शुद्धां नाव्योपयोगिनीम् । आश्रित्य कैशिकीवृत्तिं करोत्यावेष्टितादिभिः॥ ४५३ 20 चतुर्भिः करणैः शोभा प्रथमा सा भवेदियम्। ... अंशेनैवोपजीवन्ती 'लोकमत्या प्रवर्तते ॥ .. ..... ४५४ चार्यापविद्धया हस्तेनार्धचन्द्रेण यो भवेत्। . . . . निःकाशने प्रयोगोऽत्र न शास्त्रादेव गम्यते ॥ न लोकादेककादेव तत्राज्ञानादनादरात्। . किं तु द्वितयसंसर्गादिक्षास्मिन् प्रजायते ॥ . लोकधर्मी द्विधा ज्ञेया चित्तवृत्त्यर्पिकैकिका। निर्वेदादेश्चित्तवृत्तानदृष्ट्यादयो यथा ॥
४५७ अन्या स्याद्वाद्यवस्तूनां निरूपणपरायणा । बाघस्य कमलादेस्तु पद्मकोशादयो यथा ॥ नाट्यं मार्ग च देशीयमुत्तमं मध्यमं तथा । 1 50 संस्तो । 2 ARO शब्दापि । 3 ABO प्रोक्त । 4 ABO लोमकन्या । :
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नृ०० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [आङ्गिकनृत्यक्रमे शिरोमेवाः अधर्म क्रमतोयं कृत्यत्रितयमुत्तमम् । लास्यताण्डवभेदेन त्रयमेतद् द्विधा मतम् ॥ ललनाललितैरङ्गरचनोपचितैः शुभैः। प्रयोगैः सुकुमारैर्यत् साधितं लास्थमत्र तत् ॥ लासः स्त्रीपुंसयोर्भावस्तत्राहीये तु तद्धिते । साधावस्ये(१ थे) लास्यशब्दः कामोल्लासनहेतुकः॥ मृदङ्गहारकरणचारीचरणकोमलः। ताण्डवं तद्भवेद्यत्तु प्राधान्येन प्रवर्तितम् ॥ विषमं विकटं लम्वित्यत्र तद्विषमं मतम्। . यदभ्यासवशाद्रजुभ्रमणादि प्रदश्यते ॥ विरूपवेषावयवव्यापार विकटं मतम् ।। करणैरश्चिताधैर्यत् प्रयुक्तं तद्भवेल्लघु ॥
४६४ सङ्कीर्ण तद्भवेतृत्वं यदेतत्रयसङ्करात्।। सर्वेष्वभिनयेष्वत्र व्यापारैराङ्गिकैर्यतः॥
४६५ उत्पद्यन्ते नृत्यमेदाः सप्रपञ्चा अनेकशः। अतः प्रयत्नतः सर्वान् तानहं वच्मि तस्वतः॥ अत्राङ्गाभिनयः साक्षादङ्गविज्ञानपूर्वकः । अतोऽङ्गनिचयं वक्ष्ये विस्तरालक्ष्मपूर्वकम् ॥
४६७ यद्यप्यत्र प्रधानत्वे नृत्ये चरणकर्मणः। चरणादेः प्रकथनं युज्यतेऽङ्गनिरूपणे ॥ तथापि शिरसोऽङ्गानां प्राधान्यादधिकारतः। शास्त्रस्यास्य मनुष्यस्य शिरप्रभृतिवर्णनम् ॥ ४६९ यतो मौलेस्तु मनुजा वाश्चरण]तः सुराः। इति शिष्टाचारमूलं मौलितोगनिरूपणम् ॥ एवं शिष्टानुरोधेन यद्यप्यत्रोपवर्णितम् । शिरःप्रभृतिकाङ्गानां लक्षणं संग्रहस्तथा ॥
४७१ तथापि नृत्ये चार्यादौ मुख्यत्वाचरणस्य च । तद्धेतुकत्वप्राधान्यादन्यस्य चरणादितः॥
४७२ तत्राङ्गानि शिरो हस्तौ वक्षः पार्श्वे कटीतटम् । पावाविति षडुक्तानि 'भरताचार्यसंमते॥
४७३ समं धुतं च विधुतमाधूतमवधूतकम् । कम्पिताकम्पितोत्क्षिप्ताधोगतानि च लोलितम् ॥ ४७४ 1 ABO कामल्ला । 2 ABC चार्यादे । 3 ABG °न्यस्ये। 4 A भरचा। .
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आशिकमृत्याने शिरोमेदाः] नृ०० को-उल्लास है, परीक्षण
निहञ्चितं परावृत्तं परिवाहितमजितम्। एवं स्युः शिरसो भेदाः समाने च चतुर्दश। समं खभावाभिनये खभावावस्थितं मतम् । 'इदं पूजाजपध्यानखामिसेवादिषु स्मृतम् ॥
॥ इति समम् ॥१॥ क्रमेण तिर्यग्नमितं शनैरुक्तं धुतं शिरः। प्रतिषेधेऽनीप्सिते च विषादे विस्मये तथा ॥ शून्यतायामनाश्वासे पार्श्वदेशावलोकने । अत्रैवान्तर्गतं ज्ञेयं शिरः पार्श्वविलोकितम् ॥
॥ इति धुतम् ॥२॥ धुतमेव भवेच्छीघ्रभ्रमणाद्विधुतं शिरः। शीतार्ते ज्वरिते भीते सद्यः पीतासवे भवेत् ॥
इति विधुतम् ॥ ३॥ तिर्यगई सकृनीतमापूतं कीर्तितं शिरः। गर्वेण भुजवीक्षायां पार्श्वस्थस्योर्ध्ववीक्षणे ॥ शक्तोऽस्मीत्यभिमाने ष तथाङ्गीकारकर्मणि। इहैवोद्वाहितं ज्ञेयमन्ततं विपश्चिता ॥
॥ इत्याधूतम् ॥ ४॥ अधस्तात् सकृवानीतमवधूतमिहोच्यते । स्थित्यर्थे देशनिर्देशे संज्ञालापनयोरपि । उपविष्टाल्पनिद्रायामाहाने च प्रयुज्यते॥
॥ इत्यवधूतम् ॥५॥ ऊर्ध्वाध:कम्पनाच्छीधं बहुशः कम्पितं मतम् । रोषे वितर्के विज्ञाने तर्जनेऽङ्गीकृलावपि ॥ त्वरितप्रभवाक्ये च राज्ञा कम्पितमीरितम् । विब्बोकादिषु कान्तानामिदमाहुर्मनीषिणः। तिर्यग्नतोसतं ज्ञेयमत्रान्तर्भावमागतम् ॥
.. ॥इति कम्पितम् ॥ ६॥ .
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1 30 इद ।
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नृ० १० -उल्लास १, परीक्षण १ [ आङ्गिकनृत्येक्रमे शिरोवेदाः
द्विःप्रयुक्त कम्पितं स्यात् शनैराकम्पितं शिरः । पुरस्पवस्तुनिर्देशचित्तस्थार्थप्रकाशने । संज्ञायामुपदेशे च 'प्रश्ने चावाहने तथा ॥
॥ इत्याकम्पितम् ॥ ७ ॥
*
ऊर्ध्वाभिमुखमुत्क्षिप्तं मस्तकं विनियुज्यते । दर्शनेऽनुगवस्तूनां चन्द्रादिव्योमचारिणाम् ॥ दिव्यास्त्राणां प्रयोगे च विचारेऽर्थस्य वेष्यते । इदमेवाल्पमुत्क्षिप्तमुद्वाहित 'मितीतरे ॥ ॥ इत्युत्क्षिप्तम् ॥ ८ ॥
*
'अधोगतं स्यादन्वर्थं दुःखे लज्जाप्रणामयोः ॥ ॥ इति अधोगतम् ॥ ९ ॥ लोलितं मन्दमन्दं स्यात् सर्वदिक्षु विलोलनात् । निद्रागद ग्रहावेशमदमूर्च्छासु तन्मतम् ॥ ॥ इति लोलितम् ॥ १० ॥
*.
उत्क्षिप्तांसं किञ्चिदिव तिर्यग्ग्रीवं निहञ्चितम् । एतद्विलासे विब्बो ललिते किलकिञ्चिते ॥ माने मोहायिते गर्ने स्तम्भे कुट्टमिते स्थिते । विलासो ललिता चेष्टा विशिष्टागमनादिका ॥ विब्बोको वाञ्छितार्थस्य लाभे गर्वादनादरः । अङ्गानां सौकुमार्य यल्ललितं तदुदाहृतम् ॥ हर्षक्रोधाभिलाषादेः सांकर्ये किलकिञ्चितम् । मानः प्रणयजो रोषः प्रिये तज्ज्ञैरुदाहृतः ॥ कान्तस्तुतिकथालापलीलाहेलादिदर्शने । तद्भावभावनं स्त्रीणामुक्तं मोहायितं स्फुटम् अहंभावः स्मृतो गर्वः स्त्रीणामभ्यासमागमे । स्तम्भः परामुखीभावः प्रियेऽनुनयतत्परे ॥ सौख्यानुभावेऽप्यधरस्तन केशग्रहादिषु । बाह्य दुःखानुभावो यः सोऽत्र कुद्दमितं मतः ॥
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४९६
1 ABO पृन । 2 ABO वाहिता । 3 ABO अधोमतं । 4 ABC प्रमाणयोः । of. • प्रणामयोः सं. र. अ. ७ श्लो. ७३ ।
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कमे शिरोमेवाः] रसको उहास-१, मीक्षण १ खभावावस्थितं सीता खिताबुतं मीकि अनेनैवोक्तपूर्व तु शिरसियग्नतोगतर
इति निश्चितम् ॥ ११॥ . . परावृत्तं तु तच्छी प्रत्यातमुखं तु तत्। .. परावृत्तानुकरणे पृष्ठतः प्रेक्षणेऽपि च । 'लज्जाविजनिते कार्य 'मुलापसरणेऽपि च ॥
॥ इति परावृत्तम् ॥ १२॥ मस्तकं मण्डलाकारमामितं परिवाहितम् । स्कन्धौ किञ्चिदिवाश्लिष्यदेतदारात्रिकं मतम् ॥ ४९९ हर्षेऽनुमोदने क्रोधे विचारे विस्मये स्मिते। लजाकृते तथा मौने प्रियानुकरणेऽपि च । कार्यमाहुरिदं तज्ज्ञाः परामिप्रायवेदने ॥
॥इति परिवाहितम् ॥ १३॥ .. : पार्श्वतो विनतग्रीवं किञ्चिवचितमुच्यते। व्याधी मोहे च मूच्र्छायां चिन्तायां मदनिद्रयोः। स्कन्धानतमिहेव स्यादन्तभूतं शिरोऽन्तरम् ॥ ५०
॥ इत्यश्चितम् ॥ १४॥
॥इति चतुर्दशविघं शिरः॥ - [अथ वेणीधम्मिल्लः ।]
. वेणीकृतास्तथा मुक्ता पद्धाः स्तब्धकचा. माताः। 20 मोटको जूटको वीरबन्धि िफलकस्तथा ॥ नारिंगी चैव धम्मिलकुन्तलः संनिवृन्तकः। .. 'यावग्रन्थिः कुशग्रन्थिब्रग्रन्थिश्च गुम्फितः।। मूलप्रन्थिस्तथा मध्यप्रान्तप्रन्थिस्तथैव च ॥ इलायनेकशथैव ज्ञातव्याः संयताः कचाः। कुटिलो लम्बितबदजुर्वक्रस्तथाग्रगः। शिरोमध्यगतः कर्णोपरिगः सं(गोऽसं.)यतो भवेत् ॥ ५०४
॥इति वेणीधम्मिल परिपूर्णः॥ इति धाङ्गिकनृत्यकमः ॥२॥
ii, He:पि 2020 बडा। 3 ABO 'प्रन्थ।ि 4 ABG यायप्रस्थी मानी।
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५०६
५०८
५०९
is toto-उल्लास १, परीक्षण भनेकार्येषु समलियोगाथैर्यवार्यता 'आशियामिनयेष्वेव प्रयोगादर्थता तथा। सोअप प्रयोगो लभते लोकात् 'खशास्त्रतोऽपि च ॥ ५०५ नियतव्यास्ततश्चैते लोकशास्त्रानुसारता। पताकस्निपताकश्चार्धचन्द्रः कर्तरीमुखः। अरालमुष्टिशिखरकपित्थखटकामुसा॥ शुकतुण्डय कालपनकोशोऽलपल्लवः । सूचीमुखः सर्पशिराश्चतुरो मृगशीर्षकः ॥
५०७ हंसास्यो हंसपक्षश्च भ्रमरो मुकुलस्तथा। ऊर्णनाभश्च संदंशस्ताम्रचूडः करः परः॥ .. चतुर्विंशतिरित्येते हस्तकाः स्युरसंयुताः।.. अभिनेयपरत्वेन कचित् स्युः संयुता अपि ॥ . उपधानः सिंहमुखः कदम्पश्च निकुशकः। एतैः संमिलिता भूत्वा स्युरष्टाविंशतिश्च ते ।। अञ्जलिश्च कपोतश्च कर्कशः स्वस्तिकस्तथा। खेडका वर्षमानाख्य उत्सङ्गो निषधस्तथा ॥ दोलः पुष्पपुटश्चैव तथा मकरसंज्ञकः ।, गजवन्तो बहित्यश्च वर्धमानस्तथैव च ।.. त्रयोदशैते विज्ञेया संयुता हस्तका बुधैः॥ योगप्रवालिङ्गनाख्यौं करो द्विशिलरस्तथा। कलापकः किरीटश्च बकपश्चाथ लेपनः॥::: सप्तैते हस्तका सन्ति बृहदेशीविदां मत्ते। अष्टाचत्वारिंशदेते भवन्त्यभिनये कराः ।। ५१४ चतुरस्रावयोवृत्तावन्यौ तलमुखाभिधौ।.. खस्तिको विप्रकीर्णाख्यावरालखटकामुखौ ॥ आविद्ध'वक्री सूच्यास्यौ रेचितावर्धरेचितौ। . तथार्य)चतुरस्राख्यौ हस्तावुत्तानवनिता ॥ नितम्बो पल्लवाख्यौ च केशवधाभिधौ करौ ।
लताख्यौ करहस्तौ च पक्षवञ्चितकाभिधौ॥ . 140 °धाः, Bधा। 2A आगिकामि'; BO आगिमि। 3 ABO 'धास्त । 4Hour 1 5 50 मुखा। 6 30 बद्धमानास्या। 7 ABO वयो। 8 ABO.हत्या ।
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र को०-महान १, परीक्षण । पक्षमयोतको दण्डपक्षौ गरुडपक्षको । ऊर्ध्वमण्डलिनी हस्तौ पार्श्वमण्डलिनी तथा उरोमण्डलिनौ ताभ्यामुरम्माधिमण्डली : मुष्टिकखस्तिकावन्यो नलिनीपनकोशको। अलपमानुल्वणी व वलितौ ललितौ तथा । . वरदाभयदी चेति द्वात्रिंशवृत्यहस्तकाः॥.. लताख्यौ यो करी तो तु नृत्याभिनयगोचरौ। संप्रदायाधुक्तिबलाल्लोकाचात्र विशेषधीः॥ क्रमावशीतिरेवं स्युः सर्वे संभ्य हस्तकाः। कुञ्चिताङ्गुष्ठको यत्र तर्जनीमूलमाश्रितः॥ ऋजुश्लिष्टाङ्गुलिझंयः पताकस्तालतः समः। राज्ञां प्रतापाभिनये प्रशंसागर्वयोरपि ॥ प्रेरणायां प्रहारे च प्रोञ्छने प्रतिषेधने। छेदे प्रधाने गोप्याथै पुष्करादेश्च वादने । आदर्श याचने लक्ष्णमर्दने तालिकादिके। स्पर्श विभजने वस्तुनिर्देशेऽयं प्रयुज्यते ॥ ज्वालायूर्वाभिनयने स्थादूर्ध्वप्रचलाङ्गुलिः। तथाविधोपयोगच्छन् स्यात् धाराथभिनये करः॥..... ५२६ ऊर्ध्व गच्छन् नु स्मृतेषु पक्षिपक्षे कटिस्थितः। ...... 'मृदङ्गादिप्रहारेषु स्थावधो ववतः करः॥ मुखप्रदेशमागच्छन् नाभिदेशः सपार्वत।... पाषाणादिस्थूलबस्तुग्रहणे ताहशः स च ॥ .. उत्पाटनेऽन्योन्यमुखं पताकाद्वितयं भवेत् । सरःपल्वलनिर्देशे खस्तिकीभूय विच्युतम् ॥ कार्य पतामाद्वितयं विलिष्य स्वस्तिकीकृतम्।। क्षालनेऽन्यमधिष्ठाय शीघ्र घर्षन् भवेत् कर। तथाविधः शनैर्मन मर्वने मार्जनेऽपि च । खस्मिन् पार्वे कंपमानः प्रतिषेधे भवेदसौ ॥ वायूनिवेगेश्यो 'गच्छन्नुच्छ्रित प्रचलाङ्गुलिः। .. अन्येशविनयेष्वेतं राजराजोपदेशतः। लोके युक्तिमवेक्ष्यात्र पताकं योजयेद्बुधः॥
॥ इति पताकः ॥१॥
1 ABO मृदानादि । 2 80 गच्छन् त्रु। 3 ABO प्रि० । 4 50 पताकयो।
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'
को उल्लास १, परीक्षण १
[नि
एतस्यैव यहा कासानिका क्रियले तक। त्रिपताक 'विजानीयावमिनेयमयोच्यते । एष वध्यादिमङ्गल्पद्रव्यस्पर्शादिषु स्मृतः ॥..... कुञ्चितो;ङ्गुलिन्द्रः स्यादाहाने पसबुखः। अधस्तलो पहिः क्षिप्ताङ्गुलिद्वन्द्रस्त्वनावरे ॥ . प्रणामे मस्तकगतः कर्तव्यः पार्थतस्तलः। अश्रुप्रमार्जने च स्थापयोगच्छदनामिकः ॥
५३५ आह्वानेऽङ्गुलियुग्मस्य कुश्चने स्यादवाखः । उत्तानाङ्गुलियुग्मस्तु बदनोन्नमने भवेत् ॥ संशये क्रमतोऽङ्गल्यौ कर्तव्येऽस्मिन्नतोनाते। . अधोमुखों भ्रमन् शीर्ष प्रान्त उष्णीवधारणे ॥ तादृशो मस्तकादूर्व कार्यो मुकुटधारणे। तिलके स्याब्रुवोर्मध्यादूर्ध्वगामी ललाटगः ॥ अलकस्यापनयने त्वलिकलकसंश्रितः। विकृते गंधवाकशब्दे नासास्यश्रोत्ररोधनम्। क्रमात् कुर्वनङ्गुलीभ्यां विद्वद्भिर्विनियुज्यते। क्षुद्रपक्षिषु च स्रोतस्यल्पे तुच्छेऽनिलेऽपि च ॥ ५४० क्रमादूर्ध्वमस्तिर्यकटिक्षेत्रगतः करः। अधोमुखचला कुल्यो दधदेषः प्रयुज्यते॥ अत्रे 'संमार्जने नेत्रक्षेत्रगां बजती मधः। अनामिकां दधत् कार्यो लोकाच्छेषेऽमिनीयते ॥
॥ इति त्रिपताकः ॥२॥ अङ्गुल्यो वितताः श्लिष्टा एकतोऽन्यत्र पारपत्। अङ्गुष्ठः क्रियते यस्य सोर्धचन्द्रः स्मृतो बुधैः॥ उपर्युत्तानितोऽर्धेन्दौ कपोलफलकं दपत्। पराक्थुखः स्यात् खेदे तु पलान्निकाशमादिषु । परामुखोऽग्रतो गच्छन् लोकयुक्तिमवेक्ष्य च।
कटिक्षेत्रगतौ स्यातां "रस? शोमायामधोमुखी ५४५ ___1 विविजा। 20 मुस्रोमुखो। 3 80 शीर्षप्रात। 4 ABO मध्यो । 5 B0 चतस्रोत । 6 80 चलङ्गल्यौ। 7 ABC समार्जने । 8 B0 धमः। 9 80 कांदत।
10 Bए-वार।
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womलादयः] नृरूको उल्लास , परीक्षण
मध्योपम्ये(?) तथा लिष्टौ तिर्यगन्धोपसन्धुली। कर्णक्षेत्रात कार्यः कर्णाभरणधारणे ॥
५४६ असंयुतोर्ध्वगामिभ्यामुच्छ्रिताभ्यां खपात। अर्धचन्द्रकराभ्यां चाभिनयो (? नेयो) मालकाला शहत्याभिनयो शेयो मुखक्षेत्रगते द्वये। पुरतः कलसे स्यातां करावन्योन्यसन्मुखौ। कटके मण्डलावृत्या मणिबन्धप्रदेशगः॥
॥ इत्यर्धचन्द्रः ॥ ३॥ अनालिष्टा मध्यमायाः पृष्ठे स्यात्तर्जनी यदा। त्रिपताकस्य विज्ञेयस्तवासी कर्तरीमुखः॥
५४९० अलक्तकाविना पावरञ्जने स्थावधोमुखः। तदेवाग्रतः कार्यों बुधैर्मार्गप्रदर्शने ॥ नासिकाक्षेत्रतः कार्यः कर्णान्तिकमुपाश्रितः। दर्शने शीर्षगावेतौ शृङ्गाभिनयने मतो॥ वितर्कितेपराधे च पतने 'मरणे तथा । क्षेप्तव्योऽधोमुखो व्यस्ततर्जनिश्चलवङ्गुलिः ॥ उत्तानालिरग्रस्थस्तद्वत् स्याल्लेख्यवाचने । द्वित्रियं प्रयोज्यं स्यादिति तद्वेदितां मतम् ॥
॥ इति कर्तरीमुखः ॥ ४ ॥ अङ्गुष्ठः कुचितो यत्र तर्जनीचापवनता। आकुचिता पूर्वपूर्वपार्श्वगा मध्यमादिकाः ।। भवन्ति यत्र विज्ञेयस्तत्रारालकरो बुधैः। हृदयक्षेत्रगोऽयं स्यावाशीर्वादादिकर्मणि। खेदापनयने भालक्षेत्रात्कार्य त्वधोमुखः॥ असंबद्धप्रलापे स्वाहहिः क्षिप्ताङ्गुलिस्त्वयम् । श्राद्धकर्मादिके तज्ज्ञैः प्रयोज्योऽयं बहिर्मुखः ॥ पतवलिराहाने जनसंघे तथा ब्रजन् । प्रदक्षिणे देवतानां भ्रमन् स स्यात् प्रदक्षिणम् ॥ ५५७ अगुल्यनः खस्तिका स्याद्विवाहे द्वयसंगमात् ।
बलोत्साहभृतिस्थैर्यगर्वगाम्भीर्यसूचने ॥ on 1 ABO तिर्मन्यो। 2 B0 करभ्यां। 3 B0 मुष। 4 80 मरणे भरोसा 500 'ज्यस्या। 6 ABO त्कार्यत्व । 7 ABO बहिमुखः।
.
20
4.
...
.
१९४०
५५८30
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gm
को उल्लाको परीक्षण १ नाकारसनी सादयं मातावषि, वीप्सया मण्डलाहल्या यौविलय भवेत् ।। कामिनीनां शपन्धे तथा तेषां विकीनी। पासासंभाषणेऽयं प्रयुज्यते ॥ .. पुनः पुनर्वहिः क्षिप्ताहुलियुक्तिमुपाश्रितः। त्रिपाताकोदिते कर्मण्यलिलेऽयं प्रयुज्यते । त्रिपताकेऽप्यरालोक्तं स्त्रीणां पुंसां गुज्यते। इति व्यवस्थया केचिदाचार्याः संप्रचक्षते ॥
। ॥ इत्यरालः ॥५॥ तलमध्याग्रसंलग्ना अमुल्यः लिष्टसंधयः। अङ्गुष्ठो मध्यमापृष्ठसंलग्नो मुष्टिहस्तकः ॥ मल्लयुद्धे खङ्गकुन्तनिस्त्रिंशादिग्रहे तथा। संवाहने दोहने चाग्नगाङ्गष्ठश्च धावने ॥ प्रकोष्ठग्रहणे चापि रसनिष्कर्षणे तथा। Tire 'रसवद् द्रव्यतो लोके युक्तितः स्यात् करद्वये ।।
॥ इति मुष्टिः ॥६॥
स एवोकृताङ्गुष्ठः शिखरः परिकीर्तितः। शक्तितोमरयोर्मोक्षे ऽलक्तकोत्पीडनेऽपि च ॥ कुशाङ्कुशधनुर्वल्लीग्रहणेऽधररञ्जने। अलकोत्क्षेपणे 'कार्ये कार्यो मुष्टिस्तु युज्यते ॥
॥ इति शिखरः ॥ ७॥ अग्रदेशेन चेल्लग्नाङ्गुष्ठाग्रेणैव तर्जनी। एतस्यैव तदा हस्तः कपित्थः कथितो बुधैः॥ धारणे कुन्तवज्रादेः शराकर्षादिकर्मणि। चक्रचापगदादीनां ग्रहणे च प्रयुज्यते। यथाभूतार्थकथने नियोगे शिखरस्य च ॥
॥ इति कपित्थः ॥ ८॥ .
.... 1 ABG वधि। 2 ABC यथो। 3 ABC संप्रचक्ष्यते। 4 ABO निलंश। 5ABO रसव ;व्यतो। 6 ABO °क्षो। 7 ABC कार्यः कार्ये। 8 ABE प्रादिश of. धारणे कन्तवजयोः सं. र. अ. ७. श्लो. १३२ ।
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लक्ष्यः] नृ० १०. ० उल्लास, परीक्षण १
कृते मना
५७१
अनामिकाकनीयस्य विरलेऽस्यैव चेतुः स्यातां तदा श्यात् खटकामुरा ५७० उत्तानोऽयं स्रुगादाने चामरस्यापि धारणे । प्रसूनावचये बाणाकर्षणे दर्पणग्रहे ' ॥ बल्गाग्र हे पत्रवृन्तच्छेदने वीटिकाग्रहे । शरमन्थाकर्षणे च लोकयुक्तिमवेक्ष्य च । पेषणे कुङ्कुमादीनामिमी कार्यावधस्तलौ ॥ ॥ इति खटकामुखः ॥ ९ ॥
तर्जन्यनामिकेऽत्यन्तवक्रेऽरालस्य चेत् स्थिते । शुकतुण्डस्तदा हस्त ईर्ष्यायां प्रेमकोपतः॥ सापराधे बिके 'ताक्षपाते 'लेखधारणे । वीणादिवादने चास्य प्रयोगः कैश्विदिष्यते ॥ न त्वं नाहं न मे कृत्य मित्यसंबन्ध भाषणे । बहिः क्षिप्ताङ्गुलिः सः स्यात् सावज्ञे तु बिसर्जने । अन्तर्मध्याङ्गुलिः स स्यात् सावज्ञावाहने तथा गा ॥ इति शुकतुण्डः ॥ १० ॥
तर्जन्यङ्गुष्ठमध्याः स्युरूर्द्धास्त्रेताग्निवत् स्थितः । वक्रानामा पतिर्ध्वाः काले हस्तके भवेत चुचुकाभिनये चिबुकग्रहणे शिशोः । बिडालस्य पढ़े 'कार्यः कुसुमे चम्पकस्य चि मिते ग्रासे फलेऽस्येव रत्नाद्यभिनये ऽपि ॥ #1, æfa mg15; 11, 22, 41
साङ्गुष्ठाङ्गुलयः किञ्चित्कुश्चिता' बिरलास्तथा । अलमाया भवेयुश्चेत् पद्मकोशस्तदा करः ॥ .: पुष्पाणां ग्रहणे नांदीपिण्डदाने च विस्तृतः । भूमिस्थितार्थग्रहणे कुञ्चिताग्रस्त्वधोमुखः ॥ फुल्लाब्जेन्दीवरादौ तु संश्लिष्टमणिबन्धकौ ।
1
५७२
5
.५७४
T
५७३ 19:
५७५ 15
५७६
५७७
५७८
1.
५७९
1 4BO दर्पणामहे । 2 BO प्रेमके यतः । 3 ABC 'क्षेपाते। 4 ABC लेषधारणे । 5 ABC कार्य | 6 ABC ° नये नच | 7 ABC किंचि कुचिता ।
ऐ
20
ट
25
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विरलालीपनकोसी सिंहासमियदे ।। र लोकानुसार कार्यः कषिदेकर कपिवयम् ।।
॥इति पत्रकोशः॥१२॥ व्यावर्तिताख्यं करणं कृत्वा वा परिवर्तितम् । यत्राङ्गुल्या करतले पार्श्वस्थाः सोऽलपल्लकः ॥ अयमेवालपमः स्यात् परिवर्तितमाश्रितः। अन्तायुक्तमिथ्योक्तो कस्य त्वमिति वादने । खापराषप्रोञ्छने च स्त्रीभिर्नास्तीतिवावने ॥
॥ इत्यलपल्लवः ॥ १३॥ 10- 'खटकामुखहस्तस्य यस्मिन्नूलप्रसारिता।
तर्जनी दृश्यते सोऽयं हस्तः सूचीमुखो भवेत् ॥ . एकत्वे सरलोभं स्थानासास्थाश्वासवीक्षणे। अमन्ती वलयाकारस्तू; स्थावकसूचने ॥.
आयान्ती शीघ्रमूर्वाधः सौदामिन्यामियं भवेत् । 181 कुलालचक्राभिनये अमन्ती स्थावधोमुखी ॥
रथचक्राभिनयने मामयेन्निजपार्श्वतः। साधुवादे ध्वजे चापि चलामूवी च दर्शयेत् ॥ कर्णावतंसे कर्णान्तं नयेदीपत् प्रकम्पिताम् ।
स्तवकाभिनये किश्चित् कुचिता स्यात् प्रसारिता 20 कुटिलायां गतौ कार्या मण्डलाकारधारिणी।
अमे त्वत्यन्तमसकृत् पाचोत्पार्थान्तरं व्रजेत् ।। चलत्किशलये दीपशिखायामपि चेष्यते । नक्षत्रायवलोके च सरलोयमुला भवेत् ॥
भ्रमन्ती मण्डलाकारं पतने तु पतत्यधः। 28 सिंहादिदंष्ट्राभिमये स्वोष्ठप्रान्तगतावुभौ ॥
किञ्चित् पार्श्वनती कार्यों करो सूचीमुखी सदा। ... संयोगे पार्श्वसंयुक्ते 'तर्जन्योऽधस्तले मते ॥
५९१ बियोजिते वियोगे तु कलहे स्वस्तिकीकृते ।
कर्णकण्डूयनेऽनिष्टश्रवणे श्रवणोपगा॥ ___VBO षटका । 2 ABO कुचिता। 3 ABO सेप्यते । 4 ABO कायो। 5 ABO वको अधस्तले सं. २. अ. ७. श्लो. १५१।।
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सर्पशिरआदयः] नृ०० को०-उल्लास १, परीक्षण १
'चिकुरापनयखेदापनये किल संश्रिता।। ...... तर्जकम्पितो; स्यात् सीवने चांशुकस्य च ॥ ......५९३ चलाग्रगा ज्ञात'प्रश्ने किञ्चित् पार्श्वनता भवेत् । ईश्वराभिनये भालदेशगा स्यादधोमुखी ॥ देवेन्द्राभिनये सा स्थात्तिरश्चीनोन्नता भवेत् । परिवेषाभिनयने भ्रामयेन्मण्डलाकृतिम् ॥ तिरश्चीनां तर्जनीं च तथान्यदपि लोकतः । नाट्याचार्योपदेशेन स्वयमूह्यं विपश्चिता ॥
॥ इति सूचीमुखः ॥ १४ ॥ पताको निम्नमध्यो यः स तु सर्पशिरा भवेत् । अधोगामी सर्पगतावुत्तानो देवतर्पणे ॥ मल्लानां च भुजास्फोटे नियुद्धादिषु कीर्तितः। प्रस्थ(?स्थि) ते परिमाणे वास्फालने करिकुम्भयोः॥
॥ इति सर्पशिराः॥१५॥ मध्यमामध्यमो यत्र पताकाष्ठको भवेत् । कनिष्ठिका चोर्ध्वगता स भवेच्चतुरः करः॥ अन्ये कनिष्ठिकामीषदनामापृष्ठगां जगुः।। पताकाङ्गुष्ठकं मध्यामूलगं चतुरे करे ॥ नये वदनदेशेऽसौ विनये मणिबन्धयोः। . युतौ विचारे पार्श्वस्थ ऊहापोहे हृदि स्थितः॥
६०१० उद्वेष्टितयुतः कार्यों लीलायां कैतवे पुनः। स मोक्षप्रेरणे च स्थाच्छनैरूख़तला करः॥ मर्दनाभिनये कार्यो मध्यमाङ्गुष्ठमर्दनः। . चातुर्यवचने त्वेतौ संयुतौ चतुरौ करौ॥ . उत्तानो नयनौपम्ये पद्मपत्रनिरूपणे। मृगकर्णाभिनेये च बालके स्यादधोमुखः॥ विधेयौ खस्तिकाकारौ सुरताभिनये करौ । खल्पार्थाभिनये तद्वद्वर्णकस्यापि सूचने ॥ चतुरश्चतुरैः कार्यः चतुष्ष्वर्थेषु लोकतः ।
॥ इति चतुरः ॥१६॥
15
६०४
. 1 ABC चिकुरोप। 2 ABO प्रश्नो। 3 ABC लोकता। 4 ABO °स्थाऊ। 5 ABO वैतवे । of कैतवे सं. र. अ.७ श्लो. १६७। 6 ABO लोकता।
७ नृ० रत्न
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नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [मृगशीर्षादयः भवेतां सर्पशिरसो यदाङ्गुष्ठकनिष्ठिके ॥ ऊवाकृती तदा हस्तौ मृगशीर्ष उदाहृतः। अयेह सांप्रतार्थेषु सोऽधो यूताक्षपातने ॥ उत्तानोऽलिकदेशादिखेदापनयने भवेत् । अलिकादिक्षेत्रसंस्थ एवमायूहयेत्परम् ॥
॥ इति मृगशीर्षः ॥ १७ ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठमध्याः स्युर्यत्र त्रेताग्निवत् स्थिताः । लग्ना यत्रो विरले शेषे सो हंसवक्त्रकः ॥ श्लक्ष्णे मृदुनि निःसारे मर्दिताङ्गुलिकत्रयः। शिथिलेऽल्पे लघावग्रं दधत् क्षिप्रं विधूनितम् ॥ मुक्ताफलादिवेधे च कुसुमावचयादिषु । स्युतविच्युतभेदेन यथौचित्यं विधीयते॥
॥ इति हंसास्यः ॥ १८ ॥ पताकस्य न तन्मूलं तर्जन्याचङ्गुलित्रयम् । यदि किश्चिद् भवेत् स स्यात् हस्तको हंसपक्षकः ॥ आचमने स्यादुत्तानश्चन्दनाद्यनुलेपने । अधोगतस्तथोत्तानः प्रतिग्रहकृतौ मतः ॥ 'त्रिपुंड्रादिविधौ कार्यों भालक्षेत्रगतः करः। प्रत्यक्षे च परोक्षे चालिङ्गने खस्तिको करौ ॥ स्तम्भाधभिनये कार्यो मण्डलाकृतिसुन्दरौ । स्त्रीणां विभ्रमभेदेषु स्तनयोरन्तरे भवेत् ॥ कपोलदेशे विधृतश्चिन्तायां हनुधारणे। रसभावानुभावेषु यथौचित्यं प्रयोजयेत् । अनुक्तेषु करेषु स्युरनुभाववशानुगाः॥
॥ इति हंसपक्षः ॥ १९ ॥ स करो भ्रमरो यत्र मध्यमाङ्गुष्ठको मिथः । श्लिष्टाग्री तर्जनी नम्रान्ये 'तूा विरले तथा। कर्णपूरे तालपत्रे कण्टकोद्धरणादिषु॥
॥ इति भ्रमरः ॥२०॥
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_1 ABO लषा | 2 ABG त्रिपुंद्वादि। 3 ABO श्चितायां । 4 ABO तूर्ये । of सं २. अ.७. श्लो. १६८।
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ऊर्णनाभादयः ] नृ० र० को०- उल्लास १, परीक्षण १
साङ्गुष्ठाङ्गुलयो यत्र संलग्नाग्राः सुसंहताः । ऊर्ध्वाः स मुकुलो ज्ञेयो मुकुलाकारपेशलः ॥ सुरार्चने भोजने च बलिकर्मणि कुड्मले । मुर्विकारय प्रकृतिं नीतो दाने त्वरान्विते ॥ कमलादेः प्रार्थनायां संख्यापञ्चकसूचने । सविधे कामिनीनां तु मुखस्थो विचुम्बने ॥ स्यादाच्छुरितकेऽप्येष रसभावविजृम्भितः । कामिनीकु कक्षादी सशब्दं नखलेखनम् । यदङ्गुलीपञ्चकेन तदाच्छुरितकं विदुः ॥ ॥ इति मुकुलः ॥ २१ ॥
*
पञ्चाप्यकुलयो यत्र पद्मकोशस्य कुञ्चिताः । ऊर्णनाभः स विज्ञेयः शिरःकण्डूयनादिषु ॥ चौर्येण वस्तुग्रहणे कुष्ठाद्यभिनयेन च । सिंहव्याघ्राद्यभिनये चिबुकक्षेत्रगौ च तौ । स्वस्तिकौ तु करौ कार्यों फलादेर्ग्रह एककः ॥ ॥ इत्यूर्णनाभः ॥ २२ ॥
*
'अरालाङ्गुष्ठतर्जन्यौ मिलिताग्रैौ तथा पुनः । तलमध्यो (?ध्ये) 'सनाग्निस्तः (१मनाग् न्यस्तः) सं कं (सं) वंशोऽभिधीयते ॥ अग्रजो मुखजचैव पार्श्वजश्चेत्ययं त्रिधा । तत्राग्रजः प्राङ्मुखः स्यान्मुखजः सम्मुखो भवेत् ॥ पार्श्वतः स्यात्पार्श्वमुखो विनियोगोऽधुनोच्यते । कुसुमच्छेदने वृन्तात् कण्टकोद्धरणे तथा ॥ सूक्ष्मप्रसूनावचये संदंशोऽग्रज उच्यते । वर्त्यञ्जनशलाकादिपूरणे मुखजो मतः ॥ विगित्युक्तौ तु रोषेण संदंशः पार्श्वजः शुभः । मणिमुक्ताप्रवालादौ गुणनिक्षेपणे मतः ॥ मणीनां वेधने चापि तत्त्वस्यापि प्रभाषणे । ध्याने निरूपणे सूक्ष्मत्र्यणुकादेस्तु घर्षणे ॥
६१८
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1 ABO आरालाङ्गुष्ठतर्जन्यो । 2 cf. किंचिश्चेत्तलमध्यस्थस्तदा संदंश उच्यते ॥ सं. र. अ. ७ लो. १७६ ।
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को०- उल्लास १, परीक्षण १
अलक्तकादिवस्तूनां चित्रकर्मण्यपीष्यते । पार्श्वाभिमुखहस्ताभ्यां दरिद्रस्य प्रकाशने ॥ भाषणे सद्वितीये स्यात् सरोषे वामहस्ततः । किञ्चिदग्रविवर्त्तेन तथान्येष्वपि युक्तितः ॥ ॥ इति संदंशः ॥ २३ ॥
*
अङ्गुष्टो मध्यमाग्रेण संलग्नः कुटिला यदा । तर्जन्यन्ये तलस्थे चेत्ताम्रचूडस्तदा करः ॥ शीये' विश्वासकार्ये च बालाहाने च भर्त्सने । ताले कलामुहूर्तादौ छोटिकादौ च शब्दवान् ॥ प्रसारितकनिष्ठां च मुष्टिमन्ये प्रचक्षते । ताम्रचूडं सहस्रादौ गणने विनियुज्यते । क्षिप्तमुक्ताङ्गुलिः प्रोक्तो विमुषोऽभिनये बुधैः ॥ ॥ इति ताम्रचूडः ॥ २४ ॥
॥ इति चतुर्विंशतिरयुतहस्ताः ॥
*
पताको विरलाङ्गुष्ठ उपधानः करो भवेत् । स्याचिन्ता निद्रयोरेष उपधानेऽपि युक्तितः ॥
॥ इत्युपधानः ॥ २५ ॥
*
aagraat यत्राधोगती संहतं पुनः । तर्जन्यादित्रयं स स्यात् सिंहास्यस्तत् खरूपतः । सिंहस्याभिनये स स्यात् मेलने द्रवचूर्णयोः ॥
॥ इति सिंहास्यः ॥ २६ ॥
*
संहताङ्गुलयो यत्र' मध्ये वर्तुलतात्मता' । कदम्बोऽसौ रसाखादे हस्तको विनियुज्यते ॥
॥ इति कदम्बः ॥ २७ ॥
*
पताकाटको यत्र मध्यमामूलसंश्रितः । निकुञ्चकोऽसौ स्वल्पार्थे वेदस्याध्ययने मतः ॥
॥ इति निकुञ्चः ॥ २८ ॥
*
[ ताम्रचूडादयः
६३०
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1 BC यक्तितः । 2 ABC यै । 3 ABO चिता । 4 ABC मन्ते । 5 ABC मतां ।
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कपोतादयः] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण
एभिश्चतुर्भिः सहिता अष्टाविंशतिरयुतहस्ताः। . ... भवेतां यत्र संश्लिष्टे पताकस्य तले मिथः। .. .. अञ्जलि म हस्तोऽयं विनियोगोऽस्य कथ्यते ॥ धार्यः क्रमात् शीणि वके चक्षुर्देशे नमस्कृतौ। देवताया गुरोश्चैवं ब्राह्मणानां नृभिस्त्वयम् । नियतो नियतस्थाने स्त्रीमिरेष प्रयुज्यते ॥
इत्यञ्जलिः ॥१॥ करावक्लिष्टतलको श्लिष्टमूलाग्रपार्श्वको। कपोताकृतितो हस्तः कपोतः कीर्तितो बुधैः ॥ ६४१ इममेव परे प्राहुः कूर्मकं नाव्यवेदिनः। विनये गुरुसम्भाषे प्रणामे प्राङखो मतः॥ वक्षःस्थः कम्पितः कार्यः स्त्रीकापुरुषयो भये । स खेदवाक्याभिनये नेदानीमितिसूचने ॥
६४३ इयत्तायाः परिच्छेदेऽङ्गुलिः स्पर्शनपूर्वकम् । विमुक्तोऽयं बुधैः कार्यों युक्तितोभिनयान्तरे ॥ ६४४ 15
॥ इति कपोतः ॥२॥ अङ्गुल्यो यत्र करयोरन्योन्यस्यान्तरेषु च । अन्तर्बहिर्वा दृश्यन्ते निर्गताः स तु कर्कटः ॥ परामुखतलः किश्चिदन्तीताखिलाङ्गुलिः। ऊर्ध्व पार्श्वेऽग्रतो वा स्यात् कामावस्थाश्रमोटने ॥ .. ६४६३० बहिर्गताङ्गुलिः स्थूलजरठस्य(जठरस्य) निरूपणे। जरठः क्षेत्रगः (जठर-क्षेत्रगः) कार्यो ।
__ मनाक् चक्राङ्गुलिः पुनः॥ शंखस्य धारणे कार्यों ज़म्भादौ बहिरङ्गुलिः। . खेदेङ्गुलीनां पृष्ठे स्याद्धनू राजाभिषेचने । मूर्ध्नि धार्याः(यों) द्विस्त्रिायं लानकार्ये] प्रयुज्यते ॥ ६४८ः
॥ इति कर्कटः ॥३॥
___ 1 BG षयोम। 2 RC परिच्छेदगुलिः। 3A तु। 4 A0 पार्श्वग्र। 5 of जठरक्षेत्रगः सं. र.अ.७ श्लो. १९१ । 6 The missing words are supplied from Asokamalla's work on Nrtya. cf ....."नानकर्मणि । द्विस्त्रिो मूर्ति संयोज्यो गृहे तु स्यादधस्तलः । folio 11 A of the ms.
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नु०७ को उल्लास १, परीक्षण १ [स्वस्तिकादयः अरालाल्यौ पताको वा खटकामुखसंज्ञको । अन्योन्यमणि बन्धस्थावुत्तानौ वामपार्श्वगौ। हृदयक्षेत्रगौ वा स्तश्चेत्तदा खस्तिको मती॥ एवमस्तीति नारीणां भाषणे विच्युतः स तु । सागराकाशमुख्येषु विस्तीर्णेषु प्रयुज्यते ॥
॥ इति स्वस्तिकम् ॥ ४ ॥ अन्योन्याभिमुखौ स्यातां हस्तौ चेत् 'खटकामुखौ। खस्तिको मणिबन्धे वा 'खटकावर्धमानकः॥ उत्तानपादयं(?उत्तानः स्याक्य) सूर्योदयादौ प्रथमे मते। . प्रमाण(?प्रणाम) करणे पुष्पग्रथने सत्यभाषणे। ताम्बूलग्रहणे यूनोर्द्वितीये तिर्यगाननः॥ ६५२
॥ इति खटकावर्धमानः ॥५॥ 'सर्पशीर्षी पताको वा खस्तिको मणिबन्धगौ। परस्परस्कन्धदेशौ गतावुत्सङ्गसंज्ञके ॥ दक्षपार्श्वगतं यद्वा वामपार्श्वगतं नु वा। उत्सङ्गे केचिदिच्छन्ति खस्तिकं नृत्यकोविदाः॥ पार्श्वस्याभिमुखे यद्वा हस्तयोः पृष्ठके यंदा। कूर्परौ स्वस्तिकाकारौ उत्सङ्गे केचिदूचिरे ॥ अतिप्रयत्नसाध्येऽर्थे लीलाया ग्रहणे तथा । "पराकुखस्य शीते वा रोषामर्षकृते तथा। प्रार्थनानभ्युपगमे लज्जादावपि योषिताम् ॥
॥ इत्युत्सङ्गः ॥६॥ स्कन्धकूपरयोर्मध्यमन्योन्यस्य भुजौ यदा। ईषदूर्ध्वप्रदेशस्थौ गृहीतः "सर्पशीर्षकौ ॥ ६५७ तदा स्थानिषधो हस्त औत्सुक्यादौ नियुज्यते । गाम्भीर्यस्थैर्यगर्वादौ आचार्यैर्विनियुज्यते ॥ ६५८
1 ABO °ख्यो। 2 ABC °मंबस्थौ। 3 ABC खटिका। 4 ABC खेटका । 5 of सूर्योदयादावुत्तानः स्यादयं प्रथमे मते Vipradāsa quoted in भ. को. पृ. १५३। 6 of प्रणामकरणे ना. शा. अ. ६ श्लो. १३८ and Vipradasa. भ. को. पृ. १५६ । 7 ABC सप्तशीर्षो। 8 ABG स्वस्तिके। 9 ABC मृत्यको । 10 10 पुरासुखस्य। 11 ABO सप्त।
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दोलादयः] न०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
कपित्थो हस्तको वापि दक्षवामेतरं करम्।. . मुकुलं वेष्टिते प्राहुस्तदान्यं निषधं परे । शास्त्रार्थस्य खीकरणे खीकृतार्थस्य धारणे । 'मान्यमेतदिदं वाक्यमित्युक्तौ पीडनेऽपि च । तथा समयशास्त्रोक्तसंकेतग्रहणेऽपि च ॥
॥ इति निषधः ॥७॥ दोले श्लथांसौ कर्तव्यौ पताको विरलाङ्गुली। लम्बमानौ नियोज्योऽयं मूर्छायां व्याधिखेदयोः॥ ६६१ संभ्रमे गर्वगमने कर्तव्यः पार्श्वदोलितः। मदे चैव यथायोगं स्तब्धो वा क्रियते करः॥ ६६२ 10
॥ इति दोलः ॥ ८॥ उत्तानो व्यक्तसंश्लिष्टकरभौ सर्पशीर्षको । स्यातां पुष्पपुटो नाम पुष्पाञ्जलिविसर्जने ॥ धान्यपुष्पफलादीनां ग्रहणे च समर्पणे। 'अर्धार्थिसंपदाने च तोयस्यानयनेऽपि च । पाणिपात्राशने राज्ञः प्रसादग्रहणे गुरोः॥
॥ इति पुष्पपुटः ॥९॥
15
६६५
६६५
परस्परोपरिगती सुसंश्लिष्टावधोमुखौ। ऊयागुष्ठौ पताको तौ भये(व) तां मकरे करे॥ क्रव्यादमत्स्यमकरद्विपीनां व्याघ्रसिंहयोः। नद्याः पूरे च बाहुल्ये प्रयोज्योऽयं विचक्षणैः॥
॥ इति मकरः ॥१०॥
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कटिक्षेत्रे सर्पशीर्षों कुश्चन्कूर्परको यदा। गजदन्तस्तदा हस्तो ग्रहे स्तम्भस्य स स्मृतः॥ महाभारस्योद्बहने केचिदेनं प्रचक्षते । प्रथमं निषिधं तं च वरवध्वोः समेतयोः॥
1 AB0 मन्य । 2 AB0 अभ्यर्थिसंप्रदाने । of अर्धदाने Vipradasa in भ. को. पृ. ३७५। 3 ABO °पात्रशने । 4 B0 गृहे।
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०र० को-उल्लास १, परीक्षण १ [अवहित्यादयः विवाहस्थाननयने तथा शिशै)लशिलादिनः। .. वृक्षादीनां चालने च कर्तव्यः स्याद्गतागतः ॥ ६६९
॥ इति गजदन्तः ॥ ११ ॥ शुकतुण्डावधोवक्री हृदयाभिमुखौ करौ। कृत्वाधो नीयमानो चेदवहित्यस्तदोदितः। दौर्बल्यौत्सुक्यनिःश्वासगात्रकार्येष्वसौ भवेत् ॥ .
॥ इति अवहित्थः ॥ १२॥ मृगशीर्षों हंसपक्षावथवा सर्पशीर्षको। पराअखौ स्वस्तिकत्वं प्राप्तौ स्याद्वर्धमानकः॥ खस्तिकेन विना भूतौ तावेनं केचनाभ्यधुः। द्वारवातायनादीनां कपाटोद्धाटने मतः॥ श्रीमत्कीर्तिधराचार्यों द्वितयं निषधं करं। वर्धमानाभिधं प्राह विनियोगस्तु पूर्ववत् ॥
॥ इति वर्धमानः ॥ १३ ॥
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15
सुश्लिष्टाग्रौ पताको चेत् हस्तौ []योगदस्तदा। 'मेलने प्रीतियोगे च परस्परमयं मतः॥
॥ इति प्रयोगप्रदः ॥१४ ।।
र
किञ्चित् श्लिष्टभुजावेव पताको खस्तिकीकृतौ । आलिङ्गनो भवेद्धस्त आलिङ्गनविधौ मतः॥
॥ इत्यालिङ्गनः ॥१५॥
श्लिष्टौ मिथश्चेच्छिखरौ करौ द्विशिखरस्तदा । शयनार्थेऽङ्गुलिस्फोटे नास्तीति कथनेऽपि च ॥
॥ इति द्विशिखरः ॥१६॥
25
सभाधीशमुखं हस्तं कृत्वोर्ध्वविरलाङ्गुलिः। अस्य पृष्ठे द्वितीयोऽपि तदङ्गुल्यन्तराङ्गुलिः ॥ ६७७ उभयोः करयोः प्रान्ते तथाङ्गुष्ठौ बहिर्गतौ। ।। 1 शैलशिलादिनः. of सं. र. अ. ७ श्लो. २०७ शैलशिलोत्पाटे। 2 BG सेलने ।
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किरीटादयः ] नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण १.
कलापं हस्तकं प्राहुः केचिच्छेषकणं (रं) त्वनुं । अभिनेये फणीशेऽमुं तथा भूमीश्वरे जगुः ॥ ।। इति 'कलापः ॥ १७ ॥
कलाप एव शीर्षत्थः (स्थः) किरीट इति कथ्यते ॥ ॥ इति किरीटः ॥ १८ ॥
*
कूर्परौ पार्श्वलग्नौ चेत्स्यातां पुष्पपुटाभिधे । तदा स्याचषको हस्तः पाणिपात्रे नियुज्यते ॥ ॥ इति चषकः ॥ १९ ॥
*
उत्तानो वामहस्तश्चेत् पताकस्तदुपर्यपि । चलत्संवंशहस्तश्चेत् पर (१ परः ) स्याल्लेखनस्तदा । लेखने विनियोज्योऽयं नृत्याभिनयगोऽपि च ॥ ॥ इति लेखनः ॥ २० ॥
*
एते 'विंशति संख्याकाः संयुता हस्तकाः स्मृताः । अथ नृत्ताख्यहस्तानां प्रपञ्चमपि दध्महे ॥ प्राgat' actrast वक्षसोऽष्टाङ्गुलान्तरे । समान कूर्परस्कन्धौ चतुरस्रावुदाहृतौ । आकर्षणे समाख्यातौ मुक्ताहारस्रगादिनः ॥ ॥ इति चतुरस्रौ ॥ १ ॥
*
हंसपक्षाख्यकरयोः 'समयोश्चेद्यदेककः । उत्तानोऽधो व्रजत्यन्यो वक्षसो यात्यधोमुखः ॥ तदोद्वृत्तौ समाख्यातौ तालवृन्तनिरूपणे । तावेव तालवृन्ताख्यौ चतुरस्रविशेषितौ ॥ हंसपक्षीकृतौ तौ तु व्यावृत्तिपरिवर्तितौ । sant हस्तकौ तौ तु जयशब्दे नियोजितौ ॥ इत्युत्तौ ॥ २ ॥
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तुल्यांश (?) कूर्परौ तिर्यग्भूतौ संमुखस्थत लौ ।
1
1 A कपालः BC कपोलः । 2 of कलाप एवं शीर्षस्थः | Vipradāsa भ. को . पृ. १३६ । 3 B0 ° निघे । 4 ABO इतिति च' । 5 BC °तिरव्या' । 6 BO दघ्नहो । 7 BC प्राङ्मुखो । 8 Bc drop समयो । 9 ABC मुखतस्तलौ । of संमुखस्थतलौ । सं. र. अ. ७ श्लो. २२१ ।
1
८ नृ० रत्न०
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नृ०० को०-उल्लास १, परीक्षण १ [स्वस्तिकादयः मत्तीभूय पश्चाच व्यत्रीभूतौ खपार्श्वगौ। हंसपक्षौ तलमुखौ मधुरे मईलध्वनौ ॥
॥ इति तलमुखौ ॥३॥ हंसपक्षकराश्लिष्टखस्तिकः खस्तिको करौ ॥
_इति स्वस्तिकौ ॥ ४॥ तावेव 'विप्रकीर्णाख्यौ झटिति खस्तिके च्युते । पराजुखावुन्नतायौ नीचाग्रौ वा व्यवस्थितौ । कुचाभ्यां पुरतो हंसपक्षौ तौं विप्रकीर्णकौ ॥
इति विप्रकीर्णको ॥ ५॥ पताको स्वस्तिकीभूय व्यावृत्तपरिवर्तने (? वर्तितौ)। कृत्वा वाममथोत्तानमरालं रचयेत्करम ॥ अधोवकं दक्षिणं च खटकामुखतां गतौ। चातुरस्रेण कथितावरालखटकामुखौ ॥ पनकोशावथोद्धास्या व्यावृत्तपरिवर्तितौ। .. अरालौ खस्तिकाकारौ जायेते खटकामुखौ ॥ चातुरख्याविशेषे तावरालखटकामुखौ । 'वणिजां सचिवादीनां वितर्केऽसौ प्रयुज्यते ॥ अथवा हृदयाग्रस्थः प्रामुखः खटकामुखः । परोराला प्रोन्नताग्रस्तिर्यगल्पप्रसारितः॥ परस्परान्यपार्श्वस्थौ खपाधै वा व्यवस्थितौ । तालान्तरौ तदा प्रोक्तावरालखटकामुखौ ॥
इत्यरालखटकामुखौ ॥६॥ भुजाग्रकूपरासेषु सविलासेषु चेत्करौ । भूत्वा पताको व्यावृत्तं विधाय भवतो द्रुतम् ॥ अधस्तलौ तदाविद्धवक्रो नृत्यकरौ मतौ। केचित् पताकयो स्थानेशालौ तौ संप्रचक्षते । विक्षेपवलने चैव विनियोग प्रचक्षते ॥
इत्याविद्धवक्रो ॥७॥
15.
___1 ABO वप्र । 2 ABC °पक्षोस्तै। 3 B0 °णिकौ। 4 of Asokamalla पताको स्वस्तिकीकृत्य व्यावृत्तपरिवर्तितौ । (folio 15b) 5 ABO °वामपथो । क्रमात् कृत्वा यत्र वाममुस्तानारालमाचरेत् । सं.र.अ.७ श्लो. २२५ । 6 ABC °वण्य° । 7 ABO मणिजां । of वणिजां । सं. र. अ.७ श्लो. २२७ ।
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सूच्यास्यादयः] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
चतुरस्रो खस्तिकौ वा सर्पशीर्षों यदा करौ। मध्यमासंगताङ्गुष्ठौ पर्यायप्रसृतौ तिरः॥ .. बहिः प्रसारितां धत्तस्त्वङ्गुली चेत्प्रदेशिनीं। तदा सूचीमुखादत्र विशेष केचिदूचिरे ॥ . पूर्व पताको कर्तव्यो व्यावृत्तपरिवर्तितौ। भ्रान्त्वा प्रसरणं कृत्वा पश्चादन्यस्तु पूर्ववत् ।। केषांचन मते सर्पशीर्षाकारौ करौ स्थितौ । मध्यप्रसारिताङ्गुष्ठौ रेचितखस्तिकौ तथा। सूचीमुखौ भवेतां ताविति सूच्यास्यलक्षणम् ॥
इति सूच्यास्यौ ॥ ८॥ प्रसारितोत्तानतलौ हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । रेचितौ तौ नृसिंहस्य दैत्यवक्षोविदारणे ॥ केचिदुत्तानप्रसृतौ प्रताको रेचितौ जगुः । केचिदेतो पूर्वलक्ष्मविभागेन पृथग्विदुः॥
इति रेचितौ ॥९॥ रेचिते दक्षिणे हस्ते वामे च खटकामुखे । अथवा 'चतुरस्रेणैकेनोक्तावर्धरेचितौ ॥
इत्यर्धरेचितौ ॥१०॥ एतत्करविपर्यासात् ब्रूतेश्र्धचतुरस्रकौ ॥ ,
इत्यर्धचतुरनौ ॥११॥ 'त्रिपताको तिरश्चीनावन्योन्याभिमुखौ करौ । अंसकूर्परयोः किंचिञ्चलतोश्चेत्कपोलयोः॥ हृदयांसललाटानां क्षेत्रे चान्यतमे स्थितौ । क्षणमूर्ध(? र्ध्व )तलौ भूत्वा चलतश्चेद्यदा तदा। उत्तानवञ्चितौ हस्तौ कथितौ नृत्यकोविदः॥
___ इत्युत्तानवञ्चितौ ॥ १२॥
15
. ७०४
___20
७०७25
____ 1 ABO "तोतो। 2 ABO "हास्य of प्रयोज्यौ तौ नृसिंहस्य दैत्यवक्षोविदारणे । सं. र. अ.७ श्लो. २३७ । 3 ABC चतुणस्तेणे° of एकेन चतुरस्रण । सं. र. अ. ७ श्लो. २३७ । 4 ABG त्रिपताको of. त्रिपताको । सं. र. अ. ७ श्लो. २४५ । 5 0 तिर्यौ । 6 ABO चल17 ABO °संचितौ। 8 AB0 कथितो।..
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नृ० ८० को०- उल्लास १, परीक्षण १
भूत्वोत्तानावधोवस्त्रौ पताकत्रिपताकयोः । करावन्यतरौ स्कन्धदेशान्निष्क्रम्य चेदिमौ ॥ रेचितं विदधाते तौ नितम्बाबुदितौ करौ । पृष्ठक्षेत्रे भ्रमं केचिदेतयोः संप्रचक्षते ॥ इति नितम्बौ ॥ १३ ॥
*
पताको त्रिपताकौ वा शिथिलोर्ध्वप्रसारितौ' । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां खस्तिकाकारमापितौ ॥ पल्लवी चापरे प्राहः पताकी पद्मकोशकौ । नतोन्नती विश्लथौ च मणिबन्धप्रवेशयोः । पुरतः पार्श्वयोर्वाथ सुस्थितौ पल्लवौ मतौ ॥ sagar | १४ ॥
*
पताकौ त्रिपताकौ वा स्पृशन्तौ पार्श्वदेशतः । समुत्थितौ शिरोदेशगतौ केशप्रदेशतः ॥ पुनः पुनर्विनिष्क्रम्य नितम्बं चेत्समाश्रितौ केशबन्धाविति प्रोक्तौ हस्तौ नृत्यविशारदैः ॥ इति केशबन्धौ ॥ १५ ॥
1
पताकौ त्रिपताकौ वा तिर्यक् प्रसृतदोलितौ लताकरौ इति प्रोक्तौ नृत्यशास्त्रविशारदैः ॥ इति लताकरौ ॥ १६ ॥
*
उन्नतोदोलितञ्चैव पार्श्वयोवेल्लताकरः । कर्णस्थस्त्रिपताकोऽन्यः खटकामुख एव वा ॥ तदा करिकराकारत्वेनोक्तः करिहस्तकः । नन्वत्र 'नृत्तहस्तानां लक्ष्मसाधारणे कथम् ॥ हस्तकद्वयनिष्पाद्ये मुनिनैकत्वमा स्थितम् । तथा कीर्तिधराचार्यैः करहस्तावितीरितम् ॥ तथैव मुनिनात्रेव हस्तके स्वर्धरेचिते । विजातीयकरद्वन्द्वोत्पादितैकप्रधानके ॥ उक्तं द्विवचनान्तत्वं तथैवात्रोपपद्यते । नैवं महात्मनामेषः स्वभावो यत्र कुत्रचित् ॥
1 BO ° प्रसारि | 2 BC विशादैः । 30 ° करो | 4 ABO वृत्त ।
[ नितम्बादयः
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पक्षवञ्चितादयः] नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण
निरूपयन्ति यत् किश्चिन्मनः किं न नपुंसकम् । गङ्गायमुनयोश्चापि नदीत्वं प्रतिषिध्य च।
७२० खल्पामारोपितं यच्च तल्लीलायितचेष्टितम् । अतो द्विवचने प्राप्ते करद्वन्द्वैकहेतुजे ॥
७२१ अस्मिन् करिस्मृतेर्हेतौ प्राधान्येन लताकरे। लीलायितेन मुनिनैकत्वमत्रोपदर्शितम् ॥
७२२ भट्टाभिनवगुप्तैश्च तदाशयवशानुगैः। एकैकस्य करस्यात्र पृथक्त्वेन प्रयोगतः ॥
७२३ करिहस्तत्वमुचितमुदितं तन्मतं यथा। करिकर्णाकृतेस्त्वेकः परः करिकराकृतिः॥
७२४ 10 करस्तदानयोोंगे द्वित्वोक्तिस्तत्परैरथ । इति कर्तव्यतात्वेनाविचार्यान्यत्करस्य तु॥
७२५ गौणत्वं भणितं तत्तै जघिटीति यतोऽत्र च ।। समप्रधानभावो हि दृष्टः प्रकरणाग्रतः॥ खटकत्रिपताकान्यतरः कश्चित्करः परः। करहस्ताकृतिस्तस्माद् द्वन्द्वत्वान्न द्विता कथम् ॥ ७२७ अत्राकृतिप्रधानत्वे कविनैकत्वमास्थितम् । क्रियाप्राधान्यतोऽन्येषु युक्तं द्विवचनं स्थितम् ॥ अतो यदेकवचनं तदाचार्यस्य शंसितुम् । सर्वातिशायितां लोकमध्य इत्येव सुस्थितम् ॥ ७२९ 20
- इति करिहस्तः ॥ १७ ॥ त्रिपताको कटीशीर्षे न्यस्ताग्रौ पक्षवश्चिती॥
इति पक्षवञ्चितौ ॥ १८॥ एतावेव यदा पार्थाभिमुखाग्रौ व्यवस्थितौ । पक्षप्रद्योतको ज्ञेयावुत्तानौ वा तदाकरौ। केचिदूभंगुलीकौ तौ पराङ्वको प्रचक्षते ॥
__इति पक्षप्रद्योतको ॥ १९ ॥ हंसपक्षे गते पार्थादुपवक्षस्थलं शनैः। 1 Bc drop च। 2 B0 °दितन्म। 3 ABC °हस्तः। 4 ABC वरान्वक्रो; cf तूांगुली च पराङ्मुखौ । सं. र. अ. ७ श्लो. २५६ । 5 ABC प्रचक्ष्यते । 6 ABO 'वक्षस्थले। .
.
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नृ० १० को उल्लास १, परीक्षण १ सविलासं तथा हस्ते तिर्यक् संप्रसृते क्रमात् । युगपद्वा तदा दण्डपक्षी हस्तौ प्रकीर्तितौ ॥ इति दण्डपक्षौ ॥ २० ॥
*
varat त्रिपताकौ वा तिर्यगूर्ध्वं कृतौ करौ । प्रागघोग्रौ कटिक्षेत्रे स्थिती न्यक्कृतकूर्परी । हस्तौ गरुडपक्षौ तौ गरुडेशगणोदितौ ॥ ॥ इति गरुडपक्षौ ॥ २१ ॥
[ गरुडपक्षादयः
तावेव पार्श्वविन्यस्तौ 'पताकाकारमागतौ । अन्योन्याभिमुखौ सन्तौ पार्श्वमण्डलिनौ मतौ ॥ आविद्वनामितभुजौ केचिदाहुः खपार्श्वयोः । कक्षावर्तनिकेऽन्ये तौ नृत्यज्ञाः संप्रचक्षते ॥ इति पार्श्वमण्डलिनौ ॥ २३ ॥
अरालौ हंसपक्षी वा वक्षोदेशाल्ललाटगी | तत्रस्थावप्य (?स्थौ प्राप्य) वा भालपार्श्वयोः समुपागतौ ॥ ७३४ मण्डलावृत्तिवितता उर्ध्वमण्डलिनौ करौ । ललादप्राप्तिपर्यन्तं भ्रमणं केचिचिरे । चक्रवर्तनिका संज्ञावेतौ नृत्यविदां मते ॥ ॥ इत्यूर्ध्वमण्डलिनौ' ॥ २२ ॥
*
*
हंसपक्षावराली वा हृदयक्षेत्रमागतौ । युगपत्करणे कृत्वोद्वेष्टितं वापवेष्टितम् ॥ वक्षसः स्वस्वपार्श्वस्थौ भ्रान्त्वा मण्डलवत् क्रमात् । वक्षःस्थौ वा क्रमादेतौ उरोमण्डलिनौ मतौ । उरोवर्तनिके त्वेतौ नृत्यविद्भिः प्रकीर्तितौ ॥ इत्युरोमण्डलिनौ ॥ २४ ॥
*
अभ्यासात् युगपद्वेति वक्षस्युत्तानितः करः । एकोऽन्यः प्रसृतः पार्श्वे तयोर्वक्षः स्थितः करः ॥ व्यावर्तितेनालपद्मीभवन् पार्श्व व्रजन् करः । मण्डलाकृतिरन्यश्चोद्वे[ष्टि ] तेन प्रसारितः ॥
७३२
७३३
७३५
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७४०
७४१
1 BO हस्तति । 2 ABC ° वर्तिनका । 3 ABC एतोनृ । 4 ABU °लिगौ । 5 ABO
एताकार' ।
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७४२
৩৯৯
७४४
७४५०
७४६
मुष्टिकस्वस्तिकादयः] नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण १
खपार्श्वेशलता प्राप्तो हृदयमण्डलाकृतिः। प्रामुयादिति संप्रोक्तावुरःपार्था मण्डलो॥
इत्युरः पार्थाधमण्डलौ ॥ २५॥ विधाय क्रमतो हस्तावरालमरपल्लवौं । रेचितः खस्तिकाकारौ क्रिये ते खटकामुखौ ॥ अथवा शिखरौ मुष्टी कपित्थौ वा मुहुर्मुहुः। खस्तिकाकृतितां नीतौ मुष्टिकस्वस्तिको करौ॥
इति मुष्टिकस्वस्तिकौ ॥ २६ ॥ व्यावर्तनक्रियोपेतावश्लिष्टस्वस्तिको करौ। . मिथः परामुखीभूय यो गतौ पद्मकोशताम् ॥ नलिनीपद्मकोशौ तौ केचिल्लक्ष्मान्यथाजगुः । अन्योन्याभिमुखौ श्लिष्टमणिबन्धौ पृथग यदा ॥ पद्मकोशौ प्रकुर्वीत व्यावृत्तपरिवर्तने । नलिनीपद्मकोशौ तावथवा पद्मकोशयोः॥ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यामुपजानुगतेरिमौ । यद्वा विवर्तिौ पद्मकोशौ स्यातामिमौ पुनः। स्कन्धयोः स्तनयोः पार्श्वे जानुनोरपि तत्त्वतः॥
_ इति नलिनीपद्मकोशौ ॥ २७ ॥ उद्वेष्टितक्रियौ वक्षोदेशस्थावलपल्लवौ । ततः स्कन्धान्तिकं प्राप्य प्रस्थितावलपद्मकौ ॥ -
॥ इत्यलपमौ ॥ २८ ॥ ऊर्ध्वप्रसारितौ स्कन्धाभिमुखौ चलदङ्गुली। विवृत्तावलपद्मौ चावुल्वणौ भणितौ तौ ॥ .
इत्युत्वणी ॥ २९ ॥ लताख्यौ वलितौ ज्ञेयौ खस्तिकीकृतकूर्परौ । अथ मूर्ध्नि विवृत्तौ तौ मुष्टिकखस्तिको मतौ ॥ अथवाऽन्योन्यलग्नाग्रावूर्ध्वगौ नम्रकूर्परौ । पृष्ठतः खटकावक्रो वलितो गदितौ करौ॥
इति वलितौ ॥ ३०॥
15
७४८
.
७४९२०
७५२
1 ABO प्राको। 2 ABO उत्तर। 3 ABO °लवां ।
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15
मृगको उल्लास १, परीक्षण १ [लंलितादयः वलिती पल्लवो चापि शीर्षणि ललितं विदुः। अपरे चातुरस्त्रेण शिरस्थावचलौ विदुः॥
७५३ अपरे खटकावको शिरःप्राप्य शनैः शनैः। अन्योऽन्यस्य विलग्नानौ ललितौ संचचक्षिरे ॥
इति ललितौ ॥ ३१॥ वामदक्षिणभागस्थौ वरदाभयदौ करौ। आरालौ कटिपार्श्वस्थौ कथितौ वरदाभयौ ॥
इति वरदाभयौ ॥ ३२ ॥ द्वात्रिंशदेते संप्रोक्ताः समासात् नृत्यहस्तकाः। एते नृत्ये क्रमेणापि प्रयोज्या इति संमतिः॥ . ७५६ व्युत्क्रमेण प्रयोगेऽपि न दोषो मुनिशासनात् । अशीतिर्मिलिताः सर्वे त्रिविधा अपि हस्तकाः॥ ७९७ इह कश्चिद्विपश्चिद्यनिश्चिनोति करानिह । चतुःषष्टिमिता(? तान् तन्नो विचारपदवीमियात् ॥ यतो नाटीकते मानं मुनिमार्गात्परिच्युतम् । तथा हि भरताचार्यैः सप्तषष्टिरुदीरिताः॥ तन्मता सप्तषष्टिस्तान रत्नाकरकृदभ्यधात् । तन्मतस्यापकर्षेण चतुःषष्टिमिताः परैः॥
उक्ता गवेष्यमाणे यं तद्वाचोयुक्तिज़म्बुकी । 20... विचारसिंहभूते व न तिष्टति पदात्पदम् ॥
७६१ तथा हि योक्ता युक्त्युत्था विशेषणविशेष्यता। करयोर्विप्रकीर्णाद्या न तदा चार्यसंमतम् ॥
७६२ यतः कर] पृथक्त्वे न तेषामुद्देशलक्ष्मणी। मुनिनैव कृते तन्नो सुवचं यददो यथा ॥
७६३ नीलमुत्पलमित्येष दृष्टान्तो विषमः खलु। यतोत्रायुतसंवन्धः प्रायो गुणिगुणाश्रयः॥ ७६४ द्रव्ययोस्तत्र संबन्धो युतसिद्धः स्मृतो बुधैः। अन्योन्यनिरपेक्षेषु वस्तिकायेषु कथ्यताम् ॥ ७६५
मल्लयोरिव को स्यातां कयोस्तत्र विशेषणम् । 30 भिन्नगामित्वमनयोर्न समानमिहेष्यते ॥
७६६ 1 ABO°वेक्ष। 2 BO °सिंभूते । 3 b०भिष्टति। 4 B0 °दावायस 1 5 KBO पृक्त्वेन।
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७६८
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७७१ 10
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७७३
बायः ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण ।
विशेष्यं नानुयात्यन्यमनुयाति विशेषणम् । यथोत्पलं तदेवापि रक्तादिमुणयोगतः॥ विशेष्यते तथा नीलं न कचिदृश्यते बुधैः। एकादशविकारेऽपि यदि ते स्यादनन्यता ।।' न भेदः कल्प्यतां विद्वन् पताकत्रिपताकयो। कचित्किंचिदभेदेऽपि हस्तकानां परस्परम् ॥ ऐक्यादामूलमैक्ये तु तव स्यादेकहस्तकः। तस्माचतुःषष्टिरिति संतोष्टव्यं विपश्चिता ॥ सप्तषष्टिरितीयं या संख्याचार्यैः प्रदर्शिता। नैव सा नियता यस्मानाष्टार्थाय हस्तकाः .. किं तु दृष्टार्थसंपत्त्यै लोकयुक्तिमवेक्ष्य च । यथाशोभं प्रकल्प्याः स्यू रसानुगतिकाः कराः॥ प्रयोगः पूर्वमेवोक्तः परिभाषापरीक्षणे। अभिनेयवशादेते सर्वेऽभिनयहस्तकाः॥ त्रिविधा अपि विज्ञेया नृत्ययुक्ता बुतादिकाः। आनन्यादभिनेयानां सन्त्यनन्ताश्च ते यथा । अञ्जनश्चन्द्रकान्तश्च जयन्तश्चेति नामभिः॥ ललितं वक्षसः क्षेत्रे कपोतं कर्णदेशगम् । संदंशविधिनैवं स्यादञ्जनो नाम हस्तकः॥
॥ इत्यानः॥१॥ अर्धचन्द्रं करं कृत्वा ततो मकरमाचरेत् । शुकास्यं दण्डपक्षौ च जानुदेशललाटयोः । चतुर्भिहस्तकैः प्रोक्तश्चन्द्रकान्ताभिधः करः॥
... ॥ इति चन्द्रकान्तः ॥२॥ कामे विषय मकरं दक्षिणे वार्धचन्द्रकम् । भ्रामयित्वा समं कुर्यात् पताकं दक्षपार्श्वमम् ।। त्रिपताकं तथा स्कन्धे जयन्तो हस्तको भवेत् ॥
॥इति जयन्तः॥३॥
७७४
20
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. 25
७७७
1 ABG पुषः । 2 ABG तां । 3 ABO दलोदपि ।
९० रन
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० को०- उल्लास १, परीक्षण १
एवमन्येsपि विज्ञेयाः खबुद्धया नृत्यकोविदैः ॥ ॥ इति हस्तप्रकरणम् ॥
*
[ अथ वक्षः । ]
पश्चधा सममाभुग्नं निर्भुग्रं च प्रकम्पितम् । उद्वाहितं च विज्ञेयं 'वक्षस्तल्लक्ष्म कथ्यते ॥
*
ससौष्ठवं समं ज्ञेयं चतुरस्राङ्गसंश्रयम् । प्रकृतिस्थमिदं वक्षः खभावाभिनये मतम् ॥ ॥ इति समम् ॥ १ ॥
*
. आभुग्रं शिथिलं निम्नं वक्षः स्याद्वर्वशोकयोः । व्याधौ विषादे मूर्च्छाभीलज्जादी संभ्रमेपि च । शीतच्छल्ययोश्चैव संप्रोक्तं भरतादिभिः ॥
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*
॥ इत्याभुग्नम् ॥ २ ॥ निम्नपृष्ठं च निर्भुग्नं बन्धुरं 'स्तब्धमप्युरः । गर्वोत्सेके प्रहर्षोक्तौ स्तम्भे विस्मयवीक्षणे । सत्यवाक्ये तथा माने प्रयोज्यं मृत्यकोविदैः ॥ ॥ इति निर्भुग्नम् ॥ ३ ॥ ,
*
अजस्रमूर्द्धमुत्क्षेपैः कम्पितं यत्प्रकम्पितम् । कामहासश्रमश्वासहिक्का 'दौ रोदनेऽपि च ॥
॥ इति प्रकम्पितम् ॥ ४ ॥
*
[ बच
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७७९
७८०
७८१
७८२
७८३
सरलोत्क्षिप्तमाकम्पयुक्तमुद्वाहितं मतम् । उत्तुङ्गालोकने जृम्भा दीर्घोच्छ्वासादिके तथा ॥
॥ इत्युद्वाहितम् ॥ ५ ॥
॥ इति पञ्चधा वक्षः ॥
*
[ अथ स्तनौ । ]
उच्चावापाण्डुरौ श्यामौ मनापी (? सुपीनी) लोलिती' मनाक् । सङ्कुचद्वदनौ चेति स्तनौ[तु] षट् प्रकीर्तितौ । एतौ रसेषु भावेषु यथौचित्यं प्रयोजयेत् ॥
७८४
७८५
1 B वक्ष्य; वक्ष्यमूल्ल | 2 BC बन्धुरस्त । 3 BC स्तम्भविस्मय' | 4 BO °हिष्का' |
C
5 BG जृभा । 6 ABO श्यामामनापीलोलतौ । 7 ABO 'दनो | 8 ABO बोट् ।
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पार्श्व कटी च ]
नृ० ८० को०- उल्लास १, परीक्षण १
[ अथ पार्श्वम् । ] उन्नतं च नतं चैव प्रसारितविवर्तिते । तथापसृतमित्युक्तं पार्श्व पञ्चविधं बुधैः ॥
*
नितम्बां सभुजैर्व्यक्तमुन्नतैरुन्नतं मतम् । नियोज्यं नाटके तज्ज्ञैरपसर्पणकर्मणि ॥ ॥ इति उन्नतम् ॥ १ ॥
*
नतबाहुनितम्बांसं नतं स्यादुपसर्पणे ॥ ॥ इति नतम् ॥ २ ॥
*
प्रसारितं तूभयतो 'विस्तारात् स्यान्मुदादिषु ॥ ॥ इति प्रसारितम् ॥ ३॥
*
*
विवर्तिकत्रिकं पार्श्व विवर्तितं विवर्तनात् ॥ ॥ इति विवर्तितम् ॥ ४॥ • भवेदुपसृतं पार्श्व विवर्तितविवर्तमात् । निवर्तने प्रयोगोऽस्य नृत्य विद्भिश्चिकीर्षितः । प्रयोज्यमेतन्नाट्ये तु परावृत्तौ नटस्य तु ॥
॥ इत्यपसृतम् ॥ ५॥ ॥ इति पञ्चविधं पार्श्वम् ॥
*
[ अथ कटी। ]
कटी पञ्चविधा प्रोक्ता विवृत्तो द्वाहिता तथा । छिन्ना च कम्पिता चेति रेचितेत्यथ लक्षणम् ॥
विदधाति कटीं यां तु नृत्यगः प्रत्यगाननः । विवर्त्तितामभिमुखीं विवृत्ता सा विवर्तने ॥ ॥ इति विवृत्ता ॥ १ ॥
*
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७९३
1 BO पार्श्वा | 2 ABC नितंबोंस | 3 ABO °स्तारास्यान्मदादिषु । of सं. र. अ. ७ श्लो. ३०५ प्रसारितं तूभयतो विस्तारात् स्यान्मुदादिषु । of च Ms स्तारे स्यान्मु ( A. s-s ) Compare also ना. शा. (as-s) अ. १०, श्लो. १४ आयामनादुभयतः पार्श्वयोः स्यात् प्रसारितम् । and श्लो. १६ प्रसारितं प्रहर्षादौ । 4 ABO °र्तितवि' । 5 ABC द्वा' | 6 ABC त्यतल° । 7 ABC विवर्ता ।
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[परमार
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७९५
नरकको उल्लास १, परीक्षण १ सोद्वाहिता कटी ज्ञेया शनैः पार्थद्वयेन या। चलता शोभने स्त्रीणां पीनाङ्गानां गताविव ॥
॥ इत्युद्वाहिता ॥२॥ मध्यस्य वलनाच्छिन्ना पात्रे तिर्यवखे कटी। व्यावृत्तप्रेक्षणे चैषा व्यायामे संभ्रमे तथा ॥
॥ इति छिन्ना ॥३॥ शीघ्रं गतागतैर्युक्ता पार्श्वयोः कम्पिता कटी। खावामनकुब्जानां गमने सा प्रयुज्यते ॥
॥ इति कम्पिता ॥४॥ ... सर्वदिक्षु भ्रमणतो रेचिता भ्रमणे कटी॥
॥ इति रेचिता ॥५॥
॥ इति कटी॥
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18
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[अथ चरणः।] समोऽश्चि'तः कुश्चितश्च सूच्यग्रतलसकरः। उद्धहितस्त्राटितश्च घटितोत्सेघसंज्ञिकः॥ घहितो मर्दितश्च स्यादग्रगः पाणिगस्तथा । 'पार्श्वगश्चरणो ज्ञेयस्त्रयोदशविधः स्फुटः॥ समः खभावाभिनये खभावावस्थितो भवेत् । चलोऽसौ रेचके प्रोक्तः खभावे च स्थिरो मतः॥
॥इति समः ॥१॥ अङ्गुल्यः प्रसूता यस्य पाणिभूमौ व्यवस्थितः । उत्क्षिप्तान'तलश्चैव चरणोऽश्चितसंज्ञितः। पादाहतिविधौ स स्यान्नानाभ्रमरिकादिषु ॥
॥ इत्यश्चितः ॥२॥
८००
८०१
. 10 मोचितः । 2 ABC पष्वगः। of सं. र. अ.७ श्लो. ३१४ पार्श्वमः। 3 ABO क्षिप्तातल । f सं. र. अ. ७ श्लो. ३१६ समुत्क्षिप्ताग्रतलः। 4 ABO °णोषितसं।
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चिताय] नु०र० को-उहाल र, योक्षण
आकुश्य मध्ये तूसिमपाणिः सहुषितानि । कुश्चितोऽयमतिकान्तकमे तुङ्गस्य व ग्रहे ॥
॥इति कुश्चितः ॥३॥
.
८०४
८०५10
वामः समः परः पृथ्व्यामङ्गुष्ठाग्रेण संस्थितः। उत्क्षिप्तेतरभागोऽसौ सूची नूपुरषन्धने ॥
॥ इति सूची ॥४॥ अङ्गुष्ठः प्रसृतो यस्याङ्गुल्यस्तु न्यश्चितास्तथा। उत्क्षिप्ता तु भवेत् पाणिः पादोऽप्रतलसरः॥ रेचके भ्रमणे भूमिताडने स्थानपीडने । कुटने प्रेरणे भूमिस्थितस्य चापंसारणे ॥ .
॥ इत्यप्रतलसञ्चरः॥५॥ स्थित्वा पादापतो भूम्यां सकृद्धा पहुशोऽपि वा। पाणिनिपात्यते स स्यात् पाद उहिताभिधा।
॥ इत्युद्धट्टितः॥६॥ आपीज्य पाणिना पृथ्वी तामेवाग्रेण हन्ति यः। बाटितः चरणः स स्यात् कर्तव्यः क्रोधगर्वयोः॥
.. इति पाटितः॥७॥
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८०७
घट्टयनग्रपाणिभ्या कमावी मुहुर्मुहुः । ताडने विनियुक्तोऽयं घटितोत्सेधकारकः॥
॥इति धहितोत्सेधः॥८॥
.८०८
घड्यन् पाणिना भूमि घहितः खल्पनोबने।
॥ इति घट्टितः ॥९॥ तिरधीनतलेनोवी मईयन् मर्दितो भवेत् ॥
॥ इति मर्दितः ॥१०॥
८०९
-
-
1 B मध्ये मुक्षि A मध्ये मुतक्षि° मध्ये युक्षि The correct reading may also be.मध्ययुत्मि। 2 ABC °स्थापयसारणे ।
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-उल्लास १, परीक्षण २ [प्रत्यादि पङ्किलोकायावतः शीघ्रगत्वरः।
___! झत्यप्रगः ॥११॥.. पाणिना पृष्ठतो गच्छन् चरणः पाणिगो मतः।
.... ॥ इति पार्णिगः ॥ १२ ॥.. " पार्श्व गच्छन् पार्श्वगः स्यादथवा पार्श्वतः स्थितः॥ ८१०
॥ इति पार्श्वगः ॥ १३॥
॥ इति त्रयोदश चरणाः॥ येनानायः षडङ्गः प्रकटित इतिकर्तव्यतासंयुतोद्धा येनोवैः स्वामिनाप्' निजगुणनिभृतं खीयराज्यं षडङ्गम् । यो नित्यं शम्भुजायां त्रिभुवनमहितां न्यस्यति' खां षडङ्गे .
तेनायं लक्षणोक्तो व्यरचि नृपतिना' नृत्यवर्गः षडङ्गः ॥ ८११ इति 'श्रीराजाधिराज-श्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहरुयां • संगीतमीमांसावां कोरो अङ्गोल्लासे अङ्गपरीक्षणं प्रथमं समाप्तम् ॥ .
।
प्रथमोल्लासे द्वितीयं परीक्षणम् ।
[प्रत्यङ्गानि ] अथ प्रत्यङ्ग संपन्नः प्रत्यङ्गानां समुच्चयम् । प्रत्यङ्गीकृतभूपालो वक्ति लक्षणपूर्वकम् ॥
प्रत्यङ्गानि स्कन्धौ ग्रीवा बाहू च पृष्ठमुबरं च । । । .... ऊरू जो चान्यौ मणिबन्धौ जानुनी चैव ॥ . .
. [स्कन्धौ] लोलितावुच्छ्रितौ स्रस्तावेकोचौ कर्णलग्नको। नाग्नैव व्यक्तलक्ष्माणी स्कन्धौ पञ्चविधौ स्मृतौ ॥
२
३
1 B0 °नान्तं । 2 ABO नसहितां । 3 ABO न्यसति । 4 50 पडा। 5 B0 नृपपत्तिना। 6 ABO नृत्यवर्गषडङ्गः। 7 A drops समाप्तं । d in a different hand इति श्रीराजाधिराजकालसेन महीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहरुयां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे अंगोल्लासे अंगपरीक्षणं प्रथम समाप्तम् ॥ शुभं भवतु ॥ B drops from इति to प्रथमम् ; but between a and अथ enough space is left for the unwritten part of the colophon. 8 50 प्रत्यं । 9 80 लक्षपूर्वकम् ।
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४
नृ० र० को-उल्लास १, पक्षिण नियुक्तौ लोलितौ तत्र हुडकावा'चार FATER हास्ये विटकृते नृत्ये,
॥ इति लोलितौ ॥१॥
उच्छितो हर्षगा
॥ इति उच्छ्रितौ ॥२॥ मदे दुःखे श्रमे स्रस्ती,
॥ इति स्रस्तौ ॥३॥ एकोचौ मुष्टिकुन्तयोः । प्रहारे
॥ इति एकोचौ ॥४॥ कर्णलग्नौ स्तः, शिशिराश्लेषयोरपि ॥
॥ इति कर्णलग्नौ ॥५॥ ॥ इति पञ्चधा स्कन्धौ ॥५॥' :
[ग्रीवा] समा निवृत्ता वलिता रेचिता कुञ्चिताश्चित्ता। त्र्यना नतोन्नता चोक्ता ग्रीवा नवविधा बुधैः। प्रकृतिस्था समा ध्याने जपे कार्ये स्वभावजे ॥
॥ इति समा ॥१॥ आभिमुख्यान्निवर्तेत या निवृत्तेति सोदिता। स्कन्धभारे चाभिमुख्ये तथा चकितवीक्षणे ॥ -
॥ इति निवृत्ता ॥२॥ पावोन्मुखी तु या ग्रीवा वलिता सा निगद्यते। ग्रीवाभङ्गे स्मृ(कृ)तेक्षायां प्रियस्य मुल्संनिधौ ।
४ ८ ॥ इति वलिता ॥३॥ ग्रीवोक्ता विधुतभ्राता (१न्ता) रेचिताङ्गादिमर्दने ।
॥ इति रेचिता ॥४॥ आकुञ्चिता कुञ्चिता स्यात् शीर्षभारे खगोपने ॥
॥ इति कुश्चिता ॥५॥
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1 B0 झुडुक्कावादने । 2 A बुधै B0 बुधौ ।
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10
.
नुको उल्लास, परीक्षण २ पतिाकऽर्धवीक्षायां लोलातिप्रस्ताञ्चिता।
॥ इत्यश्चिता ॥ ६॥ ज्यमा स्यापार्श्वगा खेदे पार्श्वहस्कन्धभारयोः॥
॥ इति व्यत्रा ॥७॥ . अवनम्रा नता कण्ठालम्बेऽलङ्कारवन्धने।
॥ इति नता ॥ ८॥ उन्नतोर्ध्वगतोर्वावलोके कण्ठस्थदर्शने ॥
॥ इत्युनता ॥९॥ ॥ इति नवधा ग्रीवा ॥
[बाहवः] ऊर्खास्योघो मुखस्तिर्यगपविद्धः प्रसारितः।। अश्चितो मण्डलगतिः खस्तिकोद्दिष्टितावथ ॥ पृष्ठानुसारी चाविद्धः कुचिमोत्सारितावपि। . सरलान्दोलिती न बाहः पोक्सघोदितः ॥ ऊर्व ब्रजन् शिरोदेशादास्यस्तुङ्गवीक्षणे।
॥ इत्यूर्खास्यः ॥१॥ आलिङ्गन्निव भूपधमधोवक इतीरितः। .
॥ इत्यघोषकः॥२॥ ...तिर्यक् पार्थोपसी स्यात्॥
॥ इति तिर्यक् ॥ ३॥ यो मण्डल इव प्रात्या कक्षाक्षेत्राहिजेत्। सोपविद्ध इति ज्ञेयो नलायुद्धादिषुः स्मृतः॥
॥ इत्यपविद्धः ॥४॥ अनुव्रजन्नप्रदेश बाहुः प्रोक्तः प्रसारितः। विनियुक्तः फलादाने फलादेर्याचनेऽपि च ॥
॥ इति प्रसारितः ॥५॥
15
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*
___ 10'ता । 2 ABO "त्यन्नता। 3 ABC स्याधा। 4 B0 'दितं। 50 drops from इति to "युद्धादिषु ।
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अश्चितादयः] २०२० को०-उल्लासर, परीक्षण
वक्षोदेशाच्छिरो गत्वा वक्षाप्रत्यागतोत्रितः। खेदादौ विनियुक्तोऽयं,
॥ इत्यञ्चितः ॥६॥
सर्वतो भ्रमणाहुजः॥१॥ - १७ उच्यते मण्डलगतिः खड्गादिभ्रामणे स तु ।
॥इति मण्डलगतिः ॥७॥ पार्श्वव्यत्यासतो बाह्रोः स्वस्तिकः स्यादलग्नयोः। उपस्थाने 'रवेः कार्यः परीरम्भेऽभिवादने ॥
॥ इति स्वस्तिकः ॥ ८॥ मणियन्धाद्विनिःसृत्य पुनर्व्यावृत्तिमाश्रितः । उद्वेष्टितो भवेद्वाहुः सर्वगर्वादनादरे ॥
॥ इत्युवेष्टितः ॥९॥ पृटतो गमनात् पृष्ठानुसारी बाहुरुच्यते । तूणाद्वाणग्रहे स स्थादू वीटिकाग्रहणेऽपि च ॥
॥ इति पृष्ठानुसारी ॥१०॥ आबिद्धोऽभ्यन्तराक्षिप्तः, . ॥ इत्याविद्धः॥ ११॥
सूचीकुर्वश्च कूर्परम् । वक्रितः कुञ्चितः पाते प्रहारे भोजने तथा ॥ खगादिधारणे चास्य विनियोगः प्रकीर्तितः॥
॥ इति कुञ्चितः ॥ १२॥ अन्यपानिजं पार्श्व ब्रजन्नुस्सारितः स च । जनतोत्सारणे प्रोक्तः........... ||
॥ इत्युत्सारितः॥ १३ ॥ सरलः पार्श्वयोर्ध्वमधस्ताच प्रसारितः। सपक्षानुकृतौ माने भूस्थनिर्देशने कमात् ॥
॥ इति सरलः ॥१४॥
1 50 रवः। 2 A drops तः। 3 BC repeat° शने ।
१० नृ० र.
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10 ..
नृ०० को०-उल्लास १, परीक्षण २
[वर्तमा आन्दोलितः स्यादन्वर्थः सविलासगतौ मतः।
॥ इति आन्दोलितः ॥ १५ ॥ किंचिद्वक्रीकृतो नम्रः स्तुतौ माल्यस्य धारणे ॥
॥ इति नम्रः ॥ १६॥ एतेषां विनियोगस्तु परिभाषापरीक्षणे । उक्तः क्षमापालनाथेन तत एव गवेष्यताम् ॥
॥ इति बाहवः॥
[वर्तना ।] अथ वर्तना-संगीतरत्नाकरटीकायाः कलानिधेमध्यात् . सामस्त्यव्यासयोगैः करकरणमिलद्वाहुसंयोजनैर्याजायन्तेऽसंख्यरूपाः क्रमत इह रसोल्लासिवैचित्र्यतश्च । आवावर्तनाना रसमनुरुचिरा स्वे(? स्तेन) लास्यानुरूपास्ताभिर्नृत्यप्रपञ्चास्त्वभिनयचतुराः पाणयोऽनेकशः स्युः ॥ २७ पताकारालयोः पूर्व शुकतुण्डालपद्मयोः। वर्तना खे(१ ख )टकस्यापि पश्चान्म'करवर्तना ॥ उद्ध(१ ऊर्ध्व)वर्तनिकाविद्धवर्तना रेचिताहृया। नितम्बकेशबन्धाख्ये फल्गुवर्तनिका ततः॥ कक्षावर्तनिकोरस्थे (? स्थ)वर्तना खड्गवर्तना। पद्मवर्तनिका दण्डवर्तना पल्लवाभिधा॥ वलिता मात्रपूर्वा च वर्तना परिवर्तना। चतुर्विंशतिरित्युक्ता वर्तना भट्टतण्डुना ॥ अथ क्रमाल्लक्षणमुच्यतेसव्यापसव्यव्यवासाद्धान्तिरामणिबन्धतः। क्रियते चेत् पताकस्य सा पताकाख्यवर्तना॥ .. ३२
॥ इति पताकावर्तना ॥१॥ तर्जन्याचङ्गुलीनां यदन्तरोद्वेष्टनं क्रमात् । आवेष्टितक्रियापूर्व सा प्रोक्तारालवर्तना॥
॥ इत्यरालवर्तना ॥२॥
1 Bo drop क।
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शुकवर्तनाया वर्तनाः ] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण २
शुकतुण्डको वक्षःस्थाविद्धोधोमुखः कृतः। ऊरुपृष्ठे वर्तितश्चेच्छुकतुण्डाख्यवर्तना ॥
॥ इति शुकतुण्डाख्यवर्तना ॥३॥ अभ्यन्तरे कनिष्ठाद्या वर्तन्तेऽङ्गुलयः क्रमात् । व्यावृत्तिक्रियया यत्र साऽलपल्लववर्तना ॥
॥ इत्यलपल्लववर्तना ॥४॥ खटकामुखयो भिक्षेत्रे सव्यापसव्यतः। मणिबन्धावधिभ्रान्तिः खटकामुखवर्तना ॥
॥ इति खटकामुखवर्तना ॥५॥ यदा तु मकरो हस्तः पुरस्तात्पार्श्वयोरपि । व्यावर्तते बहिश्चान्त्यस्तदा मकरवर्तना ।।
॥ इति मकरवर्तना ॥ ६॥ ग(? य)दोद्धृतौ नृत्यहस्तादूर्ध्वदेशे तु वर्तितौ । .. तदोर्ध्ववर्तना नाम वर्तनाविद्भिरीरिता ॥
॥ इत्यूर्ववर्तनिका ॥७॥ अथापविद्धवत् पाणी वर्तेते चेद्भुजौ क्रमात् । आविद्धावन्तराक्षिप्तौ सा स्थादाविद्धवर्तना ॥
... ॥ इत्याविद्धवर्तना ॥ ८॥ खस्तिकाद्विच्युतौ हस्तौ हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । रेचितौ चेद्वर्तनाभ्यां तदा रेचितवर्तना॥
॥ इति रेचितवर्तना ॥९॥ ... मणिषन्धावधिभ्रान्तौ विश्लिष्टानुलिपल्लवौ ।
नितम्बोक्तप्रकारेण वर्तितौ स्कन्धदेशयोः॥ पुनर्नितम्बदेशे तु पताको वर्तितौ क्रमात् । नितम्बवर्तना नाम ॥
॥ इति नितम्बवर्तना ॥ १० ॥
४२25
1 ABC वर्तते । of आविद्धवक्रयोः पाण्योर्वतेते चेद्भजौ क्रमात Kallinatha सं. रं. अ.७ श्लो. ३४९ कलानिधि पृ. १०७ ।
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नृ०० को० १ उल्लास १, परीक्षण २ [सन्मयाना
- केशवन्धे प्रकीर्तिता।। विचित्रवर्तनायोगात् केशदेशाद्विनिर्गतौ । पुनश्च केशदेशे च पर्यायेण विवर्तितौ । पताकावेव चेत् सा तु केशबन्धाख्यवर्तना ॥
॥इति केशबन्धवर्तना ॥ ११ ॥ व्यावृत्त्या वक्षसो भालं प्राप्य तत्पार्श्वमागतौ। ततो मण्डलवद्धान्त्या प्रचालितभुजौ करी ॥ पताको चे मेदूर्ध्वमण्डलावेव कोविदैः। चक्रवर्तनिकेत्युक्ता फल्गु(? फाल )वर्तनिकापि च ॥ ४५
॥ इति फल्गु(? फाल)वर्तनिका ॥ १२ ॥ पार्धमण्डलिनोः पाण्योभ्रमणं स्वखपार्श्वयोः। क्रमादकैकपाधैव कक्षवर्तनिकां जगुः ॥
॥ इति कक्षावर्तना ॥ १३॥ उरोवर्तनिक विद्यादुरोमण्डलिनोः क्रियाम् ।
॥ इत्युरोवर्तनिका ॥ १४॥ एक: स्यात् कुञ्चितो मुष्टिः]खटकास्योऽश्चितः पुरा(पर)। ४७ इति कीर्तिधरस्त्वाह मुष्टिकखस्तिको करौ। खड्गवर्तनिकेत्येतनामधेयं त्वकल्पयत् ॥
४८ ॥ इति खड्गवर्तनिका ॥ १५॥ पनकोशाभिधौ हस्तौ व्यावृत्त्यादिक्रियाश्चिती। आश्लिष्टौ खस्तिकक्षेत्रे व्यावृत्तिपरिवर्तितौ ।। मिथः पराकुखौ सन्तौ नलिनीपनकोशको । एतौ कीर्तिधराचार्याः पनवर्तनिकां जगुः ।।
यद्वाखस्तिको कुचितौ हस्तौ व्यावृत्तिपरिवर्तितौ । मियः परामुखौ बद्धौ सैषा कमलवर्तना॥
॥ इति पनवर्तना ॥१६॥
15
.
20
....:. 1 of एकस्याकुञ्चितो मुष्टिः खटकास्योऽश्चितः परः। कलानिधि on सं.र. अ.७ सो. ३४९ पृ. १०८।
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सर्तमाचा वर्तनाः] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण
वक्षाक्षेत्रं श्रय'त्येको येन कालेन पार्थता व्यावृत्त्या हंसपक्षाख्यस्तेनैव परिवर्तितः ।। प्रसारितभुजोऽन्यस्तु तिर्यक पर्यायतः पुनः। एवमङ्गान्तरेणापि क्रिया स्यादण्डपक्षयोः। दण्डवर्तनिकामेनां भट्टतण्डुरभाषत ॥
॥ इति दण्डवर्तना ॥ १७ ॥ पताको मणिबन्धस्थौ शिथिलौ खस्तिको पुनः। कथितौ पल्लवी तौ हि ख्याता पल्लववर्तना॥
॥ इति पल्लववर्तना ॥ १८॥ व्यावर्तितेन इस्तश्चेदलपल्लवशंसिना । खपाचे वक्षसः प्राप्य प्रसारितमुजो भ्रमात् ॥ अरालं दधदन्येन करणेन श्रयेत् परः। तदानीमेव पाव खमन्यो गच्छति पूर्ववत् ॥ मण्डलेन ततोऽप्येव पुरः पार्द्धमण्डलो। तथा तेषां क्रिया सा स्यादर्धमण्डलवर्तना ॥
... ॥ इत्यधमण्डलवर्तना ॥ १९॥ उद्वेष्टितेन निष्पन्नौ स्यातां चेदलपल्लवौ । वक्षसः स्कन्धयोरूवं प्रसारितभुजावुभौ ॥ स्कन्धाभिमुखमाविद्धौ चलिताङ्गुलिवीजनैः। अलपमाभिधौ प्राहुर्यातवर्तनिका परे॥ .. ॥ इति घातवर्तनिका ॥ २०॥ एतावेवाचलौ मूर्धक्षेत्रगौ ललिता मता। खटकास्यौ शिरोदेशे लमानौ तां परे जगुः॥
॥ इति ललितवर्तना ॥ २१ ॥ कूर्परखस्तिकाकारवर्तनादलिता मला। अन्ये व्याचक्षतेऽन्योन्यलग्नाग्रौ खटकामुखौ।। ऊर्ध्वगो पृष्ठमानीतकूर्परौ वलितेति च ॥
॥इति वलितवर्तना ॥ २२॥ 1 ABO यंत्ये। 2 ABO प्राह vide सं. र. अ.७ श्लो. ३४९ पृ. १०९। 3Rg To vide ibid.
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•
5
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20
25
생성 ० - उल्लास १, परीक्षण २ [ गात्रवर्तितांचा मर्ताः
व्यावर्तितोऽन्तगात्रं चेदलपल्लवहस्तकः ।
पराङ्मुखोऽपविद्धः स्यात् कथिता गात्रवर्तिता ॥ ॥ इति गात्रवर्तिता ॥ २३ ॥
*
गात्रस्य प्रातिलोम्येन पाणिरुत्क्षिप्य वर्तते । अल्लपल्लवसंज्ञश्चेत् प्रतिवर्तनिका तदा ॥ ॥ इति प्रतिवर्तनिका ॥ २४ ॥
*
अन्याश्च कथिताः सप्त वर्तना नृत्यवेदिभिः । वर्तना शिखरस्याया द्वितीया तिलकस्य च ॥ वर्तना नागबन्धः स्यात् सा सिंहमुखवर्तना । 'वैष्णव्येका तलमुखी सप्त स्युः कलशाभिधा । नाममात्रप्रसिद्धास्तास्तैरेव स्युर्न (१ : स्फुट ) 'लक्षणाः ॥ ॥ इति वर्तनाः ॥
*
[ पृष्ठम् । ]
जठरं सैव बोद्धव्यं पृष्ठं तु जठरानुगम् । अतो विमुच्य तत् पृष्ठं जठरं लक्ष्यतेऽग्रतः ॥ ॥ इति पृष्ठम् ॥
*
[ जठरम् । ]
पूर्ण खल्लं रिक्तपूर्ण क्षामं च जठरं स्मृतम् । चतुर्द्धा तत्र पूर्ण तु स्थूलमत्यशिते भवेत् ॥ व्याधिते तुन्दिले चैव ।
॥ इति पूर्णम् ॥ १ ॥
*
खल्लं निस्रं समातुरे ॥
कर्शिते च क्षुधार्त्ते स्यादातुरे जठराकृतौ ॥ बैतालभृङ्गिरित्यादि ।
॥ इति खल्लम् ॥ २ ॥
*
६२
६३
६४
६५
६६
६७
६८
1 ABO तेलक° । 2 सप्तमी क. नि. सं. र. अ. ७ श्लो. ३५० पृ. ११० । 3 of स्फुटलक्षणी: Thiid: 4 ABC जठरो of पृष्ठं तु जठरोक्ताभिर्वर्तनाभिर्विर्वर्तते । अतो न तत्पृथग्वाच्यं जठरं तूच्यतेऽधुना । सं. र. अ. ७ श्लो. ३५३ | 5 ABC नियंसमा ।
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रिपूर्णम्] मृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण २
रिक्तपूर्णमयोच्यते। श्वासरोगे;
॥ इति रिक्तपूर्णम् ॥३॥
तथा क्षामं नमनादुपजायते । जृम्भायां हास्यनिःश्वासरोदनादौ तदिष्यते ॥.... ६९६
॥इति क्षामम् ॥ ४॥ ॥ इति चतुर्दोदरम्' ॥१॥
निवर्तिती।
७०10
चलितः कम्पितः स्तब्ध उद्घर्तितनिवर्तितौ । पञ्चधोरुस्तु वलितोऽन्तर्गते जानुनि स्मृतः ॥ नियोज्यः खैरगमने स्त्रीणां;
॥इति वलितः॥१॥ ...
. कम्पित उच्यते ॥ नतोन्नते मुहुः पार्श्वे वधानोऽधमचक्रमे ॥
७१ ॥ इति कम्पितः ॥२॥ ., निष्क्रियः स्तब्ध इत्युक्तो विषादे साध्वसेऽपि सार
॥ इति स्तब्धः ॥ ३॥ उद्घर्तितो मुहुः पाणि बहिरन्तश्च विक्षिपन् । ..... क्षिपन तथैवाग्रतलं व्यायामे तच्च वै भवेत् ॥
॥ इत्युद्वर्तितः॥४॥ , निवर्तितोऽन्तर्म(ग)तया पायां स्यात् संभ्रमे श्रमे । ७३
॥ इति निवर्तितः॥५॥ ॥ इति पञ्चधोरुः ॥
[जङ्घा । जवा पञ्चविधा क्षितोद्वाहिता परिवर्तिता। [आवर्तिता नता चैव निःस्मृता च बहिर्गता ॥
परावृत्ता तिरश्चीना कम्पितेत्यपराश्च ताः। __1AB0 प्रतिचतुर्द्धादरम् । 2 Here a verse mentioning the remaining two jangha's and the additional five jangha's seems to be missing. It is reconstructed as above,
७२
30
"
*
.
25
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७५
नुको उल्लास १, परीक्षण २ पुनः पञ्च दशैवं स्युम क्षिप्ता विक्षेपिता बहिः। .. व्यायामे ताण्डवे प्रोक्तो
॥ इति शिता ॥१॥
__-द्वाहिता चोर्ध्वदेशयुक् । 18: आविद्धगमनायो स्यात्;
॥ इत्युद्वाहिता ॥२॥
जवा तु परिवर्तिता। प्रतीपगमने पुंसां ताण्डवे विनियुज्यते ॥ ..
॥इति परिवर्तिता ॥३॥ विपर्यासे चरणयोर्वामदक्षिणतः कृते। मुहुरावर्तिता प्रोक्ता विदूषकपरिक्रमे ॥
इत्यावर्तिता ॥४॥ नता जडा नमज्जानुर्गतस्थानासनादिषु ।
॥ इति नता ॥५॥ 16 पुरम्पसरणोपता मिःमृता परिकीर्तिता॥
॥ इति निःसृता ॥ ६॥ नृत्ये प्रसारिता पार्थे जचा मोक्ता बहिर्गता।
॥ इति बहिर्गता ॥७॥ 'पश्चादू याता परावृत्ता भूमिस्ते(?स्थे)न च जानुना। वक्षेण सुरकार्ये स्याद्वामेन पितृकर्मणि ॥
॥ इति परावृत्ता ॥ ८॥ क्षितिस्थितबहिःपार्धा तिरश्चीनासने स्थिता।
॥ इति तिरश्चीना ॥९॥ कम्पिता कम्पनाहीतौ कार्ये घरिकारवे ॥
॥ इति कम्पिता.॥ १०॥ ॥ इति दशधा जवा ॥
25
1 80 पाश्चाद् । 24 धाता B0 वाता of पञ्चागता । सं. र. अ. ७ श्लो. ३६५ ।
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मणिकधः] नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण २
[मणिबन्धः।] पश्चधा मणिबन्धः स्यात् सम आकुश्चितश्चलः। निश्चितच भ्रमित ऋजुः सम इतीरितः। प्रतिग्रहे पुस्तकस्य धारणे परिकीर्तितः॥
॥ इति समः॥१॥ आकुश्चितोऽन्तर्निम्नः स्यात् प्रोक्तोऽपसरणे बुधैः।
॥ इत्याकुञ्चितः ॥२॥ निकुञ्चाञ्चिताभ्यासाचल आवाहने स्मृतः॥
॥ इति चलः ॥ ३॥ बहिर्जीतो निकुञ्चः स्यात् स दानाभयदानयोः।
॥ इति निकुश्वः ॥४॥
भ्रमणामितः खड्गछुरिकाभ्रमणादिषु ॥
॥ इति भ्रमितः ॥५॥ ॥ इति पञ्चधा मणिबन्धः॥
[अथ करभौ।। करभौ मलिनो खच्छावरुणो कुञ्चितावृजू। इत्थमन्वर्थनामानौ कथितौ पञ्चधा बुधैः॥ "
॥ इति करभौ ॥
[ जानु ।] समं नतं च विवृतमुन्नतं चार्धकुश्चितम् । संहतं कुश्चितं चेति जानु सप्तविधं स्मृतम् । प्रकृतिस्थं समं जानु स्वभावावस्थितौ मतम् ॥
॥ इति समम् ॥१॥ नतं महीगतं ज्ञेयं जानु वा(?पाते नमस्कृतौ ।
॥ इति नतम् ॥ २॥ जानुद्वन्द्वं पहियांतं विवृतं रा(ग)जरोहणे ॥
॥इति विवृतम् ॥ ३॥
20
*
११ नृरन.
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नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ [इत्यर्धकुञ्चितम् . स्तनदेशागतं जानून्नतं शैलाधिरोहणम् ।
॥ इत्युनतम् ॥ ४॥ जान्वर्धकुञ्चितं ज्ञेयं नितम्बनमनादुधैः॥
८७ ॥ इत्यर्धकुञ्चितम् ॥५॥ हीरोषेर्ध्यासु जानूक्तं श्लिष्टान्यजानु संहतम् ।
॥ इति संहतम् ॥६॥ कुञ्चितं जानु लग्नोरुजङ्घमासनकर्मणि ॥ ......८८
॥ इति कुञ्चितम् ॥ ७॥
॥ इति सप्तविघं जानु॥ प्रत्यङ्गमालिङ्गति यं सदैव साम्राज्यलक्ष्मीरनुमोदिकेव। तेनामुना राजवरेण राज्ञा प्रत्यङ्गसंघः सुधियाभ्यधायि ॥ ८९ इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहत्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे अङ्गोल्लासे प्रत्यङ्गपरीक्षणं द्वितीयं समाप्तम् । .
10
प्रथमोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् 16 उपा(?))यस्य शोभते चन्द्रगङ्गे सदोज्वले । सदोजवलेन महसा भ्राजमानं नुमः शिवम् ॥ .
[उपाङ्गानि ।] दृष्ट(?ष्टि)पुटताराश्च कपोलौ नासिकानिलः । अधरो दशना जिह्वा चिबुकं वदनं तथा ॥ उपाङ्गानि द्वादशेति शिरस्यङ्गान्तरेषु च । पाणीगुल्फो तथाङ्गुल्यः करयोः पादयोस्तले ॥ मुखरागश्च करयोः प्रचाराः करणानि च । कर्माणि पाणिक्षेत्राणि तेषां लक्षणमुच्यते ॥ .
[अथ दृष्टिप्रकरणम् ।] 25. दृष्टयस्त्रिविधास्तत्र स्थायिजा रसजास्तथा ।
व्यभिचारिभवाश्चेति तासां लक्षणमुच्यते ॥ 1 Bo drop समाप्तं । 2 ABO शोभाते।
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नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ लिग्धा हष्टा तथा दीना क्रुद्धा हप्ता भयान्विता। जुगुप्सिता विस्मितेति स्थायिजा अष्टष्टयः॥ . . . कान्ता हास्या च करुणा रौद्री वीरा भयानि(१न)का। बीभत्सा चागुतेत्यष्टौ द्रष्टव्या रसदृष्टयः॥ शून्या च मलिना श्राता (?न्ता)लजिता शङ्किता तथा| मुकुला चार्धमुकुला ग्लाना जिला च कुञ्चिता ॥ वितर्किताभितप्ता च विषण्णा ललिताभिधा॥ आकेकरा विशोका च विभ्रान्ता विप्लुता तथा। प्रस्ता च मदिरेत्येता विंशतिर्व्यभिचारिजाः॥ ... व्यभिचारिषु सर्वेषु यथासां विंशतेदृशाम् । विनियोगस्तथा सम्यग्वक्ष्यामः पूर्वशास्त्रतः॥ षत्रिंशन्मिलिताः सर्वा भवन्ति त्रिविधा [अपि] रसभावजयोदृष्टयोर्न विशेषोऽस्ति किं त्विह भावजायामनुद्भूता भावा रत्यादयश्च ते ॥ लिग्धा विकाशिनी लिग्धमधुरा चतुरे ध्रुवौ । बिभ्रती सामिलाषोद्यदेकधूस्तु कटाक्षिणी॥
॥ इति निग्धा ॥१॥ हृष्टा निमेषिणी किश्चिस्मिता कुश्चितचश्चला। अन्तर्विशत्तारका च फुल्लगल्ला स्मृता बुधैः॥
॥ इति दृष्टा ॥२॥ दीनार्द्धपतितोर्ध्वस्थपुटेषदुद्धतारका । मन्दसञ्चारिणी बाष्पव्याकुला सद्भिरिष्यते॥
॥ इति दीना ॥ ३॥ क्रुद्धा स्थिरोवृत्तपुटा किञ्चित्तरलतारका । भृकुटी कुटिला रूक्षा दृष्टिविद्भिरुदाहृता॥
॥ इति क्रुद्धा ॥४॥ हप्ता विकसिता सत्त्वमुद्गिरन्तीव सुस्थिरा ॥
॥ इति हप्ता ॥५॥
मायतु कटाक्षिणा ।।
.
.
.:
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जुगुष्मिता
नु० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ निर्गच्छदिव यन्मध्यं त्रासविक्षिप्ततारका । विस्फारितोमयपुटा दृष्टिरुक्ता भयान्विता ॥
॥ इति भयान्विता ॥ ६॥ जुगुप्सिताऽदृश्यदृष्टावुद्विग्ना संकुचत्पुटा । मीलत्कनीनिका स्पष्टालोकिनी परिकीर्तिता ॥
॥ इति जुगुप्सिता ॥७॥
10
विस्मिता दूरविस्फारितारका च 'विकाशिनी । निश्चलोवृत्ततारा च पुटद्वन्द्वा निमेषिणी॥
॥ इति विस्मिता ॥८॥ इत्यष्टौ दृष्टयः प्रोक्ताः क्रमाद्र'त्यादिभावजाः। रसदृष्टय एताः स्युर्भावैरत्युल्बणैः स्फुटाः ।। सभ्रूक्षेपकटाक्षा स्यात् सविकाशातिनिर्मला। आपिबन्तीव दृश्यं या कान्ता कामविवर्धनी । यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्तनम् । तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते ॥
॥इति कान्ता ॥१॥ ,
15
आकुश्चितपुटा मन्दमध्यतीव्रतया क्रमात् । मध्ये किञ्चित् समाविष्टविचित्रवान्ततारका। त्रिविधप्रकृतेर्हास्या दृष्टिविमापने मता ॥
॥इति हास्या ॥२॥
20
नासाग्रानुगता साना किश्चिनिश्चलतारका। पतितोर्ध्वपुटा शोकात् करुणा दृष्टिरिष्यते ॥
॥ इति करुणा ॥३॥ कक्षोया भ्रुकुटी भीमा लोहिता स्तब्धतारका । चञ्चलद्विपुटी रौद्री दृष्टिदृष्टिविदोदिता॥
॥ इति रौद्री ॥४॥
25
1 BC विशाकिनी। 2 B0 °इत्यादि । 3 ABO प्रचक्ष्यते । 4 ABO सानः।
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मयानका] नृ०२० को उल्लास १, परीक्षण
वीरा संकुचितापाङ्गा दीप्ता च समतारका अचश्चला' विकसिता गम्भीरा धीरसंमता ॥ २६ गाम्भीर्यमाधुर्यविलासशोभा
___ "स्थैर्योजऔदार्यमुखानशेषान् । विवृण्वती सत्त्वविशेषभेदान्
प्रसादलालित्यमुखैन मुख्यान् ।।
॥ इति वीरा ॥५॥ अत्यन्तचञ्चलोद्वत्ततारोवृत्तपुटा जडा। दृश्यमग्निमिवास्पृष्ट्वा याति भीत्या भयानका ॥
॥ इति भयानका ॥६॥ मीलल्लोलचलत्पक्ष्मा चलत्तारा मिलत्पुटौ । अपाङ्गौ संसृता दृश्योद्वेगाबीभत्सिका स्मृता ।।
॥ इति बीभत्सा ॥७॥ अन्तर्वहिर्गामिकनीनिकेषन्मिलत्पुटापाङ्गविकाशिनी च । प्रसनशुल्लांशविशुद्धधिष्णाद्भुता स्मृता दृष्टिरियं पुराणः ॥ ३० 16
॥ इत्यद्भुता ॥ ८॥ शृङ्गारादिरसेष्विष्टा दृष्टयोऽष्टौ क्रमादिमाः॥ ३१
॥ इत्यष्टौ रसदृष्टयः ॥ अथ विंशतिरुच्यन्ते व्यभिचारिसमाश्रयाः । निष्कम्पा मलिनापाडा धूसरा पुटतारयोः। शून्यप्रकाशिनी रष्टिः शून्या शून्यविलोकिनी ।।. ३२"
॥ इति शून्या ॥१॥ मलिना किञ्चदाकुञ्चत्पुटा पक्ष्माग्रमन्थरा । व्यावृत्य तारकापाले दृश्याद्वैवर्ण्यशंसिनी॥ दृष्टिः स्याद्विकृते स्त्रीणां दृष्टिविद्भिरुवाहता। विकृतं तदूरोरूणां प्रियेण समयेऽपि यत् । प्राप्तेऽसंलपनं माना[दारोषाद्वेति विनिश्चितम् ॥ ३४
॥ इति मलिना ॥२॥
*
25
___1 B0 अचला । 2 ABC °थैर्यो । 3 ABC °सेधिष्टा।
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0
10
15
65 20
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नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण ३ अलसा निपतत्तारा खस्तापाङ्गा विलोकिनी । दूराद् ग्लानोभयपुटा दृष्टिः श्रान्ता श्रमार्तिषु ॥ ॥ इति श्रान्ता ॥
11
*
'लज्जिताऽन्योऽन्यतः स्पृष्टपक्ष्माग्रा किञ्चिदग्रतः । मीलतारा विनम्रोर्द्धपुटा सापत्रपाभरे ॥ ॥ इति लज्जिता ॥ ४ ॥
*
व्यामूढे वाच्यता तिर्यग्मुहुश्चकिततारका । नातिस्थिरा निवृत्ता प्रागीक्षणाद्वहिरुन्मुखी । शङ्कायां शङ्किता दृष्टिर्नाट्यविद्भिरुदाहृता ॥ ॥ इति शङ्किता ॥ ५ ॥
*
पतितोर्ध्वपुटा दृष्टिः किञ्चिन्मीलिततारका । 'स्फुरदाश्लिष्टपक्ष्माग्राप्यधोनीतकनीनिका ॥ विनम्रोर्ध्वपुटा दृष्टिर्मुकुलेति प्रकीर्तिता । निद्रायामियमानन्दे हृद्ययोः स्पर्शगन्धयोः ॥ ॥ इति मुकुला ॥ ६ ॥
*
मीलितार्धपुटा किञ्चिदस्फुटार्धकनीनिका । उक्तार्षमुकुला दृष्टिराह्लादे विनियुज्यते ॥ ॥ इत्यर्धमुकुला ॥ ७ ॥
*
अन्तर्निविष्टतारा या मलिना मन्दचारिणी । विश्लथभ्रूपक्ष्मपुटा ग्लाना ग्लानौ नियोजिता । अपस्मारादिकेऽप्येषा संप्रोक्ता भरतादिभिः ॥
wwwww
| इति ग्लाना ॥ ८ ॥
*
किञ्चित्कुञ्चत्पुटा तिर्यक् शनैर्गृढं विलोकिते । तिर्यक पतिततारा या जिल्ह्यापाङ्गपटत्पुटा । जडतायामसूयायामालस्ये च नियुज्यते ॥ ॥ इति जिह्ना ॥ ९ ॥
*
1 ABC पुरदा ।
[ भ्रान्ता
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३६
३७
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३९
४०
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कुश्चिता] नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण ३
ईषत्कुश्चितपक्ष्माग्रभूपुटा वक्रतारका । तिर्यग् निविष्टा दृष्टिः स्यात् कुञ्चितासूयितेऽपि सा। अनिष्टेऽर्थे घ्यथायां च दुरालोके महस्यपि ॥
॥ इति कुश्चिता ॥ १०॥ अधःसञ्चारिणी तारोत्फुल्लोद्धान्तपुटापि च । .. वितर्किता वितर्के सा विनियुक्ता मनीषिभिः ॥
॥ इति वितर्किता ॥ ११॥ विलोकेतेऽलसं भ्रान्ते संतप्ते इव तारके। व्यथाचलत्पुटोपेते यस्यां सोक्ताभितप्तिका । उपतापेऽभिघाते च निदेऽपि नियुज्यते ॥
॥ इत्यभितप्ता ॥ १२॥ स्तब्धतारानिमेषाचा विस्तारितपुटद्वया। विषण्णा पतितापाङ्गा विषादे विनियुज्यते ॥
॥ इति विषण्णा ॥ १३ ॥ 'सचूलेपस्मितापाङ्गे कुञ्चिता मधुरोन्मुखी। ललिता ललिते प्रोक्ता दृष्टिर्मन्मथमन्थरा ॥
॥ इति ललिता ॥ १४॥ ईषद्क्रपुटापागा तिर्यगर्घनिमेषिणी । नेत्रान्तरावन्यपथालोका व्यस्तविवर्तिनी ॥ दृष्टिराकेकरा दूरालोके विच्छेदकर्मणि। सापराधे प्रिये लेहविच्छेदेन यदीक्षणम् । तद्विच्छेदप्रेक्षितं स्याद् दूरालोकेऽपि सा स्मृता ॥
॥ इत्याकेकरा॥१५॥ विकाशिन्यनिमेषा च विकाशितपुटद्वया। इतस्ततो भ्रान्ततारा विशोका दृष्टिरिष्यते। ज्ञाने क्रोधे च विज्ञाने गर्व उग्रावलोकने ॥
. ॥ इति विशोका ॥ १६ ॥
1 ABO स्व° of सभ्रूक्षेपस्मितान्विता सं. र. अ.७ श्लो. ४१९ ।
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[विमान्या
10
मु० ० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ विभ्रान्ता कचिवश्रान्तमविश्रन्धविलोकिनी। चञ्चलोत्फुल्लतारा च विस्तीर्णा दृष्टिरुच्यते । नियुक्ता विभ्रमे वेगे संभ्रमे च मनीषिभिः ॥
॥ इति विभ्रान्ता ॥ १७ ॥ पततः क्रमतो यस्याः स्तब्धविस्फुरिती पुटौ। विप्लुता चापले दुःखे तून्मादादौ च कोविदैः॥
॥ इति विप्लुता ॥१८॥ त्रासोद्धमत्पुटा त्रस्ता सोत्कम्पोत्फुल्लतारका ॥
॥ इति त्रस्ता ॥ १९ ॥ त्रिविधा मदिरा दृष्टिर्मद्य(? द)त्रैविध्यतः स्मृता। अधमे पुंसि संस्थस्तु मदस्तीवोऽधमो मतः॥ अधः सञ्चारिणी तत्र किञ्चिद्दष्टकनीनिका । यत्नेऽप्यसिध्यदुन्मेषान्निमेषाद याधमे मदे ॥ . मध्ये किञ्चिद्धमत्तारा किश्चित्कुश्चत्पुटद्वये । अनवस्थितसञ्चारा मदिरा मध्यमे मदे ॥ तरुणे क्षामनयना तथापाङ्गविकाशिनी। __ आघूर्णमानतारा तु मदिरा दृष्टिरिष्यते॥
॥ इति त्रिविधा मदिरा ॥२०॥ इत्युक्ता दृष्टयो लोकदृष्टिमार्गमुपाश्रिताः। षत्रिंशत् सन्त्यनन्तास्तास्ताराभूपुटकर्मणाम् ॥
संदर्भाद् ब्रह्मणाप्येताः प्रत्येकं वक्तुमक्षमाः। . तत्प्रयोगप्रपञ्चा) भ्वादिकानधुना ब्रुवे ॥
॥ इति दृष्टिप्रकरणम् ॥
क. सहजा पतितोत्क्षिप्ता रेचिता कुश्चिता तथा ।
भृकुटी चतुरा चेति सप्तधा भ्रूः स्मृता बुधैः। खभावात् सहजा ज्ञेया भावेषु सरलेष्वसौ ॥
॥ इति सहजा ॥१॥
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पतिता] नृ० र० को-उल्लास १, परीक्षण ३.
अधोगता तु पतिता पर्यायेण सहैव था। . जुगुप्सासूययो रोषे हासे हर्षे च विस्मये। उत्क्षेपे च तथा घ्राणे पतेते त उभे ध्रुवौ ॥
॥ इति पतिता ॥२॥ क्रमेण सह वोत्क्षेपादुत्क्षिप्ता संमता सताम् स्त्रीभिर्हेलालीलयोधूरेकोत्क्षेप्या द्वयं नृभिः। कोपे वितर्के श्रवणे दर्शने च निजे तथा॥
॥ इत्युत्क्षिप्ता ॥३॥
एकैव चलितोत्क्षिप्ता रेचिता कीर्तिता बुधैः॥
॥ इति रेचिता ॥४॥
सद्वितीयैकिका वापि मृदुभगिमनोहरा। निकुञ्चिताख्या भूईया नियोगोऽस्याः प्रदर्श्यते। मोहायिते कुमिते विलासे किलकिश्चिते ॥
॥ इति कुञ्चिता ॥५॥
६५15
सा द्वितीया यदा मूलादुत्क्षिप्ता भृकुटी क्रुधि ॥
॥ इति भुकुटी ॥६॥ अल्पस्पन्दा सद्वितीयायता मन्थरचारिणी। चतुरा ललिते स्पर्श शृङ्गारे रुचिरेऽपि च ॥
॥ इति चतुरा ॥७॥ . ॥ इति सप्तधा भ्रूः॥
[पुटौ।] समौ कुञ्चितौ प्रसृतौ स्फुरितौ च विवर्तितौ । निमेषितोन्मेषितौ च पिहितौ च विताडितौ॥ इत्येवं नवधा प्रोक्तौ पुटौ तल्लक्ष्म कथ्यते। खाभाविको समौ प्रोक्तौ खभावाभिनये च तौ॥
॥ इति समौ ॥१॥
1 B0 °दुपात्क्षि। 2 B0 समता । 3 ABO किलकुञ्चिते।
१२ नृ० रन.
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[कुञ्चितौ
६९
नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ आकुचितावहृये स्तो रूपादौ कुञ्चितौ पुटौ ॥
॥ इति कुश्चितौ ॥२॥ प्रस्तावायतौ प्रोक्ती हर्षे वीरे च विस्मये ॥
॥ इति प्रसृतौ ॥३॥ स्फुरितो स्पन्दितौ प्रोक्तावीर्षायां विनियोजितौ ॥
॥ इति स्फुरितौ ॥ ४॥ विवर्तितौ समुद्वृत्तौ क्रोधे योज्यौ विपश्चिता ॥
॥ इति विवर्तितौ ॥५॥ निमेषितौ तु पुटयोः संश्लेषात् क्रोधगोचरौ ॥
॥ इति निमेषितौ ॥६॥
उन्मेषितौ च विश्लेषानियोगं पूर्वमाश्रितौ ॥
॥ इत्युन्मेषितौ ॥७॥
पिहितावतिसंलग्न'पुटौ स्यातां दृशोरुजे । सुप्तमूछितवर्षोष्णधूमवाताञ्जनार्तिषु॥
॥ इति पिहितौ ॥८॥ पुटौं विताडितौ ज्ञेयावुत्तरेणाधराहतेः। अतिविस्फारणात् स्यातामह श्यौ वा विताडितौ ॥ ७६
॥ इति विताडितौ ॥९॥ ॥ इति नवधा पुटौ॥
[ताराकर्माणि ।] तारकाणां विभेदा ये ते कर्मोपाधिका मताः। कर्माण्यपि द्विधा खस्य विषयस्याभिमुख्यतः॥ नव तत्र खनिष्ठानि प्राकृतं च प्रवेशनम् । वलनं भ्रमणं पातश्चलनं च विवर्तनम् ॥
1 AB0 °स्फुटौ। 2 ABO दृशौ । 3 हर्षों in भ. को. पृ. ३७० । 4 80 स्फुटौ। 5 ABo through out वितालितौ instead of विताडिती। 6 ABO स्यातांमट्ट।
७८
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________________
नृ० र० को०-उल्लास १, परीक्षण ३
समुद्वृत्तं च निष्क्रामस्तेषां लक्षणमुच्यते ।
प्राकृतम् ]
स्वभावावस्थितौ ज्ञेयं भावेनावेशभागिनि ' ॥ रसे प्राकृतं तु
॥ इति प्राकृतम् ॥ १॥
*
प्रवेशनमथोच्यते ।
प्रवेशात् पुटयोरन्तर्बीभत्से च रसे स्मृतम् ॥ ॥ इति प्रवेशनम् ॥ २ ॥
*
वलनं त्रयस्त्रगमनं रसयोर्वीररौद्रयोः । ॥ इति वलनम् ॥ ३ ॥
तारयोर्मण्डलभ्रान्तिः 'पुटान्तभ्रमणं मतम् ॥ रसे वीरे च रौद्रे च
रसे च करुणे कार्यः,
भयानके रसे प्रोक्तं.
॥ इति भ्रमणम् ॥ ४ ॥
*
॥ इति पातः ॥ ५ ॥
*
शृङ्गारे च रसे हास्ये,
पातस्तु स्यादधोगतिः ।
रसे वीरे च रौद्रे च,
॥ इति चलनम् ॥ ६ ॥
*
चलनं च प्रकम्पनं ॥
कटाक्षस्तु विवर्तने ।
॥ इति विवर्तनम् ॥ ७ ॥
समुद्वृत्तमथोद्गतिः ॥
॥ इति समुदृत्तम् ॥ ८ ॥
*
1 ABO °गिनी° । 2 ABO द्भुतं । 3 ABO टान्तेभ्रं ।
९१
७९
८०
८१ 10
८२
5
15
८३
20
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९२
10
र को-उल्लास १, परीक्षण ३ [निष्कामो दर्शनानि च
... निर्गमस्त्वन्तरा तु यः। .. स निष्क्रामस्तु वीरेऽप्यदुते रौद्रे भयानके ॥
॥इति निष्कामः॥९॥ ॥ इति नव स्वनिष्ठानि ताराकर्माणि ॥ __ [दर्शनानि ।] ताराकाष्टकमयो विषयाभिमुखं हुवे। रसभावे तु तत् ख्यातं साधारणतया बुधैः॥ समं साच्यनुवृत्तावलोकितानि विलोकितम् । उल्लोकितालोकिते च प्रविलोकितमित्यपि ॥ कर्माण्येतानि कथ्यन्ते दर्शनानि मनीषिभिः। दर्शनं सममत्रोक्तं सौम्यमध्यकनीनिकम् ॥
॥ इति समम् ॥१॥ पक्ष्मान्तीनतारं च साचि तिर्यग्विलोकितम् ॥
॥ इति साचि ॥२॥ अनुवृत्तं दर्शनं स्याद्रूपनिर्वर्णनायुतम् । अन्तःस्थिरतरा कायाद् दिक्षया' क्रिया तु या ॥ ८९ निवर्णना तु सा ज्ञेया,
॥ इत्यनुवृत्तम् ॥ ३॥
चावलोकितमुच्यते। अधस्स्थदर्शनं तत् स्यात्,
॥ इत्यवलोकितम् ॥४॥
विलोकितमितो मतम् ॥ पृष्ठतो दर्शनं यत्तत्,
॥ इति विलोकितम् ॥५॥
उल्लोकितमिहोदितम् । ऊर्ध्वस्थवस्तुनो यत् स्यादवेक्षणमथो पुनः॥
॥ इत्युल्लोकितम् ॥ ६ ॥
1 ABO°क्षाद्ध।
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आलोकितम्] नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ आलोकितं यत् सहसा दर्शनं तन्मतं मुनेः।
॥ इत्यालोकितम् ॥७॥ . प्रविलोकितमत्रोक्तं दर्शनं पार्श्वमस्य तु॥
॥ इति प्रविलोकितम् ॥ ८॥ · ॥ इत्यष्टौ दर्शनानि ॥
[ कपोलौ।] कपोलौ षड्विधौ प्रोक्तौ समौ फुल्लौ च कुश्चिती। पूर्णौ क्षामौ कम्पिती च; समौ खाभाविको मतौ ॥ अनावेशेषु भावेषु, ॥ इति समौ ॥१॥
10 गल्लौ फुल्लौ विकाशितौ। प्रहर्षे विनियोक्तव्यौ ॥
॥ इति फुल्लौ ॥२॥
संकोचात् कुञ्चितौ मतौ ॥ . . ९४ ।। रोमाञ्चिते भये शीते ज्वरे चैतौ प्रकीर्तितौ।
16 ॥ इति कुञ्चितौ ॥ ३ ॥ पूर्णौ गर्वोत्साहयोः स्तः कपोलावुनतौ च यौ॥
॥ इति पूर्णौ ॥४॥ दुःखे क्षामाववनती,
॥ इति क्षामौ ॥५॥
स्फुरितौ कम्पिती मतौ। रोमहर्षे स्मृतौ तौ तु कपोलाः षडिमे मताः ॥
॥ इति कम्पितौ ॥६॥ ॥ इति षट् कपोललक्षणम् ॥ [नासा।]
25 नासापि षड्विधा स्वाभाविकी मन्दा विकूणिता।
16
20
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नु० १० को०-उल्लास १, परीक्षण ३ [स्वाभाविकी नता विकृष्टा सोडासा खभावावस्थिता तु या। . आवेशवर्जिते भावे नासा खाभाविकी मता ॥
॥ इति स्वाभाविकी ॥१॥ निःश्वासोच्छासमन्दत्वे मन्दा नासा शुचिः स्मृता। निर्वेदौत्सुक्यचिन्तासु नासा चैव विकूणिता॥
॥ इति मन्दा ॥२॥ अतिसंकुचिता हास्ये जुगुप्सासूययोः पुनः।
॥ इति विकूणिता ॥ ३॥ नता नासा मुहुः श्लेषविश्लेषितपुटा मता। मन्दविच्छन्नरुचिरे सोच्छ्रसाभिनये च सा॥
॥ इति नता॥४॥ अतीवोत्फुल्लपुटका विकृष्टार्तिभयादिषु। रोषोर्ध्वश्वासविषया भूरिसौरभलिप्सया ॥
॥ इति विकृष्टा ॥५॥ सोच्छासाकृष्टपवना निर्वेदादिषु सा स्मृता। दीर्घोच्छासकरेऽर्थे च सौरभे विनियुज्यते ॥
॥ इति सोच्छासा ॥६॥ ॥ इति षोढा नासा॥
[अनिलः ।] प्रबद्धः स्खलितश्चैव निरस्तो विस्मितस्तथा । उल्लासितो विमुक्तश्च प्रसृताख्यश्चलौ परौ ॥ खस्थाविति नवोच्छासनिःश्वासौ कोहलोदितौ । समो भ्रान्तो विलीनश्चान्दोलितः कम्पितः परः ॥ स्तम्भितोच्छासनिःश्वाससूत्कृतानि च सीत्कृतम् । एवं दशविधः प्रोक्तो मारुतः कैश्चिदाहतैः॥ सशब्दं वदनाद्यस्तु प्रबद्धः सन् विनिर्गतः। स प्रबद्धस्तु निःश्वासः क्षयादिषु नियुज्यते ॥
॥ इति प्रबद्धः॥१॥
15
20
1 B0 विकृणिका।
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स्खलितः ]
नृ० र० को ० - उल्लास- १, परीक्षण ३
यो निर्गच्छति दुःखेन स्खलितः सोऽभिधीयते । अन्त्यावस्थासु सव्याधौ प्रसूतिसमयेऽपि च ॥ ॥ इति स्खलितः ॥ २ ॥
**
निर्गच्छति मुहुर्वक्रान्निरस्तः शब्दवान् मुहुः । श्रान्ते रोगे च दुःखार्ते विनियुक्तो बुधैरयम् ॥ ॥ इति निरस्तः ॥ ३ ॥
*
मनस्यन्यपरेऽकस्माद्वर्तमानस्तु विस्मितः । चिन्तायामद्भुते चार्थे विस्मये च प्रवर्तते ॥ ॥ इति विस्मितः ॥ ४ ॥
घ्राणेन मन्दमापीतो मरुदुल्लासितो मतः । हृद्यगन्धे च संदिग्घेष्वर्थेषुक्तो विचक्षणैः ॥ ॥ इति उल्लासितः ॥ ५ ॥
*
*
निरुद्धश्चिरमामुक्तो विमुक्तः कथ्यते मरुत् । प्राणायामे तथा ध्याने योगे चैष नियुज्यते ॥ ॥ इति विमुक्तः ॥ ६ ॥ दीर्घः सशब्दनिष्क्रान्तो घाणतः प्रसृतो मरुत् । ॥ इति प्रसृतः ॥ ७ ॥ उष्णावुच्छ्रासनिःश्वासौ सशब्दौ वक्रनिर्गतौ ॥ चलावुक्तौ तु तौ चिन्तौत्सुक्यशोकेषु कीर्तितौ । ॥ इति चलौ ॥ ८ ॥
*
*
स्वस्थौ स्वभावजी प्रोक्तौ वायू खस्थक्रियासु तौ ॥ ॥ इति स्वस्थौ ॥ ९ ॥ ॥ इति नवधानिलः ॥
*
समाद्या वायवोऽन्वर्थ' नामानः किन्तु कथ्यते । विनियोगः समो ज्ञेयः सहजे कर्मणि स्थितः ॥ ॥ इति समः ॥ १ ॥
*
1 4 वायवोस्त्वर्थ, BC वायवोस्त्वर्थनमोनः ।
९५
१०६
१०७६
१०८
१०९
११०
१११
११२
10
15
20
११३ 25
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10
० को उल्लास १, परीक्षण ३ [म्रान्तः भ्रान्तः स चान्तन(?न्तर्ध)मणात् प्रथमे प्रियसंगमे।
॥ इति भ्रान्तः॥२॥ लीनः स्यान्मूर्छिते वायुः,
॥ इति लीनः ॥३॥
पर्वतारोहणे पुनः॥ ११४ आन्दोलितः,
॥ इति आन्दोलितः ॥४॥ कम्पितस्तु सुरते, ॥ इति कम्पितः॥५॥
स्तम्भितः पुनः। शस्त्रमोक्षे,
॥ इति स्तम्भितः ॥६॥ तथोच्छास आघाणे कुसुमादिनः॥ ११५
॥ इति उच्छ्वासः ॥७॥ 15 निःश्वासो'ऽनुशयादौ स्यात्,
॥ इति निःश्वासः ॥८॥
सूत्कृतं वेदनादिषु। शब्दानुकरणे वात् त्याज्ये वायौ च, ॥ इति सूत्कृतम् ॥९॥
सीत्कृतम् ॥ शीतक्लेशे ग्राघवायौ शब्दानुकरणेऽपि च । नखक्षते मृगाक्षीणां निर्दयाघरखण्डने ॥ ___११७
॥ इति सीत्कृतम् ॥ १०॥ नासानिलेन व्याख्यातो मारुतो वे (१व)दनोद्भवः । 25 विनियोगान्तराण्यत्र सुविज्ञेयानि लोकतः॥
११८ ॥ इति अष्टात्रिंशद्विधो वायुः॥
११६
1 ABO °श्वासानु । 2 Kumbha in भ. को. °नुहरणे (पृ. ७३७)। 3 Kumbha in भ, को. गुह्यवायौ (पृ. ७२९), but on p. 956 ग्राह्य ।
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विवर्तितादयः ]
नृ० २० को०-उल्लास १, परीक्षण ३
[ अधरः । ]
विवर्तितः कम्पितच विसृष्टो विनिगूहितः । संदष्टकः समुद्गचे (? वो ) वृत्तायतविकाशिताः ॥ रेचितचेति दशधा बुधैरोध (१४) उदीरितः ।
*
तिर्यक संकुचितश्रोष्ठपुटः प्रोक्तो विवर्तितः ॥ नियुक्तो वेदनासूयावज्ञाहास्यादिषु स्फुटम् । ॥ इति विवर्तितः ॥ १ ॥
कम्पितः कम्पनाद्भीरुव्यथाशीतजपादिषु ॥ ॥ इति कम्पितः ॥ २॥
*
विनिष्क्रान्तो विसृष्टः स्यादलक्ताद्येन रञ्जने । विलासे चैव बिब्बोके स्त्रीणां नृणां च हेलने ॥ ॥ इति विसृष्टः ॥ ३ ॥
*
प्राणो मुखान्तर्निहितः साध्येषु विनिगूहितः । रोषेर्ण्ययोर्वरूणां बलाचुम्बति वल्लभे ॥ ॥ इति विनिगूहितः ॥ ४ ॥
*
दन्तैर्दष्टोऽधरः क्रोधे संदष्टो विनियुज्यते ॥ ॥ इति संदष्टः ॥ ५ ॥
*
समुद्गः कथ्यते चोष्ठसंपुटो दधदुन्नतिम् । फूत्कारे चानुकम्पायां चुम्बने चाभिनन्दने ॥ ॥ इति समुद्रः ॥ ६ ॥
*
मुखोत्क्षिप्ततयोद्वृत्तः सोऽवज्ञापरिहासयोः ।
॥ इत्युद्वृत्तः ॥ ७ ॥
*
उत्तरोष्ठेन साकं स ततः 'स्यादायतः स्मिते । ॥ इत्यायतः ॥ ८ ॥
*
किञ्चिदत्तो (? दृष्टो ) र्ध्वरदनो विकाशी कथ्यते स्मिते ।
॥ इति विकाशी ॥ ९॥
*
1 ABO स्याद्यतः ।
१३ नृ० रन०
९७
११९
१२० 5
१२१
१२२
१२३
१२४
१२५
१२६
10
15
20
25
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नृ० र० को उल्लास १, परीक्षण ३ [दन्तकर्माणि रेचितस्तु विकारोऽपि(रेऽपि) पर्यन्तवलनाद्भवेत् ॥ . . १२७
॥ इति रेचितः॥१०॥ ॥ इति दशधाधरः॥
[दन्तकर्माणि ।] दन्तलक्षणसिद्धयर्थ दन्तकर्माण्यथो ब्रुवे। कुट्टनं खण्डनं छिन्नं चुकितं ग्रहणं समम् ॥ दष्टं निकर्षणं चेति दन्तकर्माष्टया स्मृतम् ।
कुट्टनं घर्षणं प्रोक्तं शीतरुग्भी जरासु तत् ॥
॥ इति कुट्टनम् ॥ १॥ ..
१३१
15
दन्तानां श्लेषविश्लेषौ मुहुः खण्डनमीरितम्। जपलक्षणसंलापाध्ययनेषु प्रकीर्तितम् ॥
॥ इति खण्डनम् ॥२॥ संश्लेषः स्याद् दृढश्छिन्नं शीतभीरोदना'दिषु । व्याधी च वीटिकाच्छेदे व्यायामादिषु चेप्सितम् ॥
॥ इति छिन्नम् ॥ ३॥ , चुक्तिं जृम्भणे दन्तपङ्क्त्यो र्दूरस्थितेर्भवेत् ।
॥ इति चुक्कितम् ॥ ४॥ ग्रहणं धारणं दन्तैरङ्गुल्यादेः प्रकीर्तितम् ॥
॥ इति ग्रहणम् ॥५॥ दन्तानां किंचिदाश्लेषः स्वभावाभिनये समम् ।
॥ इति समम् ॥६॥
१३२
दन्तैर्दष्टं भवेत् क्रोधे त्वरे दशनं तु यत् ॥
॥ इति दष्टम् ॥ ७॥
१३३
_1 AB0 रोदरा। of रोदने भीतिशीतयोः सं. र. अ.७ श्लो. ४९९ । 2 and 4 ABO चुम्बितं । of verse 136. 3 AB0 प.ई. of दन्तपक्त्योः स्थितिर्दूरे चुक्तिं जृम्भणादिषु । सं. र. अ. ७ श्लो. ५०० । 5 ABO त्वधरे।
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जिला] नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण ३. निष्काशो निष्कर्षणं स्याद् मर्कटादिकरोदने ॥ १३४
॥ इति निष्कर्षणम् ॥ ८॥ ॥ इत्यष्टौ दन्तकर्माणि ॥
[जिह्वा ।] जिह्वाथ षड्विधा ऋज्व्युनता लोला च लेहिनी। वक्रा सृकानुगा चेति प्रसृतास्ये प्रसारिता। ऋज्वी श्रमे पिपासायां श्वापदानां प्रकीर्तिता ॥
॥ इति ऋज्वी ॥१॥ व्यात्तास्यस्थोन्नता जिह्वा जृम्भास्यान्तस्थवीक्षयोः ।
॥ इति उन्नता ॥२॥ प्रमृतास्ये चला लोला वेतालादौ प्रयुज्यते ॥ १३६
॥ इति लोला ॥३॥ जिह्वावलेहिनी ज्ञेया दन्तोष्ठे लेहिनी सती ॥
१३७ ॥ इत्यवलेहिनी ॥४॥ नृसिंहाभिनये वक्रा व्यात्तास्यस्थोन्नताग्रिका।
॥ इति वक्रा ॥५॥ लीढसृका स्मृता मुक्कानुगा कोपेष्टभक्षयोः ॥ १३८
॥ इति सृक्कानुगा ॥ ६॥ इति षोढा जिह्वा ।
[चिबुकम्] अङ्गुष्ठा (?जिह्वौष्ठा) नुगतं तेषां क्रियया लक्षितं स्फुटम् । तथापि लक्ष्यते किश्चिचिबुकं सुखबुद्धये ॥ व्यादीर्ण श्वसितं वक्र संहतं चलसंहतम् । स्फुरितं चलितं लोलमेवं चिबुकमष्टधा। जृम्भाहास्यादिषु प्रोक्तं व्यादीण दूरनिर्गतम् ॥ __ १४० 25
॥ इति व्यादीर्णम् ॥१॥
__1 ABC ऋज्वान्नताः । 2 of जिलौष्ठदन्तक्रियया चिबुकं लक्ष्यते ततः। सं. र. अ.७ श्लो. ५०७ ।
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5
10
15
20
१००
नृ० १० को०- उल्लास १, परीक्षण ३
अधस्तावलं खस्तं श्वसितं वीक्षितेऽद्भुते । ॥ इति श्वसितम् ॥ २ ॥
*
तिर्यग्गतं तु वक्रं स्याद्ब्रहावेशे नियुज्यते ॥ ॥ इति वक्रम् ॥ ३ ॥
*
संहतं मीलितमुखं निश्चलं मौनकर्मणि ॥ ४ ॥ ॥ इति संहतम् ॥ ४ ॥
*
लग्नौष्ठं चञ्चलं नारीवल्गने चलसंहतम् ॥ ५ ॥ ॥ इति चलसंहतम् ॥ ५ ॥
*
स्फुरितं कम्पितं प्रोक्तं शीते ( ? भीते ) शीतज्वरे बुधैः । ॥ इति स्फुरितम् ॥ ६ ॥
*
चलितं श्लेषविश्लेषि क्षोभे वाकस्तम्भकोपयोः ।
॥ इति चलितम् ॥ ७ ॥
*
तिर्यग्गतागतं लोलं रोमन्थावर्तनादिषु ॥
॥ इति लोलम् ॥ ८ ॥ ॥ इत्यष्टधा चिबुकम् ॥
*
[ वदनम् । ] व्याभुग्रं भुग्रमुद्वाहि विधृतं विकृतं तथा । विनिवृत्तमिति प्राहुर्वदनं षड्विधं बुधाः ॥
*
व्याभुग्रं किञ्चिदायामि मुखं चिन्तादिके स्मृतम् । निर्वेदौत्सुक्ययोश्वापि,
॥ इति व्याभुग्नम् ॥ १ ॥
*
भुग्रं वक्त्रमधोमुखम् ।
यतेः स्वभावाल्लज्जायाम्,
॥ इति भुग्नम् ॥ २ ॥
*
[ वदनानि
1 सं. र. अ. ७ श्लो. ५११. has भीते शीतज्वरे तथा ।
१४१
१४२
१४३
१४४
१४५
१९४६
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उद्वाहि ]
नृ० २० को ० -उल्लास १, परीक्षण ३ गर्वानादरतो (ग) तौ ॥
लीलासूत्क्षिप्तमुद्वाहि,
निषेधे नैवमित्युक्तौ,
॥ इत्युद्वाहि ॥ ३॥
*
विधुतं तिर्यगायतम् ।
॥ इति विधुतम् ॥ ४ ॥
*
विवृतं तु प्रकीर्तितम् । विश्लिष्टौष्ठं हास्यशोकभयादिषु विचक्षणैः ॥ ॥ इति विवृतम् ॥ ५ ॥
*
विनिवृत्तं तु तत् प्रोक्तं यत्परावृत्तमाननम् । रोषेर्ष्यासूयतेष्वर्थष्वेत नृत्तविदो विदुः ॥
॥ इति विनिवृत्तम् ॥ ६॥ ' इति षोढा वदनानि ॥
॥ इति द्वादश शिरस उपाङ्गानि ॥
*
[ पाष्णिगुल्फकराङ्गुलिभेदाः । ] उत्क्षिप्तापतितोत्क्षिप्त पतितान्तर्गता तथा । बहिर्गता मिथोयुक्ता वियुक्ताङ्गुलिसंयुता ॥ अध्यष्ट (? अष्टधा) पार्ष्णिरित्युक्ता पादचार पदेष्वियम् । गुल्फावङ्गुष्ठसंश्लिष्टावन्तर्यातौ बहिर्गतौ ॥ मिथोयुक्तौ वियुक्तौ च पश्चधा मुनिनोदितौ । एतेषां विनियोगस्तु स्थानकादिषु दृश्यते ॥ संयुता वियुता वक्राः प्रसृताः पतितास्तथा । कुश्चन्मूलाश्च वलिताः कराङ्गुल्यस्तु सप्तधा ॥ नाम्नैव कृतलक्ष्माणो भेदाः पाष्योंदिता इमे ।
*
[ चरणाङ्गुलिभेदाः । ]
अधः क्षिप्तास्तथोत्क्षिप्ता कुञ्चिताश्च प्रसारिताः ॥ संलग्नाः पञ्चधा ज्ञेयाश्चरणेऽङ्गुलयो बुधैः । अधः क्षिप्ता मुहुः पातात् बिब्बोके किलकिञ्चिते ॥ ॥ इति अधः क्षिप्ता ॥ १ ॥
*
१०१.
१४७
१४८ 5
१४९
१५०
१५१
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१५५
१५६
10
15
20
25
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१०२
नृ०र० को०-उल्लास १, परीक्षण ४ [उत्मितादयः ____ नवोढा लज्जिते तूर्ध्वक्षेपादुत्क्षिप्तिका मुहुः।
॥ इत्युत्क्षिप्ता ॥२॥ शीतमूर्खाग्रहत्रासैः कुञ्चिता कुश्चनात् स्मृता ॥
॥ इति कुञ्चिता ॥३॥ ऋजुः प्रसारिताः स्तब्धाः खापे स्तम्भेऽङ्गमोहने ।
॥ इति प्रसारिता ॥४॥ अङ्गुष्ठस्याप्यमी भेदाश्चत्वारः परिकीर्तिताः। मिथोलग्नाश्च संलग्ना साङ्गुष्ठाः कर्षणे स्मृताः॥
॥ इति संलग्नाः॥५॥ 10 उद्धृतं पतिताग्रं चोद्धृताग्रं भूमिलग्नकम् ।. . कुञ्चन्मध्यं तिरश्चीनं षोढा पादतलं स्मृतम् ॥ १५९
॥ इति पार्णिगुल्फाङ्गुलितलानि करचरणोपाङ्गानि ॥ उपाङ्गसेवकाः सिंहासनसछत्रचामरैः।
भिद्यन्ते यस्य तेनात्रोपाङ्गसंघः प्रदर्शितः ॥१॥ . 15 इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहरुयां सङ्गीत
मीमांसायां नृत्यरत्नकोशे अङ्गोल्लासे उपाङ्गपरीक्षणं तृतीयं समाप्तम् ॥ ३ ॥
प्रथमोल्लासे चतुर्थं परीक्षणम् यस्मिन्नविद्ययाहार्य विश्वं भाति सनातने । तमनाहार्यकार्येशमार्येशं शङ्करं नुमः॥
[आहार्याभिनयः।] अथ निर्धार्यते सम्यगाहार्याभिनयो मया। यतः प्रयोगः सर्वोऽयमाहार्याभिनये स्थितः॥ यतः प्रकृतयः पूर्व नानानेपथ्यसाधिताः। अन्ते (? अतो) ऽङ्गायैरभिव्यक्तिमभिगच्छन्त्ययत्नतः॥ ३ नेपथ्यजो विधिः सर्व आहार्याभिनयाभिधः। कार्यः प्रयत्नस्तत्रैव प्रयोगे शुभमिच्छता ॥ नेपथ्यशब्दवाच्यस्तु नाव्यालङ्कार इष्यते। स एवाहार्यशब्देन नाटके व्यपदिश्यते ॥
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नेपथ्यम् ]
नृ० २० को०-उल्लास १, परीक्षण ४
[ नेपथ्यम् । ] चतुर्विधं तु नेपथ्यं पुस्तोऽलङ्कार एव च । तथाङ्गरचना चैव ज्ञेयः सजीवमेव च ॥ पुस्तस्तु त्रिविधो ज्ञेयो नानारूपप्रमाणतः । सन्धिमो व्याजिमचैव चेष्टितश्च प्रकीर्तितः ॥
*
[ अलङ्कारः । ] कायस्थालङ्कृतिर्येन सोऽलङ्कारः स च द्विधा । माल्यमाभरणं चेति तत्र माल्यमनावृतम् ॥ चतुर्विधं तु विज्ञेयं देहस्याभरणं बुधैः । आवेध्यं बन्धनीयं च क्षिप्यमारोप्यकं तथा ॥ आवेध्यं कुण्डलादीह यत् स्यात् श्रवणभूषणम् । श्रोणिसूत्राङ्गदैर्मुक्ताबन्धनीयानि निर्दिशेत् ॥ प्रक्षेप्यं नूपुरं विद्याद्वस्त्राभरणमेव च । आरोग्यं हेमसूत्रादि हाराश्च विविधाश्रयाः ॥
*
[ अङ्गरचना । ] सितरक्तश्यामपीता वर्णास्तैरङ्गसंस्कृतिः । वर्णानां संकरोद्भूता शस्ताङ्गरचना मता । बहुभिर्वर्णिता वर्णैः स्यादङ्गरचना नवा ॥
[ पुस्तः । ]
पुस्तः स उच्यते नाट्ये यद्विमानादि दृश्यते ।
॥ वस्त्रकर्म ॥
१०३
*
७६
९ 10
१०
११
१२
केलिजै (? किलिजै) चर्मवस्त्राद्यैः संधानात् संघिमो मतः ॥ १३ व्याजैः सूत्राकर्षणाथै रचितो व्याजिमो मतः । मधूच्छिष्टान्नजत्वादियोगैर्यश्रेष्ट्यते नटैः ॥
१४
1 ABC ° देमुक्ता of श्रोणिसूत्राङ्गदैर्मुक्ता । ना. शा. अ. २३. लो. १३ (०.ss.
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5
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१०४
नृ० २० को०- उल्लास १, परीक्षण ४
[ सजीवम् । ]
स चेष्टितः स्यात् सजीवो रहे प्राणिप्रवेशनम् । देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः ॥ प्राणिसंज्ञाः कृता ह्येते जीवबन्धास्तथापरे । शैलप्रासादयश्राणि चर्मवर्मध्वजास्तथा ॥ नानाप्रहरणाद्याश्च ते प्राणिन इति स्मृताः । अथवा कारणोपेता भवन्त्येते शरीरिणः । वेषभावाश्रयोपेता नाव्यधर्मीमुपाश्रिताः । वर्णानां तु विधिं ज्ञात्वा वयःप्रकृतिमेव च ॥ कुर्यादङ्गस्य रचनां देशजातिवयः श्रिताम् । द्विपाद: 'पादरहिताः चतुष्पाद इति त्रिधा ॥ प्राणिनः प्रथमे तत्र देवमानुषपक्षिणः पादहीनास्तु भुजगाश्चतुष्पादा गवादयः ॥ एवमाहार्यविधयो गवेष्या भरतादिह ।
अप्रस्तुतत्वात्ते नेह विस्तरेण प्रपश्चिताः ॥ भूषाप्रसङ्गतः किञ्चिन्नेपथ्यमिह दर्शितम् ।
*
[ मुखरागः । ] अभिनेयार्थसंपत्तिः करणैरवधार्यते ॥ साधना मुखरागस्य तत् स आदौ निरूप्यते । यतो वदनरागोऽयं चित्तवृतिं रसात्मिकाम् ॥ प्रकटीकुरुते तस्मादर्थसिद्धिस्तदाश्रिता । मुखरागमृतेऽङ्गानि नालमर्थप्रकाशने ॥ अतस्तेनैव शोभन्ते तानि खं शशिना यथा । रसानुशायिनी संपत् पदार्थानां प्रकाशते ॥ तामात्मस्थां व्यनक्त्यत्र मुखरागो रसे रसे । स चतुर्धा स्मृतो राज्ञा पूर्वः' स्वाभाविकस्तथा ॥
[ सजीवम्
. १५
१६
१७
१८
१९
२०
२१
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२३
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२५
२६
1 Chaukhamba and Nirnaya Sagar editions of N. S. have the reading af: as above (A, 23.) v. 8. (c. s. s.) A. 21. v. 8 (N. s. ). but the c. o. s. has the reading वेष्टिम: - ( P. 110). This is a more intelligible reading. Abhinavagupta explains it as जतुसिक्थादिना वेष्टस्तेन निर्वृत्तो वेष्टिमः । P. 110. 2 Bc drop पादरहिता चतुः । 3 ABC पादौ । 4 ABC पूर्वस्वा ।
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हस्तप्रचाराः करणानि च] नृ० र० को-उल्लास १, परीक्षण ४
प्रसन्नश्च तथा रक्तः श्यामश्चैव चतुर्थकः। खाभाविको यथार्थस्तु भावेनाविष्ट इष्यते ॥
॥ इति स्वाभाविकः ॥ १॥ शृङ्गाराद्भुतहास्येषु प्रसन्नो निर्मलो मतः ।
॥ इति प्रसन्नः ॥२॥ रक्तं स्यादरुणो रौद्रे करुणेऽद्भुतवीर्ययोः।
॥ इति रक्तः॥३॥ श्यामो यथार्थो विज्ञेयो बीभत्से च भयानके ।
॥ इति श्यामः ॥४॥ ॥ इति चतुर्धानु (? मुख) रागः॥
२८
[हस्तप्रचाराः । हस्तमचरणाधीनं सर्वं नृत्यं यतस्ततः। अतो नानामतैक्येन तानहं वच्मि तत्त्वतः॥ उत्तानश्च ततः पार्श्वगोऽग्रगोऽधस्तलस्तथा। खसंमुखतलश्चोर्ध्वमुखोऽधोवदनस्तथा ॥ पराअखः पार्श्वतलः संमुखश्चाग्रतस्तलः। ऊर्ध्वगोधोगतः पार्श्वगतोऽन्यः पार्श्वतो मुखः॥ एते पश्चदशैवात्र प्रचाराः करसंश्रयाः। नाग्नैव व्यक्तलक्ष्माणो न ततो लक्षिताः पृथक् ॥
॥ इति पञ्चदश हस्तप्रचाराः॥
[करणानि ।] निरपेक्षो यथा सर्वोऽभिनयः सर्वमृच्छति । क्रियाविशेषो हस्तस्य सर्वसाधारणस्तथा ॥ क्रियते नृत्यविद्भिर्यस्तद्धस्तकरणं मतम् । आवेष्टितोद्वेष्टिते च व्यावर्तितमतः परम् ॥ परिवर्तितमित्येतचतुर्धा परिकीर्तितम् ।
तर्जन्याद्यङ्गुलीनां यत्तलसंमुखतः क्रमात् ॥ आवेष्टितं स्यादागच्छेदावक्षः पार्श्वतः करः। १४ नृ०रत्न.
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नृ०२० को०-उल्लास १, परीक्षण ४ [करकर्माणि करस्य करणं नाम तदावेष्टितमीरितम् ॥ ... ३६
॥ इति आवेष्टितम् ॥१॥ अङ्गुल्योऽनुक्रमेणैव निर्गच्छन्ति तलाबहिः । वक्षस्तोऽपि करस्तद्वत् तदुद्वेष्टितमीरितम् ॥
॥ इति उद्वेष्टितम् ॥२॥ आवर्तितकनिष्ठाद्यमेवमेव प्रकीर्तितम् ॥
॥ इत्यावर्तितम् ॥ ३॥ तथैव कनिष्ठा(?ष्ठि)[कायमुद्वेष्टित वदीरितम् । परिवर्तितनामैतत् करणं करसंश्रितम् ॥ .. .
॥ इति परिवर्तितम् ॥४॥ ॥ इति चत्वारि करणानि ॥
[करकर्माणि ।] विंशतिः करकर्माणि नामलक्ष्माणि वस्यतः)। धूननं श्लेषविश्लेषौ क्षेपो रक्षणमोक्षणे। परिग्रहो निग्रहो ह्युत्कृष्टया कृष्टिविकृष्टयः॥ ताडनं तोलनं छेदभेदो स्फोटनमोटने। विसर्जनमथाह्वानं तर्जन चेति विंशतिः॥ ____इति विंशतिः करकर्माणि ॥
[हस्तक्षेत्राणि । पार्श्वद्वयं पुरस्ताच पश्चादूर्ध्वमधः शिरः । ललाटकर्णस्कन्धोरोनाभयः कटिशीर्षके । ऊरुद्वयं च हस्तानां क्षेत्राणीति त्रयोदश ॥
॥ इति त्रयोदश हस्तक्षेत्राणि ॥ येनाहार्य जगति जगतीनाथसर्वखमुर्वी धार्या पायर्या समग्रा वितरणसरणिः कार्यमार्यानुरूपम् । स्मार्य रामानुचरितमनिशं दार्यमारं समग्रं तेनाहार्या भिनयनिगमो'कार्यशेषः क्षितीशः ॥ 1 ABO उद्वेष्टितम् । 2 ABG यदिव। 3 ABC ग्रह्योत्कृ। 4 80 पर्या। 5 BO मारस। 6 BO °हाया। 7 B0 निगमौ । 8 ABO क्षितीशा।
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१०७
नृ०० को०-उल्लास १, परीक्षण ४ इति सरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवाम्भोधिमाथमन्थमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयमेरुजयाजयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकम्भरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीतोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोलनधर्षितनागपुरेण अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचण्डपवनेन श्रीमत्कु- 5 म्भलमेरुनवीननिर्मितपराजितसुमेरुणा श्रीचित्रकूटभौमस्वर्गतयथार्थीकरणचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपञ्चाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन वैरिवनितावैधव्यदीक्षादानदक्षोदण्डकोदण्डदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्रकूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन 10 याचककल्पनाकल्पद्रुमेण वसुन्धरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिकरण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादवरप्रसादेन राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराणा-श्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन राजाधिराज-श्रीकुम्भकर्णेन विरचिते संगीतराजे षोडशसाहरूयां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे अङ्गोल्लासे आहार्याभिनयपरीक्षणं चतुर्थ समाप्तम्।' __10: इति सरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवांभोधि-15 माथमंथमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयमेरुजयाजयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण नागपुरोलनधर्षितनागपुरेण अर्बुदाचलग्रहणसंदर्शिताचलाद्भुतप्रतापेण गूर्जराधीशधीरत्वोन्मूलनप्रचण्डपवनेन श्रीमकुंभलमेरुनवीननिर्मितपराजितसुमेरुणा श्रीचित्र]कूटभौमवर्गतयथार्थीकरणचारुतरपथेन मेदपाट- 20 समुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातंगयवनेन प्ररूढपत्रयवनवदहनवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्र (in a different hand on another page) इति श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन ॥ १॥ जगदीश्वरीकामेश्वरीचरणकिङ्करेण ॥२॥ कामाक्षागिरिविभुना ॥ ३ ॥ अध्युष्टतमनरेश्वरेण ।। ४ ॥ भीष्मपुरजयानीतानेकराज. कन्यारत्नेन ॥ ५ ॥ श्रीपुरमहणसंवर्द्धितयशोभरेण ॥ ६॥ वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्ति-25 पुरपराजिताचलनायकेन ॥ ७ ॥ संगमनीरदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण ॥ ८ ॥ दमनपुरविध्वंसनबंदीकृतयवनीनिचयेन ॥ ९॥ महिषमेरुजयाजेयविभवेन ॥ १० ॥ शाकंभरीरमणपरिशीलनपरिप्राप्तशाकंभरीपरितोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण ॥ ११ ॥ अष्टादशगिरिशिखरपरिवारितांजनाद्रिविजयविख्यातवीर्यगर्वेण ॥१२॥ महदंबमातृकापुरो. द्भूलनधर्षितमहोरगपुरेण॥ १३ ॥श्रीवनदेवखामिप्र(?प्रा)सादरचनापरपरमेश्वरेण ॥१४॥ 30 श्रीत्र्यंबकेश्वरसन्निधिकीर्तिस्तंभोन्नतजयस्तंभेन ॥ १५ ॥ श्रीब्रह्मगिरिभौमवर्गतायथार्थीकरणरचितचारुपथेन ॥ १६ ॥ श्रीकामक्षा गिरिनवीननिर्मितिपराजितसुमेरुणा ॥ १७ ॥
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नृ०२० को-उल्लास १, परीक्षण ४
श्रीमहिषाचलोपरिश्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण ॥ १८ ॥ अभिनवभरताचार्येण ॥ १९ ।। वीणावादनप्रवीणेन ॥ २० ॥ यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण ॥ २१ ॥ त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन ॥ २२ ॥ परमभागवतेन ॥ २३ ॥ महाराजाधिराजमहाराणा
श्री[मृगाङ्क]नामराजेन्द्रनन्दनेन ॥ २४ ॥ महाराज्ञीसौभाग्यवतीजसमांबिकाहृदयनन्दनेन 5 ॥ २५ ॥ सकलसीमंतिनीशिरोमणिनिकुंभराजन्यवंशावतंसमहाराज्ञीश्रीकर्मवती-लघुमा
देवीहृदयाधिनाथेन ॥ २६ ॥ इति महाराजाधिराजकालसेनमहीन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहस्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे अङ्गोल्लासे आहार्याभिनयलक्षणम् । चतुर्थ परीक्षणं समाप्तम् । उल्लासश्च प्रथमः समाप्तः ।
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द्वितीयोल्लासे प्रथमं परीक्षणम् । ..
[मङ्गलम् ।] एकं निधाय सममस्य च'जानुशीर्षे पादं परं रचितकुश्चितमुद्धृतं च। वन्दे शिवं सवरदाभयदानहस्तं 'नेत्रामृतैः सतत साध(? स्थान)
कमाप्तवन्तम् ॥ १
[स्थानकानि।] अथ स्थानानि वक्ष्यामो मार्गदेशीविभेदतः। चारी चरणमाख्यातं स्थित्वा तद्यवतिष्ठते ॥ यतश्चार्यादिकं सर्व स्थाने स्थाने 'कृतं भवेत् । अतः स्थानं प्रधानत्वात् सर्वस्यादौ प्रपश्यते ॥ वैष्णवं समपादं च वैशाखं मण्डलं भवेत् । आलीढप्रत्यालीढे च स्थानषदं नृणामिति ॥ आयातं चावहित्थं च तथाश्वक्रान्तमित्यपि । गतागतं च वलितं मोटितं विनिवर्तितम् ॥ इत्याचार्यमते ख्यातं स्त्रीणां स्थानकसप्तकम्। . खस्तिकं वर्धमानाख्यं 'नन्द्यावतं च संहतम् ॥ समपादं चैकपादं पृष्ठोत्तानतलं तथा। चतुरस्रं पाणिविद्धं पार्णिपार्श्वगतं तथा । एकपार्श्वगतं तस्मादेकजानुनतं ततः। परावृत्तं समसुचि तथा विषमसूच्यपि ॥ खण्डसूचि ततो ब्राह्मं वैष्णवं शैवगारुडे । कूमोसनं नागवन्धं वृषभासनमित्यपि ॥ इति.देशीस्थानकानां विंशतिख्यधिका स्मृता। वस्थं मदालसं क्रान्तं स्या द्विष्कम्भितमुत्कटम् ॥ स्रस्तालसं जानुगतं मुक्तजानुविमुक्तकम् । उपविष्टस्थानकानां नवकं भारते मते ॥ सममाकुश्चितं स्थानं प्रसारितविवर्तिते । उद्वाहित नतं चेति सुप्तस्थानानि षण्नृणाम् ॥ 10 drops च at both the places | 2 AB तत्रा। 3 0 ततयाधिक । 4 AB वक्ष्यामार्ग। 5 AB कृतेभवत् । 6 B सप्तमम् । 7 B नाद्य । 8 AB विष्कुंभित । 9 AB लग्नं । 0 °लकं । but compare its description v. 82
०
०.
M
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[ पुरुषस्थानकानि । ]
एकः पादः समो यत्र खपक्षे त्र्यस्त्रितः परः । सार्द्धद्वितालान्तरितो जड़ा किञ्चिन्नता स्थिता ॥ विष्णुदेवतमेतत् स्याद् वैष्णवं सौष्ठवाञ्चितम् । 10 उत्तमैर्मध्यमैः पुंभिः प्रयोज्यं मुनिसंमतात् ॥ प्रकृतिस्थस्य 'संलापेऽनेककार्यान्तरान्विते । प्रयोज्यं प्रतिशीर्षेण विष्णोश्चेत्यपरेऽभ्यधुः ॥ अपरे नाटयकर्त्रेति सूत्रधारादिना जगुः । पादः पक्षस्थितः सोऽत्र यः पार्श्वाभिमुखाङ्गुलिः ॥ स एव त्रयस्रः किञ्चिचेत् पुरोदेशाभिमुख्यभाक् । अन्तरालं यदत्र स्यात् प्रसृताङ्गुष्ठमध्ययोः ॥ तदेव तालसंज्ञं स्यादिति नृत्यविदो विदुः । उरः समुन्नतं यत्र कूर्परांसशिरः समम् ॥ कटीजानुसमासनं गात्रं तत् सौष्ठवं मतम् । अङ्गं स्वस्थानविश्रान्तं सन्नमित्यभिधीयते ॥ अचलस्थितिसंयुक्तं निषण्णमिति कीर्त्यते । सौष्ठवेऽङ्गमनत्युचमचञ्चलमकुब्जकम् ॥ चलपादं च तत् कार्य नृभिरुत्तममध्यमैः । वैष्णवं स्थानमेतच्च चतुरस्रस्य जीवनम् ॥ पृथक्कटीनाभिचरौ करौ वक्षः समुन्नतम् । वैष्णवं स्थानकं यत्र चतुरस्रं तदुच्यते ॥ ॥ इति वैष्णवं स्थानम् ॥ १ ॥
25
नृ० ८० को०- उल्लास २, परीक्षण १ एवं समासतः पुंसां षट् स्त्रीणां तु सप्त च' । 'देशीयस्थानकानां च त्रयोविंशतिरित्यथ ॥ नवासने च षट् सुप्तौ सर्वाणि मिलितानि तु । 'एकपञ्चाशदाचष्टपञ्चाशत्कोटि भूपतिः । अथ लक्षणमेतेषां वक्ष्ये लक्ष्मविदां मुदे ||
[ पुरुषस्थानकान
*
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1 ABc give the line एकपञ्चाशदायष्ट ete; but A has marks of delition. 2 B दीशीय० । 3 ABC सोष्ठवाच्छितम् । but भ. को. सौष्ठवाञ्चितम् पृ. ६४६. 4 ABO संलेपनेक of संलापे नानाकार्यान्तरान्विते सं. र. अ. ७ श्लो. १०३३.
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नृ० २० को०- उल्लास २, परीक्षण १
एकतालान्तरौ पादौ समावङ्गे च सौष्ठवम् । समपादं च तद् ज्ञेयं चतुराननदैवतम् ॥ एतचोर्ध्वनिरीक्षायां स्वीकारे णा (? चा) शिषां तथा । लिगि (१ ङ्गि)व्रतिविमानस्थस्यन्दनस्येषु युज्यते । मध्यमानां विहङ्गानां कन्यावर कुतूहले ॥ ॥ इति समपादम् ॥ २ ॥
*
समपादम् ]
नभस्यूरू निषण्णौ चेत् सार्घतालत्रयान्तरे । भूमेरूर्ध्व चरणयोस्तावदेवान्तरं भुवि ॥ त्र्यम्रपक्षस्थयोर्यत्र वैशाखं स्थानकं तु तत् । वैशाखदेवतं स्थूलपक्षिणां वीक्षणे मतम् । अश्वानां वाहने वेगदाने प्रेरणकर्मणि ॥ ॥ इति वैशाखम् ॥ ३ ॥
*
एकतालान्तरौ यत्रौ पादौ पक्षस्थितौ भुवि । कटीजानु समावूरू सार्धतालद्वयान्तरे ॥ निषण्णौ गगने तत् स्यान्मण्डलं शक्रदैवतम् । चतुस्तालान्तरौ केचिन्मण्डले चरणं ( १ णौ ) जगुः ॥ वीक्षणे गरुडादीनां नियोज्यं गरुडवाहने । धनुर्वज्रादिशस्त्राणां मोक्षणे च मुनेर्मतात् ॥
॥ इति मण्डलम् ॥ ४ ॥
व्योम्नि वामो निषण्णोरुः पूर्वमानेन दक्षिणः । अग्रे प्रसारितः पञ्चतालं' त्र्यस्रं च तद्द्वयम् ॥ आलीढं स्थानकं तत्तु विज्ञेयं रुद्रदैवतम् । ईर्ष्याक्रोधकृतो जल्प: 'कार्यस्तेनोत्तरोत्तरः । वीररौद्रकृतं मल्लसंघर्षास्फोटमादिकम् । अस्मिन् संधाय शस्त्राणि प्रत्यालीढं समाश्रयेत ॥
॥ इत्यालीढम् ॥ ५ ॥
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1 ABO° तालां cf पञ्चतालं प्रसारितः । सं. र. अ. ७ श्लोक १०४९. 2 ABO कार्यों नेतो० cf. कार्यस्तेनोत्तरोत्तरः । सं. र. अ. ७ श्लो. १०५०,
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नृ० ८० को०- उल्लास २, परीक्षण १
एतद्विपर्ययात्प्रत्यालीढं रुद्राधिदैवतम् । संघानीकृतशस्त्रस्य प्रत्यालीढेन मोचनम् ॥ ॥ इति प्रत्यालीढम् ॥ ६॥
*
प्राचां चतुर्णामेतेषां प्रयोगो नाव्यन्नृत्तयोः । नाट्यैकगोचरस्तज्ज्ञैरन्त्ययोः परिदृश्यते । नर्तने स्थानषस्य केचित् पञ्चविधेऽभ्यधुः || ॥ इति षट्पुरुषस्थानकानि ॥
[ स्त्रीस्थानकानि । ]
आयतं स्थानकं तत्तु यत्र तालान्तरे स्थितः । वामयत्रो दक्षिणश्च समो वक्षः समुन्नतम् ॥ प्रसन्नं वदनं हस्तो नितम्बे दक्षिणोऽपरः । समः समुन्नता चात्र कटी पद्माधिदैवतम् ॥ एतदाभाषणे कार्ये सखीप्रियतमादिभिः । कर्तुं समीह (हि) तासु स्यात् कृ ( ? क्ष ) तासु च गतिष्विदम् ॥ रङ्गावतरणारम्भे पुष्पाञ्जलिविसर्प ( ? )ने । आवाहने विसर्गे च तर्जने प्रतिषेधने ॥ मानावलम्बने गर्वे गाम्भीर्येऽमर्षकर्मणि । ईर्ष्याभिलाषप्रभवे स्त्रीणामङ्गुलिमोटने ॥ एतत् स्त्रीस्थानकं कार्यं प्रवेशे पुरुषैरपि । केचनोचुः' स्त्रीभिरेव पूर्वरङ्गे प्रयुज्यते ॥ प्रविष्टेष्वपि पात्रेषु त्वभिनेयानभि (१ ति) क्रमात् । एतत् स्थानं प्रयोक्तव्यमिति केचन मन्वते ॥
इदं स्थानं प्रयुज्याथ रङ्गावतरणादयः । कर्तव्या हस्तपादादिप्रचारे रुचिरैर्युताः ॥
॥ इत्यायतम् ॥ १ ॥
*
[ स्त्रीस्थानकानि
एतत्पादविपर्यासादवहित्थं प्रकीर्तितम् । दुर्गाधिदैवतं चैतदवहित्थस्य सूचकम् ॥ स्वाभाविके च संलापे तुष्टौ चिन्ताविचारयोः ।
1 ABO केचनोयू ।
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अश्वक्रान्तम्] नृ०० को०-उल्लास २, परीक्षण १ .
विस्मये च विलासे च वरभार्यावलोकने। लीलायां भूरिसौभाग्यगर्वजे खाजवीक्षणे ॥
॥ इत्यवहित्थम् ॥ २॥
४८
एकः पादः समस्तस्य' पाणिदेशं गतोऽपरः। सूचीतालान्तरे चाथ समः पार्थे खके स्थितः॥ अश्वक्रान्तं तदा ज्ञेयं भारती चास्य दैवतम् । अश्वस्यारोहणारम्भे स्खलिते गोप्यगोपने ॥ प्रसूनस्तषकादाने तरुशाखावलम्बने । खाभाविके च संलापे विगलद्वस्त्रधारणे। विभ्रमे ललिते चैव प्रयोक्तव्यमिदं स्मृतम् ॥ .
॥ इत्यश्वक्रान्तम् ॥ ३॥ गतिं कर्तुं समुदिता यत्रोद्धृत्यैव नर्तकी । एकं पावमुदास्ते तदगतं न (१च)गतं तथा । गतिस्थित्योर्निरोधेन स्थानकं स्याद्तागतम् ॥
॥ इति गतागतम् ॥ ४॥ किञ्चिद्विवलितं गात्रं तद्दिक्षु चरणो यदा। कनिष्ठाश्लिष्टभूपृष्ठो भूलनाङ्गुलिकापरः। तदेतद्वलितं ज्ञेयं सामिलापविलोकने ॥.
॥इति वलितम् ॥ ५॥
20
५२
एकः पादः समस्त्वन्यः कुञ्चितोतलाङ्गुलिः। अग्रे तथोर्ध्वगो हस्तो कर्कटो मोहि(? टि)ताभिधे? धम्)। कामावस्थासु सर्वासु विनियोगोऽस्य कीर्तितः॥
॥ इति मोटितम् ॥६॥ परिवर्तनतोऽङ्गानां पृष्ठतो विनिवर्तते? तितम्)॥
॥ इति विनिवर्तितम् ॥ ७॥ ॥ इति सप्त स्त्रीस्थानकानि ॥
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1 Bo drop स्य।
१५ नृ० ०
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नृ० २० को०- उल्लास २, परीक्षण १
[ देशीस्थान कानि । ] मिथः लिष्टकनिष्ठौ च चरणौ कुञ्चितौ यदा । स्वस्तिकौ संहतस्थाने स्वस्तिकं कीर्तितं तदा ॥ ॥ इति स्वस्तिकम् ॥ १ ॥
*
तिर्यञ्चौ चरणौ पाष्णि संगतौ वर्धमानके ॥ ॥ इति वर्धमानम् ॥ २ ॥
*
चरण वर्धमानस्थौ वितस्त्यन्तरितौ यदा । षडङ्गुलान्तरौ यद्वा नन्द्यावर्त तदोदितम् ॥ ॥ इति नन्द्यावर्तम् ॥ ३ ॥
*
अङ्गुष्ठौ च तथा गुल्फौ पादयोवेन्मिथो युतौ । देहे स्वाभाविके तत् स्यात् संहतं स्थानकं वरम् । विनियोगोऽस्य कथितः पुष्पाञ्जलिविसर्जने ॥ ॥ इति संहतम् ॥ ४ ॥
*
देहः स्वाभाविको यत्र वितस्त्यन्तरितौ समौ । पादौ तत् समपादाख्यं समाम्नातं महीभृता ॥ ॥ इति समपादम् ॥ ५ ॥
*
समस्यैकस्य पादस्य जानुमूर्ध्नि यदीतरः । बाह्यपार्श्वेन लग्नोर्बाह्यपार्श्वे तदादिशत् । एकपादं मुनिश्रेष्ठः स्थानकं स्थानवित्तमः ॥ ॥ इत्येकपादम् ॥ ६ ॥
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*
भूमिलनाडुलीपृष्ठः पञ्चात्पादस्तथैककः । परापरः समो यत्र पृष्ठोत्तानतलं हि तत् ॥ ॥ इति पृष्ठोत्तानतलम् ॥ ७ ॥
अष्टादशाङ्गुलं यत्र वर्धमानस्थपादयोः । अन्तरं चतुरैः प्रोक्तं चतुरस्रं मनोहरम् ॥ ॥ इति चतुरस्रम् ॥ ८ ॥
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[ स्वस्तिकम्
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पाणिविद्धम् ] नृ० १० को०- उल्लास २, परीक्षण १ पाणिविद्धे भवेत्पाणिरङ्गष्टश्लेषिणी सदा ॥ ॥ इति पाणिविद्धम् ॥ ९ ॥
*
पाणिः पार्श्वन्तरस्थान्तः पाणिपार्श्वगते भवेत् ॥ ॥ इति पाष्णिपार्श्वगतम् ॥ १० ॥
*
समपादाग्रतः किञ्चिदपरश्चरणौ यदा । बाह्यपार्श्वतस्तिर्यक स्यादेकपार्श्वगतं तथा ॥ ॥ इत्येकपार्श्वगतम् ' ॥ ११ ॥
*
समस्य चरणस्यान्यश्चतुरङ्गुलमानतः । तिर्यकुश्चितजानुः स्यादेकजानुनते भवेत् ॥ ॥ इत्येकजानुनतम् ॥ १२ ॥
*
पाय समौ परावृत्ते कनिष्ठाष्ठकौ मतौ ॥ ॥ इति परावृत्तम् ॥ १३ ॥
*
द्वावृट्टी पाणिजङ्घोरुलिष्टभूमी प्रसारितौ । तिर्यगू भवेतां चेत् स्थानं समसूचि [त]दोदितम् ॥ ॥ इति समसूचि ॥ १४ ॥
*
युगपत् पुरतः पश्चात् सूचीपादौ प्रसारितौ । पृथग्वा कथितं स्थानं प्राज्ञैर्विषमसूचि तत् । चरणौ भूमिसंलग्नजानुगुल्फौ कचिन्मतौ ॥ ॥ इति विषमसूचि ॥ १५ ॥
*
भूसंलग्नोरुपाणिः स्यादेकस्तिर्यक् प्रसारितः । अन्योऽङ्गिः कुश्चितो यत्र खण्डसूचि मतं तदा ॥ ॥ इति खण्डसूचि ॥ १६ ॥
*
समस्याङ्गेः : परः पादः कुञ्चितीकृत्य पृष्ठतः । जानुसंघिसमत्वेनोत्क्षिप्तस्तद् ब्राह्ममुच्यते ॥
॥ इति ब्राह्मम् ॥ १७ ॥
*
एकं कृत्वा समं पादमीषदन्यस्तु कुञ्चितः । पुरः प्रसारितस्तिर्यगेतत् स्याद्वैष्णवं तदा ॥ ॥ इति वैष्णवम् ॥ १८ ॥
*
1 ABO तकम् ।
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नृ०र० को०-उल्लास २, परीक्षण १ [उपविष्टस्थानानि * समस्याऽस्तु सव्यस्य जानुशीर्षसमः परः। उद्धृतो दक्षिणः पादः कुश्चितः शैवमत्र तत् ॥
॥ इति शैवम् ॥ १९ ॥
७२
वामोऽग्रे कुञ्चितः पश्चादन्यः पादस्तु जानुना। पृथिवीं संश्रितो यत्र गारुडं स्यात्तदासनम् ॥
॥ इति गारुडम् ॥ २०॥ वामः समः परो जानुबाह्यगुल्फमिलक्षितिः। चरणो विद्यते यत्र तत् कूर्मासनमीरितम् ॥
॥ इति कूर्मासनम् ॥ २१॥ दक्षिणां तु यदा जवां वामोरोः पृष्ठदेशगाम् । विदधात्युपविष्टः सन् नागबन्धं तदादिशेत् ॥
॥ इति नागबन्धम् ॥ २२ ॥
जानुनी भूमिसंलग्ने संयुते वियुते तथा । सौष्ठवाधिष्ठितं चाङ्गं तदा स्याद्वृषभासनम् ।।
____॥ इति वृषभासनम् ॥ २३ ॥ ॥ इति त्रयोविंशतिर्देशी'स्थानकानि ॥
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[उपविष्टस्थानानि ।] हस्तावूरू कटिन्यस्तो हृदयं किश्चिदुन्नतम्। .. विस्तारिताञ्चितौ पादौ स्थानं तत् खस्थमुच्यते ॥ ७७
॥ इति स्वस्थम् ॥१॥ आसनं संश्रितस्त्वेकः परः किश्चित्प्रसारितः । शिरः पार्श्वगतं यत्र तन्मदालसमीरितम् । विपदौत्सुक्यनिर्वेदमदेषु विरहेषु तत् ॥
॥ इति मदालसम् ॥ २॥ किश्चिद्वाष्पकले नेत्रे बाहुशीर्षगतं शिरः।
1 ABO °तिदे। 2 ABC एकपरः ef. एकः प्रसारितः किञ्चिदन्योऽद्रिस्त्वासनाश्रितः। सं. र. अ ७. श्लो १०९६.
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क्रान्तादीनि ] नृ० २० को० -उल्लास २, परीक्षण १
चिबुकक्षेत्र हस्तौ क्रान्तमेतदुदीरितम् । शोके ग्लाने निर्जिते च विगृहीते नियुज्यते ॥ ॥ इति क्रान्तम् ॥ ३ ॥
नेत्रे निमीलिते पादौ यत्र विस्तारिताञ्चितौ । भुजौ विस्तारितावूर्वोर्विष्कम्भतमिदं मतम् । भटा (द्रा)सने त्वनावृष्टे (?) नियुक्तं ध्यानयोगयोः ॥ ॥ इति विष्कम्भतम् ॥ ४ ॥
*
समौ पादावासनं च सममस्पृष्टभूतलम् । स्थानं तदुत्कटं योगध्यानसंध्याजपादिषु ॥ ॥ इत्युत्कटम् ॥ ५ ॥
*
शरीरमलसं नेत्रे मन्थराकारधारिणी । हस्तौ स्रस्तौ विमुक्तौ च तदा स्रस्तालसं मतम् । व्याधिमूर्च्छामदग्लानिहानि भीतिषु तन्मतम् ॥ ॥ इति स्रस्तालसम् ॥ ६॥
*
जानुनी भूमिसंस्थे चेत् स्थानं जानुगतं तदा । होमे देवार्चने दीनयाचने मृगदर्शने । क्रुद्धप्रसादने चैतत् कुसत्त्वत्रासने तथा ॥
॥ इति जानुगतम् ॥ ७ ॥
*
मुक्तजानूत्कटस्यैव जान्वेकं भूमिपृष्ठगम् । हवने सान्त्वने चैव सज्जने साधुकर्तृके । प्रसादने मानिनीनां विनियुक्तं महर्षिभिः ॥ ॥ इति मुक्तजानु ॥ ८ ॥
भूमिपातो विमुक्तं स्याद्धानि ( १ व ) क्रन्दादिषु स्मृतम् ॥ ॥ इति विमुक्तकम् ॥ ९ ॥ ॥ इति नवोपविष्टस्थानानि ॥
*
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1 ABO विष्कुम्भितम् | but see verse 10 and the footnote. 2 ABO धान्य । of योगे ध्याने भवेदेतत् स्वभावेन यदासने । सं, र, अ. ७ श्लो. ११००.
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नृ० २० को०- उल्लास २, परीक्षण १
[ सुप्तस्थानकानि । ]
उत्तानवदनं सुप्तं स्रस्तमुक्तकरं समम् ॥ ॥ इति समम् ॥ १ ॥
*
आकुञ्चितं स्यादाविद्धजानु चाकुञ्चिताङ्गकम् । शीतार्ताभिनये तस्य विनियोगः स्मृतो बुधैः ॥ ॥ इत्याकुञ्चितम् ॥ २ ॥
*
प्रसारिते भुजामेकामुपधाय प्रसारिते । सुप्तं जानुनि तत्स्थानं सुखसु प्रकीर्तितम् ॥ ॥ इति प्रसारितम् ॥ ३ ॥
*
शस्त्रक्षतादिके सुप्तमघोवकं विवर्तितम् ॥
॥ इति विवर्तितम् ॥ ४ ॥
*
कूर्पराधिष्ठितक्षोणि स्कन्ध' न्यस्तशिरस्तथा । सुप्तमुद्वाहितं प्रोक्तं प्रभोर्लीलाद्यवस्थितौ ।। ॥ इत्युद्वाहितम् ॥ ५ ॥
*
सुप्तं स्रस्तरद्वंद्वमीषत्प्रसृतजङ्घकम् । तत् स्थानकं नतं खेदश्रमालस्यादिषु स्मृतम् ॥ ॥ इति नतम् ॥ ६ ॥
॥ इति षट् सुप्तस्थानकानि ॥
*
[ सुप्तस्थानकान
ध्यानं वैष्णवमन्वहं प्रकुरुते शैवं तदा पूजनं ब्राह्मं धर्ममधिष्ठिते (? तं न कुरुतेऽन्यस्मै नतं खं शिरः । यत् स्वस्थं च मदालसं गतमतः क्रान्तं दुह्वन्मण्डलं सोऽयं सांप्रतमुत्कटं वितनुते तन्नागबन्धं सुधीः ॥ इति श्रीराजाधिराजश्री कुम्भकर्णमहो महेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्र्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे चारिकोल्लासे स्थानकपरीक्षणं प्रथमं समाप्तम् ।
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1 ABC स्कन्धं न्य° | compare स्कन्धन्यस्तशिरः । सं र, अ, ७ श्लो. ११०९. o drops the whole verse,
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नृ० २० को० - उल्लास २, परीक्षण २
द्वितीयोछासे द्वितीयं परीक्षणम् । विश्लिष्टा हरिणतानि दधती तिर्यखा कातरा जङ्घालङ्घनिकां गतिं प्रकुरुते तन्मन्द्रिणा ताडिता । विद्युद्भान्तिवशेन वैरिवनिता यस्योरुवेणीयुतेः संत्रासं भुजगोचितं विदधती नो कस्य हास्यास्पदम् ॥
*
[ चारी ।]
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चारीपदं तत्र चरेर्हि धातोरियं ततो ङीषि च भाव इष्टम् । कराञ्चितस्तच्चरणप्रदिष्टस्तत्साधकत्वेऽतिशयेन धीरैः ॥ विचित्रजङ्घाचरणोरुक व्यश्चिताक्रियाज्ञैर्गदितात्र चारी । भेदांस्तदीयानभिदध्महे तो मुनिप्रणीतं निगमं निरीक्ष्य ॥ तत्राङ्गिणैकेन हि जायमाना चारीति चार्येव तु कथ्यतेऽत्र । सैवात्र पादद्वयनिर्मिता बेचारी प्रदिष्टा करणं मुनीन्द्रैः ॥ नृत्तस्य चोक्तं करणात्पृथक्त्वेनैतद्यतोऽदञ्चरणप्रधानम् । सैवेह धा(?चा)रीकरणत्रये [ण] विनिर्मिता खण्डमिति प्रसिद्धा ॥ तैर्वा चतुर्भिस्त्रिभिरेव साध्या चारी स ( (म ) ता मण्डल' मत्र खण्डैः यत्रे भव (?) या त्रिभिरत्र खण्डैः खण्डै [चतुर्भि] तु[र]त्रके तु ॥ ६ सेयं प्रदिष्टा द्विविषेह भौमीत्याकाशिकीत्येव च मार्गजाताः । प्रत्येकशः षोडश भूमिजाता आकाशजा' देशभवा द्विधा च ॥ त्रिंशत्सपञ्चाः किल भौम्य इष्टा एकोनिता विंशतिरभ्रजाताः । पञ्चाशदुक्ता अधिकाश्चतुर्भिरुभय्य एवं मिलितास्तु जाताः ॥ तन्मार्गजा देशभवा मिलित्वा जाताश्च चार्यः षडशीतिसंख्याः । हस्ते तथा चाभिनये च गत्यां पादो यदा यो नटकेप्सितः स्यात् ॥ तदीयसंपत्त्युचितात्र चारी कार्या परा तूचितमादधाना । अन्योन्यमेवं नियमादियं तु व्यायामवाच्या भवतीह चारी ॥ अधोदिशामः खलु ताः समस्ता विभज्य चारीर्मुनिसंमतेन । तल्लक्षणं चाभिदधे निरीक्ष्य मुनिप्रणीतान्निखिलान्निबन्धान् ॥
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चारी ]
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५.
१०.
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1 BC मंत्र | In A the anusvāra is scratched. 2 ABC आकाशजातादेशभवा द्विधा व च ।
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नृ० १० को०- उल्लास २, परीक्षण २
[ मार्गचार्य: । ]
समपादा स्थिताad शकटास्या च विच्यवा । अध्यधिका चाषगतिरेलका क्रीडिता तथा ॥ समोत्सरितमत्तल्लीमत्तल्युत्खण्डिताडिता । स्पन्दितापस्पन्दिताख्या बद्धा च जनिताभिधा ॥ ऊरूद्वृत्तेत्यथ ब्रूमः षोडशाकाशिकीरिमाः । अतिक्रान्ताप्यपक्रान्ता पार्श्वक्रान्ता ऊर्ध्वजानुरलाता च सूची नूपुरपादिका । दोलापादा दण्डपादा विद्युद्घान्ता भ्रमयपि ॥ भुजङ्गत्रासिता क्षिप्ता विद्धोत्तेति कीर्तिता । भरताभिमताचार्यो द्वात्रिंशन्मिलितास्तु ताः ॥
मृगलुता ॥
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[ भौम्यश्चार्यः । ]
स्थानेन समपादेन कृत्वा पादौ निरन्तरौ । नटः समनखौ तिष्ठेत् समपादा तदोदिता ॥ मनु (? सा तु चारी चरणतो (? तः) प्रोक्ता कथमियं तथा । यतः स्थानसमा नैवं प्रचारस्य तु योग्यताम् । अङ्गीकृत्य प्रवृत्तेयं चारीस्थानेऽप्यसौ ततः ॥
॥ इति समपादा ॥ १ ॥
*
चरणान्तरपार्श्वं चेन्नीत्वाग्रतलसञ्चरः । अन्तर्जानु स्वस्तिकत्वं प्राप्यते च तथेतरः ॥ खपार्श्व नीयते पादो विकृष्यैतेन चेत्तदा । स्थितावर्ता भवेच्चारी,
॥ इति स्थितावर्ता ॥ २ ॥
*
[ माचार्यः
शकटास्या पुनर्यथा ॥ प्रसारितो भवेद्यत्र पादोऽग्रतलसश्चरः । उद्वाहितमुरो देहपूर्वभागः समुन्नतः । शकटक्षेपणे चास्या विनियोगः प्रकीर्तितः ॥ ॥ इति शकटास्या ॥ ३॥
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1 BO स्नानेन ; cf. स्थानकं समपादाख्यमास्थाय धरणी क्रमात् । बेमः in भ. को.
पृ. ७०३.
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विच्यवा] नृ०२० को०-उल्लास २, परीक्षण २
विच्युतौ समपादात(? या)श्चरणौ चेत्तलाग्रतः। निकुट्टयेतां धरिणीं विच्यवा प्रोच्यते तदा ॥
॥इति विच्यवा ॥४॥
वामः पादो दक्षिणांहेः पार्श्वदेशे निपात्यते। ततोऽपमृत्य दक्षः खे पार्श्वे व्यस्रतया स्थितः॥ सार्धतालान्तरत्वेन वामे पार्श्वे तथैव चेत् । दक्षिणो जायते व्यस्रस्तदा साध्यर्धिका भवेत् ॥ २४
॥ इत्यध्यर्घिका ॥५॥ दक्षिणे(?णा) ितालमात्रं पुरः स्मृ? कृत्वा द्वितालिकाम् । पृष्ठे याते समं पादावीषदुत्प्लुतिपूर्वकम् ॥ द्रुतोत्लुतोऽपमृत्यैव चरणावुपसर्पतः। पुनरुत्प्लुत्योऽपमृत्य कुर्यातामुपसर्पणम् । संत्रासादिव यत्रेयं बुधैश्वाषगतिः स्मृता॥
॥ इति चाषगतिः ॥ ६॥ किश्चिदुत्प्लुत्य पततो बत्राग्रतलसश्चरौ । क्रमेण चरणौ सेयमेलकाक्रीडितोदिता ।।
॥ इत्येलकाक्रीडिता ॥ ७॥
निहितेऽन्यस्य पादस्य मध्येऽग्रतलसश्चरे । कृते जङ्घाखस्तिकेऽन्यपादेऽग्रतलसञ्चरे ॥ घूर्णन्तौ यत्र कुर्वातेऽपमृति चोपसर्पणम् । समोत्सरितमत्तल्ली चारीयं मध्यमे मदे ॥
॥ इति समोत्सरितमत्तल्ली ॥ ८॥ अर्धव्यस्रौ यत्र पादौ जङ्घाखस्तिकमागतौ। भूमिश्लिष्टाखिलतलौ घूर्णन्तौ वोपसर्पतः। अथापसर्पतः सोक्ता मतल्ली तरुणे मदे ॥
. . ॥ इति मतली ॥९॥ अंहिः कनिष्ठयाङ्गुल्या तथाङ्गुष्ठेन च क्रमात् । १६ नृ० रन.
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० २० को ० - उल्लास २, परीक्षण २
रेचकस्यानुसारेण शनैः कुर्याद्गतागतम् । ar सोत्खण्डिता हस्तो रेचितोऽत्रेति केचन ॥ ॥ इत्युत्खण्डिता ॥ १० ॥
अग्रेण चाथ पृष्ठेन यत्राग्रतलसञ्चरम् । ताडयेच्चरणं पादः समः सोक्ताडिताभिधा || ॥ इत्यड़िता ॥ ११ ॥
*
पञ्चतालान्तरं तिर्यगर्दिक्षः प्रसारितः । निषण्णोरुसमो वामः स्पन्दिता सोच्यते बुधैः ॥ ॥ इति स्पन्दिता ॥ १२ ॥
*
एषैवाङ्गविपर्यासाचार्यपस्पन्दिता मता ॥ ॥ इत्यपस्पन्दिता ॥ १३ ॥
स्वस्तिकीकृत्य जङ्घे द्वे ऊर्वोर्बलनमाचरेत् । भक्त्वाथ स्वस्तिकं पादौ क्रियेतां मण्डलभ्रमम् । ततः पार्श्व गते खं खं यत्र बद्धेति सा मता ॥ ॥ इति बद्धा ॥ १४ ॥
*
वक्षःस्थो मुष्टिको हस्तः पादोऽग्रतलसञ्चरः । अन्यकरा' यथाशोभं चारी सा जनितोच्यते ॥ मुख्या पादक्रिया चास्यामितिकर्तव्यतेतरा । एतां देशीविदः केचिदाहुर्मुशल पादिकाम् || ॥ इति जनिता ॥ १५ ॥
*
पाणिरङ्गेतलसञ्चरस्य यदा भवेत् । अन्यापृिष्ठाभिमुखी जङ्गा च वलिता यदा ॥ एतद्विपर्ययाद्वाथ जङ्घा च नतजानुका । स्यादन्यजङ्घाभिमुखी लज्जेर्ष्यादौ नियोजिता ॥ ऊरूत्ताभिधा चारी चारीविद्भिस्तदोदिता । ॥ इति ऊरूट्टत्ता ॥ १६ ॥
*
1 ABC अन्यक्यरा ।
[ उत्खण्डिता
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आकाशिक्यश्चार्यः] नृ०र० को०-उल्लास २, परीक्षण २ नियुद्धयुद्धयोरेता अङ्गहारेषु च स्मृताः॥
॥ इति षोडश भौम्यश्चार्यः॥
[आकाशिक्यश्वार्यः।] अथ व्योमभवा चार्यो लक्ष्यन्तेऽनुक्रमेण हि । एकस्यानेगुल्फदेशे पादमुद्धृत्य कुश्चितम् ॥ पुरः किञ्चित् प्रसार्याथोत्क्षिप्य प्रकृतिलो(?मृतिर्लो)कव'त्। . चतुस्तालान्तरेणाथो पुनरग्रे निपातयेत् । अतिक्रान्ताभिधा चारी यत्र सोक्ता मनीषिभिः॥ ४२
॥ इत्यतिक्रान्ता ॥ १॥ विधाय बद्धां चारी चेत् कुश्चितं पादमुत्क्षिपेत् । 10 तमेव निःक्षिपेत् पार्श्वे तदापक्रान्तिका भवेत् ॥
. ॥ इत्यपक्रान्ता ॥२॥ कुञ्चितं पादमानीयोद्ध खपार्श्वन तत्परम् । भूमौ चेत् पातयेत् पाया पार्श्वक्रान्ता तदोदिता॥ ४४ सा पार्श्वदण्डपादेति प्रसिद्धा तद्विदामियम् । अन्योरुक्षेत्रपर्यन्तमुत्क्षिप्य चरणं ततः। पृथ्व्यामुद्धतिं न्यस्येद्विशेषं केचनाभ्यधुः ॥
॥ इति पार्श्वक्रान्ता ॥३॥ उत्क्षिप्य कुश्चितं पादमुत्प्लुत्याधो निपात्य तं। पराश्चितां च जवां च पृष्ठदेशे क्षिपेद्यदा। मृगप्लुता तदा चारी ज्ञेया कश्रुकिकर्तृका ॥
॥ इति मृगप्लुता ॥ ४॥ उत्क्षिप्तकुश्चितस्याङ्ग्रेर्जानु स्तनसमं नयेत् । स्तब्धं कुर्यादन्यमतिमैवमध्यन्तरेऽपि चेत् । कुर्यात्तदोर्ध्वजानुः स्यादिति चारीविदां मतम् । ४७ 25
॥ इत्यूर्वजानुः ॥ ५॥
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1 BO वित् । 2 ABC पार्यो पार्श्व | ef. पातयेत् पाणिना भूमौ पार्श्वक्रान्ता प्रकीर्तिप्ता । वेमः in. भ. को. पृ. ३६७.
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नृ० २० को ० -उल्लास २, परीक्षण २
पृष्ठ प्रसृतपादस्य परोर्वभिमुखं तलम् । कृत्वा पाणिः खपार्श्वं क्ष्मान्यस्त्व (? स्ता) लाता तदोदिता ॥ ४८ ॥ इत्यलाता ॥ ६ ॥
*
कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्यास्यैव जहां प्रसार्य च । जान्वन्तां वोरुपर्यन्तां तं पादं पातयेद्भुवि । अग्रयोगेन यस्यां सा चारी सूचीति कीर्तिता ॥ ॥ इति सूचि ॥ ७ ॥
*
अश्चितं चरणं नीत्वा पृष्ठतः पाणिना स्फिजम् । स्पृशेत्तं पाद(त) पेदग्रतलेन धरणीतले । यत्र सा चारिका प्रोक्ता बुधैर्नपुरपादिका ॥ ॥ इति नूपुरपादिका ॥ ८ ॥
*
कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य पार्श्वयोर्दोलयेत् शनैः । पाय न्यस्येत् स्वपार्ण्यात (खपार्श्वान्तं) 'दोलापादा तदोदिता ॥ ५१ ॥ इति दोलापादा ॥ ९॥
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[ अलाता
अन्यस्य पाष्णिदेशे चेन्नूपुरं चरणं नयेत् । स्वदेहदेशाभिमुखं जान्वग्रत्वेन वेगतः । अग्रे प्रसार्यते दण्डपादचारी तदोदिता ॥ ॥ इति दण्डपादा ॥ १० ॥
*
पृष्ठतो वलितं शीर्ष स्पृष्ट्वा भ्रान्त्वा च सर्पतः । पादः प्रसार्यते यस्यां विशुद्धान्ता तदोदिता ॥ ॥ इति विद्युता ॥ ११ ॥
*
अतिक्रान्तां विधायामुं पादं त्र्यस्रं विवर्तयेत् । त्र्यस्रपादतलभ्रान्त्या भ्राम्यते सकलं वपुः । यत्र तां भ्रमरी चारीमाह चारीविदग्रणीः || ॥ इति भ्रमरी ॥ १२ ॥
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1 of 'दक्षिणक्षेत्रान्तं स्वपार्श्व निनीय ततोऽपि स्वपार्श्व दोलयेदिति दोलाकारेण नयेत्, ततः स्वपार्श्वे पाय निपातयेत् । अ. गु. on verse ३६. अ. १०. ना. शा. Vol II. (GO.S.) p. 103. cf also सं. र. अ. ७ लो. ९५४.
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भुजङ्गवासिता] नु० र० को०-उल्लास २, परीक्षण २
कुञ्चितं पादमन्योरुमूलदेशान्तमुक्षिपेत् । -.. पाणि नितम्बाभिमुखीं जानु कुर्यात् खपार्श्वगम् ॥ कटीजानुर्विवर्तेनोत्तानं पादतलं तथा।। भुजङ्गत्रासगमका भुजङ्गवासिता तु सा ॥
॥ इति भुजङ्गवासिता ॥ १३ ॥ अन्यपार्श्व नयेत्पादं कुञ्चितीकृत्य यत्र च । तालत्रयान्तरोत्क्षिप्तं जङ्घयोः स्वस्तिकं ततः॥ कृत्वा तं पातयेद्भूमौ पाणिभागेन यत्र सा। आक्षिप्ता नाम चारी स्यादिति नृत्यविदो विदुः॥
॥ इत्याक्षिप्ता ॥ १४॥ खस्तिकीकृत्य विश्लिष्टे जोऽति कुञ्चितं ततः। प्रसार्य पातयेत् पाया परपाणिसमीपतः। खपाचे वाथ तां चारीमाविद्धामभणन् बुधाः॥
___॥ इत्याविद्धा ॥ १५॥ पादमाविद्धचारीकमन्योरुस्थितपार्णिकम् । विधायोत्प्लवनं कृत्वा ततो भ्रमरकं चरेत् ॥ तन्निपात्य ततो भूमौ तथान्येन समाचरेत् । अंहिणा यत्र तां चारीमुद्वृत्तां मेनिरे बुधाः॥
॥ इत्युत्ता ॥१६॥
आसां शेषस्तु विज्ञेयः परिभाषापरीक्षणे ॥
॥ इति द्वात्रिंशन्मार्गचारीलक्षणम् ॥ इति भरतमतेन मार्गचारी
पनृपतिर्निरदीधरत् समस्ताः। रदनपरिमिता विलोक्य धीमा
नभिनवभारतिकामुखानितम्बा(?बन्धा)न् ॥ ६३ 25 इति श्रीराजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे नृत्य[रत्न कोशे
- चारीकोल्लासे शुद्धचारीपरीक्षणं द्वितीयं [ समाप्तम्] ॥
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नृ० २० को० - उल्लास २, परीक्षण ३
द्वितीयोल्लासे तृतीयं परीक्षणम् । [ मङ्गलम् । ]
. नानादेशेषु यं देवमेककालमुपासकाः । पश्यन्ति सहशाकारं तस्मै सर्वात्मने नमः ॥
*
[ देशीचार्यः । ]
अव (?) देशी (श) स्थचारीणामुद्देशः प्रतिपाद्यते । रथचक्रा परावृत्ततला नूपुरविद्धिका ॥ तिर्यङ्मुखा मराला च करिहस्ता कुलीरिका । विश्लिष्टा कातरा पाणिरेचिताप्यूरुताडिता ॥ ऊरूवेणी तलोद्वृत्ता हरिणत्रासिका परा । अर्धमण्डलिका तिर्यक्कुञ्चिता च मदालसा ॥ सञ्चारितोत्कुञ्चिता च स्तम्भक्रीडनिका ततः । चारी लङ्घितजङ्घाख्या स्फुरिताप्यपकुञ्चिता ॥ अपि संघट्टिता खुत्ता खस्तिका तलदर्शिनी । पुराव्यर्धपुराटी च सरिका स्फुरिका ततः ॥ निकुहका लताक्षेपाप्यडुस्वलितिका परा । समस्खलितिका भौम्यः पञ्चत्रिंशदितीरिताः ॥ विद्युद्भान्ता पुरःक्षेपा विक्षेपा हरिणहुता । अपक्षेपा च डमरी दण्डपादाङ्गिताडिता ॥ जङ्गालङ्घनिकालाता जङ्घावर्ता च वेष्टनम् । उद्वेष्टनमथोत्क्षेपः पृष्टोत्क्षेपश्च सूचिका ॥ विद्धा प्रावृतमुल्लाल' इत्यत्रैकोनविंशतिः । आकाशिक्य उभय्यस्तु चतुःपञ्चाशदीरिताः । अथोद्देशानुरोधेन लक्ष्यन्ते क्रमतस्त्विमाः ॥
*
[देश्यो भौमचार्यः । ] चतुरस्रं समं कृत्वा संलग्नौ चेत् प्रदर्शयेत् । पादावग्रेऽथ पृष्ठे वा रथचक्रा तदा स्मृता ॥ ॥ इति रथचक्रा ॥ १ ॥
*
1 ABO उल्लास, but verse 60 gives उल्लाल° ।
[ देशीचार्यः
.
१०
११
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परावृत्ततला] नृ० र० को०-उल्लास २, परीक्षण ३
बहिश्चेत् प्रसृतः पाद उत्तानिततलः पुनः। पश्चाद्देशे तदा चारी परावृत्ततला स्मृता।
॥ इति परावृत्ततला ॥२॥ चरणौ खस्तिकीकृत्य पाष्योः पादाग्रयोस्तथा। रेचिती यत्र सा ज्ञेया चारी नूपुरविद्धिका ॥
॥ इति नूपुरविद्धिका ॥३॥ वर्धमानं समास्थाय पादौ चेद् द्रुतमानतः। सव्यापसव्यं सरतस्तदा तिर्यमुखा भवेत् ॥
॥ इति तिर्यमुखा ॥४॥ नन्द्यावर्तासनाजी चेत् पाणिप्रपदरेचितौ। पुरः प्रसारितौ चारी मराला साभिधीयते ॥
॥ इति मराला ॥५॥ . संहतं स्थानमास्थाय चरणौ यत्र घर्षति । धरणि पार्श्वदेशाभ्यां करिहस्ता तु सा स्मृता ॥
॥ इति करिहस्ता ॥६॥ नन्द्यावर्तस्थितावधी तिर्यग्यस्यां प्रसर्पतः। कुलीरिकेति सा प्रोक्ता चारी नृत्यविशारदैः॥ . .. ॥ इति कुलीरिका ॥ ७॥ विश्लिष्य पाणिविद्धायाश्चरणावुपसर्पतः। यद्वापसर्पतः सोक्ता विश्लिष्टा चारिका बुधैः॥
... ॥ इति विश्लिष्टा ॥ ८॥ नन्द्यावर्तस्थपादौ चेत् सरतः पृष्ठतो यदा। कातरा नाम सा चारी, .. ॥ इति कातरा ॥९॥
सा चोक्ता पाणिरेचिता। यस्यां पार्णिपार्श्वगते स्थाने स्थित्वाथ रेचयेत् ॥
॥ इति पाणिरेचिता ॥ १०॥
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१२८ नृ० र० को०-उल्लास २, परीक्षण ३ [ऊरुताडिता
पाणिरेकपदे स्थाने स्थितो भूम्याक्षिणात्र चेत्। . ऊरु ताडयति प्रोक्ता तदोरुताडिता बुधैः ॥
॥ इत्यूरुताडिता ॥११॥ पार्धाभ्यां यत्र चरणावूरूस्थखस्तिकाकृती। क्षितिसंघर्षतश्चारीमूरूवेणी तदादिशेत् ॥
॥ इत्यूरूवेणी ॥ १२ ॥ पादावग्रेऽङ्गुली पृष्ठभागेन सरतो द्रुतम् । पुरतश्चेत्तदा चारी तलोद्वृत्तेति संमता ॥
॥ इति तलोद्वत्ता ॥१३॥ तलेऽङ्गयोः स्वस्तिकीकृत्य कुञ्चिते वलितान्तके। उत्लुत्य निपतेतां चेद्धरिणत्रासिका तदा ॥
॥ इति हरिणत्रासिका ॥ १४॥ | पादौ यदा पहिर्नीती भूमिघर्षणतः शनैः । आवर्तेते तदा प्राहुरर्धमण्डलिकां बुधाः॥
॥ इत्यर्धमण्डलिका ॥ १५॥ तिर्यञ्च पादमाकुश्य यत्र तं प्रक्षिपेन्मुहुः। सा तिर्यक्कुञ्चिता चारी गदिता नृत्यकोविदैः॥
॥ इति तिर्यक्कुञ्चिता ॥ १६॥ मत्तवद्यत्र चरणावितश्चेतश्च विह्वलौ । 20 स्थाप्येते यत्र तामाहुश्वारीमेतां मदालसाम् ॥
॥ इति मदालसा ॥ १७ ॥ यदान्येनांहिणाऽन्योऽह्निरुत्क्षिप्योत्क्षिप्य कुञ्चितः। युज्यते तिर्यगन्यस्तु सर्पेत् सञ्चारिता तदा ॥
॥इति सञ्चारिता ॥१८॥ 25 एकैकमग्रतः पादौ न्यस्येदुत्क्षिप्य कुश्चितौ ।
1 ABo आवयेते. of. बहिर्नीतावावर्तेते । सं. र. अ. ७. श्लो. ९८५.
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स्तम्मक्रीडनिका] नृ०र० को०-उल्लास २, परीक्षण ३ यस्यां सोत्कुञ्चिता नाम,
॥ इत्युत्कुञ्चिता ॥ १९॥
.. स्तम्भक्रीडनिका तथा। तिर्यक् प्रसृतपादस्य यदा पार्श्व स्पृशेन्मुहुः ॥ तलेन चान्यपादस्या,
॥ इति स्तम्भक्रीडनिका ॥ २० ॥
-थ स्याल्लचितजविका। खण्डसूच्यभिधे स्थाने तिष्ठन्नहिस्तु वेगतः। आकृष्य लङ्घयतेऽन्येन चरणेन तदा तु सा ॥
_इति लक्वितजा ॥ २१॥ भूस्पृशौ पादपाश्चौं चेत् सरतो वेगतोऽग्रतः। स्फुरिता,
॥ इति स्फुरिता ॥२२॥
क्रमतोऽहिन्यां कुचिताभ्यां तु पृष्ठतः॥ गत्यापकुश्चिता ज्ञेया,
॥ इत्यपकुञ्चिता ॥ २३॥
स्थाने विषमसूचिके। स्थित्वोत्प्लुत्य पतन् पृथ्व्यामंही संघट्टयेद्यदा॥ सोक्ता संघट्टिता [........................]
॥ इति संघट्टिता ॥ २४ ॥ भूम्यां चरणाग्रेण घाततः खुत्ता निगद्यते॥
॥ इति खुत्ता ॥२५॥ पादोऽथ खस्तिकाकारकारितः खस्तिको मतः॥
___॥इति स्वस्तिकः ॥ २६॥ . खस्तिकौ चरणौ यत्र संहतस्थानके स्थितौ। तिर्यक पृथग्गतौ बाह्यपार्धाभ्यां भूतलं यदा। स्पृशतस्तत्र सा प्रोक्ता चारिका तलदर्शिनी ॥
॥ इति तलदर्शिनी ॥ २७॥
३०
१७ नृ० रन.
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नृ० १० को ० -उल्लास २, परीक्षण ३
पुराटिका मिथों हिभ्यामुत्ताभ्यां निकुहनात् ॥ ॥ इति पुराटी ॥ २८ ॥
*
उद्वृत्तस्यैकपादस्य चरणेन निकुट्टनम् । उद्वृत्तेन निकुहेन सा स्यादर्धपुराटिका ॥ ॥ इत्यर्धपुराटी ॥ २९ ॥
सारिका सा सरत्येकचरणोऽग्रे यदा तदा ॥ ॥ इति सारिका ॥ ३० ॥
*
समाभ्यां चरणाभ्यां तु स्फुरिका सरणं पुरः ॥ ॥ इति स्फुरिका ॥ ३१ ॥
*
अग्रेणाहेः कुञ्चितेन स्थितिः प्रोक्तो निकुट्टकः ॥ ॥ इति निकुट्टकः ॥ ३२ ॥
*
पश्चान्यस्य पुरस्ताच्च चरणश्चेत् प्रसार्यते । भूमिं निकट्टयेत्तेन लताक्षेपस्तदा भवेत् ॥ ॥ इति लताक्षेपः ॥ ३३ ॥
*
अस्खलितिका तिर्यक् स्खलिते चरणे भवेत् ॥ ॥ इति अस्खलितिका ॥ ३४ ॥
*
युगपच्चरणौ यत्र पुरतः पृष्ठतोऽपि च ।
तिर्यक च स्खलितः प्रोक्ता समस्खलितिका तदा ॥ ॥ इति समस्खलितिका ॥ ३५ ॥ ॥ इति पञ्चत्रिंशद्भौमचार्यः ॥
[ देश्य आकाशचायः । ] पुरस्तादंहिमुत्क्षिप्य भ्रामयित्वालिके द्रुतम् । भूमौ चेन्यस्यते प्रोक्ता विद्युद्भान्ता तदा बुधैः ॥ ॥ इति विद्युद्भान्ता ॥ १ ॥
*
कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य वेगाद्विस्तार्य चेत् पुरः । विन्यस्येदवनौ सोता पुरःक्षेपाभिधा बुधैः ॥
॥ इति पुरःक्षेपा ॥ २ ॥
*
1 A एकावरण | BO एकाश्चरो ।
[पुराटी
३५
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३७
३८
३९
४०
४१
४२
४३
४४
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विक्षेपा] नृ० र० को०-उल्लास २, परीक्षण ३
मुहुः प्रसार्य चरणमग्रतो गगनाङ्गणे। आकुञ्चयेत्तदा प्रोक्ता विक्षेपा नाम चारिका ॥
॥इति विक्षेपा ॥३॥ निपतेतां समुत्क्षिप्य यत्राही संहतो भुवि । हरिणीव तदा चारी विज्ञेया हरिणप्लुता॥
॥ इति हरिणप्लुता ॥४॥ ऊरुपृष्ठं स्पृशेदंहिर्षा पार्श्वेन यात्यथ । अन्यो नितम्ब निकटमपक्षेपा तदा स्मृता ॥
॥ इत्यपक्षेपा ॥५॥ कुश्तिश्चरणो यत्र वामतो दक्षतो अमेत् । डमरी स्यात्तदा,
- ॥ इति डमरी ॥६॥
दण्डपादाचारी तदोदिता। पादौ स्वस्तिकमावर्त्य तिर्यगूज़ यदोक्षिपेत् ॥
॥ इति दण्डपादा ॥ ७॥ यत्र विस्तारितावही लुतं कृत्वा परस्परम् । गगने ताडयेत्तां चेत् तलेनाबाधिताडिता ॥ ... ॥ इत्यक्रिताडिता ॥८॥ ईषवाकुश्चितं पादमन्यपादेन लल्येत् । गगने चेत्तदा प्रोक्ता जङ्घा लकुनिका बुधैः॥
॥ इति जबालकनिका ॥९॥ अङ्गिणा लख्यतेऽन्येन चरणः पृष्ठतो गतः। तवालाता विनिर्दिष्टा चारीनर्तनकोविदः॥
. ॥ इत्यलाता ॥ १० ॥ बहिर्धमणस्य चरणस्याङ्ग्रेरन्तभ्रमस्य च । तलं क्रमाजानुपार्वे जानुपृष्ठे च निःक्षिपेत् । जहावर्ता तदा प्रोक्ता चारीनर्तनचचना ॥
॥ इति जवावर्ता ॥११॥
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० २० को०- उल्लास २, परीक्षण ३
एकमन्येन पादेन वेष्टयेद्वेष्टनं तदा । तदेव चलनं प्राहुर्नृत्यवर्गणकर्मठाः ॥ ॥ इति वेष्टनम् ॥ १२ ॥
*
उद्वेष्टनं वेष्टयित्वा पृष्ठतोऽह प्रसारिते ॥ ॥ इत्युद्वेष्टनम् ॥ १३ ॥
*
पादमाकुञ्चितं पृष्ठे पुरतो वा क्षिपेयदि । जानुपर्यन्तमुत्क्षेपस्तदा चारी प्रकीर्तिता ॥ ॥ इत्युत्क्षेपः ॥ १४ ॥
*
पृष्ठतोऽस्मिन् प्रयुक्ते च पृष्ठोत्क्षेपो भवेदयम् ॥ ॥ इति पृष्टोत्क्षेपः ॥ १५ ॥
*
यस्यां विन्यस्य चरणं क्षितौ पार्श्वे नतं पुनः । प्रसारयति तीक्ष्णाग्रं सा सूची गंदिता बुधैः ॥ ॥ इति सूची ॥ १६ ॥ चरणौ स्वस्तिकीकृत्यैकं किञ्चिद्दोलयेत् पुरः । कुञ्चितं चरणं यत्र सा विद्धा परिकीर्तिता ॥ ॥ इति विद्धा ॥ १७ ॥
*
·
उद्वृत्तचरणो मूर्तिर्ललिता बलिता भवेत् । यत्र तत् प्रावृतं ज्ञेयं कामकेलिविवर्धनम् ॥ ॥ इति प्रावृतम् ॥ १८ ॥
*
क्रमेणोल्लालयेयत्र चरणौ गगने नटः । उल्लालः स तु विज्ञेयश्चारिकामूर्धसु स्थितः ॥
॥ इत्युल्लालः ॥ १९ ॥
*
[ वेष्टनम्
५३
५४
५६
इत्येकोनविंशतिराकाशचार्यः । इत्युभय्यश्चतुःपञ्चाशद्देशीचार्यः ॥ इति षडशीतिर्मागदेशीचार्यः ।
देशे देशेषु यत्कीर्तिरमला सर्वसङ्गिनी । विचरत्यत्र तेनेयं चारपद्धतिरीरिता ॥
इति श्रीराजाधिराजकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्यां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे चारिकोल्लासे देशीचारीलक्षणं नाम तृतीयं परीक्षणं [ समाप्तम् ] ।
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रेचकलक्षणम्] नु०र० को उल्लास २, परीक्षण ३
[कलानिधेरुद्धृतं रेचकदेशीचार्यादिविषयकं प्रकरणम् ] [रेचकानथ वक्ष्यामश्चतुरो भरतोदितान्। पादयोः करयोः कव्या ग्रीवायाच भवन्ति ते ॥ पार्ण्यङ्गुष्ठाग्रयोरन्तर्बहिश्च सततं गतिः।.. नमनोनमनोपेता प्रोच्यते पादरेचकः ।। .. परितो भ्रमणं तूर्ण हस्तयोहेसपक्षयोः। यत्पर्यायेण रचितं स भवेत्कररेचकः॥ विरलप्रसृताङ्गुष्ठाङ्गुलेस्तिर्यग्भ्रमेण च । सर्वतो भ्रमण कव्याः कटीरेचकमूचिरे ॥ ग्रीवाया विधुतम्रान्तिः कथ्यते कण्ठरेचकः। .. अङ्गहाराङ्गमप्येते जनयन्ति पृथक् फलम् ॥
॥ इति रेचकलक्षणम् ॥] __ 'तन्त्र पादरेचकं लक्षयति । पार्ण्यङ्गुष्ठयोरित्यादि।
नमनोन्नमनोपेता अन्तर्गतिर्भवति तदा पाणेरुममनोपेता पहिर्गतिर्भवतीति द्रष्टव्यम् ॥१॥ कररेचकं लक्षयति । परितो भ्रमण-॥ मित्यादि हंसपक्षयोर्हस्तयोः पर्यायेण रचितं तूर्ण पुरतो यद्भमणं अन्तर्बहिश्चेत्यर्थे वामदक्षिणहस्तयोरेकस्मिन् हंसपक्षे अन्तर्धमणं कुर्वति तदन्यो वा भ्रमणं करोति एवं पर्यायेण क्रियते चेत् स कर
1 The text of this part in all the three mss. is as given above. There is a mention in it of कलानिधि, a commentary on सं. र. On comparing the corresponding portions of . t and its commentary कलानिधि with our text, we find that it is practically an abstract from कलानिधि. It may be that the corresponding verses of नृत्यरत्नalat are missing in our mss. or more probably the verses might have been similar to those of सं.र. (श्लो.८९२-९६). Hence to give the idea of the substance of the verse-text, we quote in this bracket [ ] the verses on which, Kalanidhi's commentary has been quoted by : our author. . .
2 The matter from नमनोनमनोपेता to प्रकृतमनुसरामः (E. 138 ) is obviously a digression, the matter being taken as noted above from सं.र. and its commentary कलानिधि of कलिनाथ. It is therefore difficult to ascertain where the third परीक्षण of the seeond. उल्लास must have ended. We have followed the mag. and treated the intervening matter as a digression.
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नृ० र० को०-उल्लास २, परीक्षण ३ [ देशीचार्यः रेचको भोत् ॥२॥ कटिरेचकं लक्षयति। सर्वतो भ्रमणमिति । तच्च भ्रमरीमेदेष्वनुगतं द्रष्टव्यम् ॥३॥ कण्ठरेचकं लक्षयति ग्रीवाया इति॥
अथवा ॥ ४॥कलानिधेमध्यात् ॥ भरतानुक्रमे सति कोहलायुक्तत्वाद् द्रष्टव्यम् ।
लोके मुडपसंज्ञकाचारीविशेषा अपि देशीचारीष्वेवान्तर्भूता मन्तव्या । यथा
[देशीचार्यः] अथ पादनिकुद्दाख्यचारीणां लक्षणं ब्रुवे। पादकुट्टनचारी तु लोके मुडुपसंज्ञिका ॥ तस्यास्तु षहवो भेदा दिनमात्रं चोच्यते मया। .. सव्यापसव्यवलनं पादचारीषु चोच्यते ॥ निकुटनं तु पादेन ताडनं स्यान्महीतले। उद्देशः क्रियतेऽन्वर्थश्चारीणां खो चितो मतः॥ पुर:पश्चास्सरा नाम पश्चात्पुरःसरा तथा। त्रिकोणचारी पश्चाच तथैकपादकुहिता ॥ पादद्वयनिकुहाख्या पादस्थिति निकुट्टिता। क्रमपावनिकुट्टा च पार्श्वद्वयचरी तथा ॥ चारी डमरुकुहाख्या डमरुद्वयकुहिता। पुरःक्षेपनिकुटा च पश्चात्क्षेपनिकुहिता॥ पार्श्वक्षेपनिकुटा च चतुष्कोणाख्यकुहिता । मध्यस्थापनकुटा च तिरश्चीनाख्यकुहिता ॥ चारी च पृष्ठलुलि(?ठि)ता पुरस्ताल्लुलि(?ठि)ता तथा । अनुलोमविलोमाख्या प्रतिलोमानुलोमिका ॥ समपादनिकुटा च चक्रकुनिका ततः। मध्यचक्रा ततो मध्यलुठिता चक्र (१वक्त्र)कुहिता ॥ पञ्चविंशतिसंख्या[श्च] कीर्तिता बर्थयोगतः। एवमन्याश्च कर्तव्याश्चार्यश्चान्वर्थलक्षणाः ॥
1 50 भ्रमण कलानिधेमध्यात् मिति। A has the same reading but there is a mark of deletion on it like this: "कलानिधेर्मध्यात्"। 2 ABC मधुप कलानिधि सं. र. पृ. ३१३ । 3 ABO सोचितो of. स्वोचितो। क. नि. पृ. ३१३. (सं. र.)। 4 पादस्थिति। क. नि. पृ. ३१३ (सं. र.)। 5 of. वक्त्रकुट्टिता। क.नि. पृ.३१३ (सं.र.)
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पुरः पश्चात्सरा ] नृ० ८० को०- उल्लास २, परीक्षण ३ पादशिक्षासु कर्तव्याः कर्तव्या याच नर्तने' । निकुथ च तलेनादौ पुरः पञ्चाद्विधीयते ॥ पादश्चाङ्गुलिपृष्ठेन स्वस्थाने चापि कुहितः । पुरःपश्चात्सरा नाम सान्वर्था परिकीर्तिता ॥ ॥ इति पुरःपश्चात्सरा ॥ १ ॥
*
सैव पश्चात् पुरःक्षेपात् प्रोक्ता पश्चात्पुरःसरा ॥ ॥ इति पश्चात्पुरःसरा ॥ २ ॥
*
कुट्टितश्च खपार्श्वे च स्थापितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पुनर्निहितः स्थाने सा चैकपाद कुहिता ॥ ॥ इत्येकपादकुट्टिता ॥ ४ ॥
*
एवं पादद्वयकृता सा पादद्वयकुट्टिता । ॥ इति पादद्वयकुट्टिता ॥ ५ ॥
*
कुहितः प्रथमं पादः स्थितश्चाङ्गुलिपृष्ठतः ॥ अन्यस्ततः कुट्टितश्चेत्पादस्थितिनिकुट्टिता । ॥ इति पादस्थितिनिकुट्टिता ॥ ६ ॥
१४
निवेश्य (वेशि ) तो ख (त्व)घः पादः स्थापितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । निकुट्टितः पुरस्ताच्च पार्श्वे पृष्ठे निवेशितः ॥ चरणाङ्गुलिपृष्ठेन तथा स्थाने च कुहितः । त्रिकोणचारी सोद्दिष्टा चारी चान्वर्यसंज्ञिता ॥ ॥ इति त्रिकोणचारी ॥ ३ ॥
*
*
पादद्वयकृता सैव' क्रमपादनिकुहिता ॥
॥ इति क्रमपादनिकुट्टिता ॥ ७ ॥
*
कुतोऽङ्गुलिपृष्ठे च स्थितः पादोऽपरस्ततः । स्वस्तिकस्थापितः पूर्वः खपार्श्वे स्थलकुट्टितः । एवं पादद्वयेनापि सा पार्श्वद्वयचारिणी ॥
॥ इति पार्श्वद्वयचारी ॥ ८ ॥
*
१.३५
1 BO नर्तके | 2 4 पादध्यं कृता । BO द्ययं कृत्वा ।
११
१२
१३
१६
5
१५०
१७
10
15
20
१८.
१९ 25
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5
10
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११६
० २० को०-उल्लास २, परीक्षण ३
कुहितवरणः पूर्व लुठितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पश्चान्निकुट्टितस्थाने भवेडुमरुकुट्टिता ॥ ॥ इति डमरुकुट्टिता ॥ ९ ॥
*
पादद्वयकृता सा चेडुमरुद्वयकुहिता ॥
॥ इति डमरुद्वयकुट्टिता ॥ १० ॥
कुहितञ्चरणः पूर्वं पुरतोऽङ्गुलिपृष्ठतः । स्थापितः कुहितः स्थाने पुरःक्षेपनिकुहिता ॥ ॥ इति पुरः क्षेपनिकुट्टिता ॥ ११ ॥
पश्चात् क्षेपाच सा प्रोक्ता पश्चात्क्षेपनिकुहिता ॥ ॥ इति पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता ॥ १२ ॥
*
पार्श्वतश्च पुनःक्षेपात्पार्श्वक्षेपाख्यकुट्टिता ॥ ॥ इति पार्श्वक्षेपकुट्टिता ॥ १३ ॥
कुट्टितश्चरणः पूर्व पुरःपञ्चान्निवेशितः । त्र्याभावात् पुनश्चापि पुरः पश्चात्तदन्यथा । कुहितञ्च ततः स्थाने चतुष्कोणाख्यकुहिता ॥ ॥ इति चतुष्कोणकुट्टिता ॥ १४ ॥
*
कुहितः प्रथमं पादः पुरःपञ्चान्निवेशितः । मध्ये निवेशितश्चायं पुनस्तत्रैव कुहितः । मध्यस्थापनकुट्टाख्या चारी चान्वर्थलक्षणा ॥ ॥ इति मध्यस्थापनकुट्टा ॥ १५ ॥
*
हितश्चरण: पूर्व क्षिप्त चापि खपार्श्वके । निक्षिप्तचापि मध्ये च तत्रापि च निकुट्टितः । सा तिरश्चीनकुट्टाख्या प्रोक्ता 'सार्धप्रसारिका ॥
॥ इति तिरश्चीनकुट्टा अर्धप्रसारिका वा ॥ १६ ॥
*
[ डमरुकुट्टिता
२०
२१
२२
२३
२४
२५
२६
२७
...
10 चतुरकोणाख्य' | AB चतुष्कोणाख्य । 2 drops from श्चापि इति तिर' | 3 सार्थप्रचारिका । क. नि. पृ. ३१६ (सं. ८ )
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नृ० १० को ० - उल्लास २, परीक्षण ३
कुञ्चि (? हितश्चरणः पृष्ठे लुठितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पुनश्च कुतिस्थाने सा पृष्ठलुठिताभिघा ॥ ॥ इति पृष्ठलुठिता ॥ १७ ॥
पृष्ठता]
*
पुरस्ताच कृता सैव पुरस्तालुठिताभिधा ॥ ॥ इति पुरस्तालुठिता ॥ १८ ॥
त्रिकोणचारी या चारी त्वनुलोमविलोमगा । स्वस्थाने स्थापितपदा ततस्तत्रापि कुहिता । सानुलोमविलोमाख्या चारीयं परिकीर्तिता ॥ ॥ इत्यनुलोमविलोमा ॥ १९ ॥
*
विपरीत प्रचारा सा प्रतिलोमविलोमिका ॥ ॥ इति प्रतिलोमविलोमिका ॥ २० ॥
*
निहितौ समौ पादी स्थितौ चाङ्गुलिपृष्ठयोः । समपादनिकुट्टा च कीर्तिता त्वर्थलक्षणा ॥
॥ इति समपादनिकुट्टिता ॥ २१ ॥
*
कुहितं चरणं पञ्चाङ्गामयित्वा च विन्यसेत् । कुयेच ततः स्थाने चक्रकुट्टनिका मता ॥ ॥ इति चक्रकुट्टनिका ॥ २२ ॥
*
कुयित्वा च विन्यस्य लुठितश्च निकुहितः । सा मध्यलुठिता चेति कीर्तितान्वर्थनामका ॥ ॥ इति मध्यलुठिता ॥ २३ ॥
*
कुहयित्वा च विन्यस्य भ्रामितो लुठितस्ततः । कुहितः स पुनः स्थाने वक्त्रकुट्टनिकाभिधा ॥ ॥ इति वक्त्रकुट्टनिका' ॥ २४ ॥
*
कुहयित्वा च विन्यस्य भ्रामयित्वा न्यसेत्ततः । निकट्टयेत्ततः स्थाने मध्यचक्रा प्रकीर्तिता ॥
॥ इति मध्यचका ॥ २५ ॥
*
1 ABO चक्रकुट्टनिका. of वक्त्रकुट्टनिका । क. नि. पृ. ३१७ (सं. र. ).
१८ ReTo
१८
२९
३१
5
३२
३३
३४
३५
15
20
३६२०
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नृ०० को०-उल्लास २, परीक्षण ४ [मण्डललगानम् एवं प्रकीर्तिताश्चार्यः पञ्चविंशतिः संख्यया। एवमन्याश्च विज्ञेयाश्चार्योऽप्यूह्या मनीषिभिः॥ ३७ इति प्रसङ्गान्मुडुपसंबकाचार्यों दर्शिताः । प्रकृतमनुसरामः॥
10
द्वितीयोल्लासे चतुर्थ परीक्षणम्। यन्मण्डलं भूर्भुवः स्वः प्रकाशाय प्रवर्तते । वरेण्यं सवितुस्तन्मे व्याधिनाशाय कल्पताम् ॥
[मण्डललक्षणम् ।] लक्ष्मप्रकरणे पूर्व मण्डलं लक्षितं मया। .. तढ़ेदानधुना वच्मि भ्रमरास्कन्दिते ततः॥ आवर्त 'शकटास्याख्यं तथा चैवाडितं परम् ।। समोत्सरितमध्यर्धमेलकाक्रीडितं ततः॥ पृष्ठकुटुं चाषगतं भौमानीति दश क्रमात् । अतिक्रान्तं दण्डपादं क्रान्तं ललितसञ्चरम् ॥ सूचीविद्धं वामविद्धं विचित्रं विहृतं ततः। अलातं ललितं चेति दशाकाशभवानि च ॥ भौमाकाशिकचारीणां कार्यत्वान्मण्डलान्यपि । कारणानुगुणत्वेन भौमान्याकाशिकान्यपि ॥ प्रायेणैषां नियोगस्तु विज्ञेयः शस्त्रमोक्षणे । युद्धे चाकाशिकानां तु प्राधान्यं मुनयोऽववन् ॥
[भौममण्डलानि ।] चारीविवक्षया ज्ञेयश्चरणोऽत्र विजानतः। न न्यूनाधिकता दुष्या मण्डले चारिकागता॥ दक्षिणे जनितां कुर्याद् वामेऽथ स्पन्दितां तथा। दक्षिणे शकटास्यां च वामेऽपस्पन्दितां तथा ॥ दक्षिणे भ्रमरी वामे स्पन्दितामितरे पुनः । शकटास्यां चाषगति वामे भ्रमरिकां तथा। दक्षिणे स्पन्दितां वामे विदध्याद्रमरे बुधः॥
॥इति भ्रमरम् ॥१॥
20
25
1 See appendix I for the text of Kalānidhi. 2 ABO PETTET I
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आदितम् )
नृ० २० को उल्लास २, परीक्षण ४
दक्षिणो भ्रमरो वामोsडितोऽथ भ्रमरः स चेत् । शकटात्यो भवन्वक्ष ऊरूत्तो भवेत्ततः ॥ अध्यर्षिको भवन्वामो भ्रमरः स्यात्तथेतरः । स्पन्दितः शकटास्यस्तु वामः सोऽप्येव भूतलम् । स्फुटमास्फोटयेद्यत्र तदास्कन्दितमुच्यते ॥ ॥ इत्यास्कन्दितम् ॥ २ ॥
*
दक्षिणो जनितो वामः स्थितावर्तस्ततः परम् । शकटास्यत्वमप्यैवमेलकाक्रीडितां श्रयेत् ॥ ऊरूत्ताडिते चार्यौ जनितामाश्रयेत्ततः । समोत्सरितमत्तलिः क्रमादङ्गिस्तु दक्षिणः ॥ शकटात्यां भजन् चारीमूरुद्वृत्तस्तथेतरः । अविश्वाषगतिर्द्विः स्याद्दक्षिणस्पन्दितस्ततः ॥ शकटात्यो भवेद्वामो दक्षिणो भ्रमरो भवेत् । वामश्चाषगतिर्यत्र तदावर्त स्मृतं बुधैः ॥
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॥ इत्यावर्तम् ॥ ३ ॥ दक्षिणो जनितो भूत्वा 'स्थितावर्ती भवेत्ततः । समोत्सरितमत्तलिः शकटास्यस्ततः परम् ॥ वामस्तु स्पन्दितो भूत्वा यावन्मण्डलपूरणम् । शकटास्यो भवेes शकटास्याभिधं तु तत् ॥ ॥ इति शकटास्यम् ॥ ४ ॥
उद्घाटितस्ततो बद्धः समोत्सरितपूर्वकः । 'मत्तलिरमत्तल्लिरपक्रान्ताभिधस्ततः ॥ उद्वृत्तो विद्युद्रान्तश्च भ्रमरः स्पन्दितस्तथा । दक्षिणो वामपादस्तु शकटास्यः परः पुनः ॥ द्विः स्याचाषगतिर्वामोऽतोऽभ्यर्धिकतां गतः । तथा चाषगतिर्दक्षः समोत्सरितमत्तलिः ॥ मतलिर्भ्रमरश्चैव वामोऽथो दक्षिणः पुनः । स्पन्दितां चारिकां कृत्वा भूतटास्फोटनं यदा । कुरुते प्राहुराचार्यास्तदा मण्डलमतिम् ॥
[ ॥ इत्यडितम् ॥ ५ ॥ ]
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२०
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1 Bc omit from स्थितावर्तो to भूत्वा । 2 ABO मतल्लिरथ of मत्तलिरर्घमचलिर' सं. र. अ. ७. लो. ११६०.
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नृ० र० को ० -उल्लास २, परीक्षण ४
समपादं समास्थाय स्थानं हस्तौ निरन्तरौ । ऊर्ध्वकृती प्रसायैवा 'प्यावेष्टयोद्वेष्ट्य च क्षिपेत् ॥ कटीत ततः पादौ क्रमाद्दक्षिणवामकौ । भ्रामयेच्च ततो वामं पुरः पादं प्रसारयेत् ॥ क्रमादेवं नटो भ्रान्त्वा मण्डलभ्रमणं भजेत् । चतुर्दिकं तदा प्रोक्तं समोत्सरितसंज्ञकम् ॥ ॥ इति समोत्सरितम् ॥ ६ ॥
*
जनितः स्पन्दितश्चैकदक्षिणश्चरणो भवेत् । वामोserofर्धको भूत्वा क्रमाचाषगतिर्भवेत् ॥ मत्तलिर्भ्रमरश्चैव दक्षिणः शकटास्यताम् । प्राप्य चान्ते चतुर्द्दिकं मण्डलभ्रमणं यदा । तदा नियुद्ध विषयमध्य मण्डलं भवेत् ॥
॥ इत्यध्यर्धम् ॥ ७ ॥
*
पदैर्भूमियुतैः सूचीविद्धाख्यं करणं श्रितैः । सूचीचारीयुतैर्विद्धा प्रयोगैरेलकादिकैः ॥ क्रीडितैः पूर्णभ्रमरै[व] सूचीविद्धाभिस्तथा । पूर्ववत् संप्रयुक्तैश्च तथाक्षिप्तैः पदक्रमैः ॥ दिकचतुष्टयसंयुक्तमण्डलभ्रान्तिसंयुतैः । कटिरेचितकैश्चैवमेलकाक्रीडिताह्रयम् ॥ ॥ इत्येल काक्रीडितम् ॥ ८ ॥
*
सूचीदक्षिणपादः स्यात् वामोऽपक्रान्तया युतः । बहुशो दक्षवामौ च भुजङ्गत्रासिताभिधौ । अन्ते च मण्डलभ्रान्तिः पृष्ठकुद्धं तदा भवेत् ॥ ॥ इति पृष्ठकुट्टम् ॥ ९ ॥
*
बहुशभाषगतिभिश्वरणैः सकलैर्यदा । मण्डलभ्रमणं कुर्यादन्ते चाषगतं तदा । नियुद्ध विषयं ह्येतत् प्रयुक्तं भरतादिभिः ॥
॥ इति चाषगतम् ॥ १० ॥
॥ इति दशभौममण्डलानि ॥
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'1 BO बायावे' । 2 0 इत्येलकाक्रीक्रीडितम् ।
[ सम
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भाक्षिकमण्डलानि] नु०० को-उल्लास २, परीक्षण -
. [आकाशिकमण्डलानि ।] दक्षिणो जनितां कुर्यात् शकटास्यां क्रमाचंदा। वामोऽलातो दक्षिणस्तु पार्श्वक्रान्तस्तु वामकः ।.. सूची च भ्रमरश्चैव दक्ष उदृत्ततां ब्रजेत् । वामस्त्वालातिकोऽथाजी छिन्नं करणमाश्रितौ ॥ बाह्यभ्रमरकं यत्र वामसङ्गं च रेचितम् । अतिक्रान्तायुतो वामो दण्डपादायुतः परः। अतिक्रान्तं तदा ज्ञेयं मण्डलं शङ्करप्रियम् ॥
॥ इत्यतिक्रान्तम् ॥ १॥ दक्षिणे जनितां कृत्वा दण्डपादां भजेदथ। . सूची च भ्रमरी वामे उबृत्तां दक्षिणे पुनः॥ वामेऽलातां तदा दक्षे पार्श्वक्रान्तां परे पुनः। . भुजङ्गत्रासितां कुर्याद्वामोऽतिक्रान्ततां भजेत् ॥ दक्षिणो दण्डपादोऽथ सूची च भ्रमरी परे। यत्र तद्दण्डपादाख्यं मण्डलं भणितं बुधैः॥
॥ इति दण्डपादम् ॥ २॥ सूचीदक्षस्तथा वामोऽपक्रान्तो दक्षिणः पुनः। पार्श्वकान्तस्ततो वामः समंतामण्डलभ्रमम् ॥ .. कृत्वा सूचीभवन् दक्षोऽपक्रान्तो यत्र मण्डले । तदुक्तं कविभिः कान्तं स्वाभाविकगतौ स्मृतम् ॥
- ॥ इति कान्तम् ॥३॥ सोर्धजानुः स सूचीको दक्षिणश्चरणस्ततः । अपक्रान्तीभवेद्वामः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः॥ पार्थक्रान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तो दक्षिणः पुनः । सूचीवामस्त्वपक्रान्तः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥ . अतिक्रान्तस्ततो वामश्चरणद्वितयं ततः। छिन्नं 'करणमाश्रित्य बाह्यभ्रमरकं ततः। वामश्चेल्ललितं कुर्यात्तदा ललितसश्चरम् ॥
॥ इति ललितसञ्चरम् ॥ ४॥
1 80 पुरे पुनः। 2 50 करमाश्रित्य ।
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०२० को०- उल्लास २, परीक्षण ४
क्रमात् सूची व भ्रमरः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः । अतिक्रान्तो भवेद्वामो दक्षः सूचीं समाश्रयेत् ॥ अपक्रान्तस्ततो वामः पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः । - सूचीविद्धं तदाख्यातं मण्डलं मण्डलेश्वरैः ॥ ॥ इति सूचीविद्धम् ॥ ५ ॥
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सूचीदक्षस्तथा वामोऽपक्रान्तो दक्षिणः पुनः । दण्डपादोsथ वामस्तु सूचीं च भ्रमरीं श्रयेत् ॥ पार्श्वकान्तो दक्षिणः स्यादाक्षिप्तो दक्षिणे ततः । दण्डपादस्ततश्चोरूद्वृत्तः स्याद्दक्षिणः क्रमात् ॥ वामः सूची च भ्रमरोऽलातश्च क्रमतो भवेत् । पार्श्वक्रान्तां भजेद्दक्षो वामोऽतिक्रान्ततां व्रजेत् । वाविद्धं तदाख्यातं मण्डलं मण्डलार्थिभिः ॥ ॥ इति वामविद्धम् ॥ ६ ॥
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[सूचीषिसम्
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चारीं च जनितां कृत्वोरुद्वृत्तैश्चैव विच्यवः । स्थितावर्तः शकटास्य एलकाक्रीडितस्ततः ॥ ऊरूद्वृत्तोऽतिश्चैव जनितस्तदनन्तरम् । समोत्सरितमत्तल्लिः क्रमादनिस्तु दक्षिणः ॥ वामस्तु स्पन्दितां कुर्यात् पार्श्वक्रान्तां तु दक्षिणः । भुजङ्गत्रासितां वामो दक्षोऽतिक्रान्ततां व्रजेत् ॥ उद्वृत्तत्वं चैष 'वामोऽलातः स्याद्दक्षिणः पुनः । पार्श्वक्रान्तः पुनः सूची वामो दक्षं च विक्षिपेत् । अपक्रान्तां 'भजेद्वामस्तद्विचित्रमुदाहृतम् ॥ [ ॥ इति विचित्रम् ॥ ७ ७ ॥] 'विच्यवोत्खण्डिते कुर्वन् पार्श्वक्रान्तोऽत्र दक्षिणः । स्पन्दितो वामपादः स्यादुद्वृत्तो दक्षिणो भवेत् वामोऽलातो दक्षिणस्तु चारी सूचीमुपाश्रयेत् । पार्श्वक्रान्तस्तु वामोऽङ्गिराक्षिप्तीभूय दक्षिणः ॥ सव्यापसव्यं भ्रमणात् दण्डपादां भजेत्ततः । [वामः क्रमेण सूची स्याद् भ्रमरश्चाथ दक्षिणः ।
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10 भवेद्दक्षो । 20 मालोलातः । 30 भवेद्वाम | 4 Bo drop the whole
verse.
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नृ० ८० को०- उल्लास २, परीक्षण
भुजङ्गत्रासितो वामोऽतिक्रान्तो विहृताभिषे ॥ ॥ इति विहृतम् ॥ ८ ॥
अलातम् ]
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सूचीं च भ्रमरीं वामे क्रमात्पादे तु दक्षिणे' । ] 'मुजङ्गत्रासितः पश्चादलातो दक्षिणेतरः ॥ आवृत्तिभिः सप्तभिर्वा षङ्गिर्वा क्रमतस्त्विमाः । चारीः कृत्वा चतुर्दिक्षु भ्रान्त्वा मण्डलबहुतम् ॥ अपक्रान्ता दक्षिणे तु वामे तु चरणे पुनः । अतिक्रान्ता भ्रमरिके ललितैश्चरणक्रमैः । कुर्यादलातं तं प्राहुर्मण्डलं चित्रमण्डलम् ॥
॥ इत्यलातम् ॥ ९ ॥
*
दक्षिणश्चरणः सूचीं वामोऽपक्रान्ततां भजेत् । पार्श्वक्रान्तीभवन् दक्षो भुजङ्गत्रासितो भवेत् ॥ अतिक्रान्तां चरेद्वाम आक्षिप्तो दक्षिणो भवेत् । वामक्रमादतिक्रान्तोरुद्वृत्तालातकी भवेत् ॥ पार्श्वकान्तो दक्षिणस्तु सूचीवामोऽथ दक्षिणः । अपक्रान्तो वामपादस्त्व [तिक्रान्तो ] भवेद्यदा । तदुक्तं ललितं यत्र संचरेल्ललितं नटः ॥
॥ इति ललितम् ॥ १० ॥
*
॥ इति दशाकाशिक मण्डलानि ॥ ॥ इति मण्डललक्षणम् ॥
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६०.
10
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६१/
] are verses no-1198-99
1 Verses between this bracket[ (a) taken from S. R. Ad. 7. as they are missing in our mss. 2 BO वामोप्यदक्षिणः ।
20
विचित्रैर्विहृतैर्येनातिक्रान्तं वैरिमण्डलम् उल्लासितं जगद्येन पादैर्ललितसञ्चरैः । एकलिङ्गप्रसादेन मण्डले यस्य नित्यशः नेतयस्तेन राज्ञेदं कृतं मण्डललक्षणम् ॥
६२
इति श्रीसरस्वतीरससमुद्भूतकैरवोद्याननायकेन अभिनवभरताचार्येण मालवाम्भो- 25 विमाथमन्थमहीधरेण योगिनीप्रसादासादितयोगिनीपुरेण मण्डलदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण अजयमेरुजयाजेयविभवेन यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण शाकंभरीरमणपरिशीलन परिप्राप्तशाकंभरीतोषितशाकंभरीप्रमुखशक्तित्रयेण
नागपुरोद्भूतप्रचण्डपवनेन
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________________ र को०-उल्लास 2, परीक्षण 4 श्रीमत्कुंभ[ल] मेरुनवीननिर्मितसुमेरुणा. श्रीचित्रकूटभौमवर्गतातन्वीकरणरचितचारुतरपथेन मेदपाटसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन अरिराजमत्तमातङ्गपश्चाननेन प्ररूढपत्रयवनदवदहनदवानलेन प्रत्यर्थिपृथिवीपतितिमिरततिनिराकरणप्रौढप्रतापमार्तण्डेन वैरिवनितावैधव्युदीक्षादानदक्षोद्दण्डकोदण्डदण्डमण्डिताखण्डभुजादण्डेन भूमण्डलाखण्डलेन श्रीचित्र5 कूटविभुना अध्युष्टतमनरेश्वरेण गजनरतुरगाधीशराजत्रितयतोडरमल्लेन वेदमार्गस्थापनचतुराननेन याचककल्पनाकल्पद्रुमेण वसुंधरोद्धरणादिवराहेण परमभागवतेन जगदीश्वरीचरणकिङ्करेण भवानीपतिप्रसादाप्तापसादेन राजगुर्वादिबिरुदावलीविराजमानेन राजाधिराजमहाराणाश्रीमोकलेन्द्रनन्दनेन राजाधिराजश्रीकुम्भकर्णमहीमहेन्द्रेण विरचिते संगीतराजे षोडशसाहस्रयां संगीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे चारिकोल्लासे मण्डललक्षणं नाम चतुर्थ 10 परीक्षणम् // उल्लासश्च समाप्ति समगादिति विततमतीनामभिमतसिद्धिरस्तु॥ // इति नृत्यरत्नकोशे चारिकोल्लासे चतुर्थ परीक्षणं समाप्तम् // ॥समाप्तश्चायं द्वितीय उल्लासः॥ 10 विचित्रैर्विहृते(? तै)येनातिक्रान्तं वैरिमण्डलं। उल्लासितं जगद्येन पादैर्ललितसञ्चरैः / कामेश्वरीप्रसादेन मण्डले यस्य नित्यशः नेतयस्तेन राज्ञेदं कृतं मण्डललक्षणम् // / इति श्रीजगदीशवनदेवनिजगणेन // 1 // जगदीश्वरी-कामेश्वरीचरणकिङ्करेण // 2 // श्रीब्रह्माद्रिविभुना // 3 // अध्युष्टतमनरेश्वरेण // 4 // भीष्मपुरजयानीतानेकराजकन्यारत्नेन ॥५॥श्रीपुरग्रहणसंवर्द्धितयशोभरेण॥६॥ वाटिकाचलग्रहणजनितकीर्तिपूरपराजिताचलनायकेन // 7 // संगमनीरदुर्गोद्धरणोद्धृतसकलमण्डलाधीश्वरेण // 8 // मदनपुरविध्वंसनबंदीकृतयवनीनिचयेन // 9 // महिषमेरुजयाजेयविभवेन // 10 // शाकम्भरीरमणपरि20 शीलनपरिप्राप्तशाकम्भरीपरितोषितशाकम्भरीप्रमुखशक्तित्रयेण // 11 // अष्टादशगिरिशिखरपरिवारितांजनाद्रिविजयविख्यातवीर्यगर्वेण // 12 // महदंबमातृकापूरोखूलनधर्षितमहोरगपुरेण // 13 // श्रीवनदेवस्वामिप्र[[]सादरचनापरपरमेश्वरेण // 14 // त्र्यम्बकेश्वरसन्निधिकीर्तिस्तंभोन्नतजयस्तंभेन // 15 // श्रीब्रह्मगिरिभौमवर्गतायथार्थीकरणरचितचारपग्रेन // 16 // श्रीकामाक्षागिरिनवीननिर्मितिपराजितसुमेरुणा // 17 // श्रीमहिषाधलोपरि 25श्रीहरिशरणरचिताचलदुर्गेण // 18 // अभिनवभरताचार्येण // 19 // वीणावादनप्रवीणेन // 20 // यवनकुलाकालकालरात्रिरूपेण // 21 // त्रिसंध्यक्षेत्रसमुद्रसंभवरोहिणीरमणेन // 22 // परमभागवतेन // 23 // महाराजाधिराजमहाराणाश्रीमृगाङ्कनामराजेन्द्रनन्दनेन // 24 // महाराशीश्रीसौभाग्यवतीजसमाम्बिकाहृदयनंदनेन // 25 // सकलसीमंतिनीशिरोमणिनिकुंभराजन्यवंशावतंसमहाराज्ञीश्रीकर्मवती-लघुमादेवी-हृदयाधिनाथेन // 26 // 30 राजाधिराजकालसेनमहीमहेन्द्रेण विरचिते सङ्गीतराजे षोडशसाहस्यां सङ्गीतमीमांसायां नृत्यरत्नकोशे चारिकोल्लासे मण्डललक्षणं नाम चतुर्थ परीक्षणं समाप्तम् // उल्लासश्च द्वितीय - -