Book Title: Mahavir Parichay aur Vani
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Barcode: 99999990030524 Title - Mahaveer Parichya Aur Vani Author Rajneesh Language - Hindi Pages - 323 Publication Year - 1923 Barcode EAN.UCC-13 9999999 003052 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण वाराणसी, १९७४ मूल्य · रु० २०.०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम मानववादी पितकल्प श्रद्धेय देवेन्द्र प्रसाद सिंह पुलपति, भागलपुर विश्वविद्यालय को सादर, सभक्ति -रामचन्द्र Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन प्रस्तुत ग्रथ भगवान श्री रजनी की नव्यतम वृति है। इसम महावीर वाणी के Tए-नए अर्थो वापाडित्यमडित विश्लेपण हुआ है और पुरातनपथी टीयावारापी तद्विपयन भात धारणाएं ध्वस्त कर दी गई हैं। इसम पूर्ववर्ती टीयाना की भाव-क्षीणता की जगह मत्रपूत व्याया बोर न यता एव मौरिक्ता या चमत्कार है। भगवान् श्री रजनी की व्यायाशेली जितनी ही मर एव अप्रतिम है, उतनी ही उदात्त एव हृदयहारिणी भी । इसम यत्रतत्र उपविद्ध वाधक्याएँ विषय का अत्यधिक . गप्ट और रोचर बनाने मे समय हुई हैं। भगवान्थी सवथा विशुद्ध और समस्त प्रयाशयुक्त पदार्थों में भी प्रकाराय हैं"तच्छुम्र ज्योतिपा ज्योतिस्तधदात्मविदा विदु ।" विश्वेतिहास में पहली बार उनपे द्वारा महावीरवाणी को यह अथ-गौरव मिला है जो स्वय भगवान् श्री महावीर वा अथ था। अपने योगबल से तथा जम-जमातर की तपस्या साधना के पुण्यप्रताप से भगवान श्री रजनीश ने महावीर के स्वरूप म पर उनके मात या को प्रस्ट पिया है और महावीरमय होवर महावीर की “याख्या प्रस्तुत की है। अत मे इतना ही कहना अलम् होगा वि इस पृति में दो आयाम हैं-जहां एक ओर तो यह भगवान श्री महावीर वा परिचय देती है, ऐसा परिचय जा सूक्ष्मता, रोपवता और यदुप्य रे त्रिविध तत्त्वा मे उपत है वहीं दूसरी आर यह भगवान श्री रजनीचे रजनीशत्व पर भी प्रचुर प्रकाश डारती है और उनक दिव्य व्यक्तित्व को शादापी परि सीमित रेसाआ म मूत करने का असफल प्रयास करती है। आप इस व्याम्या पी रसात्मिकता पर मुग्य हो उटगे, रसाभिभूत हो जाएंगे। मुझे विश्वास है कि यह प्रति रजनीश-साहित्य की सक्थेष्ठ रचनाआ म पावतेय होगी और शास्त्रीय गुद्धिवालायोपयोर देगी। ये बातें पास्ना मे हा या शहा, स्वय मसोजनेवाले इचवश्य पारेंगे और स्वय से वन पोई गास्त्र है और कोई दूसरी जाप्तता।" में स्वामी चैत य वेतात (राजेश रजा) या अनुगहीत है रिहाने रम अथ ये सम्पादन म मरी यथाशक्य सहायता की है। स्वामी आन द वीतराग Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्वस्तु प०स० १६-१७८ . प्रास्ताविक १ प्रथम सड अध्याय १ महावीरवी जीवनधाराबार माग अध्याय २ महावीर पा त्याग पिछले जमा की साधना अध्याय ३ मूब जगत से तादाम्य और सापेक्षवाद अध्याय ४ सामायिक प्रतिरमण और चारित्र अध्याय ५ गमवाद अध्याय ६ महावीर व व्यक्तित्व ये नए जायाम अध्याय ७ अस्तित्व और अहिंसा अध्याय ८ गिगोद और अतर्यात्रा अध्याय ९ महावीर की भाषा अध्याय १० गागारक यी यथा वा महत्त्व अध्याय ११ महावीरवी दष्टि आर भाग अध्याय १२ उपसहार कर - । १२२ १५२ १७१ १७९-२१८ १८१ ३ द्वितीय सड अध्याय १ हिंसा अध्याय २ अपरिग्रह अध्याय ३ अय अध्याय ४ अमाम अध्याय ५ अप्रमाद २०४ २१२ २१९-३३० २२१ ४ तृतीय पड अध्याय १ पच नमाकार सूत्र अध्याय २ धम्मो गुत्तमा अध्याय ३ गरण की स्वीकृति अध्याय ४ धम का परम सूत्र हिसा और स्वभाव अध्याय ५ जीवेपणा और महावीर का हिसा २४१ २५७ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क जव्याय ६ : समस्वरता और सम्यगाजीव अध्याय ७ : सयम की विधायक दृष्टि अध्याय ८ : तपञ्चर्या अन्याय ९ : तप की वैज्ञानिक प्रक्रिया अध्याय १० : महावीर की दृष्टि मे अनशन अध्याय ११ : उणोदरी आदि शेष वाह्य तप अध्याय १२ : अतर्-तप पृ० सं० २६४ २७५ २८३ २८९ २९४ ३०५ ३१३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक १ मैं महावीर का अनुयाया नही हूँ, प्रेमी हूँ, बस ही जमे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का, लाओत्सेवा और मेरी दृष्टि में अनुवायी कभी भी उसे समझ नहीं पाता जिसका वह अनुगमन करता है । । दुनिया म दा ही तरह के लोग हैं । साधारणतया या तो वे अनुयायी होत हैं या विरोधी । न ता अनुयायी समझ पाता है औरन विराया अनुयायी उससे बंध जाता है जिसका वह अनुसरण करता है और विरोधी उससे जिसका वह विरोध करता है । केवल प्रेमी नही वैधता । वह प्रेम जा वापता है प्रेम नहीं होता । महावीर से प्रेम करने में महावीर से बचना नहीं होता। उनसे प्रेम करते हुए ही बुद्ध, कृष्ण और वारस्ट स प्रेम किया जा सकता है । महावार में जो चीज प्रकट हुई और जिससे हम प्रेम करत हैं वह हजार हजार लागा में भी उसी तरह प्रस्ट हुई है। सच पूछिए तो हम महावीर से भी प्रेम नहा करते। वह जो शरीर है ववमान का वह जो जन्मतिथिमा हुआ दशरीर है उनका, यह ता इतिहास की एक रेसा मान है । एक दिन पण हाना और एक दिन मर जाना । प्रेम करन है हम उस ज्योति से जा उस मिट्टी के दीए में प्रक्ट हुइ थी। जो ज्योति से प्रेम करेगा यह दीए से नही गा और जा दीए म बँगा, उस ज्योति के महत्व वा भान न होगा । निश्चित है कि जो दीए से बंध रहा है उसे ज्याति का पता नही । जिस ज्याति का पता चल जाय उस क्या दीए की याद भी रहेगी ? उसे दीया फिर दिखाई भी पड़ेगा ? इसी सदन में एक और बात कह देना चाहता हूँ | मैंने महावीर का ही चर्चा के लिए क्या चुना ? यह तो बहाना है सिफ । वे तो वन ही है जम कोई खूंटो हानी है । उपडा टाँगना प्रयोजा है मेरा । कोई भी सूटी काम दे सकती है। महावीर भी वाम दे सकत हैं ज्याति के स्मरण म बुद्ध भी कृष्ण भी माइस्ट मी । किमो भी सूटी से काम लिया जा सकता है। स्मरण प्रेम मागना है, अनुकरण नहा । और मैं करता हूँ यह स्मरण महावीर का स्मरण नही है | स्मरण है उस तत्र वा जो महावीर म प्रकट हुआ । इस तत्व का स्मरण तलाल आरमस्मरण बन जाता है । महावीर म प्रवट हु ज्योति को यही सायक्ता है कि यह जात्मस्मरण की आर ल जाय । लेकिन महावोर यो पूजा से यह समय नहा । पूजा से आत्मस्मरण नही याता । पूजा आत्मविस्मरण वा उपाय है। अनुपायी मत आदि भी महावीर, बुद्ध, कृष्ण यो सूटिया का उपयोग कर रह हैं आत्मविस्मरण के लिए। पूजा, प्राथना, अचरा- Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब विस्मरण है । स्मरण का अर्थ है महावीर में उग दिव्य गार को गोजना गो उनमे अभिव्यक्त हुआ था, मनुष्य की सम्भावनाओं के प्रति सजग हो उठना और एम वात की प्रतीति करना कि जो एक मनप्य में मम्भव है, वह फिर मेरी भी मम्मावना बन सकती है। स्मरण करनेवाले पूजा मे न जाकर एक अन्तर्वदना मे, नर नफरिंग मे उतर आते है । वे उस बुझे हुए दीए के ममान होते है जो एक बलते हए, ज्योनिर्मय दीए को देखकर व्यथित हो उठता है और नोचता है कि मैं व्यर्थ हैं, में नाममात्र का दीया हूँ, क्योकि मुझमे वह ज्योति कहां, वह प्रकाश कहाँ ? म निर्फ अवमर हूँ जिसमे ज्योति प्रकट हो सकती है, लेकिन अभी हुई नहीं है। लेकिन बुझे हुए दीयो के बीच बुझा हुआ दीया रखा रहे तो उसे अपनी दशा का नयाल भी नहीं आता, पता भी नहीं चलता। तो करोड बुझे हुए दीयो के बीच में भी जो स्मरण नहीं आ सकता वह एक जले हुए दीए के निकट आ सकता है । महावीर या बुद्ध या प्ण का मेरे लिए इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं कि वे जले हुए दीए है । उनका सयाल, उनके बलते हुए दीए की लपट एक बार भी हमारी आंखो मे पहुँच जाय तो हम फिर वही आदमी नहीं रह सकते जो कल थे। हमारी सम्भावनाओ के नए गवाक्ष खुल जात है, ऐसे अनेक द्वार खुल जाते है जिनका हमे पता तक न था। और तव उनको प्यास भी जग जाती है जो हम हो सकते है। यह प्यास जग जाय तो कोई भी वहाना बनता हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं । ___तो मैं महावीर को भी, क्राइस्ट को भी वहाना बनाऊँगा, कृष्ण, बुद्ध और लाओत्से को भी। फिर हममे तरह-तरह के लोग है, और कई बार ऐसा होता है कि जिसे लाओत्से मे ज्योति दिख सकती है, उसे बुद्ध मे न दिखे, और यह भी हो सकता है कि जिसे महावीर में ज्योति दिख सकती है, उसे लाओत्से मे न दिखे। एक बार अपनी ही ज्योति दिख जाय तो लाओत्से और बुद्ध मे ही नहीं, साधारण-से-माधारण मनुप्यो मे भी वह ज्योति दिखने लगती है। पशु-पक्षी ही नही, पत्थर भी ज्योतिर्मय हो जाते है। लेकिन, जव तक स्वय मे यह ज्योति नही दिखती तव तक जरूरी नही कि सभी लोगो को महावीर मे ज्योति दिखे। इसके कारण है। व्यक्ति-व्यक्ति के देखने के ढग मे भेद है, व्यक्ति-व्यक्ति की ग्राहकता मे भेद है और व्यक्ति-व्यक्ति के रुझान और रुचि मे भेद है। जरूरी नही कि एक सुन्दर युवती सभी को सुन्दर मालूम पडे । मजनू की आँखो ने लैला के सौन्दर्य को जन्म दिया था यानी लैला होने के लिए मजनू की आँखे चाहिए। एक-एक व्यक्ति मे बुनियादी भेद है। इसलिए दुनिया मे इतने तीर्थकर, इतने अवतार, इतने गुरु हुए है। हो सकता है बुद्ध भार महावीर जैसे व्यक्ति एक ही जगह में एक ही दिन ठहरे और गुजरे हो, एक ही प्रदेश मे वर्प-वर्ष घूमे हो। फिर भी, गाँव मे किसी ने वृद्ध को देखा हो, किसी ने महावीर को और किमी ने इनमे किसी को भी नही । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरे पास देसन की एक विगिप्ट दृष्टि है। हो सकता है कि किसी को महावीर म कुछ भी दिखाई न पडे । महावीर म जो है उसे देखने के लिए विशिष्ट साख चाहिए । हा, पथ्वी पर मिन भिन तरह के लोग हैं। इनकी जातियाँ बताना भी मुश्किल है। लेफ्नि एक बार दिस जाय साम्य तो सभी भिनताएँ खा जाती है। सभी मिननाए दीए की मिनताएं है-ज्योति की मिनता नहीं। दीए का अनुभव आकार का अनुभव है कि तु ज्यातिमय का अनुभव आकार का अनुभव नहा । दीया जड है, पदाथ है-ठहरा हुआ, रुका हुआ, ज्योति चेतन है सत्य है--जीवात, भागती हुई। दीया रखा हुआ है ज्याति जा रही है भाग रही है ऊपर की पार । ज्योति है ऊ वगमन का प्रतीक निराधार की अनुभूति । किननी जल्ली ज्योति वा जाकार खो जाता है ? पहचान भी नहीं पात कि उसका आकार खो जाता है। वह मिलन है आकार निराकार का । अभी थी, अप नही है। प्रतिपल याकार निराकार म खोता जा रहा है। आवार के पार निरा पार म जो सत्रमण हो रहा है वही ज्योति है। जात म दीया को पहचाननेवाले लाग ज्यानिया में सम्म य म झगडा करते रहते ह दीया को पक्डनेवाले ज्योतिया के नाम पर पथ और सम्प्रदाय बना लेते हैं। वे भूर जाते है कि दोया एक अवसर था ज्योति के घटने का और ज्योति का जो आकार लिसा था वह भी मिफ एक अवसर था ज्योति के निराकार म खोने का । वधमान तो दोया है महावीर ज्याति, सिद्धाय दीया है, युद्ध ज्याति जीजस दीया है, माइस्ट ज्योति । लेकिन हम दीए को पकड रेत है और महावीर थे सम्बघ म सोचते-साचत वधमान के मम्बध म सोचन लगत है । वधमान को पकडनवाल रोग महावीर को पक्ड नहीं पात । सिद्धाय यो परडनेवार भिक्षु बद स और मरियम के बटे जीजस का पहचाननेवाले पुजारी परमात्मा के वटे प्राइस्ट स जमिन रह जाते है । हम सब दीया म ही लवरीन रहते हैं । हम नीया हैं राही पर ज्योति भी हो सबत हैं। ज्योति की चिता करनी चाहिए, दीय की नहा । महावीर या निमित्त बनावर ज्याति पर विचार करना होगा। जिह महावीर की ओर से ज्याति पहचान म आ सस्ती है, अच्छा है वहा से पहचान में आ जाय । जिहें नहीं आ सपती, उनके लिए किमी और या निमित्त बनाया जा सकता है। सब निमित वाम म आ सस्त है। बहुत विगिष्ट है महावीर इसलिए सोचना बहुत जरूरी है उन पर, रविन वे विनिष्ट है पिसी दूसरे की तुरना म नहीं। हम अविशिष्ट हैं साधारण रोग है। साधारण इस अय म कि हम दोया हैं और हमारा साधारण असाधारण या अवसर है मौका है चीज है। विगिप्ट और असाधारण वह है जो ज्याति बन गया और गया वहाँ, उम पर वी आर जहाँ शाति है जान है जहाँ साज या लत है, उपलधि है। महावीर पिसी की तुलना म विगिप्ट नहा-मिमी म विगिप्ट नही। मरा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्ट असाधारण का पर्याय है। हम गय साधारण है, पर हा नव अमाण हो सकते है । जव तक हम साधारण है, तब तक साधारण-जनाधारण ने बीन बजा पिया गया हमारा भेद नासमझी का भेद है । साधारण बन साधारण ही है। वह चाननी है कि राष्ट्रपति, इसमे कोई फर्क नहीं पटना । दोनो साधारण के ही दोस्प है। चपरासी पहली सीढी पर और राष्ट्रपति आखिरी मीटी पर । माघारण की नीटी परमनी साधारण है, चाहे वे किसी भी पायदान पर पपयो न हो । अनाचारण की को. बीटी नही होती। ऽमलिए दो अनाधारण व्यक्तियो मे कोई नीने-जार नहीं होता। लोग पूछते है कि युद्ध ऊँचे कि महावीर, कृष्ण ऊंचे कि नाट। ये भूल जाते है कि नायारण की सीढी का गणित अमाधारण लोगो पर घटित नही होता । फिर भी कर पागलो ने अपनी पुस्तको मे किसी को ऊँचा घोपित किया है, विनी को नीचा। उन्हें पता नही कि ऊँचे और नीचे का खयाल साधारण दुनिया का खयाल है । जनाधारण ॐना और नीचा नहीं होता। अनल मे जो इस ऊँच-नीच की दुनिया से बाहर चला जाता है, वही असाधारण है । जहाँ तक कोई दीया है, वही तक ऊंच-नीच का भेद है पार्थक्य है। ज्योति बड़ी और छोटी होती नहीं। निराकार में सो जाने की क्षमता छोटी ज्योति की उतनी ही है जितनी बडी-से-बडी ज्योति की। और निराकार में जो जाना ही अमाधारण हो जाना है। जिस प्रकार पृथ्वी मे एक कशिश है, नीचे सीचने का गुरुत्वाकर्षण है, उसी प्रकार परमात्मा में भी एक कशिश है। वह जो निराकार है और फैला हुआ है ऊपर, वह चीजो को अपनी ओर ऊपर-खीचता है। इसी कशिश का नाम प्रभुप्रसाद या ग्रेस है। उसके लिए छोटी और बडी ज्योति में कोई अन्तर नहीं । ज्योति होनी चाहिए। जिस तरह पृथ्वी की कशिश छोटे-बड़े का भेद न मानकर बडे पत्थर को छोटे पत्थर के साथ ही गिरने को मजबूर करती है, उसी तरह परमात्मा की कशिश भी छोटी ज्योति को उतनी ही गति से खीचती है जितनी गति से बडी ज्योति को। लेकिन, अनुयायी का मन साधारण दीए का मन होता है। तोलता है, तुलना करता है। इसलिए वह कभी समझ नहीं पाता, समझ ही नहीं सकता। समझने के लिए वडा सरल चित्त चाहिए; अनुयायी के पास सरल चित्त नही । वह कुछ थोपता है अपनी तरफ से । विरोधी भी नहीं समझ पाता, क्योकि उसमे छोटा करने का आग्रह होता है, अपनी ओर से थोपने की जगह कम करने की जिद होती है। इसलिए जिसे समझना हो, उसे प्रेम करना है, और प्रेम तदा वेशर्त होता है। प्रेम यह नही कहता कि तुम मुझे कुछ देना, भवसागर से पार ले चलना, धन-धान्य से परिपूर्ण कर देना। प्रेम का मॉग से कोई सम्बन्ध ही नहीं। इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नही कर पाता। और विरोधी किसी और से मौदा कर लेता है, इसलिए वह विरोध मे खडा हो जाता है। वह विरोधी इसलिए हो गया है कि उसे लाभ का आश्वासन नहीं मिला। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूंगा कि हमारी कोई मांग न हा, सौदा करने की हममे काई भावना न हो । न हम जनुकरण करें जार न अनुयायी बनें। वेवल सहानुभूतिपण दृष्टि से देखें वि नम क्या घटा-पहचाने कि क्या घटा, सोजे की क्या घटा । इसलिए जन महावीर यो समय नही पात । बौद्ध बुद्ध को नहीं समयत । इनमा प्रेम बशत नहा हाता। प्रत्यय ज्याति के आसपास अनुयायिया का जा समूह इक्टठा जाता है वह ज्याति का युयाने म सह्यागी होता है उस प्राद्दीप्त रखने म नही। महावीर का जन हो से क्या सम्बध ? कुछ भी नही। महावीर को इमघा पता भी न होगा कि मैं जैन हूँ। प्राटस्ट का पता ही न हागा दि मैं इसाइ हूँ। इसलिए मैं कहता हूँ कि किसी को समयना हो ता उसके पास खाली मन जाना और याद रखा कि जा जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है हिदू या मुसलमान नहीं है, वह पूर्वाग्रहा स मुक्त रह्न के कारण सहानुभूति से देख सकता है। उसका दृष्टि प्रेमपूण हो सकती है । और बड़े मजे की बात है कि हम जाम से ही जन हो जाते हैं, जम से ही बौद्ध हो जाते हैं। मतलब यह है कि जम से ही हमार धार्मिक होने की सम्भावना समाप्त हा जाती है। अगर कभी भी मनुष्य का धामिक बनाना हो तो जम से घम का सम्बघ विलकुल ही तोड देना जरूरी है। जम स काई भामिक क्स हो सकता है ? जम से ही जिसने परड लिया धम को वह उस समयगा क्या? समयन का मौका रहा रहा ? अब तो उस आग्रह उमकी पूर्व पारणाएँ निर्मित हो गई। वह महावीर को समझ ही नहीं सकता क्योनि महावीर नो समयने के पहले उसन उहें तीथकर बना लिया, परम गुर मपय लिया, सवज्ञ मान लिया परमात्मा कह दिया । परमात्मा को पूजा जा सकता है समझा नहीं जा सकता। समझने के लिए ता अत्य त सरल दृष्टि चाहिए अत्य त पक्षपात रहित दृष्टि । मैं वह सपता हूँ कि मैंन महावीर को ममया है क्याकि मेरा वाई पक्षपात नहा, कोई आग्रह नही । हो सकता है कि जो मरी ममझ हो वह शास्त्रा म त मिरे । मिलेगी भी नहीं क्याविनास्त्र उन्हान रिखे है जो बधे हैं अनुयायी हैं जना है। शास्त्र उहाने लिखे हैं जिनके लिए महावीर तीथकर हैं सवन हैं और जिहाने महावीर का समझन के पहले कुछ मान लिया है। समय कभी भी गास्त्र से मेर नहीं साती । समय और गास्त्र म युनियानी विराध रहा है। शास्त्रा व रचयिता नासमय, पक्षपातपण आग्रही होत है जा कुछ मिद्ध परन का आतुर हैं। उनम समपो की उतनी उत्सुक्ता नहीं होती जितनी बुद्ध सिद्ध करने पी । शास्त्राय बुद्धि इसलिए अवनानिष हो जाती है कि यह कुछ मिद्ध परना चाहती है जा है उसे जानना नहा चाहता। नास्त्रीय बुद्धि या यादमी परम्परा स बँधा हाता है सम्प्रदाय से बंधा होता है और यह सोचकर नि सत्य पता ही वसा है भयभीत होता है। ता मेरी बात न मारम मितने तला पर मेर नी पायगा। सभी मेला ___ जाय तो यही आश्चय की बात हागी। मेट न गाता ही अधिर स्वाभाविर हागा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर को खोजने का एक ढग तो यह है कि उनके सम्बन्ध मे जो परम्परा है, जो शास्त्र है, जो शब्द सगृहीत है, हम उनमे जाये और उन मारी परम्परा के गहरे पहाड को तोडे, लोजे और महावीर को पकडे । महावीर को हुए दाई हजार वर्ष हुए। इन ढाई हजार वो मे महावीर के सम्बन्ध मे जो भी लिखा गया, हम उम सबने गुजरे और महावीर तक जायँ। यह शास्त्र के द्वारा जाने का रास्ता होगा। यद्यपि यही आम रास्ता है, फिर भी मैं मानता है कि उन रास्ते ने कभी जाया ही नहीं जा सकता। इस रास्ते पर चलनेवाले वहाँ पहुँचते हैं जहां महावीर से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसके कारण है। महावीर ने जो अनुभव किया है, किसी ने भी जो अनुभव किया है, उसे गब्दो की चारदीवारी मे बद करना कठिन है । जिसे भी कोई गहरी अनुभूति हुई है, उमे शब्द की असमर्थता का भी तलान ज्ञान हुआ है। परमात्मा का, सत्य का, मोक्ष का अनुभव बहुत गहरा अनुभव है। प्रेम का साधारण अनुभव भी मनुष्य को कुछ कह सकने में असमर्थ बना देता है। प्रेम के सम्बन्ध मे अक्सर वे ही लोग मुखर पाए गए हैं जिन्होंने प्रेम का अनुभव नही किया । यदि प्रेम के सम्बन्ध में कोई वहुत आश्वासन से वाते करता हो तो समझ ही लो कि उसे प्रेम का अनुभव नही हुआ। प्रेम के अनुभव के बाद सकोच आता है, आश्वासन नहीं रह जाता। प्रेमी चिन्तित होता है कि कैसे कहूँ, क्या कहूँ ? जो वात कहना चाहता हूँ वह पीछे छूट जाती है, जिसे कभी सोचा भी न था वह वरवस निकल आती है। जितनी गहरी अनुभूति, उतने ही थोथे ओर व्यर्थ है शब्द | शब्द है सतह पर निर्मित, उनके द्वारा निर्मित जो सतह पर जीते रहे है। इसी कारण अब तक सन्तो की कोई मापा विकसित न हो सकी। जब कोई व्यक्ति अतीन्द्रिय सत्य को जानता है तो उसकी सभी इन्द्रियाँ एकदम व्यर्थ हो जाती है, वह मौन हो जाता है। बोलना पडता है इन्द्रिय से और सत्य जाना गया है वहाँ से जहाँ कोई इन्द्रिय माध्यम नही । अगर इन्द्रिय माध्यम ही न हो अनुभव का, तो फिर इन्द्रिय कैसी रही? इसलिए जो जानता है, मुश्किल मे पड़ जाता है। उसका मौन भी बडी पीडा देता है। चारो ओर रुग्ण, विक्षुब्ध मनुप्यो को देखकर उसे लगता है कि कहूँ और इन्हे भी अपनी अनुभूतियो का साझेदार वनाऊँ। वह अपने उस अन्तरतम मे झाँकता है जहाँ परम आनन्द घटित हो गया है और उसे लगता है कि वह व्यक्ति भी उसे देख सकता है जो निकट खडा है। कोई भी ऐसा नहीं जिसे ऐसी अनुभूति नही हो सकती। परन्तु उसके शब्द उसकी अनुभूतियो को दूसरो तक पहुँचाने मे एकदम असमर्थ होते है। महावीर-जैसा व्यक्ति जो बोलता है वह एक प्रतिशत भी वह नही है जिसकी Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसे अनुभूति हुई है, जिमे उमने जाना है, फिर भी वह हिम्मत करता है, साहस जुटावर बोलता है और सोचता है कि हजार किरण भले ही न पहुंचे, एय गिरण तो पहुँचगी ही। अगर महावीर की वाणी पक्डपर ही काई महावीर यो खाज करने जाय तो मी महावीर नहा मिरेंग। ठेठ महावार या सुनकर ही वाइ अगर उनका वाणी पक्डवर वाजने जाय तो मी पाण पिलपुर बदर जायगा आर वह वहीं जा पहुंचेगा जहाँ महावीर नहा हागे । क्यापि मन्दो ने उसे नहीं जाना जिसे महावीर ने जाना है उसे जाना है निगन्द ने और हमने परडा है गदा यो। और फिर अनुमान है वि जिहाने महावीर के गटन सुन उनम व राग मोन म चरे गए हागे जिहें थाडी भी ममय थाई होगी और निगद पी चरम या जरा मी इशारा मिला होगा। निश्चय ही वे निगद म भाग गए हागे । जिनकी समझ में नहीं आइ होगी व मग्रह म रग गए हागे । जिमने नहीं समया होगा वह गणघर वन गया होगा। आम तौर स हम साचत हैं कि महावीर के पास जो गणपर हैं व उनले सयस अघिय समझने वार लोग हैं। पूठ इसमे वग नहीं हो सकता। महावीर के पाम जो सबसे ज्यादा समझनयारा हागा वह मौन मे चल गया होगा । जो सबसे कम समझनेवाला होगा वह महावीर ये गा दूसरा तक पहुंचाने की यवस्था म एग गया होगा। ता गणधर व नहीं हैं जिहाने महावीर को सर्वाधिक समझा है । गणघर में हैं जो महावीर की वाणी का यथाय मम तो समझ न पाये, वितु उनके गावो परट बठे और उनका संग्रह करने म लग गए। जिम अनुभव स महावीर गुजरे हैं वह अपरिग्रह में घटा है। जो उनके ना या इकट्ठा करने म लगा है वह परिग्रही यति मा व्यक्ति है। महावीर को उत्सुक्ता नहीं है गल-सग्रह का, न बुद्ध को है और न पाइन्ट यो । बम ता महापौर नी विनाय लिस मकन ये रेपिन महापौर न रिताय नहा लिपी पृष्ण ने भी नहीं खिी युद्ध और जीजस ने भी नहीं । इन अगापारण लोगा म मिप लामोत्म ने किताब रिसो और यह जवरदस्ती मनिमी। जब यह अपनी तिम उनम चीन री सीमा के पार जा रहा था तर चीन न गमाट उस अपनी चुगी बोगी पर रपवा लिया और कहा कि तुम्हें कम न पउँग । साओम न पा-ममा टस हम न ता पाइ मामान जात बाहर न पुरान हैं सपने जा रहे हैं सारी सच तो पर है कि जिगार मार्ग है। गम्राट नलिनी --ना सी माद आमा र हा नहा गया जितनी तुम लिसा रहा सब पग-गुरु दे ही जात हैं। तुम यारन ही रितुम्हार मानर पया है । यह मर पुगा दो पा-गे-नग टग दो, सम्पति मत नगे।साभारस नो . . . . . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : गा। उगा FB, . . ! "मी मानी :, "] ना .... . :: : कीTARE Ti .::" नानी - . . . :: समायोनी II, TA " ;": ..... नापीकी ' am : : "I ना ना " " " " | गमगा गी: "मैं नाग." । का गानी गोगा, का ! mi । : " " जिगने का नही। यानी | TT म प . सामने । मंगरा, नाम गा मा म्यावी, पांगा, न गारगे, पर कर ~~-7 स्वतारगा। मानेमाल लीसिनी : मी गिनाला गया: । गरमाको गामार्ग, मेरी पीठ को भी देगी, मेरी ममीन नीलिमान जा माता । लेकिन, शिवाय के नामने जिगपाले न rint. , पीटा है । फिर, फिनाव बच जाती है। उन शिवाय पर वनः गली : टी होती रहती है। और यह बनाना नौ महावीर के ठीमागने नही होगा कारण है कि शायद महावीर ने इनकार किया होगा। युस ने पहा होगा, तुम कितना मत । अर्थात् जो भी लिखा गया है नुनकर नहीं लिखा गया है। किसी के मुना है, फिर किसी ने पित्ती ने कहा है। महावीर अगमयं है करने में। फिर उनी सुनने वाले ने किसी ने कहा है, उग तीनरे व्यक्ति ने शिनी और ने कता है और तब दो-चार-पांच पीढियो के बाद वह लिखा गया है। उन पर टीकाएं चलती रही है, विवाद होते रहे है। ये हैं हमारे गास्न । अगर किसी को महावीर से चूतना हो तो इन शास्त्रो को पकडे । उसने मुगम उपाय नही । तो मैं गानो से महावीर तक पहुँचने की सलाह नही देता और न में स्वय ही उस रास्ते से उन तक गया हूँ। मैं बिलकुल ही अशास्त्रीय व्यक्ति हूँ, नही, कहना चाहिए कि में एकदम शास्त्र-विरोधी हूँ। अगर सारे शास्त्र सो जाये तो साधु, सन्यासियो और पडितो के हिसाब से महावीर खो जायँगे । लेकिन क्या सत्य का अनुभव सो साता है ? का यह सम्भव है कि महावीर-जैसी अनुभूति घटे और अस्तित्व के किमी कोने में सुरक्षित न रह जाय ? क्या यह सम्भव है कि कृष्ण-जैसा आदमी पैदा हो और सिर्फ आदमी की Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिसी वितावा में जीवित रहे और अगर पिता मो जायें नो वृणा सो जाय? जगर ऐगा है ता न कृष्ण का वाइ मूल्य है और न महावीर का। जादमी के रफान, पों वे रेवाइ गणपराय रखाड ही अगर मन कुछ हैं तो ठीक है विना सा जायेगी और ये आदमी भी खा जायेंगे । मगर इतना सस्ता नरी है यह मामला दि इतनी वडी बनाएं घटें कोई परम सत्य को उपर घ हा और यह बात पर ममतार आदमिया यी कमजोर मापा म सुमित रहे। मेरा पहना है कि जगत् म जो भी परता है चाह यह महत्त्वपूर्ण हो या अमहत्त्वपूण वह कभी नष्ट नहीं होता और न उगे मनुष्य पर ही छाड दिया जाता है कि वह उसे सुरक्षित रखे। अधे मला उम व्यक्ति क अनुभव या सुरक्षित रग सपत ह जो कभी उनमे समाज म था और शिम जय माप मिर गई हा, प्रकार के दान हो गए हा? हम उम व्यक्ति को तुलना म मधे हैं जिसे सत्य की उपप हुदह जथवा जिमने गान शुजा स सत्य का माशातार किया है। ता में रहना चाहता हूँ कि अस्तित्व म घुछ भी नहा पाता। सच तो यह है कि मर ये शट भी बराबर मुसर रहेंग । जा पर एक बार पता हा गया है वह कमी लुप्त होगा । कृष्ण ने अगर घमी भी कुछ कहा है ता आज भी उसको पनि तरगेरिही तारों से निक्ट स गुजर रही है। ध्यान रह किरदन म जा बारा गया है जाप उसे ठीक उमो वक्त नहीं सुन लत, यावि ध्वनि-तरगावो आन म समय रगता है । जापभी भी योग गया है उसकी ध्वनि-तग्गे आज भी वनमान है पिहा तारा पे पास से गुजर रही हैं। यानी विमी तार पर महावीर वचन आज भी मुन जा रह हाइसरा क्या मतलब हुआ? इसका मतलब यह हुमा पि इस अन त बारा म-आन्त है इसलिए इराम घुछ नहा सो-जा भी पता होता है, यह यात्रा परता रहता है। इसी प्रकार और भी श्म तग्गें है जा पनि यी ना अनुभूति पी तरगें है। जब हम वारत तव ध्वनि का तरगें पग हाती हैं रबिन जब अनुभव परत है तर ति यी एमी तर पैदा होती है जो और मा गुम जाराम मात्रा यग्नी हैं। शिप्रसार रहिया स स्थर आराम पूमती हुई पनि-मरगा या परहा ता है उगा प्रसार अगर याद यात्रिय व्ययम्मा हा सय ता गूगम पाराम हुए मनु तरगा या पुल परडा वा गरा है । दाया गतर पर आ मि नामनिया भाभी TO हाता और न यह आलमा पराग गयामिया रहें पि पर मुगमित ग1 यदि हम मिनिट या रसपर पा मीर परत मिटि या मीलनुमति म हमरा रा गरा। Tirs पति हम रिमा गिप्ट व्यक्ति का पान न पार उतरें सा हम अपनी ही मारमा भूमिया मगर मात है। अपामार गम TITAसिनो सपा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pro कर सकता है कि वह महावीर, बुद्ध, जीजन गा गुणगे गपुरत हा जाग । मयुक्त होने का मतलब यह नहीं कि महावीर नाही बैठे हैं जिनी नयांग हो जानना । ॐ दीया तो टूट गया और वह ज्योति भी सो गई। लेकिन मनोनि लोग्नमा किया था, उन अनुभव की सूक्ष्म तरंगे अन्तित्व तो गहनायो में आज भी सुरक्षित है । महावीर का पूर्ण धान लेकर अगर आप उन गागदलो में उतरे तो भारले लिए द्वार खुल सकते है, महावीर के अन्तन्ग को गुदम नगे बाजी माहो सकती है और आप को एहनाम हो गाना: नहावीर पावों से बनेपा बस यही रास्ता है। अस्तित्व मी नहाली में अनुगनियां गुरक्षिन जाती। वहां से उन्हें वापस पकला जा सकता है, वहां ने उनने पुन जीवन-मन्बय ग्यापित किए जा सकते है। ___ नह में इनलिए कह रहा हूँ कि मेग माग शासन के मार्ग में बिना हैि । इसलिए मेरी चर्ना सुनकर गानों में उनके तालमेल की पोन न करें। मानो ने मेरी चर्चा का कोई सम्बन्ध ही नहीं। किनी और मार्ग से चलने गीटा में न जो कुछ दिसाई पडेगा, वह मे आपने कहता चलूंगा । शिन्तु, जब तक कुछ और लोग मेरे साथ इम प्रयोग को करने के लिए राजी न होगे, तब तक यह निर्णय नहीं हो मकेगा कि मेरी बात प्रामाणिक है या नहीं। ____ महावीर के वाह्य जीवन की घटनाओ को जानना एक बात है और उनके अन्तर्जीवन को जानना दूसरी बात । महावीर के वाह्य जीवन में मुजे न तो प्रयोजन है और न उसे जानने की उत्सुकता हो । तेकिन उनके अन्तर्जीवन में क्या घटा, उससे मेरा प्रयोजन है, उत्सुकता हे और उन और इण्टि भी। मत्र बात तो यह है कि जिसे हम बाहर का जीवन कहते हैं, वह एक स्वप्न से ज्यादा मूत्य नहीं रखता। मेरे लिए इसका कोई अर्थ ही नहीं कि महावीर क्ब पैदा हुए, कब मरे; उन्होने शादी की या नही, बेटी पैदा हुई या नहीं। हुई हो तो ठीक, न हुई हो तो ठीक | मै तो यहाँ तक कहना चाहता हूँ कि महावीर भी हुए हो तो ठीक, न हुए हो तो ठीक । महत्त्वपूर्ण है अन्तर की गति, चेतना का विकास, उनका रूपान्तरण । जिसने महावीर के वहिर्जीवन को पकड लिया है, वह वुद्ध के जीवन को समझने में असमर्थ हो जायगा । वह मोचता है कि जो महावीर के वहिर्जीवन मे है, वह उनके अन्तर्जीवन से अनिवार्य रूप से बंधा हुआ है । जव वह देखता है कि महावीर नग्न खडे है तव उसके मन मे यह वात जम जाती है कि परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति नग्न खडा होता है। और वह पूछता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ है, यदि बुद्ध न वस्त्र पहन रता है तो ये परम नान का पैसे उपल पहुए। यहिर्जीवन वी परड के वारण ही मतीवन के सम्ब च म इतनी माझ्या मडी हा गई है। महावीर ये सम्बघ म मैं ठोय कह रहा है या नहीं इस बात की जांच या भी वाई अथ नहीं है। मैं कुछ सिद्ध परन के लिए नहीं कह रहा हूँ, बल्कि यह इसलिए रहा हूँ कि तुम जहाँ हो वहां स मरक सरो और पिसी दूमरी दिशा म गति पर सका। इसलिए यदि यह वातचीत तुम्हें अनागा म गति देनेवाली बन जाती है ता मैं मान लूगा वि कापी प्रमाण मिर गए । मानी मर रिए अथरता सम है वि महावीर के जीवन के मम्ब घम में जा पहूँ वह पिसी रूप में तुम्हारे जीवन का पातरित करनेवाला बने। ___यही वह है कि जा रोग जानत रहे हैं उहोन इतिहास लिसन पर जोर नहीं दिया। इतिहास पी जगह उहाने पुराण पर-मिथ' पर पिया। इतिहाम या भाग्रह है कि बाहर घटी घटनाएँ तय्य (फाटस) पो तरह सगहीत पी जायें पुराण इस बात पर बल देता है दि बाहर की घटनाएँ इस भांति माहीत हा कि जर कोई उनस गुजर ता उमप भीतर कुछ घटित हो जाय । पौराणि घटा चिमी दृष्टि स अप्रामाणिय मारम पड सकती हैं। एतिहासिर तध्य मी तरह प्राइस्ट का मूला पर चढना और फिर तीन दिन बाद जीवित हा उठना प्रमाणित नहीं दिया जा सकता। एतिहामिक त य का तरह इसे मो प्रमागित नहा दिया जा सकता कि पाई एसी पारी र डमी स पता हो सकता है जिमम पुरप पा सम्पर न हुआ हो । जितु पुराण का दृष्टि बड़ी गहा है। उसरा पहना है कि जीजस जमा वेटा मयत वारी आत्मा म ही जम र मरता है। यदि किती मा पोजोजस-जम थेट पो म दना हा तो उसके चित पा अत्यत पुंआरा हाना जारी है जोर मारेपन या पाइ सम्बध परीर म है हो हा गैर तो यत्र है, युआरापा भारिप गोदा है। हा सपना है कि शरीर नारा हा मोर चित विपुर गुजारा हो। अब एक और उदाहरण । महायोर पर पागप बाट सा है गौर दूप महा है । म एनिहामिप तथ्य यो सरह मिद नहीं कर सागरन या परा हा पर गरत करत है। महावीर पा पप परयाग नो मिr है गापा है यह पा जायगी। मन्टना बा एrरा अप है। यह पर है रिममिप भी पाटे या कोई मायार मा जहर नोद, मारना पन मी रे सा भी मारा मन माप मागे मिल नहीं हा पाना दूध निकापुर बप नारी दि महापारमा मातरर से भरपूर है। मारमा पर हर ना पग घाट पामो-हापार ६ परमा प्रेम पार ही प्रवाहा । 377 हरयो मरा पापर गिर RTो । या गिर Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ निरर्थक है कि महावीर के पैर स्तन का काम कर रहे थे। एक मुनि ने यह सिद्ध करने की कोशिश भी की है। लेकिन उनके तर्कों को सुनने के बाद मैंने उनने कहा कि यदि यह प्रमाणित भी हो जाय तो इसमें महावीर का मूल्य बढता नहीं, बिल सी जाता है। अगर किसी के भी पैर स्तन का काम कर रहे हो तो उनसे दूध निकल आयगा । यदि महावीर के चरणो मे इसी कारण दूध निकला कि वेतन का म कर रहे थे तो इसमे महावीर का अनावरणत्व लुप्त हो गया । पुराण की दृष्टि महावीर के ममं पर है, तथ्य पर नहीं | तथ्य मे जाने पर यह भी जरूरी नही कि किसी सर्प ने उन्हें काटा ही हो। यह भी जरूरी नहीं कि उनके चरणो से दूध निकला ही हो । जरी केवल इतना है कि महावीर का ह्रदर करुणा से ओतप्रोत था, स्नेह से लबालब भरा था, उसने प्रेम की अमृतधारा प्रवाहित होती थी— चरणो तक से मानो दूध निकलता था । यह न कहकर कि महावीर हिंसा का प्रत्युत्तर स्नेह में, विप का प्रत्युत्तर दूध से देते थे, पूराण ने ने ही कविता मे कहा कि नर्प ने काटा महावीर को तो दूध ही निकला उनके चरणों मे । मेरी दृष्टि भी महावीर के अन्तर्जीवन पर उनके महत्त्व पर उनके जीवन की अर्थवत्ता पर है, न कि उनके बहिर्जीवन के तथ्यों पर । अगर मेरी बातचीत से तुममे बेचैनी पैदा हो जाय और यह जानने की उत्सुकता तुम्हें कचोटने लगे कि यह वात मच है या झूठ, तो तुम मुझसे प्रमाण मत पूछना । स्वयं प्रमाण की तलाश मे निकल जाना । अगर बात झूठी भी हुई तो तुम वहाँ पहुँच जाओगे जहाँ पहुँचना चाहिए | और यदि बात सही हुई तो लक्ष्य की प्राप्ति आप ही हो गई। जिन दिन तुम वहाँ पहुँच जाओगे उस दिन जरूरी नही कि तुम लौटकर मुझमे यह कहने आओ । मैंने कहा है कि मेरी दृष्टि शास्त्रीय नहीं है । मै शास्त्रों की निंदा नही करता, क्योकि उन्हें मैं निंदा योग्य भी नहीं मानता। निंदा हम उसकी करते है जिसने कुछ मिलने की सम्भावना थी और वह चीज न मिली । शास्त्र से मिल ही नही सकती । शास्त्र की निंदा का कोई अर्थ नहीं, क्योकि शास्त्र से न मिलना शास्त्र का स्वभाव है । नात्र का स्वभाव है कि उससे सत्य नही मिल सकता । मिल जाय तो आश्चर्य हो जायगा, असम्भव घटना हो जायगी । शास्त्र का रास्ता प्रज्ञा को नही जाता, पाडित्य को जाता है, और पाडित्य प्रज्ञा से बिलकुल उल्टी चीज है । पाडित्य है उवार और प्रज्ञा है निजी । मेरे शब्दों को मानकर जो शास्त्र निर्मित होगे उनका स्वभाव भी ऐसा ही होगा । शास्त्रो का यही स्वभाव है | चाहे वे शास्त्र महावीर के हो, चाहे बुद्ध के, चाहे कृष्ण के, चाहे मेरे, चाहे तुम्हारे | इससे कोई फर्क नही पडता । हाँ, अगर किसी को सत्य दिखाई पड जाय पहले तो वह बाद मे शास्त्र मे भी दिखाई पड़ सकता है । इसका मतलब यह हुआ कि शास्त्र किसी को दिखला Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहा सकता, लेकिन जिस दीप पडा है उसे शारम में भी दीस सकता है। उस गाम्य म ही नहा, कद, पत्थर, पहात, दीवार सब म दिसाइ पडता है। यानी यह मवाल फिर शास्त्र का नहा रह जाता । जिसे दिग्वाई पड गया उसे सब म दिखाई पड़ता है। शास्त्र म हम वही पढत हैं जो हम पढ़ सकते हैं, वह हमारे मान की वद्धि नहा करता । अनानी आदमी शास्त्र के सामने खड़ा होकर यह न सोचे कि उसे परकर वह ज्ञानी हो जायगा। हा, जहा नानी को शास्त्र मे नान मिलेगा वही अनानी को अनान ही दिखता रहेगा। और मजा यह है कि मानी शास्त्र मे देखने नहीं जाता, पर अनानी उमे अपना सहारा बना रता है। अक्सर ऐसा होता है कि सुदर आदमी दपण से मुक्त हो जाता है और कुरूप आरमी उसप आस पाम घूमता रहता है। ___ हा माना है किसी दिन मेरे मा श- सगहीन हो जायें आर लोग उन्हें पकडकर शास्त्र बना लें। उसी दिन मरे शा की हत्या हा जायगी। फिर भी, न्यान रह किम किताव का विराधी नहा गाम्न का विरामी हू । फ्तिार दावा नहा करती सत्य दन का । उसका दावा है सिफ सग्राहक हान का । शास्त्र का दावा मिफ सग्राहक होने का नहीं सत्य दने का है। लाओ से की क्तिाव की तरह जो केवल विनम्र सग्रह है वह शास्त्र नहा, मात्र किनाव है। शास्त्र पिसी में कुछ बोलन से नहीं वनता शास्त्र जनता है शताको पक्डन स । महावीर क बोलन स शास्त्र नहीं बना, गणघरा क पबटने से बना है। इमलिए वाणी ही ऐमी कांटा वाली हो, जगारा मे ऐमा मरी हा कि पडना मुशिल हा जाय । लेकिन अगार भी वुम जात हैं, एक न एक दिन रास हो जात है जार पर डनेवाले उहें भी मुटठी म पाड रेत हैं। इसी कारण नाना को पुराने नानिया की दुश्मनी म वार नार सडा हाता परना है । सब पूछो ना यह दुश्मनी नहीं है, मित्रता है । आर इसम वडी मित्रता हो नहा मानो क्यारि इस भाति जा रास पकड री गइ है उसमे नानिया द्वारा ही छुट्यारा हाता है। इसलिए जिम महावीर स प्रेम है वह जनिया व खिलाफ सहा हाराही । अगर महाबार भा लोट जाय ता उहें भी उनक सिराफ गटा हा पडेगा क्यापि उहाने जा दिया था वह जीवित अगारा था वह पपडा नहीं जा सा था सिफ किया जा सरता था समगा जा सकता था। यह अब रास रह है । लागा ने उस परड लिया है और व उस पक्ड वठ गए है । न बुद्ध महावीर के सिताफ हैं न महावार कृष्ण न । खिलाफ हैं गास्त्र वा जान ये । और जहाँ भी शास्त्र बन जाता है वहा सत्य मर जाता है। इसलिए लडाइ जारी रहती है । रिसी मानी पर वह सम नहीं हो जाता। आनाले मानिया का अतीन मानिया का राइन करना ही हागा। यह वडा कार पृय है पिन प्रेम इतना पठार भी होता है। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन फकीर बुद्ध के अनुयायी होते है। फिर भी एक जेन फमीर ने अपने अनुयायियो से कहा है कि अगर बुद्ध भी तुम्हारे और मत्य के बीच आ जाये तो एक चांटा मारकर उन्हें अलग कर देना । एक दूसरे जैन पनीर का रहना है कि यदि युद्धा नाम भी मुंह मे आ जाय तो पहले कुल्ला करके मुख माफ कर लेना। वह एक और तो अपने मन्दिर मे बुद्ध की मूर्ति रसता है, फिर दूनरी और लोगो को नमनाता है कि बुद्ध से बचना और कहता है कि इनके लिए मजे बु का आगीर्वाद प्राप्त है। असल मे जो सीटी है वह मार्ग का पत्थर भी बन सकती है और जो पत्थर है उसे सीढी बनाया जा सकता है। सब-कुछ बनानेवाले के ऊपर निर्भर है। जब पुगनी सीढी पत्थर बन जाती है तब उसे मिटाने की बात करनी ही पड़ती है। यह लड़ाई निरन्तर जारी रहेगी। मैं जो आज कह रहा हूँ उने वल गलत कहने की हिम्मत जुटानी ही पडेगी। मुझसे प्रेम करनेवाले किसी व्यक्ति को मेरे खिलाफ लटना ही पडेगा। जो व्यक्ति हमारे लिए मुक्तिदायी सिद्ध हो सकता है उने ही म बधन बना लेते है और जव उसे बधन बना लेते है तब उसमे भी मुक्ति दिलानी पटती है। ऐतिहासिक तथ्यो पर ध्यान केन्द्रित रसनेवाले पुराण और अध्यात्म की साकेतिक भापा समझ नहीं पाते । मिसाल के तौर पर तीर्थकरो की मतियो को ही लो। तुम कोई फर्क नही बता सकते उनमे, सिवाय चिह्नो के। अगर चिह्न अलग कर दिए जायें तो मूर्तियां एक जैसी है। क्या ये चौबीसो तीर्थ कर एक-जैसे रहे होगे ? क्या यह ऐतिहासिक मामला हो सकता है कि इन चौबीस आदमियो की एक-जैसी आँख, एक जैसी नाक, एक जैसे चेहरे, एक जैसे वाल रहे हो ? नहीं, यह ऐतिहामिक नहीं, आन्तरिक तथ्य है। जैसे ही व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, सब भेद विलीन हो जाते है । हमारे भीतर एक ऐसी जगह है जहाँ नाक, चेहरे आदि मिल जाते हैं। जो लोग एक-जैसे हो गए, उन्हें कैसे वताएँ ? तो हमने मूर्तियाँ एक जैसी बना दी। महावीर का चेहरा कैसा था, यह सवाल ही नही रहा । मतियो मे तीर्थकरो के भीतरी साम्य को प्रकाशित किया गया। जैसे ही चेतना एक तल पर पहुँच गई, सब एक हो गए-उनके चेहरे एक हो गए, अलग-अलग आँखो से झाँकनेवाले चौबीस तीर्थकर एकरूप हो गए। होठ अलग-अलग, लेकिन जो वाणी निकलने लगी, वह एक हो गई, भीतर भिन्नताएँ लुप्त हो गई। मूर्तियों सव शान्त है, स्थिर है। उनमे कोई गति नहीं, कोई कम्पन नही । पत्थर की मूर्तियों चुनी गई, क्योकि पत्थर सबसे ज्यादा ठहरा हुआ तत्त्व है और उस ठहराव मे भी हमने जो रूपरेखा चुनी, वह बिलकुल ठहरी हुई है । हाथ जुड़े हुए है, पैर जुड़े हुए है, पद्मासन लगा है, आँखे आधी वद है । ध्यान रहे, आँखे अगर पूरी वद हो तो खोलनी पड़ेगी, अगर पूरी खुली हो तो बन्द करनी पड़ेगी, क्योकि अति से लौटना ही पड़ता है-अति पर कोई व्हर नही Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता। इसलिए आम माघी खुली हैं, आधी बद हैं। औसा या मध्य म हाना ठहराव का सूचर है। अर रही योई गति नही, वही आना जाना नहीं। न पीछे सौग्ना ह, नाग जाना । __ अन विचारणीय है लि जहाँ चीनीम तीयाग की मूनियां एक जसो हैं यहा युद्ध और महावीर की एव जसी नही, यद्यपि दाना समकालीन थे। इन नाना पो मूतिया एप जमी हो साती धी। लेकिन नहीं हुई, इमया भी कारण है । ध्यान रह मि चौवीस तीयवरा की एक विशिष्ट धारा है। इस धारा न साचन या एक ठग निर्मित पिया है, अभिव्यक्ति की एव मातिय भापा-~-कोर रंग्गज निर्मित की है । एप भापा एवं ढग, एक प्रतीप पी व्यवस्था हुई है सदा की परिभाषा और उनके प्रयोग या ढग निर्मित हुआ है । परनु यह गाई तीधर निर्मित हा करता, उसर हो। सस्पन निमित हारा है उसकी, माजी म निर्मिन होता है। महावीर पर नापर यह पारा सम हो जाती है। युद्र एक नई धारा के लिए प्रारम्न हैं। इस कारण उन्हें जार दवर यहा पर मिव महावीरवारी पारा म मिन्न है। उहें गालि या य पुराना पारा से जुड Tजायें इसलिए उन्हें यहुन मरत हाना पड़ा। जौर मी पारण जहरी महावीर न युद्ध य सिरप एर” मी नहा यहा यही बुद्ध । पर वार महावीर या पान पिया और यात कठार - महे । यस्तुन महागोर पर थे, बुद्ध जया, मरायीर विना हा रह पे और बुद्ध या बागमन हो रहा था। उनर लिया भट याना एकम जारी था। इगरिा उहान साताप महा पि मगवीर मी परम्पा ग म युध रेना * हा वह पिपुर गत है मेष माना गि हाती हुई घयाया है, उसरा मम्मच जाटा तान व्यरत्या जागाम वाया उपस्थितगा। इम गम्मच म यर भी घ्यारा यार है कि मगवीर परियामा पारा प्रमाणित परतो है यह पारग पारी मि पारी पारि पारी पारा है। एग व्यक्तित्व निमाम था। जनरगर है। गया माग गरायो पारा प्रमाणित पर गाती।। युद्ध yिfm पररग पति है। गरे सरिता मोरना याना' । उनी या जागवीर ग सामागि सा पर पाया। सिर और मापीर पार पाग है, मारा Imfrman Tो पारा । महापार बार गाय form है। मगर मानिया या पाद ITTET नाम माग ता पापा। मारा निम पाणिमिती ग मगर निनु र ग । नरियाग रति rf ना पागण और ruirएर मा - TRATE पार पर जिगर नए पदामि । Page #24 --------------------------------------------------------------------------  Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम खड Page #26 --------------------------------------------------------------------------  Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय महावीर को जीवनधारा महावीर का मार्ग कह चरे। यह चिट्ठे ? हमासे? यह मए? यह भुजन्तो भाम तो पाव चम्म न व धइ ?' --दरा०अ०४गा०७ महावीर को जा जीवनधारा है यह पुरप की है। पुरष और स्त्री ये मानस म बुनियादी भेद है। स्त्री के पास जो मन है वह निस्त्रिम है, 'पसिव है, पुरेप का मा मायामा-ऐनमित्र-है। स्त्री प्रेम भी करता आश्रमण नहा करेगी--वह वटकर अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करेगी। वह जा पा सकती उठार उममे पाम । यह प्रम परली है सही पर विवाह का प्रस्ताव नहा परती प्रतीला परती है कि पाव उमा प्रेमी प्रम्ताय पर। हो यह प्रस्ताव के लिए योजनाएं बनाती है प्रयत्न करती है कि प्रस्ताव दिया जाय । सपिन प्रस्ताव दिए जान पर वह सीधे 'हाँ नहा मरती क्यापि हा मी मात्रामा है। ना' को यह धार धीर हा परीव लानो है। निगटिव है उमा मानस । उसका शारीरिव र नी निगेटिव है 'पातिटिय हो। इसरिए यह पुरुप पर बगसार नहीं परनी हमा नहा परती। यति पुरप राजी नहीं है नो उमा माप वह बाम सम्पप स्थापित नहा पर सरती। रविश यति स्त्री राजी Tमी होतो पुरप उसमे साप सम्माग पर सपना है धमिधार पर सपता है। महावीर की बीवाशितना पुरेप पी जावन चिनना । । गनिए नर मागम म्नीमा मा पा पापाय नहीं है। हमारा मन पर हा त्रिी मापनी अधिकारिलोकहीं। इमरामनाम पायल दता है मगर ममातम TIT नहीं मिल ममता ! उस पर चार पुपातिम TA Pा , सा यर माग की ओर अनारा गरी । हावीर नी परम्पा माल्पा है, आर आरमामा नापार घा मग मात्रमा माग उमर रिलायो। m -मय जाnिा हो ।मालित TO हायार' मा पा | 71 १ नस! मग?गेगाहोगे यह रोमा ? समान पर पोपा ?--मिगे पाव- पोरापान। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी ___ करने की जो चरम क्षमता है, उसके कारण ही वे महावीर कहलाए। उनकी व्यवस्था मे न तो भय की कोई गुजाइश है ओर न समर्पण की। इसीलिए चे परमात्मा को भी इनकार करते है। अगर भगवान है तो समर्पण करना पडेगा । महावीर मान नही सकते कि हमसे भी कोई ऊपर है । पुरुप-चित्त समर्पण नही करता। यह कोई दर्शन की बात नहीं है कि परमात्मा नही है । तुम ही परमात्मा हो, मै ही परमात्मा हूँ ! आत्मा ही शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है। आत्मा ही जब पूर्ण रूप से जीत लेती है तो परमात्मा होजाती है । ऐसा कोई परमात्मा नही जिसके पैरो मे तुम सिर झुकाओ और प्रार्थना करो। अत महावीर का ढग है दृढ सकल्प का और वे कहते है कि अगर किसी भी चीज के लिए पूर्ण सकल्प हो गया हो तो उपलब्धि हो ही जायगी । बुद्ध की बात और है, क्राइस्ट की कुछ और। क्राइस्ट विना सूली पर चढे सार्थक ही नहीं होते। परन्तु अगर महावीर सूली पर चढे तो हमारे लिए व्यर्थ हो जायेंगे। कृष्ण का व्यक्तित्व इन सबमे भिन्न है। कृष्ण और महावीर मे मेल बिठाना सम्भव नही, क्योकि इनमे कोई मेल ही नहीं। फिर भी इन सवका महत्त्व है, ये सब इस अर्थ मे सार्थक है कि पता नहीं, कौन-सा व्यक्तित्व ज्योति की अनुभूति कराए-किस व्यक्तित्व से आपको ज्योति दीखे । किन्तु याद रहे, आपको उसमे ही ज्योति दीखेगी जिसके व्यक्तित्व का प्रकार आपके व्यक्तित्व के किस्म के अनुकूल है। जहाँ महावीर की व्यवस्था मे पूर्ण सकल्प का महत्त्व असदिग्ध है, वही बुद्ध के लिए सकल्प सधर्प है । बुद्ध कहते है सवर्प से सत्य कैसे मिलेगा ? इसलिए सकल्प छोडो, शान्त हो जाओ। सकल्प ही न करो तो उस शान्ति मे सत्य फलित हो सकता है। यह भी ठीक है, यह भी एक खिडकी है और ऐसे भी सत्य मिल सकता है । महावीर भी इसे ठीक बतलाते है। किन्तु, यदि आप महावीर से प्रेम करते है तो आप क्राइस्ट की मूर्ति महावीर-जैसी ढालेगे, क्राइस्ट से प्रेम करते है तो महावीर की मूर्ति क्राइस्ट-जैमी ढालेगे। तभी बात गडबड हो जाती है। क्राइस्ट से प्रेम करनेवाला व्यक्ति अगर महावीर की मूर्ति ढालेगा तो वह महावीर को सूली पर लटका देगा। इसका कारण है कि अभी वह साकेतिक भाषा-'कोड लैंग्वेज'-मैदा नही हो सकती जो सारी मूर्तियो मे काम आ सके । अगर हम झॉकना चाहे सबके भीतर समानता के लिए तो हमे मूर्ति मिटा देनी पडेगी। फिर हमे एक नया कोड विकसित करना होगा । आरम्भ मे बुद्ध को मूर्ति नही थी, परन्तु वुद्ध के मरने के बाद पाँच-छह सौ साल मे उनके अनुयायियो की हिम्मत टूट गई और मूर्ति आ गई । मुसलमानो ने बड़ी हिम्मत जाहिर की। चौदह सौ साल हो गए, किन्तु उन्होने मूर्ति को प्रवेश करने नही दिया । मन मूर्ति के लिए लालायित रहता है। उसकी इच्छा होती है कोई रूप बने । कुछ लोग हैं जिनके लिए समी रूपो मे भल दिखाई पडी है। उन्होने रूप हटाकर भी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी दसा है--पही रया, मुहम्मद का विदा पर दिया, मस्जिद माली रह गई। कुछ लोगा न मदिर और मस्जिद को भी विदा करके दम लिया तीथ भी त्याग नि। सच पूछा तो जग-जस मनुप्यता विसमित हागी, बसे वस व्यक्ति या जाग्रह छाहना ही होगा मूर्तियां त्यागनी ही पदेंगी। जना ने पुछ प्रतीर बचा रखे हैं। उनन चौगीस तायर हैं । जच्छा ता यह होता कि य प्रतीर भी न रहत किन्तु ऐमा न हो मका । योडे से चिह्न बन रह, किन्तु उनग मी भेट हो गया। पारम का मदिर अलग बना महावीर का जलग। उनन चिह म मी भेट ला दिया। चिह्ना का भी विदा करन की जरूरत है। लकिन यह तमी मम्मव है जर मनुप्प का मन - उसर पहले नहीं। यह ठोर है कि जो अनुभव महावीर पा हुआ वही बुद्ध को भी लेकिन उस अनुभव का कहा गया अरग-अलग गु म । महावीर परत है आत्मा को पाना परम पान है । वुद्ध वही, उमी ममय जार उमी क्षेत्र म, कहत है आमा पा मानन रा वहा अमान नहीं है। दाना ठाम पहन हैं और दाना जानते हैं भगेमाति कि जाम पाइ भेद नहा। फिर भी दाना राजी नहा हो मान हम पर पारणा य वारण । राजी ए ता हमारे लिए व्यथ हैं। जिनने बड़े प्याप वग या बुद्ध न प्रमाविन दिया उनन बडे यापप धग या महावीर प्रमापित न कर पर । इमपा मारण यह है कि महापौर प्रती अनीन थे और पद के प्रतीन भरिप्य य । मावीर पाम जा प्रतोद थे, उन पोछे इस तीयारा या धारा थी। प्रनीर मिट चुप थे, प्रचलित हा र परिति । शरिर महायार का बटन पातिवारी व्यक्तित्व मा प्रातिारी मारम हुमा कारण उना प्रती जिनका उहान प्रयोग पिया, अतीत से आए थ। बुद्ध पारित व उना पानिधारी न या जितना महावीर मा, फितु य ज्यापानिमारी मारमहर। उहान ना नापा गुना पर नपिप्य पी पी। इति उनमा प्रमाय उरानर बदमाहा रहा, पापर और गहरा हाना रग, और मान है शासक और गहरा हाता रगा। आगर मा पो म पर प्रभार निरन्तर या जापानपि पवामा प्रा मरना है।चिन पर यह प्रमार' हायो हाना जा रहा है। महा जा मुग पिमहावार ने मामा को यामाहै रितु युर नामा पाइनर पर दिरा युसन महा आमा नहा है। महापौर रासार पिया परमामा, मा-परमामा हाँ है मैंही। बुरन परमामा की यात हा ही साधारर यारदा नहीं माना ! म तrraौ मकाना नरार पर यिा और परामि पारना जाता है, गरा निस IT है। प्रना गा पारेर यहार रही है ही पारित अनुमय पर हामिपति हासा रयास है। मुरादा मी हि पाता Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ महावीर : परिचय और वाणी चाहिए, इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं । अहकार - 'इगो' भी एक बोन के फिर भी महावीर ने जो व्यवस्था की उनमे मोक्ष पाने का सवाल है, ऐग मालूम पड़ता है कि उसमे एक उद्देश्य, एक लक्ष्य है। महावीर ने जो प्रतीक चुने हैं, उनकी वजह से ऐसा मालूम पडता है कि मोक्ष एक लक्ष्य है । उनके लिए साधना करो, तपस्या करो तो मोक्ष मिलेगा | बुद्ध ने कहा कि जब तक लक्ष्य की गापा है तब तक उच्छा हे, वासना है, तृष्णा है । लक्ष्य की बातें न करो। उनका मतलब हुआ कि अभी जियो, इसी क्षण में जियो-कल की बात मत करो । पुरानी दुनिया गरीब दुनिया की और गरीव दुनिया कभी भी वर्तमान मे—इम क्षण में नहीं जी सकती । गरीब दुनिया को हमेशा भविष्य मे जीना पडता है । लेकिन दुनिया बदल रही है, समृद्ध दुनिया पैदा हो रही है । अमरिका मे वन इस बुरी तरह बरस पडा है कि अब कल का कोई सवाल नही । बुद्ध की यह बात कि 'आज इसी क्षण जियो' सार्थक हो जायगी । गरीब दुनिया स्वर्ग बनाती है आगे । उस स्वर्ग मे ही तृप्तियाँ है । यहाँ तो मुख मिलता नही, इसलिए गरीब सोचता है कि मरने के बाद:- स्वर्ग मे - सुख मिलेगा । समृद्ध दुनिया आगे स्वर्ण नही बनाती। वह आज ही बना लेती है, इसी वक्त बना लेती है । हिन्दुस्तान का स्वर्ग भविष्य में होता है, अमरिका का स्वर्ग अभी और यही । इमी कारण हमे ईर्ष्या होती है, हम गालियां देते है, निन्दा करते हैं । उनका स्वर्ग अभी बना जा रहा है, हमारा मरने के बाद बनेगा । पक्का भरोसा नही कि वह बनेगा कि नही बनेगा । वुद्ध ने जो सदेश दिया वह तात्कालिक जीने का है, इमी क्षण जीने का है । महावीर का जो सदेश है, वह मन के संकल्प का है । संकल्प तनाव मे चलता है और इसकी प्रक्रिया तनाव की प्रक्रिया है, परम तनाव की । मजे की बात यह है कि सभी चीजे अगर अपनी पूर्णता तक ले जाई जायँ तो वे अपने ने विपरीत मे बदल जाती है | यही नियम है। अगर आप तनाव को उसकी अति पर ले जाएँ तो विश्राम शुरू हो जाता है । दृष्टातरूप में आप अपनी मुट्ठी वांधे और पूरी ताकत लगा दे उसे वने मे । जब आप के पास ताकत न बचेगी तो मुट्ठी सुल जायगी और आप मुट्ठी को खुलते देखेगे । तब आप वॉच भी नही सकेगे उसे, क्योकि सारी ताकत तो आप लगा चुके है । हाँ, वीरे से मुट्ठी बाँधे तो वह खुल नही सकती अपने आप क्योकि ताकत आपके पास सदा शेप है जिससे आप उसे वाँव रखेगे । महावीर कहते है कि सकल्प पूर्ण कर दो। इससे इतना तनाव पैदा होगा कि तनाव की आखिरी सीमा आ जायगी और फिर तनाव समाप्त हो जायगा, गिथिल हो जायगा । ले जाते है वे भी विश्राम की और, लेकिन उनका मार्ग है पूर्ण तनाव से भरा हुआ -- पूर्ण तनाव, ताकि हम तनाव से बाहर निकल आएँ । बुद्ध कहते हैं, जितना भी तनाव है उससे पीछे लौट आओ, तनाव छोड़ दो, तभी विज्ञान नाता है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २३ भाषा दुबध है। हम तनाव पसंद नहीं इसलिए मैं कहता हूँ कि भविष्य मी जो महावार को यह दगा मान्य न होगी वहेंगे, हम मरे जा रहे हैं वैस ही, हमारी सी के लिए महावीर की करत । तनाव वैम ही बहुत ज्यादा है। भाषा है वह बुद्ध पास है । पश्चिम वा तपश्चर्या करो | पश्चिमनामी किस अव हम पर कृपा करा, विश्राम दो । महावीर व पहने तस तीयकराव राम् काल में आत्मी प्रवृति व परम विश्राम में जा रहा था । उस जीवन म न बाई तनाव था, न वाई चिता थी । उस स्थिति म सक्त्प वा बढ़ाकर तनाव का पूर्ण करने की बात ही अपील कर भक्ती थी । ता वह चल पडी । फिर एक सत्रमण ' आया । उस मत्रमण मे महावीर बहुत प्रभावी न हा सरे । यहा त विजा लाग उनके पीछ गए व भी उनका मान न मके । वह नाम मात्र की यात्रा रही। नए लोग भी उस दिशा में जान यो राजी न हुए। राज राज मगठा श्रीग होता गया । यह सहा है कि आज मो इताम्बर जन मुनिया को सग्या वाफी है परंतु य जन मुनि महावीर से बहुत दूर है । इहात समझोत कर लिय है परंतु जिन्हाने समझात नहीं किए व दिगम्बर जनमुनि मुवि से बीस नाम बन रह हैं। पूर मुजम सरया जार भी कम होती जा रहा है । तीस पतीस वर्षो म य जायेंगे और तन देवम एक भी गिम्बर जन मुनि नहा रह जायगा । जा दिगम्बर - मुनि आज जीवित ह उनम में का भी नितिनहा है। चूकि एक अथ म ये पुरानी सदी के लोग हैं इसलिए राजी भी है। एक भी शिक्षित आम्मी को ठीक आधुनिक शिक्षा पाए हुए आदमी का दिगम्बर जन मुनि नही बनाया जा सका अब तक बन नही सकता। उत्तर का एक भी जन मुनि नहा है दिगम्बरा वे पास । जो है, अति हैं बिल्कुल कम ममश के लोग है ग्रामीण है। सत्र पचवन व स ऊपर उम्र व लोग है जा वीस पच्चीस वर्षा म विदा हो जायेंगे । दवताम्नर मुनि की सत्या बची है बढती हे क्या िवत्त के साथ वह भाषा का बना रहा है समय करता रहा है समझोत वा तरसोयें निकालना रहा है । पर वह गाड़ी में बैठन लगेगा परमा यह हवाइ जहाज म उडेगा । वह सब समझोते कर लेगा । वह समझौते करने ही बच रहा है । महावीर की साधना साथत्र हो, इसके लिए एक ही उपाय है कि उसे भविष्य की भाषा में पूरा का पूरा रस दिया प्राय । महावीर के ऊपर बहुत पुराना 'कवर' है जन उनपर नई जिल्द होनी चाहिए। महावीर का धारा का इतना अदभुत अथ है यह पा जायतानुसान होगा-पारी मानवजाति का अहित होगा । क्वर बदलन - १ गमन, भ्रमण । दे० म० मे० द०, प० ६२ । धीरे वीरे इनकी जैन मुनि भी मर Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी से जैनियो को नुकसान होगा, महावीर यो धारा का अर्थ खो जाने ने मानव-जाति __ का नुकसान होगा। इसलिए हमें जैनियों के नुकसान की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मनुप्प-जाति की समृद्धि मे महावीर आगे भी मार्यक हो, यही मेरी बामना है । ___मैंने कहा है कि महावीर की नावना पूर्ण संकल्प की नाधना है । परन्तु जैन-परम्परा उसे दमन को नायना कहती है। दमन गब्द मार्थक नहीं, सालान है। अब फ्रायड के बाद जिम नाचनापद्धति ने दमन का प्रयोग क्गि, वह पनि उस गब्द के साथ ही दफना दी जायगी। महावीर की मापना दमन की नायना नहीं है । अनल मे दमन का अर्थ ही और था तब । फ्रॉपट ने पहली बार दमन को नया अर्थ दिया। उन दिनो 'कायालेग' गब्द का हम उपयोग करते थे । वह अब नी मार्गक है। अगर महावीर के गरीर को देखो नो तुम्हे पता चल जायगा कि तुम्हारी कायाफ्लेग की बात नितान्त नासमझी की बात है। हां, अपने मुनियो को देखो तो पता चलता है कि कायाक्लेग नच है। नहावीर की काया को देखकर लगता है कि अपनी काया को नँवारनेवाला ऐना आदमी अन्यत्र हुआ ही नहीं। ऐसी मुन्दर काया न तो बुद्ध के पास थी और न पाइन्ट के पान । इतना सुन्दर होने की वजह से ही वे नग्न खडे हो सके। अमल मे नन्नता को छिपाना कुरूपता को छिपाना है। हम सिर्फ उन्ही अगो को छिपाते है जो कुल्प हैं। ___महावीर कायाक्लेग किसी और ही बात को कहते हैं। जो सुबह घटे नर व्यायाम करता है, वह आदमी नी कायाक्लेग ही करता है। वह पमीन-पनीने हो जाता है, गरीर को थका डालता है। और एक वह भी कायाक्लेग करता है जो एक कोने मे विना खाए-पिए, नहाए गए पड़ा रहता है। लेकिन जहाँ पहला आदनी काया के स्वास्थ्य और नार्य के लिए ही कायाक्लेग करता है, दूसरा आदमी काया का दुश्मन है और उसका कायाक्लेश शरीर को कुरूप बना देता है । महावीर कहते है कि काया का क्रम काया के लिए ही है। काया को सुन्दर-स्वस्थ रखने के लिए श्रम उठाना ही पड़ेगा। इनी प्रकार 'उपवास' का अर्थ है, अपने पास रहना, आत्मा के पास रहना, जैसे 'उपनिपद्' का अर्थ है गुरु के पास बैठना । लेकिन अब उपवास का अर्थ अनगन-'न खाना' हो गया है। न खाने पर जोर देना दमन पर जोर देना है। चार-चार महीने तक कोई आदमी विना खाए नहीं रह सक्ता, लेकिन उपवास मे रह सकता है। उपवास का मतलब है अपनी आत्मा में इतना लीन हो जाना कि शरीर का बोध ही न रहे। गरीर का पता हो तो भोजन की आवश्यक्ता होती है। लेकिन उपवास मे दिन बीत जाते हैं, राते बीत जाती है, परन्तु गरीर का वोध नहीं होता। उपवास से अनगन विलकुल उलटा है। दोनो ने भोजन नहीं किया जाता, लेकिन जहाँ अनशन मे आदमी गरीर के पास ही रहता है, उपवास मे उसे गरीर की मुधबुध Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी नहा रहती। अनगन परोवाले लोग दिन भर, मन ही मन साते रहत है उनके मन म भाजन चरता रहता है। अगर महावार ने चार चार महीने के उपवास किए हैं तो यह इस बात का सबूत है कि उनके पास भारी बलिष्ठ शरीर था, साधारण नहीं। तभी तो ऐसे उपवाम पे बाद भी उनका शरीर बचा रहा । उपवाम का मतलब है कि आत्मा और चेतना एक्दम भीतर चली जाय और उपवास रनवाले सावक का बाहर का खयाल ही न रहे । जब आप भीवर चले जाते हैं तो बाहर का स्मरण ही छट जाता है। शरीर इतना अदभुत यत्र है कि जब आप भीतर रहते हैं आपका शरीर सावधान हो जाता है अपनी व्यवस्था आप ही पूरी कर लेता है। मापका काई चिता करने की जरुरत नही । शरीर की साधना का मतलब है कि जर आप भीतर चले जायें तो आपके शरीर को आपकी कोई जरूरत न रह वह अपनी व्यवस्था आप पर ले । कायाक्रेग का अथ है काया की ऐसी साधना कि वह वाघा न रह जाय, प्रत्युत साधन हो जाय, सीटी बन जाय । रेरिन 'कायारलेग शद सतरनाक है इसलिए ऐसी साधना को 'कायापले मत पहा, इसे कायामाधना कहा । फ्लेग द अनुपयुक्त है , उसमे ऐसा मासित हाता है कि तुम शरीर का सता रहे हो । उपवास को न नाना मत कहो, अनशन मत कहो-उपवास को कहो आत्मा के निकट होना । अनान करने से उपवास नहीं होता, उपवास करने से अनशन हो जाता है। यह बात पयाल म आ जाय ता महावीर की धारा के खा जान का कोई कारण नहीं रहगा । यह भी ध्यान रहे पि महावीर जसा जादमी दुबारा नहीं होता। वस आदमी को पदा होन के रिए जो पूरी हवा और वातावरण चाहिए वह दुवारा असम्भव ह । जोरोस्टर वनफ्युगियस, मिलरेपा-जैस लोग नहीं खोने चाहिए । अलग अलग कोणा मे पहुँच कर उहाने ऐसी ची। पाई है जो वचनी ही चाहिए। वे ही मनुष्य-जाति की असली सम्पत्ति हैं । लेकिन जो उनके रक्षक मालम पडते हैं वही उनको ग्वोए दे रहे है। महावीर के जम से रेकर उनकी साधना-बार के गुरू हाने तक काई स्पष्ट घटना का उल्ख उपर व नही है । जीजस की जीवनी म भी पहरे तीस वर्षों के जीवन का कोई तय्यपूण उल्लेख नहीं है। इसके पीछे वडा महत्त्वपूर्ण कारण है। महावीर जसी आत्माए अपने पिछले जम म ही अपनी यात्रा पूरी कर चुकी होती हैं, उनरे लिए घटनामा का जगत समाप्त हो चुका होता है । स्वय की किसी वासना १ कारण वे इस ज म म नहीं आते । इस जम म आन की प्रेरणा म सिफ उनकी परुणा ही कारण होती है। जो उहाने जाना है जो उहान पाया है उम वाटने के अतिरिक्त इस जाम म उनवा और काई काम नहीं होता । ठोन स समयें तो तीथकर Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महावीर : परिचय और वाणी होने का अर्थ ही है ऐसी आत्मा होना जो अब सिर्फ मार्ग दिखाने को पैदा हुई हो । और जो अभी स्वय ही मार्ग खोज रहा हो वह मार्ग नही दिखा सकता । मार्ग क्या है, इसका पता मार्ग पर चलने से नही, मंजिल पर पहुँच जाने से लगता है । चलते समय तो सभी मार्ग ठीक ही मालूम होते है । उस समय यह जांचने की कमीटी भी नही होती कि जिस मार्ग पर चल रहे है, वह ठीक है या नही । मार्ग के ठीक होने की एक ही पहचान है कि वह मंजिल तक पहुँचा दे । लेकिन जो मंजिल पर पहुँच जाता है, उसका मार्ग समाप्त हो जाता है । व्यान रहे कि मजिल पर पहुँच जाना उतना कष्टसाध्य नही है जितना मजिल पर पहुँचकर मार्ग पर लौट आना । मुक्ति के मजिल पर पहुँचते ही मुक्तात्माएँ खो जाती है निराकार मे । लेकिन थोडी-मी आत्माएँ फिर अँधेरे पंथो पर वापस लौट आती हैं । ऐसी ही आत्माएँ तीर्थकर कहलाती है । किसी-किसी परम्परा मे ये अवतार ईश्वरपुत्र या पैगम्बर के नाम से सम्बोधित होती है । पैगम्बर, तीर्थकर, अवतार का एक ही अर्थ है — ऐसी चेतना जिसका काम पूरा हो चुका और जिसके लिए लौटने का कोई कारण नही रह गया । फिर भी ऐसी चेतनाएँ परम विश्राम के क्षण मे भी मंजिल पर न रुककर वापस लौट आती है । ऐसी ही आत्माएँ मार्गदर्शक होती है । तीर्थ कहते है उस घाट को जहाँ से पार हुआ जा सके । अत तीर्थकर है उस घाट का मल्लाह जो पार करने में सहायता करे, रास्ता बताए । इस जन्म मे महावीर का और कोई प्रयोजन नही है अव । इसलिए उनके बचपन का सारा जीवन घटनाओ से शून्य है | आम तौर से जिन्हे हम विशिष्ट पुरुष कहते है, उनके वचपन मे विशिष्ट घटनाएं नही घटती । चारो ओर चुप्पी होती है । वे चुपचाप वडे हो जाते है और उस क्षण की प्रतीक्षा करते होते है जब वे उसे देने मे समर्थ हो सकेगे जिसे देने के लिए उनका जन्म हुआ है । मेरी दृष्टि मे महावीर को वर्ष - मान का नाम इसलिए मिला । वे वर्धमान इसीलिए नही कहलाए कि पैदा होने से उनके घर मे सब चीजो को बढती होने लगी, धन वढने लगा, यश वढने लगा | उनके नाम की अर्थवत्ता इसमे है कि वे चुपचाप वढने लगे और उनके आसपास कोई घटना न घटी । उनका वढना उतना ही चुपचाप था जितना पौधो का वडा होना या कलियो का फूल बनना होता है। पौधे वडे होते है, कलियाँ खिलती है, पर इसके लिए कही कोई शोरगुल नहीं होता, आवाज नही होती । महावीर का चुपचाप वढना दिखाई पडने लगा होगा, क्योकि घटनाओ का न घटना बहुत वडी घटना है । ऐसा भी कोई व्यक्ति है जिसके जीवन मे कोई घटना न घटी हो, जो इतना चुपचाप वढने लगा हो कि चारो तरफ कोई वर्तुल पैदा न हुआ हो समय मे, क्षेत्र मे ? घटनाओ के न घटने से आप दोगे और Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी उहाने इनकार कर दिया होगा। उन्हें पढ़ने की जरुरत नहीं। शिक्षक जा पढा सक्त हैं, व उन पहरे म ही जानते हैं । इमरिए कोई शिक्षा न हुई। शिक्षा ग्रहण करन या पोई कारण भी न था वाइ अथ भी न था। ___ महानोर के जन्म के सम्बध म एप अयपूण गाया है। पहा जाता है कि व ब्राह्मणी + गम म आए और देवताना न उहें एव क्षत्रिया व गम में पहुंचा दिया । यद्यपि यह तथ्य नहा वि देवताओ न एक स्त्री का गम निकाला और उसे दूसरी स्त्री म रग दिया, फिर भी बात बड़ी गहरी है। इससे पहली सूचना तो यह मिलता है दि महावीर का पथ पुरुष का, आक्रमण का, धनिय का पथ है । उनका जो व्यक्तित्व है उनको मोज पा जा पय है वह क्षत्रिय का है। इस अथ म क्षमिप या है कि वह जीतनेवाले का है। इसी कारण महावीर जिन कहलाए। पिन या मतलब है जीनन वा । यह पुरप जिगका और कोई पप नही सिवा जीतने के । और इसीलिए उनकी पूरी परमरा जैन हो गई। गाया कहती है कि महावीर ब्राह्मणी २ गम मे निकाल पर एक क्षमाणी र गम म डार दिए गए। इम प्रकार के प्राह्मण होन स बचे । ब्राह्मण या माग न ता परमा मा से एडने का है आरन समपण ग्ने या । वह बना है-परमात्मा सस्नो ' अगोमन है। समपण यरोग ? मिसरे प्रति ? उसका अभी कोई पना नही। हम दीन हीन लोगो के पास ममपण के लिए है क्या? और छीनगे म? एप हो माग है पि हम हाय पनगदें विनम्रता से जऔर उसरी मिना स्वीकार पर। अन ग्राह्मण को वति मिक्षय की है और उसका माग भीप मांगन रा। महावार सा व्यक्ति जीतेगा मांग नहीं सकता। इसलिए यदि ऐश व्यक्ति ब्राह्मणी के गम मजा भी जाय तो दाताओं को उस हटानर पिसो क्षपिया रे गम म रग दा परेगा । महावीर या यक्तित्व ही Tमना क्षत्रिय पा है। व मिती ये मामा हाथ नहा फला गस्त परमात्मा ये मन मी हा व जीतेग, इसी म उनके जीवन वी माधाना है। दिनों दाम जो गवाधिक प्रभावी परम्परा यी यह याह्मणा मा घी, अमहाय वनार मांगन याला की थी। सम सह नहीं मि अगहाय हाना बडीमाभुत प्राति है। वह भी एप माग है रविन वह माग बुरी तरह पिट गया पा। जाबरमत पटना पट गईधी वह पर पी। पद्यपि माता या असहाय होने मा सा मी उगी परम्परा नी गाढ़ी और मजवत हो गई थी कि अगहाय प्राप ही सवरा ज्यादा अमर महर पर परत । गण होन का जो मौलिप धारणा पो 'पालवाह्मणी या अवम्पामिना विद्या ग मुस्गर रिरोगमपान माापीर मा गमहरज रिया पार २२. प. ८८८० डॉ० नगदीशः उन जन आम माहिर म भारतीय गमार (१.६ ),प० ३४६ (पारिपनी)। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महावीर . परिचय और वाणी वह खडित हो चुकी थी। ब्राह्मण गुरु हो गया था, वह अपने को ज्ञानी समझने लगा था, वह सबके ऊपर बैठ गया था। इस परम्परा को तोड देना जरूरी या। इसे ही एक प्रतीक के रूप में कहा गया है कि ब्राह्मणी का गर्भ अव महावीर-जैसे व्यक्ति को पैदा करने में असमर्थ हो गया था । ब्राह्मण की दिशा से महावीर जैसे व्यक्ति के होने की सम्भावना न थी । अत उन दिनो जो मवर्प हुआ, वह बहुत गहरे मे ब्राह्मण और क्षत्रिय के मार्ग का सपर्प था। यह भी सोचने की बात है कि जैनो के चौबीसो तीर्थकर क्षत्रिय है। असल मे वह मार्ग ही क्षत्रिय का मार्ग है। लोग पूछते है कि क्या क्षत्रिय के अलावा और कोई तीर्थकर नहीं हो सकता नहीं हो सकता। चाहे वह वेटा ब्राह्मणी के ही गर्भ से क्यो न पैदा हो, वह होगा क्षत्रिय ही। तभी वह उस मार्ग पर जा सकता है । वह मार्ग आक्रमण का है, विजय का है और वहाँ मापा आक्रमण और विजय की है। दूसरी बात जो लोग निरतर पूछते हैं, यह है कि क्या गरीव का बेटा तीर्थकर नही हो सकता? इस सम्बन्ध मे ध्यान रहे कि तीर्थकरो मे मब के सब राजपुत्र थे-क्षत्रिय और राजकुल के थे । यह भी बहुत अर्थपूर्ण है कि जिसने अभी इस ससार को नहीं जीता, वह उस ससार को कैसे जीत सकता है ? राजपुत्र इस अर्थ के सूचक है कि जीतनेवाला कुछ भी जीतेगा और जब वह इस (ससार) को जीत लेगा तब उसकी नजर उस ससार की तरफ उठेगी। जब वह इस लोक को जीत लेगा तब उस लोक को जीतेगा। जीत के मार्ग मे पहले यही लोक पडता है। ब्राह्मण इस लोक मे भी भिक्षा मांगेगा, उस लोक मे भी। वह मानता ही यह है कि जो मिलना है वह प्रभु की कृपा से ही मिलेगा। उसके लिए आक्रमण का प्रश्न ही नहीं उठता। वह है मांगनेवाला, क्षत्रिय है जीतनेवाला । एक दान और दया मे लेगा; दूसरा दुश्मन को समाप्त करके लेगा । इसलिए महावीर के जन्म की कथा वडी मीठी है। वह यह बताती है कि ब्राह्मण की जो कोख थी, वह वांझ हो गई थी। उसमे महावीर-जैसा व्यक्ति पैदा नही हो सकता था। ब्राह्मण का मार्ग कुठित हो गया पा, उसकी परम्परा क्षीण हो गई थी। उसके विरोध मे बगावत जरूरी थी । वह बगावत क्षत्रिय ही कर सकते थे, क्योकि गावत हमेशा ठीक विपरीत से ही आती है । इनी प्रकार महावीर और वुद्ध द्वारा छोडी गई परम्परा भी काल-क्रम से-डेढ हजार वर्पो मे---सूख गई और जड हो गई। तब विपरीत ने फिर विद्रोह किया। ___ कहने की जरूरत नहीं कि गाथाओ ने जो प्रतीक चुने हैं वे बड़े अर्थपूर्ण है। इन प्रतीको को जो जडता से, तथ्यो की भाँति, पकड लेता है वह बिलकुल भटक जाता है। महावीर के सम्बन्ध मे अनेक अनेक गाथाएं प्रचलित है। ये सव की सब प्रतीकात्मक हैं, सत्य है । और कि ये सत्य है, इन्हें गाथाओ मे-'मिथ' मे-~-कहा गया है और इनकी भापा प्रतीको से भरी है। याद रहे कि सत्य को तथ्य की भाषा Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और वाणी में नहीं रहा जा सकता। यदि मत्य पो तथ्य की मांति रने हा वह इतिहास बन ता है । तथ्य के सभी द्वार म य म जाते हैं, लेकिन जो तथ्य का पपडता है वह यहीं जटपर र रह जाता है। तय्य मत्य की सचम बाहरी परिधि है सबसे बाहरी परसा । तथ्य मत्य नहीं है, मिफ सत्य को सम्मावा है। जीवन बहुत टि-है परिए हम एम ही तथ्य का बहुत तरह स देख सकन । सिम्पर यह है रि महावीर अविवाहित रह । प्यताम्बरा यो धारणा है कि व न केवल विवाग्ति थे बल्पि उ ह एव बेटी भी थी। मरा माना है कि महार का विवाह जरूर हुआ हागा, लगिरा 4 विल्कुल अविवाहित की मानि रह हो। जिहाने "म तय्य वादेगा उहान कहा रि महावीर का विवाह हुआ था और जिहाने मया -वेवर गत्य का-या, उहाो घोषणा की कि वह जानमा अविवाहित था। महायोर का अविवाहित होना एक सत्य है और विवाहित होना ए५ तथ्य । याइ व्यक्ति विवाहित हारर भी अपन मन स, चित रा, वासना स अविवाहित हो गया है। विवाहित होन की वासना है कि मैं अयस्त पापी ही, अपन म पयाप्न नहा । दूसरा भी चाहिए जो आए और मुझे पूरा परे। पुग्प ये पिना म्या पाली और अपूरी है। पुरप आए और उसे मर । दिगम्बरा न ठीक ही पहा कि महावीर अविवाहित थे । महावीर म किमी से पूरे होने को माई कामना हा न बची थी वही पाइ अधूरापन 7 था। इस साधारण तप्प के एि कि उनवा विवान नुआ था, उहें निवाहित पहा पार अयाय है । हो सकता है कि पनी ने पति पापा हा, लेशि महावीर ने पनी नहीं पाई। यह भी हो सकता है पि पत्नी नासे Tतान मी पाहा । लेगिन गहायोर न ता पिता थे और न पति । विवाह करन और मतान पना परन पी पटना मयत वाह्य तल पर घटी थी। भीतर मावीर पू । जमी पर 7 रन के लिए दिगम्बरा रे पहामिइस आदमी न पमा शासनहा का। पिन राप्य पद या नि महावीर न गादी पी थी। उहनि गारी एवार नहीं मिग हागा। शादी में लिला मार व्यक्ति ही स्त्री या मरम्य नहीं दना यह व्यक्ति नीदता है जापानी लिाइनर परता है। ज्ञापार मरना भी माना हैनिम्त्री भी पुष १ जा पास होगी ता में पुE और हा पाऊगा। मरायो दान मरगर नि बरन तर पा उपाय Tपा ठीक है, पाना है तानाए हा पानी ता न आए । यता बातें अबहान | TT जीरानी - नाना मे भी पता पिपही या गप रही रागी। एनिमहावीर । अपन सिा से मायागी हा सीनामा nिt परे रहा र मापीर पो ! समा जापी पद। T, गणमानी मामा मागनी परती है 'ना है कि मा माया 2 fuaryामने ? म यो माया मामाग्य! गा माना Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी व्यक्ति मोह-बन्धन से मुक्त होना चाहता है। फिर उसके लिए किसी की आना की क्या जरूरत ? जव पिताने आज्ञा न दी तो महावीर चुप हो गए और फिर उन्होने इस सम्बन्ध मे बात तक न की। ऐसा लगा मानो मन्यास लेने या न लेने से उन्हें कोई बुनियादी फर्क न पडा । इसलिए उन्होंने जोर नही दिया--आज्ञा मिलती तो ठीक, न मिली तो ठीक | पिता की मृत्यु के बाद मरघट मे लौटते वक्त उन्होंने अपने वडे भाई से सन्यास लेने की आज्ञा मांगी। वडे भाई ने कहा-तुम पागल हो गए हो । एक तो पिता जी के मरने का दुस और उस पर तुम्हारा सन्यास लेने का निश्चय ! वह भी यहां, रास्ते पर | मुजसे ऐसी बात कमी मत करना। महावीर ने फिर कभी सन्यास की बात न की। लेकिन कुछ ही दिनो मे घर के लोगो को ऐसा एहसास होने लगा कि महावीर घर मे है और नहीं भी उनका वहीं होना न होने के वरावर है। महावीर इस प्रकार रहते मानो वे उस बड़े भवन मे __ अकेले हो, कुछ पूछने पर 'हाँ' और 'ना' में भी उत्तर नहीं देते, किमी पक्ष या विपक्ष मे नही पटते । तर घर के लोगो ने उनसे प्रार्थना की कि अब आपकी मर्जी हो तो आप सन्यास ले ले, क्योकि हमे तो ऐसा लगता है कि आप सन्यास ले ही चुके। म क्यो इस पाप के भागीदार हो कि आपको रोक रखे? और महावीर निकल पड़े। मेरी दृष्टि मे यह सत्य है कि महावीर विवाहित थे। परन्तु, उनके जैसा व्यक्ति पति कैसे हो मकता हे ? पति होना एक तरह का दुर्व्यवहार है, एक प्रभुत्व है, स्वामित्व है। जो व्यक्ति जड वस्तु पर भी प्रभुत्व रखना नहीं चाहता, वह भला किमी जीवित व्यक्ति पर प्रभुत्व रसना चाहेगा ? ऐसी कल्पना ही असम्भव है। हो सकता है, उन्हे लडकी भी जन्मी हो। परन्तु महावीर पिता न वन पाए । पिता की आकाक्षा अपनी सन्तान मे जीने की होती है, वह मरकर भी अपने पुत्रो और अपनी कन्याओ मे जीना चाहता है। वेटे मे वाप की महत्त्वाकाक्षाएँ जीती है, उसका अहकार पोपित होता है । महावीर-जैसे व्यक्ति मे मृत्यु के बाद भी जीवित रहने की आकाक्षा का सवाल ही पैदा नही होता । न अहकार है और न होने की तृष्णा । वे लौटे हैं वहाँ से जहाँ सब कुछ खो जाता है, जहां सारी कामनाएँ राख हो जाती है। ___महावीर के सम्बन्ध मे ऐसी और भी बात कही जाती है। जैसे एक वर्ग मानता __ है कि उन्होने वस्त्र पहन रखे थे, चाहे वह देवताओ का दिया हुआ वस्त्र हो या आँखो से न दिखाई पडनेवाला वस्त्र । दूसरे वर्ग की मान्यता है कि वे विलकुल नग्न थे-किसी प्रकार का वस्त्र उनके शरीर पर न था। ये दोनो वाते एक साथ सच है। यह विलकुल सच है कि महावीर ने वस्त्र छोड दिए थे। लेकिन उनकी नग्नता ऐसी न थी कि उसे ढाँकने के लिए वस्त्रो की जरूरत पडे । कोई वस्त्र पहनकर भी नगा हो सकता है, अपनी नग्नता प्रकट कर सकता है। सच तो यह Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी है कि नगा गरीर उतना नगा नहीं होता जितना वस्त्र उसे नगा कर दते है । पगुजा वो दवकर उनकी नग्नता का खयाल नहा आता, लेविन पुग्पा और स्त्रिया के वस्न स उनव नगेपन का खयाल तत्काल आ जाता है। और इनसान न ऐसे वस्त्र विवामित पर सिय है शिव उसके शरीर वा उपाडते हैं, ढाकत नहीं । जा वस्त्र ढाक्ता है उसे पसर ही कौन करेगा जिस यक्ति के वस्त्रों को सकर उहें और उघाटन की इच्छा जगे, वह व्यक्ति वस्त्र पहन हुए भी नगा है । इसके ठीक विपरीत महावीर की नग्नता है। जव काई वस्ना म नगा हो सकता है तो कोई अपनी गग्नता म वस्त्र पहन हुए क्या नहीं हो सकता? महावीर विलकुल नग्न थे लेकिन उनकी नग्नता भी वस्न वन गट थी वह किसी को भी नग्नता जसी नही रगती थी । इमलिए एक कहानी वन गइ थी कि महावीर वे वस्त्र दिखाड नहा पडत-उनके वस्त्र देवताआ से मिरे थे उन्हें देवदूतो न दिया था। ऐसी धारणा का पता हो जाना बिल्कुल स्वाभाविक है। पर महावीर निपट नग्न थ । असल म निपट नग्न आदमी ही नग्नता से मुक्त हा सकता है। बुद्ध या प्राइस्ट जम रोग जि होने वस्त्र पहन रसे थे, नग्न हाने की उतनी ही हैसियत रसते थे जितनी महावीर । इनके भीतर मी कुछ छिपान को न था। लेक्नि हा मकता है दूसरा का उनकी नग्नता अरधिकर लगे। दूसरा पर आक्रमण क्या करें? इसरिए उहाने दुमरा की आँखा पर वस्त्र हार दिए, अपन शरीर पर नहीं । और परायी आसो पर वस्त्र डालने का सबमे मरल उपाय यही था कि उन्होने अपने ही शरीर पर वस्न डाल लिए। जव जमीन पर काट चभत हैं तो मारी पथ्वी को चमडे स न ढंककर अपने परा को ही चमडे स ढक रना उचित होता है । सारी पथ्वी को चमड़े से ढंकन की सलाह निरथर है। अपन परा को चमटे से ढंक लें तो मारी पथ्वी पर हम जहां भी जायगे वही चमना हागा । इसी तरह दूसर की आँखा पर वस्न टार न की सबस अच्छी तरकीय यही है कि अपन गरीर पर वस्त्र डाल लिय जाय । सबकी आया पर वस्त्र टालना अगम्भव है, क्यापि पथ्वी बहुत बड़ी है और इस पर रहनेवाले मनुप्या की सम्या शुमार है।। मैं कहता हूँ-तथ्या पर जोर सिप नासमय लोग देत हैं। ममगटार या जार सदा सत्य पर हाता है। 4 लेग जा कहते हैं वि महावीर भी बूढ़े नहा हुए और न का दूसरा तीथरर कमी बूटा हुआ समझदार हैं और उनया वर सत्य पर है तथ्य पर नहीं। तथ्य यही होगा वि महावीर चूढे अवश्य हुए हागे । जव मरना पड़ता है तो बूढ़ा हाना ही पडेगा। रेगिन सत्य रहता है कि महावीर पभी बूढे नहा हुए। तथ्य की दृष्टि से यह असम्भव है इतितास इस वायार नहा परगा, लेकिन मैं यहता हूँ कि गाथाशास्त्र' (मिथारजि) मा परड इनिहारा पर १ मियएगास्त्र, पुराण--स० Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महावीर : परिचय और वाणी पक्ड की अपेक्षा अधिक गहरी है। लेकिन सत्य की अभिव्यक्ति के लिए उने तथ्य छोड देने पड़ते है और कहानी गढनी पड़ती है। मेरी दृष्टि मे तथ्यो का भी मूल्य हे अगर वे सत्य को बता पाएँ, अन्यथा उनका कोई मुल्य नहीं। सत्य की यात्रा में वे मील के पत्थर है, जो गतव की ओर लटयकरते है। लेकिन कुछ नाममज लोग मील के पत्थरो को ही पकडकर रुक जाते है, उन्हे ही अपना लक्ष्य समझ लेते है। हो सकता है कि मेरी बाते आपको कुछ विचित्र लगे। यह कैसे हो सकता है कि कोई मैथुन की प्रक्रिया में गुजरे, उनसे बेटी पैदा हो और वह स्वय वामना और तृप्णा मे मुक्त रहे ? इसके उत्तर मे में कहेंगा कि यदि भोजन द्रष्टा के रूप में किया जा सकता है तो मैथुन क्यो नही? हम किसी भी बिया के मामी हो सकते है, चाहे वह क्रिया अन्तर्गामी हो या वहिगामी। असल मे जो भोजन गरीर मे जाता है, वही मैथुन मे गरीर से बाहर निकलता है। अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो जाती है, कर्ता मिट जाता है। केवल शरीर एक उपकरण वन जाता है। लेकिन साधारणत मैथुन मे आदमी विलकुल सो जाता है, वेहोग हो जाता है। तब केवल शरीर ही उपकरण नहीं बनता, भीतर आत्मा भी सो गई होती है, मच्चिन हो गई होती है । और मैथन का विरोध केवल इनीलिए है कि जात्मा की सर्वाधिक मूर्छा मैथुन मे ही होती है। अगर आत्मा अमूच्छित न्ह जाय तो वात खन्न हो गई। सुनना भी एक क्रिया है। अगर तुम साक्षी हो जाओ तो पाओगे कि सुनने के साथ-साथ तुम दूर खड़े होकर सुनने को देख भी रहे हो। इसी तरह यद्यपि मै वोल रहा हूँ, फिर भी पूरे वक्त यह जानता हूँ कि मेरे भीतर अबोला भी कोई खडा हे। असल मे जो अबोला खडा है, वही मैं हूँ । स्वास चल रही है और अगर मैं इसे देख रहा हूँ तो स्वास का चलना या न चलना जगत् की विराट् व्यवस्था का हिस्सा हो गया और मैं क्रिया से भिन्न हो गया । हाँ, मैथुन मे साक्षी होना सर्वाधिक कठिन है । इसका कारण है कि यह एक ऐसी क्रिया हे जिसे प्रकृति ने मनुष्य के ऊपर नही छोडी। यदि मनुप्य के ऊपर छोड दी गई होती तो वह ऐमी ऐब्सर्ड, ऐसी व्यर्थ और वेमानी क्रिया कभी न करता। इसीलिए प्रकृति ने इसके लिए बहुत गहरा सम्मोहन डाला है उसके भीतर। इसी सम्मोहन के प्रभाव मे तारा खेल चलता है। इसीलिए वह अपने को विलकुल विवश पाता है। लेकिन यह सम्मोहन तोड़ा जा सकता है और इसको तोड़ने की विधियाँ है। सबसे बड़ी विधि साक्षी होना है। कृष्ण और महावीर-जैसी आत्माएँ मैथन की प्रक्रिया मे भी निरपेक्ष द्रप्टा-मात्र रहती है, कर्ता नही बनती। गोपियो से घिरा रहना कृष्ण के लिए एक लीला है, खेल है, जिससे उनका कोई मतलब नहीं। ससार मे जीने के दो ही रास्ते है चाहे तो सोकर जियो या जागकर जियो। सोकर जीनेवाले भोजन भी सोकर करते है, कपडे भी नीद मे पहनते है, प्रेम और सम्भोग Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ महावीर परिचय और वाणी __ से भी सोए हुए गुजरते हैं । कृष्ण और महावीर का माग इस विपरीत है । वह दूसरा माग है जिस पर चरनवाल लोग प्रत्यक किया जागकर करते है। ___ यह स्वाभाविक है कि महावीर जसा व्यक्ति हमारी समझ म मुपिल से आए। व स्त्री से न तो भागते हैं और न उमम उत्सुक है न उ मुस हैं और न विमुग। न तो राग म ह और न विराग म । इसलिए उत् वीतराग कहा गया है। राग और विराग एव ही सिक्के के दो पहलू हैं। हो सकता है कि हम राग का दुश्मनी म विरागी हो जायें या विराग की दुश्मनी में रागा बन जाय । लकिन वीतराग वह है जिसम न राग है और न विराग, जो सहज सडा रह गया है-न भागता है गौर न माता है न बुलाता है और न भयभीत है। महावीर के पीछे चरनवाला साधक राग से विगग को पकडता है । वह अपन राग को बदलता है विराग मे। विरागी सिफ उल्टा रागी है-शीपासन करता हुआ रागी। रागी बंधन को आतुर है विरागी वधन से भयमीत है। लेकिन वचन दोनो के केद्र म है। दोना की नजरों म बधन है। वीतरागी का पहचानना बहुत मुश्किल है, क्याकि जान पहचा बटसर स उमकी ताल नहा हा सक्ती और वह रागी विरागी के चिर परिचित वर्गों के बाहर पड़ जाता है। हद को हम पहचान सक्त है निद्वन्द्व को नहीं द्वत का पहचान सकते है, नद्वत का नहीं । महावीर के सताए जाने का जो लम्वा उपश्रम है उसम भी उनकी वीनगगता हो वारण है। विरागी को इस मुल ने कभी नहीं सताया-रागी विरागी का ममी सता भी नहीं सकते, उरटे वे सदा विरागी को पूजते है। लेकिन वीतरागा को दोना सताते हैं, क्याफि वे उस बेशन आदमी का समझ नहीं पात । महावीर का जमाना नहावीर को बिलकुल पहचान न सका। वे अपने युग के समी मापदडो स लग खड़े थे, इमरिए उतारना, उन पर लेविर लगाना मुश्किल था। ___महावीर मते थे वेगत थे इसलिए उन्हें पहचाना न जा सका। पूछने पर भी किव कान है वे निरतर मौन रहत । गाय वा चरवाहा अपनी गाय और चल उनक पास छोड जाता और कहता-दसना इन्ह म भा लौट कर जाता हैं मेरी गाय सा गई है। महावीर नहीं रहते शिम नहीं देखेगा। वे यह भी नहीं वहत किम दखूगा। वे निश्चल रहत माना पुछ सुना ही नहीं। चरवाहा लौटकर देसता विन ता उमका गोए है न बाया पही पता है। वह महावीर स पूछता, रेपिन व वैम ही पडे रहत । वह मारपीट करता और महावीर उस सह एत । थाही देर बाद गौएँ रोट आती घर वापस था जाने । चरवाहा दुखो हाता आर महागीर स क्षमा मांगता । तब भी व बमे ही खडे रहत । ऐसे यक्ति को पौन समन पाता? पीठे जिहाने शास्त्र रचे, उहाने कहा-महावीर वडे क्षमागील य । पाई मारता था उन्हें तो वे उसे क्षमा पर देन थे । लेकिन गास्न रचनेवाल उहें ममप न पाए। क्षमा वहीं करता है जो प्राय परता है । क्षमा क्राप के बाद का हिस्सा है । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महावीर : परिचय और वाणी जब महावीर मे कोय ही नहीं तो क्षमा कौन करेगा, किनको करेगा ? वे गग-विराग के बाहर थे, चुनाव के बाहर थे, अच्छे-बुरे के बाहर थे । यही वीतरागता उनकी परम उपलब्धि है । यह जीवन का अन्तिम विन्दु है, इसके ठीक बाद मुक्ति की यात्रा गुरु हो जाती है। वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं हो सकता। न तो रागी मुक्त होता है और न विरागी । रागी के मन में विरागी के प्रति आदर का भाव होता है, वह विरागी की पूजा करता है, वह भी विरानी होना चाहता है । विरागी के मन में रागी के प्रति ईर्ष्या होती है, वह नामने नो आत्मा-परमात्मा की बात करता है किन्तु एकान्त मे निपट सेक्स की । दूसरी बात उनके चित्त में होती ही नहीं । हो मकता है कि मधुशाला मे या वेश्या के घर बैठा हुना आदमी मन्यानी हो जाय और कहे कि सव वेकार है। परस्पर विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को माकृष्ट करते ही हैं। इसी कारण सगी वैराग्य लेता है और विरागी रागी हो जाता है। पूरव विज्ञान की ओर और पश्चिम अध्यात्म की ओर आकृष्ट हो जाता है। जो इस जन्म में रागी है, हो सकता है वह अगले जन्म मे विरागी हो जाय और जो इन जन्म मे विरागी है, वह अगले जन्म मे रागी हो जाय । आमतौर से लोग सोचते हैं कि इस जन्म मे जो मंन्यानी है, उसने पिछले जन्म मे संन्यासी होने का अर्जन किया होगा । वात ऐसी नही है। इन जन्म मे जो विरागी है, वह पिछले जन्म मे राग के चक्कर मे घूमता रहा है। जाति-स्मरण का प्रयोग महावीर की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण देन है। यह एक ऐसी ध्यान-पद्धति है जिससे व्यक्ति अपने पिछले जन्मो ने उतरकर देख सकता है कि वह क्या था। पिछले जन्मो को जानते ही आदमी बदल जाता है । वह पाता है कि यह सब तो मैं वहृत वार कर चुका, इससे उलटा भी कर चुका, मगर मुझे कुछ भी न मिला । न तो मैंने राग मे कुछ पाया और न विराग ने। न तो राजमहलो मे और न दीन-हीनो की झोपडियो मे, न तो पूरव के अध्यात्म में और न पश्चिम के विज्ञान मे। जन्मो का ऐसा स्मरण हो जाय कि हम दोनो ओर घूम चुके हैं---राग को वैसी ही गहरी अनुभूति की है जैसी विराग की-तो तीसरा उपाय दीख पड़ सकता है। यह तीसरा उपाय महावीर की वीतरागता का उपाय है। अगर भोग नही, योग नही तो तीसरा रास्ता क्या है ? तीसरा रास्ता सिर्फ यह है कि हम दोनो के प्रति जाग जायें । महावीर कहते है कि दोनो 'अतियो' मे बहुत घूम चुके । क्या कभी हम जागेगे और उस जगह खडे हो सकेगे जहाँ कोई 'अति' नहीं है, कोई विरोव या द्वन्द्व नही है ? वे कहते है कि सभी द्वन्द्व दूसरे से बांधते है, इसलिए द्वन्द्व के प्रति जागने से वीतरागता उपलब्ध होती है। न काम और न ब्रह्मचर्य-तभी सच्चा ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है। न हिंसा और न अहिंसा-तभी सच्ची अहिंसा फलित होती है। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल हो जाता है, क्योकि वह हिंसा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५ महावीर परिचय और वाणी के विपरीत कोई अहिंसा नहीं है। हिंमा के विपरीत जो अहिमा है, वह आज नहीं तो क्ल हिंसक हो ही जायगी। जहा न हिंसा रह गई और न अहिंसा, वही महावीर की अहिंसा है। __ वीतरागता सारे मुत्र के लिए इसके पराडो लोगा के लिए दिन तो है पर असम्भव नहा । इसने कठिन होने का सबस वहा कारण यह है कि यह याठिन मान री गई है । हमारी धारणा ही चीजा को कठिन या सरल बनाती है। एक एक आदमी ने जिस जिम तरह के माामिक बोझ को पक्ड रखा है उसकी वाह से वीतरागता कठिन हो गई है। जो स्वमाव है यह अतत बठिन नहीं हो सकता--विभाव हो कठिन हो सकता है। वह आन-पूण है और उसकी एक झलक पात ही हम पितने ही पहाड सपने को तयार हो सपत है । यरक जब तक नहीं मिलतो तब तक कटिनाई है । और झलक राग और विराग मिलने नहीं देती। राग और विराग के द्वद्व की खिडकी परा सी टूट जाय ता वीतरागता या आन द बहने लगता है। स्मरण रह कि राग विराग म डोलता हुआ आदमी बहुत सतरनाक होता है । इसलिए नियम बनान पडत हैं। परतु नियम बनानेवाले भी राग विराग म डालत हुए आदमी होते है। वे उन लोगा से भी अधिा सतरनाक हैं जा क्वल राग विराग म डोलत होत है। वीतरागता थाही भी उपर पहुई कि नियम अनावश्यव हो जात ह । चित्त जितना वीतराग होगा विवेक उतना ही पूर्ण होगा। वीतरागता पूर्ण हुई तो विवर ही पूण हुआ। वीतरागता के रिए विसी सयम की जररत नही, क्याकि विवा स्वय हो सयम है। अविवेक के लिए सयम की जरूरत होता है। इसलिए सब सयमी अविवको हात हैं । जितनी बुद्धिहीनता होती है उतना ही सयम बाधना पड़ता है । अब तब हमारा समाज बुद्धि की कमी को सयम स पूरा करन की मालिश करता रहा है इसलिए हजारो सार हो गए काई पर नहीं पड़ा। अगर लोग विवेकपूर्ण हो जाय तो समाज वसा नही होगा जैसा हम इस समझते रहे है। पहली दफा ठाय अयो म समाज होगा। अभी क्या है? समाज है, पक्नि नहीं। व्यवस्था छाती पर बठी है और यवित नीचे दवा है । वीतराग चित्त से भरे हुए विवरण लागा के समाज में व्यक्ति बद्र होगा, समाज गौण होगा और उससे देव" हमारे अतथ्यवहार की “यवस्था होगी। विवक्शील यक्ति का अन्त पहार क्सिो याहरी सयम और नियम में नहीं चलगा एक आतरिक अनुशासन से चलेगा। इमलिए मेरा कहना है कि रामा की व्यवस्था म व्यक्ति पर सयम थोपने यो चप्टा यम होना चाहिए, विवक देश को व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए । विवेर स सयम आता है, कि तु सयम स विवेक नहा आना । मयम और नियम का यवम्या को सिफ आवश्यक बुराइ समपना होगा। लाग प्रान परत हैं कि यदि तीयकर पहले जम म ही नपत्य हो परे हाा है Page #44 --------------------------------------------------------------------------  Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचप और पाणी ३७ इग सम्ब घ म मूतिया के महत्व का गमय लेना जरूरी है । मूनिया या सवम पहला प्रयोग पूजा के लिए नही अशरीरी आत्मामा म सम्पर स्थापित करा लिा दिया गया था। यदि महावीर की मूर्ति पर माई बहुत दर तक अपना रित एकान पर और फिर बास बर पर रे तो उस मनि का निगेटिव उसकी आस म रह जायगा। ऐसा प्रयोग मव प्रथम उन लोगो न विया जो अगरीरी आमाआ स मम्वघ स्थापित करना चारत थे । यह निगेटिव महावीर की आरीरी आत्मा से सम्बधित होन या माग बन जायगा। एमा यनत काल तप हा मक्ता है। भारीरी आत्माएं भी परणावा सम्बय साजने की कोशिश करता है। धौरे और उनकी परणा भी क्षीण हो जाती है। पात रह वि वरणा उनी नन्तिम वासना है। जव उनपी समा वासनाए क्षीण हो जाती है तब वरुणा ही सिप रह जाती है। लेकिन अत म करणा भी धोण हा जाती है। मलिए पुराने शिक्षण धीर धीरे या जात हैं। उनकी परणा के क्षीण होते ही उसे सम्व च स्यापित करना पटिन हो जाता है। महावीर म सम्बय स्थापित करना आज भी सम्भव है, रकिन उनके पहरे के तस तीथवा माविता में भी सम्बध स्थापित नहीं पिया जा सकता। यही कारण है कि महावीर पतन कीमती हो गए और प तीयगर गर ऐतिहागिरदीपन लगे। जिन परम्पराओं के शिक्षा समाज भी सम्य च स्थापित हो मवना है वे परमगएँ पपूल रही हैं। अब प्रश्न उठना है कि एक ही समय म दासीयपर पया नहा हात? एक ही परम्परा म, एही समय दा तीपार नहा होत । इसपा मारण यह है पि यदि रिमा परम्परा या ताथकर माम कर रहा है तो दूसरा त पार विलीन हो जाता है। उमपी पाई जमरत नहीं होती। (जस एस ही या म एप हो गमय दा नि पो पोद मरत नहीं होता।) परणा पौडे राम कर सकता है और पोछे ती सम्बय स्थापित किए जा गरन है। पीन प हाथ मनियत पर जान सजावा नुषसा हुआ, म भोगि यो म रा नापा जा सरना। प्रतिवप गुरुपूगिमा रे मिलियन पाम गौ विशिष्ट और लामा मामरायर पे बिर र दिप पदा पर युद्ध में पिर पर स्थापित परा। यह बारा वर्षोंगी RT गुप्न पपया था।ग प्यास्या या पाापा गया । गा TET frटार पांच मी मिणगाम मम बुद अपने पूर म प्र प यपि यह भी माना ।म परीर पभी भी ग्पागार - माना है और अगर बाग यामा परें पापित र प्रारना पर ता पाप पर यहा पर है। शरीर अपत गूम मापा या होता है । यिा या मोतिर TimiT मा गरिख नायन म गाrt गोमा पर है िमाITI मरा माहित FITE मा माकागा जोर एमाप्रति नाम पाया | म गरनी है। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी अन्त मे इस करुणा के महत्व पर गौर करे । मुक्ति के पहले सारी वामनाएँ समाप्त हो जाती है । वस्तुत मुक्ति होती ही उस चेतना की है जिसकी मारी वासनाएं समाप्त हो गई है । लेकिन, अगर सारी वामनाएँ समाप्त हो जाएँ तो अमुक्त स्थिति और मुक्त स्थिति के बीच सेतु क्या होगा ? वह आत्मा, जिसकी समस्त वासनाएँ समाप्त हो गई है, अपने को पहचानने में असमर्थ होगी, क्योंकि उसने अपने को वासना से ही जाना था । इसलिए जब सारी वासनाएँ समाप्त हो जाती है तब सिर्फ सेतु की तरह एक वासना शेष रह जाती है । उसी वामना को मैं करुणा कह रहा हूँ | तीर्थकर होना करुणा की वासना मे होता है ३८ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय महावीर का 'त्याग' पिछले जन्मो की साधना सधनो पमत्तस्म भय, सवओ जप्पमत्तम्म नत्थि भय ।। आचारागमूत्र, ३ ४ १२३ पश जा चुपा है तीथवर यी चेतना पा यक्ति पूणता यो छूकर लौट आता है। इसका अर्थ यह हुआ कि महावीर के लिए म जीवन म करन वो कुछ भी यापी न रहा, मिफ देन को वापी रहा। इस पथन की पई गहरी निप्पत्तिमा म पहली निष्पति यह होगी कि महावीर व सम्य च म यह कहना कि उन्हान त्याग पिया विर बुर व्यथ ह । महावीर न यमी भी भूरपर भी, बाई त्याग नहीं किया । त्याग दिसाई पता है, रविन यह मत्य नहा है। भोग स भरे हुए रागा को किसी भी चीज का छूटना त्याग मालूम पड़ता है। भागा चित्त कुछ भी छोडने म समय नहीं है। वह सिफ पपड़ सकता है, छाड नहीं सकता। जब वह दसता है कि कोई व्यक्ति सहज ही छोड़ रहा है तो इसम ज्यादा महत्त्वपूर्ण और चमत्कार पूण पटना उम मालूम रहा होती । रेपिन महावीर म न पनपा भाव है और न त्यागन का भाव । जो परडत हो रहा, उनप छाइन या ई सवार हो पदा नहा होता। मरावीर का जिन रोग न देसा है और उन त्याग पी चचाया है, व मागी घे-तना सुनिश्चित है। मागी मन म त्याग का बहा मूल्य है। जा हमार पास नहीं होता उमया ही हम मवाधिव' बाप हाना है और म्मरण रह पि नागी चित्त त्याग पानी मोग माही उपारण बनाता है। मागी नित्त पन या ही हा परडना त्याग योनी पपड ऐता है। यह पाता सएि है लिपीजा ये गिना जा अगुरक्षा मारम पटनी है। अमुरला पा नाय मिना गरा होता है उसी पपड भी उतनी ही मजवा हाती है। एपिन जिम चेतना पाया पता गे गया कि सरपर पाई शुरला महा यह न माम मय है गौर नया पागनाया न बुध मो परीपाडा पाना या असुगमाया मावना पारण, मप र सारण। ययुगमा 7 रही तो पपर भी न । ना अपन भातर प्रविष्ट हना। यह तो १ प्रमादो पो समात्र भय है अप्रगत रही नपभीत नहीं होता। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महावीर : परिचय और वाणी प्रतिक्षण, प्रतिपल इतने आनन्द से भर गया है कि उसे कल की चिन्ता नही होती, आज काफी है। ऐसा व्यक्ति पकडता ही नहीं। वस्तुत जिसको पकडने की आदत है उसकी पकड कभी नही जाती-वह छोड़ने को भी पकड लेता है। उसने कभी धन पकडा था, अब वह त्याग पकड लेगा ; उसने कभी मित्र पकडे थे, अब वह परमात्मा को पकडेगा , कल खाते-वही पकडे थे, आज वह गास्त्र पकडेगा। शास्त्र भी खातेबही है और धर्म भी सिक्का है जो कही और चलता है। पुण्य भी मोहरे है जो कही और काम देती है। पकडनेवाले चित्त से छुटकारा तभी मिलता है जब यह दिखाई पड़ जाय कि मै किसी का, किसी भी वस्तु का, स्वामी नही हूँ। यदि मैं कहूँ कि मैं अब इस मकान का स्वामी न रहा, मैने इसका त्याग किया, तो प्रश्न उठेगा-मै ही त्याग कर रहा हूँ न ? और क्या त्याग मैं उसका कर सकता हूँ जो मेरा ही नहीं ? स्पष्ट है कि त्याग करनेवाला यह मानकर चलता है कि मकान मेरा है । चित्त को जब यह वोध हो जाय कि यहाँ अपना कुछ नही तव उसमे रूपातरण हो जाता है और तब कुछ त्यागना और छोडना नही पडता। जो मेरा नही है, उसका त्याग क्या ? अगृही से उस व्यक्ति का बोध नहीं होता जिसने घर छोड़ दिया है। वह तो वह ज्ञानी है जिसने पाया कि मेरा कोई घर नही । सन्यासी उसे नही कहते जिसने अपनी पत्नी का त्याग किया। सन्यासी वह है जिसने पाया कि मेरी कोई पत्नी नही । कहने का तात्पर्य यह कि महावीर ने कुछ त्याग नही किया, जो उनका नही था, वह दिखाई पड गया। इसलिए यह कहना निरर्थक है कि वे सव छोडकर चले गए। वे जानकर चले गए कि कुछ भी उनका नही है। एक वार वादशाह इब्राहीम के राजमहल के दरवाजे पर एक सन्यासी शोरगुल मचाने लगा। उसने पहरेदार से कहा, मुझे भीतर जाने दो, मैं इस सराय मे ठहरना चाहता हूँ। पहरेदार को हँसी आ गई और उसने सन्यासी को पागल समझा । परन्तु सन्यासी न रुका । वह राजमहल के अन्दर पहुँचा ही था कि इब्राहीम ने, जो उसकी वाते सुन रहा था, कहा तुम कैसे आदमी हो जो सराय और राजमहल मे अन्तर नही देखते ! यह सराय नही, मेरा महल है। सन्यासी ने जवाब दिया मैने समझा था कि आपका पहरेदार नासमझ है; आप भी वैसे ही है । पहरेदार क्षमा के योग्य है, आखिर वह पहरेदार ही है। आपको भी यही खयाल है कि यह आपका निवासस्थान है ? सम्राट ने कहा खयाल ? नही यह मेरा घर है, यही असलियत है। सन्यासी ने कहा वडी मुश्किल में पड़ गया मै । दस साल पहले भी किसी ने कहा था, यह महल मेरा ही है । इब्राहीम ने कहा वे मेरे पिता थे, उनका देहावसान हो गया। तब उस फकीर ने कहा मै उनके पहले भी आया था, तव एक और बूढे ने इस महल को अपना वतलाया था। वह भी इसी जिद मे था कि यह महल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ४१ मेरा है। जव इस प्रकार इस महल के मालिक बदर जाते हैं ता इमे सराय बना ती उचित होगा । मैं फिर आऊगा कभी। पक्का है तुम मिलागे ? इब्राहीम न उस फकीर के पैर छुए और कहा तुम ठहरो में जाता हूँ। मुझे यह दिसाई पट गया कि यह महल नही, मराय है। सराम या कोई त्याग करता है? नही, सराय म ठहरता है और विदा हा जाता है। अपन बम | साथ ही महावीर ऐसे बाघ को रेपर पेश हुए थे। एस वाय के लिए सम्पत्ति के त्याग की जरूरत नहीं, जम्बरी है सम्पत्ति के सत्य का आमव । प्रश्न साह और त्याग का नहीं, प्रश्न सत्य के अनुभव का है। यह मेरा महर नही, सराय है'--ऐमा वाय त्याग बनता है ऐसा त्याग किया नहा जाता। इसलिए एसे त्याग ये पीछे कर्ता का भाव नहीं होता और जिस कम के पीछे पना का भाव इक्टठा नहीं होता उस कम स काई वधा पैदा नहीं होता। यानी क्म पमी नहीं बांधता। जिस वम से पर्ता का भाव पदा होता है वही कम वचन का कारण हो जाता है। यदि कोई महावीर से उनके त्यागी हान की बात पहता तो ये हसत और कहतक्सा त्याग ? विसका त्याग ? जा मरा नही था वह नहीं था। यह मैंन जात लिया। त्याग बस र ? त्याग दोहरी भूर है-~भोग की दोहरी भूल। ____मैं कहता हूँ महावीर जसे यक्ति का त्यागी समयने की भर भी नहा करनी चाहिए । सिप अनानी त्यागी हो सकते है पानी नहीं । जसरी बात तो यह है कि नान ही त्याग है। नानी का त्यागा होना नहीं पडता, इसके लिए उसे प्रयास करन की जरूरत नहीं। अज्ञानी को त्याग करना पड़ता है, श्रम उठाना पडता है, सक्रप वाघना पड़ता है। जिस चीज हम द्रष्टा हो जाते हैं वह चीज सपना हो जाती है भार जिस चीज के वर्ता हो जान हैं, वह हमार लिए सत्य हो जाती है चाह वह सपना ही क्या न हो। चाहे जीवन सत्य हो क्या न हो जय हम इप्टा हो जात है तो वह सपना हो जाता है। महावीर त्यागी नहीं, द्रष्टा ह । सम्पत्ति के त्याग या प्रश्न ही नहीं उठता पाकि सपने की भी कोई मम्पदा हाता है ? सपने में कोई त्याग होता है ? भोग भी सपना है त्याग मी सपना है, क्याकि दोनो हालत मे क्ता मौजद है। इस ए रानी न त्यागा है न भोगी वह सिफ द्रष्टा है । एसा नहा कि उसके जीवन म पेवर त्याग वच रहता है और भोग विदा हो जाता है। मांग और त्याग एप ही सिनम के दो पहलू है-यही दीस जाता है। यही नाा वीतरागता है। अगर मैं क्ता नही है, क्र प्टा है. तो वीतरागता फरित हो जायगी। अगर जीवन वा एव कोना नो सपनागे जाय तो वह सपना पूरे जीवन पर फल जायगा । यहाँ जिदगी के जो अनुभव है व सब ये सव समन है, पड खड़ नहा हैं। अगर बेटा असत्य है तो वाप Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी भी असत्य हो गया। महावीर को त्यागी नमानेवाले लोग मूलत भोगी है जो सिर्फ त्याग की मापा समझ सकते है। इसलिए हैरानी होगी कि त्यागियो के पास भोगी इकट्ठे हो जाते है, क्योकि भोगी ही त्याग को पकट पाते है। यह अद्भुत वात है कि महावीर-जैसे अपरिग्रही के पीछे, अगृही के पीछे जो वर्ग इकट्ठा हुआ है वह अत्यन्त भोगी और परिग्रही है। महावीर के पीछे जिन जनो की परम्परा खडी है उन जैनो से ज्यादा धनी और परिपही लोग इस मुक मे दूसरे नहीं । इसका मतलब केवल इतना ही है कि त्याग की भाषा भोगी को बहुत पकटती है और भोगी उसके आसपास इकट्ठा हो जाता है जो उन त्यागी दीसता है। अक्सर अनुयायी गुरु से उलटे होते है क्योकि उलटी चीजे लोगो को आकर्षित करती ही है, पास बुला लेती है । घृणा से भरे हुए लोगो को प्रेम की भापा पकड लेती है । भोगी त्याग से अपने को पूरा कर लेता है। वह खुद तो त्याग कर नहीं सकता, इसलिए त्यागी को पकड लेता है। मन के रहस्यो मे मबसे कीमती रहस्य यह है कि जो हमारे चेतन मन मे होता है उसका ठीक उलटा अचेतन मन मे होता है । अगर चेतन मन में कोई विनम्र है तो अचेतन मन में वह बहुत अहकारी होगा। अचेतन उलटा ही होता है । इसलिए अगर साधु-सन्तो को शराब पिलाई जाय तो उनके भीतर ने हत्यारे, व्यभिचारी निकलेगे और अगर व्यभिचारियों को शराब पिलायी जाय तो । उनके भीतर से साधु-सन्तो की झलक मिलेगी। यदि चेतन-अचेतन का यह द्वन्द्व हमारे खयाल मे हो तो हम भूलकर भी महावीर को त्यागी नही कहेगे। महावीर-जैसा व्यक्तित्व अविभाज्य होता है। उसके भीतर दो खड नही होते । वह जो भी करेगा, उसमे पूरा मौजूद होगा। और ठीक अर्थों मे त्याग उसी व्यक्ति से फलित हो सकता है जिसका व्यक्तित्व अखड हो गया हो, जिसमे दूसरे व्यक्तित्व के उदय होने की कमी कोई सम्भावना न रह गई हो। अखड व्यक्ति मे द्वन्द्व विलीन हो जाता है-न वहाँ त्याग है और न भोग, न क्षमा और न क्रोध । ध्यान रहे कि जो आदमी क्रोधी नहीं है वह क्षमा कैसे करेगा? क्षमा के पहले क्रोध अनिवार्य है। और जो व्यक्ति भोगी नही, वह त्यागी कैसे हो सकता है ? चूंकि हमारी कल्पना मे यह वात नही आती, इसलिए हम एक खड को हटाकर दूसरे खड को बचा लेना चाहते है । असल मे वह हमारी आकाक्षा का सबूत है, महावीर के सत्य का नही । जो नही है, उसी की चाह होती है। चाह ठीक विपरीत की होती है। हममे घृणा है, हम चाहते है प्रेम को, हिंसा है, चाहते है अहिंसा को; क्रोध है, चाहते हैं क्षमा हो, परिग्रह है, चाहते है अपरिग्रह हो । जिन्हे हम अपना आदर्श समझ लेते है, उन्ही पर थोप देते है उन गुणो को जिनकी चाह होती है। साधारण लोगो की जिन्दगी मे द्वन्द्व की लड़ाई का कभी अन्त नहीं होता। वे क्रोध से लडते है, घृणा और हिंसा से लड़ते हैं और जिससे लड़ते है, उस पर सवार Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ४३ होन की काशिश करते हैं। भागी त्यागी हान की कोशिश करता है, रोज रोज पटके खाता है, चढता है गिरता है और परेशान होता है। वह भूल जाता है कि जिसस हमारा सघप हाता है उसका दम स्वीकृति द बैटन हैं। दुश्मन की छाती पर कोई पर तर वटा रह सकता है ? सभी तो उसको छाती छोग्नी ही पड़ती है। और दुश्मन पाई ऐसा-वमा दुश्मन नही अपना ही हिस्सा है। आप ही दवानवाले, आप ही दवनवाले। जिस आप दवात हैं वह ता विथाम कर देता है और जो दवाता है वह थव जाता है। इसलिए जा चीज दवती है वहीं कुछ दिना म दवान रगती है। इसलिए यार रह-रग तो हारेंगे, दवाएगे ता गिरेंगे। कोशिश हानी चाहिए दद से बाहर होन की असह बनन को इप्टा बनन की। जबड व्यक्ति ही दन में समय हाता है, तीयकर-जसी पियति म हो सकता है । मेरा कहना है कि महावीर के गम्ब य म जो आज दिसाद पड़ रहा है वह हमारी भ्रातिया का गटठर है और इस कारण गटठर वना है कि हम वमी चीजा के पास जाकर नहीं देखते---सदा दू से दसते हैं। हम चीजा यो पास स दख भी नहीं मक्त, क्यापि पास स देखना हो तो उनसे सुद ही गुजरना पड़ेगा। इस कारण महावीर के मम्यप मजा भी रिखा गया है वह बाहर से पीचा गया चित्र है। और बाहर से यही दिखाई पडता है कि महर था, इहाने महल छोड दिया धन था, उहाने घन छोड दिया, पत्नी थी, उहाँने पत्नी छोड दी, प्रियजन थे, निक्ट के रिश्तेदार थ, उहनि सय छाड दिए । एप जन मुनि थे। वीस वप पहल उहनि घर-गहस्यी त्याग दी थी। एक दिन उहें एप तार मिला जिसम रिसा था दि उनकी पत्नी का देहान्त हो गया है । मुनि 7 तार पर यहा-~चरो शशट छूटी । जाहिर है कि पली पी पट अभी भी यावी थी। मुनि के चित्त के मिनी न पिसी ता पर यह वतमान थी। पली पो छाडा स सझट या अत नहीं हुआ था। हो सस्ता है, मुनि न यह मी चाहा हा रि पत्नी मर जाय, क्यापि उसवा यह पहना कि 'चलो बाद छुरी उसपी भीतरी आकाक्षा का सबूत भी हो सकता है । एसे मयासी अग्रही नहीं हात । उनरा चित्त उता ही राडित होता है जितना किमो अनागो गहम्य था। इसलिए एस मनि यो समझना आसान है क्यापि हमारा चित्त मी एमाही पटित है। हम भी दुद म जात हैं। एक दूगरी घटना गुनाहूँ। तिप्य अपन गुर की मत्यु पर रो रहा था। चौर, पयामि व उसे पानी समान रह थ । उनम युष न उस गिप्य से पहा मह आपन पर रहे है ? आपया प्रतिष्ठा पर पाना पिर जायगा । आप-और रात है ? गा और रारा ! गिय मांग पर उटाई और यहा में ऐस पानी से छुटकारा पाहाजा रा भी गर । न पान पोगोन भाजा रिएको है। यदि मा एा नया ययन है तो म हा चाहिए यद । ममहा रिया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ महावीर : परिचय और वाणी कि मै ज्ञानी हूँ ? उन्होने पूछा लेकिन, आप ही तो कहा करते थे कि आत्मा अमर है। यदि आत्मा अमर है तो रोना किसलिए ? शिष्य ने कहा आत्मा के लिए कौन पागल रो रहा है ? वह शरीर भी बहुत प्यारा था। अद्वितीय था वह । तुम मेरी चिन्ता मत करो, क्योकि मैने अपनी चिन्ता छोड दी है । हँसी आती है तो हँसता हूँ, रोना आता है तो रोता हूँ। क्योकि अव रोकनेवाला ही नही है कोई। कौन रोके ? किसको रोके ? क्या बुरा है ? क्या भला है ? क्या पकडना है? क्या छोडना है ? सब जा चुका । जो होता है, होता है-वैसे ही जैसे हवा चलती है, वृक्ष हिलते है, वर्पा आती है, बादल घिरते है, सूरज निकलता है, फूल खिलते है। न तो तुम फूलो से जाकर कहते हो कि क्यो खिले तुम और न बदलियो से पूछते हो कि क्यो आई तुम । ऐसा अखंड व्यक्ति ही सत्य को उपलब्ध होता है और ऐसे अखड व्यक्ति से ही सत्य की अभिव्यक्ति हो सकती है। लेकिन अखड हो जाना ही सत्य की अभिव्यक्ति के लिए काफी नही है। अभिव्यक्ति के लिए कुछ और करना पडता है। अगर वह और न किया जाय तो अनुभूति होगी, मगर व्यक्ति खो जायगा। तीर्थकर वैसा ही अनुभवी है । वह जो कुछ करता है, अभिव्यक्ति के लिए करता है। इसलिए महावीर की जो बारह वर्प की साधना है वह मेरी दृष्टि मे सत्य-उपलब्धि के लिए नही है। सत्य तो उपलब्ध था ही। सिर्फ उसकी अभिव्यक्ति के सारे माध्यम खोजे जा रहे है उन बारह वर्षों मे । और, ध्यान रहे, सत्य को प्रकट करना सत्य को जानने से भी कठिन है। जीवन के जितने तल है, जितने रूप है, महावीर ने उन सव रूपो तक सत्य की खवर पहुँचाने की अद्भुत तपश्चर्या की। उनका सदेश मनुष्यो तक ही सीमित न रहे--मनुष्य तो जीवन की एक छोटी सो घटना है, जीवन-यात्रा की केवल एक सीढी है-बल्कि पत्थर से लेकर देवताओ तक पहुँच सके, इसकी सारी व्यवस्था उन्होने की। मेरी मान्यता है कि महावीर की साधना अभिव्यक्ति के उपकरण की खोज की साधना है जो कठिन है, वहुत ही कठिन है। प्रश्न उठता है कि यदि महावीर ने अभिव्यक्ति के माध्यमो की खोज इस जन्म मे की तो फिर उनके पिछले जन्मो की साधना क्या थी जिससे उनके वधन कटे और उन्हे सत्य की उपलब्धि हो सकी ? इस सम्बन्ध मे स्मरणीय है कि तप या सयम से वयनो की समाप्ति नही होती, बवन नही कटते। तप और सयम कुरूप वधनो की जगह सुन्दर वधनो का निर्माण भर कर सकते है । लोहे की जजीरो की जगह सोने की जजीरे आ सकती है, किन्तु जजीर नही कट सकती। इसका कारण यह है कि नयम और तप करनेवाला व्यक्ति वही है जो अतप और असयम कर रहा था। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी सवार तप और सयम का नहीं है। सवाल है चेतना + रूपातरण का चेतना के बदर जान का । और चेतना के दा ही रूप हैं मच्छित भार अमूछित, जसे कम के दो रूप है सयम और जमयम । अगर कम म यदाहट की गई तो असयम की जगह सयम आ सकता है, मगर चेतना इससे अमूच्छित दशा म नहीं पहुंच पायगी । मूच्छित व्यक्ति सोया हुआ होता है, प्रमाद म हाता है। __ अब प्रश्न है कि मूच्छिन यक्ति प्रमाद से अप्रमाद में से पहुँचे ? महावीर की पिछले जन्मो को साधना अप्रमाद की सारना है। हमारे भीतर जो जीवन चेतना है वह परिपूर्ण रूप से कमे जाग्रत हो? इस विषय म महावीर कहते है 'हम विवेक से उठे, विवेक से बैठे, विवेक से चलें, विवेक से भोजन करें, विवेक से सोएँ।" अर्थात, उठते-वठन, सोते-जागते खात-पीते, प्रत्यक स्थिति म चेतना जाग्रत रहे, मूच्छित नही । जीवन यन की भाति न फटे हमारे काय यवत न हो । हम चलें तां चलन को क्रिया के प्रति सचेत रहें, भाजन करें तो भोजन करने की क्रिया का हम सयाल रहे। नौद म ही हम बहुत मार काय करते रखे जाते हैं। वह व्यक्ति जो रास्ते में हाथ हिला हिलाकर बातें करता रहता है यद्यपि उसके साथ कोई नहीं हाता, निद्रा म ही चरता रहता है । ऐसे लोग भी नीद म होत हैं जिनके हाठ हिलत रहते हैं और बातें होती रहती हैं यद्यपि व अकेले होते हैं । ऐसे लोग जाग्रत होकर भी विसी सूरम निद्रा म ही जीवन बिताया करत है। महावीर ने ऐसी निद्रा को प्रमाद कहा है । जागे हुए लोगा के भीतर एक धीमी-सी त द्रा का जाल फला होता है। किसी स धक्का साते ही वे भाव से भर जात है। वे जान उझकर कोष नही करत, फिर भी काध हो जाता है----वसे ही जस काइ विजली का बटन दवाए ता पखा चल पडता है। हम नही कहते वि पखा चल रहा है, पसा सिफ चलाया गया है । हम यह भी नही यह सकत कि उन्होन नोध किया है। हम इतना ही कह सकते हैं कि किसी ने बटन दबाया और उनका कोष चल पडा । आप भी यह नहीं कह सकते कि मैं भोप कर रहा हूँ, क्याकि जो आदमी यह कह सकता है कि मैं काम कर रहा हूँ उस आदमी के लिए कोष करना कभी सम्भव ही नहीं। हम सब नीद म ही जागत और जीत हैं नीद म ही उठने वठते चरते फिरते हैं । हमारी इसी अवस्या को महावीर ने प्रमाद की सजा दी है। यही है मू. को अवस्था। इस मूर्छा से जागरण क्स हो? महावीर की पूरी साधना ही इतनी है कि सोना नहा है जागना है। जागन वी प्रनिया क्या होगी? जागन की प्रक्रिया होगा जागन या ही प्रयास । तैरना सीखने की एक ही तरखीव है कि तरा । तैरना शुस्ट वरना ही होगा, हाथ-पाव चलाने ही हागे, डूबने उतरन के लिए तैयार होना ही पडेगा । यदि तुम पानी में उतरने को राजी न हुए तो तरना वसे सिखाया जा सकता है । जल म उतरवर तरन का अभ्यास करना ही हागा। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ महावीर : परिचय और वाणी उसी शुरूआत से तैरना धीरे-धीरे व्यवस्थित हो जायगा और तुम तैर सकोगे । लोग _पूछते है-जागने की तरकीव क्या है ? प्रमाद से अप्रमाद मे जाया कैसे जायगा? जागने की कोई तरकीव नही है । जागना ही पडेगा। पहले हाथ-पांव तड़फडाने ही पड़ेगे, गलत-सही होगा, डूबना-उतरना होगा। क्षण भर को जागेगे फिर सो जायेंगे। लेकिन जागना ही पडेगा। जागने की निरन्तर धारणा से धीरे-धीरे जागना फलित हो जाता है । जागने की तरकीव का मतलब इतना ही है कि हम जो भी करे उसमे हमारा प्रयास हो, सकल्प हो कि हम उसे जागे हुए करेगे । याद रहे कि अकारण नहीं है गहरी नीद मे कुछ करने का हमारा अभ्यास । सोए हुए जीना वडा सुविधापूर्ण है और, साथ ही, सोए हुए लोगो के साथ सोए हुए रहने मे ही सुविधा दीखती है। यदि लोग चारो ओर सो रहे हो तो जागनेवाले अकेले व्यक्ति की कठिनाइयो का अनुमान नही किया जा सकता । पागलखाने मे किसी आदमी के ठीक हो जाने पर उसे जो तकलीफ होती है वही सोए हुए जगत् मे अकेले जागने की तकलीफ है। महावीर-जैसे लोग जिस कप्ट मे पड़ जाते है उस कप्ट का हम हिसाव नहीं लगा सकते । सोए हुए लोगो के बीच जो व्यक्ति जागता है, वह सोए हुए लोगो का व्यवहार नहीं कर सकता-उसकी भाषा बदल जाती है, उसकी चेतना बदल जाती है और वह विलकुल अजनवी हो जाता है। ___इसलिए साधक का पहला लक्षण है--अनजान, अपरिचित, अनहोनी के लिए हिम्मत जुटाना । हम चाहते है शान्ति और सत्य, लेकिन अपने को बदलने के लिए तैयार हो नही पाते । हम नहीं चाहते कि हमने जो व्यवस्था कर रखी है, जो सम्वन्ध वना रखे है, उनमे कोई हेर-फेर करना पडे । लेकिन हमे पता ही नही कि जव अधे आदमी को आँख की ज्योति मिलेगी तो उसके सव सम्वन्ध वदल जायगे । सोए हुए आदमी ने एक तरह की दुनिया बसाई है, जागा हुआ आदमी इस दुनिया को विलकुल अस्त-व्यस्त कर देगा । मै कहता हूँ कि अगर हम थोडा भी साहस जुटा पाएँ तो जागना कठिन नही है, क्योकि जो सो सकता है वह जाग सकता है, चाहे वह कितनी ही गहरी नीद मे क्यो न सोया हो । ध्यान रहे कि यह साधारण तल पर जागने की वात नहीं है । साधारण तल पर जागने और सोने मे बुनियादी फर्क नहीं है, क्योकि जिसे हम जागना कहते है, वह थोडी कम डिग्री मे सोना ही है और जिसे हम सोना कहते है, वह थोडी कम डिग्री मे जागना है । लेकिन परम जागरण के तल पर डिग्री का भेद नहीं होता, मौलिक रूपान्तरण का भेद होता है । इसलिए सोया हुआ आदमी जाग सकता है, लेकिन जागा हुआ आदमी सो नही सकता । और जागरण की एकमात्र विधि है कि हम जागने की कोशिश करे । जो कुछ भी करे, उसमे जागे हुए होने की कोशिश करे, उसमे पूर्णतया उपस्थित हो, उसे हमारा सारा व्यक्तित्व करे। अगर ठीक से समझे तो ध्यान की अनुपस्थिति ही निद्रा है और उपस्थिति जागरण । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और याणी ४७ प्रयेक क्रिया मे ध्यान उपस्थित हा जाय तो जागरण गुरू हो गया। महावीर जिसे विवेक कहते हैं, उसका यही अय है। रिया मे ध्यान की उपस्थिति का नाम विवेक है और निया मे ध्यान की सनपस्थिति का नाम प्रमाद । एक वार प्रसनचद्र नामक एक व्यक्ति न महावीर से दी नारी । दीक्षा के बाद वह तपश्चया म लोन हा गया । बुट दिना के बाद उसन सुना कि जिन रोगो पर उस न विश्वाम दिया था, जिनकी दम रेप म अपन बच्चे और अपनी सम्पत्ति छोडी थी व विश्वासघात वरन पर तुर हैं और उमसरी सम्पत्ति हडपन को साजिश पर रह है। यह सुनत ही उसका हाथ तलवार पर चरा गया। लेकिन उसके पारा अब तलवार न थी। उसका ऐसा करना इस बात का प्रमाण है कि वह क्षण भर के लिए बहोगा गया था । मोवन उस बेसुध कर दिया था । जब उसे महसूस हुआ वि उसके पास कोई तत्वार नही तर वह उसी क्षण जाग उठा, उमवे सपन सण्ड-खण्ड हो गए और उसने वहा 'मैं यह क्या कर रहा हूँ? मैं व प्रमनपद्र नहीं हूँ जो कभी तरवार उठान का आदी था। महावीर ने एस मक्न सम्राट से कहा था जिस समय प्रसमचन्द्र का हाथ तलवार पर गया था उस समय यदि उसकी देह छूट जाती तो वह सातवें नरप में गिरता । लेकिन जिस क्षण उसकी निद्रा ट्टी और उस असलियत का नान हुआ वह उसी क्षण श्रेप्टतम स्वग का हकदार हो गया । कहने की जरूरत नहीं कि सोया हुआ आदमी नरप म होता है और जो जागता है वह स्वग का हबदार होता है । अत' जागन को चंप्टा हम मतत परनी पडेगा। इसम नई जम भी एग सक्त हैं और जागरण एर क्षण म भी हो सकता है। यह ता प्यास नीर सकल्प की तीव्रता पर निभर होगा। __ महावीर न अपन पिछले जमो म कुछ नापा या ता वह था विवव उहान माधा था जागरण । और यह जागरण जितना गहरा हाता चला जाता है हम उतना ही मुक्त होन चल जात है पुण्य म जीन रगत हैं शात और आनति हो जाते हैं । जिस दिन पूण गागरण की घटना घट जाती है यो दिन विस्पोट हो जाता है चेतना कण-कण जाग्रत हो उन है पाने योग से निदा विलीन हो जाती है । एमी पूर्णतया जागी हुई चेतना ही मुक्त विना है। मूर्छ यांधती है, मूच्छिन पाप मी बापता है, मूच्छिन पुण्य भी बांधता है । मून्छित बसयम भी बांयता है मच्छिन सयम भी बाँचना है। इसलिए गममपि नगर पाई असयम का सपम बनाने म लग गया हातो मग तुम भी न होगा माल उस पातर की चेतना ज्या पो त्या-~-च्छिन हो-होतो यद्यपि उसी प्रिया पर जाती है। सलिए मैं पहला हू-पाप यह है जो जग व्यक्ति नहीं पर माता और पुम्प यह है जा नाग हुए व्यक्ति का परना ही पहता है । साया हुआ आगमा पुष्प य स पर गाता है ? माग हुए व्यक्ति स पाप Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी है कि हम उसमे दुवारा प्रवेश नही कर पाते । लेकिन इस तरह की पद्धतियाँ और व्यवस्थाएँ है कि एक ही स्वप्न मे वार-बार जाया जा सके । यदि इनके सहारे एक ही स्वप्न मे आपने कई बार प्रवेश किया तो आपको स्वप्न उतना ही मालूम होगा जितना आपका यह मकान । मेरे कहने का प्रयोजन यह है कि अगर 'साक्षी' जग जाय तो कल उसने जो जगत् वनाया था, वह विदा हो जाता है और एक विलकुल नया वस्तुपरक सत्य सामने आता है । इस संसार के लिए महावीर 'माया' शब्द का प्रयोग नही करते, क्योकि 'माया' के प्रयोग से लगता है कि यह झूठ है । वे कहते है कि वह भी सत्य है, यह भी सत्य है । लेकिन दोनो सत्यो के बीच हमने बहुत से झूठ गढ रखे है जो विदा हो जाने चाहिए । पदार्थ भी अपने मे सत्य है और परमात्मा भी । वस्तुत दोनो एक ही सत्य के दो छोर है । यदि शकर 'माया' का प्रयोग करते है तो इसमे भी कोई हर्ज नही । हम स्वप्न के जगत् मे जीते है और उस व्यक्ति के समान है जो दिन भर रुपए गिनता रहता है, ढेर लगाता जाता है और अन्त मे उन्हें अपनी तिजोरी मे बन्द कर देता है । रोज गिनता है और रोज वन्द कर देता है । ऐसा व्यक्ति रुपयों की गिनती मे जीता है । और बडे मजे की बात है कि रुपयो मे क्या है जिनकी गिनती मे कोई जिए ? कल सरकार बदल जाय और कहे कि पुराने सिक्के खत्म हो गए तो उस आदमी का सारा मनोलोक बिलकुल धराशायी हो जायगा । हम उस आदमी से भिन्न नही । हमारा भी अपना स्वप्निल जगत् है और हमारे भी ऐसे ही सिक्के हैपरिवार के सिक्के, प्रेम और मित्रता के सिक्के, जो कल सुबह नियम बदल जाने से बदल जायँगे । दूसरे प्रन्न के उत्तर मे इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि पूर्णता की उपलब्धि मे अभिव्यक्ति के साधन सम्मिलित नही है | अभिव्यक्ति की पूर्णता उपलब्धि की पूर्णता से बिलकुल अलग है | असल मे पूर्णता भी एक नही है, अनन्त पूर्णताएँ है । यदि कोई एक दिशा मे पूर्ण हो जाता है तो इसका यह अर्थ नही कि वह सब दिशाओ मे पूर्ण हो जाय । वहुत आयाम है पूर्णता के । एक व्यक्ति पुण्य मे पूर्ण हो जाय तो फिर वह पाप की पूर्णता मे पूर्ण नही हो सकता । पाप की भी अपनी पूर्णता है । सिर्फ परमात्मा ही सब दिशाओ से पूर्ण है क्योकि वह कोई व्यक्ति नही है । और खयाल रहे, अनुभूति की एक दिशा है, अभिव्यक्ति की बिलकुल दूसरी । अनुभूति मे जाना पडता है भीतर और अभिव्यक्ति में आना पडता है बाहर | अनुभूति मे छोडना पडता है सबको और हो जाना पडता है विलकुल 'स्व' – सब छोडकर एक विन्दु | अभिव्यक्ति मे फैलना पडता है, सबको जोडना पड़ता है । अभिव्यक्ति मे 'दूसरा ' महत्त्वपूर्ण है, अनुभूति मे 'स्वयं' ही महत्त्वपूर्ण हे । जानना मौन मे है और वताना वाणी मे । तो जो जानेगा उसको मोन होना पडेगा और जब वह वताने जायगा तो फिर उसे शब्द Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी का सामना करनी पड़ेगी। इस जबरी नहा पिजा अभियक्ति कर रहा हो वह जानना भी हो। हा मरता है उसको अनुभूनि उधार लो हुइ हा । एसे हो आदमी का मैं पडित रहता है। पडितपास अभिव्यक्ति है, अन मति नहा। एस भी लाग है जिन पास अनुभूति है अभिव्यक्ति नहा । नानी और तीयवर म यही फक है। तीथर नानी ही नहीं अमि पक्ति गर भी है और पानी केवल अनुमति-सम्पन व्यक्ति है। मिप अभि पक्ति नहा है उसके पास । ___ अनुभूति को पूणता महावीर या पिरले जम म मिली रेविन अभिव्यक्ति की पूर्णता के लिए उ हैं साधना करनी पडी। और मैं कहता हूँ कि जनमति को पूर्णता उननी पटिन नहा है जितनी अभिव्यक्ति की पूर्णता टिन है। अनुभूति में में मरना है, रेविन अभियक्ति मदमरा भी सम्मिलित हा जाता हैमर या जाना-सगाना दूमरे तक पहुचना मी जम्गेहा जाता है। पाटिनाई में वह भय धारण भी होते हैं जस दूमरे को मापा, दूसरे के अनुभव, दूसरे का "यक्तिद इत्यादि । मष्टि म बरोडा तर व व्यक्तित्व है परोड पराड यानिया म बेटा हुमा प्राण है। उन सब पर प्रतिपनि हा सप, उन मब तक पयर पहुच सब पत्थर भी सुन ले और दया मीएमो साधना बहुत बडी बात है। इसलिए मेपर पान ता बहा रोगा का उपध हाता है दुभा है लेकिन तीयं करा यो सम्पा बहुन पम है। ध्यान रहे कि मनुष्य की शक्ति की अपनी सीमाए है। अगर कोई व्यक्ति मगीत म यस्त बाल हा जाय तो उमपे पान रित हो जायेंगे रबिन आय मदहा जायगी म्पाक्षीण हो जायगा । पर व्यक्ति आरगिलामा म एक्लम मिडजायगा। पाक्ति सामिन है अनुभूतियां आत हैं। यल परमामा म सानहा जान म ही हम गमन म पूर्ण हो जात है। लेकिन एक लिया म भोप हा नाय ना यह उस द्वार पर राहा हो जाता है जहाँ मे परमा मा में प्रवाहाना सनम है। पूणा विमी भी दिलास क्यों न आए, वह परमा मा मे द्वार पर पर ही देता है। अगर यह गयार में हाशि पूर्णता अनल है तो हम समा गगरि सयममा गया माया साना है। इसका मतलब यह नहा विगवा आपका यागिरि ५ पट टायर पा मरम्मा कर देगा और मिमी या टी० बी० हा जाप ता उसारा दवा भी कर देगा। -किन महायार या पाउनयागमवगया युछ एमा ही मतएव समा लिया है। रायगया है जा पूर्णता पाएर ाि पो पार और दगम मय हा पाय ! महावार ना मान या दिशा म पण नर गवाहा पर मय नहा किये यासा पोमारो माना जानन । विप्य म पाहाणा, पर मा गान या मापा यह नोव है याशिव नान या ना "पहा है। नवरा पा मवर व पहा ।। राय यह है ITAL समता म जीना HIT-TI F उस माई द्वारा मि Pाना नही Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ महावीर : परिचय ज्ञौर वाणी चाहता । इसलिए केवल ज्ञानी को जैसे ही शुद्धता उपलब्ध होती है, वह जानना छोड देता है— जानने की क्षमता मे ही रम जाता है । जानने की क्षमता ही इतनी आनन्दपूर्ण है कि वह क्यो जानने जाए किसी को ? अज्ञान जानने जाता है, ज्ञान ठहर जाता है । अज्ञान में जानने की जिज्ञासा होती है, किन्तु ज्ञान की क्षमता उपलव्ध होते ही ज्ञान ठहर जाता है अज्ञान भटकाता है, ज्ञान ठहरा देता है । जिस व्यक्ति को परिपूर्ण ज्ञान की क्षमता उपलब्ध हो जाती है वह तत्काल सभी दिशाएँ छोडकर परमात्मा मे लीन हो जाता है, सर्वव्यापक हो जाता है-बूंद सागर मे गिरकर सर्वव्यापी हो जाती है । दूसरी भी सम्भावना है कि वह एक जीवन के लिए लौट आए और अपनी क्षमता की खबर दे । इसे ही मै करुणा कहता हूँ । इसी करुणा से प्रेरित हो ज्ञानी अभिव्यक्ति की पूर्णता हासिल करने की कोशिश करता है, उपाय करता है दूसरे से कहने का । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय मूक जगत् से तादात्म्य और सापेक्षवाद (स्याद्वाद ) डहरे य पार्ण वुढे य पाणे, ते अत पास सव्यलोए । उव्वेहई लोगमिण महत, वृद्धो पमत्तेमु परिव्वज्जा ॥ - सून० श्रु० १ अ० १२ गा० १८ १ महावार के सामने इस नाम का सबसे बडा सवाल था कि सत्य की अनुभूति की जीवन के सभी तुला तब पेद पाधा से लेकर दवा-देवताओं तक पहुंचाया जाय ? उन्होने afीवन चेष्टा का उनका स्वाद पशु पक्षिया तर यहाँ तर कि निर्जीन समये जानेवार पदार्थों तक पहुँचे । महावीर के बाद एसी योनिश वरनेवाला दूसरा आदमी नहीं हुआ । यूरोप में सात फासिस न पशुपनिया से बात करने की कोशिकी थी बार हमार युग म श्री वरविन्द ने पदाथ तत्व पर चतना वे पदन पहुँचान के लिए यत्न किए थे। लेकिन जसा प्रयास महावीर न किया वसा न पहले भी हुआ था और न बाद में हुआ । ह | I कहा जाता है कि महावीर ने साय को सावना में बारह वर्ष बिनाए। वस्तुत सत्य की अभियति लिए साधन योजन वे वप थे। आर उन्हें मापन मि अगा तब अपना अनुभूति पहुँचा सक्न म उहें सफलता मिलती है । जपनी अनुभूति वा पत्थर और मूक पशुओं तक पहुचान लिए यह आवश्यक है यक्ति परम जड आर मूक अवस्था में उतरे । तभी मूक् जगत से उसका सामनस्य हा सकता है। यदि वक्षा के साथ ताम बिठाना किमी वा अभिष्ट होता उसे किमी वक्ष के पास वठवर पूर्णतया मूव हो जाना पड़ेगा जिसस उसको चेतना बिल्कुल गात होता चली जाय । रामकरण को जड़ समाधि एना ही अवस्था में उतरन यो समाधि थी । 1 जो प्रबुद्ध व्यक्ति मोहनिद्रा में डूबे रहनेवाले मनुष्यों में घीच रहर भी ससार छोटे-बडे सभी को जननी आमा समान देगे, इस महान विश्व वा निरो अप्रमत्त भाव से सयमाचरण में रत रहे, यह मोक्षाचा क्षण करे और सवदा अधिकारी है । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ महावीर : परिचय और वाणी इस सम्बन्ध मे स्मरण रखना होगा कि महावीर की अहिंसा किसी तत्त्व-विचार से नहीं निकली, वह नीचे के जगत के साथ उनके तादात्म्य से निकली है। उस तादात्म्य मे उन्होने नीचे के जगत् की जो पीडा अनुभव की थी, उसी पीडा की वजह से अहिंसा उनके जीवन का परम तत्त्व बन गया था। वह पीड़ा अत्यन्त सघन थी, असह्य थी। उन्होने यह भी महस्स किया कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाय तो नीचे के मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। इसका अर्थ यह हुआ कि हम तादात्म्य उसी के साय स्थापित कर सकते है जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक, आक्रामक भाव विलीन हो गया हो और हृदय प्रेम से ओतप्रोत हो । अगर मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना है तो अहिंमा शर्त भी है, नही तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता। सत फासिस को देखकर नदी की सारी मछलियाँ तट पर इकट्ठी हो जाती, जिस वृक्ष के नीचे वे वैठते, उस पर जगल के सारे पक्षी आ जाते, उनकी गोद मे उतरने लगते, उनके सिर पर वैठ जाते । वन के पशु-पक्षी अपनी अन्त प्रज्ञा से जानते थे कि सत फ्रासिस से उनकी कभी कोई हानि न होगी। यह अन्त प्रज्ञा सभी पक्षियो के पास है। इसी अन्त प्रज्ञा के फलस्वरूप जापान की एक चिडिया भूकम्प आने के चौबीस घटे पहले गाँव छोड देती है । उत्तरी ध्रुव पर रहनेवाले सैकडो पक्षी बर्फ गिरने के एक महीने पहले यूरप के समुद्री तटो पर चले जाते है और हजारो मिल की दूरी तय कर लेते है। आश्चर्य है कि वे इस देशान्तरण की प्रक्रिया मे रास्ता नही भूलते और वर्फ गिरना बन्द होने के महीना भर पहले वापसी यात्रा शुरू कर देते है । वे जहाँ से आते है ठीक वही अपनी जगह वापस लौट जाते है। हमारे हृदय की भावधारा के स्पन्दनो को उनकी यह प्रज्ञा शीघ्र पहचान लेती है, उन्हे स्पर्श कर लेती है, और वे हमसे सचेत हो जाते है । मुझे विश्वास है कि महावीर ने जितने पशुओ और पौधो की आत्माओ को विकसित किया है, उतने पशुआ और पौधो को इस जगत् मे किसी दूसरे व्यक्ति ने विकसित नही किया । सत्य के अनुभव को सवाहित करने का प्रयोग गौतम बुद्ध ने भी किया था, किन्तु वह मनुष्यो से ज्यादा गहराई पर नही गया। सच तो यह है कि न तो क्राइस्ट ने, न बुद्ध ने, न जरतुश्त ने, न मुहम्मद ने, न किसी अन्य व्यक्ति. ने मनुष्य तल से नीचे जो एक मूक जगत का फैलाव है, जहाँ से हम आ रहे है, जहाँ हम कभी थे, जिससे हम पार हो गए-वहाँ पहुँचने का कोई मार्ग बताया। महावीर ने महसूस किया था कि उस जगत् के प्रति भी हमारा एक अनिवार्य कर्त्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दे और खबर कर दे कि वह कैसे पार किया जा सकता है । उन्होने अहिसा के तत्त्व पर जो इतना बल दिया है उसका एक कारण यह है कि नीचे के मूक जगत् से पूर्ण अहिंसक वृत्ति के विना सम्बन्धित होना असम्भव हे । सम्बन्धित हो जाने पर उस मूक जगत् की अनन्त-अनन्त पीडाओ का Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ५५ घोध होता है और न उसके भार की हत्या करने की भावना का पदा होना भी स्वाभाविक है । मुये एसा लगता है कि जाज बहुत से मनुष्य मिफ इसलिए मनुष्य हैं कि उनकी पशुयोति मया पाये की यानि मया उनके पत्थर होने की अवस्था म महावीर न सदेश भेजे थे और उन्हें नवा भेजा था। इस बात की भी साज-चीन की जा सकती है किनिने लोगा का उस तरह का प्ररणा उपलब्ध हुइ और व आग बढे । यह इतना भूत काय है कि कवन इसकी वजन स महाबार मनुष्य मानस ये बड़े से बड़े नाता वन जान है । अगर किसी भी व्यक्ति को पीछे का अविवसित चेतनाओं और स्थितिया स तादात्म्य स्थापित करना है ता उमे अपनी चतना को उही तला पर लाना पडता है जिन तला पर व चतनाएं है । यह जानकर आप हैरान हाग कि महावीर वा चिह्न सिंह है । इसका कारण यह है कि पिछला चेतनाय स तादात्म्य स्थापित करने में महावीर को सरस ज्यादा सरलता सिंह से तादात्म्य स्थापित करन में हुई । उनका व्यक्तित्व भी सिंह जसा है । वे पिछले जन्मो में सिंह रह चुके थे और लाटकर उससे तादात्म्य स्थापित करना उनके लिए एकदम सरल हो गया था। बात यह है कि जब उनका सिंह मे तादात्म्य हुआ होगा तर उन्हाने पूरी तरह जाना होगा कि मसि हू और सिंह उनना प्रतीत बन गया। सिंह की तरह वे भी सृष्ट मनात नम भी सिंह का सा अदम्य मान है भय है । पीछे उतरवर तात्म्य स्थापित करन के लिए आवश्यक है कि चेतना का निरनर आया जाय जिसम उसम कोई गति निथिए विया जाय उस इस जड स्थिति में न रह जाय, वह बिल्कुल नियिल, आर विराम को उपल्ध हो जाय । वरार जब जड हा आर चेतना निति तथा शून्य हो तब किसी भी वन, पशु जोर पौने से तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है । और एक मजे की बात है अगर से तादात्म्य स्थापित करना हो ता किमी साम वम से ताटात्म्य स्थापित करने को जरत हो । वक्षा की पूरा जाति व माय तायत्म्य स्थापित हा सवना है क्या उनसे अभी पति पत्र नही हुआ, अभी अहवार और अम्मिता नहीं है-नमा एक जाति की तरह नीते हैं । इस सागत्म्य को स्थिति म जो मानव सक् किया जायगा वह प्रतिध्वनित होकर उन पर जीवा तर व्याप्त हो जायगा । जत यदि गुल पना की जाति स तादाम्य स्थापित किया गया हो ता उम क्षण म जा भी भावन्नर पदा हामी वह मम्न गुलाना तक तात्म्य वो एमी जवस्था में महावीर ने बहुत म काम उनका बहुत गी बातें कर पा यह मय है कि नाना मफील ठारी गइ इनका पारण है fr सत्रमय हो जायगी । गुजारा और एमी अवस्था जितना मुल है । उहें इमापन हुआ। समय उतर पान मधील ठावी जा रही या उस नय Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर . परिचय और वाणी उन्होने उन चट्टान-जैसी चीजो से तादात्म्य स्थापित कर लिया था जिन्हें नील ठोके जाने का अनुभव नहीं हो सकता । पत्थर में कीलें ठोको तो बेचारे पत्थर को उनका क्या अनुभव होगा? अगर कोई उनका हाथ भी काट लेता तो उन्हें इनका अनुभव न होता । हम जानते है कि लोग अगारो पर कूद सकते हैं। तादात्म्य किससे है, इस पर सव वात निर्भर करती है। अगर किसी ने किसी देवता मे तादात्म्य किया है तो वह अंगारो पर कद जायगा, जलेगा नहीं क्योंकि देवता नही जल मकता । महावीर अभिव्यक्ति का जो उपाय खोज रहे हैं, वह है भूत, जड़ एव मूक जगत् मे तरगे पहंचाने का उपाय । अव तो तरगो को वैनानिक ढग से भी अनुभव किया जा सकता है। तीर्थो और मन्दिरो का महत्त्व भी इन्ही तरगो के कारण है। मगर महावीर. जैसा कोई व्यक्ति कुछ दिन इस कमरे मे रह जाय तो इस कमरे से उसका तादात्म्य हो जाता है और इसके कण-कण मे उसकी तरणे अकित हो जाती है। तीर्थ बोर मन्दिर साधको के व्यक्तित्व की तरगो से आप्लावित रहते हैं । इनलिए प्राचीन तीर्थो और मन्दिरो मे साधना करना सार्थक हो सकता है। यदि इस कमरे में किसी ने आत्महत्या कर ली हो तो आत्महत्या के क्षण मे हुए तीन तरगो के विस्फोट की प्रतिध्वनियाँ सैकडो वर्षों तक इस कमरे की दीवारो पर अकित रहती है। हो सकता है कि इसमे सोनेवाला व्यक्ति कोई रात आत्महत्या करने का सपना देखे । वह सपना केवल कमरे की प्रतिध्वनियो का उसके चित्त पर प्रभाव होगा । और यह भी हो सकता है कि इस कमरे में रहते हुए वह किसी दिन आत्महत्या कर गुजरे। बोधिवृक्ष का महत्त्व इसी कारण है कि उसके नीचे बुद्ध के निर्माण की घटना-घटी और उसके कण-कण मे उनकी तरगो का अकन है। आज भी कोई रहस्यदर्गी चाहे तो उस वृक्ष के नीचे बैठकर उन तरगो को वापस बुला सकता है। तीर्थ इन्ही तरंगो के कारण महत्त्वपूर्ण हो जाते है । सम्भेद शिखर, गिरनार, कादा, काशी, जेरुसलम--सभी एक दिन जीवित तीर्थ थे। उनकी तरगे धीरे-धीरे नष्ट हो गई है। इस समय पृथ्वी पर कोई भी जीवित तीर्थ नहीं है, सव तीर्थ मर गए है। जड से जड वस्तु पर भी तरगो का क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ता है। यहाँ तक कि पदार्थ का अन्तिम अणु भी हमारे निरीक्षण से प्रभावित होता है। यदि अणुओ और परमाणुओ को तोड़कर हम इलेक्ट्रोन (विद्युदणु) की दुनिया में पहुंचे तो वहाँ जो अनुभव होगा वह बहुत घबडानेवाला होगा। वह अनभव यह होगा कि अनिरीक्षित विद्युदणुओ का व्यवहार वैसा नहीं होता जैसा निरीक्षित विद्युदणुओ का होता है । जब तक उसे कोई नही देखता तब तक वह एक ढग से गति करता है, किन्तु खुर्दवीन से देखे जाने पर वह डगमगा जाता है और अपनी गति वदल देता है। इन परमाणुओ और विद्युदणुओ तक भी महावीर ने खवर पहुँचाने की कोशिश Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी की। इसके लिए उन्हें अनेक बार ऐसी अवस्था म होना पड़ा जिसम यह कहना मुस्वि था वि व जीवित है या मृत । इन अवम्याला को लाने के लिए उह कुछ और प्रयोग करने पड़े । जैसे, उनका चार चार महीन तक, पाच पाच महीन तक भूखा रह जाना बड़ा असाधारण है। 4 कुछ न साकर मी क्षीण नहीं होते। उनका शरीर पूर्ण स्वस्थ और उनका असाधारण सौदय सदा अक्षण्ण रहता। क्या कारण था इसका ? मरी दृष्टि में कारण था मूक जगत से उनका तादात्म्य और मूक अणआ का-~-मूक पदार्थों के परमाणलो का--प्रत्युत्तर । जो आदमी पास म पड़े हुए पत्थर की आत्मा को भी जगाने का उपाय कर रहा है, जो पास म लग हुए वक्ष की चेतना को जगाने के लिए सम्पन भेज रहा है, उसे अगर मारे पदाथ-जगत म प्रत्युत्तर म बहुत सी शक्तियां मिरतो हा ताजाश्चय नहा । परमाणुआ का सूक्ष्म जगत उह सीघा भोजन देता था। इसनिा महावीर के पीछे जा राम भूसा मर रहे है वे पागर हैं। वसिफ मासाहारी ह-अपना ही मास पचा रह ह । महावीर तीन चार महीन बाद कभी भोजन परत थे, वह भी इसलिए पि लाग उहें यह न पूछे वि रतन दिना तक पूखा रहना बसे सम्मव हो सवा? यह आप बस पर सके ? ममी वातें सभी का बतान के लिए नहीं होता। महावीर एक दिन भाजन कर तह वह सिफ इसलिए कि लागा को सान्त्वना हो जाय कि वे साना ले रन है। लोग यह सुनकर यचम्मा करत है नि महावीर को पसीना नही चलता मल मन त्यागने नही पडते । यति व सूक्ष्म परमाणुमा से शक्ति न रेत और उन्हें मूक जगत से सीया भोजन मिलता तो उहें भी ये सारे काय करन पउत और उनके शरीर स भी पसीना बहता । उनका भाजन इतना सूक्ष्म है कि यह शरीर में सीध लीन हो जाता है। ___ काली के एक सयामी ने जिसका नाम विशुद्धानद था एर अत्यात प्राचीन विनान का, जो एक्दम खा गया था, पुनरुज्जीवित किया। उस विमान का नाम है सूण विरण विनान । विशुद्धानर का कहना था कि भूय की किरणा स जीवन और मत्यु मीधे आ सकती है वोच में कुछ और रने की जररत नहा। पथ्या पर पाहुना पनाथ पा जगत सूय का निरणा से बंधा है। सूय अस्त हा जाय तो यह सारा श्यात मी उसी के साथ अस्त हो जायगा। इस पथ्वी पर मय यो किरणा न रह और प्राण यो जाड रसा है। इसलिए मूय न हा तो अदही आत्माए हा मरती हैं वह नहीं होगी। चांद पर अही आत्माएँ रहती है। इसी कारण अतरिक्ष यात्रिया या वहाँ कोई नहीं मिला। यहाँ देहधारी प्राणी नहा ह और न यहाँ वह स्थिति ही पैदा हुई है जिससे देह प्रकट हा सर। नात्यय या कि बाइ पाह और प्रयास कर तो वह अपनी बाणास मा मूरज वो fry को साये पो सकता है और ऐसी पिरणे जीवननायिती हा साती हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी त्राटक के बहुत से प्रयोग सीधे मूरज मे जीवन खीचने के प्रयोग है, सिर्फ एकाग्रता के प्रयोग नही। मूक जगत् ने महावीर के तादात्म्य के जो उत्तर दिए वे ही अब कहानियाँ बन गई है। उनके आधार पर हम कविताएँ रची है। कहा जाता है कि जब महावीर चलते तो पथ के काटे सीधे पडे न रहते, वे तत्काल उलट जाते ताकि वे महावीर के चरणो मे न चुमें। ये हमारी कहानियां है जो एक गहन सत्य पर प्रकाश डालती है। वह सत्य यह है कि प्रकृति भी महावीर के प्रतिकूल नहीं जाती, बल्कि अनुकूल होने की कोशिश करती है । जिस व्यक्ति ने उनसे इतना प्रेम किया, तादात्म्य स्थापित किया, वे उसके प्रतिकूल कैसे जा सकती है ? मडक के किनारे पड़ा हुआ पत्थर भी आपके प्रेम का उत्तर देता ही है । सुधी जनो का कहना है कि महावीर के समवसरण मे पहली उपस्थिति देवताओं की हुई थी। यह आश्चर्य की बात नहीं है। इसका कारण यह है कि देवताओ के जगत् मे अभिव्यक्ति के लिए शब्दो का सहारा लेना नहीं पड़ता। वहां सम्भाषण के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नही होती है। उस लोक मे वाणी व्यर्थ हो गई है, वहाँ जो भाव उठते है, वे मौन मे सम्प्रेपित हो जाते हैं। इसलिए वहां मत्य की वार्ता सबसे ज्यादा सरल है । मानव-लोक मे शब्दो के विना वात-चीत नहीं हो सकती, इसलिए इसमे भावो का हूबहू सम्प्रेषण सर्वाधिक कठिन है, शब्दो के कारण ही संवाद होना मुश्किल हो गया है । पक्षियो के पास अपनी वाणी नही है, वे कुछ कह नही सकते, लेकिन कुछ अनुभव कर सकते है। इसलिए अगर कोई अनुभव के तल पर उनसे सम्बन्ध जोडे तो वह उनके अनुभवो को जान सकता है। महावीर के समवसरण मे पशु-पक्षी हो नही, देवता और मनुष्य भी उपस्थित थे। लेकिन जहाँ पशुपक्षियो ने उन्हे सुना और देवताओ ने समझा, वही मनुप्यो ने अनसुनी कर दी। मनुष्यो को जो कहा गया, शायद उन्होने नहीं सुना। मनप्यो के पास शब्द है और उन्हे अपनी समझदारी का खयाल है जो वडा खतरनाक है। मनुप्य को यह खयाल है कि मै सब समझ लेता हूँ। यह वडी भारी बाधा है। जो जरूरी चीजे है, वह अब भी मापा के बिना करता है। जैसे क्रोध आ जाय तो वह चांटा मारता है, प्रेम आ जाय तो वह गले लगाता है। इस प्रकार उसका पशु होना प्रकट हो जाता है । पशु के पास कोई भापा नही होती। वह जानता है कि भापा समर्थ नही है । मनुष्य को समझाने की चेष्टा ही सबसे ज्यादा कठिन चेष्टा है। देवताओ को समझने में कठिनाई नही होती, क्योकि उनसे कहनेवाले शब्दो को अपना माध्यम नहीं बनाते। उनके लिए व्याख्या करने का कोई सवाल ही पैदा नही होता । पशु भी समझ लेते हैं, क्योकि उनसे कहा ही नही जाता, व्याख्या की कोई बात ही नही होती-सिर्फ तरगे प्रेपित की जाती है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी महावीर की बारह वर्षों की साधना अभिव्यक्ति के माध्यम की साजो साधना है। वसे पहुँचाया जा सके जो पहुँचाना है | इस सम्म ध म दो छोटे सून ख्याल म रख लेने चाहिए। यदि पशुआ के पास सम्प्रेपण करना जमीप्ट हा तो मूब हाना पडगा, वाणी खो देनी पड़ेगी, करीब करीव मूच्छित और जड-जमा हो जाना होगा। शरीर जड हागा मन जड हागा, मगर भीतर चेतना पूरी जागी होगी। अगर मनुष्य से सम्ब र जाडना है तो दो उपाय है साधना से गुजरे हए मनुष्य के साथ विना गद के सम्बध जोडे जाये और उस हारत में लाकर जिसम देवता होत हैं मौन मे कहा जाय या फिर शादा का वाणी का प्रयोग किया जाय । लेविन गन ही परड म आते है अनुभूतिया छूट जाती है। इसलिए गणघर आते हैं, मध्यस्थ आते हैं, व्याग्याएं होती है-- सब बदल जाता है, सब खो जाता है। महावीर के दाद महावीर के नहीं रह जात टोकापारो के हो जात है। महावीर न मौन म क्या का है उसे पकडन की जबरत है। महावीर के पहले जो विचारधाराएँ प्रचलित था उनका आयपरम्परा से पथव अस्तित्व नहीं था। उनम एक धारा का नाम श्रमण' था, क्याकि उसका आधार श्रम था,प्राथना नहा। इस धारा के विपरीत ब्राह्मणधारा थी जिसका विश्वास था वि परमात्मा को विनम्र भाव से प्राथना और शास्त्रविधि मे ही पाया जा सकता है। (इस पूण दीनता को प्राइस्ट ने पावर्टी आफ स्पिरिट कहा है।) आय जीवन दशन म उपयुक्त दोना धाराएँ सम्मिरित थी, परतु महावीर के बाद श्रमण धारा न अपना पथक अस्तित्व घापित किया। महावीर के पहरे वह धारा पथय न थी। इसीलिए आदिनाथ का नाम ता वद म मिलता है, लेकिन महावीर का नाम विमी हिदू ग्रय म नहीं मिलता। जना के पहले तेईस तीयकर आय ही ये आय ही पैदा हुए और आय ही मरे । य जन नहा थे। सभी श्रमण भी जन नही हो गए। श्रम और सकल्प पर आस्था रसनवाले लोगो म आजीवन भी थे बौद्ध भी थे और दूसरे दूसरे विचार भी थे। जर महावीर न एक पथक दान की घोषणा की तो श्रमणधारा स एष पथर धारा निकर पडी। इसी धारा का नाम जैन पडा । वाद्ध धारा भी थमणधारा थी। इसलिए महावीर ५ दशन से प्रभावित धारा का एक नया नाम दाा आवश्यक था। यदि गौतम ये बुद्ध तो महावीर ये जिन-विजेता । जिन १ भारत में अनेर घम-परम्पराएं रही ह । ग्राह्मण परम्परा मुस्यतया वदिय है पिसको पई शाखाए ह । श्रमण परम्परा फी भी जन, बौद्ध, आजीवर, प्राचीन सारय योग मादि पई गालाएँ है ।' पसुपलारजी, दर्शी और चिन्तन (१९५७), प०५१। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर · परिचय और वाणी का अर्थ जीतना ही है। दोनो श्रमण-धारामो के बीच भेदक रेसा नीचने के लिए गौतम बुद्ध के अनुयायियो को बौद्ध कहा जाने लगा और महावीर के अनुयायियों को जैन। ( 'जिन' शब्द बहुत पुराना है और बुद्ध के लिए भी प्रयुक्त हुआ है।) ध्यान रहे कि श्रमणधारा आर्यमूलधारा से ही निस्सत हुई थी और उस श्रमगधारा से वीद और जैन धर्म निकले। इसलिए महावीर के पहले के ममी तीर्थकर हिन्दू सघ के भीतर थे, महावीर हिन्दू सघ के वाहर । महावीर न तो किमी के जनुयायी थे और न कोई उनका गुरु था। फिर भी उनका दर्शन अन्य तीर्थ करी के अनुयायियो से बहुत दूर तक मेल सा गया । महावीर को चिन्ता न थी कि उनके विचार किसी और के विचारो से मेल खा जाय। यदि उनका मेल बैठ गया तो यह निपट सयोग की बात है। और इसी कारण वे अनुयायी धीरे-धीरे महावीर के पान आ गए। परन्तु इसमे यह निष्कर्प नहीं निकलता कि महावीर हूबहू वही कहते थे जो पिछले तेईस तीर्थ करो ने कहा था । किसी पिछले तीर्थ कर ने ब्रह्मचर्य की कोई बात नही की थी। पार्श्वनाथ का धर्म चतुर्यामयुक्त था-उसमे ब्रह्मचर्य को एक पृथक् याम के रूप मे स्वीकृति नही मिली थो।' महावीर ने पहली बार ब्रह्मचर्यव्रत की बात की और चार के स्थान पर पांच महाव्रतो की प्रतिष्ठा हुई। ऐसी ही अनेक बाते है जिनसे महावीर की मौलिकता प्रकट होती है। लेकिन इतना तो जाहिर है कि उनकी बातें पिछले तीर्थकरो के विरोध मे नही हैं। वस्तुत महावीर-जैसे वलगाली व्यक्ति को पाकर उनकी धारा अनुगृहीत हो गई। वे बडे साधक और सिद्ध थे मही, परन्तु उनमे एक भी ऐसा न था जो एक दर्शन निर्मित कर सके। यह क्षमता महावीर मे थी। इसलिए चौवीसवां होते हुए भी महावीर करीब-करीव प्रथम हो गए। अगर तीर्यकरों १. चतुर्याम का अर्थ है चार महाव्रत। भ० पार्श्वनाथ को निर्ग्रन्थ-परम्परा चार महाव्रतधारी थी-चतुर्महाव्रत की परम्परा थी। उसमे अहिंसा, सत्य, असत्य, अपरिग्रह ही चार याम ( महाव्रत ) थे। किन्तु, जैसा कि पं० सुखलालजी ने कहा है, 'निम्रन्थ परम्परा मे क्रमश ऐसा शैथिल्य आ गया कि कुछ निम्रन्थ अपरिग्रह का अर्थसंग्रह न करना, इतना ही करके स्त्रियो का संग्रह या परिग्रह बिना किए भी उनके सम्पर्क से अपरिग्रह का भंग समझते नहीं थे। इस शिथिलता को दूर करने के लिए भ० महावीर ने ब्रह्मचर्य व्रत को अपरिग्रह से अलग स्थापित किया और चतुर्थ व्रत मे शुद्धि लाने का प्रयत्न किया। महावीर ने ब्रह्मचर्यव्रत की अपरिग्रह से पृथक् स्थापना अपने तीस वर्ष के लम्बे उपदेश काल मे कब की यह तो कहा नहीं जा सकता, पर उन्होने यह स्थापना ऐसी बलपूर्वक की कि जिसके कारण अगली सारी निग्रन्थ-परम्परा पंच महाव्रत की ही प्रतिष्ठा करने लगी, और जो इने-गिने पावपित्यिक निर्ग्रन्थ महावीर के पच महाव्रत-शासन से अलग रहे उनका आगें कोई अस्तित्व ही न रहा।' दर्शन और चिन्तन ( १९५७), पृ० ९८-९९ । Page #67 --------------------------------------------------------------------------  Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी है, उममे भी नत्य तक पहुँचा जा नरुता है, वहां मन्प्रदाय तो निर्मित होगा, पर माम्प्र. दायिक चित्त न होगा । महावीर का चित्त बिलकुल गर गाम्प्रदाविक था। वे कहते थे कि इस पृथ्वी पर पूर्ण जैसी कोई चीज नहीं होती। जमन्य में भी नत्य या अग होता है और सत्य में भी अगत्य का अग। अगर कोई उनसे पूछता कि ऐसा है ?' तो वे कहते, 'हाँ. हे ।' साथ ही वे यह भी कहते कि नहीं नी हो सकता है। कोई पूछता, 'ईश्वर है ?' तो महावीर कहते, होगी मयता है, नहीं भी हो सकता । मिनी अब में हो सकता है, किसी अर्थ मे नही हो सकता।' नी सापेक्षवाद के कारण उनके जनयायियो की मन्या न बढी। लोगो ने नमता-उनका दावा पनका नहीं। उन्हें महावीर की वातो मे मगय की रेखा दीख पड़ी। किन्तु, वह मनय न था, सम्भावना की ओर इगित था। महावीर सिर्फ नब नयो की सम्भावना की बात करते थे । उनका मतलब यह न था कि मुझे मनय हे खर के होने-न-होने मे। उनका मतलब था कि सम्भावना है ईश्वर के होने की भी, न होने की भी। जो आदमी जितना बुद्विमान् होता चला जाता है, उसके वक्तव्य उतना ही 'स्यात्' होते चले जाते हैं। वह कहता है, 'स्यात् ऐना हो ।' वह दावा नहीं करता कि ऐसा ही है। लेकिन उसकी बुद्धिमत्ता को समझने के लिए बुद्धिमान् ही चाहिए। जितने अधिक बुद्धिहीन दावे होगे, उतनी ही अधिक बुद्धिहीनो को सख्या होगी। महावीर सख्या इकट्ठी न कर सके। उनके लिए अनुयायियों का भी एकत्र करना मुश्किल था, एकदम असम्भव था। वे किसको और कैसे प्रभावित करते? आदमी आता है गुरु के पास कि उसे पक्का आश्वामन मिले, चिटूठी मिले कि स्वर्ग में तुम्हारी जगह निश्चित रहेगी। गुरु पक्के वादे करे कि वह अपने शिष्य को नरक जाने से पचा लेगा। लेकिन महावीर का कोई भी दावा न था। इतना गैर दावेदार आदमी जो सत्य को अनेक कोणो से देखें, जगत् मे हुआ ही नहीं। दुनिया मे तीन सम्भावनाओ की स्वीकृति महावीर के पहले त चली आती थी। यदि कोई कहता कि यह घड़ा है तो इसका मतलब का कि ( १) घड़ा है, (२) घडा नही है (मिट्टी है ) और (३) घडा है मा, नही भी है। घडे के अर्थ मे घडा है, मिट्टी के अर्थ मे नही भी है । इस प्रकार सत्य के तीन कोण हो सकते है.--(१) है, (२) नहीं है. (३) दोनो-नहीं हैं और हा यह विभगी महावीर के पहले भी थी। लेकिन महावीर ने इसे सप्तभगी बनाते हुए कहा कि तीन से काम चलने को नही । सत्य और भी जटिल है। इसम पार 'स्यात' और भी जोडने पडेगे। यह अदमत वात थी. लेकिन साधारण आदमी का पकड के बाहर हो गई। महावीर ने चौथी भगी जोडी और कहा, 'स्यात् अनिर्वचनीय (अवक्तव्य) है'---इसमे कुछ ऐसा भी है जो नहीं कहा जा सकता। घड़ा अणु भी है, परमाणु भी है, इलेक्ट्रोन है, प्रोटोन है, विद्युत् है । सब है और इन सवको Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और पानी दावामुनि है ( नाथा है। ऐ ૬ર प में विधि और विषेष एक द्वारा कबजा सा । ' ) पाना पदमा और एक बाप है कि पट उमरा या महान यह भागा = है। शायद पहा अनिवषय | अनिष्टी नीट दिया है कि उम जागा है है माम है मो नाम भी है जार है और अनिदगाव है और हनी ओर हा का है और अनिवचनीय है। महावीर का यह मारमा सात पा नोटरामन दा जागा मननगीमा दृटिया नदया जा सक्ता है। जा एक पा दावा करता है या अत्या दावा करता है । चूंकि महावारी बारी साप अनुपानी कम हुए। उसने बस्ता यही यारों हैं पढेमा भा व्याख्या हा हा सती । पटे म जीएनएमा अस्तित्व है जो शाही अन्याय नि ऐसा भी यह राय अराध्य है । उ लिए यह दाया पायाश हो जायगा | दुर्गा उहाँ महा-म्यान, जिस अपाय नहीं है। मह है-या महा स्थानमा अप है - ऐसा गरता है इस भी अभी होता है। दाना बाप जुहा हुई है। पूरा सत्य बाल जाएगा छ नगिया में बोल जायगा । जाता है अमित इतना जटयात गाताओं का वार्पित करना बहुत कठिन था । इर्मा महावार में अनुयायिया या सग्या व मी | महावार व जीवन्मजात उन प्रभावित हुए थे उन यो मति ही महावीर में पीछे की तरह चरना १' उक्त चार यचन व्यवहारों पर दागरिष भाषा में स्थात सन स्यात असन, स्यात सदरात और स्थात अवस्तस्य षहत है । सप्तभगो के म यही घार भगह । इन्होंने समान से सात भग होते है । अर्थात चतुम भग 'स्वात अववतथ्य' व साथ मग पर दूसरे और तीसरे भग को मिलाने से पांच एठा और सातवां भग घनता है।' क्लाच गास्त्री, जनघम (बागी) प०६७६८ । २ बोई-कोई विद्वान 'स्मात' गब्द का प्रयोग 'गायद' के अथ मे करते है । पितु गायव गद जनिश्चितता का सूचक है, जब कि स्थात व एक निश्चित अपे क्षायाद का सूचक है ।" जनघम, पु० ६६ । '' Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी रही है,-नए लोग नही आ सके। मगर जन्म से धर्म का कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिए 'जन' जैसी कोई चीज नहीं है दुनिया मे। वह महावीर के साथ ही खत्म हो गई। जन्म से वने जैन लोगो के दावे सुनकर महावीर भी हंगते। ये तथाकथित जैन कहते है कि महावीर तीर्थ कर है। खुद महावीर कहते----'स्यात् हो भी सकता है, स्यात् नही भी हो सकता।' जन्म ने जैन होना विलकुल अनम्भव है। जिस प्रकार जन्म से कोई फो नही हो नकता, उसी प्रकार जिन बनने पर कोई जैन वन नकता है। जन्म से कोई मुसलमान हो सकता है, पर सूफी नहीं। महावीर के तर्क के विपरीत अरस्तू का तर्क चीजो को तोडकर अलग-अलग कर देता है । अरस्तू का तर्क कुछ इन प्रकार है-'अ' 'अ' है मीर 'अ' कभी '' नहीं हो सकता। 'ब' 'व' है, कभी 'अ' नहीं हो सकता । पुरुप पुरुप है, स्त्री स्त्री है । पुत्प स्त्री नहीं हो सकता, स्त्री पुरुष नही हो सकती। काला काला है, सफेद सफेद हे, सफेद काला नही और काला सफेद नही । महावीर कहते कि 'अ' 'अ' भी हो सकता है, 'अ' 'व' भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि 'अ' भी न हो, 'व' भी न हो। और 'अ' अनिर्वचनीय है। स्त्री स्त्री भी है, पुरुप नी है। पुरुप पुरुष भी है, स्त्री भी है, पुरुष स्त्री भी हो सकता है और स्त्री पुरुष हो सकती हे और अनिर्वचनीय भी है। ___ जिन्दगी उतनी सरल नही - जितनी अरस्तू समझता था। जिन्दगी मे न कोई चीज काली है और न सफेद । कोई स्थान ऐसा नही जहाँ केवल अंधेरा हो और कोई स्थान ऐसा नही जो बिलकुल प्रकाशित हो। गहरे प्रकाश में भी अधकार मौजूद रहता है और अबेरी से अधेरी जगह मे भी प्रकाश होता है। जिन्दगी बिलकुल घुलो-मिली है, तरल है। अरस्तू के तर्क से निकलता है गणित और महावीर के तर्क से उद्भुत होता हे रहस्य । यदि महावीर से कोई पूछता कि जिस स्याद्वाद की आपने घोषणा की, क्या वह पूर्ण सत्य है तो वे कहते-'स्यात्'। इसमे भी वे 'स्यात्' का ही उपयोग करते । वे कभी यह दावा नहीं करते कि मै तुम्हारा कल्याण कर सकूँगा। वे कहते थे कोई किसी का कल्याण नहीं कर सकता, अपना कल्याण आप ही करना होगा। जब कोई कहता है कि 'मेरी शरण मे आओ, में तुम्हे मोक्ष दिलाऊँगा' तव अनुयायी उसका अनगमन करते है। मगर महावीर कहते थे 'मेरी शरण मे मोक्ष नही मिल सकता। कोई किसी की शरण से कभी मोक्ष नही पाता।' इसलिए ऐसे व्यक्ति का अनुगमन कौन करता ? स्वयं महावीर भी किसी को गुरु वनाना या किसी का गुरु वनना नही चाहते थे । इसलिए अनुयायी होने के सारे रास्ते उन्होने तोट दिए। उनकी दृष्टि मे सहगमन हो सकता है, अनुगमन नही हो सकता। इसलिए महावीर के अनुयायी उन्हे नही समझ सकते । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी और महावीर के साथ होना वडी हिम्मत की बात है। पीछे होना सरल है। इहा कारणा से महावीर के आसपास अनुयायिया को बड़ी सत्या उपस्थित न हो मकी। छोटी सस्या उपस्थित हुई और वह निरतर छोटी होती चली गई। अच उस शासा म काई प्राण नहीं रहा । मैं किसी का अनुयायी नहा, फिर मो चाहता हू दि इसम नए अपुर लगें। पूजा से वक्ष सूखते हैं । मैं चाहता हूँ कि इस वृक्ष का पूजा के बदले पानी दिया जाय, राग महावीर की स्यात-दृष्टि को समझें और इसे ठीक-ठीप प्रकट करें ताकि भविष्य म भी महावीर के वृक्ष के नीचे बहुत से लागा का छाया मिल सके। मेरा सयार है कि स्यात् की भापा रोज राज महत्त्वपूर्ण होती चली जायगी। विमान ने उसे स्वीकार कर लिया है । माइस्टीन की स्वीकृति बहुत अद्भुत है। अब तक समया जाता था कि जो अतिम अणु है, परमाणु है वह एक विदु है जिसम रम्बाई चौडाई नहीं। लेकिन प्रयागा से अब पता चला है कि कभी तो वह अणु विदु की तरह व्यवहार करता है और ममी रहर की तरह । इसलिए ऐसा लगता है कि वह स्यात् अणु है, स्यात लहर है। उसके लिए एक नया शद गढ़ना पहा-'क्वाण्टा'। यह उसके लिए प्रयुक्त होता है जो दोना है-विदु भी और लहर भी। पुछ लोगामा मत है कि सत्य की यात्रा अणुव्रत से प्रारम्भ होती है और महाव्रत म समाप्त हो जाती है। वे कहते हैं कि आज अगर देवल मुछी टूटना ही मब कुछ हो गया तो अगुव्रत और महानत का भेद मिट जायगा, कोई प्रम नहीं रगा और चरित्र का महत्त्व दान ले लेगा। __इस सम्बध मे दो तीन बातें राममनी चाहिए। एक तो यह कि अगुव्रत से १ जन नास्ता या एक महत्त्वपूण विधान है-चारिनधम्मो अति चारिन ही पम है। चारित यया है ? इसका उत्तर यह कहकर दिया गया है ___"असहाओ विणिवित्ती सुहे पविती य जाण चारित्र ।" अर्थान- अगुभ कर्मों से निवस होना तथा गुम मा मे प्रवत होना चरित्र कहलाता है। २ इनको भी सख्या पाच है-स्यूल प्राणातिपातविरमण, स्यूल मपायादविरमण, स्थूल अदनादानयिरमण, स्वदारसतोप, इच्छापरिमाण । थावफ पो मागिर परिम सापना हो अगलत पहलाती है। इसस भय है स्यूल, छोटा अथवा आगिर त । मणप्रती उपातर सम्पर चारित्र या पारन रो मे असमय होता है। यह मोटे तौर परो चारिता पालन करता है। जैन माचार लेसन डॉमोहनलाल मेहता Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी कभी कोई महावत' तक नही जाता। महावत की उपलब्धि से अनेक अणुव्रत आप ही उपलब्ध हो जाते है। पूरे अहिंसक ढग से जीने का अर्थ है महाव्रत-पूर्ण अपरिग्रह, पूर्ण अनासक्त । मूर्छा के टूटते ही महाव्रत उपलब्ध होता है। मूर्छा टूट जाय तो मन ही टूट जाता है, चीजो से लगाव छूट जाता है। यदि कोई कहे कि 'यह मकान मेरा है तो उसकी मूर्छा इस 'मेरा' में होगी। मृमकान मे सोने मे नही है। मूर्छा टूटने का मतलब यह नहीं कि चीजे हट जायें-अपरिग्रह का मतलब यह नहीं कि चीजे न हो। ____एक सम्राट् किसी सन्यासी से बहुत प्रभावित था। उसने सन्यासी से कहा : 'मेरे पास इतने बडे महल है, आप वहां चलें।' सत्राट् ने सोचा था कि सन्यासी इनकार कर देगा, परन्तु सन्यासी ने कहा . जैसी आपकी मर्जी।' और वह डडा उठाकर खडा हो गया । सम्राट को आश्चर्य हुना। उसे ऐसा लगा मानो सन्यासी महल में रहने की प्रतीक्षा ही कर रहा था । सम्राट ने उसे अपना कमरा दिखाया और पूछा 'आप यहाँ ठहर सकेगे न ?' सन्यासी ने कहा : 'बिलकुल मजे से।' और सन्यासी राजा के मखमली गद्दे पर उसी तरह सोने लगा जैसे वह नीम के नीचे सोया करता था। छह महीने बीत गए। एक दिन सम्राट ने कहा · 'अब तो मुझ में और आपमे कोई भेद मालूम नही होसा। आप ही सम्राट हो गए है, बिलकुल निश्चिन्त हैं, राजसी ठाटबाट का आनन्द लेते हैं।' संन्यासी ने उत्तर दिया : (फर्क जानना चाहते हो तो आगे चलो।' दोनो चल पड़े। बगीचा पार हो गया, राजधानी निकल गई। सम्राट ने कहा : 'अव तो बताएँ, फर्क क्या है ?' सन्यासी ने और आगे चलने को कहा। अन्त मे सम्राट ने कहा : 'घूप चढी जाती है और हम नदी के पार आ गए हैं। अव लौट चले ।' सन्यासी ने कहा - 'नहीं, अब मैं लौटूंगा नहीं। तुम भी मेरे साथ चलो।' सम्राट् ने उत्तर दिया • 'मैं कैसे जा सकता हूँ? मेरा मकान, मेरा राज्य-इनका क्या होगा ?' सन्यासी ने कहा - 'तो तुम लौट जाओ, लेकिन हम जाते है। अगर फर्क दिख जाय तो देख लेना। मगर यह मत सोचना कि हम तुम्हारे महल से डर गए। अगर लौट चलने को कहोगे तो हम लौट चलेगे। लेकिन तुम्हारी शंका फिर पैदा हो जायगी। इसलिए अब हम जाते हैं।' के शब्दो में "श्रमण के अहिसादि पांच महानतों की अपेक्षा लघु होने के कारण श्रावक के प्रथम पाँच व्रत अगुबत अर्थात् लघुव्रत कहलाते है" देखिए जैन आचार (१९६६), पृ० ८५-१०४। १. अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह "पाणिवह-मसावाया-अदत्त-मेहण-परिग्गहा विरो। राईओयण विरओ, जीवो भवइ । अणासवो ॥" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ६७ उस सयासी का चित्त अपरिग्रही था । वह सम्राट के महल मे था, लेकिन महल उसमे न था, इसलिए वह उसे छोडकर कहा भी जा सकता था। तो मेरा खयाल है कि महाव्रत से अणयत फलित हो सस्ते हैं लेकिन अणुवता के जोर से कभी महानत नही निकलता, क्यापि अणदत की कोगिश मच्छित चित्त को कोशिश हैं। जोर, कोई महाव्रत की कोशिश नहीं कर सकता। वह तो अमूछा बात ही उपलब्ध हो जाता है। महायत अभ्यास से नहीं आ सकता। तुम्हारी मूली दृट जाय तो वह फलित हो जाता है तुम्हारा चित्त महानती हो जाता है। आम तौर पर माधक की कोगिश यही रहती है कि वह अणुव्रत से चले और महावत पर पहुँच जाय । मगर वह कमी नहीं पहुंच पाता । महाव्रत विस्फोट है। महावीर महारती थे। उनकी तीन देगनाएँ थी सम्यक दशन सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्र । लेकिन उनके अनुयायी इसे उल्ट देते हैं और कहते हैं कि पहल चारित्र साघो। फिर नान स्थिर होगा, जब नान स्थिर होगा तब दशन की क्षमता उपल ध होगी। नही, सम्यक दशन पहले हो। दशन से मान फरित होता है और जब ज्ञान प्रकट होता है तव चारित्र भाता है। चारित्र अतिम है, प्रथम नहीं। साधना ध्यान और समाधि की है। दरान उसका फल है। दशन से पान निमित्त हागा यौर मान स सम्यक आचरण। वह आचरण किस रूप म प्रस्ट होगा? चूकि आचरण बहुत-सी चीजा पर निभर है, इसलिए वह कई रूपा में हो सकता है। प्राइस्ट म एक तरह का हागा, कृष्ण म दूसरी तरह का योर महावीर म तासरी तरह का । दान विल्कुर एक होगा, पर पान म भेद पड जायगा ययापि उस दशन को मान बनानेवाला प्रत्येक व्यक्ति अलग अरग है। मान आचरण बनेगा और यह मिन मि न अनुभूति-उपर घ व्यक्तिया म अरग-अलग होगा । जैस~मार माज महावीर यूयाक में पैदा हा तो वहां व नगे न होग। जिस स्थिति म उनका जन्म हुआ था, उसम नग्नता पागलपन का पर्याय नहीं पी, स यास वा पर्याय पो। प्रश्न है कि अगर ऐसी बात है वो क्या महावीर उत्तरी ध्रुव म मास मी या सवन थे? सम्भव है । लेकिन, घूमि उह मूग जगत से सम्बय स्थापित करना पा लिए वे ऐसा न मरत । मास खाने से माया कोई पिराध नहीं है, लग्नि मगर दे मास खाते तो केवल माप्या सही सम्बय स्थापित कर सकत थे और वह सम्बर भी यहुत शुद्ध सम्बप नही होता---उसमें भी योडी वापाएं होती । पूर्ण शुद्ध सम्वय पे लिए पूण अवर सापना अनियाय होता है। इसलिए मैं महिंसा को मात्र प्राप्ति या अनियाय तत्व नहीं मानता। अहिंसा अनिवाय तत्त्व है मनुष्य नीचे पी यानिवा से सम्बघ स्थापित करने वा। में महता बिपरित ता समाज, और व्यवहार, स्थिति युग नीनि-व्यवस्था राज्म-इन मय पर निमर होता है। यह आता है सम्पर दान से, किन प्रपट Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महावीर : परिचय और वाणी होता है समाज मे | मेरी दृष्टि मे 'वेसिक मॉरैलिटि' जैसी कोई चीज नही । सत्य भी अनुभूति का दर्शन का हिस्सा है, चरित्र का नही । यदि महावीर भी मुहम्मद की जगह होते तो, मैं मानता हूँ, वे विवाह करते । उस स्थिति मे वही नैतिक तथ्य हो जाता | मुहम्मद के लिए ब्रह्मचर्य की कल्पना बहुत मुश्किल थी; अगर वे ब्रह्मचर्य की बात करते तो अरव मुल्क सदा के लिए नष्ट हो जाता। वे प्रत्येक व्यक्ति को चार-चार विवाह करने की सलाह देते है और उदाहरण पेश करने के लिए स्वयं नी विवाह करते है । मैं जिस बात पर वल दे रहा हूँ वह यह है कि मैं चरिन को केन्द्र ही मानता, परिधि मानता हूँ । दर्शन को केन्द्र मानता हूँ । दर्शन ज्ञान ही चरित्र है । चरित्र साधने से ज्ञान नही होता । किसी के आचरण का हिसाव ही मत रखो - यह सम्यक् दृष्टि नही है | दर्शन कसे उपलब्ध हो, इसकी फिन करो । दर्शन का हमे तयाल नही रह गया, इसलिए हम चरित्र की फिक्र करते हैं । विचारणीय है दर्शन । और दर्शन, काल एव परिस्थिति से आवद्ध नही है । वह कालातीत है, क्षेत्रातीत है । जव भी तुम्हे दर्शन होगा तो वही होगा जो किसी दूसरे को हुआ है । अव प्रश्न उठता है- - क्या आज का ज्ञान भी पुराने ज्ञान से भिन्न होगा ? जैसा कि मैंने कहा, दर्शन भर अलग नही होगा क्योकि वह शुद्धतम है, परन्तु ज्ञान अलग होगा, क्योकि आज की भाषा वदल गई है, सोचने के ढग वदल गए है । जव अरविंद बोलेंगे तब उसमे डार्विन मौजूद रहेगा । महावीर की भाषा अरविंद की मापा से भिन्न होगी, क्योकि महावीर को डार्विन का कोई पता न था । वे डार्विन की भाषा नही बोल सकते और न मार्क्स की । लेकिन अगर मैं बोलूंगा तो मार्क्स की भाषा बीच मे आयगी ही । मैं कहूँगा, शोषण पाप है, महावीर नही कह सकते यह, क्योकि उनके युग मे शोषण के पाप होने की वारणा ही न थी । धन गोषण है, चोरी हैयह धारणा गत तीन सौ वर्षो मे पैदा हुई है । महावीर को हम इस कारण कमजोर नही कह सकते कि उन्हे विकास की भाषा का पता नही था । वह भाषा थी ही नही । आनेवाले हजार वर्षो में भाषा फिर बदलेगी, आज भी बदल रही है । इसी बदली हुई भाषा मे फिर ज्ञान प्रकट होगा । अभिव्यक्ति के माध्यम बदल जायँगे । पुरानी भाषाएँ ही काव्यात्मक थी । आजकल की भाषा वैज्ञानिक है । आजकी कविता भी गणित के सवाल की तरह मालूम होती है, बिलकुल गद्य है । पुराना गद्य भी पद्य था : नया पद्य भी गद्य है । लोग पूछते हैं कि महावीर की नग्नता उनके चरित्र का ही एक अंग है या उनके दर्शन का ? महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का अंग है, चरित्र का नही । अगर किसी को विस्तीर्ण ब्रह्माण्ड से मूक जगत् से सम्बन्धित होना है तो उसके लिए वस्त्र बाबा है । महावीर को इस तथ्य की जानकारी हो गई करना है वह ब्रह्माड से एक होकर ही किया जा उन्होने एक तरह का तादात्म्य साधा है । थी कि मुझे जो कुछ अभिव्यक्त सकता है । इसलिए नग्न होकर Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी मेरा भी विचार है पि वस्त्र बाधा बनता है और प्रत्येक वस्त्र अलग तरह की बाधा और सुविधा उपस्थित करता है। रेशमी वस्म से कामात्तेजना बढती है । वह स्त्री जिमने रेशमी वस्त्र पहन रखा है, काम को आप उत्तेजित करती है। सूती या खादी वन से ऐसा ही होता। इस सम्बन्ध म ऊनी वस्त्र वहुत अदभुत हैं । आपन देखा होगा कि सूफा पनीर ऊनी कपड ही पहनते हैं। सूफ का मतलब ही ऊन होता है। स्नी वस्त्र भित भिन्न प्रकार की रहा मे सुरक्षित रहता है, शरीर की गर्मी को वाहर जान नहीं देता। उसमे गर्मी जसी काइ चीज नहा होती। सिफ भीतर रुकी हुई गर्मी ऊनी वस्ल का गम रगती है। अनुभव बतलाता है कि न केवल गर्मी वो वल्कि और तरह के सक्ष्म अनुभवा को भी ऊनी वस्न रोक्ने म सहयोगी होता है । जिहें किसी गुह्य (एमाटेरिव)विनान में काम करना हो उन लिए ऊनी बम्ब बहुत उपयोगी है। तो ध्यान रहे कि महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का हिस्सा है चरित्र का नही। इसलिए जा लाग उम चरिम का हिस्सा ममपयर नग्न पड़े हो जाते हैं वे बिरल पागर हैं। यदि नग्नावस्था में महावीर के शरीर मे कुछ तर, पदा होती थी तो हवाएँ उन लहरा को एकर यात्रा कर जाती यो । कपडा मे वे लहरे भीतर रह जातो । सूफी जान बूझकर ऊनी वस्त्र पहनते हैं महावीर को भी नग्नता के महत्त्व की जानकारी थी मार उस युग की चरिन व्यवस्था नग्न सडे होने की सुविधा दती थी। हर युग म मनावीर नग्न खड़े नहीं हो सकते। बम्बई और न्यूयारु-जस नगरा मे बाज नग्न यदा होना मुश्किल है। नग्न आदमी को सड़क पर निकलने के लिए गवनर की अनुमति चाहिए। यूयाक म नग्न यक्ति विलकुल पकड लिया जायगा, बद कर दिया जायगा। मैंने कहा कि मरावीर पिछजम म मिह थे और उह सत्य को जो अनुभूति हुई वह भी पिछले जम मे ही हुई। तो क्या पशु-यानि म भी मुक्त हुआ जा सकता है ? मैं इसकी सम्भावना का निषेध नहीं करता। हाँ आज तक ऐसा नहीं हुआ वि पोई पा योनि म जाम पर मुक्त हो जाय । अत महावीर का स य वा जा अनुभव हुआ होगा वह मनुष्य जम मे ही हुआ होगा। विसी दिन व मनुष्ययानि बहुत विवसित गे जायगी और इसमे मुक्त हाना सरर हा जायगा तब नीचे के योनिया म नी मुक्त की एष दो घटनाएं घटन लगेंगी। मगर व तव मनुष्ययोनि या छोडकर विसी दुरारी योनि में ऐसी घटना ही घटी हैं। इसलिए मैं जो पिछले जम'पा प्रयोग किया, उगवा मतरवठीर पिछल जम रहा है। देवयानि मनी मुपित यी घटना नहीं हो सकती । पशुपानि म कमा हो सरतो है निषेध नही है, दिन दवयानि में इसकी सम्भावना नहा। निषेध या पारण है मि देवयोनि म ए तो शरीर नहा है और दूसरे बहू मनोयोनि है। और स्मरण Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० महावीर : परिचय और वाणी रहे कि शरीर भी साधना मे अनिवार्य की है। जिस प्रकार पगुली मे बुद्धि न होने मे यह घटना मुश्किल हो गई है, उसी प्रकार देवताओ में गरीर न होने से मुस्किल हो गई है। पशुओ मे कमी बुद्धि विकनित हो माती है, मगर देवताजो को कनी गरीर मिले, इसकी सम्भावना नहीं है। मुक्ति के लिए पशुओं को मनुष्य तक माना पडता है और देवतामो को पुन गनुप्य तक लोटना पना। हो सकता है कि मेरे कहने से आपको ऐना नी लगे कि महावीर या तादात्म्य जव जड के साथ है, वृक्ष के साथ है तो मनुष्यो के गाय नही है। और आप ऐसा भी सोच सकते है कि जब तादात्म्य होता है तब सबके साथ होता है, अलग-अलग नहीं। मेरा कहना है कि जब तादात्म्य पूर्ण होता है तभी वह सबके साथ होता है। ऐसी अवस्था मोक्ष में ही होती है। लेकिन महावीर तो उन विभूतियो में हैं जो परिपूर्ण मोक्ष पाने के पहले ही वापस लौट आये है। पूर्ण तादात्म्य होता तो महावीर नही रह जाते । जो मुक्त हो जाता है वह परमात्मा का हिल्ला हो जाता है और परमात्मा कोई सदेश पहुंचाने मही माता । सदेन पहुंचाने के लिए महावीर लौट आते हैं वापस । ज्ञान पूरा हो गया है, लेकिन अभी उब नहीं गए है नागर मे । इत्त हालत मे तादात्म्य सवसे नहीं होता। वह एक विशिष्ट दिशा में एक साथ एक बार होगा। दूसरी दिशा में दूसरी बार होगा। मोक्ष में सबके साथ युगपत् होगा। मोक्ष होते ही किसी व्यक्ति का कोई व्यक्तित्व नहीं रह जाता। गगा गिर जाती है सागर मे । फिर भी उमका कण-कण मोजूद है सागर मे। वह सो गई है मागर मे, मिट नही गई। जो था वह अब भी है, केरल सीमा नही रह गई। हां, कुछ ऐसी विधियां हैं जिनके सहारे हम चाहे तो सागर-तट पर गगा को पुकारें और उसके वे अणु जो अनन्त सागर मे सो गए हैं, उस तट पर इकट्ठे हो जायें । वे सब सागर मे मौजूद हैं । इसी तरह चेतना के महासागर मे महावीर-जैसा व्यक्ति सो गया है । लेकिन उनके अणु आपको उत्तर दे सकते है। जरूरत है कि आप उन्हे अनन्त के किनारे खडे होकर पुकारें, उनके द्वारा छोड़े गए सकेतो का उपयोग करें। जो लोग खो जाते है अनन्त में, वे ही उपाय भी छोड जाते है पीछे। यह भी सच है कि सभी नही छोडते। यह उनकी मर्जी पर निर्भर है कि वे छोडे या न छोडें। महावीर उनमे है जो निश्चित ही छोड गए है। उस उपाय से ही उनसे सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। महावीर का कोई व्यक्तित्व नही रहा लेकिन उत्तर आ जाता है उस अनन्त से । ब्लेवटस्की ने करीव-करीव सभी शिक्षको से सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की थी। उनमे महावीर भी एक है । लेवटस्की थियोसॉफिकल सोसायटी की जन्मदादी है। उसके साथ अल्काट और एनी बेसेट ने भी सम्बन्ध स्थापित किए थे। लेकिन वे सब मर चुके हैं। अब कोई भी ऐसा नही जो पुराने शिक्षको से सम्बन्ध स्थापित कर सके। मै चाहता हूँ कि इधर कुछ लोग उत्सुक हो तो बरावर इस विधि पर काम करवाया जाय। इसमे कोई कठिनाई नही है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय सामायिक, प्रतिक्रमण और चारित्र सव्वे पाणा पियाउया, सुहसाया दुहपडिफूला, अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा णातिवाएज्ज क्चण । --आचाराग १ २ ३ महावीर ने मूक जगत के साथ तो सम्बय स्थापित किया ही था उहान देव तामा तक भी अपनी बात पहुँचाई थी। मगर देव जसी पिसी हस्ती यी स्वीकृति हम बहुत याटिन मालूम पड़ती है। जो हमे तिपाई पड़ता है, वही हमारे लिए सत्य प्रतीत होता है। देव उस अस्तित्व का नाम है जो हमे साधारणत दिखाई नहा पडता रैकिन यदि योटा सा भी थम किया जाय तो उस लोक के अस्तित्व को भी देपा जा सकता है। उससे सम्बद्ध भी हुआ ा सकता है। जहाँ हम रह रहे हैं ठीप वहीं देय भी हैं और प्रेत भी। प्रेतात्माएं इतनी ष्टि हैं कि उहाँने मनुष्य होने की सामय्य खो दी है। देवात्माएं मनुप्य से ऊपर उठी आत्माएँ हैं जिनम मोक्ष को उपलब्य परन की सामथ्य ही है। ये सारी मात्माएं ठीर हमारे साथ हैं, किसी धांद पर नहा । इसलिए पभी कमी व हमारा स्परा भी करती हैं और विन्ही डाहा म दिखाइ भी पडती हैं। परन्तु साधारणत ऐसा नहीं होता क्योकि हमारा और उनका अलग-अरग अस्तित्व है। एक ही कमरे में प्रकार भी हो सकता है और मुगध भी। उसम वीणा की ध्वीि भी गंज सरती है। जिन प्रकार य एक-दूसरे को नही वाटत, उसी प्रकार देवता, प्रेत और मनुष्य एक ही जगत मे रहवर भी एक दूसरे की जगह घेरने का काम नहीं परत । उनका अस्तित्व हमारे अस्तित्व ठीक समानातर है और वे हमारे साय जात हैं। महावीर या उनके जसे "यक्तिया ये जीवन 4 साय उापा निरतर सभ्य घ और सम्पर रहा है जिसे परम्पराएं समलो मे एकदम असमय हैं । उनी बातचीत से ही होता है जस दा ध्यसिया ये वीच होती है। महावीर इद्र या और देवता रिसी पल्पनालोर म यातें नही परते । वे विरपुर मामन-सामो मिलते और बातें मरते हैं। १ सभी प्राणियों को अपना अपना जीवन प्रिय है, सब सुन रे अमितापी है, दुख सय प्रतिरल है, यप सबसे अप्रिय है, जीवन प्रिय है सम जीने की रामना परते है। इसलिए किसी को मारना या षष्ट देना नहीं चाहिए। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी इसमें सन्देह नहीं कि उनसे – देवलोक में, प्रेतात्माओ से सम्बन्धित होने का जो मार्ग है वह हमारे भीतर है और आज प्रगुप्त है। मनुष्य के मनिया का सायद एक तिहाई भाग काम कर रहा है। इससे वैज्ञानिक भी चिन्तित है। उनका वाल है कि यदि हमारे मस्तिष्क का वह बड़ा हिस्सा जो निष्क्रिय पड़ा है। सक्रिय हो जाय तो नई इन्द्रियो का तुलना शुरू हो जायगा और जीवन तथा अस्तित्व की अनन्त सम्मावनाओ से हमारे सम्बन्त्र जुडने शुरू हो जायेंगे । तीनरी जांस की बात हम निरन्तर सुनते रहे है | अगर वह हिस्सा जो हमारी दोनो आगों के वीन निष्फिर पत्र है, सक्रिय हो जाय - - हमारी तीसरी गांरा खुल जाय-- तो हम कुछ ऐसी बातें देवना शुरू कर देंगे जिनकी हमे आप कल्पना तक नही है । वह तोमरी आंस रेडार में भी अद्भुत होगी । उसके लिए स्थान और कल के परदे न होगे। वह नविन की बहुत-सी सम्भावनाओ को पकट सकेगी, दूसरे के मन में चलनेवाले विचारों की झलक पा लेगी । मस्तिष्क का एक हिस्सा जो आज निष्क्रिय पडा है, वह सक्रिय होते ही हमे देवलोक से जोड़ सकती है। स्विग्नबोर्ग नामक एक व्यक्ति ने अपनी पुस्तक 'स्वर्ग और नरक' मे देवताओ के सम्बन्ध मे बहुत अद्भुत बाते कही हैं । यूरप मे देवलोक के सम्बन्ध मे जानकारी रसनेवाला पहला आदमी वही था । उसने अपनी पुस्तक मे आँखो देखे वर्णन दिए है । पिछले विश्वयुद्ध में एक व्यक्ति रेलगाडी मे गिर पडा और गिरते ही उसके मस्तिष्क का एक निकिन भाग सक्रिय हो गया । उसे दिन मे तारे दिखाई पडने लगे। बाद मे डाक्टरो ने उसके सिर का ऑपरेशन किया ताकि उसे दिन में तारे न दिखाई पडे । इसी प्रकार एक अन्य व्यक्ति को दूसरे महायुद्ध मे ही चोट लगी और वह अस्पताल लाया गया । उसे महसूस हुआ कि उसके कान रेडियो की भांति ध्वनियाँ पकडने लगे है । उस आदमी के पागल होने की नौबत आ गई । शायद हमे पता नही कि हमारे मस्तिष्क की सम्भावनाएँ अनन्त हैं । महावीर को पता था कि देवलोक से सम्बन्धित होने के लिए मस्तिष्क मे एक विशेष हिस्सा है जिसका सक्रिय होना जरूरी है । प्रश्न है कि यह हिस्सा सक्रिय कसे हो ? इस सम्बन्ध मे पहली बात यह है कि अगर कोई व्यक्ति समग्र चेतना से, अपने सारे शरीर को छोडकर सिर्फ दोनो आँखो के बीच आज्ञाचक्र पर ध्यान स्थिर करता रहे तो जहाँ हमारा ध्यान स्थिर होता है वही सोए हुए केन्द्र तत्काल सक्रिय हो जाते है । ध्यान सक्रियता का सूत्र है । शरीर मे किन्ही भी केन्द्रो पर व्यान स्थिर करने से वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं । उदाहरण के लिए 'सेक्स सेन्टर' को ही ले । जैसे ही आप का ध्यान यौन- केन्द्र की तरफ जायगा, वह केन्द्र तत्काल सक्रिय हो जायगा । सिर्फ ध्यान जाने से ही स्वप्न मे भी, जरा सी कल्पना उठते ही सेक्स वासना का केन्द्र सक्रिय हो जाता है । आज्ञाचक्र वह जगह है जिसे दूसरे लोग 'तीसरी आँख ' भी कहते ७२ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी हैं। अगर सारा ध्यान वहाँ केद्रित हो जाय ता भीतर करीब-करीव एव आख ये वरावर का एक टुक्डा बिल्कुल सुल जाता है। जिसे हम महावीर का साधना काल कहन है वह अभिव्यक्ति के माध्यम खोजन मे और इस तरह कद्रा को सक्रिय करने और तोटने म व्यतीत हुआ। इस तरह ये केद्रा को ताडने म जितना ज्यादा ध्यान बिना बाधा के दिया जा सके उतना उपयोगी है। यही वजह है कि महावीर को बहुत लम्बे अरसे तक पाना, पीना, सोडा आदि सारे काम त्यागने पड़े थे। चोट सतत और सीधी होनी चाहिए। बीच म कोइ बाधा न पाए। बीच म दूसरी बात आयगी तो ध्यान वही जायगा। और “यान दूसरी जगह गया कि जो काम हुआ था वह अधूरा छूट जायगा। वह अधूरा 7 छूट जाय, इसलिए जीवन मे सारे कामा से-जो बीच में बाधाएँ उपस्थित पर सक्त हैं-ध्यान हटाना पगा। तभी किसी केन्द्र को पूरी तरह सक्रिय दिया जा सकता है। ध्यान रहे कि महावीर का अधिक्तम साधना खडे खडे हुई है, जब पि दूसरे साधका न बैठकर साधना की है। महावीर के ध्यान का प्रयोग भी खडे खड़े करन के लिए है। इसका कारण यह है कि बठा या रेटा हुआ आदमी सो सकता है। और अगर एक क्षण भी ध्यान वहां से हट जाय तो पहला काम विलीन हो जाता है। जिस चक्र को सक्रिय करना हो उस पर सतत काम होना चाहिए। वह पाम सडे होकर ही किया जा सकता है। निद्रा से बचने लिए ही महावीर ने भोजन करना छोड दिया था। नीद का पचहत्तर प्रतिशत भोजन से सम्बघित है । जो रोग आताचक्र पर काम करते हो और जिनका ध्यान उस पर लगा हो, उनका शक्ति नीचे नही मानी चाहिए। यदि पेट भरा हो तो मस्तिष्क की शक्ति उतर जाती है नीचे । सत्य की अनुभूति से वह चा नहीं खुल जाता । हो, उस अनुभूति को उस चक्र में माध्यम से प्रकट करना हो तो उसे खालन की जस्रत पड़ती है। आनाचन के सुरने से ही दवताआ से ऋडा जा सकता है । भाव जो भीतर पदा होते है व माज्ञाचन से प्रति वनित हा जात है और देव चेतना तक प्रवेश कर जाते हैं। मो दो बात कही । जड से सम्बंधित हाना हो तो चेतना इतनी शिथिल हा जानी चाहिए कि जद के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाय और यदि मनुप्य से उपर की योरिया से सम्बंधित होना हो ता चेतना इतनी एकाग्र होनी चाहिए पि आना चव सनिय हा जाय-तीसरी आंख सुर जाय।। सम्मान के द्वारा स दश बस पहुँचाया जाय, इममे लिए भी महावीर न या तर काम किया था। रबिन उहाने इस विधि का उपयोग नहीं किया, क्यापि उह पता था नि सम्मोहन के द्वारा सदेश ता पहुंच जात ह लेकिन दूसरे व्यक्ति का पुट सूम नृपसान भी हा जाता है। उसकी तय गक्ति क्षीण हो जाती है यह परया Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ महावीर ः परिचय और वाणी हो जाता है और वीरे-धीरे दूसरे के हाय मे जीने लगता है। मैंने भी इवर मम्मोहन पर कई प्रयोग किए। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि सम्मोहित व्यक्ति मे कोई वात आसानी से प्रवेश कराई जा सकती है। लेकिन में भी इसी नतीजे पर पहुंचा कि जिस व्यक्ति पर सम्मोहन के प्रयोग होते हैं और जिसमे सम्मोहन की अवस्था मे कोई वात प्रवेश कराई जाती है, वह व्यक्ति ऐने जीने लगता है जैसे उनकी कोई स्वतत्र सत्ता नहीं । रामकृष्ण ने विवेकानन्द को जो पहला सन्देन दिया था, वह सम्मोहन की विधि से दिया था। रामकृष्ण के स्पर्गमात्र ने विवेकानन्द को ममावि का अनुभव हो गया था। मरने के तीन दिन पहले भी उन्हे ऐना ही अनुभव हुआ था। वह अनुभव भी विवेकानन्द का अपना न था। उसमे विवेकानन्द की अपनी कोई उपलब्धि न थी। चूंकि वे रामकृष्ण से बंधे थे, इसलिए बहुत चिन्तित, दुसी और परेशान रहते। ___ अब प्रश्न उठता है कि अगर महावीर ने सम्मोहन की प्रक्रिया का उपयोग नहीं किया तो रामकृष्ण ने क्यो किया ? इसका नवने वडा कारण यह है कि रामकृष्ण वाणी मे असमर्थ थे और वाणी के लिए विवेकानन्द को साधन की तरह उपयोग करना जरूरी था। नही तो रामकृष्ण ने जो जाना था, वह खो जाता। इसलिए मैं कहता हूँ कि विवेकानन्द सिर्फ रामकृष्ण के ध्वनि-विस्तारक यत्र है, इससे ज्यादा नहीं। महावीर को ऐसी कोई कठिनाई न थी। उनके पाम रामकृष्ण के अनुभव थे और विवेकानन्द की सामर्थ्य भी। इसलिए दो व्यक्तियों की जरूरत न पडी। एक ही व्यक्ति काफी था। इसी प्रकार गुरजिएफ ने ऑस्पेस्की का उपयोग किया थ। गुरजिएफ के पास वाणी न थी, ऑस्पेस्की के पास वाणी थी, बुद्धि थी, तर्क था। महावीर के पास गुरजिएफ की सावना थी और ऑस्पेस्की की वाणी, बुद्धि और तर्क भी। उनके पास भी सम्मोहन का नाघन था, लेकिन उन्होंने देखा कि वह नावन व्यक्ति को नुकसान पहुंचाता है । वे ध्यान को उपलब्ध थे, इसलिए मौन मे ही सवाद सप्रेपित कर लेना उनके लिए सहज सुगम था। उनके लिए गव्दो के उपयोग की आवश्यकता ही न थी। वस्तुत. शब्द सवसे असमर्थ चीज है। मौन मे जो कहा जाय, वह पहुँच जाता है, जो कहा ही नही जा सकता, बल्कि केवल समझा जा सकता है, वह भी पहुँच जाता है। ___इसलिए महावीर के भक्तो को श्रावक कहते है-श्रावक यानी ठीक से सुननेवाला। सुनते हम सभी है और इसलिए, इस अर्थ मे, हम सभी श्रावक हैं। किन्तु हम उस अर्थ मे श्रावक नही हैं जिस अर्थ मे महावीर के सच्चे भक्त इसका प्रयोग करते हैं। श्रावक वह है जो ध्यान की स्थिति मे बैठकर सुन सके-उस स्थिति मे जहां उसके मन में कोई विचार न हो, शब्द न हो, कुछ भी न हो। मौन मे बैठकर जो सुन सके वही सच्चा श्रावक है और ऐसे व्यक्ति द्वारा होनेवाली सुनने की क्रिया को ही सम्यक् Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ७५ श्रवण कहते है | श्रावक हम तब होते हैं जब हम सिफ सुनते हैं और हमारे भीतर कुछ भी नही होता । महावीर की सतत चेष्टा इसम लगी कि मनुष्य श्रावक कसे वने- वह बसे सुन सके। यह तभी सुन सकता है जब उसके चित्त की सारी विचार-परित्रमा ठहर जाय । फिर वालने की जरूरत नहीं, वह सुन लेगा। ऐसी बोली जो वोलो तार गई हो पर जिसे सुना गया हो, 'दिव्य ध्वनि' की सना पाती है । ऐसी ध्वनि वोली नही जाती लेकिन सुनी जाती है, दी नही जाती लेकिन पहुँच जाती है । सिफ भीतर उठती है और सम्प्रेषित हो जाती है। और स्मरण रहे कि श्रोता कान से सुनता है, श्रावक अपने पूरे प्राणा से सुनता है। महावीर न सम्यक श्रवण की, श्रावक बाने की, क्ल विकसित की । यह बड़ी से बडी क्ला है जगन में क्राइस्ट जैसी महान आत्माएँ भी होगा का समझा न पाई । उहाने सिर्फ इसकी फित्र की कि में ठीक ठीप कहूँ इसकी फिक्र नही की कि लोग ठीक ठीक सुन सकें । मुहम्मद ने इसकी पिक न की कि उन श्राता वेवल सुने ही नहीं, सम्यक श्रवण भी करें । उहान केवल इसकी फिन की कि मैं जो कह रहा हू वह ठीक हो । लेकिन कहना ही ठीक होने से कुछ नही होता सुननेवाला भी ठीक होना चाहिए। नहीं तो बहना यथ हो जाता है । इसलिए धावक बनने की क्ला को मैं महावीर की दूसरी बडी देना म मानता हूँ । २ जिसे 'प्रतिनमण" ( शास्ना म पडिवाण' ) कहा जाता है वह भी श्रावक बनाने की कला का एक हिस्सा है । 'आक्रमण' का अथ होता है-दूसरे पर हमला करना, १ द्रष्टय पडिक्कमण भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? पडिवक्मणेण वयछिद्दाणि पिहेइ । पिहिप चयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे असबलचरिते अटठसु पवयणमायासु अपहते सुप्पणिहिये विहर || (उत्त० अ० २९, गा० ११) 'हे भगवान ! प्रतिरमण से जीव क्या उपाजन करता है ?" 'यि ! प्रतिरमण से जीव ग्रता के छिद्रो को ढँक्ता है और इस तरह व्रता के छिद्रो को ढकने से यह जीव आसव रोकनेवाला होता है। साथ ही शुद्ध चरित्रवान और अष्टप्रवचन माता के प्रति उपयोग वाला बनता है तथा समाधिपूवव सयममाग मे विचरण करता है ।' दे० १० घोरजलाल माह 'शतावधानी, श्री महावीर वचनामृत (स० २०१९), प० ३६७ ३६८ । पडित मुसलालजी के अनुसार 'प्रतिक्रमण का मतलब पोछे लौटना है-एक स्थिति मे जाकर फिर मूल स्थिति को प्राप्त करना प्रतिक्रमण है ।' (दशन और चित्तन, पू० १७९) 'सामान्य रीति से प्रतिक्रमण (१) द्रव्य और (२) भाव, यों दो Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ महावीर : परिचय और वाणी प्रतिकमण का अर्थ होता है-सभी हमलो को लोटा लेना । हमारी चेतना साधारणत. आक्रामक है । प्रतिक्रमण आक्रमण का उल्टा है। इसका अर्थ है-सारी चेतना को समेट लेना । जिस प्रकार शाम को सूर्य अपनी किरणो के जाल को समेट लेता है, उसी प्रकार अपनी फैली हुई चेतना को मित्र, गन, पत्नी. वेटे, मकान धन आदि ने वापस बुलालेना। जहाँ-जहां हमारी चेतना ने खूटियां गाड दी है और वह फैल गई है, वहाँ-वहाँ से उसे वापस बुला लेना है। प्रतिक्रमण ध्यान का पहला चरण है, सामायिक इसका दूसरा चरण । सामायिक ध्यान से भी अद्भुत शव्द है । 'ध्यान' शब्द किसी-न-किसी रूप मे पर-केन्द्रित है- इसमे किसी पर या कहीं व्यान के होने का भाव छिपा है । यह कहने पर कि 'ध्यान में जाओ', यह जिज्ञासा होती है कि पूर्छ-किस के ध्यान मे जाऊँ ? किस पर ध्यान करु, कहाँ ध्यान लगाऊँ ? समय का मतलब होता है आत्मा और नामायिक का मतलब होता है आत्मा में होना । प्रतिक्रमण है पहला हिस्सा (दूसरे से लौट आओ), सामायिक है दूसरा भाग (अपने मे हो जामो) । जबतक दूसरे से नही लौटोगे तब तक अपने मे होओगे कैसे ? इसलिए पहली सीढी प्रतिक्रमण की है और दूसरी सीढी नामायिक की। लेकिन वह जो बकवास प्रतिक्रमण के नाम से चलता है, वह प्रतिक्रमण नहीं है। महावीर ने ध्यान शब्द का प्रयोग नहीं किया है। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, ध्यान शब्द ही दूसरे का इशारा करता है। लोग पूछते हैं हम ध्यान प्रकार का है। भावप्रतिक्रमण ही उपादेय है, द्रव्य प्रतित्रामण नहीं। द्रव्य प्रतिक्रमण वह है, जो दिखावे के लिए दिया जाता है। दोप का प्रतिनमण करने के बाद भी फिर से उस दोष को वारवार सेवन करना, यह व्यप्रतिक्रमण है। इससे आत्मशुद्धि के बदले ढिलाई द्वारा और भी दोषो की पुष्टि होती है। इस पर कुम्हार के बर्तनो को कंकर द्वारा बार-बार फोड़कर बार-बार माफी मांगनेवाले एक क्षुल्लक-साधु का दृष्टांत प्रसिद्ध है।' (उपरिवत्) पं० धीरजलाल शाह 'शतावधानी' के शब्दो में 'अज्ञान, मोह, अथवा प्रमादवश अपने मूल-स्वभाव से दूर गए किसी जीव का अपने मूल-स्वभाव की ओर पुनः लौटने की प्रवृत्ति प्रतित्रमण कहलाती है।' इस सदर्भ मे निम्नलिखित गाथा भी स्मरणीय स्वस्थानाद् यत् परस्थानं, प्रमादस्य वशं गतः । नत्रैव कमणं भूय., प्रतिक्रमणमुच्यते ॥ अर्थात्-यदि (आत्मा प्रमादवश अपने स्थान से परस्थान में गई हो तो वहाँ से उसे वापस लौटाना ही प्रतिक्रमण कहाता है । दे० श्रीपंचप्रतिक्रमणसून (जैन-साहित्य-विकासमण्डल, १९५५), पृ०१६६ ।, १. सामाइय समाय की क्रिया। जिसमें सम अर्थात राग-द्वेष रहित स्थिति का आय अर्थात् लाभ हो, उसको समाय कहते है ।' (उपरिवत्, पृ० ३५) Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी वरण चाहते हैं किसपर करें ? ध्या शद म ही विषय का सयाल छिपा है । इसलिए महावीर न ध्यान की जगह जिस शब्द वा अधिक प्रयोग किया है वह है सामायिन । वह महावार वा अपना शब्द है । जब काई व्यक्ति अपनी जारमा भ ही होता है तप उस सामायिक महत है ।" ७७ आइस्टीन ने कहा था कि समय स्पस ( स्थान, क्षेत्र ) का ही चौया आयाम है, अरग चीज नहा । उसकी मृत्यु के पश्चात इस विषय पर वर काम हुआ और पाया गया कि दाम भी एक तरह की ऊजा (एनर्जी, शक्ति) है। अब का कहना है कि मनुष्य का शरीर ता तीन आयामा-रम्बाई, चौडाई और मोटाइ - से बना है, परंतु उसकी आत्मा चोथे आयाम मे बनी है। महावीर ने आज से लगभग २५०० साल पहले आत्मा का समय कहा था। कई बार विधान नि अनुभूतिया से बहुत बड़ी उपलब्धि वर पाता है, रहस्य में डूब हुए सत उस हजारा सा पहले दस देते है । रूस के वनानिक निरंतर इस तथ्य के निकट पहुँचत जा रह हैं कि समय ही मनुष्य की चतना है । यदि सोच ल कि समय नहीं है जगा म, तो पदाय हा सकता है, पत्थर हो सकता है, लेविन चेतना नहीं हो सकती, क्यावि चेतना की जागति है वह स्थान में नही है समय में है। जब आप अपन घर स यहाँ उठ आते हैं ता जाप का शरार यात्रा करता है और यह याना होती ह स्थान म । आपका जगह बार में अगर पत्थर भी रख दिया गया हाता तो वह भी वार में वटवर यहाँ आ जाता। लेकिन वार में वटे हुए बाप का मन एक और गति भी करता है free दूरी से कोइ गवध नहीं । वहु गति समय म है । हो सकता है आप जब घर महा या कार में वठे हा, तभी आप इस हाल में आ गए हा आपना मन यहाँ था पहुँचा हा । आपकी गाडी अभी घर के मामने सडी है। जब आप कार मद है तो दो गति हा रही है--एक ता आपका शरीर स्थान में यात्रा कर रहा है आर दूसरे आपना मन समय मे यात्रा कर रहा है। चेतना की गति समय म है । १ दलिए महाबीर पाणी, १० ००९-५६१ । जनयम में सामायिक प्रतिपा विधिपूर्वक परनी पड़ती है। शुद्ध वस्त्र पहार पठासन, मुहपत्ती, घर, नवकार एव कोई भी धार्मिक पुस्तक पर गुरु के समय जाना मता है और पहना पाता है- 'क्रेमि भने । सामाइय', अर्थात 'हम' म सामादिय परता हूँ।' तदनतर बहना पढना है- 'सावज नाग पच्चरामि', अयान 'म पापमयी प्रवत्ति का प्रति पूर्व परित्याग करता हूँ ।' सामपि मे पापी प्रवृत्ति का छह प्रकार से स्याग दिया जाता है-- (१) पाप या प्रति म मन से नहीं, (२) पापवाली प्रयत म मन से कराऊँ नहीं, (३) पापयाली प्रति म वचा से पर नहीं, और (६) पापनाला प्रति म पाया से बराऊँ नहीं। श्री पच प्रतिक्रमण सूत्र, १० ३६ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७८ महावीर : परिचय और वाणी । महावीर ने चेतना को समय और ध्यान को सामायिक कहा है। अगर चेतना की गति समय मे है तो इस गति के ठहर जाने का नाम सामायिक है। शरीर की सारी गति के ठहर जाने का नाम आसन और चित्त की सारी गति के ठहर जाने का नाम ध्यान है। समय के विना चेतना का कोई अस्तित्व अनुभव मे नही आ सकता। समय का जो बोध है वह चेतना का अनिवार्य अग है। इस बात में और भी बातें अन्तनिहित है। जगत् मे सभी चीजे क्षणभंगुर हैं। आज है, कल न होगी। इस जगत् की लम्बी धारा मे समय ही एक ऐसी चीज है जो सदा है, जो नही बदलता और जिमके भीतर सब बदलाहट होती है। अगर समय न हो तो बच्चा वच्चा रह जायगा, कली कली रह जायगी। क्योकि परिवर्तन की सारी सम्भावनाएं समय मे है । जगत् मे ममी चीजे समय के बाहर है और परिवर्तनशील है, लेकिन समय 'समय' के बाहर है और परिवर्तनशील नही है। अकेला समय ही शाश्वत सत्य है जो सदा था, सदा होगा। महावीर आत्मा को समय का नाम इसलिए भी देना चाहते है कि वही तत्त्व शाश्वत, सनातन, अनादि, अनन्त है । साधारणत हम समय के तीन विभाग करते है . अतीत, वर्तमान और भविष्य । लेकिन यह विभाजन बिलकुल गलत है। अतीत सिर्फ स्मृति में है, और कही नही, भविष्य केवल कल्पना मे है, अन्यत्र नही। है तो सिर्फ वर्तमान । इसलिए समय का एक ही अर्थ हो सकता हैं-वर्तमान । जो है वही समय है । क्षण का अन्तिम हिस्सा जो हमारे हाथ मे है, महावीर उसे ही समय कहते है । 'समय' एक विभाजन है वर्तमान क्षण का जो हमारे हाथ में होता है । जैसे अणु-परमाणु दिखाई नहीं पडते, वैसे ही क्षण का वह हिस्सा भी हमारे बोघ मे नही आ पाता। जव वह हमारे वोध मे आता है तब तक वह जा चुका होता है। यानी, हमारे होश से मरने मे भी इतना समय लग जाता है कि समय जा चुका होता है। जिस दिन आप इतने शान्त हो जायँ कि वर्तमान आपकी पकड, मे आ जाय, उस - दिन आप सामायिक मे प्रवेश कर गए। चित्त इतना शान्त और निर्मल चाहिए कि वर्तमान का जो कण है अत्यल्प, वह भी झलक जाय। यदि वह झलक जाय तो समझना चाहिए कि हम सामायिक को उपलब्ध हुए-यानी हम समय के अनुभव को उपलव्ध हुए, हमने समय को जाना, देखा और अनुभव किया। जब हम कहते है कि आठ बजा तब उतनी ही देर मे घडी की सुई कुछ आगे जा चुकी होती है। वह कण-भर तो अवश्य सरक जाती है, आगे चली जाती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो कुछ कहा जाता है वह, कहते-कहते, अतीत का अग बन जाता है, हम जव भी पकड पाते है, अतीत को ही पकड पाते है। वर्तमान हमारे हाथ से चूक जाता है। हम इतने व्यस्त और शान्त है कि उस छोटे-से क्षण की हमारे मन पर कोई छाप नही वन पाती। हम समय से निरन्तर चूकते चले जाते हैं, इस कारण अस्तित्व से परिचित नहीं हो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ महावीर परिचय और वाणी पाते । वस्तुत जा अस्तित्व है, समय भी वही है बाकी सब या ता हो चुका या अभी हुआ नहीं। जो है, उससे ही प्रवेश करना होगा। महावीर इसरिए भी आत्मा का समय कहत ह मि समय के दशन होत ही जो उपर व हाता है वह आत्मा है । जव तुम अस्तित्व का ही अनुभव नहीं कर पाते तो तुम्हारे अस्तित्व का मतलब क्या है ? मारमा तो सबके भीतर है-सम्भावना की तरह, सत्य की तरह नहा । हम भी आत्मा हो सकते हैं। जब हम कहते है कि सबके भीतर भात्मा है तो इसका मतलब सिफ इतना ही है कि हम भी आत्मा हो सक्ते ह, अमी ह नहीं। हम उसी क्षण आत्मा हाँ जायेंगे जिस क्षण हम अस्तित्वमा दसने जानने, पहचानने म समय हो जायगे। इस दूसरी तरह भी समझा जा सकता है। अतीत और भविष्य मन के हिस्से .इ. वतमान आत्मा का हिस्सा है। मन हमेशा अतीत और भविष्य में रहता है--पोछे या मागे । यहा, इसी वक्त, अमी, अव--- एसी कोई चीज मन म नहीं होती। मन सग्रह है अतीत का और भविष्य को योजनामा फा। मन जीता है अतीत और भविष्य म । अतीत और भविष्य के बीच म एक अत्यत सूक्ष्म रेखा है जो दाना को तोडती है । यह वतमान है। यह रखा इतनी बारीक है कि इसके अनुभव के लिए हमारा अत्यत शात होना जरूरी है। जरा-सा कम्पन हुआ कि हम चूक जायगे । इसलिए जिस दिन हमारी चेतना अक्म्प होगी, उसी दिन समय के क्षण का एक छोटा-सा दशन भी हमे उपल ध होगा। वतमान का क्षण ही द्वार है अस्तित्व म प्रवेश या। ब्रह्म म प्रवेश कहें, सत्य या मोष म प्रवेश कहें यह वतमान के क्षण से ही सम्भव हाता है। ___ चूकि हम वतमान के क्षण म व्यस्त होते है. इसलिए म जात है। इसलिए सामायिक का अथ है अव्यस्त होना । जब हम कुछ भी करते या सोचत नही हात, तब समय को पकडना सम्भव होता है। जहा कुछ किया कि समय चूक जाता है । महावीर ने आत्मा को समय का पर्याय बहा है और उहाने यह नाम बडे गहरे प्रयाजन से दिया है। उनका कहना था कि यदि तुम समय का जान ला समय म खड हा जाओ, उसे देख लो तो तुम अपने को पहचान रोग । लेकिन समय का जानना ही मुश्किर है। सवस ज्यादा कठिन है वतमान म खडा होना, क्यापि हमारी पूरी आदत चाहे तो पीछे हाने की हानी है या आगे हाने की। हम चाह तो पतात म होत ह या भविष्य मे । ऐसा आदमा विरल होता है जो वतमान म हो । यदि ऐसा आदमी मिल पाय ता समझना कि वह सामायिक म था । जब हम कुछ भी कहते नहा हात, यहा तक दिन तो मन जपत होत ह जोर न अपनी सास देसत हुए तव सामायिक म होत ह । जिस मैं श्वास देखना कहता है वह सामायिक नहीं है । व्यय का यस्तताएँ छट जायें इसलिए मैं श्वास दखन लिए कहता हूँ। जब कम स कम एक ही व्यस्तता रह जाय तब कहूंगा कि इससे भी छलाग रगा जाय । यह एक Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी ऐसी व्यस्तता है जिससे छलाग लगाने में कठिनाई न होगी। यह सामायिक के पहले की सीढ़ी है-सिर्फ छलाग लगाने की सीढी । मेरी वात अच्छी तरह समझ ले। कुछ करते जाना ही वर्तमान से चूकते जाना है। इसलिए कुछ क्षणो के लिए आप कछ न करे, वस हो जायें। कमरे में पड़े है, कोने मे टिके है--सिर्फ है। कुछ भी न करें। वम है। वृक्ष है, पत्थर है, पहाड है, चांद-तारे है, सव है । शायद वे इसलिए सुन्दर है कि समय मे कही गहरे दूबे हुए है । शायद हम इसीलिए इतने कुरूप, परेशान, चिन्तित और दुसी है कि समय से भागे हुए है-मानो जीवन के मूल तोत से कही झटका लग गया हो, जडे उखड गई हो और हम कही और मा गिरे हो । क्रियाएँ दो तरह की है। एक तो हमारे शरीर की क्रियाएँ है जो हमारी निद्रा मे शिथिल हो जाती है, वेहोशी मे बन्द हो जाती है। गरीर की इन क्रियाओ से कोई गहरी वाधा नही है और न इन्हे रोकना ही कठिन है। असली वाधाएँ तो उपस्थित होती है मन की क्रियाओ से जो हमे समय से चकाती हैं। शरीर का अस्तित्व तो निरन्तर वर्तमान मे है, वह हमेशा समय मे है-वह एक क्षण भी न तो अतीत मे जाता है और न भविष्य मे । शरीर वही है जहाँ है । परन्तु भटकाता है मन । फिर भी लोग शरीर के ही दुश्मन हो जाते है, जब कि वेचारा शरीर हमसे शत्रुता नही ठानता । इसलिए साधक शरीर से दुश्मनी न साधे, वरन् अ-मन की स्थिति मे पहुँचने का प्रयोग करें। उनके सारे प्रयोग इसी मन पर होने चाहिए। यह बडे मजे की बात है कि मन होगा तो क्रिया होगी; क्रिया होगी तो मन होगा। मन कहता है-कुछ भी करो, हम राजी है, क्योंकि करने-मात्र से मन वच जाता हैं। आप कहते है कि मत्र जपो तो वह कहता है, चलो हम राजी है। यदि आप कहते है कि हम कुछ भी करना नही चाहते, तो मन विलकुल राजी नहीं होता। जेन भिक्षु कहते है कि ध्यान का अर्थ ही है कुछ न करना । जव तक हम कुछ कर रहे हैं तब तक ध्यान नहीं हो सकता। फिर भी, 'ध्यान' शब्द में किया जुड़ी हुई है। 'सामाग्रिक' शब्द मे वह क्रिया नहीं है।' लगता है, ध्यान कुछ करने की १. आचार्य रजनीश के अनुसार 'सूत्र अनुयायी बनाते है और बाँधते है। महावीर को कोई सम्बन्ध नही है इन सूत्रो से ...महावीर-जैसे लोगो को समझना ही मुश्किल है। क्योकि वह जो बात कह रहे हैं, इतनी गहराई की है, और हम जहाँ खड़े हैं वह इतने उलथेपन में है बल्कि उलयेपन मे भी तट पर खड़े हुए है और वहाँ से जो हमारी समझ में आता है, वह इन्तजाम हम कर लेते हैं। अनुयायी सारी व्यवस्था देता है, और कुछ व्यवस्थापरक मस्तिष्क होते है जो सदा व्यवस्था देते रहते है।.. महावीर : मेरी दृष्टि मे (पृ० ३११-३१२) स्पष्ट है कि जहाँ आचार्य रजनीश 'सामायिक' को महावीरकी साधना-पद्धति का केन्द्रिय शब्द' (उपरि० पृ० २९१) कहते है वहाँ दे ऐसे सूत्रो से अपनी - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी वात है। 'सामायिक' मे करने को कुछ नही रह जाता । 'सामायिक' का मतल्व हैअपने मे होना, 'समय' मे होना। करना नही है वहाँ, होना है सिफ । इसलिए जव कोई पूछता है कि 'सामायिक' पसे करें तो इससे और गरत सवार दूसरा नहा हो सस्ता वस्तुत हमारी सारी भाषा चितना करने पर खडी है । न करने का हम कोई सयाल ही नहीं है । सूक्ष्मतम तला पर, जब भी हम कुछ करते हैं, सदा और के साथ करते हैं। जब हम कता बनते हैं तब हम यह बनते है तो हम नहीं है । तब हम अपने ऊपर कोइ अभिनय लेत है। उदाहरण के लिए उस व्यक्ति को ले जा दूयानदार बनता है। दुकानदार होना जीवन में एक बड़े नाटक में उसका अभिनय है। अगर स्वभाव को जानना हो, जो मैं हूँ उसे ही जानना हो, तो मुझे सारी निम्या का, सभी चेहरो और अभिनया को छोडकर बाहर हो जाना पडेगा। थाडी देर के लिए बाहर सड़े हो जान का नाम सामायिक है। एक बार मुझे पहचान हो जाय कि मेरा कोई नाम नही चेहरा नहीं, शरीर नहा, कम नही, कोई अभिनय नहीं, मान होना है अस्तित्व मात्र मेरा स्वभाव है और जानना मान मेरी प्रकृति, ता.एफ मुक्ति, एक विस्फोट हागा । ऐसा विस्फोट व्यक्ति को जीवन के समस्त चक्कर के बाहर खडा कर देता है । हमारी सारी सभ्यता, सस्कृति और शिक्षा प्रत्येक यक्ति को उसका ठीक अभिनय दने की है। चीन के एक जेन फकीर ने पहा है---तुम खोजते हो इसलिए सो रहे हो, जिसे तुम सोजत हो वह तुम्हें मिला हुआ है । एक क्षण तो रुको, अपनी दौड बद करो, ताकि तुम देख सको कि तुम्हें क्या मिला हुआ है ' बुद्ध को जिस दिन उपलब्धि हुई उस दिन सुबह उनसे लोगो ने पूछा--- आप को क्या मिला?' बुद्ध न उत्तर दिया-~-मिला कुछ भी नहीं। जो मिला ही हुआ था वही मिल गया । से मिला? बुद्ध ने पहा- 'यसे की बात मत पूछो। जव तक "से" की भाषा में सोचता था, तब तक नही मिला। फिर मैंने सव सोज छाट दी। उसी क्षण पता लगा कि जिस मैं सोजता था वह मुझे मिला हुआ था। जब कोई आत्मा को खोजने लगता है तब वह पागलपन म उलझ जाता है, क्यावि आत्मा को खोोगा कौन? खोजेगा पस' यह तो है ही हमारे पास । जब हम खोज रहे हैं तब भी, जब नहीं सोज रह हैं तब भी। अगर यह बात ठीर स खयाल मै मा जाय कि सामायिक है अप्रयास, असोज और अगर आप इसी क्षण हो सकते हैं तो आप वहा पहुंच जायगे जहा महावीर सदा स सडे हैं । अगर हम एक्ष्य को खोजते हुए भटक्ते रहें तो हम अनन्त-अनत जमा तक चूबते चले जायंगे, कारण काइ रक्ष्य नहीं है जो भविष्य असहमति प्रकट करते ह जो 'सामायिक को शिया मानते हु । 'सामाइय-सुत' में पहा गया है-'रेमि नते । सामान्य, सावन जोग पन्चरसामि ।' अर्थात, 'हे पूम! म सामायिक परता हूँ। अत पापवाली प्रवत्ति यो प्रतिज्ञापूवक छोड देता हूँ।' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महावीर : परिचय और वाणी मे है। वह हे अभी और यही । जो नही जानते, वे कहते है--'जो खोजने की इच्छा कर रहा है, उसे खोजो।' लेकिन जो जानते हैं, वे कहेगे---'जहाँ से प्रश्न उठा है, वही उतर जाओ--अन्यत्र न खोजो।' सच तो यह है कि पाने की भाषा ही गलत है। जिसे पा लिया गया है उसका आविष्कार कर लेना है । इसलिए आत्मा उपलब्ध नहीं होती, सिर्फ जो ढका हुआ होता है, उसे उघाड़ लिया जाता है। मीर आत्मा ढकी होती है हमारी खोज करने की प्रवृत्ति से; ढकी होती है हमारी और कही होने की स्थिति से । सामायिक न तो कोई क्रिया है, न कोई अभ्यास। यह न कोई प्रयत्न है और न कोई साधना । पाने की सब आकाक्षा स्वय के बाहर ले जाती है । जब पाने की कोई आकाक्षा नहीं रह जाती तब आदमी स्वय मे वापस लौट आता है। यह जो वापस लौट आना है और घर मे ही ठहर जाना है, 'सामायिक' कहलाता है। महावीर ने अद्भुत व्यवस्था की है 'अक्रिया' मे उतर जाने की। होने मात्र में उत्तर जाने की। जिसकी समझ मे न आ जाय उसके लिए सामायिक के करने का प्रश्न ही नहीं उठता । जिसकी समझ मे न आवे वह कुछ भी करता रहे, फर्क नहीं पड़ता। साराश यह है कि सामायिक के लिए कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं । कुछ देर के लिए कुछ भी करना नहीं है, जो हो रहा है, उसे होने देना है। विचार आते हो तो उन्हें आने देना है, भाव उठते हो तो उन्हे उठने देना है। सव होने देना है। थोडी देर के लिए आप कर्ता न रहे, वस साक्षी वन जायँ। सामायिक तभी होगी जब आप विलकुल ही अप्रयास होंगे। युद्ध या कुश्ती की एक कला का नाम है जुजुत्सू । जुजुत्सू मे हमला करना नही सिखाते, वरन् यह बतलाते हैं कि जब प्रतिद्वन्द्वी तुम्हारी छाती मे घूसा मारे तो उसके घूसे के लिए जगह बना देना, राजी होकर उसके घूसे को पी जाना । सामायिक का मतलव भी यही है-चित्त पर होने वाले हमलो के लिए राजी हो जाना । चित्त पर विचारो का, क्रोध और वासना का सतत आक्रमण जारी है। सबके लिए राजी हो जाना। कुछ करना ही मत । जो हो रहा है, होने देना। यही सामायिक है। चारित्र-सम्बन्धी शास्त्रगत विचारो से मेरे विचारो का तालमेल नही बैठता। चरित्र की जो धारणा प्रचलित रही है उससे मैं बिलकुल असहमत हूँ। मैं यह भी १. उदाहरणार्थ : "सदृष्टि ज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः ।। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥३॥" रत्नकरंड० । ___ अर्थात्-'धर्म के प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को धर्म कहते है । इनके विपरीत मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र संसार के मार्ग है। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ८३ हता हूँ कि महावीर को भी धारणा वसी न थी । वस्तुत असली चीज है अविवेक । जिसके पास तक नही है, वह वाह्य आचरण को व्यवस्थित नही कर सकता । विवेक हो तो बाह्य आचरण स्वयं यवस्थित हो जाता है उसे व्यवस्थित करना नही पडता । जिसे करना पडता है, वह इस बात की सवर देता है कि उसके पास तनहा है । अतविवेक की अनुपस्थिति में बाह्य आचरण अधा है - चाहे हम उसे अच्छा कहें या बुरा, नतिक कहें या अनतिक | हमारा समाज अच्छा आचरण उसे कहता है जिससे उसके जीवन में सुविधा बनती है बुरा आचरण उसे कहता है जिससे असुविधा होती है। समाज को व्यक्ति की आत्मा से कोई मतलब नही है.... सिफ व्यक्ति के व्यवहार से मतलब है, क्याकि समाज व्यवहार से बनता है, आत्माआ से नही बनता । समाज को चिता यह है कि आप सच बोलें, यह चिंता नही है कि आप सत्य हो । आप झूठ हा तो काई चिता नहीं, पर वोलें सच । समाज की चिता आपके आचरण से है, घम की चिता आपकी आत्मा से है। समाज के द्वारा आचरण की जो व्यवस्था है वह मय पर आधारित है। पुलिस है, अदालत है वानून है या पाप पुण्य का डर है स्वग है नरक है । परिणामस्वरूप समाज यक्ति का नेवल पापडी बना पाता है या अनतिवनति कभी नही । और जो व्यक्ति पाखडी हो गया उसके धार्मिक होने की सम्भावना अनतिक व्यक्ति से भी कम हो जाती है । परम पानी जसा भीतर होता है बसा ही बाहर भी । अनानी का भी बाहूयाम्यतर एक-सा होता है । बीच में पासडी होता है जिसका बाहर पानी जसा किन्तु भीतर अनानी -जसा होता है । उसके भीतर गाली उठती है हिंसा उठती है मगर वह 'अहिंसा परमोधम' की तम्नी लगाकर बढ़ता है चरित्रवान दिखाई पड़ता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर का व्यक्तित्व वह पानी से उधार लेता और भीतर वा यक्तित्व अज्ञानी से वह पाखडी व्यक्ति, जिसे समाज नतिक कहता है, कभी भी घम को उपलब्ध नही होता । अनतिक व्यक्ति उपलध हो भी सकता है । अक्सर पापी पहुँच जाते हैं पुण्यात्माएँ मट जाती हैं। इसके दोहरे कारण हैं । एक तो पाप दुखदायी है। उसकी पीडा है जो रूपान्तरण राती है। दूसरी बात यह है कि पाप करने के लिए समाज के विपरीत जाने के लिए भी साहस चाहिए। पापडी लोग अतिसामान्य -- मीडियोकरहोते हैं | उनम साहस नहीं होता। साहस के अभाव मे वे चेहरा वसा बना लेते हैं जैसा समाज चाहता है, समाज के डर के कारण । अनैतिक व्यक्ति के पास एक साहस होता है जो कि आध्यात्मिक गुण है और उसके पास पाप वो पीडा होती है। पाखडिया की नैतिकता साहस की कमी के कारण होती है, साहस के कारण नहीं | एक आदमी चोरी नही करता। आम तौर से हम उसकी प्रसा करते हैं । मगर चारी न करना ही बचार हान का लक्षण नहा है । चारी न करन वा कुल 1 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी ८४ कारण इतना हो सकता है कि आदमी तो चोर है, लेकिन चोरी करने का साहन नहीं जुटा पाता । जिन्हें हम नैतिक कहते है, अक्सर वे जाहतहीन लोग होते है। और, याद रहे, धर्म साहम की यात्रा है। माहमहीन लोग इसलिए नैतिक होते हैं कि उनमे साहस नहीं है। तो मेरी दृष्टि यह है कि पापी की सम्भावनाएं धर्म के निकट पहुंचने की ज्यादा हैं उस व्यक्ति की अपेक्षा जिमे हम नतिक व्यक्ति कहते है। जिस दिन पापी धर्म की दुनिया में पहुंचता है वह उननी ही तीव्रता से पहुँचता है जितनी तीव्रता से वह पाप की दुनिया मे गया था। नीत्मे ने लिखा है-'जब मैंने वृक्षो को आकाग छूते देखा तो मैंने खोजबीन की। मुझे पता चला कि जिस वृक्ष को आकाश छुना हो उसकी जड़ो को पाताल छूना पडता है । तब मुझे खयाल आया कि जिस व्यक्ति को पुष्प की ऊंचाइयां छुनी हो उस व्यक्ति के भीतर पाप की गहराइयो को छूने की क्षमता चाहिए।' ___मैं चाहता हूँ कि आदमी सीवा हो, चाहे वह पापी ही क्यों न हो । इसलिए मेरी भविष्यवाणी है कि आनेवाले सी वर्षों में पश्चिम में धर्म का उदय होगा और पूरब मे वर्म प्रतिदिन क्षीण होता चला जायगा। इसका कारण यह है कि पूरव.. पाखडी है, पश्चिम बुरा है मगर साफ है । यह साफ बुरा होना पीड़ा देनेवाला है। इसलिए उस पीड़ा से पश्चिम को बाहर निकलना ही पडेगा। पासडी का झुठा अच्छा होना पीडा नही बनता। वह कुनकुनी हालत में होता है-कभी भाप नही वनता, वर्फ भी नहीं बनता। पापी बादमी वर्फ भी बन सकता है, भाप भी वन सकता है। मेरा मानना है कि समाज ने नैतिक गिक्षा देकर अपने को किसी प्रकार सुव्यवस्थित तो कर लिया है मगर व्यक्ति की आत्मा को भारी नुकसान पहुंचाया है। और मेरा यह भी मानना है कि समाज व्यवस्थित है, यह सिर्फ दिखाई पडता है। अगर व्यक्ति झठे है तो व्यवस्था सच्ची कैसे हो सकती है ? अक्सर धार्मिक व्यक्ति को असामाजिक होना पड़ा है, क्योकि वह इस झूठे समाज से राजी नहीं हो सकता। इसलिए वुद्ध अपने भिक्षुओ को जो नाम देते है वह है 'अनागरिक' । असल मे भिक्षु, साधु, सन्यासी का मतलव ही यह है कि वह किसी अर्थ मे असामाजिक हो गया है। समाज का अब तक का इतिहास झूठी नैतिकता, झूठी व्यवस्था और अराजकता के बीच डोलता रहा है।। __ मैं यह भी कहता हूँ कि काम-वासना उतनी खतरनाक नहीं है जितना खतरनाक पाखड है। पाखड मनुष्य की ईजाद है और काम-वासना परमात्मा की। कहने की आवश्यकता नहीं कि सत्य से ही सत्य तक पहुँचा जा सकता है । यदि काम-वासना सत्य है तो उससे भी ब्रह्मचर्य तक पहुंचा जा सकता है। सत्य कामवासना की समझ से ही उत्पन्न अन्तिम अनुभूति है। काम-वासना व्यक्ति के जीवन का सत्य है। इस सत्य को समझने से हम और बड़े सत्य को उपलब्ध हो सकते है Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापौर परिचय और वाणी याना ब्रह्मचय वामना की ही अतिम समय से हुई निष्पत्ति है। यह वासना य विरद्ध पडी गई बात नहीं है। पासना का शिमा ठीर स समगा-पहचाना, यह धार धीर ब्रह्मचय या उपर घ हा जाता है। जिमन इसे पहचानन स इनकार कर दिया वह अपो ऊपर झूठा ब्रह्मचय थोप देता है। जव में साधु-सयासिया से मित्ता ता हैरान हो जाता हूँ। लोगा ये सामन ता व नात्मा परमात्मा की बातें परत ह ब्रह्मचय ये गुण गाते हैं, परन्तु एकान्त भ वे पूछते हैं कि काम-वासना से छुटकारा पस हा। दारिए मैं बहता हूँ पिजो जादमी सेक्स को ठीव से समय रेता है वह ब्रह्मचारी हुए विशा नहीं रह गकता-उरो ब्रह्मचय की पार जा ही होगा। अगर किसी का ब्रह्ममय की ओर लाना हा ता उस काम-वासना की पूरी समर दनी होगी। उरारे उस मम्माहन को तोडना पडेगा जो उस काम-यासा दे रही है। यह जानकर हैरानी होगी विनाधारणतया कामुक व्यक्ति उनका कामुम ही होता जितना वह साधु-सयामी हाता है रिमो ऊपर स ब्रह्मचय थोप लिया है। यह एक क्षण मी काम से छुन्यारा रहा पा सस्ता । उमन जिसे दवाया है वह भीतर स निरलने के लिए हरा उपाय सोज लेगा, वह उसरे सार चित्त को घेर रेगा, उसने पूर चित्त रग रशे म प्रविष्ट हा जायगा। ऐसा पस्ति सेक्स के वेद्र पर इतना दमन डालता है कि सेक्रा या प्रवृत्ति दूगरे द्राम प्रविष्ट हो जाती है-मर्यात, वह उसके मन और उसकी चेतना तपम चरी जाती है। प्राचय राग्ल है अगर थापा न जाय । वह पटिन है १ रजनी को ब्रह्मचय विपयय' मा यताएं जनपम या मूलभूत मापताओं का सडन नहीं करती और उनमे पामबासना की प्रशस्ति है। उनका लण्य यिद माया मिश्य है। रजनीग पाम-पासा तर सपने को नहीं पहत, प्रत्युत्त उसे स्वाति दने और समझने की सलाह देते ह, उस सत्य को स्योपार करने की मांग करते हैं । और यह इसलिए करते ह कि ऐसी स्वीति से ही ब्रह्मचय परित हो सस्ता है, अन्यया नहीं। पाम-यासना पो जानना है तापि उसमे मुक्त हुआ जा सय । उरारे दमन से ब्रह्मचय पल्ति नहीं होता, उसको स्वोरति स उसरा अतिक्रमण हो सस्ता है। ये कहते हरि फाम-यासमा सत्य पो समझो, इससे नागो मत, "रो मत, भपभोत मत होमो-दो पहचानो, जागो । जागाणे, पहचानोगे, समझोगे तो काम-वासना क्षीण होगी और पूरा समस की स्थिति म स्पातरित हो जायगी। हां, ये यह नहीं मानने दिममा ब्रह्मचय का रक्षा लिए ऐसे स्थान में निवास परे जहाँ एशत हो, ना मम यस्तो पाताभार जो स्त्री आदि से रहित हो। ज पियितमगाइन, रहिस पोमण प । यभरमा रगटटा, मारय छु राियए। (उत्त० स० १६, ०१) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी अगर थोप लिया जाय । तो मैं कहता हूँ कि समाज को सम्यक् वासना सिखाओ, सम्यक् काम की शिक्षा दो। महावीर भी जिस ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हए थे, वह जन्म-जन्मान्तरो की वासना की समझ का ही परिणाम था। किसी चीज को समझने के लिए उससे गुजरना और उसे जीना आवश्यक है। ब्रह्मचर्य की साधना की प्रक्रिया का सूत्र यह है कि सेक्स के क्षण मे हम जागे हुए कैसे रहे । अगर आप दूसरे क्षणो मे जागे हुए होने का अभ्यास कर रहे हैं तो आप सेक्न के क्षण मे भी जागे हुए हो सकते है । ठीक यही वात मृत्यु के सम्बन्ध मे भी कही जा सकती है । मृत्यु का भय इतना ज्यादा है कि हम मृत्यु को जागे हुए भोग नहीं पाते, इसलिए मृत्यु से अपरिचित रह जाते है । एक दफा कोई मृत्यु मे जागे हुए गुजर जाय तो मृत्यु खत्म हो गई, आत्मा के अमर स्वरूप का ज्ञान हो गया और उसे पता लगा कि मरा तो कुछ भी नही, सिर्फ शरीर छूटा है। हम सेक्स से मूच्छित गुजरते है, इसलिए उससे अपरिचित रह जाते है । जो सेक्स से परिचित हो जाय, वह ब्रह्मचर्य को जान लेता है। प्रकृति ने जिन्दगी के सभी कीमती अनुभवो को वेहोशी मे गुजरवाने का इन्तजाम किया है। यदि ऐसा न होता तो आप उनसे गुजरने से इनकार कर देते । सेक्स प्रकृति की गहरी जरूरत है। वह सन्तति उत्पादन की व्यवस्था है। प्रकृति नहीं चाहती कि आप उसमे गडबड करे । जिसे आप प्रेम आदि की सज्ञा देते है वह सब वेहोश होने की तरकीबे है, और कुछ नही । प्रेयसी के पास आपको पहले मूच्छित होना पड़ता है, उसे मच्छित करना पडता है। प्रेमक्रीडा से गुजरने के पहले सारा गोरख-धधा एकदूसरे को मच्छित करने का उपाय है। मेरे कहने का तात्पर्य कुल इतना है कि यदि आप किसी भी क्रिया से मुक्त होना चाहते हो तो याद रखिए--मूच्छित हालत मे आप उससे कभी मुक्त नही हो सकते। - अगर महावीर स्त्रियो को छोडकर जगल चले गए है तो हमे लगता है कि हम भी स्त्रियो को छोडे और जगल चले जायें। हम महावीर की बुनियादी बात समझना भूल गए । वे जब जगल जा रहे है तो पीछे स्त्रियो की स्मृति नही है उनके मन मे । लेकिन आपका जगल जाना कुछ और होता है। वहाँ उनकी स्मृति आपको घेरे हुए होती है और आप समझते है कि आप वही काम कर रहे है जिसे महावीर ने किया था। आप भी जंगल में जाकर बैठ जायेंगे। मगर महावीर बैठेगे तो स्वयं खो जायेंगे । आप बैठेगे तो स्त्रियो मे खो जायेंगे । आप कहेगे कि यह तो महावीर ने भी किया था जो हम कर रहे है । हमारी कठिनाई यह है कि हमे ऊपर का रूप ही दिखाई पडता है। महावीर जंगल जाते दिखाई पडते है । उनके भीतर क्या घटी है, यह हमे दिखाई नही पडती । अगर वह दीख पड जाय तो बात कुछ और ही हो जाय । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ८७ तो मेरा कहना है कि बिना अनुभव के काई मुक्ति नही । पाप के अनुभव के बिना पाप से भी मुक्ति नही । इसलिए भयभीत होकर जो पाप स रुषा है, वह पाप सभी मुक्त नहीं होता । वह पाप करने की सिफ शक्ति अर्जित करता है । आज नही, कल वह पाप करेगा ही और पाप करके पछताएगा । स्वय पछताकर फिर दमन करने लगेगा और तत्पश्चात दमन के फलस्वरूप - फिर पाप करेगा और फिर पठताएगा। यह एक बुरा चक्र है - पाप पश्चाताप, फिर पाप और पश्चात्ताप 1 मैं कहता हू कि पश्चाताप मुल्वर भी मत करना। मैं कहता हू जानवर पाप करना पूर जागे हुए पाप करना । जो भी करना पूरे जागे हुए करना । गाली भी देना तो पूरा जागे हुए दना । शायद गाली देने का मौका दुबारा न आवे और पश्चात्ताप को मी जरूरत न पड़े । मेरा मतलब केवल इतना है कि हमारा कोई भी अनुभव जितना जागरूक हो सके उतना अच्छा है । दमन का सवाल नहीं है ।" मेरी धारणा रही है कि अनतिक व्यक्ति को जितना बुरा कहा गया है, वह उतना बुरा नही होता । नैतिक 'यक्ति को जो भला कहा जाता है वह बहना मा गलत है । मेरी समझ में जीवन की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्ति को सरल और सहज होने का मौका मिले- न उसकी निन्दा हो, न उसका दमन हो और न उसको जबरदस्ती ढालने-वदलने को - चेष्टा हो । समाज उसे समझने वा विमान और यवस्था दे गिक्षा उसे समझन का मौका दे । कोइ उससे न वह बाघ मत करो, क्रोध बुरा है । स्कूलो मे उस सिसाया जाय क्रोध करो लेकिन जागे हुए जानते हुए । अगर ऐसी पवस्था हो ता - १ रजनीश की मान्यता है विज्ञानी गास्त्र नहीं रचते । इसीलिए गानो का यह कथन कि साधु दमन करता है, ज्ञान से उदभूत नहीं है । साधुधम के सम्बध मे एक सूत्र है समण सजय दत्त, हणेज्जा को वि कत्यह । नत्यि जीवस्स नासोति, एव पेहेज्ज सजए ॥ (उत्त० अ०२, गा० २७ ) इसमे साधु को इंद्रिया का दमन करने वाला तथा सयमी कहा गया है । एक अय सूत्र में कहा गया है कि साधु क्म आने के सभी अगस्त द्वारों को सब ओर से बदवर हो जाता है और अध्यात्म तथा ध्यान-योग से आत्मा का प्रगस्त दमन एव अनु गासन करनेवाला होता है अप्पसत्यह अज्झप्पज्माण दारेहि, सत्यओ पिहियासयो । जागेहि, पसत्यदमसासणी ॥ (उत्त० म०१९, गा० ९४ ) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ महावीर : परिचय और वाणी व्यक्ति धीरे-धीरे क्रोध के बाहर हो जायगा, क्योकि समझपूर्वक कोई कभी क्रोध नहीं कर सकता। ___ मेरी वात कई दफा उलटी दीखती है। कई दफा ऐसा लगता है कि इससे स्वच्छपता फैल जायगी, अराजकता का वीजवपन होगा। लेकिन अराजकता फैली हुई है, स्वच्छदता व्याप्त है। मैं जो कह रहा हूँ, उससे अराजकता मिटेगी, स्वच्छता तिरोहित हो जायगी। जिन रास्तो पर हम चल रहे हैं वे हमे साधारण वनाने के रास्ते है। ऐसे रास्ते भी है जो हमे असाधारण बना सकते है । समाज नही चाहता कि व्यक्ति असाधारण वने। उसे साधारण व्यक्ति ही चाहिए, क्योकि साधारण व्यक्ति खतरनाक नही होते, वे विद्रोह नही करते-वे व्यक्ति नही, भीड होते हैं। समाज को भीड को आवश्यकता होती है, व्यक्ति की नही । नेता चाहते है भीड, गुरु चाहते है भीड, शोपक चाहते है भीड । और मैं कहता हूँ कि चाहिए व्यक्ति, क्योकि भीड की कोई आत्मा नही होती; मै चाहता हूँ एक ऐसी दुनिया, एक ऐसा समाज जिसमे व्यक्ति ही व्यक्ति हो, भीड़ नही । जो गुरु अनुयायियो को इकट्ठे करते फिरते हैं, वे हिंसक वृत्ति के लोग है । उनका लक्ष्य ध्यक्ति को मिटाना होता है, भीड़ इकट्ठी करना होता है। जो उनसे राजी होते है, वे स्वय को मिटाकर अनुयायी बनना स्वीकार करते है। अच्छा आदमी यह नही चाहता कि आप उससे राजी हो। अच्छा आदमी चाहता है कि आप सोचना शुरू करे। मैं यह नहीं कहता कि आप मेरी वातो को मान ले । मेरा जोर इस बात पर है कि आप भी इस भाँति सोचना शुरु करे । जीवन मे सोचना शुरू हो, जागना शुरू हो, दमन वन्द हो, अनुगमन वन्द हो तो प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा मिलनी शुरू होगी और आत्मा प्रत्येक को असाधारण वना देती है। प्रश्न उठता है कि इन ढाई हजार वर्षों मे जिन श्रावको और साधुओ ने नतो का पालन किया, क्या वे सब-के-सब पाखडी थे, क्या उनके लिए सत्य के ज्ञान की कोई सम्भावना नही थी ? ____मैं कहता हूँ-नही, कभी कोई सम्भावना न थी। असल मे व्रत पालनेवाला कभी भी पाखडी होने से बच नही सकता । व्रती पाखडी होगा ही । व्रत लेता वही है जो भीतर सोया हुआ है। जो जग गया है, वह व्रत नहीं लेता-व्रत आते हैं उसके जीवन मे। कोई व्रती पाखडी न रहा हो, यह असम्भव है । व्रत का मतलब क्या है ? ब्रत का मतलब है दमन, चित्त की उस दशा का दमन जिसके विपरीत आप व्रत ले रहे है । मैं कामवासना से भरा हूँ, इसलिए ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूँ; हिंसा से भरा हूँ, इसलिए अहिंसा का व्रत लेता हूँ, परिग्रह से भरा हूँ, अपरिग्रह का व्रत लेता हूँ। न तो परिग्रह का व्रत लेना पड़ता है और न हिंसा या कामभासना का । जो हम है उसका व्रत लेना नही पडता। जो हम नही है, उसका व्रत Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९ महावीर परिचय और वाणी लेना पड़ता है। निश्चित ही व्रत धमन लायगा । प्रती तो नि शल्य हो ही नहीं सरता। उसका व्रत ही एक शल्य है। अव्रती नि शल्य हो सकता है। लेकिन में यह नहीं कहता कि अमती होने से ही कोई नि शत्य हो जायगा । अवती होना हमारे जीवन की स्थिति है। अव्रती दशा म जागना हमारी साधना है। उदाहरण के लिए कुदहुद को ही लें। वह वसा ही व्यक्ति है जसा महावीर । वह कोई व्रत नहीं पारना, केवल समझ को जगाता है। जो समझता है वह छूटता चला जाता है और जो व्यथ है आप ही विदा हो जाता है। लेकिन है वह अव्रता व्यक्ति । वह जो प्रता व्यक्ति है, वह सदा झूठ है निपट पावडी है। व्रत पारन से कोई भी कहा नहा पहुचा। महावीर को मी मैं अनमी कहता हूँ। कुदकुद भी अव्रती है ऐसा ही है उमास्वाति । ऐम ही है कुछ और लोग भी। लेकिन जब तुम कहते हो 'जैन श्राव', 'जन साधु' ता न तो कुदकुद जन है, न उमास्वाति । जिन होने का पागलपन है, वे कभी नहीं पहुंचते क्यापि जन होने का मम व्रत आदि से होता है। यत की व्यथता का अनुभव अत पारने स ही होता है। अगर हम जाग जायें ता पता लग कि हमारे सारे व्रत व्यथ थे । चित्त वैसा ही रह गया है जसा था । पत्तय को भी मैं रत की मापा मानता हूँ। यह भी व्रत की बात है। प्रेम अव्रत की भाषा है अव्रत की बात है। लेकिन अन्वत अकेला कापी नहीं है। अव्रत के साथ जागरण हा। जागरण चाहे अव्रती का हो या व्रती का, फलीभूत होता ही है। आप जिस स्थिति म हा उसी म जाग जाये । हम जो मी कर रहे हैं उसके प्रति जाग जायें। करने के प्रति जागने से फल आना शुरू हो जाता है। चारी करनेवाला चारी के प्रति जाग जाय तो उसका भी जागरण सफल होगा। जागरण के पीछे वर हागा अवश्य । हम मदिर जा रहे हा तो भी जागना है वेश्याव्य जा रहे हा तो भी जागना है। हम जा भो करें उमे होशपूर्वक करें। होपूर्वक करने स जो गप रह जाता है वह धम है और जो मिट जाता है वह अधम । नीद तोडन स वडा और कोई, पौरुप नहीं है। हमारा कोइ आतरिक गनु नही है सिवा निद्राव, मच्छा और प्रमान के । इसलिए महावीर रा कोई पूछे वि घम क्या है तो वे कहेंग अप्रमाद।और अवम क्या है ? व कहगे प्रमाद । योई पूछे कि साधुता क्या है ? ये जवाय १ गास्त्र कहते हघि प्रती को निशल्य होता है। उदाहरण के लिए निम्नलिसित सूत्र ध्यातव्य है पुपिवारा दुम्सेना, सोउण्ह अरइ मय । अहियासे अध्याहिमो, देहटुक्त महापल ॥ (ना० अ०८, गा०२७) अर्यात-भधा, तपा दुगप्या, सरदी, गरमी, मरति (राग का अभाव), भय आदि सभी काटा को साधर अदीन भाव मे सहा करे। (समभाय से राहन रिए गए) दहिर पष्ट महाफलदायीहोतेह । । - - Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० . महावीर ः परिचय और वाणी देगे : अमूर्छा । असाधुता क्या है ? वे कहेंगे : मूर्छा । उनकी सारी साधना का मूत्र है विवेक-कोई कैसे जागे, कैसे होश से भरा हुआ हो। ____ महावीर का पीरुप काम, क्रोध, लोम बादि से लड़ने मे न था। ये तो लक्षण है सिर्फ । इनसे कोई पागल ही लडेगा । मूछा है मूल वस्तु । काम, क्रोध, लोभ इससे ही पैदा होते हैं । मूर्छा टूटेगी तो वे आप ही विदा हो जायेंगे। अगर मूर्छा से बचते हुए व्रत लेकर इन्हे खत्म करने की कोगिरा की गई तो ये कभी खत्म न होगे, क्योकि मुर्छा भीतर जारी है। वह नए-नए त्यो मे इन्हें पैदा करती रहेगी। एक कोने से न निकलकर दूसरे दरवाजे से ये फूट पड़ेगे। महावीर तो वहुत स्पष्ट है कि साधना है अमूर्छा, संघर्ष यानी मूछी, सकल्प यानी जागरण ।। आचाराग के एक वाक्य का अर्थ है कि 'तू वाह्य शत्रुओ से क्यो लडता है, अपनी आत्मा के शत्रुओ से ही लड़।' मै सूत्रो की फिक्र नहीं करता, क्योकि जो लोग उन्हे सगृहीत करते है वे कोई बहुत समझदार लोग नहीं होते। इसलिए उनसे तालमेल विठाने का सवाल पैदा नहीं होता। यदि वैठ जाय तो यह आकस्मिक वात होगी। न वैठे तो मुझे इसकी परवा नहीं। 'आन्तरिक शत्रुओ से लड' मे कही-न कही बुनियादी मूल हो गई है, क्योकि आन्तरिक शत्रु सिर्फ मूर्छा है। महावीर वार-वार यही कहते है। शत्र एक ही है और मित्र भी एक । जागरण मित्र है और मर्छा शत्र । इसलिए सुनने वाले ने कही-न-कही भूल कर दी है। 'आन्तरिक शत्रु' से लडना है, न कि 'शत्रुओ' से । जो बहुत शत्रुओ से लड रहा है, वह बुनियादी भूल कर रहा है, क्योकि मजे की बात तो यह है कि अगर काम चला जाय तो लोभ स्वत चला जाता है, कोघ चला जाता है, मोह चला जाता है। यानी वे चार जो तुम्हे दिखाई पड़ रहे है-काम, क्रोध, लोम और मोह-संयुक्त है और उन सवका जो संयुक्त तना है नीचे, वह मूर्छा है । वहाँ से शाखाएँ निकलती रहती है। गहराई मे उतरने वाले कहेगे 'मूर्छा से लड़ना है । और लडना क्या है, जागना है । जागा हुआ आदमी कभी लोभी नही पाया गया और सोया हुआ आदमी कभी अलोभी नहीं हुआ, अकामी नही हुआ । और, याद रहे, व्रत से कभी कुछ नही मिटता, क्योकि व्रत शाखाओ से लडाई है। महावीर और कृष्ण मुक्त हुए होगे तो दमन से नही, जागरण से । फ्रॉयड के शोधो से यह बात पहली बार स्पष्ट हुई है । इस नियम को उसने पहली बार वैज्ञानिक ढग से कहा है। इसलिए अब जो लोग महावीर को समझने के लिए फ्रॉयड के पूर्व की भाषा का उपयोग करेगे वे महावीर को आज के युग के लिए उपयोगी वनने न देगे। यह निश्चित है कि महावीर की मुक्ति जव भी घटी होगी, वह दमन से घटी न होगी। दमन से मूर्छा पर विजय पाना एक वैज्ञानिक असम्भावना है। यानी--अगर कोई कहे कि दमन से महावीर उपलब्ध हुए है तो फिर महावीर उपलब्ध न हुए होगे और अगर वे उपलव्ध हुए तो उन्होने दमन न Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी रिया होगा । मैं मानता हूँ कि वे उपलब्ध हुए क्यापि जसी शाति, जैसा आन द और जैसी ज्योति उनके "यक्ति म आई वैसी दमित व्यक्ति को आ ही नहीं सकती। दमित व्यक्ति के चेहरे पर, मा पर सब ओर तनाव ही तनाव होता है। सिफ विमुक्त आदमी के मन म वसी शान्ति हो सकती है जसी महावीर के मन मे है । प्रश्न किए जात हैं कि जिसे मैं सामायिक या आत्म स्थिति रहना हूँ, क्या वह चीनरागता ही नही है ? आत्म स्थिति में होनेवाले लोग क्या जोवन यवहार में आकर अपनी आत्म स्थिति खो नही देते ? मरा उत्तर है-~-नहीं, व इसे नहीं खोले । आप चाहे जागे हो या सोए, काम कर रहे हों या शात बैठे हा, आपकी मास चलती ही रहती है, क्याकि वह जीवन की स्थिति है। ऐसी ही चेतना की स्थिति है। एक बार वह हमारे खयाल मे आ जाय तो फिर कभी मिटती नही। यानी जीवन-व्यवहार म उसका "यान नहीं रखना पडता कि वह बनी रहे- वह हमशा बनी ही रहती है। धनपति को चौनीस घटे यह याद रखना नहीं पड़ता कि वह घनपति है। लेकिन धनपति होने की वह स्थिति बनी रहती है चौवीस घटे । हमारी स्थितिया हमारे साय की चलती हैं । एक पल में हजारवें हिस्से में भी अगर हम आत्म स्थिति का अनुभव हुआ है तो वह अनुभव वरावर बना रहेगा, क्योकि हमारे पास पल क हजारव हिम्से से बड़ा कोइ' समय होता ही नहीं। सामायिक को मैं माग कहता हूँ वीतरागता को मजिल । सामायिक द्वार है वीतरागता उपलब्धि । साधन और साध्य अतत अलग अलग नहीं हैं। साधन ही विकमित होते होत साध्य हो जाता है। वीतरागता मे परम उपलब्धि होगी उसकी जिसे सामायिक म धार धीरे उपर किया जाता है। सामायिक म पूरी तरह स्थिर हो जाना वीतरागता में प्रवेश करना है। कृष्ण न जिस स्थिर या स्थितप्रन रहा है वह वही है जा वीतराग है। दाना शब्द बहुमुल्य है । वीतराग वह है जो सर द्वद्वा के पार चला गया है, जो दा के पार चला गया है जो एक मही पहुच गया है। अब ध्यान रहे कि स्थिर या स्थितप्रन वह है जिमनी प्रना ठहर गई है, जिसकी प्रज्ञा पती रहीं । प्रा उसकी ही बापती है जो दुद म जीता है-दो के बीच जीता है। जहाँ द्वन्द्व है वहा कम्पन है । महावीर ने द्वद्व के निपेच पर जोर दिया है, इसलिए 'वीतराग शद का उपयोग किया है, कृष्ण न द्वद्व की बात ही नही की स्थिरता पर जोर दिया । एक ही चीज का दो तरफ से पकड़न की कोशिश की है दोना ने । कृष्ण पकड रहे ह दीए की स्थिरता स, महावीर पकड रहे ह हद निषेध से । लेकिन दाद का निषेध हा ता प्रना स्थिर हा जाती है प्रना स्थिर हो जाय तो हद का निपध हो जाता है। ये दानो एक हो जय रखते है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ महावीर : परिचय और वाणी ___यह भी न भूले कि जीवन-व्यवहार हमसे निकलता है। हम जैसे हैं वैमा ही हो जाता है। हम मूच्छित हैं तो हमारा जीवन-व्यवहार मुच्छित होता है। जो हम करते है, उसमे मूर्छा होती है। अगर हम ज्ञान में पहुंच गए तो हमारा जीवनव्यवहार ज्ञान से भर जाता है। अगर मूल स्रोत अमृत से भर गया तो फिर जो लहरें छलकेगी, उनमे अमृत भरा होगा। ___मैने ऊपर जिस अन्तज्योति की बात कही, वह ऐसी ज्योति नही जो कनी बुझती है। वह अभी भी जल रही है। वह कभी वुझी नही, क्योकि वह हमारी चेतना का अन्तिम हिस्सा है- वह हमारा स्वभाव है । पीठ फेरेने, लौटकर देखेंगे तो उसे जली हुई पायेंगे। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय कर्मवाद राजीवाण पम्म तु, सगहे धन्दिसागय । सब्बेसु वि पएमैनु, मव्य सण वज्यग ।। --उत्त० अ० ३३ गा० १८ म पे सम्बप म बहुत बुध समझा जारी है, क्यापि जितनी नासमझी इस वान के सम्बध में है उती गायद पिसी बात से सम्बषम नहीं। यह देसपर आश्चय हाता है कि किसी सत्य चितन वे आमपास बसत्य की कितनी दीवारें पड़ी हो रापती हैं । साधारणत पमवाद ऐसा रहता हुआ प्रतात होता है कि जो हमने पिया है, उसबा पर हम नागना पडेगा । हमारे यम और हमारे मा म एप पनि वायकाय-धारण सम्बध है। यह विरपुल सत्य है कि जाम परत हैं उससे अयथा हम नही भागत-भाग भी हो म । पम भोग पी तपारी है। असर म, बम भाग या प्रारम्भिव वीर है । पिर वही वी7 माग म वक्ष बन जाता है। यमवाद या जो सिद्धात प्रचलित है, उसम ठीक वात या भी ढग से रखा गया है कि यह विरकुल गलत हो गई है। उस सिद्धात म ऐसी बात न माएम पिन वारणा से प्रविष्ट हो गई है कि कम ता हम अभी करेंगे आर मोगेंगे अगर जाम म । पाय-वारण बोच अतराल नहा होता- अतरार हो ही नहीं सकता। अगर अन्तराल आ जाय तो काय-कारण विच्दिन हो जायेंगे उनपा सम्बय टूट जायगा । आग म में अभी हाथ डालू बोर जर अगले जम मे---यह समय के बाहर की बात होगी। रेविन इस तरह के सिद्धात का, इस तरह की प्राति पा कुत्र कारण है। वह यह है कि हम एक बोर तो मरे आदमिया का दुरा पेलत देसत हैं वहा दूसरी बार हम बुरे रोग सुख उठात दीसते हैं। अगर प्रतिपल हमार काय और कारण परम्पर जुड़े हैं ता चुर लोगा का सुसी होगा और भरे रागा या दुपी, होना, बस सम झाया जा सकता है ? एक आदमी मला है. सच्चरित्र है इमानदार है और दुस भोग रहा है पट पा रहा है, दुमरा मादमी बुरा है, वेर्दमान है, चरिनहीन है और १ सभी जीव अपने आसपास छहा दिशामा मे स्थित कमप्रदगला को ग्रहण करते ह और आत्मा के सब प्रदेशो के साय सव फर्मों का सब प्रकार से बधन हो जाता है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ महावीर : परिचय और वाणी सुख पा रहा है, वह धन-धान्य से भरा-पूरा है । अगर अच्छे कार्य तत्काल फल लाते हैं तो अच्छे आदमी को सुख भोगना चाहिए और यदि बुरे कार्यों का परिणाम तत्काल बुरा होता है तो बुरे आदमी को दुख भोगना चाहिए। परन्तु ऐसा कम होता है । । जिन्होने इसे समझने-समझाने की कोशिश की उन्हें मानो एक ही रास्ता मिला । उन्होने पूर्व जन्म में किए गए पुण्य-पाप के सहारे इस जीवन के सुख-दुख को जोड़ने की गलती की और कहा कि अगर अच्छा आदमी दुख भोगता है तो वह अपने पिछले बुरे कार्यों के कारण और अगर कोई बुरा आदमी सुख भोगता है तो अपने पिछले अच्छे कर्मों के कारण | लेकिन इस समस्या को सुलझाने के दूसरे उपाय भी थे और असल मे दूसरे उपाय ही सच है । पिछले जन्मो के अच्छे-बुरे कर्मों के द्वारा इस जीवन के सुख-दुख की व्याख्या करना कर्मवाद के सिद्धान्त को विकृत करना है । सच पूछिए तो ऐसी ही व्याख्या के कारण कर्मवाद की उपादेयता नष्ट हो गई है । कर्मवाद की उपादेयता इस बात मे है कि वह कहता है तुम जो कर रहे हो, वही तुम भोग रहे हो। इसलिए तुम ऐसा करो कि सुख भोग सको, आनन्द पा सको । अगर तुम क्रोध करोगे तो दुख भोगोगे, भोग हो रहे हो क्रोध के पीछे ही दुख भी आ रहा है छाया की तरह । अगर प्रेम करोगे, शान्ति से रहोगे और दूसरो को शान्ति दोगे तो शान्ति अर्जित करोगे : यही थी उपयोगिता कर्मवाद की । किन्तु इसकी गलत व्याख्या की गई। कहा गया कि इस जन्म के पुण्य का फल अगले जन्म मे मिलेगा, यदि दुख है तो इसका कारण पिछले जन्म मे किया गया कोई पाप होगा । ऐसी बातों का चित्त पर बहुत गहरा प्रभाव नहीं पड़ता । वस्तुत. कोई भी व्यक्ति इतने दूरगामी चित्त का नही होता कि वह अभी कर्म करे और अगले जन्म मे मिलनेवाले फल से चिन्तित हो । अगला जन्म अँधेरे मे खो जाता है । अगले जन्म का क्या भरोसा ? पहले तो यही पक्का नही कि अगला जन्म होगा या नही फिर, यह भी पक्का नही कि जो कर्म अभी फल दे सकने मे असमर्थ है, वह अगले जन्म मे देगा ही । अगर एक जन्म तक कुछ कर्मों के फल रोके जा सकते है तो अनेक जन्मो तक क्यो नही ? तीसरी बात यह है कि मनुष्य का चित्त तत्कालजीवी है । वह कहता है : ठीक है, अगले जन्म मे जो होगा, होगा; अभी जो हो रहा है, करने दो। अभी मैं क्यो चिन्ता करूँ अगले जन्म की ? । इस प्रकार कर्मवाद की जो उपयोगिता थी, वह नष्ट हो गई। जो सत्य था, वह भी नष्ट हो गया । सत्य है कार्य-कारण सिद्धान्त जिस पर विज्ञान खडा हे अगर कार्य-कारण के सिद्धान्त को हटा दो तो विज्ञान का सारा भवन धराशायी हो जाय । ह्यूम नामक दार्शनिक ने इंगलैंड मे और चार्वाक ने भारतवर्ष मे कार्य-कारण के सिद्धान्त को गलत सिद्ध करना चाहा। अगर ह्यूम जीत जाता तो विज्ञान का जन्म Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महावीर परिचय और याणी महीं होता। अगर चावपि तीन जाता तापम मा जम नहीं हाना, पारि पापार ने भी वाय शरण म मिदात या न माना । उसने व 'गाना पित्रा मौन परा, पयादि कोई भरोसा नहा कि जा चुरा करता है, उस बुरा ही मिदेसा, एर कादमी बुग पर रहा है और मानाग रहा है। चार मा घर रहा है, अचार दुगी है। जीवन के सभी पम असम्बद्ध हैं। बुद्धिमान मागमा जानता है कि पिसी यम मारिसी पर से कोई सम्पय नहा।' पाप ये विगेप में ही महापीर पा यम गिलान है। पम भी विधान है और वह भी माप-वारण मिलात पर गहा है। दिनान रहना है अमी याण, ममी पाय ! परतु जब तपारपित पामिर मद्दत है अभीमारा, पाप गरे उमम' ता पन या वानिए आधार रािसन जाता है। यह अतराल एक्दम घाट है। पाय और गरम भार पाई मायाप तो उसपे पौन म जनराल नहीं हो सपना, नयारि अन्तरार हो गया तो सम्दय मया रहा? चीजें ससम्बद्ध हो गई, अलग-अलग हो गए। यह पाया नतिम सो नै गोगरी, पानि व ममना नहा र जीया यो। ___ मरो अपनी समक्ष यह है कि प्रत्यापम तयार पापी है। जमेपनि मन पार किया ता में पोप परने में दाण में ही पाय पो भागना जाता है। मा नहा कि अगरे जम म इम। पर ागू पाप या सामोर पापाग मागना माय गाय पल रहा है। प्रोप विदा हा जाता है निवासिसि देर तर परता है। यनि दुग और आनन अगर इममिगे यो बार प्रिया परनी होगी तो वहीं पिगी पो हिसार जिताय रमन यो जात होगी। पर पर पेलिा प्रतीक्षा पापी जमरत नही ली। पर लारा मिला हमार पिता रमापा जात नही हाती ला मरावीर नगपार मानी बिल पर गर । सार जमजमान्तर मा रिािर गना है ता शिर नियामी पापा जारी है।शियन्ना पी जाल यहाँ हा नियम पाया जोगा रणारा पहना । ग्राम बना पर और 47 मुझे रिमाद्वार जम में मिले सामा हिमाय मी या ए एच परमारमा पm ITTET पाना मालिपिरजा मार पुन-नाए पाहिला और erfrryr होरो माना। मागरी पण पापही है। उन मनra from की मार frma fry rnानी मारमा पना गो गाना पगगे मोर पर frate मेरा भी मामे तापमान और मगर मो पा MRI HER | TTM Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ महावीर : परिचय और वाणी गिराओ तो उसके पैर नही टूटते, किमी दूसरे व्यक्ति को गिराओ तो उसके पैर टूट जाते है । प्रहलाद की कथा पक्षपात की कथा है । उसमे अपने आदमी की फिक्र की जा रही है और नियम के अपवाद बनाए जा रहे हैं । महावीर कहते है कि अगर प्रहलाद जैसे अपवाद है तो फिर धर्म नहीं हो सकता । धर्म का आधार नमानता है. नियम है जो भगवान के भक्तो पर उसी बेरहमी से लागू होता है जिस वेरहमी से उन लोगो पर जो उसके भक्त नही है । यदि अपवाद की बात मान ली जाय तो कभी ऐसा भी हो सकता है कि क्षय के कीटाणु किसी दवा से न मरे । हो सकता है कि `क्षय के कीटाणु भी प्रह्लाद की तरह भगवान् के भक्त हो और कोई दवा काम न करे । यदि धर्म हे तो नियम है और अगर नियम है तो नियन्ता में बाधा पडेगी । इसलिए महावीर नियम के पक्ष मे नियन्ता को विदा कर देते है । वे कहते है कि नियम काफी है और नियम असड है । प्रार्थना, पूजा उनसे हमारी रक्षा नही कर सकती । नियम से बचने का एक ही उपाय है कि नियम को समझ लो । यह जान लो कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, इसलिए हाथ मत डालो | महावीर न तो चार्वाक को मानते है और न नियन्ता के माननेवालो को । चार्वाक नियम को तोडकर अव्यवस्था पैदा करता है और नियन्ता के माननेवाले नियम के ऊपर किसी नियन्ता को स्थापित कर अव्यवस्था पैदा करते हैं । महावीर पूछते हैं कि यह भगवान् नियम के अन्तर्गत चलता है या नही ? अगर नियम के अन्तर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है ? यानी - अगर भगवान् आग मे हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं ? अगर जलता है तो वह भी वैसा ही है जैसा हम है, अगर नही जलता तो ऐसा भगवान् खतरनाक है । यदि हम उससे दोस्ती करेंगे तो आग मे हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे । इसलिए महावीर कहते है कि नियम को न मानना अवैज्ञानिक है और नियन्ता की स्वीकृति नियम मे वाचा डालती है । विज्ञान कहता है कि किसी भगवान् से हमे कुछ लेना-देना नही, हम तो प्रकृति के नियम खोजते है । ठीक यही बात ढाई हजार साल पहले महावीर ने चेतना के जगत् मे कही थी। उनके अनुसार नियम शाश्वत, अखड और अपरिवर्तनीय है । उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा है । यह असम्भव ही है कि एक कर्म अभी हो और उसका फल अगले जन्म मे मिले । फल इसी कर्म की श्रृंखला का हिस्सा होगा जो इसी कर्म के साथ मिलना शुरू हो जायगा । हम जो भी करते है उसे भोग लेते हैं । यदि मेरी अशान्ति पिछले जन्म के कर्मों का फल है तो मै इस अशान्ति को दूर नही कर सकता। इस प्रकार मै एकदम परतंत्र हो जाता हूँ और गुरुओ के पास जाकर शान्ति के उपाय खोजता हूँ । मगर सही वात यह है कि जो मैं अभी कर रहा हूँ उसे अनकिया करने की सामर्थ्य भी मुझमे है । अगर मैं आग मे हाथ डाल रहा हूँ और मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और वाणी पिछले जनक किसी पाप का फल माग रहा हूँ तो मैं हाय डाल चला जाऊँगा, क्यारि पिछरे ज म यम को में बदल कसे मरताहूँ? जिन गुरुआ पी यह मा यता है जि पिरले जग पे किसी कम के कारण मरा हाय र रहा है वे यह नही कहेंगे रि हाथ बाहर सोचो तो जलना बद हो जाय । इसका मतलर यह हुमामि हाय अभी डाला जा रहा है और अभी डाला गया हाय बाहर भी सोचा जा सकता है सकिन पिछले जम म डाग गया हाथ आज से वाहर साचा जा सकता है ? हमारी इस व्यास्था वि अनन्त जमा तव नम के पल चरते हैं, मनुष्य को एक्दम परतय कर दिया है। किन्तु मेरा मानना है कि मय कुछ किया जा सकता है इसी पस्त, पोंथि जो हम कर रहे है वही हम भोग रहे हैं। दिगा यी विषमता को समपने के लिए ऊटपटांग व्यवस्थाएँ गर ली जाती हैं। मेरी समय म यदि कोई बुरा आदमी सफल होना है, मुसी है तो इसका भी कारण है। मैं कुर आरमी को एक बहुत बड़ी जटिल घटना मानता हूँ। हा सक्ता है, यह पूठ बोलता हो, वेइमानी करता हो, लेकिन उसम युछ और गुण हागे जो हम दिखाई नहा पडते । वह साहमी हो रापता है, बुद्धिमान हो सकता है, एक-एर पदम को समपकर उठानेवाला हा सकता है। उसरे एक पहल को देखकर हो कि वह बंदमान है आपन निणय करना चाहा तो आप गलती कर लगे। हो सकता है कि अच्छा भादमी चोरी न परता हो, वेइमानी भी न करता हो, लेगिन वह कापर हो । बुद्धि मान् आदमी के लिए अच्छा हागा अपमर मुसि हो जाता है। बुद्धिमान आगमी __ अच्छा होने के लिए मजबूर हाता है। मरी मा यता है पिरापरता मिलती है साहा म। अगर बुरा मामी माहसी है तो सपता ले आयगा। सच्छा आगमी अगर गाहती है ता वह वरे आदमी की अपेणा हजार गुनी सालना ए आपगा | सपना मिती है बुद्धिमानी से । मगर चुरा आगमी बुद्धिमान है तो उसे सफलता मिली हो । बगर अच्छा आदमी अतिमान है तो उसे हमारगुती सपना मिलेगी। रिन ग मछे भर हा से नहीं आती। सफल ना माती है बुद्धिमानी म, विकार, रिवन से। कोई गादमी अच्छा है, मदिर जाता है, प्रायना करता है तीन उमा पाग पसे नहा है। अब मर जाा और प्राया परने स पगा हा या या मम्प प? जग पोई अच्छा सादमी यह है fr में मुमो परी, पारि में अच्छा है और यह दूगरा मामी गुती है पारि यह बुरा है तारठा गानयाग पर यामी पुराने का सन्तद रहा है। यह "प्या से भगना जामी है। परे जामी पा जा को मिला है यह सब पाना चाहता है और अम्मा हर पता पाता है। या पारोगा ही पड़ी है। मनिरामोदा लागाएपमा Faगा सिख जगा रेहान पा सो माया युरे हाल पो पीला होण, रे हाला दारा। जागो मरि म पूजा पसा पाता। परम Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ __महावीर : परिचय और वाणी बैठना चाहता है और बुरे आदमी को दस लाख रुपए मिले है, वह भी चाहता है । जब उसे रुपये नही मिलते तो कहता है कि मैं अपने पिछले जन्म के बुरे कर्मों का फल भोग रहा हूँ । उसे झूठी सान्त्वना भी मिलती है कि जहाँ वह अगले जन्म मे स्वर्ग मे होगा वही वह बुरा आदमी नरक मे । मैं कहता हूँ कि कर्म का फल तत्काल मिलता है, लेकिन कर्म बहुत जटिल वात है । साहस भी कर्म है ओर उसका भी फल होता है, साहमहीनता भी कर्म हे और उसके भी फल है। इसी प्रकार बुद्धिमानी भी कर्म है, बुद्धिहीनता भी कर्म । इनके भी अपने-अपने फल है। यदि असफलता के कारण उनके भीतर होगे तो अच्छे आदमी भी असफल हो सकते है। बुरे आदमी भी मुवी हो सकते हैं यदि मुख के कारण उनके भीतर वर्तमान होगे। किसी और का दस तो हमे दिखता नही, दुस सिर्फ अपना और सूरव सदा दूसरे का दिखता है। ऐसे ही शुभ कर्म हमे अपना आर अशुभ कर्म दूसरे का दिसता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म को गुम मानता है, क्योकि इससे उसके अहकार की तृप्ति होती है। सुस के हम आदी होते जाते हैं, दुख के कभी आदी नही हो पाते । आदमी दूसरे का देखता है अशुम और सुख, अपना देखता है शुभ और दुख । उपद्रव हो गया तो वह कर्मवाद के सिद्धान्त का आश्रय लेता है। मेरी मान्यता यह है कि अगर वह सुख भोग रहा है तो उसमे कुछ ऐसा जरूर है जो सुख का कारण है, क्योकि अकारण कुछ भी नही होता। अगर एक डाकू सुखी है तो इसका भी कारण है। साधु के दुसी होने का भी कारण है । अगर दस डाकू साथ होगे तो उनमे इतना भाई-चारा होगा जितना दस साधु मे कभी सुना नही गया। लेकिन अगर दस डाकुओ मे मित्रता है तो वे मित्रता के सुख अवश्य भोगेगे । साधु कैसे भोगेगा उस सुख को ? डाक कभी एक-दूसरे से झूठ नहीं बोलेगे, लेकिन साधु एक-दूसरे से बिलकुल झूठ बोलते रहेगे । सच बोलने का जो सुख है वह साधु नही भोग सकता। ___अन्त मे मै यह स्पप्ट कर देना चाहता हूँ कि अकस्मात् कुछ भी नही होता। यदि कुछ घटनाओ को अकस्मात् होना मान ले तो कार्य-कारण का सिद्धान्त व्यर्थ हो जाता है । यहाँ तक कि लॉटरी मी किसी को अकस्मात् नहीं मिलती। हो सकता है कि जिन लाख लोगो ने लॉटरी लगाई उनमे सबसे ज्यादा सकल्पवाला आदमी वही हो जिसे लॉटरी मिली। ऐसे ही हजार कारण हो सकते है जो हमे दीख नही पडते । वस्तुत उस घटना को ही अकस्मात् कहते है जिसके कारण का हमे पता नहीं होता। ऐसी घटनाएं होती है जिनका कारण हमारी समझ में नहीं आता । जीवन सचमुच बहुत जटिल है । इसमे कोई घटना कैसे घटित हो रही है यह ठीक-ठीक कहना एकदम मुश्किल है, लेकिन इतना तो निश्चित है कि जो घटना हो रही है उसके पीछे कोई-न-कोई कारण है, चाहे वह ज्ञात हो या अज्ञात । कर्म के सिद्धान्त Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी का बुनियादी आधार यह है कि अकारण कुछ भी नहीं होता । दूसरावुनियादी आधार यह * वि जा हम कर रहे हैं वही भोग रहे हैं और उसम जमा के फासले नहीं हैं। हम जानना चाहिए कि हम जो भोग रहे हैं उमके लिए हमने कुछ उपाय किया है, चाह मुग्व हो या दुस, चाहे शाति हो या अशान्ति । मरी मा यता है कि राटरी भी मिसी का अकारण नहीं मिलती। हो सकता है कि जिम श्यक्ति की इच्छा शक्ति सबसे अधिक प्रबल हो उसे ही लॉटरी मिर । इच्छा शक्ति पर हजारा प्रयोग किए गए और यह निर्णीत हो गया है कि भीतरना सकल्प पांस तक का प्रभावित करता है, ताश के पत्तो तक को प्रभावित करता है। यह भी आकस्मिक नहीं है कि किसी व्यक्ति को भीतरी सकरप मिल जाता है और निमी को नहा । भीतरी सकरप भी उसके उन हजारो अनुभवा या फल होता है जिनमे वह गुारा है। प्रश्न उठता है कि क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता कि किसी एक "यक्ति को सॉरी मिलनी है, इसलिए उसे मिल गई? नही यति लाटरी या मिलना निपट सयोग है तो उसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन ऐस भी लोग हैं जा यता दगे पिलाटरी विमका मिलेगी। हिटलर की मृत्यु यो बतानेवाल लोग थे। चान मारत पर क्सि दिन हमला करगा, इसकी भी भविष्यवाणी की गई थी। मरे कहा का तात्पय यह है कि सयाग जैसी कोई चीज नही है। यहा तर हि हिरोशिमा मे ना रास व्यक्तिया का एक साथ मरना भी सयाग नही है। हिरोशिमा म दो राप यक्तिया का मरना आकस्मिय दोसता है क्यानि इन दो सास पक्षियो भातर हमारा पाइ प्रवेश नहीं है । तीन पूछा जा सरना है कि अगु बम हिरोशिमा पर ही क्या गिरा? हिरोशिमा काइ महत्त्वपूर्ण नगर न था। टापियो पर गिर सरता था पर नागासाकी पर क्यो गिरा? जर तक हम इनके पारणा के भीतर--हिरो गिमा व लोगा के भीतर--प्रवेश नहीं करत तब तक हमार लिए कुछ कहना सम्मान होगा। हो सकता है कि हिराशिमा म हो जापान के सवम ज्यादा जात्मघातच्छक रोग रहे हा और उ हाने ही अण वम का आरपित किया हो। यह जाना का शिनासा भी बहुत म्यामाविर है गिजा बच्चे अगहीन अधे या अम्बम्प पना होते हैं, इराम उनका क्या कसूर? उहान कौन सा कम दिया है जिमयी वाह से व वप्ट भागत है ? इसके उत्तर म वगानिा पगा मि मां-बाप में जिन मणुआ से बच्च या ज म हुमा उनम अधपन की गुजाइश थी, उनम पार रामा यनिर कमी या जिस कारण आँख नहीं पा पा । धामिय पति या उत्तर कुछ और होगा। उमपी दष्टि म पता होने के पीछे भी वारण है कि अग हान र Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महावीर : परिचय और वाणी पीछे ही नहीं। धर्म कहना है कि मरते वक्त आदमी की ऐनी स्थितियां हो सकती है कि वह खुद आँख न चाहे या उनके कर्मों का पूरा योग हो सकता है उस क्षण मे fआँख सम्भव न रहे । जब ऐसे आदमी की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा उनी मॉवाप के शरीर में प्रवेश करती है जिसमे अवे होने के सभी गयोग जुड़ गए हो। __ अव प्रश्न उठता है कि जब आत्मा उसी माँ-बाप के गरीर मे प्रवेश करती है जिसमे उसके लिए अघे होने के सयोग जुड़े है तो क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कों के फल दूसरे जन्म तक जाते है ? ____मेरा कहना है कि एक जन्म से दूसरे जन्म में कर्म के फल नहीं जाते। लेकिन जो कर्म और फल हमने किए और भोगे, उनकी एक सूखी रेखा हमारे साथ रह जाती है। उस सूखी रेसा को मै सस्कार कहता हूँ। कर्मों के फल दूसरे जन्म तक नही जाते। यदि मैंने पिछले जन्म मे गाली दी थी तो फल उसी जन्म मे भोग लिया था, फिर भी मैं उस व्यक्ति से भिन्न हूँ जिसने गाली नही दी थी। मेरे पास एक मूखी रेसा है, गाली देने और गाली का फल भोगने की। इस जन्म मे मेरे नाथ सम्भावना है कि कोई गाली दे तो मैं फिर गाली दूं, क्योकि वह मूखी रेखा जो है । न्यूनतम प्रतिरोध की वजह से मैं उमे फौरन पकड लूंगा। हमने जो किया और भोगा है, उसने हमे एक खास परिस्थिति दी है, एक खास संस्कारबद्धता को जन्म दिया है । वही सस्कारबद्धता हमे खास मार्गों पर प्रवाहित करती है। वे खास मार्ग सव रूपो मे कारण से बंधे होगे। इसे एक उदाहरण से समझे । जैसे, यदि कोई आग में हाथ डालता है तो उसे उसी वक्त जलना पडता है। लेकिन मेरा कहना है कि यह आदमी आग मे हाय डालने की प्रवृत्तिवाला है। दूसरे जन्म मे भी इससे डर है कि कही यह आग मे हाथ न डाल दे। आग मे बार-बार हाथ डालने की इसकी आदत भय पैदा करती है। फिर भी इसका यह मतलब नहीं कि यह आदमी आग मे हाथ डालने को बंधा है। यह चाहे तो न डाले । इसका मतलब यह हुआ कि कर्मों की निर्जरा नही करनी है आपको। कर्मों की निर्जरा हर कर्म के साथ होती चली जाती है। पीछे सूखी रेसा रह जाती है । इस सूखी रेखा से आपको ज्ञान हो जाना काफी है। इमलिए मोक्ष या निर्वाण तत्काल हो सकता है, पुरानी धारणों के अनुसार वह तत्काल नहीं हो सकता, क्योकि आपने जितने कर्म किए है उनके फल आपको भोगने ही पडेगे। जब आप सारे फल भोग लेगे तभी आपकी मुक्ति हो सकती है। और यदि इन फलो को भोगने मे आपने फिर कुछ कर्म कर लिये तो आप फिर बँध जायेंगे। इस शृखला का कभी अन्त न होगा। यदि पुरानी व्याख्या सही है तो कोई कभी मुक्त हो ही नहीं सकता। कारण कि कल मैंने जितने पाप किए, जितनी बुराइयाँ की, उनका फल भोगना अनिवार्य है। किन्तु, उनका फल कैसे भोगूंगा? जव कोई मुझे गाली देगा Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १०१ ( क्योकि मैंने पिछले जन्म म उमे गाली दी थी ) तो फिर मेरा कम शुरू हो जायगा, क्या गाली देने की भरी वृत्ति--सूली रेया-मर साथ है ही । अन अगर वह मुझे गाली देगा तो में फिर उसे गाली दूगा और यह सिलसिला अन जमा तक चलता रहेगा, क्योकि अगर एक कम भी शेष रह गया तो उसे भागा में फिर नए-नए म निर्मित हाने चले जायेंगे। अगर कमवाद की पुरानी व्याख्या सही है तो दुनिया म बहुत दुस उठा चुके । से बहुत बार जा चुव कोशिश की थी कि प्रत्येक भी को मुक्त हुजा ही नहीं। लेकिन दूनिया में मुक्त लोग हुए है और व इसलिए मुक्त हा सके हैं कि कर्मों के फर जागे के लिए शेष नहीं रह जाते । मिफ रहती है साथी हुई वृत्ति | भर जगर आदमी सोया ही रह ता उही क्र्मों का दोहराता चला जायगा । नाग जाय तो दुहराना बाद कर देगा + यानी मुझे कोई मजनूर नहीं बर रहा है कि मैं नोध व सिना मेरी मूर्द्धा वे । अगर में जाग गया तो कहता हूँ कि ठीक है इस रास्ते इसलिए महावीर ने स्मरण हो, ताकि उसे इस बात का पूरा-पूरा एहमास हा किया था । अगर किसी व्यक्ति का दा चार जमा का पता लगगा वि उसने बहुत बार धन कमाया वईमानी की, प्रेम किया, यश कमाया अपमान सहा - उसने वे सारे धमन्युक्म किए थे जिन्हें वह इस जन्म म कर रहा है । ऐसा एहसास होते ही वह जाग उठेगा और फिर इनकी जोर उन्मुख न होगा । उस यह साफ साफ दीस पडेगा वि घन, यण, प्रेम आदि सब पथ है । उसन धन माया था, परन्तु क्या हुआ उस धन का ? उस पिछने जमा म यश मिला था, परन्तु वहां गया वह यश ? यदि वे न रहे तो फिर इस जाम के घन और यश भी न रहेंगे। फिर इनके लिए इतनी परेशानी क्या? तो यह जागरण उसकी सूसी रेसा का तोडने का कारण वन जायगा । इसमें तलाल वाघ वा सम्भावना है । मचता यह है कि जब भी मुक्ति होती है, वह तत्काल होती है । यक्ति का पिछले जमा का ऐस तक सनया निराधार चोटामा तो वह मुच जाय कि उसन क्या गया स्मरण हो जाय तो उसे इसी सदन में एक बात और समय लेनी चाहिए कि अन्याय कुछ भी नहा है जो हम कर रहे है वही हम भाग रह ह । पुराना एयाल था कि अगर मैं मोटाएँ तो दिसा जन्म भ वह भी मुवे चांग मारगा । इसका मत यह हुआ कि अगर मैं रिमी को चांटा मार दिया तो जवनव वह मुझे चांटा न मारले, तर तब वह भी मुक्त नहीं हा सनता । यात्री मरा कृत्य उसी भी अमुक्ति का कारण वर जायगा । यह इमा जन्म म मुक्त हो सकता था, मगर अब वह तब तक मुना न होगा जब तब वह मुचे चांटा न मार । क्याकि मुये चाटा मारेगा कौन ? हिमान बसे पूरा होगा? उसे म तो लेना ही पड़ेगा और वह भी मरे धारण । हात है। भरा बहना यह है वि जब म किसी वा मारे हा, यह अनिवाय नहीं है। चांटा मारन म म Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महावीर : परिचय और वाणी जिस वत्ति से गूजरता हूँ, वह मुझे दुख दे जाती है। चांटा लोटाने का सवाल नही उठता । यदि वह भी चांटा मारता है तो उसका यह कर्म मेरे चॉटा मारने का फल नहीं है। वह उसका कर्म है जिसका फल उसे भोगना पडेगा। इन वात को ठीक से समझ लेना जरूरी है । मैने किसी को चांटा मारा है। अगर वह चुपचाप खडा रहे और यह सोचकर कि मारनेवाला बेचारा पागल है, वह कुछ न करे और चॉटे को साक्षी भाव से देखता रहे, तो उसने कोई कर्मवन्य नहीं किया। मेरे कर्मा की शृखला से उसने कोई सम्बन्ध नहीं जोडा । लेकिन अगर मेरे चांटे के उत्तर मे वह भी चांटा मारे तो वह मेरे चांटे का उत्तर नहीं है। अपने चांटे का उत्तर तो मै ही भोग रहा हूँ। वह अपने चाँटे का उत्तर स्वय भोगता है। यह उसकी कर्म-शृखला है । इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है। इसमे कुछ अन्याय भी नहीं । इस सम्बन्ध मे दो प्रश्न उठते है . एक तो यह कि क्या ऐसे लोग नहीं होते जो Fटा मो मारे और उसका आनन्द भी ले ? दूसरा यह कि जिसे हम ईटा मारते है उसे क्ग दुख नही होता ? मैं कहता हूँ कि में चाँटा उमी को मारता हूँ जो चर्चाटे को आपित करता है। यह असम्भव हे कि मैं उसको चॉटा मारूँ जो चांटे को आकर्पित न करे। आकर्षित करने की वजह से वह दुख उठाता है । आकर्पण उसका हिस्सा है। यानी कोई आदमी इस दुनिया मे अकेले मालिक नहीं होता । गुलाम भी उसके साथ गुलाम होना चाहता है । नही तो यह सम्बन्ध वन ही नहीं सकता। जो गुलाम वनना नही चाहता उसे असम्भव हे गुलाम बनाना । इसलिए मैं कहता हूँ कि अन्याय असम्भव है। फिर भी हमे एक ऐसी दुनिया बनाने की कोशिश करनी चाहिए जिसमे न कोई चांटे को आकर्षित करता हो और न कोई चाँटा मारने को उत्सुक हो । अन्याय का कुल मतलव इतना हो सकता है कि अभी दुनिया में ऐसे लोग वर्तमान है जो चांटा मारने को उतना ही उत्सुक है जितना चॉटा खाने को। जब भी कोई घटना घटती है तब उसके दो पहलू होते है । किन्तु हमारी दृष्टि एक ही पहलू पर जाती है और हम उस एक पहलू को देखकर ही किसी को अपराधी और किसी को निरपराध कह देते है। दूसरा पहलू भी जिम्मेदार होता है। जैसे, हम कहते है कि अँगरेजो ने आकर हमे गुलाम बना लिया। यह तो हमारी गुलामी की घटना का आधा हिस्सा है। उसका दूसरा हिस्सा यह है कि हम गुलाम होने की तैयारी मे थे। इसी प्रकार सती की प्रथा थी। अन्याय कुछ भी न था। जो स्त्रियाँ जलने को राजी थी, वे ही जलती थी। जो जलने को आज भी राजी हे वे स्टोव से आग लगा लेती है, जहर खा लेती है, कुछ भी करती है। मेरा कहना यह है कि उन दिनो भी सभी स्त्रियाँ सती नहीं हो जाती थी। वस्तुत सती की व्यवस्था आग मे जलने वाली औरतो के लिए एक सुविधा थी। लेकिन इसका मतलब यह नही कि सती-प्रथा रहनी चाहिए । दुनिया ऐसी होनी चाहिए जहाँ न कोई जलाना चाहे और Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १०३ न जरना । अयाय सिफ यह है कि जो हमारी जीवन-व्यवस्था है, वह हम बहुत दुख म डाल रही है। आर दुसी हम ही बन रहे है, काई बना नहीं रहा है। दुनिया म ऐस भी लाग है जो चांटा मारन म ही आन्ति हा । ऐसा लगता है कि ऐसे लोगा को कम फर मागन नहा परत । लेकिन हम सयाल नहा कि जो आदमी चाटा मारने म आनदित होता है वह आदमी नहीं रह गया। वह आदमी के तल से बहुत नीचे उतर जाता है। उसने चांटा मारने म इतना सोया जितना कि चाटा माखर दुसाहानेवाला नहीं सोता। जा चारा मारपर दुखी हाता है, वह उतना पर नहा मोगता जितना वह व्यक्ति जागता है जो चांटा मारकर आनदित होता है। चाँटे से आन द रेनवाला व्यक्ति जगली हो जाता है उसका विकास तल नीचे चरा जाता है। उसन गत बीस पच्चीस हजार वपा म जा विकास किया था, वह विकास खो जाता है। ज, तक मनुष्य के क्म और विकास का सम्बध है, मग पहना है कि विकास दो ता पर चर रहा है। मेरा सयार है कि टाविन की खाज गहरी है सही, रविन एक्दम अधूरी है । उसन शरीर के विकास पर सारा सिदान निधारित किया है । चूकि विनान आत्मा को फिक्र नहीं करता, इमरिए बात अधूरी है और आधे सत्य असत्य स भी ज्यादा खतरनार हात हैं । इसया कारण यह है कि आर्य सत्या म पूण मत्य ये हान का भ्रम पदा होता है। यह विकास वा आधा हिस्सा है। इसके दूसरे हिस्से की सात महावीर जसे लगा की दन है। वे कहते है कि चेतना भी विषसित हो रही है। दूसरी बात-जहा चेतना है वहां विकास यातिन नही हो सकता। पसे का चना यानिक है उसके पास न चेतना है आर न इच्छा। यदि उसके पास चेतना हाती तो पखा भी कह सकता था कि आज बहुत सर्दी है, मैं नही चरता। मनुष्य के पास चेतना है इसलिए उसका नि यानरे प्रतिशत विकास सच्छा पर निमर होता है । इमरिए मनुप्य काई पचास हजार वर्षों स ठहर गया है। अब उसम पाइ विक्स रक्षित नहीं होता। निमातम यानि म भी एक मा स्वेच्छा का है जो उम चेतन बनाता है। नहा ता चेतन हान या वाइ अथ नहा । चेतन हाने का अय यही है कि विकास में हम भागीदार है और अपन पतन म स्वय जिम्मदार । चेतना का मतलब यही है rि हमारा दायित्व है हमारी जिम्मेदारी है। पश-पभिया और पेट-पौधो की इच्छा भी उनके विकास म सक्रिय होकर काम कर रही है । पहचानना मुश्किर है। हम से पहचारों वि पशु-पक्षी भी मानव-योनि म प्रवेश कर रह हैं। पइ रास्ते हा सपते हैं, लेकिन सरलतम रास्ता यह है कि मगप्प को पिछले जमा म उतारा जाय । इरास उस इस बात की प्रनीति हो जायगी Hd Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महावीर : परिचय और वाणी कि वह पिछले जन्मो मे कई बार पगु हुआ था और उसने भी कभी पौधे की जिन्दगी वसर की थी। महावीर ने जातीय स्मरण के गहरे प्रयोग किए थे । जो व्यक्ति उनके निकट जाता, उसे वे पिछले जन्मो मे उतारते और बतलाते कि वह उन जन्मो मे क्या था, और यदि वह पशु था तो अपने किस कर्म के कारण मनुष्य हो सका। ऐसा ज्ञान ऊपर जाने के लिए आवश्यक सोपान हो सकता है। यदि मुझे उस कर्म का ज्ञान हो जाय जिसके कारण मै पशु से मनुप्य बना था तो मै पुन ऐसे ही कर्म करना चाहूंगा जिनसे मै ऊपर उठ सकू।। ___एक रात महावीर के साथ हजारो साधु-सन्यासी एक बडे धर्मशाले मे ठहरे । उनमे एक राजकुमार भी दीक्षित था। धर्मशाले मे पुराने साधुओ को अच्छी जगह मिल गई परन्तु राजकुमार को गलियारे मे सोना पड़ा। जब भी कोई गलियारे से निकलता, उसकी नीद टूट जाती और वह सोचता कि वेहतर है मै लौट जाऊँ, मै जो था, वही ठीक था। सुबह महावीर ने उसे बुलाया और कहा-तुझे पता है कि पिछले जन्म मे तू कौन था? उसने जवाब दिया कि मुझे कुछ पता नही । तब महावीर ने उसके पिछले जन्म की कथा कह सुनाई और बताया कि वह पिछले जन्म मे हाथी था । एक दिन जगल मे आग लगी। सारे पशु-पक्षी भाग चले। हाथी का एक पैर उठा ही था कि एक छोटा-सा खरगोश आ पहुंचा और उसने उसके पैर की शरण ली। खरगोश ने सोचा कि पैर छाया है, वचाव हो जायगा। हाथी भी हिम्मतवर था । उसने देखा कि उसके पैर के नीचे एक खरगोश बैठा है। उसने पर फिर नीचे नही रखा। आग बढती गई और हाथी जलकर राख हो गया। उसने मरते दम तक यही चेष्टा की कि खरगोश किसी तरह वच जाय। उस कृत्य की वजह से वह आदमी बना । अन्त मे महावीर ने कहा-आज तू इतना कमजोर है कि गलियारे मे सोने की वजह से भागने का विचार करने लगा ? पिछले जन्म की कथा सुनते ही राजकुमार के लिए मानो सव-कुछ बदल गया । भयभीत होने और पलायन करने की बात खत्म हो गई । अव वह अपने दृढ सकल्प पर खडा हो गया। उसे एक नई भूमि मिल गई। दूसरा रास्ता बहुत कठिन है। वह यह है कि हम वीस पशुओ के निकट रहे और उनसे अपना आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित करे । हमे पता चलेगा कि उनमे भी कुछ अच्छे और कुछ बुरे है। यहाँ तक कि सडको पर दिखाई पड़ने वाले कुत्ते भी सब एक-जैसे नहीं होते । उनका अपना-अपना व्यक्तित्व होता है। और, स्मरण रहे, उनका भी विकास स्वेच्छा से हो रहा है। यही कारण है कि सारे प्राणी विकसित नही हो पाते । जो श्रम करते है वे विकसित हो पाते है। जो श्रम नही करते वे उसी योनि मे पुनरुक्ति करते रहते है । अनन्त पुनरुक्तियाँ भी हो सकता है। लेकिन कभीन-कभी वह क्षण भी आ जाता है जब पुनरुक्ति उबा देती है और ऊपर उठने की आकाक्षा पैदा हो जाती है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १०५ आत्मा इसके aff शरीर में विवान को स्वचालित समयता था । किन्तु उसकी यह धारणा नितात गत है | चेतना श्रम कर रही है निवास के लिए और वह जितनी विकसित होती जा रही है शरीर भी उसी अनुपात में निर्वासित होता जाता है । जितना ताव्र विकास चेतना वे तल पर होता है उतना ही तीव्र विकास शरीर के तल पर होना अनिवाय या हो जाता है । लेकिन वह होता है पीछे, पहले नही । वदर का गरीर अगर कभी आदमी का शरीर बनता है तो तभी व किसी बदर की पूर्व आदमी की आत्मा वनन के लिए वदम उठा चुकी होती है । उस आत्मा बी जरूरत के लिए ही पीछे से शरीर भी विकसित होता है । मनुष्य आगे भी गति कर सकता है और ऐसी चेतना विकसित हो सकती है जा मनुष्य स श्रप्टतर शरीरा को जन्म दे सके। इसम कोई कठिनाई नहीं है । रोविन मनुष्य तक आ जाना ही कोई साधारण घटना नही है लेनिम मनुष्य को इसका ख्यान न रहा । वह अपनी जिदगी इस तरह गंवाता है माना वह उस मुफ्त मिल गई हो ! लम्बी प्रत्रियाआ, लम्बी चेष्टाआ लम्य श्रम और लम्बी याना स मनुष्य को चेतना स्थिति उपलध होती है । लेकिन उसन ऐसा मान लिया है कि यह उस मुफ्त मिल गई है ! । मेरी माया है कि एक जन्म में हम जा क्मात है वही दूसरे जन्म में हमारी सहज उपधि होती है। दूसरे जन्म में वह हमें सम्पत्ति की तरह मिलती है और पिछला जन्म हम वसे ही भर जाता है जसे बरे वा बाप वा श्रम भूल जाता है । बाप माता है वटा धाता है क्यावि नट वा जमीरी जन्म से उपलब्ध हुइ हाती है । उसे भी रयाल मा नही होता कि वितन श्रम से वह अमोरी सडी की गई है । चूंकि विनास चेष्टा पर निर्भर है सकल्प और साधना पी चीज है इसलिए इतन बडे प्राणी-जगत में मनुष्या की साया बम है । बढती भी है तो बहुत धीरे धीरे । मैं यह भी कहता हूँ व जम एक ही रहा है। जमा का एक लम्बी यात्रा होती है। हम आज के ही नही है । हम कल भी थ, परमा भी थे । एक अथ म हम सदा ध। कभी पक्षी थे, भी पत्थरमा खनिज कमीइम ग्रह पर भी उस ग्रह पर । म सग । होन व साथ हम एक हैं । अनित्य हमारो प्रतिध्वनि साथी । यह जरुरी रही कि हम महावीर के पास थे एरा नहीं वि महावीर य प्रदेश मे थे लेकिन सन में । यह भी हो सकता है कि हमम से कोई महावीर निफ्ट भी रहा हा उन गांव में भी रहा हा जहाँ से महावार गुजरे थे। जरूरी नहीं हिम उनसे मिलन गए हा । लेकिन हम सत्य थे और न रहेंगे। अगर मुटिन र हा तो हमारा होना न होना घरानर था । जब से हम अमूदिन हान हैं जागत हैं चेतन हान हैं तभी से हमार हो या कोई जय होता है और हम ति चले जात हैं उतना ही हमारा होता प्रगाह और समृद्ध होता जाता है। चलन हात गायद इस Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महावीर : परिचय और वाणी अर्थ मे हमारा होना अभी भी नही हुआ । होने की लम्बी यात्रो मे बहुत वार शरीर वदलने होते हैं। कारण शरीर भणभगुर है, उसकी सीमा है, वह चूक जाता है। असल मे पदार्थ से निर्मित कोई भी वस्तु शाश्वत नही हो सकती। पदार्थ से जो भी निर्मित होगा, वह विखरेगा, जो बनेगा वह मिटेगा। शरीर बनता है, मिटता है। लेकिन इसके पीछे जो जीवन है, वह न बनता है और न मिटता है। वह सदा नएनए वनाव लेता है। पुराने बनाव नष्ट होते है, उनकी जगह नए बनाव आते हैं । यह नया वनाव उसके सस्कार का उमने क्या दिया, क्या भोगा, क्या किया, क्या जाना, इन सबका-इकट्ठा सार है । __ जो शरीर दिखाई पड़ता है, वह हमारा ऊपरी शरीर है। ऐसी ही आकृति का एक और शरीर है जो इस वाहरी शरीर में व्याप्त है। उसे सूक्ष्म गरीर कहे, कर्म गरीर कहे, मनोशरीर कहे, कुछ भी नाम दे-काम चलेगा। वह सूक्ष्म परमाणुओ से निमित गरीर है । जब यह बाहरी गरीर गिर जाता है तब भी वह शरीर कायम रहता है और आत्मा के साथ ही यात्रा करता है। उस शरीर की विशेपता यह है कि आत्मा की जैसी मनोकामना होती है वह वैसा ही आकार ले लेता है । हम जो कर्म करते और फल भोगते है, उनकी सूक्ष्म रेखाएँ उस सूक्ष्म शरीर पर बनती जाती है। इसलिए महावीर इस सूक्ष्म शरीर को कार्मण शरीर कहते है । उनका खयाल था कि हम जो भी जीते और भोगते है, उसके कारण विशेष प्रकार के परमाणु हमारे शरीर से जुड़ जाते है । विज्ञान भी कहता है कि जब आप क्रोध मे होते है तो आपके खून मे एक विशेष प्रकार का जहर छुट जाता है और प्रेम मे वह अमृत से भर उठता है । इस शरीर के छूट जाने पर हमारा सूक्ष्म शरीर ही सूखी रेखाओ की तरह हमारे भोगे हुए जीवन को लेकर नई यात्रा शुरू करता है और वह सूक्ष्म शरीर ही नए शरीर ग्रहण करता है। जिस दिन सूक्ष्म शरीर मर जाता है, उसी दिन व्यक्ति को मोक्ष मिलता है । स्थूल शरीर तो वार-वार मरता है, मगर सूक्ष्म शरीर हर वार नहीं मरता। वह तभी मरता है जब उस शरीर के रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जब व्यक्ति न कुछ करता है, न भोगता है, न कर्ता बनता है, न किसी कर्म को ऊपर लेता है और न कोई प्रतिक्रिया करता है, जब वह साक्षी मात्र रह जाता है, तव उसका सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है। साक्षी की प्रक्रिया मे सूक्ष्म शरीर वैसे ही पिघलता है जैसे सूरज के निकलने से बर्फ पिघलती है। सूक्ष्म शरीर को गलाना ही तपश्चर्या है। महावीर को हम महातपस्वी कहते है, परन्तु इसका यह मतलब नही कि उन्होने धूप मे खडा होकर अपने शरीर को सताया था। यह ठीक है कि वे 'काया को मिटानेवाले' थे, किन्तु उस काया का इस बाहरी काया से कोई मतलब नहीं है । उस काया का मतलब है भीतरी काया, जो असली काया है। महावीर भली भांति जानते थे कि यह शरीर कई बार बदला जाता है, लेकिन एक और काया है जो कभी नही बदलती। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ महावीर परिचय और वाणी घह एप ही बार सत्म होती है, वदन्ती नहीं । तो उस भीतरी पाया पिपलाने म एगा हुआ श्रम ही तपश्चया है और उस काया को पिघलाने का प्रक्रिया का नाम ही साक्षीमाव सामायिक या ध्यान है । ऐसा हो सकता है कि पुनज मन हो । हम विराट जीवा के साथ एक हो जायें। एक हाने में हम मिट नहीं जाते । यति मिटते हैं ता बूंद की तरह ताकि सागर की तरह रह जायें। इसलिए महावीर कहत हैं कि यात्गा ही परमात्मा हो जाती है। लोग इसका मतल नही समरे। इसका मतलब यह है मि आत्मा की बद परमात्मा के महासागर म मिरकर एक हो जाती है। उस एपना मे, उस परम अद्वत म परम आनन है, परम शाति है, परम सौन्य है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्ठ अध्याय महावीर के व्यक्तित्व के नए आयाम न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्ठओ। न जुजे अरुणा ऊरं, तयणे नो पउिस्मुण ।' -उत्त० अ० १० गा०१८ __ क्या महावीर को ऐसा कोई व्यक्ति न मिला जिसके चरणो में वे आत्म-समर्पण कर सके ? क्या कारण था कि उन्होंने किसी गुरु की शरण न ली ?-न प्रश्नों के उत्तर वडे सरल है। महावीर को पता था कि जो दूसरे से पाया जा सकता है, उसका कोई महत्त्व नही । सत्य के फूल कभी उधार नहीं मिलते। इसलिए जो भी सत्य की खोज मे निकला हो, वह गुरु को खोजने नही निकलता। हाँ, असत्य की खोज करनी हो तो गुरु की खोज बहुत जरूरी है। सत्य की खोज मे गुरु अनावश्यक है । सीलने की क्षमता बहुत आवश्यक है। असली सवाल सीखने की क्षमता का ही है। जिसके पास ऐसी क्षमता है वह गुरु नही बनाता, सीखता चला जाता है। गुरु बनाना एक तरह का बन्धन निर्मित करना है। मेरा मानना है कि सत्य कोई ऐसी चीज नही जो किसी एक व्यक्ति से प्रवाहित हो। वह पूरे जीवन पर छाया हुआ है। अगर हम सीखने को उत्सुक हो तो सत्य सब जगह से सीखा जा सकता है। ___ महावीर मे सीखने की अद्भुत क्षमता थी, इसलिए उन्होने कोई गुरु नही बनाया। गुरु खोजा भी नही । वस सीखने निकल पड़े। उधार भी कभी ज्ञान हो सकता है ? सब चीजे उधार हो सकती है, लेकिन ज्ञान उधार नहीं हो सकता। ज्ञान उसका ही होता है जो पाता है। वह दूसरे को देते ही व्यर्थ हो जाता है। गुरुओ और शास्त्रो की कमी न थी, वे सब तरफ मौजूद थे। सिद्धान्तो की कमी न थी, सिद्धान्त भी मौजूद थे। लेकिन महावीर ने सबकी ओर पीठ कर दी, क्योकि १. विनीत शिष्य आचार्य की पंक्ति मे न बैठे, उनसे आगे भी न बैठे, उनके पीठ पीछे भी न बैठे और वह इतना निकट भी न बैठे कि उनकी जांघ से जाँघ मिल जाय । यदि गुरु ने किसी कार्य का आदेश दिया हो तो वह शय्या पर सोते-सोते अथवा बैठे-बैठे न सुने । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाधार परिचय और वाणी गान की ओर या मिद्धात की आर या गुरु की ओर मुह परना---बासी और उधार नावे लिए उत्सुक हाना था। दूसरा को, ज्यादा म ज्यादा, शटर मिल सकते थे सिद्धात मिल सकते हैं, लकित सत्य नहा मिल सकता था । इसलिए महावीर ने पिसी गुरु के प्रति आत्म समपण नहीं दिया। यह भी समय लेने जैमी बात है कि रामपण ही करना हो ता क्षुट और सीमित रे प्रति क्या दिया जाय ? ममस्त के प्रति क्या नही? एक थे प्रति समपण म त है। ऐसा समपण सौदा है। जिमस हम मिलमा, जिससे हम पा सकते हैं ऐसी आकाक्षा को ध्यान में रसवर अगर समपण दिया गया तो समपण कसा हुआ? वह सौदा हुआ, गन्देन हुआ। समपण का अप है बिना किसी गत या नाकाक्षा के स्वय को छोड़ देना । इसलिए कोई किसी व्यक्ति ये प्रति कभी समर्पित नही हो सकता। समर्पित हो सकता है सिफ परमात्मा ये प्रति और परमात्मा का मतव्य है समस्त । अगर परमात्मा भा एक यति है तो उसके प्रति भी समपण नहीं हो सकता। समपण सदा वेशत होता है। ____ मैं मानता हूँ कि महावीर न समपण रिया, लेकिन पिसी एक व्यक्ति के प्रति नहा, समस्त के प्रति और समस्त के प्रति जिनवा गमपण है, उनया हम पता नहा चाता। जो समस्त के प्रति समर्पित है उसका समपण हमारी पहचान में नहीं आता पोंपि हमारा मापदट सीमित सोने का है । अगर मैं किसी व्यक्ति से प्रेम प तो यह बात समझ म आ सकती है रविन अगर मेरा प्रेम समस्त के प्रति हो ता इसे ममझना मुश्किल हो जायगा। हम प्रेम को पहचान ही तय पात हैं जय वह यक्ति से बंध जाय। इसरिए हम महावीर वे प्रेम का ठोर-ठीक समय ही पात। मेरा मानना है कि महावीर पूर्ण समर्पित व्यक्ति थे। लेकिन पूर्ण समपित व्यक्ति रिसी एप के प्रति समर्पित नहीं होता। वह निसी एक ये आगे सिर नहीं झुपाता, इरारिए नही पि उगमें अहबार है वलि इसरिए कि उमका गिर याही हुआ है सर बोर। और ध्यान रहे कि जो व्यक्ति किसी एक के प्रति पुरता है वह दूसरे ये प्रति सता अवडा रहता है और जो व्यक्ति किया ये रण छता है वह दूगरा से चरण एलाने पो आतुर है। आपने देसा होगा कि जा आरमी रिमी पी मुशामत Tता है यह सपा पाच या स युगाम की मांग परता है। जो आगमी नग्रता बिगता है वह दूसरा रा नम्रता को मांग धरता है। महावीर पिसी या 7 तो महात्मा मानत हैं और न हीतात्मा। वे दम विचार म ही रहा परत । जार लिएई गामा नहो, पयारि वाई होनाल्मा हा । एप सो महात्मा याओ तो शेप अनगिात सगा की हीगारमा यनाना नारा हो जाता है नही तो पाम हा पलता । एप मारमा पी रेगा गीगोयरिए करोग होगा पारा राहा परना पड़ता है। 1मि महावीरो रिमी को गुरु ना बनाया, इम लिनिनन रोगों ने उह गुर बनाया है उन 7 महावीर र साप अमाप किया Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महावीर : परिचय और वाणी 1 है । वे समझ ही नही पाए महावीर को जिस आदमी ने कभी दिन को अपना गुरु नही बनाया, वह कभी किसी को शिष्य बनाने की बात भी नहीं सोचना | दोनो सयुक्त वाते है। जब वह अपने लिए यह ठीक नहीं मानता कि किसी की गु की तरह स्थापित करे तो वह कैसे मान सकता है कोई उसे गुरु की तरह स्थापित करे ? जिस महावीर ने किसी शास्त्र को नही माना उस महावीर का शास्न बना लेना कहाँ का न्याय है ? पूछा जा सकता है कि महावीर को किस चीज की गोप थी जिसके कारण उन्होने गुरु की शरण न ली ? इसमे सन्देह नहीं कि वे जिस चीज की सोज कर रहे थे उसे किसी ने अपने गुरु से नहीं पाया। हां, कुछ नोजें है जो गुरु से मिल जाती है । जीवन का बाह्य ज्ञान - गणित, भूगोत्र आदि गुरु से मिल जाता है, लेनि सत्य का ज्ञान गुरु से नही मिल सकता | अगर में सत्य की खोज मे हूँ तो मे किनी को बीच मे लेना नही चाहूँगा। अगर मे सोन्दर्य की तन मे हूँ तो में अपनी जसो से सौन्दर्य देखना चाहूँगा । महावीर उस नृत्य की सोज में थे जो स्वयं मे ही छिपा रहता है, किसी के पास जाकर मांगने, हाथ जोडने और प्रार्थना करने में नही मिलता । इससे कोई ऐसा न समझ ले कि महावीर बडे अहकारी व्यक्ति रहे होगे । उनका सा विनम्र व्यक्ति मिलना मुश्किल है । वे न तो आदर मांगते थे और न किसी व्यक्ति-विशेष को गुरु मानकर आदर देते थे । जो समस्त के सम्मुख झुक चुका हो, उसे आदर देने-लेने से क्या मतलब ? श्रादर देनेवाले आदर पाने को इच्छुक रहते हैं और नम्रता का मुखौटा पहनकर अपने अहकार को छिपा रखते है । जो न गुरु बनाता या बनता है, जो न शास्त्र रचता या मानता है, उसे अहकारी कैसे कहा जा सकता है ? सत्य की खोज करनेवालो के लिए न तो कोई मित्र होता है और न सगी-साथी । सत्य की खोज तो 'अकेले की उडान है अकेले की तरफ ।' इसलिए महावीर बहुत सचेत थे । उनको मानने और प्रेम करनेवाले भी अगर इतने ही सचेत होते तो दुनिया ज्यादा बेहतर होती । तव दुनिया मे विशुद्ध धर्म होता — यहाँ न कोई जैन होता, न हिन्दू, न ईसाई और न मुसलमान । अगर गुरु की धारणा ही टूट जाय तो दुनिया मे आदमियत होगी, धर्म होगा, लेकिन पथ न होगे । आज एक ईसाई के लिए महावीर अपने नही मालूम पडते क्योकि दूसरे लोगो ने उन्हें अपना लिया है। अगर गुरुके आसपाम पागलपन पैदा न हो, श्रद्धा और अन्धभक्ति पर आधारित गिरोह न बने, तो सम्प्रदाय एक-एक कर विदा हो जायें । तव क्राइस्ट भी हमारे हो और मुहम्मद भी हमारे । महावीर ने दरिद्र होना नही चाहा, इसलिए उन्होने किसी एक को नही पकडा । वे पूर्ण समृद्ध हो गए, क्योकि सब कुछ उनका था । लोग पूछते है कि क्या कारण था कि भिक्षाटन के पूर्व महावीर कुछ शर्त लगा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी पिया करते थे यार, उदाहरणाथ, पह्न थे कि आज मैं ऐस घर से भाजन गा जिसपे मामन दा गौवे लड रही हो गवा रग काला हो, घर के दरवाने पर एक स्त्री सडी हो उसका एक पर वाहर हो जऔर दूसरा भीतर उसकी भासा से आसू बहत हा पर होठा पर मुस्कान हो ? जसा मैंने कहा, महावीर की सोन पर ही जम म पूरी हो की थी। इस जन्म मे व सिफ बाटने आए थे। इसलिए उहांने यह प्रयोग किया जिगर मैं वाटने ही आया हूँ और मेरा स्वाथ नहीं है ता विश्वसत्ता मुझे गाजन दगी ही । यदि वह न दे तो मैं भोजन भी क्या ल ? यदि यह जीवन देना चाह तो ठगेर, न देना चाह ता भरे जीवन का क्या मूरय ? इसलिए महावीर कठिन पान रगापर ही निररते । मम जिजीविषा वा लेग भी न था। इसलिए ये विश्व पी समग्र सत्ता की इच्छा पर अपने का छोड देत । उनका कहना था कि अगर विश्व का समग्र मत्ता यो मरा जीता मजूर है तो वह भोजन दे। मैं अपनी और से ही जीता और न अपने मोजन के लिए ही रिसोरा अनुग्रह मानू गा। गहरी बात यह है कि जो यक्ति पूर्णता को उपलच हुआ लौट आया है, उसके लिए यम-जसी कोई चीज नहीं । वम होता है इच्छा स, उसका जम होता है आसा से । महावीर वहत हैं कि में यह भी इच्छा नहीं करता कि मये भाजन मिलना चाहिए । म इरो भी विश्व-सत्ता पर छोड देता हूँ। यह समस्त के प्रति समपण है। मगर पूरी हवाएं, पहाड, पत्थर, मानवीय चतना पा-पनी, देवी-देवता चाहत हैं कि महावीर एक दिन और जोएं तो उन्हें उनके माजन वा इतजाम करना हा होगा। इसीलिए नहावीर मात लगा देत हैं, ताकि ये पान सके वि विश्व-सता या उनका जीवित रहना मजूर है और पूरे जगत ये अस्तित्व न उहें गाजन दिया । बहुत अनूठा था उनका यह प्रयोग । जन मुनि भाज मी ऐसा परत हैं लेविन श्रावक उनको पहले ही बता जाते हैं या कुछ ऐसे प्रवप पर रगते हैं ताकि उनकी गत पूरी हो जायें । दग-पग लोग अपन परा में गामो करा रटवा दत हैं, एक-दो स्त्रियाँ बच्चे पर राडी हो जाती हैं। लेकिन महावीर या दान कठिन हुआ परती थी और उनकी पूर्ति किसी व्यक्ति विशप या पाययों व गामूहिक्ष यत्न से हाना असम्भव था। जन तक विश्वरात्ता राजा न हाती तप तप ये गते ममी पूरी होती । इस तरह महावार पा जीना परमामा की मर्जी पर था। व प्रये पल उसकी मर्जी स ही जीना चाहा थे, अपने लिए नहा । उनका पूरा जीवन ग बात या प्रमाण है शि विश्वसत्ता या जिम व्यक्ति पी जररत होता है, उमा जीवन ५ लिए यह स्वय सामाजन करती है। वृद्ध गह त्याग मी पपा प्रचरित है। वह ह कि जिस पोट पर सवार होकर व पर स निकले थे, उसने पराको टाप बारह घास सन गुना सरती थी । पिन्तु उस रात जब युद्ध उम पर सवार हा निाले, तो उसपी सर नीचे वता पूत रगते Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महावीर : परिचय और वाणी चले गए। टाप फूलो पर पडी ताकि गांव जाग न पात्र। वहत करलो के बाद ही प्रव्रज्या के लिए किमी का ऐसा अभिनिष्क्रमण होता है। अनलिए देवता राजमान के दरवाजे भी खोल देते है मे ये कभी बन्द ही नई हों। द्वार की जो पीले पागल हाथी के धरके से भी न पुरती वे पर जाती है और जिन दरवाजो से बुलने समय इतनी आवाज होती है कि उसे माग नगर गुन लेता है. वै चुपचाप सूल जाती है । ऐसी सारी कहानियां यपोलस पित है, लेकिन साथ ही ये इन बात नी सूचना देती हैं कि ऐसे व्यक्ति के लिए सारा जगत, मारा मस्तित्व सुविधा देने लगता है, क्योकि समस्त अस्तित्व को ऐसे व्यक्ति की जररत होती है। मगर हम सबके लिए अस्तित्व की ही आवश्यकता रहता है। हमारी सांस चले, इसलिए हम की जरत होती है, प्यास बुझे, इसलिए पानी की आवश्यकता होती है, गर्मी मिले इसलिए सूर्य की जरूरत होती है-सारे अस्तित्व की जरूरत होती अपने है लिए। लेकिन अस्तित्व को ही जरूरत थी महावीर की। इसलिए वे कहते थे कि अगर जिन्दा रखना हो तो मेरी गर्ते पूरी करो, नही तो हम वापस लौट जायेंगे। न कोई गियायत है पीछे लौटने से, न कोई नाराजगी है। ___लोग पूछते है कि महावीर के गृहत्याग के पीछे कौन-सा असतोप था और क्या उनका गृहत्याग जीवन और इसके नाना दायित्वों से पलायन नहीं है ? पहली बात यह है कि महावीर को न तो कोई पारिवारिक असन्तोष या नार न कोई सामाजिक असन्तोष । इस जन्म मे तो कोई व्यक्तिगत असन्तोप भी न था। पारिवारिक असन्तोष से घिरा व्यक्ति कभी धार्मिक नही हो सकता। धार्मिक होता है वह व्यक्ति जिसके असन्तोप का न तो समाज से कोई सम्बन्ध होता है और न परिवार, सम्पत्ति या शरीर से । धार्मिक व्यक्ति का उदय तब होता है जब उसके भीतर बसतोप की आग भभक उठती है और उसे चिन्ता इस बात की होती है कि क्या ऐसा हाना ही काफी है ? अगर हिंसक हूँ तो हिंसक होना ही काफी है ? अगर दुखी और अशान्त हूँ तो क्या दुखी और अशान्त होना ही पर्याप्त है ? इस जीवन में महावीर को यह असन्तोष भी न था, क्योकि धार्मिक व्यक्ति का जन्म पहले ही हा चुका था। पिछले जन्मो मे भी उनका असन्तोष नितान्त आध्यात्मिक था, सामाजिक या पारिवारिक नही । आध्यात्मिक असन्तोष वहत कीमती चीज़ है और वह जिनम नही है वह व्यक्ति कभी उस यात्रा पर नहीं जा सकता जिसका अन्त आध्यात्मिक सन्तोप की उपलब्धि मे होता है। जिस असन्तोप से हम गुजरते है उसी तल का सन्तोप हमे उपलब्ध हो सकता है। अगर धन का असन्तोप है तो ज्यादा-से-ज्यादा धन मिलने का सन्तोप उपलब्ध हो सकता है। लेकिन वडे मजे की बात है कि जिस तल पर हमारा असन्तोप होगा उसी तल पर हमारा जीवन भी। महावीर को इस जीवन मे किसी बात का असंतोष न था, लेकिन पिछले सारे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ११३ जमा में उनके असतोप की यात्रा बहुत लम्बी थी। वह असताप यह 7 जानन पे पारण था कि मेरा अस्तित्व, मेग मत्य, मेरी वह स्थिति जहाँ मैं परम मुक्त हो नाऊ, जहा न काई सीमा रहे भोर काई बधा, यहाँ है ? महावीर उसी को साज म और यह निर्विवाद है कि ऐसी सावारा व्यक्ति दूसरा ये पारिवारिक जार मामातिय असताप को मिटाने के लिए ही अधिष उत्सुम रहता है, न कि स्वय की चिता करता है। अगर हम सोजने जाय ता ऐसा जादमी मुरिकर से मिलगा जिसे न मकान से अप्ति है, न पडा से, न पत्नी से न अपने प्रियजना स । जय आदमी अपने प्रति ही असन्तुष्ट हो जाता है तब उसके जीवन मे घम मी पामा शुरू होती है। महावीर पिछले जमा म पसर असतुष्ट रहे । वही यामा उहें वहाँ तर राई जहाँ तृप्ति और सतोप उपलव्य होता है । जिस दिन व्यक्ति अपन को पातरिश परख उसे पा लेता है जा वह वस्तुत है उस दिन उसके लिए परम तृप्ति पा क्षण आ जाता है। अगर यह फिर एक क्षण भी जीता है तो दूसरा रिए ही, ताकि यह उहें तृप्ति ये माग की दिशा बना सके। पूछा जाता है पि क्या महावीर का गहत्याग दायित्व से पलायन नहा है ? मरा कहना है कि महावीर ने भी गहत्याग किया ही नहीं। गहत्याग व रोग करते हैं जिहें गह के प्रति आसवित होती है। महावीर ता उस ही छोड़ा जा घर न था। मिटटी, पत्थर के परा यो हा हम पर समक्ष रत हैं जा सक्था गग्न है। वस्तुन यह राम-'गहत्याग'-होमात है । असर में महावीर घर की पाज में निकल थे। जा पर नहा था उसे हो छोडा था और जो घर था उसकी तलाापी थी। जो घर नहीं है, हमो उग ही पकड रखा है। जो पर है उरास हम दूर जा पहें हैं । इसलिए शर्ट के सच्चे अथ म पलायनवादी हम है, महावीर नहीं। परायन पा मतपय पया है एक आदमी क्यहा और पत्थरामो परमर कहता है, यही हमारे हीर हैं और वह अमली हीरा को छोट देता है । दूसरा असली हीरे सामाज म निगर पाता है । इन दोना म पायावादी यौन है क्या आनद को सात पलायन है ? क्या मान पीसोज परायन है ? महावीर जैसा आदमी दूगा पर वटपर व्यवगाय पलारा है। दा पर, यया यही दायिताव हागा उसया जगत के प्रति, जीया प्रति ? महापौरजा व्यक्ति पर म बेटार बार बच्चा मो वहा करता रह मया यही दापि व हागा उमा? जब बड़े दायित्व पुधारत है तब छोटे दापि या माघार या पाता है। महा यार जसा व्यक्ति जर एप घर का माहता है तब उस रोड पर मिल जाता है प उसपे हो मान हैं। पत्ला, बेट और प्रियजना वा छाया है ता सारा जगा उगरा प्रिपजन और मित्र हा जाता है। ___ पादुग ये मार को दूसरा पर लाना ही हमारा दापिर है। बता पो या म औरों को गति देना ही हम दायित्व रामसत हैं। पलाया यह परवा 1 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महावीर : परिचय और वाणी दुखी हो । भागता वह है जो डरता हो, भयभीय हो, जिसे शक हो कि मैं जीत न सकूँगा। महावीर उस घर से निकलते है जिसमे आग लगी है। जब घर में आग लगती है और उसमे रहनेवाले लोग उसे छोडकर बाहर निकल आते है तव उनका पलायन पलायन नही कहलाता, विवेक की सज्ञा पाता है। जिस घर में आग लगी हो उसमे रहना ही अपनी विवेकहीनता का परिचय देना है। हम बीमार आदमी को कमी यह नही कहते कि तुम पलायनवादी हो, वीमारी से भाग रहे हो, डाक्टरो के यहाँ जाते हो। एक अँधेरे मे पडा व्यक्ति जब सूरज की ओर जाता है तब हम यह नही कहते कि तुम पलायनवादी हो, सूरज की ओर भागते हो। वस्तुत हम वहाँ __ खडे है जहाँ जिन्दगी है ही नही। दूसरो को पलायनवादी कहकर हम यही सिद्ध करना चाहते है कि हम जहाँ खडे है, वहाँ से हटने की हमे जरूरत नही । हम वहादुर लोग है महावीर और बुद्ध की तरह भगोडे नही। परन्तु स्मरण रहे कि जिन लोगो ने महावीर को 'महावीर' नाम दिया था, उनकी दृष्टि मे महावीर पलायनवादी न थे। - इसका कारण शायद यह था कि हम अपनी कमजोरी की वजह से जहाँ से हट नही सकते, वहाँ से महावीर अपने अदम्य पीरुप की वजह से हट गए थे। वह उस व्यक्ति के समान है जिसे हीरो की खदान दिखाई पड गई है और वह उसी की ओर भाग रहा है। ऐसे व्यक्ति का भागना पलायन नही है । ऐसा भागना उस व्यक्ति के भागने-जैसा नही है जिसके पीछे वन्दूक लगी हो। लेकिन यह भी सत्य है कि सौ सन्यासियो मे निन्यानवे सन्यासी पलायनवादी ही होते है। उन निन्यानवे सन्यासियो । के कारण सौवे सन्यासी को ठीक-ठीक समझना मुश्किल हो जाता है महावीर ने न तो नियन्ता को स्वीकार किया है, न समर्पण को, न गुरु को __ और न शास्त्र को। क्या यह महावीर का घोर अहकार नही था ? क्या वे अहवादी नही थे? __ ऐसे प्रश्न स्वाभाविक है । जो नियन्ता, गुरु, शास्त्र, परम्परा आदि के प्रति झुकता है, वह साधारणत हमे विनीत और निरहकार प्रतीत होता है। इस सदर्भ मे मेरी पहली बात यह है कि परमात्मा के प्रति झुकनेवाला भी अहकारी हो सकता है और यह अहकार की चरम घोषणा हो सकती है कि मैं परमात्मा से एक हो गया हूँ। 'अह ब्रह्मास्मि' की घोषणा अहकार की चरम घोषणा है। दूसरी बात यह है कि समर्पण मे अहकार सदा मौजूद रहता है, समर्पण करनेवाला मौजूद है। समर्पण __का कृत्य ही अहकार का कृत्य है । जब कोई कहता है कि मैंने परमात्मा के प्रति स्वय को समर्पित कर दिया है तब हमे लगता है कि परमात्मा ऊपर है और समर्पण करनेवाला व्यक्ति नीचे। यह हमारी भूल है। समर्पण करनेवाला व्यक्ति कभी नीचा Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी नहीं हो सकता, कर चाह तो वह अपना समपण वापस लौटा सक्ता है---कल वह कह सकता है कि अब मैं समपण नहीं करता। महावीर में इतना भी अहकार नहा कि वे कहें-मैं समपण करता हूँ। समपण के लिए 'मैं तो चाहिए ही। उनमे मैं' काकर्ता होन का भाव बिलकुल नहीं । और, जसा मैंन वहा जो व्यक्ति समपण करता है वह समपण की माग करता है । यह माग एर ही सिक्के का दूसरा हिस्सा है। लेकिन महावीर ने न तो समपण किया और न मागा। मेरी दष्टि म यह परम निरहदारिता है। आसिर मैं ही समर्पित होगा, नियता को मैं ही स्वीकृत करूंगा। महावीर के जस्वीकार में ऐसा नहा है मिनियता नही है। अस्वीकार का कुल मतलब इतना ही है कि वह स्वीकार नही है। अस्वीकार' पर जोर नहीं है। महावीर यह मिद्ध करत नहीं घूमते कि परमात्मा है। उनका अस्वीकार पलिन है, घोषणा नहीं । स्वीकृति और समपण के लिए भी अहकार चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नितान्त अहवार य हो जाय ता ममपण कसा? कौन करेगा समपण ? समपणकृत्य है, कृत्य के लिए कर्ता चाहिए। अगर पर्ता नही है तो समपण-जसा कृत्य भी असम्भव है । जब कोई कहता है कि मैंने समपण किया तो समपण से भी वह अपन में' को ही भरता है---उसका समपण मी उसके म' का ही पोपक है। यह समझता है कि मैं कोई साधारण नहीं हूँ, मैं ईश्वर के प्रति समर्पिन हूँ। ___ महावीर के पास एक मग्राट गया। उसने महावीर से कहा-सव है आपकी कृपा से । राज्य है, सम्पदा है सनिक हैं शक्ति है, सब है, लेकिन सुना है कि मोक्ष जैसी भी कोई चीज होती है वह मेरे पास नही। मैं चाहता हूँ वि' उसको भी विजय कर लू । क्या उपाय है ? कितना खच पडेगा? हंसे हांग महावीर उसके पागलपन पर । उहाने कहा कि सरीदने को हा निक्ले हो तो अपने गांव को लौट जाओ। वही एक धारक है, उससे पूछ लेना कि एक सामायिक क्तिने मे बेचेगा । वह नासमझ सन्नाट उस आदमी के घर पहुंचा और हैरान हुआ देखकर कि वह श्रावक बहुत दरिद्र आदमी है। उसने सोचा कि इसे तो पूरा ही सरीद लेंगे। उसने थावक से वह बात कही जिसे महावीर ने कहा था और पूछा कि वह एक ध्यान का मूत्य क्या लेगा? थावक हंसने लगा । उसने कहा कि चाहो तो मुमे सरीद लो लेक्नि सामायिर' सरीदने का कोई उपाय नही । सामायिक पाई जा सकती है उसे मरीदा नहीं जा सकता। लेकिन अहकार उसका भी सरीदना चाहता है भगवान और धम वो भी एरीदना चाहता है। हमारे मन में दो चीजें हैं, अहवार और नम्रता। नम्रता अहसार का ही रूप है, यह बात हमारे सयाल म नहीं आती। महावीर नियता के प्रति, गुरु और परम्परा के प्रति न तो नम हैं और न अनन। दोनों बातें असगत हैं महावीर के लिए। मैं एक वृक्ष के पास और नमस्कार न करें तो आप मुझे अनम्र न बढ़ेग । लेस्नि म न से नियत और नमस्कार Page #122 --------------------------------------------------------------------------  Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ११७ हमारे सब सवाल उल्टे होते हैं क्याकि हमारे प्रश्न वहा से उठते है हा ची दिर कुल उटी हैं। महावीर के प्रेम म कोई शन नहीं है। शायद उतना बेत प्रेम पना हुना ही नही । उनको सभी गत अपने जस्तित्व के लिए हैं तुम्हारे प्रेम के रिए नहीं। यह इसलिए वि कहा ऐसा न हो जाय कि तुम्हारा प्रेम विदा हो चुका हा और अस्तित्व का मेरी जररत न हो और में जिए चला जाऊँ । तब यमानी हो नायगी बात। महावीर पिसी परमात्मा का मानत नहीं जा कि सबर कर दे और यह दे, बस ौट जाओ। इसलिए जस्तित्व से ही यह राबर लेनी है। उस ही बनाना है कि उसे मेरी जरूरत है या नहीं। इसलिए गत लगा लेता हूँ ताकि मुये पता चलता जाय कि अब आगे जीना है या लोट जाना ही श्रयस्पर है। ___ जगत को इस बात की जरूरत है कि महावीर दुवारा आए । जव कोई प्रक्नि आनद को उपलक्ष्य हा जाता है तो सारे जगत के प्राणिया की पुकार घूम घूमकर उमर पाम पहुँचन लगती है कि जगत पप्ट म है, दुखी हैं इसलिए अपना आनद याग। यह वारना ही लौटाता है । लागो की पुकार ही उस पुन बुला लेती है। पिन यह दिखाई नही पडता । लाग पूछते हैं कि आप क्सिलिए बोलते है ? यह ध्यान म आना वदिन है कि कोई सुनने को आतुर हो गया है इसलिए मैं बोलता हूँ। वोई सुनन वाला पुवारेगा, तभी मैं बालूगा । ससार म घटनाएँ उरटी घटती हैं। मैं वोलूगा तब मुनन वाला आयगा, लेकिन अन्तजगत में घटनाएँ ऐस नहीं घनना । अतस्तल म सुनने वाला पहल मौजूद होता है तब बोलने वाला आता है । यदि महावीर तुम्हार गांव म आ जाये तो तुम बहोग कि क्या आए हैं आप यहा? मो की बात तो यह है कि तुम्ही ने बुराया था उहें। महावीर का यह पीडा भी घेरनी पडेगी वि तुम्ही ने चुराया था उहें और तुम्ही पूछागे कि कैसे आप आए ह यहाँ ? _यह सच है कि महावीर ने किसी की शारीरिक सहायता नहा की। इसके कारण को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। परम अहिंसा की स्थिति म व्यक्ति किसी को दुपही पहचाना नहीं चाहता, सुष भी पहुंचाया नहा चाहता। बहुत गहरे म मुस और दुप एक ही ची। दो स्प हैं। तिस हम सुप बहते है उमवी मात्रा अगर थोरी वढा दी जाय तो यह एव म बदर जाता है। भाजन करना सुरद होता है, दिन आप ज्यादा भोजन करता सुख दुग म बल है। आप प्रेम से आरि मिरे ता मैंने मापवो गले से लगा लिया । बडा सुपद है क्षण दा क्षण वा ऐमा मिल्न । रपिन Tब मैं आपको पा रमूंगा और माप छूटन के लिए तडपा लगगे तर आपकी क्या दगा होगी? आप मुषी हो सरेंगे ? आधा घटा हुआ कि माप पाहेंगे, चित्लाएगे दि कोई पुलिसवाला आए और आपयो बचाए । सुख व दुग म बदल जाता है, यह कहना मुश्किल है। सब मुग दुग में बदर सपना है और ऐमा पोई दुहीं Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महावीर : परिचय और वाणी जो सुख मे न बदल सके। किसी मां को ही लीजिए। वह बच्चे को गर्म मे होती है, नी महीने पेट मे रखती है, दुख उठाती है, प्रसव की पीड़ा सहती है। बच्चे का जन्म होता है, वह उसका लालन-पालन करती है, बच्चे का वांझ मुस की तरह स्वीकारती है। बच्चे को बड़ा करना लम्बे दग की प्रनिया है। लेकिन मां का मन उसे सुस बना लेता है। अगर आगा, सम्भावना, आकाक्षा, कामना तीव्र हो तो दुप सुख बन जाता है। सुख और दुस मे कोई मौलिक भेद नहीं है, हमारी दृष्टि का भेद है । आगा हो तो दुस को सुस बनाया जा सकता है। नागा क्षीण हो जाय तो सुख दुरा मे परिणत हो जाता है । महावीर कहते है कि न तो तुम किसी को नुस पहुंचाओ मीर न दुख । जिस दिन कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच जाता है जिनमे वह न किसी को सुस पहुँचाना चाहता है, न दुस, उस दिन वह सबको आनन्द पहुँचाने का कारण बन जाता है । इसे समझ लेना जरूरी है। आनन्द पहुँचाने का कारण ही तभी कोई व्यक्ति बनता है जब वह सुख और दुस के चक्कर से मुक्त हो जाता है और उम दृष्टि को उपलब्ध होता है जिसमे मुख-दुस का कोई मूल्य नही । सुस-दुख पहुंचाने वाले को हम अच्छा बुरा तो कहते है, लेकिन चूंकि हमे मानन्द को पहचानने नही माता इसलिए मानन्द देने वाला व्यक्ति हमसे दिलकुल अपरिचित रह जाता है। आनन्द चेतना से सहज ही विकीर्ण होने लगता है जो मुस-दुस के द्वन्द्व के पार चली जाती है। निश्चित ही जिनके पास आँखे होती है वे उस आनन्द को देख पाते है । ___ महावीर की गहरी समझ यह है कि कभी-कभी किसी को सुख पहुँचाने से भी उसको दुख पहुँच जाता है--अर्थात् कभी भी आक्रामक रूप से विसी को सुर पहुँचाने की चेष्टा भी उसको दुख पहुँचा सकती है। यह जरुरी नही कि आप सुख पहुँवाना चाहते हो तो इससे दूसरे को सुख पहुँच जाय । सच तो यह है कि अगर कोई किसी को सुख पहुँचाने की कोशिश करे तो उसको दुख पहुँचाता ही है । अगर वाप अपने बेटे को सुख पहुंचाने की कोशिश मे लग जायें, उसके सुधार की व्यवस्था करने लगे और सोचे कि इससे उसे सुख पहुँचेगा तो सम्भावना इस बात की है वेटा को दुख पहुँचेगा और बेटा अपने पिता के ठीक विपरीत जायगा। इसलिए अच्छे वाप अच्छे बेटो को पैदा नहीं कर पाते । अच्छे बाप के घर अच्छा बेटा पैदा होना अपवाद है। अच्छा बाप बेटे को अनिवार्यत विगाडने का कारण बनता है । सुख इतनी सूक्ष्म चित्त-दशा है कि कोई पहुँचाना चाहे तो नही पहुँचा सकता । मैं लेना चाहूँ तभी ले सकता हूँ। इसलिए महावीर ने सुख पहुँचाने पर जोर ही नही दिया, वात ही छोड दी, और कहा कि अगर कोई तुमसे सुख लेना चाहे तो दे देना, वह भी सिर्फ इसलिए कि अगर तुम न दोगे तो उसे दुख होगा। लेकिन तुम सुख पहुँचाने मत चले जाना। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावार परिचय और पा ११९ नगर उपरारा हा दो ●पादन गए। महाराज *শা। निरीहै उसे पा पहा है। हम महारा समय है आरक पोरगा नई ताप ही जाय । म जसरी है यह माया । उपर है। गवार समय पर हा मात्र उसा मात्र है। जीना होता है है। जिन पागा छाया नही करना पता है पाडिया कामानि वो पाप है । यलोड़िया मी बातें है। यह दो पर है जिस महावीर उन पर भाव विग हो जाता है जो कि महावार जाते हैं। विवाद में उस रास्य वा मेटलिटर ( उप्रेश) एज नहही कुछ हो जाता है । उपहरण मे लिए हाइड्रो और ऑन आपना या आसनास आए ताप अलग अलग ही रहेंगे, घीस विजय घमर जाय तो दोना मिल जायेंगे और इससे पार हो जायगा । बिजयी गोई योगान नहीं करती, पि उपनी मौजूदगी मे ही ये मित्र जात है। जिस भांति नौनिन तर पर परिटिक एजेक्ट है उसी भोति आमिन त पर महावीर ज लाग हा निरीगि मोजमा वाम रती है। मौजूदगी ही हजारा, माना या जगा देता है स्वस्थ पर तो है । महावीर यी सेवा हीं पा यह जा रहा। इसे मिटाया नही जा मता । यह अभियोग तब तक रहेगा जब तक हम वेल तवि के पहचानते रहा। जिस दिन हम सौ सीए में पोट पहचानना शुरू कर देंगे उस दिन महावीर एक नई अथवा ऐराट होगे और उपर अभियोग लगावल लागदो पौडी हो जायेंगे । ४ लोग पूछते हैं कि यद्यपि पृथ्वी बहुत विशाल है फिर भी क्या कारण है कि दो तीन प्रदेशा में हो चौबीसा तीथकर हुए ? इमरे उत्तर में इतना ही कहना पर्याप्त Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०. महावीर : परिचय और वाणी होगा कि प्रत्येक की मौजूदगी दूसरे के होने के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करती है। इस प्रकार एक शृखला-सी निर्मित हो जाती है। जिस क्षेत्र में किसी तीर्थकर का अवतरण होता हे उस क्षेत्र की चेतना ऊँची उठ जाती है जिससे दूसरा तीर्थकर पैदा होता है, और उस दूसरे से तीसरा और तीसरे से चीथा । स तरह तीर्थकरो की शृखला बन जाती है। यह भी जानकर आप हैरान होगे कि जब दुनिया में महापुन्य पैदा होते है तो करीब-करीव एक शृखला की तरह गारी पृन्ची को घेर लेते हैं। महावीर, बुद्ध, गोशाल, अजित, सजय आदि सव-के-सव विहार मे ही हुए और वह भी पाँच सौ वर्षों के अन्दर । इन्ही पांच सौ वपों मे एथेन्म मे सुकरात, जरस्तू, पोटो आदि तथा चीन मे कन्फ्युसियस और लामोत्ने हुए । पाच नो वर्षों मे सारी पृथ्वी पर प्रतिभा का मानो शृंखलाबद्ध विस्फोट हुआ। जब महावीर की कीमत का कोई इन्सान पैदा होता है तो वह अपने-जैसे सैकडो लोगो के पैदा होने की सम्भावना भी पैदा करता है। ऊपर से दीराता है कि महावीर और वृद्ध परस्पर विरोधी है। लेकिन महावीर के विस्फोट का फल है वुद्ध-फल इस अर्थ मे कि अगर महावीर न होते तो बुद्ध का होना मुश्किल था। ऊपर से लगता है कि अजित, पूर्ण काश्यप, गोशाल सब विरोधी है। लेकिन किसी को खयाल नही कि वे सब एक ही शृखला के हिस्से है। एक का विस्फोट हुआ है तो हवा बन गई है। उसकी उपस्थिति ने सारी चेतनाओ को इकट्ठा कर दिया है और आग पकड़ गई है। प्रतिभा के विस्फोट के लिए उपयुक्त हवा चाहिए। यह भी स्मरणीय है कि तीर्थकरो का तख्या से कोई सम्बन्ध नही। पच्चीसवाँ तीर्थकर भी हो सकता था, लेकिन जैनो ने उसे स्वीकार नही किया। वही नई शृखला का पहला पैगम्बर वना। यदि जैन पच्चीसवां तीर्थकर मान लेते तो बुद्ध को एक अलग शृखला मे रखने की जरूरत न पडती। वे पच्चीसवे तीर्थकर हो जाते । कठिनाई यह है कि जब भी कोई परम्परा अपने अन्तिम पुरुप को पा लेती है तो फिर वह उसके बाद दूसरो के लिए द्वार वन्द कर देती है। चूंकि नई प्रतिभा नए-नए उपद्रव लाती है, इसलिए उसे पुरानी शृखला मे स्थान पाना मुश्किल हो जाता है । इसलिए पच्चीसवे को नई शृखला की पहली कडी होना पड़ता है। बुद्ध पच्चीसवे हो गए होते, कोई बाधा न थी अगर जैनो ने द्वार खोल रखे होते । एक और कारण हो गया कि बुद्ध उसी वक्त मौजूद थे, इसलिए द्वार वन्द कर देना एकदम जरूरी था। अगर वे पुरानी शृखला मे आते तो सब अस्त-व्यस्त हो जाता, महावीर की बाते भी अस्तव्यस्त हो जाती, नई व्यवस्था बनानी पडती और वह नई व्यवस्था मुश्किल मे डाल देती। इस वजह से दरवाजा बन्द कर दिया गया और कहा गया कि चौबीस से ज्यादा तीर्थकर हो ही नहीं सकते और यह कि चौबीसवाँ तीर्थकर हो चुका। यह सारी व्यवस्था अनुयायियो की है। उन्हें डर होता है कि यदि नई प्रतिभा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १२१ स्वीकृत हुई तो उनसे पुरानी व्यवस्था, पुरानी पला अस्त व्यस्त हो जायगी । इस लिए व दरवाने वाद कर रखते है जिनसे उनकी सला मे नई प्रतिमाओं का प्रवेश हो । उनकी पुरानी खला में जो लोग सम्मिलित हो पाते हैं उनम भी अस्त त करने की प्रवृत्ति थी, लेकिन अनुयायी उनको बाता का मलवद्ध कर लेत ह उन संगति बिठा लेते हैं । मुहम्मद के बाद मुसलमानो न दरवाजा वाट कर लिया, जिसके बाद ईसाइया ने और युद्ध के बाद बौद्धा ने। वहा जाता है कि बुद्ध मत्रेय के रुप में एक और अवतार लेंगे, लेकिन वह अवतार मो बुद्ध हो लेंगे, कोई दूसरी आत्मा नही । दो तीन सौ वर्षों म रमण और कृष्णमूर्ति सबसे ज्या प्रतिभाशाली आदमी हुए, लेकिन न तो रमण के पीछे कोई मरा बन सकी और न कृष्णमूर्ति के पीछे । पुण्मृति ऐसी शृखला बनाने के विराध म ह जोर रमण के पीछे कोइ श्रृंखला ग न पाई। इस कीमत का कोइ जादमी न मिला जा रमण के सदेश को आगे वडा भने । रामकृष्ण को विवेकानद मिए । विवाद क्तिगाली पुग्य थे, अनुभवी हा । शक्तिशाली होने की वजह से उन्हान चन तो चला दिया, लविन चत्र में ज्यादा जान नही है । वह चरनेवाला रही है। रामकृष्ण बहुत अनुभवी थ, लेकिन तीथ पर होने की काई स्थिति नहा थी उनकी। इसलिए उन्होन विवेभान व पर शथ रसवर शिव का नाम विवाद से ही लिया। लेकिन चूंकि विवेकानन्द अनु मनी न थे, इसलिए श्रृंखला वन न पाई | रामकृष्ण की मृत्यु हो गई। फिर विवेका रह गए और उन्होन ही रामकृष्ण ने अनुमया को व्यवस्था दी । यह व्यवस्था है । यदि विवाद के पास रामकृष्ण ने अनुभव होते तो एक पल शुरू हो जाती । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अध्याय अस्तित्व और अहिसा एगो ह नत्थि मे कोइ, नामन्नस्स कस्सइ । एव अदीण-मणसो, अप्पाणमणु सासइ ।' महावीर उन थोडे से चिन्तको मे है जिन्होने जीवन के प्रारम्भ की बात को स्वीकार नहीं किया। उनकी दृष्टि मे अस्तित्व का कोई प्रारम्भ नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा से है और सदा रहेगा। प्रारम्भ की धारणा मारी नासमझी से पैदा होती है। हमारा भी कोई प्रारम्भ नही, कोई अन्त नही । जब कोई चीज बनती और मिटती है तो हमे ऐसा प्रतीत होता है कि जो भी बनता हे वह मिटता है । लेकिन बनना ओर मिटना प्रारम्भ और अन्त का पर्याय नही है, क्योकि जो चीज बनती है, वह बनने के पहले किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है। इसी तरह जो चीज मिटती है वह मिटने के बाद किसी दूसरे रूप में मौजूद हो जाती है । महावीर कहते है कि जीवन मे सिर्फ रूपान्तरण होता है। प्रारम्भ असम्भव है, क्योकि अगर हम यह माने कि कभी प्रारम्भ हुआ तो यह भी मानना पडेगा कि उसके पहले कुछ भी न था। फिर प्रारम्भ कैसे होगा ? अगर उसके पहले कुछ भी न हो तो प्रारम्भ होने का उपाय भी नही। अगर हम यह मान ले कि कुछ भी न था-न तो समय था और न स्थान ही-तो प्रारम्भ कैसे हुआ ? प्रारम्भ होने के लिए कम से कम समय तो पहले चाहिए ही ताकि प्रारम्भ हो सके। और अगर समय पहले है, स्थान पहले है तो सव पहले हो गया। इस जगत् मे मौलिक रूप से दो ही तत्त्व है--समय और स्थान । महावीर की दृष्टि मे प्रारम्भ की बात हमारी नासमझी से उठी है। अस्तित्व का कभी कोई प्रारम्भ नहीं हुआ और, याद रहे, जिसका कभी कोई प्रारम्भ नही हुआ उसका कभी अन्त भी नही हो सकता, क्योकि अन्त होने का मतलब होगा कि एक दिन कुछ भी न बचे । यह कैसे होगा? १. 'मै अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है और मैं किसी दूसरे का नही हूँ,-इस प्रकार अदीन मन से विचारता हुआ आत्मा को समझाये (समझाना चाहिए)। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १२३ अस्तित्व अनादि है, अन त है, सनाता है। लेकिन रूपातरण रोज होता है। कर जो रेत यी वही आज पहाड है, आज जो पहाड है, वान जाने वही पल रत म परिवर्तित हो जाय । लेकिन होना नही मिटेगा। रेत में भी वही था, पहाट मे भी यही होगा। जस्तित्व का अस्तित्व होना उतना ही असम्भव है जितना अनस्तित्व वाजस्तिव होना । इसलिए महावीर ने अष्टा की धारणा ही नहीं मानी। उहान पहा कि जर सप्टि की तुरमात ही नहीं होती तो शुरुआत करनेवाले को धारणा को बीच मे लाना ठीक नही । जन शुरूमान ही नहीं होती तो नष्टा की क्या जरूरत यह वडे साहस की बात थी उन दिना । उहाने पहा- सप्टि है, पर सप्टा नहीं, ययानि अगर सप्टा है तो प्रारम्भ की बात माननी पडेगी। यदि स्रष्टा है तो भी गय स उसका प्रारम्भ नहीं हो सरता। और फिर मजे की बात यह है रि अगर मष्टा था तो फिर गूय वहना यय है। मास्तिका का कहना है कि यरि वाई चोजा को बनाने वाला है तो परमात्मा मा होना चाहिए। लेमिनास्तिाने एक गहरा सवाल किया--अगर चीजा वा बनानवाला काई है तो फिर परमात्मा को नावाला मी हाना चाहिए। और पिर उस बनानवारे का बनानेवाला फिर उमका, फिर उमगा। इस प्रकार एव अतहान विवाद लना हो जाएगा। इसलिए, महावीर कहते हैं Pि आस्तिा भूल म है और मागी भूलथे वारण ही वह नास्तिरा के प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता। __ स्वय महावीर परम आस्तिक है । लेविन व महत है वि बनानवाले को बीच मे ने को जररत नहीं है । अस्तित्व पाप्त है। कोई बनानेवाला रही है। हा सपना है कि रमवा पता चल जाय कि पच्ची का प्रारम्भ क्व हुआ और इसका अत पर मागा लेकिन पध्वी जीवन नहा है, जीवन का एक रूप है। इसी प्रकार में भी जीवन नही हूँ जीवन कासिफ एक रूप हूँ। जगत जा है गहराईम, वह मदा से है । उसरे उपर की लहर आई हैं गई हैं बाली है । भाएंगी, जाएंगी, बदलेंगी। परतु । गर राइ म है जो के म है, वह सदा म है और सदा रहेगा। एसा ही समझ ले नि अस्तिव ए सागर है, उस पर लहर उगती हैं आती हैं, जाती हैं लान पूरे अम्ति प का भी प्रारम्भ हुआ हो, न एमा है और न हो सकता है। इसी यात या म चाहता इस प्रकार समा सकते हैं। हम यहां लाडो के तपता पर चठे हुए है। सार हमस पूछ गरता है कि आपका मिसन सभार र ? हा पहा ही ये राम्न । फिर यह पूर साता है ये तम्मा का पौन समार हुए है ? हम पहेंगे--मा। यह पूछ सकता है जमीन या पोरामाते हुए है? हम उत्तर दगे-पहा उपग्रहा या वारपण । पिर वह पूछ सा है पिग्रहासाग्रहा या या समारहा है तो शायद हम योर गोजा ले जाय । अतः यदि कोई पूरि ग गमग्रयो, म पूरे को निगम मनी ग्रह अग्रह आ गई यौन मार TV है al Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महावीर : परिचय और वाणी कहना पडेगा कि अव वात जरा ज्यादा हो गई। यह प्रश्न असगत है कि इस समग्र को किसने सँभाल रखा है, क्योकि 'समग्र' और 'किसने' की धारणा ही परस्पर विरोधी है। समग्न के बाहर यदि कुछ है तो समग्र की समग्रता पूरी कहाँ हुई ? अगर सँभालनेवाले को हम वाहर रखते है तो समग्र अभी पूरा नही हुआ और अगर सव-कुछ उसके भीतर है तो वाहर कोई वचता नही जो उसे सभाले । सवको कोई भी संभाले हुए नही है--सव स्वय सँभला हुआ है। इसलिए महावीर कहते है कि जीवन स्वयभूहै-न इसको बनानेवाला है और न मिटानेवाला । यह स्वयं है। मेरी अपनी समझ है कि जो लोग अस्तित्व की गहराइयो मे जाएंगे वे सप्टा की धारणा को कभी स्वीकार नही कर सकते । चूंकि हम लहरो का हिसाव रखते है इसलिए हम परम सत्य के सम्बन्ध में भी पूछना चाहते है कि वह कब शुरू हुआ, उमका कब अन्त होगा । सूरज बनेगा, सूरज मिटेगा । वह भी एक लहर है । पृथ्वी दो अरब व चलेगी। वह भी मिटेगी, वनेगी। वह भी एक लहर है। हजारो पृथ्वियाँ वनी है और मिटी है। हजारो सूरज बने हैं और मिटे है । प्रतिदिन कही-न-कही कोई सूरज ठडा हो रहा है और किसी-न-किसी कोने में कोई नया सूरज जन्म ले रहा है। इस वक्त भी अभी जब यहाँ वैठे है, कोई सूरज बूढा हो रहा है। आकार बनेगे और विगडेगे, आकृति उठेगी और गिरेगी। सपने पैदा होगे और खोएंगे। लेकिन जो सत्य है, वह सदा है। वस्नु त यह कहना भी गलत है कि सत्य है, क्योकि जो है वही सत्य है । सत्य के साथ 'है' को भी जोडना बेमानी है, क्योकि 'है' उसके साथ जोडा जा सकता है, जो 'नही है' हो सकता है । हम कह सकते है कि 'यह मकान है', क्योकि 'मकान नहीं है' यह भी हो सकता है। लेकिन 'सत्य है'--ऐसा कहने में कठिनाई है, क्योकि 'सत्य नही है'--यह कभी नही हो सकता। इसलिए 'सत्य' और 'है' पर्यायवाची है। इनका एक साथ दोहरा उपयोग करना पुनरुक्ति है । __इस तथ्य का थोडा सा खयाल आ जाय तो सब बदल जाता है। तव पूजा और प्रार्थना नही उठती, तव मस्जिद और मन्दिर खडे नही होते--तव आदमी ही मन्दिर वन जाता है । आदमी का उठना-बैटना, चलना-फिरना सब पूजा और प्रार्थना हो जाती है। इस बात का बोध हो जाता है कि मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है और वह सबके भीतर है, वह एक ही है। इस वोध के बाद व्यक्ति खो जाता है, अहकार मिट जाता है। और तब जिसका जन्म होता है उसी का नाम है 'बदला हुआ चित्त'। मेरी दृष्टि मे जड और चेतन दो पृथक् चीजे नही है। वे केवल पृथक् दिखाई पडती है । जड का मतलब है इतना कम चेतना कि हम उसे अभी चेतन नहीं कह Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १२५ पात, वेतन वा अय है इतना कम जड कि हम उमे अमा गड नहीं पह पाते । वे एक ही चीज के दो छार ह । जडता चेतन हाती चली जा रही है। उसम भीतर प, चेनन छिपा है । पर मिप प्रवद और अप्रकट का है। जिस हम पद कहो है वह अप्रपट चेतन है-जाती जिसकी अभी चेतना प्रस्ट नहीं हुई। जहम हम तन दिसाइ नहीं पड़ता, कारण कि हमारी देखने की क्षमता यहुत सीमित है । पाय चेतन की अप्रक्ट स्थिति है जार चेता पदाथ की प्रस्ट थियी। इसलिए मरी प्टि म भौतिकवाद और अयात्मवान या झगडा अथ नहीं रमता। यह माघ गिगम का झगडा है। पोई यह सपता है कि गिलास आपा साली है और बल गिगम के गाली हाने पर दे सकता है। वही दूसरा व्यक्ति इस बात पर जार ६ सपना? कि गिलास बाधा नरा है। दाही टीम पहते हैं मिप उनका र भित है। एप मारी पर जोर देवर चला है दसरा मरे पर। इमगिए अध्यात्मवाद और पदायवाद में बुनियादी भेट है। भेद सिप इस बात का है कि पदाधवाय बार मी को राम सस्ता है विराग स । अयात्मवाट विवासगीर बना सकता है बादमी पा। जहां पदाथवाट मनप्य यो एपम उदास कर सकता है यहाँ अप्यारमयाद गति देना है विमास मे द्वार पोलता है। दूसरी चास-म पहता हूँ Eि अत नही हो सकता, मत असम्भव है। 7 इसलिए असम्भव है लिविसी चीज-या बन गदा दूमर या प्रारम्भ हाता है। आर प्रारम्मी अवधारणा अमम्मर है क्यापि प्रारम्भ के लिए भी पहले पुध सना में होना चाहिए नहीं तो प्रारम्म हा ही नहा रास्ता । यानी प्रारम्म २ सम्म पनि गे प्रारम्म के पहले अस्तित्व पाहिए। और जब पहले अपि पाहिए तो यह प्रारम्म नहा रह गया । जहाँ युग मत होता है, वही प्रारम्भ होता है मागी प्रत्पर यस प्रारम्ग वो जम देता है और प्रत्पेर प्रारमाबत यो जान देता है। अगर रिमी दिन हमने पता भी गायिा दि इस ति पपीपा प्रारम्भ हुआ तो हम पाएँगे fr उसर पर छपा जिमस प्रारम्भ हुआ। फिर जब उगा पा मारिया ता पता पगापि उमरे भी पहले पुए या जिगस प्रारम्भ हुमा । I प्रारम्मपत्य म TITो सरा और अगर Tप में प्रारम् साता ता पाना गत होगा। उसरा मारय हागा रिवीज मी तरह पुध दिगार हो। पिर पर TT ता। गा तिना नी याराम, पारनपा पारण भाग्भय है। प्रारम्म पनी ? THI, - ___म सबर मा म यर प्ररा र गमता nिf Trn परिमिनियों में महापौर-जगमतियारि गायब Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महावीर : परिचय और वाणी मे आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसमे उसका कोई उल्लेख नहीं है। उल्लेख न होने का कारण बहुत गहरा और बुनियादी है। महावीर-जैसी चेतना की अभिव्यक्ति मे परिस्थितियो से कोई भेद नही पडता। इसलिए भिन्न-भिन्न परिस्थिति' कहने का कोई अर्थ नही । मिन्न-भिन्न अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियो मे चित्त सदा समान हे । प्रत्येक स्थिति मे साधारण आदमी का चित्त रुपान्तरित होता रहता है । जैसी स्थिति होती है वैसा चित्त हो जाता है। इसी को महावीर वन्धन की अवस्था कहते । है । स्थिति दुख की होती है तो उसे दुखी होना पडता है, मुख की होती है तो वह सुखी हो जाता है । इसका मतलब यह हुआ कि चित्त की अपनी कोई दशा नही है । सिर्फ बाहर की स्थिति जैसा मौका देती है चित्त वैसा ही हो जाता है। इसका मतलब यह भी हुया कि चेतना अभी उपलव्य ही नही हुई। असल मे महावीर होने का मतलब ही यही है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता । जो होता है वह सब वाहर होता है। यही महावीर, क्राइस्ट, बुद्ध या कृष्ण होने का अर्थ है । भीतर विलकुल अछ्ता छूट जाता है। वे दर्पण-मात्र रह जाते है। दो तरह के चित्त है जगत् मे---फोटो-प्लेट की तरह या दर्पण की तरह । फोटोप्लेट की तरह जो काम कर रहे है उन्ही को राग-द्वेप-ग्रस्त कहते है । असल मे फोटोप्लेट बड़ा राग-द्वेष रखती है। वह जकडती है जल्दी, फिर छोडती नही। राग भी पकडता है, द्वेय भी पकडता है। समाधिस्थ व्यक्ति दर्पण की तरह जीता है। वह न सम्मान को पकडता है और न गाली को। इसलिए महावीर के चित्त की अलगअलग स्थितियाँ नही है जिनका वर्णन किया जाय। इसलिए वर्णन नही किया गया। कोई स्थिति ही नही है। एक समता आ गई है चित्त की। गाली देनेवाले या कान मे कीले ठोकनेवाले भी उस चित्त को विचलित नहीं कर पाते। ऐसा कहना गलत है कि महावीर ने ऐसे लोगो को क्षमा कर दिया और आगे बढ गए । क्षमा तभी की जा सकती है जब मन मे क्रोध आ गया हो। क्षमा अकेली बेमानी है। तो मै आपसे कहता हूँ कि महावीर क्षमावान् नही थे क्योकि महावीर क्रोधी नही थे। वे शून्य भवन की तरह थे । भवन मे आवाज गूंजती थी, निकल जाती थी और फिर भवन शून्य हो जाता था। हम फर्नीचर से भरे लोग है, फोटो-प्लेट ने भीतर बहुत इकट्ठा कर लिया है, इसलिए आवाज गूंजती ही नही। अक्सर ऐसा होता है कि परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति ठीक जड-जैसा मालूम पडे, क्योकि हम जड को ही पहचानते है । परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चेजैसा मालूम होने लगे। उतना ही सरल, उतना ही निर्दोष । शायद बच्चे-जैसा व्यवहार भी करने लगे और तब हमारे लिए यह तय करना मुश्किल हो जाय कि यह आदमी मन्दबुद्धि है या परम ज्ञानी । लेकिन दोनो मे बुनियादी फर्क है । सन्त की सरलता ज्ञान की है। उसकी सरलता पूर्ण उपलब्धि की सरलता है । वह उन Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १२७ 1 अनुभवा से 'गुजर चुना है जिनसे बच्चे को गुजरना पडेगा । बच्चे की सरलता अनान का है। वह अभा निर्दोष दीखना है, लेकिन उसका निर्दोषता जाती रहगी । यह जटिल होता चला जायगा । किन्तु सत की सरलता लौट आई है वह फिर निर्दोष हो गया है । जब इस निर्दोषता के खो जाने का सवा नही है । ? ? जन एक अन्य प्रश्न पर विचार करें। पूछा जाता है कि क्या महावीर की अहिंसा पूर्ण विकसित है ? क्या महावीर के बाद अहिंसा का उत्तरोत्तर विकास नहीं हुआ पहली बात यह है कि कुछ ऐसी चीज हैं जो कभी विकसित नही होता - विकसित हो ही नही सकती । बुद्ध को नान उपलब्ध हुए पच्चीस सौ साल हो गए। यह पूजना यथ है कि अब जिन्हें नान उपलब्ध हुआ है वह बुद्ध के नान स विकमित है या नहीं ध्यान नान के विवमित होने का प्रश्न हा नहा उठता । ध्यान है स्वयं में उतर नाना । स्वय म चाह लास साल पहले उतरा हा जोर चाहे अब उत्तर - एक नहा परता । स्वयम उतरने का अनुभव एव है स्वयं में उतरन की स्थिति एक है । महावीर की बहिंसा उनको स्वानुभूति का ही बाह्य परिणाम है। भीतर उन्हाने जाना जीवन की एकता को और बाहर उनके व्यवहार में जीवन का एकता अहिंसा के रूप म प्रतिफलित हुए | अहिंसा का मतलब है जीवन की एकता का सिद्धात । इस बात का सिद्धान्त जो जीवन भरे मीतर है, वही तुम्हारे भीतर है । तो मैं अपन वा हा चोट क्स पहुचा सकता हूँ? मैं ही हूँ तुम्म भी फैला हुआ। जिसे यह अनुभव हुआ fa में ही सवम फैला हुआ हैं, या सब मुखरा ही जुड़े हुए जीवन हैं- उसके व्यवहार म अहिमा फलित होती है | अहिंसा कम और ज्यादा नही हुआ करती । वह वत्तव समान होती है या प्रेम के समान । जो वृत्त कम है वह वक्त ही नहीं है। प्रेम या तो होता है या नही होता--उसके टूवडे नहा होत, प्रेम विकसित तभी हो सकता है वह थोडा थोडा हो । अक्सर हमारी पसन्द विमित होता है इसलिए हम सोचत हैं कि प्रेमविवसित हो रहा है। पमाद और प्रेम में बहुत एक है । पसद कम और ज्यादा हो सकती है लेकिन प्रेम न कम होता है न ज्यादा। चाद तो वह होता ह या ही होता । दुनिया में जहिंसा, प्रेमजसी जी जन उपलब्ध होता है तो पूर्ण ही, अ यथा frage उपल ध नहीं होता । अनार की डिग्रियाँ होती हैं, पान की नहीं पाई यम जपानी हो सकता ह और कोई यादा अपनी। लेकिन एव जादमी कम पानी हो जार दूसरा ज्यादा पानी- यह बिलकुल ही बसगत, निरयय बात है। दो नियमनका फ्र नही होता, सिर्फ सूचना का का होता है। चूंकि हम बनानी हैं इसलिए छोटे-बड भाषा म जीते हैं और पानिया ने भी छाटे बड़े होने वा हिसाब लगाते रहत है। इस लिए ही तो पूछन हैं कि वीर बड़े कि नानक बुद्ध बडे र महावीर, राम वडे विष्ण, ब्राइस्ट जेक मुहम्मद ? पानिया में बाई छोटा-बडा ही हाता । एक Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महावीर : परिचय और वाणी सीमा है मनुष्य की । उस सीमा के बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाय तो फिर परमात्मा की कशिश उसे खीच लेती है । उसे कुछ करना नही पडता । उस सीमा के बाद कोई छोटा-बडा नही रह जाता । फिर सब पर बराबर कशिग काम करती है । उसी सीमा को मैं कहता हूँ विचार। जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार मे कूद जाता है उस दिन के बाद उसके लिए कोई छोटा-बडा नही रह जाता। हमारे सब भेद-भाव कदने के पहले के भेदभाव है । महावीर ने जो छलांग लगाई है वही कृष्ण की छलांग है, वही क्राइस्ट की । इसलिए अहिसा का कोई विकास नही होता । महावीर ने इसका कोई विकास किया हो, इस भूल मे भी नही पडना चाहिए । अनुभव की अभिव्यक्ति मे भेद है, अहिंसा का अनुभव समान है । ऐसा कुछ नही हे कि महावीर ने पहली वार अहिंसा का अनुभव किया हो । लाखो लोगो ने पहले भी किया था और लाखों लोग पीछे करेगे । यह अनुभव किसी की बपौती नही है । परिवर्तनशील जगत् में विकास होता है । शाश्वत, सनातन अन्तरात्मा के जगत् में विकास नही होता । महावीरजैसे व्यक्ति चाक की कील के निकट पहुँच गए है -- जहा कोई लहर नही, कोई तरग नही, जहाँ कभी विकास नही होता, गति नही होती। याद रहे - कील नही चलती, इसलिए चाक चल पाता है । जो कील का सहारा पकड़ लेता है, वह कभी चूर नही होता । अस्तित्व के विकासचक्र की कील का ही नाम परमात्मा, धर्म या आत्मा है । आप कहते है कि अहिंसक व्यक्ति का भी विरोधी पैदा होना अहिंसा के विषय मे सदेह पैदा करता है । ऐसी धारणा रही है कि जो अहिसक है उसका कोई विरोधी नही होता । जिसके मन मे द्वेष, विरोध, घृणा, हिंसा न हो, उसके प्रति घृणा, हिंसा और द्वेष कैसे हो सकता है ? ऊपर से यह बात बहुत सीवी और साफ मालूम पडती है | लेकिन जीवन ज्यादा जटिल है, सिद्धान्त जितने सरल होते है जीवन उतना सरल नही है । सच तो यह है कि पूर्ण अहिंसक व्यक्ति के विरोधी पैदा होने की सम्भावना अधिक है । उसके कई कारण है । पहला कारण तो यह है कि चूंकि हम सब हिंसक है, इसलिए हिंसकों से हमारी ताल-मेल बैठ जाता है, चूंकि अहिसक व्यक्ति हमारे वीच अजनबी है, इसलिए उसे वरदाश्त करना भी मुश्किल है | अहिंसक व्यक्ति की मौजूदगी मे हम इतने ज्यादा निन्दित प्रतीत होने लगते है कि इसका दला लिये बिना नही रह सकते । पूर्ण अहिंसक व्यक्ति हिसक व्यक्ति के मन में, अनजाने ही, तीव्र वदले का भावना पैदा करता है । 1 महावीर के लाखो विरोधी रहे होगे । यह स्वाभाविक है । लेकिन इससे उनकी अहिंसा पर सन्देह नही होता । इससे खबर मिलती है कि आदमी पूर्ण अजनवी था, Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचप और वाणी १२९ है ऐस अजननी को स्वीकार कर सरना कठिन था। जिसके लिए स्वीकार करना सरल घा उसके लिए वे भगवान थ। भगवान बनाना भी स्वीकार करने की ही एक तरकार है । यह दूसरी और आस्विरो तरकीव है जिससे हमन उहें मनुष्य-जाति से वाहर निकाल दिया है । अगर वहरे तब मेरी आवाज न पहुंचे तो यह नहीं कहा जा सकता कि मैं गंगा था। मेरे बोलने पर इसलिए शक नहीं किया जा सकता कि बहरा तक मेरी आवाज नहीं पहुँची। महावीर के अहिंसक होने म इसलिए एक नहा हो सकता कि हिमव चित्ता तक उनकी आवाज नहीं पहुंची। बहुत गहरे म हम बहरे हैं। इमो सम्बध में यह भी पूछा जाता है कि महावीर के प्रेम मे क्या कुछ कमी थी जो वे प्रखली गोशालय को समया न पाए ? निश्चित ही, पण प्रेम समझाने को पूरी यवस्था करता है । लेकिन इसमे यह सिद्ध नहीं होता कि पूर्ण प्रेमी ममया हो पाए । क्याकि दूसरी तरफ पूण धणा भी हो सकती है जा समझने को राजी न हो पूर्ण बहरापन भी हो सकता है जा मुनने को तैयार न हो। महावीर की अहिंसा पा जान करनी हो तो दूसरे की तरफ से जाच करना गलत है। सौरे महावीर को ही दसा उचित है। सरज का जानना हो तो किसी अचे आदमी को माध्यम बना पर जानने की कोशिश करना अनुचित है । रेकिन कई बार ऐमा होता है कि हमारी गुर की आंखें इतनी कमजोर होती है कि सीधा देसना मुशिल हो जाता है। इसलिए हम नीच के गुरुआ को सोजते हैं नाचार्यों से सम्पर कायम करते है, टीका. पारों बी सहायता लेते हैं । गीता को सीधा नही देसते, टीकाकारा के माध्यम से देखत है। यह भी याद रहे कि महावीर न 'सिद्धाता की चर्चा नहीं की और न अहिंसा, सय ब्रह्मापय अपरिग्रह अचीय आदि सिक्षात ही हैं। इसलिए इनक सीने प्रयोग पावात ही गलत है। इनका सोचा प्रयोग हो ही नही सक्ता । उदाहरण के लिए उम भादमी को लें जो भूमा इकटरा करना चाहता है। एमे व्यक्ति को गेहूं बोना पडता है भूमा नहीं । अगर यह भूसा पदा करन के लिए भूसा ही वो दे तो जो पास का मूसा है यह भी खेत म सङ जायगा कुछ भी पदान होगा। अरिसा, अपरिग्रह अचीय, अस्तेय-ये सिद्धात नहीं हैं उप-उत्पतियाँ है भूसे की तरह । जहाँ समाधि पदा होती है वहाँ य सर भूसे की तरह आप ही पदा हा जात है। अहिंसा, सत्य आदि छाया की तरह पाते हैं समाघि अनुभव म। च्याा आया पि उसके पीछे पाया की सरह ये सब आ जात हैं। महावीर ने अहिंसा नही साधी क्योकि हिंमा सायन वार सिफ हिसा यो दरात हैं। मार दवी हुई हिंसा से पो अहिम नहीं होता। अगर किसी व्यक्ति ने काम को रोका और ब्रह्मचय साया तो उमये प्रह्मचय के भीतर जगह्मवय और व्यभिचार हा मिलेंगे। मरावीर के भीतर है समाधि और थाहर है Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० . महावीर : परिचय और वाणी ब्रह्मचर्य । अगर उन्होने ब्रह्मचर्य की साधना की होती तो ब्रह्मचर्य होता बाहर और . भीतर होता व्यभिचार । महावीर जैसे व्यक्ति को समझना हो तो वाहर से भीतर की ओर देखने की कोशिश न करना । भीतर से बाहर की ओर देखना। महावीर की जो उपलब्धि है, वह है समाधि । उपलब्धि की जो उप-उत्पत्तियाँ है वे है सत्य, अहिसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि । न तो ये सिद्धान्त है और न इनके सीधे प्रयोग की ही कोई जरूरत है। हाँ, करने की कोशिश की है वहुत लोगो ने और वे कोशिश मे विफल हुए है, विकृत हुए है। प्रयोग तो करना है ध्यान का । सत्य, ब्रह्मचर्य आदि आएँगे छाया की तरह । अहिंसा नही साधनी है, साधना है ध्यान । अहिसा फलित होती है। जैसे ही समाधि फलित होती है वैसे ही कुछ चीजे विदा हो जाती है। हिसा विदा हो जाती है, क्योकि समाधिस्थ चित्त के साथ हिंसा का सम्बन्ध नहीं जुडता । अक्सर हमे लगता है कि महावीर साधु बने और दूसरो को भी साधु बनाने के लिए कहते रहे। यह हमे इसलिए लगता है कि हम असाधु हे और हमारी धारणा है कि अगर हमे साधु होना हो तो साधु बनना पडेगा। सच्चाई यह है कि साधुता आती है, साधु बनना नहीं पड़ता। जो साधु वनता है उसकी साधुता थोथी, झूठ, आडम्बर-मात्र होती है। साधु बनना अभिनय की बात है। 'महावीर साधु वने'-- यह उनके लिए गलत शब्दों का प्रयोग है। बनना होता है चेष्टा से; महावीर साधु हुए मात्म-परिवर्तन से। महावीर ने किसी को भी साघु बनने के लिए नहीं कहा । उन्होने कहा कि जागी असाधुता के प्रति और तुम पाओगे कि साधुता आनी शुरू हो गई है। प्रयास करके हम चाहे कुछ भी वन जायें, पर साघु नही बन सकते । साधुता तो आत्मपरिवर्तन है, पूरा-का-पूरा आत्मपरिवर्तन । शायद महावीर को पता भी न चला होगा कि वे साधु हो गए है। होने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त धीमी, शान्त और मौन है। वनने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त घोषणापूर्ण है, बैड-बाजे के साथ चलती है। आप ध्यान का छोटा-सा प्रयोग करे। यह आत्म-स्मरण का प्रयोग हो। आधा घटा रोज बैठकर स्वय रह जाएँ, सब भूल जाएँ। मन मे जुआ न खेले, उतनी देर मन मे शराव न पीएँ, मास न खाएँ--बस इतना बहुत है। छह महीने के प्रयोग के बाद आप कहेंगे---जो आनन्द मैंने उस आधे घटे मे पाया वह सारे जीवन मे न मिला। तव आप मास नही खा सकते, शराब नही पी सकते। महावीर का ध्यान ऐसा हा था। जो उस ध्यान से गुजरेगा वह मासाहार नही कर सकता। महावीर किसी को नही कहते कि मांसाहार न करो । वह ध्यान ही ऐसा है कि उससे गुजरनेवाला व्यक्ति मासाहार कर ही नहीं सकता। वह ध्यान इतने जागरण और आनन्द में ले जाता है कि शराब का क्षणिक आनन्द उसके सामने ठहर नहीं पाता। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय जर वाणी ५ बहन है कि यद्यपि महावीर समानता के समर्थक थे फिर भी उनके संघ म मास उपभित रहा था। इस सम्बाध में कुछ बुनियादी बातें व्यान में रखनी हामी । पहली बात तो यह है कि महावीर के मन में स्त्री पुरुष के बीच असमानता का कोई भाव न था । समानता की पक्ड इतनी गहरी थी कि मनुष्य और पशु म भा मनुष्य और पौधे में भी वे असमानता का भाव नही रक्त थे फिर भी स्त्री । सूक्ष्म वारण है । पुरुष व पक्ष म पुस्प के बीच साधु-सव में उन्होंने कुछ भेद किया था जिसके कुछ महावार स्त्री वे विरोध म नहीं है स्त्री चित्त के विरोधी हैं। वे नही ह लfer पुम्प होने का एक गुण है उस पक्ष में है । पुरुषत्व का जय है afrat | महावीर का माग मी सत्रियता का भाग है। उनकी पूरी साधना-जसा मैंने पहल भी कहा है-सकल्प जोर श्रम की सावना है। तो महावीर कहते हैं fr स्त्रीषो भी अगर सत्य पाना है तो पुरुष होना पड़ेगा । इसी बात का होगा ने गत समझ लिया । एमा समझ लिया कि स्त्री योनिस मोक्ष असम्भव है । बात बिलकुल दूसरी है । पुरुष यानि स ही मोन हो सकता है महावीर के माग पर लेविन पुम्प योनि वा मतब गरीर से पुग्प हो जाना नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है निष्कि यता वा त्याग। जिस प्रकार ना को वक्ष का सहारा चाहिए उसी प्रकार स्त्री भी पुरुष का सहारा मांगती है । महावीर महारे व एक्दम मिलाफ है । तुमने सहारा मांगा कि तुम पर हुए १३१ जनावे एवं तीयवर है - महलीवाइ । मलीबाई स्था थी, रोविन दिगम्बरा उन्हें मीनाथ कहा है। उन्हें स्त्री कहना वास्तव में बमानी है। उन्होंने कोई महारा नहीं मांगा। इमलिए स्त्री मी ? मालीबाई वहा ही नही दिगम्बरान । उन्होंने कहा- मल्लीनाथ | पीछे झगडा वडा हो गया मिलीबाई स्त्री थी या पुरुष ? दिगम्बरो न यहा-पुरप वेताम्बरा ने कहा- स्त्री । दोनों ठीक है । मल्लाबाई स्त्री था लेकिन उन चित्ती स्त्रिया जंगी न थी । 1 वो पुरुष थे मगर उनके पास स्त्रिया या चित्त था। वे रवीद्रवाई पर जा सकत हैं। शायद सभी कविया 4 पास ऐसा हो जीवित होता है। अस जम ही नहीं हो सकता पुरष चित्त से मत स्वप्न और पल्पना का है। असल में यदि महावीर कष्टम न पुम्प ऊँचा है और न स्त्रीनीची है। रिव यह नो महत हैं कि स्त्री चित्त को मान नहीं है। स्त्री मी मात्र यी अधिवारिणा है लि होना चाहिए। हो, यति मीराय माग मे जाना हो तो स्त्री चित्त हा सिलिए कोई मुक्ति नहीं है। महावीर का भाग पुष्यवा भाग है इसलिए उस भाग पर स्त्री में लिए जान नहीं है। यह भी है चित । स्त्री का पूरा चित वाक्य, है निष्यि वित्त । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महावीर : परिचय और वाणी कि अधिक लोग वीच का रास्ता पकढ़ते है जिसमें वे ध्यान भी करते है और पूजापाठ भी। ध्यान पुरुपमार्ग का हिस्सा है और पूजा स्त्री-मार्ग का हिस्सा। दोनों के घोल-मेल से मक्त होना मुश्किल है। महावीर के मार्ग पर स्त्रियां उपेक्षित हैं, ऐसा नही है, बल्कि स्त्री-चित्त उपेक्षित है जमा कि मीरा के मार्ग पर पुरुप-चित्त उपेक्षित है। एक साध्वी ने कहा है कि महावीर के मार्ग पर यह बडी वेवूझ वात है कि एक दिन के दीक्षित साघु को भी सत्तर वर्ष की दीक्षित साध्वी प्रणाम करेगी। यह पुरुप के लिए बहुत सम्मान की बात जान पाती है और लगता है कि इससे स्त्री को बहुत अपमानित कर दिया गया। वात उलटी है। महावीर ने यहाँ अद्भुत मनोवैज्ञानिक सूझ का परिचय दिया है। फ्रॉयड के पहले किसी आदमी ने ऐसी सूझ नही दिखलाई। लेकिन सूझ इतनी गहरी है कि दिसलाई नही पडती। चूंकि आक्रामक पुरुप-चित्त ही पाप मे ले जा सकता है, स्त्री कभी नही, इसलिए महावीर ने बड़ा मुगम उपाय किया है कि स्त्री पुरुष को आदर दे। स्नी जिस पुरुष को आदर देती है, उस पुरुष के अहकार को कठिनाई हो जाती है उस स्त्री को पाप की ओर ले जाने मे। इसलिए महावीर ने कहा कि स्त्री कितनी ही वृद्धा हो, पुरुप को आदर दे, उसके पैर छू ले, ताकि उसके अहकार को कठिनाई हो जाय और वह स्त्री को पाप मे ले जाने की कल्पना भी न कर सके । अगर ध्यान से देखा जाय तो मालूम होगा कि झुकती तो स्त्री है, किन्तु सम्मान उसे ही मिलता है, पुरुप का अनादर होता है। लेकिन यह देखना जरा मुश्किल मामला है । यह भी ध्यान रखे कि महावीर के तेरह हजार साधु थे और चालीस हजार साध्वियाँ। यह अनुपात हमेशा ऐसा ही रहा है। साध्वियां जितनी साध्वियां होती है, साधु उतने साधु नही होते । चूंकि वे किसी भी काम मे पहल नही करती, इसलिए जहाँ भी होती हैं वे वही रुक जाती है। अगर स्त्री को काम-वासना मे दीक्षित न किया जाय तो वह आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन कर सकती है। स्त्री को काम-वासना मे भी दीक्षित करना पडता है, धर्म-साधना मे भी दीक्षित करना पडता है-वह पहल लेती ही नही। इसलिए निर्दोष लड़कियाँ मिल जाती हैं, निर्दोष लडके बहुत मुश्किल से होते है। चूंकि लडकियाँ कभी कोई पहल नही दे सकती, इसलिए महावीर ने व्यवस्था की कि हर स्थिति मे साध्वी साधु को आदर दे। इससे पुरुप के अहकार की भी वडी तृप्ति हुई। साधुओ ने समझा होगा कि हमारा वड़ा सम्मान हुआ। वे आज भी यही समझ रहे है। लेकिन इस व्यवस्था का कारण विलकुल मनोवैज्ञानिक था। अगर एक स्त्री आपके पैर छू ले तो आप उस स्त्री को काम की दिशा मे ले जाने मे एकदम असमर्थ हो जायँगे, आपके अहकार को वडी वाधा होगी। आप उस सम्मान की रक्षा करना चाहेगे। यदि इस विधान के विपरीत पुरुप ही स्त्री के पैर छूता तो वात Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १३३ उलटी होती । याद रहे कि स्त्री की कामुकता उसके पूरे शरीर में व्याप्त होती है । चूँकि पुरुष की कामुकता मिफ नाम केद्र के पास होता है इसलिए उसे सिफ सम्भाग से आनन्द आता है । अगर पुरुष स्त्री के पर भी छू ले तो स्त्री म काम को सम्भा वना जाग्रत हो सकती है । महावीर की इस मनोवैज्ञानिक व्यवस्था की एमी व्याख्या किसी और न नही वी । अन तब के व्याख्याकार यही कहते रह हैं कि महावीर की इस यवस्था वा कारण यह है कि पुरुष की यानि ऊँची है और स्नी वा नीची, इसलिए स्त्री ही पुरुष यानि को नमस्कार करे । महावीर ने मनुष्य के चार वर्गीकरण किए हैं-श्रावक, धाविका, साधु, साध्वी । उनकी माधना पद्धति श्रावन से शुरू होती है या श्राविका से । कोई सीधे ही एक्दम साधु नही हो सकता । पहले उन श्रावक बनना होगा। साधना, ध्यान और सामायिक श्रावका के लिए हैं। जब वे इनस गुजर जाएँ तव व साधु-जीवन भ प्रवेश कर सकते हैं । महावीर किसी को पहले ही माधु की दीक्षा नहीं देते। यह भी आवश्यक नही कोई साधु बने हो । श्रावक रहवर भी मोक्ष पाया जा सकता है । सिर महावीर ने ही यह कहने की हिम्मत की है। साधु होना अनिवाय नहीं है । मान लीजिए कि आप गहरे ध्यान में गए और आपका वस्त्र पहनना ठीक मालूम पडता है तो आप वस्त्र पहनना जारी रखें। यदि वस्त्र अनावश्यक प्रतीत हा तो छोड़ दें, अयथा नही । अयान- महावीर की आस्था है कि घर में रहकर ही यदि कोई ध्यानस्य हो जाता है तो वह घर न छोडे । अगर उसे लगता है कि घर व्यय हैं तो वह उसे छोड दे । परम्परा से प्रामाणिक एवं निर्णीत' महावीर के जीवन का यह बोद्धिष एव तथ्य पूर्ण विश्लेषण समाज को स्वीकृत हो यह आवश्यक नहा समाज वो मेरी बातें स्वीकृत हो इसका मुये ध्यान नही । समाज वा स्वोक्त हान से ही यह विश्लेषण ठीक हो सकता है ऐसी भी कोई बात नहा । प्राथमिक रूप से जो में कह रहा हूँ समाज से उनकी अम्वीकृति को ही अधिक सम्भावना है लेकिन अगर जा में वह रहा हू वह बुद्धिमत्ता पूर्ण, वनानिक एवं तथ्यगत है तो अस्वाकृति को टूटना पडेगा -- अस्वीकृति जात नहा सवना । और अगर यह तथ्यपूर्ण नहा है अवानिव ह ता अस्वीकृति जीत नायगी । मैं इस पर ध्यान नहीं देता कि मेरी जाता का कोन स्वीकार करता है कोन अस्वीकार । मुये जो सय मालूम पडता है, वह मैं वह देता हूँ। अगर वह सत्य होगा ता भाज नहा वर स्वीवार पर लिया जायगा । असत्य का वर्षो तक चले तो भी वह असत्य ही है। सत्य मिलन चल पाए ता भी वह मत्य है । असत्य स्वीकृति म जाता है, किन्तु सत्य स्वीकृति को परवा नही परता । वह अस्वीकृति म जो लेता है क्यापि उस पास अपने पर है, अपना सांस Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महावीर : परिचय और वाणी है, अपने प्राण है और वह अनन्त काल तक प्रतीक्षा कर सकता है। मुझे चिन्ता नही कि लोग मेरी वातो को माने ही । जिस व्यक्ति को ऐसी चिन्ता होती है वह कभी सत्य बोल ही नही सकता । जैसा हमारा समाज है, उसके जीने के लिए असत्य अनिवार्य-सा हो गया है । यदि दुःख, पीडा, शोपण, अहकार, द्वेप आदि से भरे हुए इस समाज को जिलाना हो तो वह असत्य पर ही जी सकता है। अगर ऐसे समाज को बदल कर प्रेम से भरे हुए एक नए समाज की स्थापना करनी हो जिसमे ईर्ष्या-द्वेप, घृणा-महत्त्वाकाक्षा आदि न हो तो फिर इसकी नीव सत्य पर कायम करनी होगी। सभी चाहते है कि आनन्द मिले, लेकिन वे स्वय को बदलना नही चाहते । वे चाहते है कि प्रकाश मिले, लेकिन उन्हे ऑख न खोलनी पडे। याद रहे कि महत्त्वाकाक्षी चित्त कभी भी आनन्दित नही हो सकता। उसे जो भी मिल जायगा उससे उसकी तृप्ति न होगी और जो नहीं मिलेगा उसके लिए वह पीडित रहेगा। महत्त्वाकाक्षा और आनन्द मे विरोध है। प्रेम देना कोई भी नही चाहता, प्रेम मॉगना चाहता है। यह भी ध्यान रहे कि जो आदमी प्रेम देने की कला सीख जाता है, वह कभी मॉगता ही नही। मॉगता सिर्फ वही है जो दे नही पाता। हमारी यही कठिनाई है कि हम हमेशा से यही चाहते रहे है कि आनन्द हो, शान्ति हो, प्रेम हो, लेकिन जो हम करते है वह इनका एकदम उलटा होता है। उससे न शान्ति हो सकती है, न प्रेम और न आनन्द । प्रत्येक व्यक्ति द्वेष मे जी रहा है, ईर्ष्या मे जी रहा है और चाहता है कि उसे आनन्द मिले। मगर ईर्ष्यालु चित्त कभी आनन्द नही पा सकता। ईर्ष्या और आनन्द परस्पर विरोधी अनुभूतियां है। उनके विरोध के प्रति सजग हो जाना ही साधना की शुरुआत है। जैसे ही कोई इस बोध को उपलब्ध हो जाता है कि ईर्ष्या से भरे हुए चित्त मे आनन्द का वास नही हो सकता, वैसे ही क्रान्ति शुरू हो जाती है, क्योकि विरोध दिख जाए तो फिर उसमे जीना मुश्किल है। ____ अन्त मे एक और प्रश्न पर विचार करे। इसमे सन्देह नही कि जिस प्रकार आसक्ति अथवा राग कर्म-बन्ध का कारण है उसी प्रकार द्वेष और वृणा भी। तब महावीर ने ससार, शरीर आदि के प्रति घृणा का भाव पैदा करके ससार त्याग का उपदेश क्यो दिया ? राग-द्वेप दोनो एक ही तरह के उपद्रव के कारण है। राग का ही उलटा द्वेप हैराग शीर्षासन करता हुआ द्वेष है। दोनो फाँसते है, दोनो बाँध लेते है । मित्र भी वाँचता है, शत्रु भी बांधता है । न तो हम मित्र को भूल पाते है और न शत्रु को। कभी-कभी तो शत्रु के मरने से हमारा वल ही खो जाता है, क्योकि वल उसके विरोध मे वनकर आता है। लेकिन जिसे बधन ही दुख हो गया, वह न मित्र Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी बनाता है और न शनु । वह अपनी ही जिदगी को दूर खडा होकर दसने लगता है, सुद प्रप्टा हो जाता है, राग-द्वेप में बाहर हो जाता है। वर्ता हम गा राग-द्वेप स पिरा हाता है जकर्ता साक्षी बन जाता है। महावीर ससार या शरीर के प्रति द्वेष नहीं सिखाते । लकिन जिहाने महावीर का नहा समया व जर एसी ही शिक्षा देत हैं। गरीर से ऐसा प्रेम करनवाला आदमी मुश्किल से पदा हुमा होगा । ससार के प्रति न तो वेप सिखाते हैं और न राग करन की सलाह देते हैं, क्याकि वे तो वहते ही यह है कि द्वप बांध लेता है, प्रेम वाध रता है। वे द्वेप सिखा ही नहीं सकते। व सिखात हैं कि अपने द्वेप अपने राग, अपनी पणा अपन प्रेम-इन सबके प्रति जाग जाआ। इहें जागकर दख लो। जिस दिन इहें पूरी तरह देख लोगे उस दिन पाजागे कि राग विराग, मित्रता गनुता एक ही चीज के दो छोर हैं एक ही सिक्के के दो पहलू है। महावीर वाएँ जाना नहीं सिखा सक्त क्यानि व जानते हैं कि जो वाएं जायगा उसे दाएँ जाना पडेगा ! वे एक ही बात सिसा सकते हैं विन तुम बाएं जाओ न दाए-ठहर जाओ बीच में खडे हो जाओ। न उप रह और न घणा न राग और न विराग। ध्यातव्य है कि महावीर विरागी नहीं हैं । वस्तुत जो विरागी उनके पीछे पड़े हुए है, वे गल्ती म पडे हुए हैं। महावीर को उन विरागिया से कुछ लेना-देना नहीं है, क्याकि विरागी हुए कि उहाने राग अजित करना शुरू कर दिया ! महावीर कहत हैं कि प्रेम द्वेष दोनो को देख लो। दाना को पहचान ला । फिर तुम जपने म आ जाओगे। तीन दिनाएँ हैं।' एक प्रेम की मार ले जाती है दूसरी घणा की ओर। जो इन हद्वा से बच जाता है वह निषोण के तीसरे विदु पर आ जाता है जहा जाना आना नहीं है सिफ ठहर जाना है। वहाँ प्रना स्थिर हो जाती है। यहाँ ठहर पर हम देख पाते हैं। यगर राग और द्वेप को देखना है ता पिसी की और न जाएँ। ठहरकर देख में कि राग क्या है द्वेप क्या है मोघ क्या है। यह केवल ध्यान की भूमिका है। जस ही कोई स्वय म ठहर जाता है वसे ही वह उस द्वार पर पहुँच जाता है जहा स नान की शुरआत होती है। लेकिन स्वयम खडा हाना पहला विदु है । फिर वहा से यात्रा भीतर की मार हो सकती है। राग उप म होत का अथ है स्वय के बाहर हाना कही और होना । जा आदमो धन इक्टठा परने म लगा है उसका ध्यान धन पर हागा और जा धन के त्याग म लगा है उसका मी घ्यान वन पर। धन पर ही दष्टि होगी उन दोना की। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय निगोद और अन्तर्यात्रा सिद्धाण वुद्धाण पार-गयाण परपर-गयाण । लोअग्गमुवगयाण, नमो सया सब-सिद्धाणं ।' --'सिद्वाण वुद्धाण'-मत्र (सिद्धाण-ई) निगोद की धारणा महावीर की मौलिक धारणा है। इसका अर्थ है-बन्धन मे प्रमुप्त आत्माओ का लोक । निगोद प्रथम है, मोक्ष अन्त मे और मंमार मध्य मे । निगोद से उठकर आत्मा ससार मे आती है, मसार से उठकर मोक्ष मे। मोक्ष है मुक्ति, निगोद है पूर्ण अमुक्ति जहाँ बिलकुल अन्धकार है, जहाँ गहरी निद्रा है-यानी जहाँ इमका भी होश नही है कि बन्धन है। निगोद मछित आत्माओ का वह लोक है जहाँ से आत्माएं धीरे-धीरे उठती है और इस मध्यम लोक मे आती हैं। ससार है स्वप्न, निगोद है निद्रा और मोक्ष है जागृति । अब प्रश्न उठता है कि आत्माएँ कहाँ से आती है ? महावीर यह नहीं मानते कि आत्माओ का सृजन होता है। आत्माएँ सदा से है। परन्तु वे आती कहाँ से है ? महावीर कहते है कि इस जगत् मे ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनन्त न हो। कोई भी चीज सख्या मे हो नहीं सकती, क्योकि अगर चीजे सख्या मे हो तो फिर जगत् असीम नही हो सकेगा-और जगत् सीमित नही है। निगोद का अर्थ है-अनन्त आत्माएँ जहाँ प्रसुप्त है और वह भी अनन्त काल से । आत्माएँ एक-एककर उठती है और ससार मे प्रवेश करती है, फिर ससार से मुक्त होती चली जाती है और दूसरे लोक मे पहुँचती है जहाँ वे परम चैतन्य को उपलब्ध हो जाती है। प्रश्न है कि क्या कभी ऐसा भी होगा कि सभी आत्माएँ हो, जायंगी ? नही ऐसा कभी होने को नही, कारण कि आत्माएँ अनन्त है । 'अनन्त' शब्द हमारे खयाल मे नही आता, क्योकि हमारा मस्तिष्क अनन्त की धारणा को नही पकड पाता । अनन्त का मतलव है जहाँ सख्या होती ही नही । लेकिन असंख्य का मतलब अनन्त नही होता । १. सिद्धिपद को प्राप्त किए हए, सर्वज्ञ, संसार का पार प्राप्त किए हए, परम्परा से सिद्ध वने हुए, और लोक के अग्रभाग पर गए हए, ऐसे सर्वसिद्ध भगवन्तो के लिए सदा नमस्कार हो। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १३७ तो निगोद का अर्थ है मूछित आत्माआ का लोप । ससार है जब मूछिन आत्माआ का राव, मोक्ष है परम अमूछिन आत्माआ का लोव । चूमि हमारा मन सल्याआ म हो सोचता है इमरिए निर तर यह सवाल उठता है वि अमूछिन आत्माएँ कितनी है और क्तिी मुक्त हो गई हैं ? यह न भूलें कि आत्माएँ अनत काल से मुक्त हो रही ह आर मनन्त जात्माएँ मुक्त हो चुकी है । मजे की बात तो यह है कि अनत से विनना ही निवारो पीछे मनात ही शेष रह जाता है । गणित की बड़ी पहेलिया म से यह एक है कि अनत से हम कुछ भी निकाले, अनत ही शेप रहता है। इसलिए निगोद आज भी उतने का उतना ही बना रहगा। आत्माएँ मुक्त होती चली जायेंगी, लेकिन माम भीड नहीं बढ़ेगी। मामाय गणित इस रहस्य को सुलझा नहीं सकता। फितु गणित की कई बाते आज गलत सिद्ध हो चुकी हैं। उन्गहरण लिए नयी ज्योमेटी की इस धारणा को लें कि मोची रेया होती ही नहीं। चूकि जमीन गोल है, इसलिए क्तिनी सीधी रेखा क्या न हो यदि तुम उसयो दोना तरफ बताते चले जाओ तो अत म वह वत्त वन जायगी। ममी सीधी दीखनवाली रखाएं वत्त वा हिस्सा हैं और वत्त का हिम्सा सीधा नहीं हो सकता। इसलिए जगत में कोई रेसा सीधी नहीं है। यह भी हमारे खयाल म आना मुश्किल है। साधारण गणित कहता है कि विदु वह है जिसम लम्बाई चौडाइ नहीं है, मगर ज्योमेट्री बहती है कि जिसम लम्बाई चौडाई न हो वह तो हो ही नही मक्ता इसलिए कोई विदु नहीं है-ममी रेखाआ के बड हैं, छोटे खड। रेखा है बडे वत्त वा खड और पिदु है रेषा या खड । सभी विदुओ मरम्बाई-चौडाई होती है। सख्या विलकुल ही झूठी बात है, आदमी की ईजाद है। यहा कोई भी ऐसी चीज नहीं जिसकी मन्या हो । प्रत्येक चीज असत्य है और अगर हम अरास्य का पयाल करें तो गणित बेकार हो जाता है। वह बना है काम चलाऊ हिसाब से सख्या से । इस काम चलाऊ गणित से अगर हम जगत के सत्य का जानने जायग तो हम मुश्किल म पड जायेंगे। महावीर को बात गणित से उरटी है । वस्तुत जो भी सत्य के खोजी हैं उनकी बात गणित से उलटी होगी। इसलिए उपनिपद भी कहती है कि वह पूण ऐसा है कि उमसे अगर तुम पूर्ण को भी बाहर निकाल लो तो पूण हीरोप रह पाता है। उसम जरा भी कमी नहीं पड़ती। हम जब भी कुछ निकाल्त हैं तव पीछे कमी पड़ जाती है क्यानि मा सीमित से ही कुछ निकाला है सदा । अगर हमने असीमित स भी कुछ निकाला होता तो हम पता चलता। अमीमित रा म कुछ भी अनुभव नहीं । १ ॐ पूर्णमद पूर्णमिद पूर्णात पूणमुदच्यते । । पूर्णस्य पूणमादाय पूणमेवावलिप्यते ।। -ईगावास्योपनिषद १ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महावीर : परिचय और वाणी इसलिए निगोद अनन्त है, उसमे कभी कमी नहीं पड़ती। मोक्ष अनन्त है, वहाँ कभी भीड नहीं होती। दोनो के बीच का समार भी अनन्त है, क्योकि दो अनन्तो को जोडनेवाली चीज अनन्त ही हो सकती है। दो अनन्तो का जो मेतु बनता है, वह सीमित कैसे हो सकता है ? अनन्तो को अनन्त ही जोड सकता है। और यह भी स्मरण रहे कि निगोद से आत्मा सीधे मोक्ष तक नहीं पहुंच सकती। मूछित आत्मा को अमूर्छा के रास्तो से गुजरना ही पड़ता है। जब आप निद्रा से जागते है तो विलकुल जाग नही जाते; बीच मे तन्द्रा का एक काल है, जिससे आप गुजरते है। सोने और जागने के बीच तन्द्रा का एक अल्माधिक काल होगा ही, चाहे वह कितना ही छोटा क्यो न हो, जब आप न तो जाग गए होते है और न सोए हुए। सोने की ओर भी झुकाव होता हे और जागने की ओर भी। निगोद से सीधे कोई मोक्ष मे नही जा सकता। ससार से गुजरना ही पड़ता है। यह भी संभव नहीं कि मुक्त आत्माएँ पुन समार को लौट आएं। निगोद से ससार और ससार से मोक्ष की यात्रा जल की यात्रा की तरह नही है। जल भाप वनता है और फिर बादल। बादल वरम कर समुद्र में पुन आ मिलता है। यह न भले कि पानी, भाप और समुद्र तीन चीजें नही है। जल का चक्र एक ही चीज का यात्रिक चक्र है। पानी के बीच से कोई बंद मुक्त होकर पानी के बाहर नही हो पाती। चक्र घूमता रहता है। जहाँ तक मोक्ष का सम्बन्ध है, वहाँ से लौटना मुश्किल है। हाँ, ससार मे कोई चक्कर लगा सकता है। एक मनुष्य हजार वार मनुष्य होकर चक्कर लगा सकता है, क्योकि वह सोया हुआ है। अगर वह जाग जाय तो चक्कर लगाना वद कर दे, वह बाहर हो जाय चक्कर के । चूंकि मोक्ष समस्त चक्कर के बाहर हो जाने का नाम है इसलिए उससे लौटना असम्भव है। पदार्थ का जगत् निगोद मे है। हम कह सकते है कि पानी गरम करेंगे तो भाप बनेगा ही। ऐसा जल नही देखा गया जो कहे कि मै भाप नही बनूंगा। उसके पास कोई चेतना नहीं है । हम पानी के सम्बन्ध मे कह सकते है कि वह भाप बनेगा ही। लेकिन मनुष्य के सम्बन्ध मे ऐसे निष्कर्ष निकाले नहीं जा सकते और न कुछ पूर्व सूचनाएं ही दी जा सकती है। यह जरूरी नही कि जिसे हम प्रेम दे वह हमे भी प्रेम दे। मनुष्यो के सम्बन्ध मे, उनकी प्रतिक्रियाओ के सम्बन्ध मे भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, कारण कि उनमें चेतना है। पदार्थ की सारी व्यवस्था यात्रिक है, मनुष्यो की नही। पदार्थों के नियम है-- यथा, पानी को गर्म करते जाओ तो एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होगी कि पानी भाप वन जायगा। यह तिब्बत मे करो या अफ्रीका मे। वह भाप बनेगा ही। लेकिन जैसे- जैसे हम ऊपर जाते है, वैसे-वैसे हमारी यात्रिकता टूटती चली जाती है और आदमी मे आकर यह वहुत शिथिल हो जाती है । आदमी के सम्बन्ध मे पक्का नही कहा जा सकता कि वह क्या करेगा? तरह-तरह के लोग है और उनकी तरह-तरह की चेतना है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १३९ मोक्ष में तो प्रेडिक्न ( भविष्यवाणी ) ही नही हा गरती । वहाँ तो वात्माएँ पूर्ण मुक्त हैं | मनुष्य वा पूर्ण वितान बनाना है। किसी का हम गाली तो साधारणत वह ना परेगा रविन कोई महावीर भी मिल सकता है जा गाली सुनकर भी चुप चाप सहा रह और श्राध न वर । आदमी जितना ही चेतन हाता जायगा वह उतना ही 'डिक्शन व बाहर होगा। जितना नीचे उतरेंग, चक्र उतना ही सुनिश्चित है। जितना उपर उठेंगे, चार उतना ही गति है । पूणतया ऊपर उठ जान पर चार नहा रह जाता सिर्फ आप रह जाते हैं बाई दबाव और दमन नहा होगा। यहा मुक्ति और स्वतंत्रता या अय है । घुसे मोक्ष की भोर जो यात्रा है, वह चेतन स चेतन की ओर पाया है । २ मैंने कहा है कि महावीर की आत्मा मुक्त होकर भी वापस आ गई थी। क्या मुक्तात्माएँ धूम पिरवर फिर महा पहुँच जाती ? महायान में वहा गया है कि बुद्ध का निर्माण हुआ और वे मोग में द्वार पर पहुँच गए। जब द्वारपाल न उनका स्वागत किया और मोतर चलन को यहा तब बुद्ध जयाब दिया जब तब पथ्वी पर एक व्यक्ति भी अमुक्त है तब तरीक जाऊँ ? अगाभन है यह । अभी पथ्वी पर बहुत लोग बचे हैं लगी हैं।' इशा यह पर बुद्ध आनंद में प्रवेश पर गए। ट यह कहानी महायान बौद्धा में प्रति है । दगा अप यह है वहा जाना ही मोक्ष म प्रवण वरना नहीं है। सुबा होता मात्र या प्रकार है। मुक्त होकर ही गाई व्यक्ति माक्ष में प्रपाता है, अन्यथा नहीं । मुक्त हो जाना ही प्रथन करना रहा है। द्वार पर पहुंदर भी कोई है हा यापिएर बार वापस न पा उपाय ना है। जाउ हुआ है वह अगर अभिव्यक्ती हा पाया और मिस्ण है या अगर वोटा 7 जागरा वा जीवन म एक बार फिर वापस जाती है। न जान पर भीमा या दूर जाती है। बम ही अगर यामा में गुति हा जा पादरजा जाता है मारवाना पागो पाटीरता है--7 व्यतिगामी एक जीवन के लिए यह कोट आ गया है। म हर अवतार है ता व्यक्ति पर आर श्रीट गियर दो मोटा है और वो Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी सभी मुक्त व्यक्ति रुकते हो, ऐसा भी नही है । लेकिन जो व्यक्ति रुक जाते है वे हमे ईश्वरीय दूत जैसे लगते हैं, क्योकि वे हमारे वीच से नही आते । वे उस दशा से लौटते हे जहाँ से साधारणत कोई भी नही लोटता । इसलिए ऐसे व्यक्तियो के सम्बन्ध मे अलग-अलग धर्मो मे अलग-अलग धारणाएँ प्रचलित है । हिन्दू उन्हें अवतार कहते है और मानते हैं कि उनके रूप मे ईश्वर स्वयं उतर रहा है-वहाँ से उतर रहा है जहाँ हम जाना चाहते है । स्वभावतः अवतरण की धारणा बनानेवालो को इसका खयाल न रहा कि वह व्यक्ति भी यात्रा करके ऊपर गया होगा, तभी तो वह वापस लोटा है । इस आधे हिस्से पर उनकी दृष्टि नहीं गई । जैन धर्मानुयायियो ने अवतरण की बात ही नहीं की, उन्होने तीर्थकर कहा जिसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसके मार्ग पर चलकर कोई पार जा सकता है। लेकिन पार उतरने का इशारा वही दे सकता है जो पार तक गया होगा । तीर्थकर से उस व्यक्ति का बोध होता है जो उस पार को छूकर लोट आता है। मैं मानता हूँ और यही उचित भी भी है कि पार गया हुआ व्यक्ति कम-से-कम एक बार लौटकर खबर दे और बताये कि उसने क्या देखा और पायाउस पार । जैनो ने अवतर की बात नही की, क्योंकि ईश्वर की धारणा उन्होने स्वीकार नही की । इसी प्रकार ईसाइयो ने न तो तीर्थकर की धारणा की ओर न अवतार की । उन मुक्तात्माओ के लिए जो लोट आए है वे 'ईश्वरपुत्र' का प्रयोग करते है । उनका खयाल है कि ईश्वर के सम्बन्ध मे जो खबर देता है वह ईश्वर के उतना ही निकट होगा जितना वाप के निकट वेटा होता है । बेटा बाप के प्रांणो का हिस्सा होता है । ईश्वर पुत्र ईश्वर की खबर तभी दे सकता है। जब वह सचमुच ईश्वर का वेटा हो, जब ईश्वर का ही खून वहता हो उनकी धमनियो से । जगत् में इस तरह की अन्य धाराएं भी प्रचलित है । १४० तो, मैं कह रहा था कि मुक्त व्यक्ति एक बार लौट सकता है । महावीर के अत्र लौटने का सवाल नही है । महावीर लौट चुके है | लेकिन बुद्ध के लौटने का सवाल अभी बाकी है । मैत्रेय के नाम से भविष्य में उनका एक अवतरण होगा । बुद्ध को सत्य की जो उपलब्त्रि हुई थी वह इसी जीवन मे हुई थी, इसके पहले जीवन मे नही । उन्होने जो पाया था वह इसी जीवन मे पाया था । इसलिए उनके आने की उम्मीद है। जीजस भी आएँगे । थियोसॉफिस्टो मैत्रेय को लाने के लिए भारी प्रयास किया था । वह प्रयास अपने किस्म का अनूठा था । कुछ लोगो ने प्राणो को सकट मे डालकर आमन्त्रण भेजा और कृष्णमूर्ति को तैयार किया कि मैत्रेय की आत्मा उनमे प्रविष्ट हो जाय । कृष्णमूर्ति को तैयारी मे वीस-पच्चीस वर्ष लग गए। उनकी जैसी तैयारी हुई, दुनिया मे वैसी किसी आदमी को शायद ही हुई हो । अत्यन्त गूढ साधनाओ से कृष्णमूर्ति को गुजारा गया । ठीक वक्त पर तैयारियाँ पूरी हुई । सारी दुनिया से कोई छह हजार लोग उस स्थान पर Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी एकत्र हुए जहा कृष्णमूर्ति म मंत्रय की आत्मा के प्रविष्ट होने की घटना घटनवाली थी। लेकिन शायद भूल चक हा गई और वह घटना न घटी। कृष्णमति न गुरु होन म इनार कर दिया, क्यानि व अत्यन्त ईमानदार आदमी हैं। ऐसा अनुभव क्यिा गया है कि मैत्रय के उतरने म बडी वाधा है। काई शरीर इस योग्य नहा मिल रहा है कि मैनेय उतर जाय और काई गम ऐसा निर्मित नहीं हो रहा है कि मैत्रेय के लिए वह अवसर बन जाय । हो सकता है कि दो चार हजार वर्षों तक लगातार प्रतीक्षा परनी पडें । हो सकता है कि प्रतीक्षा समाप्त हो जाय और बस चेतना विदा हो जाय । कृष्णमूर्ति के लिए किया गया प्रयोग असफर हो गया और अब ऐसा कोई प्रयोग पृथ्वी पर नहीं दिया जा रहा है । उपलब्धि के बाद अभिव्यक्ति का मौका अत्यन्त जररी है, इसलिए मने वहा कि महावीर की उपलपि पिछले जन्म की उपलब्धि है। इस जीवन म उहोंने उसे चाटा है, इसलिए अब उनकी चेतना के लौटने का सवाल नही है। फिर हम यह अजीब सा लगता है कि यद्यपि वुद्ध का मर पच्चीस सौ वप बीत चुके फिर मी उनका अवतरण न हुआ। जीजस भी नहीं आए। समय की हमारी जो धारणा है उसकी वजह से हमको ऐसी वठिनाइ होती है । सपना म सैक्डा वप वीत जाते हैं, परतु जव नीद टूटती है तब आप पाते हैं कि घडी म अभी मुश्किल से एक मिनट हुमा है । जागने के समय की धारणा अलग है, सोने के समय की गति अरग है। मुक्त व्यक्ति के लिए समय की गति का कोई अथ नहा रह जाता-वहाँ समय की गनि है ही नही, येवल हमारे तल पर समय की गति है। वेद्र पर परिधि से खीची गई सभी रेखाएं मिल जाती हैं और जसे-जैसे पास आती जाती हैं बसे वसे मिलती जाती है। जितना हम जीवन के द स दूर है, उतना ही समय वडा है और जितना हम जीवन केन्द्र के परीव आते हैं, उतना ही समय छोटा होता जाता है। इसलिए शायद आपन कमी सयाल नहीं किया होगा कि दुस मे समय बहुत सम्मा होता है और सुर म बहुत छाटा । सुप भीतर के कुछ निकट है दुस कुछ दूर । जाग्रतावस्था म हम समय की परिधि पर पड़े हाते हैं, सोन म हम अपन भीतर मा जाते हैं। स्वप्न भीतर पी आर है जाग्रति बाहर की ओर। स्वप्न में हम अपने में द्र के ज्यादा निपट होते हैं जागन म ज्यादा दूर। व्यक्ति के पद पर पहुँची की दशा का ही नाम समाधि है । समाधि मे समय एकदम मिट जाता है-समय होता हा नहीं। सव पप परिवि पर है पेद्र पर नहीं। वहाँ परिधि से सीच गई सभी रेषाएँ सयुक्त हो जाती हैं । दूसरी बात मापने पूछी है वि जन प्रति म समी चीजें चीय गति से चलती हैं तर मुक्तात्माएं इस शियम पा अपवाद योहा सरती हैं ? वे भी निगाद से मोक्ष तर नाती हामी और माता से लौटकर निगो मजा मरती होगी। जहाँ रामी पुछ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महागेर : परिचय और वाणी चक्रवत् घूमता हो, वहाँ सिर्फ आत्मा की गति को चक्रीय न माना जाय, यह नियम का खडन मालूम पडता है। वीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष से वीज मा जाते है। फिर बीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष मे वीज आ जाते है। किसी वैज्ञानिक से पूछा गया था कि मुर्गी और अडे मे कौन पहले है। वैज्ञानिक ने उत्तर दिया कि पहले-पीछे का तो सवाल ही नहीं है, कारण कि मुर्गी और अडा दो चीजे नहीं हैं। तव प्रश्न उठता है कि मर्गी है क्या ? उत्तर है कि मुर्गी है अडे का रास्ता या यो कहे कि अंडा है मुर्गी का रास्ता, मुर्गी पैदा करने के लिए। घडी के काँटे की तरह मभी चीजें घूम रही है। इसलिए आत्मा इस नियम का अपवाद कैसे हो सकती है? अपवाद हो सकती है। वस्तुत मुक्त आत्मा एक अनूठी घटना है, सामान्य घटना नही। इमलिए सामान्य नियम लागू नहीं हो सकते । असल मे जो आत्माएँ चक्र के बाहर कूद जाती है वे ही मुक्तात्मा कहलाती हैं। नहीं तो उन्हें मुक्त कहने का कोई मतलव नहीं। ससार का मतलव हे-जो घूम रहा है, घूमता ही रहता है। मुक्त का अर्थ है जो इस घूमने के वाहर छलाग लगा गया है। मुक्त को अगर हम फिर चक्रीय गति मे रख लेते है तो मुक्ति व्यर्थ हो गई। अगर आत्मा मोक्ष से निगोद को वापस लौट आती है तो वे सव-के-सव पागल है जो मुक्त होने की कोशिश करते है। अगर सवको घूमते ही रहना है तो मोक्ष और मुक्ति की वात व्यर्थ हो जाती है। हाँ, जैसा मैंने कहा, एक बार मुक्तात्मा भी अपनी इच्छा से उस चक्र मे लौट आ सकती है। परन्तु चक्र पर बैठी हुई ऐसी आत्मा चक्र के साथ घूमती नहीं । अव उसके लिए घूमने का कोई मतलव नही । वह हमारे बाजार मे खडी होगी भी तो उसे बाजार का हिस्सा होना नहीं पड़ता। मुक्त व्यक्ति हमारे बीच भी खडा होगा, लेकिन ठीक हमारे बीच नही होगा । वह होगा हमारे बीच और हम से बिलकुल अलग। कही उससे हमारा मेल होगा और कही नही। वह कुछ और ही तरह का आदमी होगा। आवागमन से छूटने की जो कामना है वह उन लोगो को उठी है जिन्हे इसे घूमते हुए चक्र की व्यर्थता दिखाई पड गई। उन्होने देखा कि जन्मो-जन्मो से एक-सा घूमना हो रहा है, हम घूमते चले जा रहे है और इससे छलॉग लगाने का खयाल नही आता। छलाँग लग सकती है। अगर चाँद पर जाना है तो जमीन की कशिश से छूटना ही होगा। यदि जीवन के बाहर जाना है तो किसी-न-किसी रूप मे वासना के वाहर निकलना होगा। वासना भी एक प्रकार की कशिश ही है जो हमे ऊपर उठने नही देती। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो तृष्णा और वासना है वह हमे अस्थिर रखती है और कहती है-वह लाओ, वह पाओ, वह बन जाओ। वह चक्र के भीतर इशारे करती है और कहती है-धन कमाओ, यश कमाओ, ज्यादा उम्र बनाओ। जो व्यक्ति एक क्षण भी वासना के बाहर हो गया वह अन्तरिक्ष मे यात्रा कर गया, उस अन्तरिक्ष मे जो हमारे भीतर है। वह जीवन के चक्र के बाहर छलॉग लगा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १४३ गया, क्याकि उमन कहा कि न मुरोपा चाहिए और न धन, न उम्र, न सतान। मैं युध हाना नहीं चाहता। वासना के चत्र स बाहर हाते ही आप यह दसबर हैरान हो जायगे पि जिसे आपन अन त जमा स पान की आशक्षा की थी वह आपके पास ही था, वह मिला ही हुआ था। अपनी आर देखन भर की जरूरत थी। रक्नि जस अन्तरिक्ष-याना ता तक नहा हा सरनी जब तक कि हम जमीन की कशिश से छूट न जायें, वैसे ही अन्तर्याना मी तब तक नही हा सक्ती जब तक हम वासना की कशि मे मुक्त न हो जाय 1 और वासना की कशिश घरती की वशिरा से ज्यादा मज बूत है क्यापि जमीन की जो पशिश है वह खीचने की एक जड शक्ति है और वासना की जो कपिश है वह एक सजग चेतन शक्ति है । इस चर के बाहर जिसे भी छलाग रगानी हो, उसे वासना के बाहर होना पड़ता है। साक्षी का भाव वासना + वाहर रे जाता है। जैसे ही कोई यकिन साली हा कि वह वासना के बाहर चला गया । लेकिन यह न भूल वि जीवन मे साक्षी होना बहुत कठिन है । हम नाटक फिरम तर म माक्षी नहीं होन। कई बार तोमा हो जाता है कि बाहर की जिदगी हम उनना ज्यादा नहा पक्डती जितनी चित्र की कहानी पकड़ लेती है। अगर हमे स्मरण आ सब वि हम भी एक लम्बा नाटक खेल रहे है तो शायद हम भी साक्षी हा सकें। बहुत गहरे म जीवन और फिल्म म ज्यादा फर नहीं है। हमारा शरीर उसी तरह विद्युत् प्रणा स बना है जिस तरह फिल्म के परदे पर दिखाई पडन वाला शरीर विद्युत-कणा से बना है। मैं यह नहीं कहता कि आप नाटक न निभाएं। सचमुच जा इस नाटक का जितना अच्छी तरह निमा लेता है वह उतनी ही क्त्तय निष्ट समया जाता है। वस्तुत नाटक निमान ये रिए होने और मजेदार भी होता है। बम, एक बात न भूलें चाह और सब क्या न मूल जायें। वह यह है कि यह जीवन सिफ नाटक है। स्वामी रामतीय जस लोगा को इस रहस्य का पता था। तभी तो रामतीथ हमेशा अय पुरुष ('याड पसन ) में ही चोरते थे। जब उन्हें गारी पड़ती तो वे हंसते और रहते-रेखोराम का कमी पडी ? राम फसी मुश्विर म फेमे ? आ गया न मजा ? यह सयार कि मैं कहा और हूं, अलग हूँ, सारे रोल से वही दूर है, साभी बना देता है और वासना की दौड टूट जाती है । मेर फिर भी चलता है क्या आप यरले पिलाडी नहा । जहाँ बुद्धिमत्ता आती है वहाँ गगन माया सनाटक से-- अलग नहीं हो जाता। यहाँ नाटय और जगत एक ही हो जात हैं। जिस दिन साक्षी जीवन से अलग सहा हा जाता है उसी दिन वह दौर के बाहर हो जाता है। ___ महावीर को साधना मौलिफ रूप से साभी की साधना है। सभी साधनाएँ मौलिय स्परा साली की ही सायनाएं हैं कि हम विस भांति देसनवाले हो जा, म तो भागने वाले रह जाये और न करने वाए । सिफ साक्षी रह जाय। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ महावीर : परिचय और वाणी उसका सहायक हो जाता है, सारे जगत् की नहायता उसकी ओर चुम्बक की ओर खिचने लगती है । क्यो खिचने लगती है यह सवाल नहीं, नियम है । नियम यही है कि असहाय होते ही कोई व्यक्ति वेसहारा नही रह जाना- नव महारे उसके हो जाते है । असुरक्षित चित्त को ही परमात्मा की सुरक्षा उपलब्ध होती है । जो खुद ही अपनी सुरक्षा कर लेता है, उसे परमात्मा की कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं होती । एक दिन एक घटना घटी । कृष्ण ने दो-चार कोर लेकर थाली हटा दी और वे भाग खडे हुए। रुक्मिणी ने साञ्चर्य पूछा- आपको क्या हो गया है, कहाँ जा रहे है ? कृष्ण ने रुक्मिणी की वात न सुनी। वे दरवाजे की ओर उन प्रकार दौडे मानो कही आग लग गई हो। फिर ठिठक गए और वापस लौटकर भोजन करने लगे । रुक्मिणी के विस्मय का पारावार न था । कृष्ण ने कहा कि मेरा एक भक्त रास्ते मे गुजर रहा था और लोग उसे पत्थरो ने मार रहे थे । वह मजीर बजाए चला जा रहा था, मेरा ही गीत गा रहा था । तनिक भी क्रोध न था उसके मन मे । वह तो सिर्फ देख रहा था उन्हें कि वे पत्थर फेंक रहे हैं । खून की धारा बह रही थी । इसलिए मेरे जाने की जरूरत पड गई । रुक्मिणी ने पूछा कि फिर आप लोट क्यो आए ? कृष्ण ने कहा कि जब तक मैं दरवाजे पर पहुंचा तब तक मेरे भक्त ने मजीर फेक डाला और उसने एक ईंट उठा ली— उसने अपना इन्तजाम खुद कर लिया । अव मेरी कोई जरूरत न रह गई । जव व्यक्ति अपना इन्तजाम स्वयं कर लेता है। तव जीवन की शक्तियो के लिए कोई उपाय नही रह जाता । सन्यासी का मतलब निर्फ इतना है कि कोई अपने लिए इन्तजाम नही करता, सब कुछ छोड़कर असुरक्षा मे खडा हो जाता है | मलूक ने कहा है कि पछी काम नही करते, अजगर चाकरी नही करता, सव के देने वाले है राम । यह आलस्य की शिक्षा नहीं है, बहुत गहरे मे असुरक्षा के स्वीकार की शिक्षा है । ऐसी ही असुरक्षा मे महावीर असग हो गए है । न कोई सगी है न कोई साथी । जीवन की गहराइयो मे कही कोई गारवत नियमो की व्यवस्था भी है । उनमे एक नियम यह भी है कि आप जिसके पीछे भागेगे, वह आप से मांगता चला जायगा और free मोह त्यागेगे वह आपके पीछे आता रहेगा । जो घन छोड़ता है, उस पर घन वर्षा होती है, जो मान त्यागता है, उस पर मान की वर्षा होती है। जो रक्ष छोड़ता है, उसे सुरक्षा उपलब्ध होती है । जो सब कुछ त्याग देता है, उसे सब कुछ उपलब्ध हो जाता है | वह एक घर छोड़ता है, लेकिन सब घर उसके हो जाते हैं । जब वह एक प्रेमी की फिक्र छोडता है तव शायद सबका प्रेम उसका हो जाता है । इन्द्र और महावीर की परस्पर वार्ता की बात कोई ऐतिहासिक घटना नही है । यह एक कहानी है । इसका उल्लेख इसलिए होता है कि हम कहानियाँ ही समझ पाते हैं और वह भी जब उन्हें ऐतिहासिक कहा जाता है । जो भी अद्भुत व्यक्ति Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावार परिचय और वाणी १४७ पदा होता है वह इतना अदभुत होता है कि उसके आस पाम काव्य बन जाता है कथाएँ बन जाती हैं। क्याए सच हा, ऐसी बात नही । जब काय को जार स पकड लिया जाता है और उसे जीवन का सत्य बना लिया जाता है तव कविता मर जाती है । इतना अनूठा है महावीर वा जीवन मि उमे शायद तथ्यो म कहा ही नहीं जा सकता। इसलिए उसके साथ हम काय जोडना ही पड़ता है। और जब हम वाव्य जोड़ते हैं तभी कठिनाई शुरू हो जाती है। जड रोग का य को जीवन का तथ्य मानने लगते हैं । यह जरूरी नहीं कि कोई चीज तथ्य न हो तो सत्य भी न हो। यदि तथ्य ही काव्य हो तो काव्य खत्म हो जाय, फिर काव्य का कोई सत्य ही न रह जाय । यदि पाई प्रेमी यह कि मेरी प्रयसी का चेहरा चाद है तो इसे काव्य समझिए। विनान तो कहता है कि चाद पर बडे साई-सडडे हैं फिर किसी का चेहरा चांद सा क्से हो सकता है ? असल म प्रेमी कुछ और ही कह रहा है। वह कह रहा है कि चाद को देखकर जसे मन म छाया छू जाती है चादी की धार छूट जाती है, वैसे ही किसी के चेहर से प्रेम सुधा बरसती है चित्त रस सिक्त हो उठता है। इस कविता को जगर कभी गणित और विनान की क्मोटी पर क्सने रगें तो आप गलती मे पड जायगे । इसलिए मैं इन सारी बाता का काव्य और रूपक कहता। हूँ, बोध-कथा मानता हूँ। इनके माध्यम से कुछ बातें कही गई हैं जा कि शायद क्सिी अ य माध्यम से कही नही जा सकती थी। कहानियां सत्य को कहने का एक ढग हैं। जिसस सत्य रूपमा भी न रहे और मृत भी न हो । नासमझ आदमी ही कहानिया को) सत्य बना लेता है और सत्य बना कर सारे यक्तित्व का झूठा कर देता है। महावीर ने दूसरा का सहारा नही लिया यह सही है । लेकिन साथ ही प्रश्न उठना है कि यदि सहारा न लेना महत्त्वपूर्ण है तो क्या सहारा न देना भी उतना ही महत्त्वपूण नही ? यदि है तो महावीर की अभियक्ति उनके श्रावक और श्रमण दूसरा को सहारा क्यो देते रहे 'जव में सहारा नहीं लेता तब सहारा देनवाला भी कौन होता हूँ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। साधारणत एसा ही दिखाई पड़ता है कि अगर काई यषित सहारा नहीं लेता तो वह भी क्मिो का सहारा न द । यह तक एक्टम भ्रात है। जब हम कहत हैं कि सहारा नहीं रना है तर इमका पु? मतलव इतना है कि भीतर जाने में हम किसी के साथ की जरूरत नही-मीतर हम अकेले ही जाना होगा। इसलिए मैं सभी सहारो का इनकार करता हूँ। लपिन अगर यह बात मैं किसी का कहने जाऊं नि सहारा रोगे तो मटन जाओगे ता एक अथ में मैं उसको सहारा दे रहा हूँ और मरे अय म उसे सहारे म वचा रहा हूँ। इसम दोना बातें हैं । महावीर जो सहारा दे रहे है वह इसी तरह का सहारा है। व लोगा को Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महावीर : परिचय और वाणी कहते है कि मै अकेला भीतर गया। यदि तुम सहारा पकड रहे हो तो भीतर नही जा सकोगे । वेसहारे हो जाओ। यह मुझे हक है कि म किनी को इतनी बात कह दूं कि विधि से कभी कोई नही पहुँचा है, इसलिए तुम विधि मत पकडना और मेरी चात भी मत पकड़ना। इसकी भी तुम खोज-बीन करना, क्योकि इसको भी अगर तुमने पकडा तो यह तुम्हारी विधि हो जायगी। यूनान के सोफिस्टो का कहना था कि कोई चीज सिद्ध ही नही है। जिन्दगी इतनी जटिल है कि उसमे सब पहल मौजूद है और तर्क देनेवाला सिर्फ उस पहलू को जोर से ऊपर उठा लेता है जो पहलू वह सिद्ध करना चाहता है और शेप पहलुओं को पीछे हटा देता है। ___ यह बात सच है कि किसी का सहारा कभी मत लेना, क्योकि सहारा भटकाने चाला होगा। परन्तु यह कहकर भी तो मैं आपको सहारा ही दे रहा हूँ न ? अव आप क्या करेगे ? सोफिस्टो ने एक उदाहरण दिया है और कहा है कि सिसली से एक आदमी एथेन्स पहँचा । यहाँ आकर उसने कहा कि मिसली मे सब लोग झूठ बोलनेवाले है। एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि तुम कहाँ के रहने वाले हो ? उसने उत्तर दिया-मै सिसली का रहने वाला हूँ। यह सुनकर लोग मुश्किल में पड़ गए। अब वे क्या करे ? यदि उस व्यक्ति की बात मान ले तो सभी सिसली वासी झूठे ठहरते है और चूंकि वह भी सिसली का रहने वाला था, इसलिए वह भी झूठा ठहरता है। और चूंकि वह भी झूठा है, इसलिए उसकी बात सच नही मानी जा सकती। यदि उसकी वात सच मान ली जाय तो वह झूठा साबित हो जाता है और चूंकि वह झूठा है, इसलिए उसकी बात सच्ची नही हो सकती। यदि यह मान लिया जाय कि सिसली मे कम-से-कम एक व्यक्ति सच्चा है तो यह बात गलत होगी कि वहाँ सव झूठ बोलने वाले लोग हैं। जिन्दगी इतनी जटिल है कि दोनो वाते सही हो सकती है। सिसली मे सब झूठ बोलने वाले लोग भी हो सकते हैं और इस आदमी का वक्तव्य भी सही हो सकता है, क्योकि सब लोग सव समय झूठ नही वोलते । महावीर कहते है कि जीवन के एक पहलू को पकडकर कोई दावा करे तो यह है एकान्त । एकान्तवादी वह है जिसने जीवन का एक ही कोना देखा है। अगर वह सब कोने देख लेगा तो अपना आग्रह छोड़ देगा। वस्तुत महावीर बड़े अद्भुत व्यक्ति है। वे कहते है कि सत्य का आग्रह भी गलत है, क्योकि वह भी एकान्त है। सत्य के अनेक पहलू है और सत्य इतनी वडी वात है कि ठीक एक सत्य से विपरीत सत्य भी सही हो सकता है। इसलिए महावीर कहते है कि मै अनेकान्तवादी हूँ-यानी, सव एकान्तो को स्वीकार करता हूँ। अनुभव के अनन्त कोण है और प्रत्येक कोण पर खडा हुआ आदमी सही है । वस, भूल वहां हो जाती है जहाँ वह अपने कोण को सर्वग्राही बनाना चाहता है और कहता है कि मैंने जो जाना, वही ठीक है। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय नार याणी १४९ आपन यह कहानी सुनी होगी कि एर हाथी के पास पांच अर्थ सटे हो गए। जिमन हापो वे पर हुए उसन यहा वि हायो राम्भे यो तरह है परे पे पक्ष मी तरह है, जिगन पान छा उमन यहा कि रायी गहूँ साल परनवार सूप की तरह है। दस प्रकार पांचा अधान पिने अपन दाव दिए । महावीर महत हैं कि उनादप्टि परम्पर विरापी नहीं है। च पूछिए ता गिहें हम विगयी दष्टियां मही हैं व व एकन्दमरे थे परिपूर है और सब एन हा सर के मिन नियान हैं। मिफ हमारी सामिन दष्टि के कारण ही यह मब विगधी रिसाइ पड़ रहा है। महावीर मरा है fr अगर हम मय दष्टिया या पाड र ता भी सत्य पूरा नहीं हा नाता, ययामि मार दृष्टियां भी हो सकती हैं जो हमार सपाल म न हा! इयरिए महावीर ननर पी सम्भावना रस्त है, एक या आग्रह नहीं बरत । उस युग पर उनका प्रमाव पान मम पड़ा, इममा यहा कारण है । पुद का दष्टि एप और पसी है य ग पर सस्ता से खडे रहा ह और हा-मात्र भी यहाँ पहा नाहित । यह घटे मजे पी यात है कि हम जिसे साप दिया। परते है वह एकातयाती होता है। महावार साफ नही मारम पडत । वे हर बात म 'हो पहत है, हर यात मन नी । इममा मनग्य है पि चाहे तो उन्हें पता हा या पता है तो साफलाफ पता नहीं। यहा कारण है कि मतर्राष्ट्रीय विचारमा म बुद्ध या पनायुगियरमा नाम लिया जाता है महावीर पा नहा । परोहों साग मिल जायगे पृथ्वी पर रिहा महावीर म म पो सभी नहीं गुना । महावीर याश है और ना गती ही है, उसमा यात हमारी गगा में मुतिर माती है। जा गुमगत है उसने बना विचार हा दिसा पारिनिन्दगी पिरोया स मरी है। विधार परोसा सि ऐमा सार हा मह सरना जाएगा, प्रा और दारगर हो। उसर द्वाग पा गई सर मा प्रत्या पोपागनिसर होगी। रिन गियर उमर अगाा पो मूपा या जायगी, यदि निये IIT मा गूस है। पानी गिता ताता में दावा परता उतनी लता म गाती गहा पर सपा। आरम गाना हा दावा कर सरना है पापि गरी समर मनी कम है, जमने ला दाना गम है जाना पमहैसिपम यह पापा बना सपना है। महापार प मापदी अप है frमादपि पूरा Tth मारट पिरायी रहा। गव दृष्टिया गयागा है भोर मय दधिया विगी पर गत्य म मनानिहो जाती । frराट गार पा जाना है, या frit 4TH और दिमाग में महरि नाममा गिर ग ना ग प प पर राममा पार न पोरा पाई र मोवाग रमा प.गा। पराराrा तर जाप गरी रद्वारा frir नाम य SIR UrT-TY Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महावीर : परिचय और वाणी वन पाए और जो मित्र बने वे शत्रु सिद्ध हुए । मजे की वात तो यह है कि अनेकान्त को भी महावीर के अनुयायियो ने 'अनेकान्तवाद' बना दिया है। 'अनेकान्त' का मतलब है 'वाद' का विरोध और वाद का मतलब ही होता है दावा । यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि महावीर शायद हजार-दो हजार वर्प वाद पुन प्रभावी हो सके। जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है, 'वादी' चित्त नष्ट होता जा रहा है। जितनी बुद्धिमत्ता वढ रही है आदमी उतना ही निप्पक्ष होता चला जा रहा है । आज नहीं तो कल, सम्प्रदाय और वाद जाएँगे ही। महावीर जिसे सन्यासी कहते है वह एक ऐसा अवादी व्यक्ति है जो असुरक्षा मे ___जोता है, जो अगृही है। लेकिन आज का सन्यासी महावीर के सन्यासी का उलटा आदमी है । वह आज के गृहस्थो से ज्यादा सुरक्षित है। गृहस्थ के ऊपर हजारो चिन्ताएँ और झझटे है, सन्यासी मस्त है । उसे न कोई दिक्कत है और न कोई कठिनाई । खाने-पीने का प्रबन्ध है, मन्दिर है, आश्रम है । सन्यासी इस समय सबसे ज्यादा सुरक्षित है जव कि सन्यासी का मतलव वह व्यक्ति है जिसने सुरक्षा का मोह छोड़ दिया और जो असुरक्षा में ही जीने लगा। सन्यासी वह है जो कल की बात नही करता, भविष्य का विचार नहीं करता, योजना नही वनाता, बस प्रति-पल, क्षण-क्षण जिए चला जाता है। मौत आए तो वह राजी है, जीवन हो तो राजी है ! ऐसी ही चित्त-दशा का नाम सन्यास है और ऐसा ही व्यक्ति अगृही है। सुरक्षा ही गृह है और ___ असुरक्षा अगृह । सुरक्षा मे जीनेवाला व्यक्ति गृहस्थ है और सुरक्षा मे न जीनेवाला अथवा असुरक्षा की स्वीकृति मे जीनेवाला व्यक्ति सन्यासी है, अगृही है। इस सम्बन्ध मे लोग पूछते है कि महावीर ने सन्यासियो से यह क्यो कहा कि तुम गृहस्थो को विनय मत देना, उनको तुम नमस्कार मत करना ? महावीर के पीछे आनेवाले साधुओ ने महावीर के इस कथन का दूसरा ही मतलब निकाला है। उन्होने इसे 'अहकार की प्रतिष्ठा' बना ली है-यानी वे सम्मानित है, पूज्य हे. दसरे उनकी पूजा करें। लेकिन महावीर ने यह कही नही कहा कि साधु गृहस्थ से पूजा ले, सन्यासी गृहस्थ से विनय मांगे। उन्होने केवल इतना ही ___ कहा कि गृहस्थ को अगृही विनय न दे। गृहस्थ का मतलब ही वह आदमी है जो अज्ञान से घिरा है। उसके अज्ञान की तृप्ति को जगह-जगह से गिराना जरूरी है। उसके अज्ञान को बढाना अनुचित है। अहकार न बढ जाय गृही का, इसलिए महावीर कहते हैं कि सावु उसे विनय न दे। लेकिन महावीर को पता न था कि उनका साधु ही इस कथन को अपने अहकार के पोपण के लिए प्रमाण वना लेगा और इस अहकार मे जीने लगेगा कि उसे पूजा मिलनी चाहिए । Page #155 --------------------------------------------------------------------------  Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय महावीर की भापा जो सहस्स सहस्साणे, संगामे दुज्जए जिए । एग जिणेज्ज अप्पाण, एस से परमो जत्रो॥ ___ --उत्त० अ० ६, गा०३४ महावीर की भाषा प्राकृत थी, संस्कृत नहीं । वस्तुत सस्कृत कभी भी लोकभापा नही थी । वह सदा से पडितो की-दागंनिको और विचारको की--भापा रही है। महावीर के युग मे प्राकृत ही साधारण जन की भाषा थी। ग्रामीण लोग इसी लोकभाषा का प्रयोग करते थे, कारण कि प्राकृत मलभापा है और उसके परिप्कृत रूप को ही हम सस्कृत कहते है। हमारे देश मे दो परम्पराएं चलती थी। एक परम्परा थी जो सस्कृत मे ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोडे लोगो की थी । एक प्रतिशत लोगो का भी उसमे हाथ न था। ज्ञान का जो आन्दोलन चलता था वह बहुत थोडे से अभिजातवर्गीय लोगो का था। जनता अनिवार्य रूप से अज्ञान में रहने को वाध्य थी। महावीर और बद्ध-दोनो ने जनभापामो का उपयोग किया। शायद यह भी कारण है कि हिन्दू ग्रन्थो मे महावीर का कोई उल्लेख नहीं है । न उल्लेख होने का कारण है, क्योकि सस्कृत मे उन्होने न तो शास्त्रार्थ किए और न कोई दर्शन विकसित किया । __ आज भी हिन्दुस्तान मे अग्रेजी दो प्रतिशत लोगो की अभिजात भाषा है। हो सकता है कि मैं हिन्दी मे बोलता चला जाऊँ तो दो प्रतिशत लोगो को यह पता ही न चले कि मै भी कुछ बोल रहा हूँ। चूंकि महावीर ने जन्म-मापा का प्रयोग किया, पडितो के वर्ग ने उन्हे बाहर ही रखा। यह बडे आश्चर्य की बात है कि महावीरजैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बडी परम्परा मे, उसके गास्त्र मे, उस समय के लिपिबद्ध ग्रन्थो मे उसका कोई उल्लेख न हो, विरोध मे भी नही । मै इसके बुनियादी कारणो मे एक कारण यह मानता हूँ कि महावीर उस भाषा मे वोल रहे है जो जनता की है । पडितो से शायद उनका वहुत कम सम्पर्क बन पाया। पडितो का अपना एक अभिजात भाव है। वे साधारण जन नही है। वे साधारण १. इसकी अपेक्षा कि पुरुप दुर्जय संग्राम मे दस लाख शत्रुओ पर विजय प्राप्त करे वह अपनी ही आत्मा पर विजय प्राप्त कर ले। यही श्रेष्ठ विजय है। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १५३ जन को मापा मे न वोलत है न सोचत ह। व असाधारण जन है, धुा हुए रोग हैं। महावीर और बुद्ध की बड़ी से बडी जातिया म एव क्राति यह भी है कि उहान, घमा ठेट बाजारमलावर खडा कर दिया, ठेठ गाव वे वाच । वह क्सिा भवन क। भीतर यद चुन हुए लकी वात न रही वह सबकी-जो सुन मवता है, जो समझ सकता है. बात हो गई। महावीर ने सस्कृत का उपयोग नहीं किया । उसके और भी कई कारण ह । असल म जो भाषा विसी परम्परा से सवद हो जाती है, उसके अपन सम्बघ हा जात है और उसका प्रत्यय सर एव लिहित जय रे लेता है । जव कोइ उस T? का प्रयोग करता है तब उसपर के साथ जुड़ी हुई परम्परा का सारा भाव पीछे सटा हो जाता है। इम दष्टि से जनता की सीधी-साती भापा अदभुत है । वह काम करने की, व्यवहार और जीवन की मापा है। उसम बहुत गद एसे है जिन्हें नए अब दिए जा सक्त है । और महावीर के लिए परी था वि व अपन नए चितन के लिए नई गदावली लें। सस्थत सैक्डा वपों में हजारा वर्षों में परम्परा-बद्ध विचार की एक विशेष दिया म बाम कर रही थी। उसके प्रत्येक पर का बर निश्चित हा गया था। इसलिए उचित यह था कि अनपढ जनता की भाषा को सीधा उठा लिया जाय । इस भाषा को नए अथ, नए तगश, नए कोन दिए जा सकते थे। इसलिए उ होसीधी जनता की भाषा उठा ली और उस मापा म अदभुत चमत्कारपूर्ण व्यवस्था की। यह इस बात का भी प्रमाण हा सकता है कि महागार का मन शास्त्रीय नहीं है। वसुली जिनगी ये पक्षपाती ह, बुरे आपा के नीचे नग्न गडे है, इसरिए गाम्न को विरवुल हटा देत ह गास्मीय व्यवस्था को भा हटा देत है। गेरा रोगा की हमेगा परत पड जाती है जो हम सच्ची जिन्दगी का स्मरण दिलाए । नहीं तो किताव बडी रातसार है। व राच्या जीवन होने का भ्रम पदा करती है। लाग तिाव य परमात्मा को प्रायना परन रगत है । 'आग गब्द आग नहीं है । पिसी मवान पर आT रिस देन मे मकान जर ही जाता । पिनाव मे हिरो 'जल से प्यास नहीं बुझती। वितार या परमात्मा भी जारी परमा मा नहा है। आम जनता की सीधी सारी बातचात पी मापा म गार नहीं हाता। उसम न पात्या राती है, उ पन्मिापा। महागीर न सी भाषा में T रिय भार जनता से सीधी बात पर दी। घनता ये आदमी हैं आर इम अब म व पहित परा हैं। और उन्हा। यही न पाहा कि उनका गाई शास्त्र निर्मित हो । उहान मिचिन पग पात्र मो रावने यो गित यो होगी। इसलिए उनकी मायु दे दा चार गो वर्षों तर, जब ता लगा यो गरा स्पष्ट स्मरपा रहा हामि नास्त्र नहीं रिते हैं पान नी frar T सराहा। पिर सपा Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महावीर-परिचय और वाणी ने सोचा होगा कि कही महावीर का कहा हुआ विस्मरण न हो जाय, इसलिए चलो, उसे हम लिपिवद्ध कर ले, शास्त्रबद्ध कर लें। महावीर सो जायेंगे, लेकिन उनकी वाते शास्त्रो मे वची रहेगी। हम भूल जाते है कि जव महावीर-जैसा जीवन्त व्यक्ति भी सो जाता है तो क्या शास्त्रो को बचाना सम्भव है ? महावीर-जैसे व्यक्ति तो यही उचित समझेगे कि जब व्यक्ति ही विदा हो जाता है और जब यहां कुछ भी स्थिर और स्थायी नही है, तव शब्द और शास्त्र भी विदा हो जायें। जीवन का नियम हे जन्म लेना और मर जाना । जब जीवन का यह नियम महावीर को भी नही छोडता तो महावीर की वाणी पर यह नियम लाग क्यो न हो? हम क्यो आगा बाँचें कि शब्दो को बचाकर हम महावीर को बचा लेंगे | क्या बचेगा हमारे हाथ मे ? अगारा तो बझ ही जायगा, केवल राख वत्र पायगी । राख ही बचायी जा सकती है क्योकि वह मृत है । लेकिन खतरा यह है कि हम राख को ही कही अगार न समझ ले। महावीर ने चाहा होगा कि राख न बचे। कीमत की चीज अगार है, वह तो वचेगा नही और राख से कल यह धोखा हो सकता है कि यही है अगार । महावीर हिम्मतवर आदमी थे। अपनी स्मृति के लिए कोई व्यवस्था न करना वडे साहस की बात है। उनकी दृष्टि मे जो मरनेवाला है वह मरेगा ही । जो नहीं मरनेवाला है, वह नहीं मरेगा । जो मरनेवाले को बचाने की कोशिश करते है वे बडी म्राति मे पड़ जाते है । वे ही अक्सर राख को अगार ममज्ञ लेते है । शास्त्र मे जो धर्म है वह राख है। जीवन मे जो धर्म है वह अंगार है। ____ यह ध्यान रखने की बात है कि जगत् मे जो भी महत्त्वपूर्ण है, जो भी सत्य और सुन्दर है, वह लिखा नहीं गया, वह कहा ही गया है। जब हम कहते हैं तो कोई जीवन्त सामने होता है जिससे हम कुछ कहते है। लिखनेवाले के समक्ष कोई भी मौजूद नहीं है, सिर्फ लिखनेवाला मौजूद है। इस जीवन्त सम्पर्क के कारण महावीर ने न तो शास्त्रो की भाषा का उपयोग किया, न शास्त्रीयता का । उन्होने अपने पीछे शास्त्र की रेखा बनने न दी और दिखा दिया कि ज्ञान की दृष्टि मे कोई भी व्यक्ति अनधिकारी नहीं है। ____ लोग मुझसे आकर पूछते है कि क्या अनधिकारी को ज्ञान नही मिलना चाहिए ? मैं कहता हूँ कि यह निर्णय कौन करेगा कि कौन अधिकारी है और कौन अनधिकारी ? फल नही कहता कि अधिकारी को सौदर्य दिखाई पडेगा, अधिकारी को ही हम अपना सुगध देगे । सूरज नही कहता हमसे कि अधिकारी को ही प्रकाश । मिलेगा । खून नही कहता कि मै अधिकारी के शरीर मे ही बहूँगा । जगत् अधिकारी की मांग नहीं करता। भगवान बडा नासमझ है, वह अनधिकारियो को जीवन देता है । और पडित बडा समझदार है, वह अधिकारी को पक्का कर ले तब ज्ञान देगा ! अधिकारी की बात ही अत्यन्त व्यापारिक और तरकीव की बात है। धर्म Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी के खिलाफ विनान इसीलिए जीता है कि धम है थाड़े से लोगो के हाथ म और विशान ने सत्य द दिया है सबने हाथ म | विमान की जीत का कारण यह है दि उसने पहली दफा नान को सावरोक्सि बना दिया है। महावीर ने इस सम्बध म बड़ी भारी क्रान्ति की। उहाने ठेट बाजार म पहुँचा दी मारी बात । इससे पडिता को ग्रोध भी बहुत हुआ। उनका धघा इसलिए चरता था कि बातें गुप्त थी। महावीर न धम की सारी गुत्थी सुल्या दी, इमलिए पडित उन पर नाराज रहे हा तो काई आश्चय ही। उहाने वह काम किया जो एक डॉक्टर सीधी हिदी म प्रिस्क्रिप्शन लिसबर कर सकता है। एस डॉक्टर पर दूसरे समी डापटर नाराज हा जायगे कि तुम क्या कर रहे हो तुमस सारा धघा चौपट हो जायगा । महावीर शास्त्रा का बीच में राना ही नही चाहत पयोनि गास्ना को लाते हा शास्त्रीयता आती है पाडित्य आता है दूसान आती है सारी यवस्था जाती है। वे ऐसे बाल रहे हैं जसे कि कोई पहला आदमी जमीन पर सडा होर बोल रहा हा और उस किसी शास्त्र का कोई पता भी न हो। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय गोशालक की कथा का महत्त्व नाइवाइज्ज किंचण । -आ० ध्रु० १, म० २, ७०४ असल मे कहानियो को समझना बहुत मुन्किल है क्योकि वे प्रतीकात्मक होती है । गोशालक की कथा भी प्रतीकात्मक है। उमने महावीर पर तेजोलेन्या का प्रयोग किया है । यह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिनसे कोई भी जलकर भस्म हो सकता है । महावीर को बचाने के लिए एक नायु उठना है और वह नष्ट हो जाता है । दूसरा उठता है और वह भी मर जाता है। महावीर देखते रहते है। तीसरा उठता है, परन्तु महावीर उमे रोक लेते है। प्रश्न है कि पहले दो साधुजो के प्रति महावीर की तटस्थता का कारण क्या था? उन दो नायुओ के प्रति उनमे करुणा क्यो न आई ? अगर रोकना ही था तो वे पहली ही बार रोक देते ताकि दो व्यक्ति न मर पाते। __ इसमे वहुत-सी बाते हो सकती है। पहली बात यह कि व्यक्ति किसलिए उठा, यह वडा महत्त्वपूर्ण है। हो सकता है कि वह सिर्फ अहकारवश उठा हो और यह दिखाने उठा हो कि मैं महावीर को बचा सकता हूँ। अहकार को कोई भी बचा नही सकता। महावीर भी नही बचा सकते । कहानी का अर्थ यह हो सकता है कि दो गोशालक थे-दो अहकार थे जो लडने को खडे हो गए। महावीर चुप रह गए। तीसरा व्यक्ति विनम्र और सीधा-सादा रहा हो और सिर्फ आहुति देने को उठा हो। जब तक एक व्यक्ति और मरे तब तक भी महावीर जी जाएं, इसलिए उठा हो । महावीर उसे रोकते है। असल मे कहानियां सारी बाते स्पप्ट नहीं कर पाती। हजारो साल से चलने के कारण उनके रूखे तथ्य ही हाथ मे रह जाते है । असल मे जिन दो व्यक्तियो को बचाने के लिए महावीर ने कुछ नही किया वे ऐसे व्यक्ति रहे हो जिन्हे वचाया ही नहीं जा सकता था। हो सकता है कि वे महावीर के लिए नहीं, अपने लिए ही खडे हुए हो। हो सकता है कि वे गोशालक को यह दिखा देना चाहते हो कि हम भी कुछ है | महावीर के पास सिवा दर्शक होने के और कोई उपाय न रहा हो। तीसरे व्यक्ति को वे रोकते है, जिसका अर्थ यह भी हो सकता है कि वह-तीसरा व्यक्ति--निरहकार रहा हो और वह १. किसी भी प्राणी की हिंसा न करो। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १५७ सिफ इसलिए उठा हा कि जितनी देर मे में महँगा उतनी दर तो महावीर बचे रहें। वह इतनी विनम्रता से उठा हो कि महावीर को कुछ कहना ही पड़ता है, उसे रोक्ना ही पड़ता है। महावीर के चित्त म क्या हुआ, यह समयना कठिन है, क्याकि हम ऊपर स तथ्य तो दखत है परतु हम यह खयाल म नहीं आता वि' मीतर पया कारण हो रहा था। हो सकता है कि उन दाना के प्रति भी करणा रही हा, क्योकि महावीर की परणा कोई गतबद चीज नहीं है । ऐसा न था कि वह उन लोगार प्रति ही प्रकट होती थी जो महावीर के अनुयायी थे। सम्मवत महावीर को यह पता है कि उहें रोकने से काई लाम नहीं, क्याकि कुछ रोग हैं जो रोकने से और बढ़ते हैं । व न रोके जाय ता शायद एक जायें। अहकारी व्यक्ति को रोको ता यह और तेज होता है । शायद महावीर इसलिए ही चुप रहत हैं। __आदमी के मा को समझना बडा कठिन है। यह समयना मुश्किल है कि आदमी का चित्त किस मांति काम करता है। महावीर विसी को क्या रोक्त है और विसी पो नही, यह ऊपर से जाना नहीं जा सकता। इस घटना को भीतर से देखना चाहिए। उनकी करुणा समान है लेकिन व्यक्ति मिन मिन है । वे जानते हैं कि रोमा विसके लिए साथ होगा और किसके लिए नहीं, रोक्न से कौन रुकेगा और कौन नही। इसलिए हो सकता है, वे दा व्यक्तिया को ही नही, दो सौ व्यक्तियो को भी न रोक्ते । और भी बहुत सी बातें हैं जिहें महावीर जानत है पर जो साधारणत देखी नही जा सकती। महावीर यह देस सक्त हैं कि इस व्यक्ति यी उम्र समाप्त हो गई है। यह सिफ निमित्त है इसके मरने वा इसलिए वे चुप रह सकते हैं। हो सकता है कि उस व्यक्ति की उम्र समाप्त न हई हा जिसे उहान रोका है। महावीर जसे यक्तिया को समझना बहुत कठिन है। इसलिए उनके सवध मनोई निप्प निकालना महंगा हागा । जहाँ हम सटे हैं वहां से हम जो दीस पडता है हम उस तर ही साच मक्ते हैं । जिन्हें दूर तक दिसाइ पडता है वे क्या सोचत है, परा सोचत हैं, वे साचत भी हैं या नहीं--यह सब जानना हमारे लिए मुखित है। ज्यादा से ज्यादा हम अपना ही स्प प्रोजेक्ट पर सकते है। हम यही साच सक्त है कि उन हालत म हम होन, ता क्या करते। दा आदमिया का न मरने दत या फिर तीनो को ही मरन त । हम उम चेतना स्थिति का पाई अनुभव नहीं है जो बहुत दूर तक देगती ह। कभी गोशाक के साथ महापौर विसी गाव मे गुजर रहे थे। गोशालक न कहा--जो होनेवाला है वही होता है। महावीर कहत हैं--ऐसा ही है जो हान वारा है वही होता है । जिग यत से वे गुजर ररे थे उसम दो टहनियावाला एक पौवा गा था। उसम मभी लिया लगी थी एमी परियां जो माल पर बनी। गोगाला न उस पौधे यो उखाडकर फेर दिया और कहा कि य परियां पूर बनो Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महावीर : परिचय और वाणी वाली है, पर अब न बनेगी। नया समय वे दोनो भिक्षा लेकर वापस लौटे। इन वीच पानी वरस गया था और उन पीधे ने कीचड में फिर अपनी जड़े पक्ट ली थी और वह फिर सटा हो गया था। उसे देखकर महावीर ने कहा कि देव । वह कली फूल बनने लगी, पौधा लग गया हे जमीन में और कली फूल बन जायगी । जिसे दूर की बाते दिखाई पड़ती है उसे बहुत मी ऐनी बाते दिखाई पड़ती है जिन्हें हम समझ नही पाते । महावीर के नवध मे तो कई ऐनी बाते है जो माघारण लोगों की समझ मे मुश्किल से आती है। जैसे, याम तौर पर महावीर मरे होकर ध्यान करते है। यह भी माघारण नहीं लगता, क्योकि साधारण लोग बटकर ध्यान करते है। महावीर को परम ज्ञान की उपलब्धि होती है गोदोहासन में । यह वडा अजीव आसन है। वे गाय नही दुह रहे थे वे वैसे ही बैठे थे जमे कोई गाय को दुहते नमय वैठता है। कारण क्या था? यह वडी विचित्र स्थिति मालूम पड़ती है । इसमे तीन याते समझनी जरूरी है। पहली बात तो यह है कि गोदोहामन हमे असहज लगता है, लेकिन सहज और असहज हमारी आदतो की बाते है। पश्चिम के लोगो के लिए जमीन पर बैठना असहज है। जो अभ्यास मे है, वही सहज मालूम पड़ता है, जिसका अभ्यास नहीं है, वह असहज मालूम पड़ता है। हो सकता है कि महावीर पहाड़ पर, जगल में, धूप-ताप मे रोज इसी आसन में बैठते रहे हो। यह बहुत कठिन नहीं है। फिर महाचीर की एक धारणा और भी अदभत है। वे कहते है कि पृथ्वी पर जितना ही कम दवाव डाला जाय उतना ही अच्छा। इसमे उतनी ही कम हिंसा होने की संभावना है । महावीर रात सोते है तो करवट नही बदलते, क्योकि जब एक ही करवट सोया जा सकता हो तो दूसरी करवट विलासपूर्ण है। दूसरी करवट लेने में कोई चोटी, कोई मकोडा अकारण मर सकता है। कुछ कौमो मे जव लोग मिलते है तो नाक से नाक रगड कर नमस्कार करते है। यह उनके लिए सहज है। कुछ लोग हैं जो जीम निकालकर नमस्कार करते हैं। पश्चिम मे चुम्वन सहज सरल-सी बात है। हमारे लिए यह मारी ऊहापोह की बात कि कोई आदमी सडक पर दूसरे आदमी को चूम ले । जो अभ्यास मे हो जाता है वह सहज लगने लगता है। महावीर अहिंसा की दृष्टि से दो पजो पर वैठते रहे होगे। उनके लिए यह सहज भी हो सकता है। इस आसन मे सो भी नही सकते । महावीर कहते है-भीतर पूर्ण सजग रहना है और पूर्ण सजगता के लिए अथक श्रम जरूरी है । हो सकता है कि निरन्तर प्रयोग से उन्हें पता चला हो कि उकडू वैठने से नीद नही आ सकती। सबसे बड़ी बात तो यह है कि महावीर का मस्तिष्क परम्परागत नहीं है। वे किसी भी चीज मे किसी का अनुकरण नहीं करते। उन्हें जो सरल और आनन्दपूर्ण लगेगा, वह वैसा ही करेंगे। हम सब परम्परा के अनुयायी हैं । जैसे सभी Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १५९ बैठन हैं, वसे ही हम भी बैटते ह। महावीर इस तरह के व्यक्ति नही ह । हम यह भी सयाल नहा है कि हम पास तरह के कपड़े पहनत ह ता सास तरह जादमी हो जात ह आर दूसरी तरह व कपड़े पहनते ह ता दूसरी तरह के आदमी हो जाते है, एक ढग से वठत है ता एव तरह के आदमी हो जात हैं और दूसरे टग मे वटत ह ता दूसरी तरह के जादमी । हमारा जो मस्तिप्य है वह इन छोट छाट सकेता पर ही जीता और चलता है। हो मकता है कि महावीर का उडू बटना एक अजीव घटना है। साधारणत वाई उक्ड नहीं बटता । उनका उपडू बटना गोटोहामन म ध्यान करना मेरी दष्टि म गहर से गहरा अय रखता है । वह यह कि चित्त पर इम तरह बटन वा काई जोर नहीं है पुगना । गरीर की इस स्थिति म पुराना चित्त जोर नही डा सकता। तीसरी वान जो म कहना चाहता हूँ यह है कि आसन से ध्यान या काइ सम्बर नहा है। ध्यान है आतरिक घटना आर आसन है बाहर गरीर की स्थिति । महावीर यह भी सूचना दना चाह रह हैं कि यह धारणा गलत है कि पद्मासन म या सितासन मे ही ध्यान होगा और ज्ञान की उपाधि हागी । यदि परमासन या सिद्धासन म ही नान हो तो इसका अर्थ यह भी हागा वि ज्ञान गरीर की बैठक से वेंधा है। अमर म पान को परीर से क्या लेना-देना ? भीतर जो है वह पिसी आसन म उपर पहा सकता है। महावीर के गोगहासन की मूर्तियां जनिया ये मदिरा म नहीं मिलती। मूतिया बनी ह पदमासन म, क्यापि पुरानी धारणा है कि पानी का पदमासन म मान हाता है। महावीर को हम जसा देखना चाहत है वसा ही बना लेते हैं । दिगम्बर महावीर के नग्न चिन भी बनाएंगे तो एक थाड के पास बनाएंगे, तायि पाट म उनको नानता छिप नाय । ये लोग महावीर स ज्यादा हानि यार है । थाह के पास महावीर को पडा करना चमानी है। रेरिन हमारा दिमाग अयत क्षुद्र है और अपन हिसाब में नव-बुध फौरन टाररता है। पिर जो शाल हम बनाते है या जो व्यवम्या दत है वह हमारी होती है । एक आदमी अगर नगा हान पी हिम्मत परे ता उसके अनुयायी उमे नगा न हाने देंगे। अगर वह नगा हो ही जाय तो वे पाई तरकी निकालगे और पीछे रोप पातफर उसे बरावर पर देंगे और कहेंगे कि वह आदमो कभी नगा नही हुना। इसी तरह शानियां पता होती है और मर जाती है। रोज राज प्राप्ति की जारत पह जाती है सगोगा की जमरत पद जाती है जा फिर से आपर पोजा या तोड है। यह यहा दुमाग्यपूण घटना है। रेरिन यही होता रहा है कि ग्रामिारी जितना यहा हागा उमा उतना ही यात्रा लोप पोत लिया जायगा। हम शाद पता नहा कि कान्तिपारी यस राग थ । आन उनका और हो गर उपाय है ना मिय कभी नही रहे होंगे। म पता है कि किसी भी आमन में-- सौए वठे, 2 और राहे--म्यान हो Page #164 --------------------------------------------------------------------------  Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय महावीर की दृष्टि महावीर का भोग आयातुले पयासु । -सू० श्रु० १, अ० ११, गा० ३ 'दृष्टि शब् 'दशन' का पर्याय नहीं है। जहाँ दप्टि एकागी, अधूरी और सड स होती है वही दशन सदा समग्न होता है। दान कभी भी अयूरा नहा होता। जर तक मरे चित्त म विचार ह तब तब मेरे पास दृष्टि होगी, दान नहीं, फ्याकि म अपने विचार के चश्मे से देगा। मरे विचार का जा रग होगा वही उस चीज पर पडायगा जिसे म देरगा। दशन हागा तब जब म निविचार हा जाऊंगा। विचार दृष्टि तक ले जाती है और निर्विचार दशन तव । इस सम्बघ म एव वात और भी समझ रेनी चाहिए। दशन क्तिना भी समन क्या न हो--ममम हागा ही-- गर पाई उसे प्रकट करा जायगा, तब फिर दृष्टि गुरू हो जायगी, क्योंकि दान को प्रगट परने के लिए विचार का उपयोग करना पड़ेगा। विचार चीजा का ताडकर दरता है, परतु सत्य में सभी चीजें जुडी हुई ह । अगर हम विचार स देसन जायगे ता Tम अलग दीमेगा और मृत्यु जलग । बम और मत्यु पो विचार म गाडना अत्यत पठिन है ययापि जम मृत्यु पी उलटी चीा है। लेविस वस्तुत जम और मरण एक ही चीज क दो छोर ह । जा जम ग गुरू हाता है वही मत्यु पर विटा हो जाता है । एक ही यात्रा का पहला विदु जम है और अतिम विन्दु मृत्यु । ___महागीर, युद्ध, कृष्ण और प्राइस्ट को जो अनुभूति हुई थी वह रामग्र है, रेपिन जन व उस ममि यक्त करन ह तब वह समग्र नहा रह जाती-नय यह एक दष्टि र जाती है । गोरिए जो प्रक्ट दप्टियां हैं, उनग विरोध पड़ जाता है। दान भ याई विरोध नही है लेकिन प्रस्ट दृष्टि म विराध है। साहरणाय आप मार हम श्रानगर आए । हमारे और बापरे लिए ही नहा, राना के लिए पीनगर एव हा है। फिर हम दाना श्रीनगर से रोट । फाई हमरा पूछता है-आपने यहाँ क्या दार इगा उत्तर ग मैं ा परगा यह उसम भिन्न हागा जो आप रहेंगे। हा समता १ प्राणिपो ए प्रति आरमतुल्य भाव रखो । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महावीर : परिचय और वाणी है, मुझे झील पसन्द हो और मै झील की वात करूँ और आप को पहाड पसन्द हो और आप पहाड़ की बात करे । हो सकता है कि मुझे दिन पसन्द हो और मैं सूरज की बात करूँ और आपको रात पसन्द हो और आप चांद की बात करे । दर्शन मे श्रीनगर एक था, वहाँ रात और दिन जुडे थे, पहाड और झील जुड़े थे, वहाँ सब इकट्ठा था । लेकिन जब हम बात करने गए तो हमने चुनाव किया, एक दृष्टि अपनायी । जैसे ही कोई बात बोली जायगी वैसे ही वह दृष्टि बन जायगी । दृष्टियो को दर्शन समझने की भूल होती रही है । इसलिए जैनो की एक दृष्टि है, दर्शन नही; हिन्दुओं की एक दृष्टि है, दर्शन नही । अगर हम दर्शन की बात करे तो हिन्दू, मुसलमान, जैन —– सब खो जायँगे । महावीर का जो अनुभव है वह तो समग्र है, लेकिन अभिव्यक्ति समग्र नही हो सकती । समग्र अकथ है, वर्णनातीत है । छोटे-से, सरल अनुभव भी समग्ररूपेण प्रकट नही हो सकते, फिर परमात्मा का अनुभव तो बहुत बडी बात है ! आपने फूल को देखा । वह बहुत सुन्दर है । आपने उसकी अनुभूति का वर्णन करना चाहा । जब आपने उसके सौन्दर्य का वर्णन किया तो आपको लगा कि बात कुछ अधूरी रह गई। जो आपको अनुभव हुआ जीवन्त, जो आपका सम्पर्क हुआ फूल से, जो सौन्दर्य आप पर प्रकट हुआ, जो सुगन्ध आई और हवाओ ने फूल का जो नृत्य देखा——वह सब आपके लिए अकथ है और आप महसूस करते है कि आपकी अभिव्यक्ति कभी पूर्ण नही हो सकती । जब कोई असाधारण अनुभव को कहने जाता है व उसकी अभिव्यक्ति मे इतनी कमी पड जाती है कि उसका हिसाब लगाना कठिन है । दुनिया मे जितने सम्प्रदाय है वे सब कही हुई बातो पर निर्भर है --जानी हुई बातो पर नही । जानी हुई बातो पर कभी सम्प्रदाय निर्मित हो जायँ, यह असम्भव है । एक वार अपने शिष्यो की राय से फरीद कबीर के आश्रम मे रुके । कवीर के गिप्य भी चाहते थे कि दोनो ज्ञानियो मे बातचीत हो और वे उसका आनन्द ले । फरीद उस आश्रम मे दो दिन रुके । दोनो पास-पास बैठे लेकिन कोई बातचीत नही हुई । दोनो गले- गले मिले, हँसे और फिर फरीद की विदाई भी हो गई । कवीर के शिप्यो ने फरीद के जाते ही पूछा 'यह क्या ! दो दिन कैसे चुप रहे 1 एक ज्ञानी और दूसरा अज्ञानी आप ?' कबीर ने कहा 'दो अज्ञानी वोल सकते है, भी बोल सकते हैं, परन्तु दो ज्ञानियो के वोलने का उपाय क्या हे ? जो बोलता है वह नाहक अज्ञानी वन जाता है। उसे लगता है कि जो जाना गया है वह अपार है और वोला हुआ वहुत छोटा है। तो जो बोलता है वह नासमझ होता है ।' जहाँ ज्ञान है वहाँ भेद नही और जहाँ शब्द है वही भेद है । इसलिए महावीर ने जो जाना है वह तो समग्र है लेकिन उन्होने जो कहा है वह समग्र नही । वह Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वागी एमात ही है पड है। इसीलिए न मी सहिन और एकातिर है ययानि महायार कहा है वह न्मे ही पपड सरन म समय होता है। महावीर रा समग्र उसकी पर" म हा आ सकता, इसलिए यह जन होवर मंठ जायगा। वह अनयात या मा 'वाद' बा लेगा, मनावीर ये दान को भी दष्टि बना लेगा और उस प र बैठ जायगा। इसलिए सभी अनुयायी पड सत्य का पप डनयाले हात हैं। ममी सपाला पा यही आग्रह हाता है कि मरा सट रामग्र है। ऐस दाव सारा मनुप्य गानि का सह-सड म बांट दत हैं। मनुप्य, जो जवट है, इसी तरह टुकड़ा और मम्पया म पटपर टूट गया है। दष्टि पर हमारा जोर होगा तो सम्प्रदाय हाग, दान पर गार हागा ता सम्प्रदाय नहीं हागे । मेरा सारा बल दान पर है, दृष्टि पर नहा । महावीर का भी जार दशा पर था। दष्टि ही सवरा बडी बाधा है दान म। दप्टिमुक्त, दृष्टिाय हारर ही मैं पूण या जान सरता हूँ। यह प्रान नी स्वाभाविप है घि महावीर ने घर म ही रबर साधा क्या नही पी? पर और बाहर हम दो विरोधी चीजें मालूम पड़ती हैं। इस बात मा हम गयार नहीं आता fr पर और बाहर, दोना एक ही विराट पे दो हिस्ग हैं । जो सांग एरक्षण पहले याहर पी वह एप क्षण वाद भीतर हो जाती है और पुन बाहर । पपा बाहर है और मया भीतर हमारी जो दृष्टि है वह वही सोमा है। घर से हमारा मतपय है जो अपना है और बाहर से हमारा मतरर है जो अपना नही है ।रिन पपा ऐमा नहीं हो सपता कि शिगी गरिए पुछ भी एमा हो जो पना नहीं है ? अगर किसी व्यक्ति रिए ऐसा हो जाय ता घर और बाहर पापार ही पदा न हो। तव पर ही रह गया, यादर गुट न रहा या पर भी पहा है fr बाहर ही रह गया, पर पुए भी रहा। एप यात तय है fr जिरा पति यो ािई पड़ना शुरू होगा-उगे बाहर और भोर मी जो भेद, "गा है या मिट जायगी । पही बार है यही नीर। पर मनीतर हयाएँ मुछ मग पर यात्रा पर जाममा परम आ गया है वह एछ अलग है समाजा बाहर हो, वाहा फर हैसि दीया मिली प्रगती सारो, गोमामा नयापापी स्वरा है। जय स्यामा मेलिपाई परमे पार जा लय एम नरनिराशि उमा पर पिा है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महावीर : परिचय और वाणी कोई पराया है। तभी यह सम्भव भी है कि पराये की पीर उसे अपनी मालूम होने लगे। ____ इस 'मेरे' की दुनिया मे हमने कई तरह की दीवाले उठाई हैं-पत्थर की भी और प्रेम की भी, राग की भी और द्वेप की भी। लोग इसी कारण पूछते है कि महावीर ने घर क्यो छोड दिया ? क्या घर मे सावना सम्भव न थी ? नही, घर ही सम्भव न था---घर ही असम्भावना थी। हमे एक ही बात दिखाई पडती है कि महावीर ने घर छोडा । इसका कारण यह है कि हम घर को पकड़े हुए लोग है । घर को छोड़ने की बात ही हमारे लिए असह्य है। महावीर ने घर छोडा या कि घर मिट गया ? जैसे ही जाना वैसे ही घर मिट गया जैसे ही समझा वैसे ही मेरा और अपना कुछ भी न रहा । दस करोड मील जो सूरज है, वह भी हमारे प्राणो के स्पन्दन को बाँधे हुए है, वह भी हमारे घर का हिस्सा है। लेकिन कव हमने सूरज को अपना साथी समझा ? कब हमने माना कि सूरज भी मित्र है अपना ? लेकिन जिसे हम अपने परिवार का नही समझते उसके विना न तो हमारा परिवार होगा और न हम होगे। दस करोड मील दूर बैठा हुआ सूरज भी हमारे हृदय की धडकन का हिस्सा है। दूर के चाँद-तारे भी, दूर के ग्रह-उपग्रह भी किसी-न-किसी अर्थ मे हमारे जीवन के हिस्से है। यदि पत्नी ने आपका खाना बना दिया है तो वह आपके घर के भीतर है, लेकिन वह गाय नही जिसने आपके लिए दूध वना दिया है। घास को सीधे चरकर आप दूध बना नही सकते । बीच मे एक गाय चाहिए जो घास को उस स्थिति में बदल दे, जहाँ से वह आपके योग्य हो जाय । लेकिन घास ने भी कुछ किया है। उसने भी मिट्टी को बदला है और उससे, जल और हवा से, अपना निर्माण किया है। घास आपके घर के भीतर है या वाहर ? क्योकि अगर घास न हो तो आपके होने की कोई सम्भावना नहीं है और घास अगर न हो तो मिट्टी को खाकर गाय भी दूध नही बना सकती। अगर हम आँख खोलकर देखना शुरू करे तो हमे पता चलेगा कि सारा जीवन एक परिवार है, जिसमे एक कडी न हो तो कुछ भी न होगा। सामने पडा हुआ पत्थर भी किसी-न-किसी अर्थ मे हमारे जीवन का हिस्सा है । जिसको जीवन की इस विराटता का अनुभव होगा वह कहेगा कि सभी मेरे हैं। सभी अपने है या कोई भी अपना नहीं है। अत यह कहना अनुचित है कि महावीर ने घर छोडा । असल मे जब उन्हे वडे परिवार के दर्शन हुए तव छोटा परिवार खो गया। जिसको सागर मिल जाय वह बूंद को कैसे पकडे बैठा रहेगा? ज्ञान विराट मे ले जाता है, अज्ञान क्षुद्र को बांधकर पकडा देता है। अज्ञान क्षुद्र मे ही रुक जाता है, ज्ञान निरन्तर विराट से विराट होता जाता है । महावीर ने घर नही छोडा, उनके लिए घर को पकडना असम्भव हो गया। पहला घर छूट नही गया, सिर्फ वह वडे घर का हिस्सा हो गया । त्याग Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावार परिचप और वाणी Tए अय को राया म रग। त्याग या अप बुरा छाडना ही, विराट या पाना है। रेमिा त्याग गम में पतरा है. मारण rि उसम छोडने का भाव छिपा हुना है। मरी दृष्टि म महावीर या बद्ध या पृषण-जसे लोगा यो स्यागी पहने म चुनियानी भूर है। इनमे वहा भागी सामना असम्भव है । रयाग या अय है कुछ छाडना, नाग पा अय है पुछ पा 1 महावीर से यहा पोई भोगी हाना टासम्भय है ययारि जगत मजा भी डराती गया है-उपा भाग भी अनत हा गया है। एस विराट को पागने यी गामध्य शुद्र चित्त में नहीं हाती। , धुर पो हो नाग ममता है इसलिए वह क्षुद्र यो पर ऐता है। पर पूरा नहीं है महावीर पा, सिप यहा हो गया है । पदी न पा पो सागर म छा दिया है। अब उगमा योई पिनारा रहा है। जीवन पी मान मूरत दिनारा यो छाहा की या बडे मिनारा पापा को सहै। जिसमा अगीम और अनत मिल जाता हो उससे यदि हम पूपि तुमने पिनार यया घाटे ता यया उत्तर देगा वर? यह सिपा हमगा मोर महगा कि जाओ, अपने रिनारा माघार देखो वि पया पाया है। मरा सरह है हि त्याग पो या ना और यर लिया जाय पिराट भाग पर। मेरी अपना समय है कि हिमो अपन महापुरुषा पा त्याग से बाय लिया है माि हम उन नियर नहीं पहुय पात । इमरा गारण यर है जित्याग हमfrसी या मा-अपीर ही पर सपना। बहुत गहरे म रयाग या सातही पिंप पी यात है। घाटा यामपाती है। स्वम्प नागना चाहता है, छोगा पाहता है क्यामि यह भोग हा मरता। इसरिए बीमार और मामपाता चित - साग पटो हो रायगे पम पे नाम पर । गरिए ता राग पहो। गायरया पर पीमा जारा? पर ता पजावस्था - for निा मतिरा, मारा और गिरगों मयाग निपाद पररा है। मैं पहा मासा और ज्या गा। पर माना या मागा, माल उमा नागया। था पर मा पर जाना । विराट र सामन रोमा। दस पद जारा सागर म । मागा सागर । माrst माशय पिस पापाय मा पार पाही। मरिश साम गि T मशजार comसा गदिरा नगरिए बामति पता पाए । भना रामा। नाय माग ग पर सा र मी पिया गाय गो पारा भादार परामपामा FFrमारम बिगर मारमा पाप! TIT मागर पाmar पर तीनही ए बापापन ग पात पर आ गया। गारको सरकार सामागार भापामार माTERI बारपार कि ? Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी , 1 यह भी सत्य है कि जिस प्रकार 'त्याग' शब्द ने अब तक गलती की, वसे ही मेरा 'भोग' शब्द भी गलती कर सकता है । सभी शब्द गलती कर सकते है । अन्तत. शब्द गलती नही करते, लोग गलती करते है । लेकिन 'त्याग' शब्द व्यर्थ हो गया है । त्याग के विपरीत कोई शब्द नही है सिवा भोग के । लेकिन यह भी स्मरण रहे कि मेरा भोग त्याग के विपरीत नही है । मैं कह रहा हूँ कि यदि दूसरी सीढी पर पैर रखना हो तो पहली सीढी छोडनी ही पडेगी । मेरा जोर दूसरी सीढी पर पैर रखने पर है, आगे वढने पर है -- पिछली सीढी छोडने पर नही है । रुग्ण चित्त त्याग की भाषा को समझ लेता है, स्वस्थ चित्त नही समझ सकता | 'त्याग' शब्द पर जोर देने का परिणाम यह हुआ है कि जो स्वस्थ जीवन्त और जीने के लिए लालायित है वह उस ओर नही गया है । मैं यह कह रहा हूँ कि यह जो जीवन्त धारा है इसे आकृष्ट करो । और यह तभी आकृष्ट होगी जब विराट् जीवन का खयाल इसके सामने होगा और कहा जायगा कि कुछ छोडना नही है, पाना है । और छोडना होगा ही इसमे, क्योकि विना छोडे कुछ भी पाया नही जा सकता । जीवन को जीना है, उसकी आत्यन्तिक उपलब्धियो मे, उसके पूर्ण रस मे, उसके पूर्ण सौन्दर्य मे । छोडना कभी भी चित्त के लिए आकर्षण नही बन सकता पाना ही चित्त के लिए सहज आकर्षण है । मेरी दृष्टि यह है कि महावीर ने घर छोड़कर जिस आनन्द की अनुभूति की, वह खबर देती है कि उन्होने घर छोडा नही, उन्हे बडा घर मिल गया । जो मिल गया है वह चारो ओर से उन्हे आनन्द से भर रहा है । लेकिन महावीर के पीछे चलनेवाले साधुओ को देखे । ऐसा लगता है कि वे सड़क पर खडे है और उनके पास जो था वह खो गया है और जो मिलना था वह उन्हें मिला नही । तो एक अधूरे मे अटक गए है उनके प्राण । वे कप्ट मे जी रहे है मानो, एक परेशानी मे है। हम किसी को परेशानी मे जीते देखकर आदर क्यो देते है ? असल मे इसमे भी बड़ी गहरी हिंसा का भाव है । परेशान आदमी को हम आदर देते है । परेशानी यदि स्वेच्छा से ली गई होती है तो हम उसे और भी आदर देते है । हमारा यह आदर भी रुग्ण है। असल मे हम दूसरो को दुख देना चाहते है | दूसरो की पीडा- परेशानी हमारे भीतर की किसी गहरी आकाक्षा को तृप्त करती है । जब कोई ज्यादा-से-ज्यादा सुख मे जाने लगता है तो हम दुख मे जाने लगते है । किसी का सुखी होना हमे दुखी वना देता है । मनुष्य जाति भीतर से रुग्ण है, इसकी वजह से त्यागियो ओर तपस्वियों को सम्मान मिलता है । अगर मनुष्य जाति स्वस्थ होगी तो सुखी लोगो को सम्मान मिलेगा । अब तक सिर्फ दुखी आदमियो को सम्मान दिया गया है । यह मनुष्य जाति के भीतर दूसरे को दुख देने की प्रवल हिस्सा आकाक्षा का हिस्सा है । १६६ यह न भूले कि कॉटा चुभोनेवाला भी बीमार है और कांटा चुभोनेवाले को आदर देनेवाला भी खतरनाक है. रुग्ण है । इसी प्रकार फल संघनेवाला भी स्वस्थ है और Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी फूर सूधनेवाले का सम्मान दनेवाला भी स्वस्थ है। एक ऐसा समाज चाहिए जिसमें सुख का समादर हो दुख का अनादर हो । लेकिन हुआ उलटा है और हमने उन लागा को भी दुसी लागा पी श्रेणी म रख दिया है जो सबसे ज्यारा सुनी लोग थे । वस्तुत महावीर-जस व्यक्ति को सर्वाधिक सुसी लोगा म गिना जाना चाहिए। लेक्नि हमारी त्याग की दृष्टि ने उनके सारे सुख और मानद को क्षीण कर दिया । हमने यह बहना शुरु किया कि यह आदमी इनने बानन्द में इसलिए है कि इसने इतना इतना त्याग दिया। लेकिन बात उल्टी है । यह आदमी इतने आन द म है कि इससे इतना त्याग हो गया। त्याग हो जाना इतने आनद म होने का परिणाम है। मैं छोडन की भापा के ही विरोध म है। बडा घर पाया, छोटा घर छूट गया। लेकिन इसका मतलब यह नहीं वि व छोटे घर के दुश्मन हो गए । इसका मतलब सिफ यह है कि अब छोट घर म रहना असम्भव हा गया। जब बडा घर मिल गया तो छोटा घर उसका हिस्सा हो गया । भोग भी भ्राति ला सरता है। प्रत्येक चीज घ्रान्ति ला सकती है। फिर भी अगर चुनाव करना हो तो मैं कहूँगा कि भाग ही ठीक है क्योकि वह जीवन के स्वस्य, सहज और सरल होने का प्रतीक है। यह भी बडे मो की बात है कि जो आदमी भोगन चलेगा उससे त्याग धीरे धीर अनिवाय हो जायेंगे और वह जैसे-जसे भोग म उतरेगा वस-वैसे बने भोग की सम्भावनाएँ प्रस्ट हागो । लेबिन जो आदमी त्याग करने चरेगा, उससे पुराने भाग की सम्भावनाएँ छिा जायगी, नए भोग की सम्भावनाएं प्रपट नहा हागी और यह आदमी सूखता चला जायगा। तो मैं कह रहा हूँ कि माग अन्तत त्याग बन जाता है, लेकिन त्याग अन्तत भोग नहा बनवा । एक वेश्या भी ग्रहाचय का उपलब्ध हो सकती है, रेविन जो बरदस्ती ब्रह्मचय थोपरर साध्वी वन गा है उसका ब्रह्मचय का उपल ध होना बहुत मुश्विर। वेश्या अपन निरन्तर के अनुभव म ब्रह्मचय की दिशा में गतिमान होती है रविन थोपा हुआ ब्रह्मचय निरन्तर यासना की दिशा म निमार परता है। महावीर वे जब बाल बढ जात थे तो उन्हें उनाड देते थे। इसका कारण यह पा पि व अपने पारा उस्तरा भी हा रखत। जिस व्यक्ति । सारे जीवन का अपना ही मान लिया है वह यह भी समझ गया है कि बल के लिए कौन योय होता पिरे, कर सुवह जो होगा, होगा। महावीर के लिए सरलतम यही था विवाल उसाद लिए जाय । सार को सार म घर गाय तो फिर साइ दिए जाय भार यात्रा परती रह। उस्तरा-जसा हा सामान भी क्या ढाया जाय ? एस पाप वो दोन वी जरुरत ? सामान पो पाटकर गोम सुरक्षित हान की पामना हाता है जो महावार मन थी। महिए व भागारन म रत है। सुरक्षा पा मोह गाय नहीं पुछ गाया भाव की परन्त पा एक यग है जा बार Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महावीर : परिचय और वाणी उसाडता है, जो बाल उनाडने में ल लेता है। वह भी एक तरह से मताता है अपने को । जव महावीर मे दूसरे के शरीर को नग देखने का भाव न रहा तो वे खुद नग्न सडे हो गए। लेकिन कुछ लोग ऐने भी हैं जो अपने को नगा दिसाना चाहते है। यह पागलो का वर्ग है। महावीर के आग-पान ऐने मन्यानी हो गए है जो यह चाहते है कि कोई उन्हे नगा देखें। जो आदमी सरलता की वजह मे नग्न हुआ है, वह जीवन के और हिस्सो मे भी तरल होगा । मगर जिसे नग्नता में रस मिलता हो उसके लिए यह भोग का ही हिस्सा है। उसके लिए वल इस बात पर नही कि कपडे छुटे, बल इस बात पर है कि नग्नता जाई। जो आदमी सिर्फ इसलिए नग्न हुआ है कि दूसरे लोग उसको नगा देवं, वह बीमार है। वह जीवन के अन्य हिस्सो मे भी सरल नही होगा । दूसरे हिस्मो में भी उसकी विक्षिप्तता प्रकट होगी। इस तरह का धार्मिक पागलपन ज्यादा सतरनार चीज है क्योकि उसमे धर्म भी जुडा हुआ है । धार्मिक पागल निरीह नहीं होता, दूसरो को निरीह करता है। धर्म ने बहुत तरह की विक्षिप्ततानो को औचित्य दिया है। पर इस ओनित्य को तोड देने की जरूरत है और यह साफ समझ मे आ जाना चाहिए कि यह तभी टूटेगा जब हम दुख को धर्म से अलग करेगे। इस दुखवाद के भीतर ही तारा मौचित्य छिप जाता है। मेरी दृष्टि मे धर्म सुस फी सोज है, परम सुख की खोज । और धार्मिक व्यक्ति वह हे जो स्वय भी आनन्द की ओर निरन्तर गति करता है और इसके लिए चेप्टारत होता है कि चारो ओर निरन्तर आनन्द बढे । न तो वह स्वय को दुख देता है और न दूसरो को दुख देने की आकाक्षा करता है। उसके मन में दुख के प्रति न कोई आदर है न कोई सम्मान। ऐसे वाक्ति को अगर हम धार्मिक कहे तो धर्म परम आनन्द की दिशा बनता है। परन्तु जब तक वह परम दुख की दिशा बना हुआ है। कहा जाता है कि महावीर नासाग्न दृष्टि से ध्यानावस्थित हुए। नासाग्र दृष्टि का मतलब है-आँख आधी वद और आधी खुली। अगर नाक के अग्र भाग को आप आँख से देखेगे तो आवी आंख बद हो जायगी, आधी सुली रहेगी। साधारणत हम चाहे तो नीद मे अपनी आँखो को बद रखते है या जागरण मे खुली । नासाग्र दृष्टि होती ही नही । पूरी वद ऑख निद्रा में ले जाती है और पूरी खुली आँख जागरण लाती है। ध्यान दोनो से अलग अवस्था है। वह न तो निद्रा है और न जागरण । वह निद्रा-जैसा शिथिल है और जागरण-जैसा चेतन । न तो वह नीद है और न जागरण । वह तीसरी अवस्था है। उसमे नीद और जागरण, दोनो के तत्त्व है । नीद मे जितनी शिथिलता होती है उतनी ही ध्यान मे होनी चाहिए और Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १६९ जागरण में जितना चतय होता है उतना ध्यान में होना चाहिए। तो ध्यान ए मध्य अवस्था है और नासाग्र दप्टि आख के पीछ के स्नायुओं का मध्य अवस्था म छोड़ देती है । व म सब मिट जाता है, केवल व्यक्ति रह जाता है, खुली आंख म सब सत्य हो जाना है और व्यक्ति मिट जाता है । आधी वद और आधी खुली आस वा यह भी अथ है तो हम सनसे टूट हुए हैं और न सबस जुड़े हुए हैं। न तो यह बात सच है कि सब सच है और हम झूठे हैं और न सच है । महावीर का सारा जोर सम पर है निरतर 'सम्यक शद उनक प्रयोग म सर्वाधिक आनेवाला है। प्रत्यक चीज में सम, प्रत्यव बात में मध्य प्रत्यक बात यहाँ सडा हो जाना जहाँ अतिया न हा । आँख के मामले में भी मति न हो । यही कि मव झूठे हैं और हम J तो आँस पूरी सुली हो जोर T पूरो वद । ससार भी सत्य है आधा और हम भी सत्य हैं आधे | जगत माया है यह वद आस वा अनुभव है । अगर बाद पूरी सुली के अनुभव से जिए तो इंद्रिया के रस ही दोष रह जात है, आत्मा विलीन हो जाती है, जगत सत्य होता है, आत्मा असत्य हो जाती है । महावीर कहते हैं 'जगत भी सत्य है और आत्मा भी सत्य है ।' न तो जगत असत्य है और आत्मा । पदाथ भी सत्य है और परमात्मा भी । दोना एक बडे सत्य के हिस्सा हैं | दोना सत्य हैं और प्रतीक है वह नासाग्र दृष्टि-- यानी महावीर कभी पूरी आग वद वरखे ध्यान नही करेंगे और न अपनी आंसा का कभी पूरी सोल्वर ध्यान करेंगे । नाधी अस खुरी ओर आधी बन्तावि बाहर और भीतर एवं सम्बन्ध बना रहे। जागे भी रहें और न जागे मी । बाहर और भीतर एक प्रवाह होता रहे चेतना का । चावा असे रोगा ने ध्यान नही दिया, बस खुली आख रखा । साधारणत हम चार्वाक वा मागी बहेंगे। मैं चार्वाक वो त्यागी बहुंगा । यद्यपि वह घी पर जी रहा है फिर मा बहुत बाहर जी रहा है। खाने पीने तक उसका योग है । तयोग की आर उसकी दप्टि ही है। महावीर प्रत्येव चीन में एव सत्तुरन और समता का ध्यान रखते हु । इम fre उनी तिर और चार्याक, दानो को दृष्टि से मन है। साधारणत जागति के दो ही रूप हा सकते हैं वहिमुखी और अतमुसी । वहि मुसता जीवा वा व्ययता म उल्पा देती है और भीतर से तोष्ट देती है । अतमुता जीवन स तोड देती है, भीतर हुवा देती है--सब तरफ से दरवाजे व परती है । पहली बात उतनी ही अधूरी है जितनी दूसरी बात । असर मे एक तीसरा स्थिति भी है जिस पर महावीर का य ह । इस स्थिति मे न ता हम भीतर दमत हैं और न बाहर | सिर्फ दगना रह जाता है for प्रकाश जिसका कोई कारण नहीं है । न तो हम भी होते हैं भोर न वहिमुगा । स स्थिति में व्यक्ति मिप हाना है । यम, यह होता मात्र ही जागति है--पूण जागृति । ता महावीर हन है कि जा पूरी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महावीर : परिचय और वाणी तरह जाग गया वही साधु है, जो सोया है वही असाघ है। असाथ दो तरह के हो सकते हैं : एक जो बाहर की ओर सोया हुआ है और दूसरा जो भीतर की ओर सोया हुआ है। साधु एक ही तरह का हो सकता है जो सोया हुआ ही नहीं है, जिसमे मूळ नामकी चीज नहीं । एकागता और ध्यान के बुनियादी फर्क को भी सयाल मे ले लेना चाहिए। ध्यान का किसी एक विन्दु पर एकाग्र हो जाना ही एकाग्रता है । एकाग्रता का विन्दु वदलता नही, चचलता का विन्दु वदलता जाता है । एकाग्रता मे एक बिन्दु रह जाता है, शेप सब सो जाता है। व्यान मे ऐसा गोई विन्दु ही नहीं होता जिसके प्रति चित्त सोया हुआ है । ध्यान एकाग्रता नहीं, वस जागरण है। किमी एक चीज के प्रति जागरण नही, वरन् समस्त के प्रति । जागरण का यही अर्थ है। जब मेरी ओर एकाग्रता होगी तव पक्षियो का कलरव, कुत्ते का भीकना आदि सुनाई नहीं पड़ेगा। जब जागरण होगा तब एक साथ घटनेवाली ननी घटनाओ का पता चलेगा। अभी भी एक साथ हजारो घटनाएं घट रही है। इन सबके प्रति एक साथ जागा हुआ होने को महावीर अमूर्छा कहेगे, जागरण कहेगे। जब चेतना के दर्पण पर विचार प्रतिफलित होन लगें, साँस की धडकन सुनाई पडने लगे, आँस के पलको का हिलना महसूस होने लगे तभी पूर्ण स्वभाव की उपलब्धि होती है। यह पूर्ण स्वभाव सदा से हमारे पास है । हम उसका उपयोग ऐसा कर रहे है कि वह कमी पूर्ण नही हो पाता । उपयोग न करने के कारण गेप के प्रति मूर्छा है और कुछ ही के प्रति जागरूकता। इसलिए यह सवाल पैदा हो जाता है कि मूर्ची कहाँ से आई ? मूर्छा कही से भी नहीं आई। यह हमारे द्वारा निर्मित है । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय उपसहार व ताण, कुल विज्जाचरण सुचिष्ण ॥ न तम्म जाइ व णणणत्य सू० ० १, अ० १२, गा० ११ १ महावीर व समय में विचार की लीक छूट गई थी । आचाय थे, साघु थे लेकिन धारा मत हो चुकी थी । यह मृत धारा क्तिने समय तक चल सकती थी ? महावीर ने नई विचार दष्टि को जन्म दिया, नई हवा फली, नया सूरज निकला। लेकिन पुरा पर चरनवाले ललगा न नए को स्वीकार नहीं किया । व अपनी लोप पर ered गए। एसा भी हुआ कि महावीर न जो वहा था, वह भी चला और जो पिछली परम्परा थी वह भी चलती रही। परंतु परम्परा मान होने से कोइ जीवित नहीं होता । बरिन वात उल्टी है । जब बाइ चीज परम्परा बनती है तब वह मर गई होती है । आचायों वा होना यह सिद्ध नही पता कि वे बिसी जीवित परम्परा ये ही वशघर हो । सच तो यह है कि उनका होना इस बात को सार है कि अब कोई अनुभवी व्यक्ति जीवित न रहा । इसलिए जो जाना गया था उसको जाननवाले लोग गुरु वा काम निवाहन लगत हैं। साधु भी ह्नता साबुआ से कुछ होता है और न शिक्षवा से, जब तक रि जीवित अनुभव वालिय हुए कोई व्यक्ति न हो । महावीर व माग दगन में इन बान से कोई अपराध नहीं पढता तीचवर के लोग शेप थे । उनमें जा भा समझदार साघव जीवित थे व महापार साथ आ गए। जो जिट्टी आर अये थ, आग्रह रत थे वे अपना पाट भरत गए । फिर एम व्यक्तिया वा जाम पिरो यक्तिया स नहा जाता जा सकता। जब भी जा में जरूरत होती है प्राण पुवार करते हैं, तब याद नन्याद उप चेतना वरुणा वापस लौट जाती है। एक वक्त था राम ईश्वर का शामराव भी उष्ट करते थे । अय लोग एगे हैं इनकार करन या भाषेष्ट भवसार से तार नहीं सत । वेद मान और १ मनुष्य को जाति अथवा सदाचार ही उसे तार मरत है । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महावीर : परिचय और पाणी उठाना नहीं चाहते । महावीर वक्त पुरानी परम्परा नती थी, पुराने गुर थे, पर वे मृत थे। उनमें कोई जीवन न था। उनदिए महावीर के मावि वि पर कोई असगति की बात नही काही जा नपाती। महावीर को मौलिकता के गम्बन्ध :नना ही कल्ना पर्याप्त होगा कि सत्य न तो नया है और न पुराना। जो नदा है वह न तो बानी पुगना होगा और न कभी नया। जो नया होता है, वही काल पुराना हो जाता है। जो आज पुराना दाखता है। वहीं कल नया था। असल में सत्य के सम्बन्ध में ये विगेपण एकदम व्यय है। " वह होता है जो जनमता है, पुराना यह होता है जो बटा होता है । मन न ता जनमता है और न बूटा होता है, न मरता है। बादल नए-पुराने हो मात है, लेकिन आकाग न नया है न पुराना । सत्य भी नया और पुस है । इसलिए जब भी कोई दावा करता है कि सत्य प्राचीन है या नना, तब भी वह मूसंतापूर्ण दावा करता है। सत्य एक निरन्तरता है। गा है। महावीर और बुद्ध जो कहते है वह शायद वही है जो निरन्तर है। लेकिन उससे हमारा सम्बन्ध निरन्तर छट-छट जाता है । इमलिए १ . चिल्लाकर, पुकार-पुकार कर उस ओर हमारी आँखे उठवाते है । अति उठ मा नहा पाती कि वे फिर वापस लौट आती है। इन अर्थ मे जब भी काइया उपलब्ध होता है तो, कहना चाहिए, नया ही उपलब्ध होता है। दूसरे का साथ वासी हो जाता है और हमारे लिए कभी किसी काम का नही हाता । " भी सत्य को नया कहा जा सकता है। वस्तत हमारे लिए सत्य तमा " होगा जब वह फिर नया होगा। सवाल यह नही है कि महावार न दिया ? सवाल यह है कि उनका जीना बिलकुल नया था या नहा : २४ नहीं कि महावीर का जीना सामान्य जन के जीने से बिलकुल भिन्न था, विलकुल नया-नया इस अर्थ मे नही कि वैसा पहले कभी कोई नही जिया होगा। कोई भाजपा हो, करोड़ो लोग जिए हो, तो भी फर्क नही पडता। जव मै किमी को प्रेम करता तव वह प्रेम नया ही होता है। मझसे पहले करोडो लोगो ने प्रेम किया है, लोकन कोई भी प्रेमी यह मानने को राजी नही होगा कि मैं जो प्रेम कर रहा हूँ वह वाला या पुराना है। दूसरे का प्रेम किसी दूसरे के काम का नही होता । तो महापा विलकुल अपने ही सत्य को उपलब्ध होते है। वह बहतो को उपलब्ध हुआ हो" और होता रहेगा, फिर, भी उस उपलब्धि पर किसी व्यक्ति की कोई सालन नही लगेगी। महावीर ने अहिंसा को जो अभिव्यक्ति का जो अभिव्यक्ति दी है वह एक दम अनूठी और नई है। शायद वैसी किसी ने भी पहले नही दी थी। हल नही दी थी। अभिव्यक्ति नई हो सकती है क्योकि वह पुरानी भी पड जाती है । अव महावीर की अभिव्यक्ति पुरानी पड गई है । मशक आज Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! महावीर परिचय और वाणी १७३ अगर मैं कुछ कहूंगा तो वह क्ल पुराना पड जायगा । सत्य न नया होता है और न पुराना पडता है। सारी किनाबा म भी लिसा हो तब भी सत्य पुराना न होगा । पता होने मे या आपके व्यक्ति को उसकी उपलब्धि होगी तब वह नए की ही उपलब्धि होगी । सत्य सदा से है लेकिन जब व्यक्ति सत्य से सम्बंधित होता है तब सत्य उसके लिए या हो जाता है । और प्रत्यव व्यक्ति की अनुभूति जिसे वह अभियक्त करता है, नई होती है क्योकि वैसी अभियक्ति काई दूसरा नही दे सकता । इसका कारण यह है कि वसा कोई दूसरा यक्ति न तो हुजा है, न है ओर न हो सकता है। मेरे म में कितना बडा जगत सम्बंधित है, इसका हमे कोई सयाल नही है । मेरे पदा होने म आज तक विश्व की जो भी स्थिति थी, वह सब की सन जिम्मदार है और मुझे फिर से पंदा करना हो तो विश्व की ठीक वही थिति पूरी-पूरी पुनरुक्त हो, तभी म पैदा हो सकता हूँ। मेरे पिता चाहिए, मेरी मा चाहिए। वे भी उही पिताओं और माताजा से पदा होने चाहिए जिनसे वे पैदा हुए थे । इस तरह हम पीछे राटते चले जाएँ तो देखेंगे कि विश्व को पूरी स्थिति एक छोटस व्यक्ति के पदा होत म सयुक्त है । अगर इसमें एक इच भी इधर उधर हो जाय तो मैं पदा नहा हो सकूगा । जो भी पदा होगा वह दूसरा होगा । जगत का पूरा का पूरा अतीत फिर स पुनरुक्त हो तभी म पैदा हो सकता हूँ । यह कसे सम्भव है ? तो निश्चय ही किसी व्यक्ति को दुबारा पैदा नही किया जा सकता। इसलिए किसी यक्ति के अनुभव को, उसकी अभिव्यक्ति को नी दुवारा पैदा नही किया जा सक्ता । इस अर्थ में सत्य का अनुभव व्यक्तिगत है । २ मैं मत मतान्तर का तनिक भी पपाती नही हूँ । न कोई जैन है, न वौद्ध, न कोई हिंदू है और न मुसलमान । ससार मे लोग चाहे धार्मिक हैं चाहे धार्मिक जो धार्मिक है यह बुद्ध, महावीर, कृष्ण और क्राइस्ट हो सकता है। लेकिन वह हिदू, जन, मुसलमान या ईसाई नही हो मक्ता । अवासिक आदमिया के सम्प्रदाय है । इसे ऐसा भी वह सात हैं कि धम या कोई सम्प्रदाय नहीं है, सब सम्प्रदाय अधम के हैं। अधार्मिक आदमी महावीर होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, बुद्ध नहीं हो सकना, दृष्ण हा हो सकता । चूंकि वह धार्मिक होने का मजा लेना चाहता है इसलिए वह एक सम्ता रास्ता निकाल लेता है । वह वहता है कि महावीर तो हम हो नही सक्त लेकिन जन तो हो सकत हैं । लकिन उस पना नहा कि जिन हुए बिना कोई जा करा हा सकता है ? जिसने जीता वहा सत्य का उस जैन कसे कहा जा है ? महावीर इसलिए जिन हैं कि उन्होंने सत्य को जीता है। कि वह महावीर को मानता है । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ महावीर : परिचय और वाणी मेरा तो कोई पक्ष नही, कोई मत नही। महावीर से मुझे प्रेम है इसलिए मै महावीर की बात करता हूं, बुद्ध से मुझे प्रेम है, मैं बुद्ध की बात करता हूँ, कृष्ण से मुझे प्रेम है, मैं कृष्ण की बात करता हूँ। मैं किसी का अनुयायी नहीं हूँ। इस बात का आग्रह मन मे जरूर है कि इन सबको समझा जाना चाहिए। इनके पीछे चलने मे कोई कही पहुँच नहीं सकता, लेकिन इन्हें अगर कोई पूरी तरह से समझ ले तो स्वयं को समझने के लिए वडे गहरे आधार उपलब्ध हो जाते है। दूसरी बात यह है कि मानव-धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती। दुनिया में कभी एक धर्म स्थापित नहीं हो सकता। मनुष्य एके दूसरे से इतना भिन्न है कि कभी एक धर्म का होना असम्भव है । मेरी दृष्टि यह है कि मानव-धर्म एक हो, यह बात ही बेमानी है । धार्मिकता हो जीवन मे । धार्मिकता के लिए किसी सगठन की जरूरत नहीं। मैं इस चेष्टा मे नही हूँ कि एक मानव-धर्म स्थापित हो, मै इस चेप्टा मे हूँ कि धर्मो के नाम से सम्प्रदाय विदा हो जायें । बस, वे जगह खाली कर दे। मेरी दृष्टि यह है कि अगर सम्प्रदाय मिट जायें तो अधार्मिक आदमी बहुत कम रह जायेंगे। यदि सभी धर्मो के सार को इकट्ठा कर लिया जाय तो इससे कोई सम्प्रदाय खडित न होगा । मानव-धर्म स्थापित करने की चेप्टा मे एक और धर्म की स्थापना हो जायगी, एक और सम्प्रदाय बन जायगा। मेरी सलाह है कि सम्प्रदाय-मात्र का विरोध किया जाय और धार्मिकता की स्थापना की जाय--वर्म की नहीं, धार्मिकता की। तीसरी वात-महावीर और वुद्ध-जैसे व्यक्तियो ने भगवान् को जो इनकार किया है, उस इनकार मे भगवत्ता का इनकार नही है। ईश्वर को इनकार किया है लेकिन, ईश्वरता को पूर्ण स्वीकृति दी है। अगर वे ईश्वर को मानते तो इनसान की स्वतत्रता पूरी नहीं हो पाती और अगर उसके रहते इनसान को स्वतत्र मानते तो यह स्वतत्रता वेमानी होती। यानी, अगर ईश्वर है और हम उसे स्रष्टा, नियम आदि नामो से पुकारते है और साथ ही यह भी कहते है कि आदमी पूर्ण स्वतत्र है तो, महावीर कहते है, इन दोनो वातो मे मेल नही है। ईश्वर की मोजूदगी ही इनसान की स्वतत्रता मे दाधा वनेगी। नियम उसकी परतत्रता के जनक होगे। इसलिए महावीर परमात्मा को इनकार करते है ताकि परतत्रता का कोई उपाय न रह जाय। इसका यह मतलब नहीं कि वे परमात्मा को नही मानते । इसका मतलब है कि वे परमात्मा के व्यक्तित्व को इनकार करते है और परमात्मा को सवमे व्याप्त मानते है, नियामक नही । परमात्मा के ऊपर वे किसी को नहीं विठाते । यदि हम यह मान ले कि परतत्रता परमात्मा की इच्छा है, जैसा कि साधारण आस्तिक मानता है, तो मनुष्य विलकुल परतत्र हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि हम अपनी इच्छा से इम जगत् मे नही है या कि ईश्वर की इच्छा से ही हम यहाँ हैं तो जगत् कठपुतलियो का खेल हो जाता है । जहाँ परम स्वतत्रता है वहां प्रत्येक चीज में अर्थ है । इसी परम स्वतं. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी जना की घोषणा के लिए महावीर को कहना पटा कि ईश्वर नही है। साधारण भास्तिव की धारणा है कि परमात्मा नियामा है, नियन्ता है, सप्टा है। यदि ऐसी बात है तो मनुष्य की स्वतत्रता सत्म हा गई। मगर गहरे आस्तिष की दृष्टि म श्वर स्वनमता है। कण-यण में याप्त जो परम म्यतमता है, उसके समग्र का नाम ही परमात्मा है। जगर हम इस समय पाएँ तो फिर पापी को दोप देने का कोई कारण नहीं रह जाता। एतना ही कहना काफी होता है कि तूने स्वतमता को जिस ढग से चुना है वह दुख लायगा । इसस ज्यादा कुछ भी कहना अयुक्त है। मैं कहता हूँ कि स्वतत्रता जगत् की मौरिक स्थिति है। दो गइ स्वतत्रता स्वतत्रता नहीं होती। किसी ने भी स्वतत्रता नही दी और न विसी ने स्वतत्रता री। स्व तयता लेनी तभी पडती है जब कि परतनता हो। जगर स्वतत्रता है तो उसे न कोई दता है, न कोई लेना है । वह जगत का स्वरूप है, वह वस्तुस्थिति है, वह स्वभाव है। काइ उसको दुख के लिए उपयोग करता है पर कोई मुख के लिए उपयोग करता है कर। लोग मुयस निरन्तर पूछते हैं कि थाप लागा का इतना समयाते हैं, इससे क्या हुआ? तो में कहता हूँ कि यह प्रश्न ठीव नहा है। मरा काम था चिलाना । लागाने मुझसे कहा भी न था कि चिरलाओ। यह मेरी मौज थी, यह मेरा चुनाव था। यह उनकी मौज थी कि उहान सुना या उनकी मौज थी कि नहीं सुना । यह उनकी मौत थी कि उहोंने सुना और अनसुना कर दिया। इस बात में मैं भी स्वतत्र था और व मी स्वतत्र थे। हम सब अपनी-अपनी स्वतत्रता म जी रह हैं, इसलिए वरी मौज है। और जीवन बड़ा रममय है । कही काई राकनवाला नहीं है कहा कोई मालिक नहीं है। हम ही मालिक ह हम ही निर्णायक । इतना ही समय मे आ जाय तो फिर समयने का क्या शेष रह जाता है। मेरी दृष्टि म प्रारध भी जीवा का नियामक नहीं है। अपने दिए हुए निणय ही प्रार व वन जात ह । आज तुम जा करोग, वही निणय बनगा और फिर एक तरह का प्रार घ निर्मित हागा उमम । बहुत गौर स देखें तो मोल भी एर प्रारब्ध है। जा आदमी स्वतत्र होने का निणय पारता है मत म वही मुक्त हो जाता है। ससार भी एक प्रारध है। मनुष्य द्वारा किए गए निणय के फल को ही प्रारर बहते ह । सुख के खोजी को महावीर ने स्वग वा खोजी कहा है। आन द का खोजी, उनकी दष्टि म, मोक्ष का खोजी है। दुख का सोजी नरक या सोजी है सुप या खोजी स्वग का खोजी । स्वग मोक्ष नहीं है। महावीर के पहले बहुत यापर धारणा यहायो कि रवग परम उपलब्धि है । सब सुख मिल गया तो परम उपलधि हो गई। लेकिन मनानानिक रीति से समझना चाहिए कि जहाँ सुरा होगा, वहाँ दुख अनिदाय होगा । जहा प्रवास होगा वहाँ अधकार अनिवाय है । जब हम दुग मे हाते ह तब सुख नीचे छिपा होता है और प्रतिपर भाशा दिय जाता है कि अभी प्रकट होता हूँ । लेकिन दोना ही चीजें Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ महावीर : परिचय और वाणी एक है और अगर समझ मे आ जाय तो सुख का भ्रम टूट जाता है । सुख का भ्रम टूटे तो दुख का साक्षात होता है। सुख का भ्रम बना रहे तो दुख का साक्षात् नही होगा क्योकि इस भ्रम के कारण हम दुख को सहनीय बना लेते है, हम उसे झेल लेते है । सुख का भ्रम टूट जाय तो भागोगे कहाँ, यह कभी सोचा है ? जब सब ओर दुख के कांटे हमे छेद लेते है और भविप्य की कोई आगा नही रह जाती तव हम स्वय मे लौटते है। जिस दिन दुख का पूर्ण साक्षात्कार होता है, उसी दिन वापिसी शुरू हो जाती है, व्यक्ति लौटने लगता है। दुख से भागोगे तो सुख मे पहुँच जाओगे, दुख मे जागोगे तो आनन्द मे पहुँच जाओगे। दुख से भागे नही, खडे हो गए, दुख को पूरा देखा और उसका साक्षात् किया तो रूपान्तरण शुरू हुआ। दुख का साक्षात् आनन्द की यात्रा बन जाता है। __आम तौर से हम सोचते है कि हम इसलिए दुखी है कि हमारी इच्छाएँ पूरी नही होती, जब कि सच्चाई यह है कि हम जो इच्छा करते है वह दुख का बीज है । जब हमारी इच्छा विना पूरा हुए इतना दुख दे जाती है तो अगर वह पूरी हो जाय तो कितना दुख दे जायगी, वहत मश्किल है कहना। पाने का, जीतने का, सफल होने का भी जो सुख है वह सब चला जाता है। प्रेयमी दूर से जैसी लगती है, वैसी पास से नही । दूर के ढोल सुहावने होते है। असल मे दूरी एक सुहावनापन पैदा करती ही है। जिसे हम नहीं देख पाते, उसकी जगह हम अपना सपना ही रख देते है । हम धनी होना चाहते है और इसके लिए प्रतियोगिता करते है, हममे प्रतिस्पर्धा का भाव होता है। जिस दिन सारी पृथ्वी का धन मिल जाता है, उस दिन प्रतियोगिता समाप्त हो जाती है, धन ही दुख का कारण बन जाता है। स्मरण रहे कि सुख प्रतियोगिता में था न कि धन मे। अगर सारी पृथ्वी का धन एक व्यक्ति को मिल, जाय तो वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेगा। अंगर सारी पृथ्वी के लोगो की इच्छाएं पूरी कर दी जाये तो उसी वक्त पृथ्वी समाप्त हो जाय । इच्छाओ की पूर्ति सुख नही लाती बतिक दुख का कारण बनती है। यदि उनकी अपूर्ति इतना दुख लाती है तो उनकी पूर्ति कितना दुख लायगी | आखिर यह दिखाई पड़ जाय तो तुम सुख की आशा को छोड दोगे । सुख की आशा एक दुराशा है, असम्भावना है । जिस व्यक्ति की आशा छूट जाती है, वह दुख के साथ सीधा खडा हो जाता है। इस साक्षात्कार मे जो रहस्यपूर्ण घटना घटती है वह यह है कि दुख तिरोहित हो जाता है। मैं अपने मे लौट आता हूँ, क्योकि सुख पाने की चेष्टा छोड देता हूँ। anded इतिहास की दृष्टि मे महावीर अतीत की घटना भले ही हो, साधक के लिए वे भविष्य की घटना है। आनेवाले किसी भी क्षण मे साधक वहाँ पहुँच सकता है जहा Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १७७ महावीर पहुँचे थे। और जब तक वह उस जगह नहीं पहुंच जाता तब तम महावीर का समय पाना मुश्किल है। उस आमूति का वह क्मे समझ साता है जो उस कमी नहीं हुई ? अथा कसे समझेगा प्रकारा के सम्बधम महापुरप को समयना अत्यत पठिन है पिना स्वय महापुरप हुए । महावीर का समयना हो तो सोये ही महावीर को समय लेना सम्भव नही है। महावीर को समयना हो तो स्वय को समयना और स्पातरित करना ज्यादा जरूरी है। शब्, सिद्धान्त और परम्परा स ममशन की कोशिश करते हैं तो भूल हो जाती है । स्वय पे भीतर उतरते ही हम उस जगह पहुंचेगे जहा कभी महावीर पहुंचे थे। तभी हम उह समय पायगे। महावीर के सम्बध म मैंने जो बातें कहा, उनका गास्त्रा से कोई सम्बध नहीं है । इसलिए हो सकता है कि बहुतो को व कठिन मारम पड, स्वीगार योग्य मा न हो । गास्त्रीय बुद्धिवाला को वे अजीर दी और व पूछ नि गास्त्राम ये बात कहा हैं ? उनसे मैं कह देना चाहता हूँ रिय वाने शास्त्रा म हा या 7 हा स्वय म सोजनेवार इह अवश्य पा लेंगे और स्वय स बडा न कोई नास्त्र है और न पाई दूमरी आप्तता । मेरा पोई शास्त्रीय अधिकार नहीं है। मैं शास्त्रा म विश्याम नहीं परता, बल्यि उन समी वाता यो सदिग्ध इस कारण मानना है कि वे गाम्ना म पिसी हुई हैं। मैंन महावीर और अपने वीच शास्त्रा को नहीं रखा है और महावीर को मीया टेसने थी वोगिा की है। सीधा हम उसे ही दप सपते हैं जिसस हमारा प्रेम हो। प्रेम प्रत्येक पती को वम ही सोल देता है जम सरज। हम सब पान के मार्ग से ही जानते है जीते हैं इसलिए जान नहीं पाते । महावीर को प्रेम करेंगे तो पहचान जायेंग और एक मजे का रात तो यह है कि जा महावीर को प्रेम परगा वह कृष्ण, प्राइस्ट या मुहम्मत या प्रेम परने से बच नहा रायता। अगर राहावीर से प्रेम होगा तो उसे महावीर म जा रिपाई पडेगा, वही बहुत गहरे म महम्मद कृष्ण और प्राइस्ट म भी दष्टिगत होगा। यह असम्भव रिपोई व्यक्ति महावीर से प्रेम परे और युद्ध स नही । प्रेम न पिसी पर ठहरता है न मिमी का रास्ता हैन रिसी या टहराता है। प्रेम की न पोई गत है न कोई सोदा । प्रेम ता परम मुपित है। प्रेम या आप इबटटा नहा कर रावते, गान को परमपन हैं। प्रेम तो बांटना ही पड़ता है। प्रेम पो बाटठा परनवाला प्रेमी नहीं हो सकता। जितना योटो, उतना प्रेम। अगर हमारा चित्त पूर्वग्रह। स भरा है तो हम प्रेमपूण नही हा यक्त । महावीर जो व्यक्ति पिसी धारणा पर स नहीं जा मरने । अमल म अद्भुत व्यक्ति या अय ही यह है कि उस पर पुरानी मौटियां पाम नही परती । प्रतिमाशाली सीन पेयर पद या निमित परता है यहिर खुद समाप जान को रसोटियां मी निमित २ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ महावीर : परिचय और वाणी करता है। इसलिए सभी पूर्वग्रहों से मुक्त होकर मैने महावीर के सम्बन्ध में नर्चा की। किन्ही सूचनाओ, धारणाओ अथवा नापदो के नाधार पर उन्हें नहीं कसा। प्रेम के दर्पण मे वे जैसे दीस पडे देसी वात मने नही। अपनी बातो में मैं अनिवार्य रूप से उतना ही मौजूद हूं जितना महावीर मौजूद है। उनमे हम दोनो है। यहां } मैं तो उस महावीर की बात कर रहा हूँ जिसमे में भी सम्मिलित हूँ, जो मेरे लिए (एक आत्मगत अनुभूति बन गया है। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय खड Page #184 --------------------------------------------------------------------------  Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्याय अहिंसा अदुवा अदिग्नादाण । -भा० यु०१, अ० १, उ०३ अहिंगा और गिमा म युनियादी भेद है। जहाँ अहिंमा हमारा स्वान है मा अनित गुण है, पायी गयी है । हिंसर बनने के लिए हम कुछ पता पडा । हिंसा हमारी उपधि है, हमने उमे सोजा है, उमा निमाण किया है । अहिमा हमारी उपाय नाहो साती। आदमी समाव से हिमर नहा है, यह हिंगर हो नही गरता ।हिमा शिया टराव कही भी नहीं ले जाती और कोई भी व्यक्ति दुग्प पी पामा नहा ता। हिंसा ऐक्सिडेंट' है, सयौगिक है-यह हमार जीवा की धारा रहा है। इमलिए जो हिराप है वह भी गोलीस घटे हिंगर नहा हा साता, अहिंसर पौवीरा घट गहिरार हा सकता है। हिंसर को किसी यतुल से भातर अहिमर होना ही परना है। असर म अगर यह हिमा पसा है तो इसलिए करता है कि पिही साप यह अहिंगर हो गये। गोरमा राम्य भी अपारी है और हिार का सत्य भी अहिंसा है। __सत्य और ब्रह्मपय पर विधायक हैं। घम की भाषा में इन दो पिपायर पाय यो छाडार राय | पारामर हैं। जिहें मैं पर महाया रहताय रा गरमा । जर पपांगो-अहिंसा, अपरिग्र अवीय बाम और अप्रमाएट जायेगे ता भीतर जा उपल ध होगा, पर होगा स प, और बाहर जो उपर कामा पार गा ग्रहापय । मत्य या मप है जिस हा गीतराग ब्रह्मपम मा अपर जिम हम बाहर सोयेंगे ग्रहा जशी पर्या, पर-जसा आारण ! "पर-सारण उगोपा होगरता जा ईयर हो जाय । सत्व या जप है परनमान उमरा अभ है प्रसव । मायर-जसा हो गया दी जो पा होगी माना नाम पहा पर है। प्राय यसति ग्रहा जसा आपर। अगर टीर ग ममता हिंगा पर मोरपिपारन गिरिमा पर विपार हा Trant? और मा पर पिगार हो गया। मान RT मामामा गमिाना है-हिमा गाशा गापा मार १ गोवा पोगा परना एर रारा गो पारी है। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ महावीर : परिचय और वाणी धर्म परम स्वास्थ्य है, इसलिए वर्म को भी कोई परिमापा नहीं हो नकती। बीमारी की परिभापा हो सकती है, स्वास्थ्य की नही । चर्चा मिर्फ अधर्म की हो मकती है, धर्म की नहीं । स्वास्थ्य को जाना जा सकता है, उसे जिया जा सकता है, स्वस्य हुआ जा सकता है, लेकिन उसकी चर्चा नहीं हो गाती । इसलिए सभी धर्मशास्त्र | वस्तुत अवर्म की चर्चा करते है। हिंसा को मैं पहला अवर्म मानता हूँ, और जो हिंसक है उनके लिए यह पहला व्रत है। ऐसे भी हम झिक हैं। हमारे हिंसक होने में भेद हो सकते है, कारण कि हिमा की अनेक पर्ते हैं, इसकी इतनी सूक्ष्मताएँ हैं कि उसे पहचान पाना मुश्किल होता है । कमी-कभी ऐसा भी होता है कि जिसे हम हिला कहते हैं वह अहिंसा का बहुत स्थल रूप होता है और जिसे हम अहिंसा पाहते है वह हिमा का ही बहुत सूक्ष्म रूप होता है। उदाहरण के लिए मैं गांधीजी वी अहिंसा को हिंसा का सूक्ष्म रूप कहता हू ओर कृष्ण की हिंसा को अहिंसा का स्थूल रूप मानता हूँ। हिमक के लिए ही अहिंझा पर विचार करना जरूरी है। मलिए यह समझ लो कि दुनिया में अहिंसा का विचार हिंसको की जमात से आया। जैनो के चोवीन तीर्थकर क्षत्रिय थे। उनमे एक भी न तो ब्राह्मण था और न वैश्य । बुद्ध भी क्षत्रिय थे। दुनिया मे अहिमा का खयाल वहाँ पैदा हुआ जहाँ हिंसा धनी थी, सपन पी। जो चौबीस घटे हिमा मे रन है उन्हे ही यह दिखाई पड़ता है कि हिंमा हमारा स्वभाव या हमारी अन्तरात्मा नहीं है। में यह मानकर चलूंगा कि हम हिंसक लोग इकट्ठे हुए है । जव में हिंसा के अनेक-अनेक रूपो की बात करूंगा तब आप समझ पायेंगे कि आप किस रूप के हिंसक है। और अहिंसक होने की पहली शर्त है, अपनी हिंसा को उसकी ठीक-ठीक जगह पर पहचान लेना, क्योकि जो व्यक्ति हिंसा को ठीक से पहचान लेता है, वह हिनक नही रह जाता। हिसक रहने की एक ही तरकीव है कि हम अपनी हिंसा को अहिंसा समझने जायें । इसलिए असत्य सत्य के वस्न पहन लेता है । असल मे असत्य को जव भी खडा होना हो तो उसे सत्य का चेहरा उधार लेना ही पड़ता है । एक सीरियन कथा कहती है कि एक बार सौदर्य की देवी पृथ्वी पर उतरी और एक झील मे स्नान करते हुए दूर निकल गई। तभी कुरूपता की देवी को मौका मिला, उसने सौदर्य की देवी के कपडे पहने और वह चलती बनी। कथा कहती है कि तभी से सौदर्य की देवी उसका पीछा कर रही है और खोज रही है उस कुरूपता को जिसने उसके वस्न पहन लिये है। कुरूपता अब भी सौदर्य के वस्त्र पहने हुए है। हिंसा को भी खडे होने के लिए अहिंसा बनना पडता है। इसलिए अहिंसा की दिशा मे जो पहली बात जरूरी है वह यह है कि हिसा के चेहरे पहचान लेने जरूरी है, खासकर उन चेहरो को पहचान लेना जरूरी है जो उसके अहिंसक चेहरे हैं । दुनिया में कोई भी पाप सीधा धोखा देने मे असमर्थ है। पाप को भी पुण्य की आड Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १८३ म हो धोखा देना पड़ता है । पाप अपन में हारा हुआ है। हिंसा जीन नहीं राक्ती । लेकिन दुनिया से हिमा नहीं मिटती, क्यादि हमने हिमा में बहुन से नहर चेहरे सोज निकाले हैं। सबसे पहली हिंसा दूसरे को दूसरा मानने से शुरू होता है । जस ही में रहता हूँ जादूगर हैं बने हो में आपके प्रति हिसर हो गया। अगर म दूसरे य प्रति अहिमर हा सपत है ऐसा में ही हिंसा शुरू हो गई। हस होना असम्भव है। हम सिर्फ अपने प्रति ही हमारा स्वभाव ह । वस्तुत दूसरे को दूसरा स्वीकार माना यथन है कि यह जा दूसरा है यह नख है । दूसरा नख नहीं है, दूसरा दूसरा समझा भ नरा है। जिस क्षण हम दूसरा अपना समते हैं उसी क्षण र और उसके बीच जा धारा बहती है यह अहिमा की है। दूसरे को अपना समान या क्षण ही प्रेम का क्षण है ! गहरे में दूसरा ही बा रहता है । । बेटा भी दूसरा है, चाहे कितना मा रविन जिसे हम अपना समझते हैं वह भी पत्नी भी दूसरी है चार पितरी मा अपनी हो अपना हो । अपना वहा म भा दूसरे का भाव स मोजूद है। इसलिए प्रेम भी पूरी तरह अहिसब नहीं हो पाता। प्रेम अपर ढंग से हिंसा करता है। पनी अपन पनि प्रेमपूर्ण ढंग से मताती है। जब ना प्रेमपूर्ण होता वडा सुरभित हो जाता है । arrest after मित्र जाती है यानि हिमा अहिना वा बेहरा आउला है। विद्यार्थी मागताता है और रहता है तुहिन लिए हा सता र हूँ । एनिस व्यक्ति वा हिंसा के प्रति जागना हा, उस पर जाना प्रतिपा जवसाय प्रति जागता होगा | भरा सा है कि दुनिया में अपना बनान वा जितनी मस्याएं हैं सब की गय हिरान हैं। परिवार से ज्यादा हिमा और वा सरापी, उसी हिंसा बड़ा गुम है। इसलिए अगर सयामी परि यार छोड़ देना पड़ता था तो उसका कारण था-मनमहिमा से बाहर है। नाना । यह जानना from का एक मनम जाल है जो अपना पहना कर रह हैं। उनसे भी मुहिम में ही पर रह है। परिवारका हा हुआ सरगमाज है गाज न तिना हंगामा है उगरा हिसाब गाना पटिन है तो यह है समाज न व्यक्ति ध्यान रहि जब आप रीमान हूँ तब आप हिंग परावनराव मारा । ए मीरा वरवरा है। जब जना र रियो परिसर र शरद है । हिया मुगलमा हिप है । ममा यति हा महिना सम्भावना है। समाज हा व्यवहार करते है या आप मा अगर मनमा दलिए Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महावीर : परिचय और वाणी जो बडी हिसाएँ हई है वे व्यक्तियो द्वारा नहीं, वरन् समाजो द्वारा हुई हैं । बगर किसी मुसलमान को हम कहे कि इस मन्दिर मे आग लगा दो तो अकेला मुसलमान, व्यक्ति की हैसियत से, पच्चीस बार सोचेगा। लेकिन दस हजार मुसलमानो की भीड मे वह मन्दिर मे बाग लगाने को तैयार हो जायगा, क्योकि दस हजार की भीड एक समाज है। हिन्दू भी मस्जिद के साथ ठीक यही कर सकता है। समाज का मतलब है अपनो की भीड । और दुनिया मे हिमा मिटानी तब तक मुश्किल है जब तक हम अपनो की भीड बनाने की जिद बन्द नहीं करते । अपनो की भीड का मतलव हे एक ऐसी भीड जो सदा परायों के खिलाफ सती हो। इसलिए दुनिया के सभी सगटन हिंसात्मक होते हैं, चाहे यह गंगटन परिवार ही क्यो न हो । परिवार दूसरे लोगो के खिलाफ खडी की गई इकाई है। राज्य दूसरे राज्यो के खिलाफ खडी की गई राजनैतिक इकाई है। मनुप्य उस दिन अहिंसक होगा जिस दिन वह निपट मनुष्य होने को राजी होगा। इसलिए महावीर को जैन नहीं कहा जा सकता, और जो उन्हें ऐसा कहते हो वे महावीर के साथ अन्याय कर रहे है । कृष्ण को हिन्दू नहीं कहा जा सकता । वे किसी समाज के हिस्से नहीं हो सकते। वे दूसरी इकाइयो के साथ जुडने को राजी नहीं है। सन्यास समस्त इकाइयो के साथ जुड़ने से इनकार है। असल मे सन्यास इस बात की खबर है कि समाज हिसा है। अपनो का चेहरा भी हिंसा का सूक्ष्मतम स्प है, इसलिए जिसे हम प्रेम कहते है वह भी अहिंसा नही बन पाता । अहिता उस क्षण शुरू होती है जिस क्षण दूसरा नही रह जाता। यह नहीं कि वह अपना है । वह है ही नहीं। दूसरो के दिखाई पड़ने का कारण दूसरो का होना नहीं है। दूसरो के दिखाई पड़ने का कारण वहुत अद्भुत है । दूसरा इसलिए दिखाई पडता है कि मुझे अपना कोई पता नही है । अपने आत्म-अज्ञान को मैने दूसरे का ज्ञान वना लिया है । हम दूसरे को देख रहे है, क्योकि हम अपने को देखना नही चाहते । दूसरे का होना आत्मअज्ञान से पैदा होता है। दूसरे से मेरा मतलब दूसरे की चेतना से नही है, दूसरे के शरीर से है। न आपकी चेतना से मुझे कोई प्रयोजन है और न मुझे आपकी चेतना का कोई पता है । जिसे अपनी ही चेतना का पता नही, उसे दूसरे की चेतना का पता हो भी कैसे सकता है ? मुझे आपके शरीर का पता है और अपने शरीर का पता है। अगर ठीक से कहे तो कह सकते है कि हिंसा दो शरीरो के बीच का सम्बन्ध है। दो शरीरो के वीच अहिंसा का कोई सम्बन्ध नही हो सकता । गरीरो के बीच सम्बन्ध सदा हिंसा का होगा। ___कई प्रेमियो ने अपनी प्रेयसियो की गर्दन दवा डाली है । प्रेम के क्षणो में ___मार ही डाला है | अदालते नहीं समझ पाई कि यह कैसा प्रेम है । लेकिन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ महावीर परिचय और वाणी अदालता को समझना चाहिए कि यह थोडा आगे बढ़ गया प्रेम है। यह सम्बध जरा अधिक घनिष्ठ हो गया है। दो शरीरा के बीच में जो सम्म होता है, वह चाहे छुरा मारो का हो या चुसन आलिंगन वा, उसम कोई बुनियादी फर नहीं है। छुरा भोंने माजा रस है वह भी यौन का सुख है। असल म सम्भोग का सुप दूमर के शरीर म प्रवेश करने का ही सुप है। यदि आप किसी वज्ञानिव को प्रयोगशाला म जाए तो वहां आपको यह देखकर हैरानी होगी कि यद्यपि जनगिनत चूहे मारे जा रह हैं, मेढा काट जा रहे है कितने ही जानवर उल्टे-सीधे लटकाए जा रह हैं क्तिी जानवर बहो। पडे है फिरी ‘वनानिक को पक्का सयाल है कि वह हिंसा नहीं कर रहा है। उसका खयाल है कि रह जादमी के हित म प्रयाग कर रहा है। बस ऐसी ही हिंमा अहिंसा का मुखोटा पहन लेनी है। जब आप किसी से प्रेम परत हैं तर उम समय आपको इस बात का गयार करना चाहिए कि आपके भीतर की हिंसा ही तो प्रम की गल हा वन जाती? यदि बा जाती है तो वह खतरनाक स सतरनार पावर है, क्याकि उसका म्मरण जाना रहत मुश्किल है। स्वप में उत्पन हो रही चेतना नहिंसा बन जाती है दूसरे स उत्पन हो रही चाना हिंसा या जाती है। लेकिन हम दूसरे का ही पता है। अगर मरी मानी भी पाई शप' है तो वह आपके द्वारा दूसरे के द्वारानी गई शकल है। इसलिए मैं सता डरा रहेगा। यही आपये मन म मेरे प्रति बुरा सयाल 7 आ जाय । असवारा पी बटिंग पार पाडयर मी अपना चेहरा बनाया है। आपरी बातें सुपर, आपको धारणाएं इक्टठी परके, मैंने अपनी प्रतिमा बनाई है। यदि में पिता हूँ तो मुरे पिता होने का पता नहीं है। किती वटा हान भर या पता है। सन्न मनी मैं दुसरा को देखता है, जागने में भी दुमरे ही निसाई पडत हैं। ध्यान के शिा घटना हूँ ता दूमरा वा ही ध्यान करता है। जिस दिन में स्वयं को दान रगा उग लिन आप दमरे की तरह दिखाई पड़ा पद हो जायगे। महावीर जव चौटो ग बचकर परत हैं तो इसका कारण वह नहा, तो आप चोरी से वापर चरने में रहता है। आप जर पाटो रा पचार नगे हैं तब भार चाटी सवार चल्न है। महावार जब चाटी से ववार रते है तर जपा शपर पा र T पर जाए सलिल पर रन हैं। महावार या चार ना हिसा हे आपरा वा हिमा। राप द्वारा वचरर म एगग मोद 21 आप पाटीमवर चरत है Tulfr आप उसे बान पीमिता है और Frगनित है कि आप उरल .fr पहा पाए न रग जाप चाटीन मरास र रस नाना पहुँ। पानी में आपरा का प्रयाजा री है, मारा पासे हे जगत म मूगरम हमारा पाला है वह शरीर पाही पाराला है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ महावीर : परिचय और वाणी चेतना के तल पर दो नही है हम | दूसरे को बचाये हम या सहानुभूति दिलाएँ तो वह अहिंसा नहीं हो सकती। दूसरे को बचाना भी हिसा ही है । जिस दिन हम ही रह जाते है और वचने को कोई भी नहीं रह जाता, उस दिन शहिमा फलित होती है । महावीर की अहिंसा को नही समझा जा सका, क्योकि हम हिंसको ने महावीर की अहिंसा को हिंसा की शब्दावली दे दी । हमने कहा, दूसरे को दुन मत दो | लेकिन ध्यान रहे कि जव तक दूसरा है तब तक दुख जारी रहेगा। दूसरे की मौजूदगी भी हिंसा वन जाती है। आपके लिए ही नहीं, आपको मोजूदगी भी दूसरे के लिए हिंसा बन जाती है । महावीर की जिन्दगी की एक बहुत अद्भुत घटना है । वे सन्यास लेना चाहते थे । उन्होने अपनी माँ से पूछा कि में सन्यास ले लूं ? माँ ने उत्तर दिया-- जब तक मैं जिन्दा हूँ तब तक तुम सन्यास नही ले सकते, मुने वडा दुस होगा । महावीर लौट गए । यदि उनकी वृत्ति हिंसक होती तो कहते -- नहीं, मैं सन्यास लेकर ही रहूँगा, ससार तो सब माया-मोह है ! कौन अपना ? कौन पराया ? लेकिन नही, वे चुपचाप लौट गए। माँ मर गई, पिता मर गए । मरघट से लौटने पर महावीर ने अपने बड़े भाई से सन्यास लेने की अनुमति मांगी । माई ने कहा- पागल हो गए हो ? माता-पिता तो छोड़ ही गए, क्या तुम भी हमे अनाथ छोडकर जाना चाहते हो ? महावीर चुप हो गए । फिर उन्होंने सन्यास की बात न की । ऐसे मोक्ष से क्या लाभ जिसमे किसी को दुख देकर जाना पडता हो ? महावीर रुक गए सही, लेकिन वर्प-दो वर्ष मे घर के लोगो को ऐसा लगने उनकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी हो गई । । लगा कि वे घर में है ही नहीं । उनका होना न होने जैसा हो गया 'हवा की तरह हो गए । तब घर के लोगो ने कहा कि उन्हें रोकना फिजूल है, अब वे जाना चाहे तो जा सकते हैं । और उन्होने कहा कि अब तो बहुत देर हो चुकी है । मै तो जा चुका हूँ ! दूसरो के कारण हम एक झूठा अहकार पैदा करते हैं, जो हम नही है । अहकार हमारा कामचलाऊ अस्तित्व है । हमे अपना पता नही है कि कौन है ? जिसे यह भी पता नही कि मैं कौन हूँ, वह भी कहता है, मैं हूँ । होने का दावा तभी किया जा सकता है जव 'कौन होने' का पता हो। मुझे पता नही कि मैं कौन हूँ ? लेकिन मैं कहता हूँ कि मैं हूँ । यह मेरा 'मैं' कहाँ से आया ? यह मेरे ज्ञान से पैदा नही हुआ, क्योकि जिन्होने भी स्वय को जाना, उन्होने 'मैं' कहना बन्द कर दिया । जिन्होने स्वय को पाया, उन्होने स्वय को खो दिया । जिन्होने स्वय को "नही पाया, वे कहते है 'मैं हूँ' । यह 'मैं' कहाँ से आया ? इसे समाज ने पैदा किया। वे जो दूसरे है, उनके साथ व्यवहार करने के लिए आपको एक शब्द खोज लेना पडा - 'मै'। जैसे हमने Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और पाणी १८७ नाम साज लिया है वसे ही हमने 'मैं' की खोज कर ली है। हम पदा तो अनाम ही हात हैं, पर समाज हम नाम दे देता है जा जिन्दगी भर बना रहता है। रामतीर अमरीका म थे। कुछ लोगा ने उह गालिया दी तावे हंसते हुए घर सौट आए। जव उनके मिना को पता चला तो बहुत नाराज हुए। रामतीय न वहा, मुझे याई गारी दता तो मैं कोई जवाब देता। व राग राम को गाली द रह थ। राम मे अपना यया रेना देशा? इस गाम के मिना भी ता में हो सकता था। जब ये राम का गालिया दे रहे थे तब हम भी भीतर ही भीतर मुश हो रह 4 कि देत्रो, राम को क्मी गालिया पड रही हैं । बनागे राम तो गाली पडेगी। उहाँने माम दिया, उहाने ही गाली दी । नाम मी उनवा गाली मी उनवी। हम तो वाहर हैं । - - वह दूसरा भी यूटा है और यह मैं ? मेरा यह 'मैं' भी झूठा है। य दोना झूट एर साय जिना रहत हैं। जिस दिन दूसरा गिरता है उसी दिन 'मैं गिर जाता है। 'मैं आर तू के गिर जान से जो शेष रह जाता है यह अहिंसा है। मैं यह नहीं पहता कि आप 'म' शब्द का उपयोग ही नहीं वरें। वरना ही पड़ेगा। महावीर ने भी किया है, लेकिन तब वह गाद है भापा का ऐल है । जब वह अस्तित्व नही है तब उसे सिफ एक श द ही मानना चाहिए। ध्यान रहे कि इस 'मैं' और 'तू' के बीच जा उपद्रव पैदा हुआ है, वही हिसा है। दो झूठा ये बीच जो भी होगा, वह उपद्रव ही होगा। अहिंसा तो एव है, वितु हिंसाएँ अनन्त ह । य सारी की सारी हिंसाएँ निकलती है एक ही करने से-~~में और तू के परन से, आत्म ज्ञान के हारने से। महावीर से अगर पोइ पूछे हि अहिंसा क्या है, तो वे कहेंगे जात्मनान । हिंसा क्या है तो य पहेंगे जात्म मान अपन कोही न जानना हिंसा है। यह बनीव बात है हम तो समयत ५ कि दूसरा या दुस देना हिंसा है और सुम देना अहिंसा । रेसिध्यान रहे दूसरे का चाह सुख दो या रस, हर हात म दुस ही पहुंचता है । दा की मर आवाधाएँ व्यच हा जाती हैं क्यापि दार वा गुम दिया ही नहीं जा सकता। सुस सिफ स्वय को दिया जा सकता है । पिरा पति ने रिस पत्नी को पद सुग दिया? निरा पत्नी ने रिस पनि या पब सुख दिया? पहुँचाते समो मुश है, पहुंचता साम। असल म दूगर को हम सुरा पहुंचा ही नहीं सकते, दूसरे में गाय हम अहिराव हा ही नही परत । हम दूसर का पूर भी फेंर पर मारेंग ता जब यह रगगा, तव पायर हो जायगा। ध्यामि नगवान की मूति पर चढ़ाए गए पूरी हिंसा की सबात है। उनम भी दूसर मी स्वीति है। नका पर नहीं है जिसन भगवान की मूर्ति पर पड़ाए । मनन वह है जा पाना निर और frसने रान के सिवा पुगी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महावीर : परिचय और वाणी नही पाया । फूल मे भी उसको पाया भीर पत्थर मे भी और जो पूछने लगा गि. किसको चढाऊँ , किसके लिए चढाऊँ ? कसे चटाऊँ ? कौन चढाए ? जब कोई अहिसा को उपलब्ध होता है तब दूसरा मिट जाता है और दूसरा तव मिटता है जब हम स्वय को जानते हैं, उसके पहले नहीं । इस खयाल मे न पडें कि मासाहार न करने से आप अहिंसक हो गए । मासाहारी जितना मला आदमी मालूम पड़ता है, गैर-मासाहारी उतना भला आदमी नहीं मालूम पडता । यह अजीव-सी बात है । इघर मै निरन्तर सोचता रहा तो मेरे खयाल ने माया कि अगर हिटलर पोडी सिगरेट पीता, घोडा मास खा लेता, धोडा वे-वक्त जग जाता, कही नृत्यगृह मे नात्र लेता तो गायद दुनिया मे करोडो आदमी मरने से बच जाते। हम यह न भूले कि मास न खाने से कोई महावीर नहीं हो सकता । अगर मासन साने से कोई महावीर हो जाय तो महावीर होना दो कौड़ी का हो गया ! जितनी कीमत मास की, उतनी ही कीमत महावीर की हो गई। इससे ज्यादा न रही। धर्म इतना सस्ता नहीं है कि हम मास नही साएँगे तो धार्मिक हो जाएंगे। मैं यह नहीं कहता कि आप मास खाएं या आप मदिरा पिये। आप मास नहीं खाते, मला है, लेकिन इस भूल मे न पडे कि आप धार्मिक हो गए, अहिंसक वन गए । आचरण से अहिंसा पकडी जायगी तो खतरनाक है । जव कोई आचरण से अहिसा को पकडता है तब सूक्ष्म रूप से वह हिंसक होता चला जाता है । जव हिंसा सूक्ष्म बन 'जाती है तब उसे पहचानना मुदिकल हो जाता है। मै आप को कई तरह से दवा सकता हूँ। एक दवाना हिटलर का भी है, आपकी छाती पर छुरी रखकर और दूसरा दवाना महात्मा का, अपनी छाती पर छुरी रखकर । आम तौर से दो तरह के आदमी होते हे-दूसरे को सतानेवाले और स्वय को सतानेवाले। दुनिया मे कोडे मारनेवाले सन्यासी हुए है, कांटो पर लेटनेवाले सन्यासी हुए है। दूसरे को भूखा मारनेवाले उतने ही अवामिक है जितना अपने को भूखा मारनेवाले। यदि दूसरो को सताना अधार्मिकता है तो अपने को सताना धार्मिकता कैसे हो सकता है ? सताना अगर अधार्मिक हैं तो इससे क्या फर्क पडता है कि किसको सताया ? महावीर की मूर्ति देखी है ? क्या आप को ऐसा लगता है कि इस आदमी ने कभी अपने को सताया होगा ? कथाएँ झूठी होगी या फिर यह मूर्ति झूठी | इन आदमी ने अपने को सताया नहीं है। मैं तो समझता हूँ कि महावीर के नग्न हो जाने मे उनका सौन्दर्य ही कारण है। कुरूप आदमी नग्न नही हो सकता। महावीर सर्वाङ्गसुन्दर है । कथाएँ कहती है कि इस आदमी ने अपने को बहुत सताया। ये सारी कथाएँ मनगढत है। यदि ऐसी नही है तो हमे महावीर की मूर्ति बदल देनी चाहिए। असल मे इन कथाओ की रचना आत्मपीड़को ने की है। ऐसे आत्मपीडक व्यक्ति महावीर के आनन्द को भी दुख वना लेते हैं, उनकी मौज को त्याग समझ लेते है । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १८९ अगर महावीर किसी दिन खाना नही साते तो वह अनशन नहीं, उपवास है । अनन का मतलब है भूखे मरना, उपवास वा भी न चले। जन ध्यान बहुत अय है इतन आनन्द मे होना कि भूख का भीतर है तो शरीर का सयाल नही रह जाना । व्रत मे स्मरण रखें कि अहिंसा तो किसी और को सताती है, न स्वयं को । अहिंसा सताती ही नही । हिंसा ही सताती है। हिंसा में गहस्य रुप हैं, उसके समस्त रूप हैं अच्छे रूप हैं चुरे म्प हैं। अगर हम दाना से सजग हो जायें तो शाय अहिंसा की सोप हो सकती है । 67964 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय अपरिग्रह धणधन्न पेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं । सब्वारभरिच्चायो, निम्ममत्त सुबकरं || -उत्त० अ० १९, गा० २९ दूसरे महाव्रत 'अपरिग्रह' को समझने के लिए परिग्रह को समझ लेना आवश्यक है । परिग्रह का अर्थ है वस्तुओ पर मालकियत की भावना - ' पजेसिवनेस' । वस्तुओ प्रति ही नही, हम व्यक्तियो के प्रति भी परिग्रही होते हैं । परिग्रह हिंसा का ही एक आयाम है। सिर्फ हिंसक व्यक्ति ही परिग्रही होता है । जैसे ही हम किसी व्यक्ति या वस्तु पर मालकियत की घोषणा करते हैं वैसे ही हम गहरी हिंसा मे उतर आते है । विना हिसक हुए मालिक होना असम्भव है । मालकियत हिंसा है । पति मालिक है पत्नी का । पति शब्द का अर्थ ही मालिक होता है । स्त्रियां पति को स्वामी भी कहती है । स्वामी भी पर्याय है मालिक का । परिह का अर्थ है स्वामित्व की आकाक्षा । पिता बेटे का मालिक वन जाता है, गुरु शिष्य का । जहाँ भी मालकियत है वहां परिग्रह है, हिंसा है । विना किसी को गुलाम बनाए मालिक नही हुआ जा सकता । विना परतन्त्रता थोपे स्वामी होना असम्भव है | मनुष्य के मन मे मालिक बनने की आकाक्षा क्यो है ? इसका कारण है कि हम अपने स्वामी नही है, हमे अपने ऊपर भी अधिकार नही है । जो व्यक्ति अपना मालिक हो जाता है, उसकी मालकियत की धारणा खो जाती है। चूंकि हम अपने मालिक नही हैं, इसलिए हम इस अभाव की पूर्ति आजीवन दूसरो के मालिक होकर करना चाहते है | लेकिन कोई सारी पृथ्वी का मालिक हो जाय तो भी यह कभी पूरी नही हो सकती । अपना मालिक होना एक आनन्द है, दूसरे का मालिक होना सदा दुख है । इसलिए जितनी बडी मालकियत होती है, उतना बडा दुख पैदा होता है । पर याद रहे कि दूसरे का मालिक बनकर अपनी मालकियत नही पाई जा सकती । असल मे मालकियत दोहरी परतत्रता है । जिसके हम स्वामी बनते है वह तो हमारा गुलाम बनता १. धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि का परिग्रह छोड़ना, सर्व हिंसक प्रवृत्तियो का त्याग करना और निर्ममत्व भाव से रहना, यह अत्यन्त दुष्कर है । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १९१ ही है, हम भी उसका गुलाम बनना पडता है। मालिक जपने गुलाम का गुलाम होता है । पति अपनी पत्नी का कितना भी मारिय बनता हो वह अपनी पत्नी वा गुलाम भी होता है । सम्राट जहा अपने साम्राज्य वा मालिक होता है, वहां वह भय का गुलाम भी होता है क्यादि जिन्हें हम परतत्र करते हैं वे हमारे प्रति विद्राह और बगावत शुरू करते हैं, वे भी हम परतत्र करना चाहते हैं । मालिक और गुलाम में इतना ही फर्क होता है कि एक वो गुलामी दृश्य होती है और दूसरे का बतस्य । हम जिसे गुलाम बनाते है वह हम भी गुलाम बना लेता है । बडे गुलाम वे है जिन्हें दूसरा के सम्राट होने का भ्रम पैदा होता है । और बड़े गरीन वे हैं जो बाहर की सम्पत्ति से भीतर की गरीबी मिटाना चाहते हैं । इसा तरह बड़े परनन वे ही हैं जो दूसरा वा परत करके स्वयं स्वतंत्र होने के सवाल में मटक्त हैं । कोई भी आदमी विमी को परतत्र करके स्वतंत्र नहीं हो सकता । जेल्पान व बाहर सडा सतरी भी उतना ही बंद है जितना जेल्मान मे वद वदी । एव दीवाल के भीतर बँधा है, दूसरा दीवार के बाहर न दावाल के भीतरवाला भाग सकता है, न दीवार में बाहरवाला । मजे की बात तो यह है कि दीवाल ये मोतरवाला भागने का उपाय भी करता है बाहरवाल भागने का उपाय भी नही करता । वह इस सयालम होता है यह स्वतन है । जिदगी के अनूठे रहस्या रि म एक रहस्य यह भी है कि हम जिसे बांधते हैं उससे हो हम बँध जाना पडता है । 1 परिग्रह की पहली कोशिश यह होती है कि मुझे यह सयाल भूल जाय वि में अपना माल नहीं है ।तना ही पता चलता है कि में अपना मालिक नही हूँ उतना ही मैं चाहर की मालियन को फैलता चला जाता हू । में भीतर माथि क्या नहीं है ? जा भीतर है उस में जानना ही नहा, इसलिए उनका मानि होना म है। वादात इस बात से शुरू होती है कि में जितना है उतना ही पर्याप्त हूँ । कोई कमी रहा है जिसे मुझे पूरी करनी पडे बाई मा नहीं है जिस वजह से में साली हूँ। वह एक मोजरी आप्नता है । गव है इसलिए कोई भी नहीं है । रिन सम्राट के पास कुछ भी नहीं है । हम गव भीतर खि है । मखिता यो हम पर से मानव ष्ण करत है । घन गा ढेर लगा दी है, फिर या रहती है। मेरी दमि अमीरी काएर हो पटती है । इसलिए में सन बमोरी में काम रहता हूँ । पर जो भी रिता है उस या भरने के लिए परिग्रह है। यदि हम बाहर पो पोपोट तिमि आयी अगर बाहर को पीजा मे हान स तर मीरा मिटीनामेवा मिटेगी? मेदिमीमा बुनियादी मूत्र से परा होता है। यह खाता है और पद भीतर यो खाता या दो जायेगी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ महावीर : परिचय और वाणी कि बाहर की चीजो को इकटठा करने से भर लूंगा, फिर जब पाता है कि उसकी रिक्तता ज्यो की त्यो बनी है तब सोचता है कि बाहर की चीजो को छोडकर अपने को भर लूं। वह पागल है। जब चीजो से भरा न जा सका, तब चीजो के हटाने से कैसे भर जायगा? इसलिए ध्यान रहे, अपरिग्रह का अर्थ बाहर की चीजों को छोडना नही है; अपरिग्रह का अर्थ भीतर की पूर्णता को पाना है। ___ मैं कहता हूँ कि परिग्रह का सम्बन्ध वस्तुओ से नही है, उसका सम्बन्ध वस्तुओ पर मालकियत कायम करने से है। जिस दिन इसका ज्ञान होता है कि मैं अपना मालिक हूँ, उसी दिन भीतर की रिक्तता भर जाती है, अन्यथा नही । यह जो अपनी मालकियत है, वह एक विधायक उपलब्धि है। ऐसी मालकियत के आते ही वाहर की पकड छूट जाती है। बाहर की पकड सिर्फ इसलिए होती है कि भीतर की कोई पकड नही होती। हम बाहर पकडे चले जाते है और जिसे भी पकडते है उसकी हत्या करना शुरू करते हैं। पति अपनी पत्नी को मारना शुरु कर देता है, पत्नी अपने पति को मारना शुरू कर देती है। जब हम किसी व्यक्ति को मारकर उसके मालिक हो जाते है, तब मालिक होने का मजा चला जाता है । विना मारे मालिक नही हो सकते और मारा कि मजा गया । इसलिए मन एक पत्नी से दूसरी पत्नी पर और दूसरी से तीसरी पर जाता है। एक मकान से दूसरे मकान पर दूसरे से तीसरे पर । एक गुरु से दूसरे गुरु पर, एक शिष्य से दूसरे शिप्य पर । जिस चीज के हम मालिक हो जाते है, वह वेमानी हो जाती है, मुर्दा हो जाती है। इसलिए प्रेयसी जितना सुख देती है, उतना पत्नी नहीं देती। पत्नी बनते ही स्त्री मर जाती है । इसलिए समझदार परिग्रही व्यक्तियो को छोडकर वस्तुओ का संग्रह करते हैं, धन इकट्ठा करते है। जब घर मे कुर्सी आती है तब वह मरी हुई ही आती है। उसको कहाँ रखना है, इसके आप पूरे मालिक है। जब हम किसी व्यक्ति को घर मे लाते है तब उसे भी कुर्सी बनाना चाहते है । लेकिन न तो हम व्यक्तियो से अपने को भर सकते है और न वस्तुओ से। हम सिर्फ अपने से भर सकते है, लेकिन अपने का हमे कोई पता नही है । तो एक बात मैं आपसे कहना चाहूँगा कि आपके पास जो भी है, उस पर एक दफा गौर से नजर डालकर देखे और स्वय से पूछे कि उससे आप रचमात्र भी भर सके है ? क्या उसने इच भर भी आपको कही भरा है ? अतीत का अनुभव तो यही कहता है कि परिग्रह भर नही पाता, लेकिन भविष्य की आशा यही होती है कि शायद कुछ और मिल जाय और मैं भर जाऊँ । अपरिग्रही की दृष्टि तो तव आती है जव आशा पर अनुभव की विजय होती है । __ असल मे जो पाना है वह है दिशा 'बीइग' की, और जो हम पा रहे हैं, वह है दिगा 'हैविंग' की। जो हम पा रहे है वे है चीजे और जो हमे पाना है, वह है Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १९३ आमा। ये चीजें कभी भी जारमा नहीं बन सकती। अनेक जमो का अनुभव भी हम इस बात से रोप नहा पाता कि हम वस्तु को आत्मा न बना सकेंगे-'हैविंग' वनी 'बीइग नहीं बन सकता। कभी नहीं । इसरिए महावीर या बुद्ध या जीउस उन लोगा का पागल कहते हैं जा परिग्रह म पड़े हैं। सुरा है मैंने वि डायोजनिज न सिक दर से एक बार पूछा कि अगर तू पूरी दुनिया पा लेगा तो फिर क्या करेगा? यह सुनकर सिकदर उदास हो गया। उसने कहा-ठीक कहते हैं आप, क्याकि दूसरी तो काई दुनिया नहीं है । अगर मैं एक पा गा तो फिर क्या करूँगा? ___ यापन कभी सोचा है कि आप जो चाहते हैं, वह आपको मिल जाय ता क्या होगा? अगर हम कभी इस दुनिया म कल्पवक्ष बना सकें तो प्रत्यक आदमी को मनावीर हो जाना पडेगा और मारी दुनिया अपरिग्रही हो जायगी। जसे ही कोई ची। आप को तत्काल मिर गई, वैम ही वह वेकार हो गइ। आप फिर पुरानी जगह राडे हो गए। आप एक भूख हैं एक खालीपन एक रिक्तता, जो हर चीज ये पाद पिर आगे आवर सडी हो जाता है । मनुष्य को वासनाएँ सकुलर हैं गाल है इसलिए आगा उपर घ बनती हुई दिखाई पड़ती है, बनती कभी नहा। हम अपन को घोसा दिए चले जाते हैं। हम सोचत है कि एक रुपया हम मिल जाय तो हम आननित गे जायगे । रपया हमे मिल जाता है पर हम आनन्दित नहा होते । साचते है, दूसरा मिल जाय । वह भी मिल जाता है तीसरा भी मिल जाता है परतु आनद नहीं मिरता। हम भूल जाते हैं कि दूमरा रुपया भी पहले रपए की प्रतिलिपि है कापी है तीमरा दूसरे की प्रतिलिपि है वह भी उसी या चेहरा है। ये मिस्त चल जाते हैं और हम इनम सोत जात है। करोड रुपए एकत्र हो गए फिर भी आशा ज्याकी स्या है। इसलिए कमी-कभी हम हैरानी होती है रि कराडपति भी एक रुपए के लिए इतना पागल क्या होता है । क्राडपति भी एक रुपए के लिए उतना ही दीवाना होता है जितना वह होता है जिसरे पास एक भी नहा है । आप पारा कितना राया है इमसे पाई पर नहीं पडता। यह जो आगे है जो नहीं है आपके पास वह दौन्ता परा जाता है। और पर वार यरोडपति तो और भी एपण हा जाता है ययारि उसपरा अनुभव बताता है कि राह म्पए हो गए फिर भी अभा उपधनहा हुई । अब एक-एक रुपए का जितना जोर से पकड़ा जा सबै उतना ही ठीक है, यानि जावन चुप रहा है। वह भूल जाता है कि दुनिया में कोई कमी व महा पचता जहां वर पहुचना पाहता है। पासा सदा यही रहता है जा गुरु परत यक्त होता | Tम के दिन जितना पारा हाना है, मृगु मे दिन उतना ही पाराग हाता है। सिप एम पर पड़ता है। जम के दिन मुरा निमरता है, मृत्यु ये दिन सूरा स्ता है गौर अधेरा होना है। जमग दिन आगाएं होती है, मृत्यु २ दिन विपाद १३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महावीर : परिचय और वाणी होता है, हार होती है । जन्म के दिन आकाक्षाएँ होती है, अभीप्साएँ होती है, दौडने का वल होता है, मृत्यु के दिन थका मन होता है, हार होती है, हम टूट गए होते है | लेकिन फिर भी ऐसा समझने की भूल न करे कि मरता हुआ आदमी परिग्रही हो जाता हो । मरता हुआ आदमी भी यही सोचता है कि काश, थोडा वक्त और होता तो दौड लेता और पहुँच जाता 1 जिसे सीखना है वह एक अनुभव से भी सीख सकता है और जिसे सीखना नही है वह अनन्त अनुभवो से भी नही सीख सकता । हम ऐसे ही लोग है जिन्होने सीखना बन्द कर दिया है। जिन्हे हम महावीर या कृष्ण या बुद्ध कहते हैं, वे ऐसे लोग थे जो जिन्दगी के अनुभव से सीखते है । हम ऐसे लोग है जो सीखते ही नही । हम सासारिक लोग है । ससार का मतलब होता है— चक्र । ससार एक चक्र है, जिस चक्र हम एक ही बात दोहराए चले जाते है । कल भी आपने क्रोध किया था और कल भी आपने कसमे खायी थी कि अब क्रोध नही करेगे । आज फिर आप क्रोध करेगे और आज फिर आप पछताएँगे, कसमे खाएँगे कि क्रोध नही करेगे । कल भी यही होगा, परसो भी यही । हम आदमी नही, मशीन है । हमसे ज्यादा बुद्धिहीन प्राणी खोजना बहुत मुश्किल है । हम सीखते ही नही । • जिन्दगी मे जो वडी-से- बडी बात सीखने की हो सकती है, वह यह है कि परिग्रह एक व्यर्थता है । यह मै नही कहता कि वस्तुएँ व्यर्थ है, आपके घर मे जो कुर्सी है वह व्यर्थ है । कुर्सी व्यर्थ कैसे हो सकती है ? मकान व्यर्थ कैसे हो सकता है ? इसकी अपनी सार्थकता है । मैं जो कह रहा हूँ वह यह है कि वस्तुओ से अपने को भर लेने की कोई सार्थकता नही है । परिग्रह के प्रति अगर हम थोडी-सी भी आँख खोलकर देख ले तो हम अचानक पायेंगे कि मालकियत की भावना विदा हो गई है । जिस दिन हमारी पकड छूट जाती है उस दिन हम अकेले रह जाते है। न तो पत्नी रह जाती है, न मित्र, न भाई, न मकान | ये सब अपनी जगह है और एक बड़े खेल के हिस्से है । जिन्दगी के सारे सम्बन्ध शतरज के खेल है । उसके नियम है, उनका पालन करना चाहिए | और ध्यान रहे जो आदमी जिन्दगी को खेल समझता है उसके लिए नियम पालन वडा आसान हो जाता है, कठिनाई ही नही रह जाती, गम्भीरता तिरोहित हो जाती है | लेकिन कुछ लोग खेल को ही जिन्दगी बना लेते है और खेल मे भी गम्भीर हो जाते है । तब खेल मे भी तलवारे निकल जाती है । स्मरण रखे कि जिन्दगी की सारी की सारी व्यवस्था अपनी जगह ठीक है । वस्तुएँ वस्तुएँ हैं, घन वन है, पद पद है । इनमे आत्मा कुछ भी नही, कोई भी नही 1 इस स्मरण से अपरिग्रह फलित होता है । इससे परिग्रह से मुक्ति मिलती है । छोड़कर भाग जाने का नाम परिग्रह से मुक्ति नही है । इसलिए जिन्हे हम सन्यासी कहते हैं, वे साधारणतया इन्वर्टेड परिग्रही है - वे शीर्पासन करते हुए परिग्रही है । जो आप Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी १९५ है, वहीं हैं, बल्कि कई मामला में व आपसे भी ज्यादा गम्भीर हैं। मैं तो गाच ही नही सपना वासी भी गम्भार हो सकता है । सन्यासा अगर गम्भीर है तो इसका मतर है कि वह सिफ गोपासन लगाकर सडा हा गया है ससारी है । गम्भीरता का मतलब है कि ससार वडा मायक है, नाममविया का यह जा जाए है वह वडा मीमती है । परिग्रह नासमझी है परिग्रह व सिलाफ साधा गया त्याग भी नाममनो है । चीजा का पहना पागत्पन है तो चीना को छोडकर भागना कम पागलपन नही । चीजा ये प्रति मोहग्रस्त होना पागलपन है तो चीजा के प्रति विरक्त होना पापन नहीं है । यति परिग्रही पागल है तो सयासी भी उससे कम पागल नहा है । सासा मत हैं और मुझसे कहते हैं कि उठना सिन्याम सर वहा हमने भूल तो न वो भाविक है । जो भाग रह ह वे भी कम परवान नही हैं। वे सायासिया वे पर छून रहने हैं जाकर । व साचत हैं निसन्यासी बडे जानद भ होते हैं । सयासी एकान्त म सदिग्ध होता है, भीड म आश्वस्त | जब लोग उसने पैर छूते हैं तब पक्का हो जाता है कि लाग आनंद में नहीं हैं-यदि होते ता उसने पैर न छूत । अगर किसा या अपना झूठा मयास बनाए रखना हो तो भीड अनिवाय है । कई दफा मन म ऐसा मन्दह 7 एम सह वा उठना स्वा नही, न तो वस्तुएँ पकडने योग्य है, न छोडने योग्य। इसलिए अपरिग्रहमा अप नताविराग है और त्याग । यह में इसलिए वह रहा हूँ कि कही आप ससार या छावर भागने न लगें, वहीं आप घरवार वा छाटकर जंगल की राह न लें। अपरिग्रह का मतलब मालवियत में भावमा त्याग है । अपरिग्रही वह है जिसम मालकियत या काईना न रहा । उसने बाहर की दुनिया में मालवियत साजनी यद वरदो । इमवाय अथ नही कि बाहर की दुनिया का छाडवर वह भाग गया । नागेगा यहाँ ? जहाँ वह जायगा वहा वारा दुनिया है । सत्यागी हायर वह युग में नीच वठ जायगा सही परन्तु ज्याही कराई पर रहेगा कि हाय से, इयक्ष व पीचे हम घुना रमाना चाहत है व्याहा यह महगा पिब मेरा यह वाग, इस पर मरा पहले सब है यह का मरा है यह मंदिर मेरा है यह आश्रम भरा है। परिग्रह से भागा हुआ आदमी रिपरिपदापर महागा विपरिग्रह क्या है । जनता उसना शेवगा, अनुयाया उगवा तसा गुल्म रात गांजेगा। वह अनुयायी इरठा वरन एनेगा । जा मजा दिगो पा तिजोरा व मामन दाया गिनन में आता है, वही मजा उगरा माया योगिन में आता है। जिदगी वामन है और जब यह नहीं जहाँ है यहीं उन गान गतो । जाती है तो अचार हमपात है कुछ माजे एकदम विदा हो गए। न ही जी महा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी कियत का भाव विदा हो जाता है। पति-पत्नी अपनी जगह है, लेकिन वीच से मालकियत चली गई । पति पति नही रह जाता, सिर्फ मित्र रह जाता है। पत्नी पत्नी नही रह जाती, सहचरी बन जाती है। अपरिग्रह का मतलब है हमारे और व्यक्तियो के वीच ही नहीं, हमारे और वस्तुओ के बीच के सम्बन्ध का रूपान्तरण । मालकियत गिर गई और अपरिग्रह फलित हो गया । इसलिए अपरिग्रह त्याग से ज्यादा कठिन वात है। वैराग्य बडी सरल वात है, क्योकि वह दूसरी अति है और मन का पेडुलम दूसरी अति पर बहुत जल्द जा सकता है । जो आदमी बहुत ज्यादा खाना खाता है उससे उपवास कराना सदा आसान है। जो आदमी स्त्रियो के पीछे पागल है उसे ब्रह्मचर्य का व्रत दिलवाना बहुत आसान है। जो आदमी बहुत क्रोधी है, उसे अक्रोध की कसम दिलवाना सदा आसान है। लेकिन, ध्यान रहे, अक्रोध का यह व्रत भी क्रोधी आदमी ही ले रहा है, इसलिए जल्द ले रहा है । अगर कम क्रोधी होता तो सोचकर लेता। अगर और कम क्रोधी होता तो शायद लेता ही नहीं, क्योकि व्रत लेने के लिए भी क्रोध का होना जरूरी है। अपरिग्रह जब फलित होता है तव मध्य मे फलित होता है । आप अपरिग्रह की विलकुल चिन्ता न करे। आप चिन्ता करे परिग्रह को समझने की। परिग्रह को छोडने की भी चिन्ता न करे, चिन्ता करे उसे समझने की। आप देखेंगे कि सब मिल जाय फिर भी कुछ नहीं मिलता, हम खाली के खाली ही रह जाते है। और स्मरण रखे कि जिन्हे हम बांधते है उनसे ही हम बँध भी जाते है और उनके गुलाम हो जाते है। अपरिग्रह वहाँ है जहाँ न त्याग है, न भोग, न वस्तुओ की पकड और न वस्तुओ का त्याग । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय अचौर्य दतमोहणमाइस्म, अदत्तम्म विवज्जण । अणवज्जेसणिज्जस्म, गिण्हणा अवि दुक्कर ।' --उत० अ० १९, गा० २८ - हिंमा या एस आयाम परिग्रह है। हिंसर हुए विना परिग्रही होना सम्भव है। जर परिग्रह निक्षिप्त हो जाता है तव चारी या जम हाता है। चौरी परिग्रह की हा विलिप्तता है। यदि परिग्रह स्वस्थ हो तो उसस धौर धोरे अपरिग्रह वा जम होता है। जब पर अस्वस्थ होता है तन परायी चीज अपनी दिपाई पड़ने लगता है, यद्यपि मरा अपना नहीं दिखाई पडता। अस्वस्थ परिग्रही दूमर को ता दूसरा मानता है पिन दूमरे का चीज को अपना मानने की हिम्मत परन रगता है। अगर मारा मी अपना हो जाय तर दान पैदा होता है। जब दूमर पो चीज भर अपनो हो जाय मार दूसरा दूारा रह जाय, तब चोरी पैदा होती है। पारी और दान म यही गमााता है । गेनों एप ही चीज व दा छार हैं । यदि चोरी मद्वारे पो चीमा अपाा वन न की मालिश है तो दान मगरे मा अपना यनाने यी मागि। पारी म हम दूसरे को पीन छीनकर अपनी पर रेत हैं, न म बापती चीज दुमरे को मार देत हैं एप वप म दाा पारी या प्रायश्चित्त है। दानी अपार अतीत वाचार हाता है और चार अपार विध्य पाद धम पा सम्बप परतुका यी चोरी स उतना नहीं जितना गहरी पारिया में है। चोरी गर का गहरा आध्यास्मिर अप है। मगर पिया नि समाज पूरी तरह समद हा गया ता पारी "हो जाएगी। सभा को भारी अविनर गरीवा में कारण पंदा हाती है। पिन और मारियां हैं। महायत पागम्य पदन गरी पारिया म है। मागमारा आध्यास्मिर अप यह है रिजा मरा रहा है उगम पाना पापित परू। यहत-बुध मरा रहा है जिस मन थपना पोधित रियाई पपि मापनी किसी भी पारोदामी । परार मरा नहा, सिमपापित तारि पद भरा १ दांत पुतसारा भी उमर मालिशिविरम नरना गाय हो निरम (पापरहित) मोर पोर पस्नु हो प्राणता - हानों याने मात्रा (पीपगापम निरगान सार उपमें हो जाने पोय।) - Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महावीर : परिचय और वाणी है। अध्यात्म की दृष्टि में यह चोरी हो गई। जिस दिन मैने वोषणा की कि मैं गरीर हैं उसी दिन आध्यात्मिक अर्थों में मैंने नोरी की। मां के पेट मे एक तरह का शरीर या मेरे पास । आज अगर मेरे गामने उसे रस दिया जाय तो में साली आँसो से इमे देख नही मरूंगा और न यह मानने को राजी होऊँगा कि कभी यह मेरा गरीर था। फिर बचपन मे एक शरीर था जो रोज बदलता रहा। इस प्रकार मुजे कितने ही शरीर मिले और इन मारे गरीर को मैं कहता रहा कि यह मैं हूँ। कोई अभिनेता उतना अभिनय नही करता जितना अभिनय में करता हूँ। बचपन से लेकर मृत्यु की घडी तक अभिनय करता रहूँगा। मेरा जीवन अभिनय की लम्बी कहानी है। मभी मुझ-जैसे ही है। ऐमा एक भी आदमी नहीं जो अभिनय न करता हो । कुगल-अकुशल का फर्क भले ही हो, लेकिन ऐसा कोई नहीं जो अभिनेता न हो। जिस दिन अभिनय करना वन्द हो जाय उमी दिन व्यक्ति के भीतर धर्म का उदय होता है । जिस शरीर को हम अपना मानते है वह भी अपना नहीं है और हम जिस व्यक्तित्व को अपना मानते है वह भी अपना नहीं । हमारे मुखोटे उवार के मुखौटे है और अपने ऊपर लगाए गए चेहरे दूसरो के चेहरे। जो बडी से बडी आध्यात्मिक चोरी है वह चेहरो की चोरी है। हम जो भी बाहर से साधते है वह स्वभावत हमारा चेहरा ही बनता है, जो भीतर से आता है वही हमारी आत्मा होती है । हम धर्म को बाहर से ही साधते है। अधर्म होता है भीतर, धर्म होता है बाहर । चोरी होती है भीतर, अचोरी होती है बाहर। परिग्रह होता है भीतर, अपरिगह होता है बाहर । इसलिए हम जिन्हे धार्मिक आदमी कहते है उनसे ज्यादा चोर व्यक्तित्व खोजना बहुत मुश्किल है। आध्यात्मिक अर्थो मे चोरी है उसे दिखाने की कोशिश जो आप नही है । हम सब बहुत चेहरे नैयार रखते हैं। जब जैसी जरूरत होती है वैसा चेहरा लगा लेते है और जो हम नही है वह दिखाई पडने लगते है। हमारी मुस्कराहट आँसुओ को छिपाने का इन्तजाम होती है, हमारी प्रसन्न मुद्रा उदासी को दवा लेने की व्यवस्था होती है। आदमी जैसा भीतर है वैसा बाहर दिखाई नही पड रहा है। यह आध्यात्मिक चोरी है। इस प्रकार की चोरी करनेवाले लोग वस्तुएं नही चुराते, व्यक्तित्व चुराते है। और याद रहे, वस्तुओ की चोरी बहुत बडी चोरी नही है, व्यक्तित्वो की चोरी बहुत वडी चोरी है । जिस आदमी को अचोरी की साधना करनी हो उसे पहली बात यह समझ लेनी चाहिए कि वह भूलकर भी कभी व्यक्तित्व न चुराए। महावीर से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जायगा। वूद्ध और कृष्ण से जो व्यक्तित्व लेगा वह चोर हो जायगा। अव दूसरा कोई भी आदमी दुवारा महावीर नही हो सकता हो ही नहीं सकता। वे सारी की सारी स्थितियाँ दुवारा नहीं दोहराई जा सकती जो महावीर के होने के वक्त हुई थी। न तो वह पिता खोजे जा सकते है, न वह मॉ खोजी जा सकती है। नता Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और याणी घर युग पाजा जा सकता है और न वे चाद-तारे जिनपे नीचे महावीर या जाम हुआ था। इमलिए दूमरा योर थामी जब भी महावीर होने की कोशिश करेगा तब वह चोर महावीर हो जायगा । इस तरह को चोरी कोही हमन दुर्भाग्यवश, धम समा लिया है। इसलिए हमम बार जन है काई इसाई है पाई हित है, कोह नौद्ध है। यह घम के नाम पर गग चोरी है। अनुमाया पोर होगा ही आ यात्मिक अर्यों म। उसने दूसरे व्यक्तिरवा यो घुरापर अपन पर ओटना पुर पर रिया है-उन पस्तित्वा मोजा उमर नहा हैं । पाप इसका परिणाम होगा। न तो में किमी की जगह जो सस्ता हूँ और न पिता की जगह मर सकता है। मरा अनुमय अनिवायरपण शिजी हागा और जिम दिन निजी हागा उसी दिन में अचोरा पो उपरब्ब होगा, उसके पहले नहीं । जिस दिन मरे पास कोई ओटा हुआ व्यक्ति व होगा उस दिन मैं अचोरी को उपध हो जाऊंगा अपया में रही बना रहूगा। ध्यान रहे, यस्तुआ को चोरी उम दिन यहन जल्ट यत हो जायगी जिस दिन वस्तुएँ यहा ज्यादा हो जायगी रेपिन व्यक्तिवा वी पारी जारी रहेगी। हम चुरात ही रहेंगे, दूसरों को माइत हा रहेंगे। इस पर आप जरा गौर परगे रि आप म्यय हैान सी निम्मत जुटा पाए या नहा । अगर नहा जुटा पाए ता आपा यत्तिय भी अनिवाय आधार गिरा पारी को होगी। आपन पाई और पाने पी पोगिता नहा वी? आपने घेता वचनन म पहा भी ता किमी जोर जगा हा जान पा आग्रह नहा है। अगर है तो उस मामह या टीर ग गमावर उममे मुक्त हो जाना जारी है, अ यया अचारी याम्पिति पंदा नहा होगी। और या चारी एक ऐमी चारा है जिससे नापको कोई गर नहा मरता । पन ये चार या तो परहा जा सपना है परतु य्पत्ति जमी गूक्ष्म नीज से पार पापोन पगाग पडेगा? व्यक्ति र पी पारीएर एगी चारी है जिसमें पिगी म पुप पोनत मानहा और आप चार तो बात है। व्यक्ति य पी चारा आसान और मर । गुबह म उमर - राना जारी है कि में रिवनी मार दूगरा हा जाना पिननी धार पति नहा सा पाना दतिया गाणा मुम सा मागता हैरि मेरा पाग असार अपना प्यसिप हाई परतु मात्रा में पाना । अगर पार नारा पीतामाता गगा विमा हैं मालामबाए और मात्रा पोत मासा fru राना या दोन । यहापीर पी तरह गाउमा उदनगर है ठोग महारrant किया जाना पवर पाहर है। भाभी 77 परीशा शापा है पनि सर राई भागा नपा मामा प्रसार पाया है जो मानहा राजा. यामान पामाहाग है। अEET पाटिन मना माता Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० महावीर : परिचय और वाणी लेकिन अच्छे को ओढ लेना खेल है, कन्वीनिएण्ट है । अनैतिक जगत् में नैतिक होना तपश्चर्या है, एक बुरे समाज मे नैतिक होना कठिनाई मोल लेना है । चारो तरफ से चोटे पडती है, इसलिए सुविधापूर्ण है वस्त्र ओढ लेना । नैतिकता के वस्त्र ओढो बाजारो मे, सार्वजनिक स्थानो मे । इसलिए हमारे पास दो तरह के चेहरे है-प्राइवेट फेसेज और पब्लिक फेसेज । हमारे ऊपर नकली चेहरो की इतनी परते है और अनन्त जन्मो की चोरी इतनी गहरी और इतनी लम्बी है कि हमारा असली चेहरा - निजी चेहरा - विलकुल छिप-सा गया है । एक मुखौटा उतारो तो दूसरा उसके नीचे है । प्याज की तरह हो गए है हम सब । हमने अनन्त जन्मो मे इतने व्यक्तित्वो की चोरी की है और इतने मुखौटे ओढे है कि हमारा अपना तो कोई चेहरा ही नही रह गया है । अगर हमारे छिलके उतारे जाएँगे तो आखिर मे शून्य रह जायगा । उसी शून्य से अचोरी मे गति होगी, उसके पहले नही | अगर हमे यह पता चल जाय कि हमारा कोई चेहरा ही नही है तो बडी उपलब्धि है यह । चोरी से बचने की कोशिश का नाम अचोरी नही है । जो चोरी से बचा है वह भी चोरी से बचा हुआ चोर है, जिसने चोरी की है वह चोरी मे फँस गया चोर है । दोनो ही चोर है । एक की चोरी व्यवहार तक चली गई है, दूसरे की चोरी मन तक रह गई है । लेकिन अचौर्य का सम्बन्ध असली चेहरे से है, अपने चेहरे से है। क्या हमारे पास अपना चेहरा है ? पति के सामने पत्नी को कुछ और होना पडता है अपने पडोसियो के सामने कुछ और । तत्काल चेहरा बदल जाता है । अपने मालिक के सामने हम कुछ और होते है और अपने नौकर के सामने कुछ और। मालिक के सामने हम पूंछ हिलाते हुए होते है और नौकर के सामने उद्दड । कई दफे बहुत लोगो के बीच हम गिरगिट हो जाते है । चेहरो की यह बदलाहट तनाव पैदा करती है । जिस आदमी के पास एक चेहरा है उसको तनाव नही होता । तनाव सदा होता है चेहरो को बार-बार बदलने से । लेकिन हम बहुत होशियार लोग है । गियर बदलने के परपरागत तरीके की जगह हमने अब सरल तरीको का आविष्कार किया है । अव मोटर गाडियो मे ऑटोमैटिक गियर होते है । हम भी अपने चेहरे बदलते नही, हमारे चेहरे स्वत बदल जाते है। चेहरे को बदलने के लिए हमने आटोमैटिक गियर खोज निकाले है। नौकर आया कि चेहरा बदला । मालिक आया कि चेहरा बदला । पत्नी आई कि चेहरा और हुआ । प्रेयसी आई कि चेहरा और हुआ । पुराने आदमी को धार्मिक होने मे वडी सुविधा थी । उसके पास कन्वेन्शनल गियर थे । उसको चेहरा बदलना पडता था, इसलिए उसे यह भी पता चलता था कि मै अपना चेहरा बदल रहा हूँ । आधुनिक सभ्यता ने कन्वेन्शनल गियर हटा दिए है । सभ्य आदमी और असभ्य आदमी मे जो फर्क है वह मेरी दृष्टि मे कन्वेन्शनल गियर और ऑटो Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २०१ मटिक गियर का फ्र' है, और कोई फर नहीं। सभ्य आदमी का धार्मिक हाना मुश्किल हो जाता है क्याकि उसे चारी का पता ही नही चलता। जीजस, बुद्ध और महावीर एक असभ्य दुनिया में पैदा हुए थे । सम्य दुनिया में हम बुद्ध महावीर और जीजस जस आदमी पदा नहीं कर पा रहे हैं। असभ्य जादमी इतना बचन नहीं था। मैं आपसे कहना चाहूंगा कि अचारी को समझने के लिए अपन चेही बदलने के प्रति आपका सजग होना पटेगा । अचारी के महानत में आप अपने चहरे का बदलना दखें। घर से मदिर की आर जात समय जरा होगपूर देखें कि चेहरा किस जगह वदलता है। पिस जगह दूकानदार हटता है और सच्चा साधक जाता है । जहा लिसा रहता है 'कृपया जूता यहा पहा नीचे तप्ती होनी चाहिएकृपया चेहरा यहाँ । कई लाग ता अपना चेहरा लिये ही भीतर घुस जात है। जूता रिय मदिर म चले जाएँ तो उतनी अपवित्रता नहीं होगी, जितनी चेहरा रिये चले जाएँ ता होगी। मेरी सलाह है कि जब जाप चेहरा बदलें तो जरा होत रख कि आप इस क्य बदल रहे हैं। अब तक आप दूसरा पर हसत रहे हैं अब आप अपने ऊपर हँसना शुरू कर देंगे। और जब आप जान बूझकर चेहरा बदलेंगे ता चेहरा बदलना मुश्किल हो जायगा और धीरे धीरे आपको एहसास होगा कि आप हममा अभिनय परल रहे हैं। धीर धारे चेहरा बदरना कठिन हा जायगा और जर चेहरा बदलना कटिन हागा तथा बाच का अतराल बढेगा और जाप कभी कभी चेहरे के बिना रह जाएगे, तब आपका अमला चेहरा जनमगा-आपके भीतर आपका चेहरा आना गुम होगा। तो पहली बात यह है कि चौबीस घंटे बदलते हुए चेहरो का खयाल रसना और दूसरी यह पि पिसी का चेहरा-चाहे वह महावीर पा हा या कृष्ण का या प्राइस्ट पा-अपणा बनान की कोशिश मत करना । भूलकर मत करना । अनुयायी बनना ही मत अयथा चार बने विना योई उपाय ही नहीं। जो बहुत इमानदारी से चोरी करता है वह चेहरे चुराता है, जो बईमानी से चहरे चुराता है वह हर नहीं पुराता, सिप विचार चुराना है। पहित के पास लिए विचार को चारी हाती है, तथापित साथ न पास बेहरा को चारा । दा तरह की चोरी है--विचार को और चेहरे की। चटर की चोरी परनवार आदमी पो हम इमानदार चार पहन हैं। जब आचरण मे पाद विचार माता है तब उसका सुगध और होती है क्याकि आचरण जात्मा म आता है। frस आदमी का आचरण विचार स आना है वह आरमी चार है। शास्त्र स नाया हुआ विवार खुद भी चारी है पिर शास्त्र म पाए हुए विचार पे अनुसार जीवन का ढाल एना और बड़ा चारी है। मैं नहीं रहता पि विचार के अनुसार मारण हा । मैं महता हू पि आचरण पे अनुसार विद्यारहा। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी ध्यान रहे, जिस आदमी को अपनी जिन्दगी मे रूपान्तरण लाना हो उसे स्थगन से—पोस्टपॉन्मेट से—बचना चाहिए। उसे चाहिए कि वह दूसरे को अपने कर्मों के लिए जिम्मेदार न ठहराए । जिसने भी इस दुनिया मे स्थगन की नीति अपनायी, रूपातरण मे विलम्व होने दिया और दूसरे को जिम्मेदार ठहराया, वह आदमी धार्मिक नही हो पाया । धार्मिक आदमी वह है जो कहता है कि पूरे का पूरा दायित्व मेरा है । अधार्मिक आदमी कहता है कि दायित्व किसी और का है, मैं तो भला आदमी हूँ, लोग मुझे बुरा किए दे रहे है । मै कहता हूँ कि आधा अच्छा आदमी बुरे आदमी से भी बुरा है | आधे सत्य पूरे असत्यो से बुरे होते है, क्योकि पूरे असत्य से मुक्त हो जायेंगे आप, आधे असत्य से कभी मुक्त नही होगे । आधा सत्य बधन का काम करेगा । तो मै आपसे कहूँगा कि विचार के अनुसार आचरण मत करना, आचरण के अनुसार ही विचार करना, ताकि चीजे साफ हो और अगर चीजे साफ हुई तो कोई भी आदमी इस दुनिया मे बुरे आदमी के साथ नही जी सकता | आप भी अपने बुरे आदमी के साथ नही जी सकते और एक दफा यह पता चल जाय कि मैं एक बुरी पर्त के साथ जी रहा हूँ तो इस पर्त को उखाड फेकने मे उतनी ही आसानी होगी जितनी पैर से काँटा निकालने मे होती है। प्याज की इस पर्त को, इस ओढे हुए व्यक्तित्व को उघाडकर फेक देने मे उतनी ही आसानी होगी जितनी शरीर से मैल को अलग कर देने मे होती है । लेकिन अगर कोई आदमी अपनी मैल को सोना समझने लगे तो कठिनाई हो जायगी । २०२ हम उपदेश ग्रहण करने को बहुत आतुर और उत्सुक होते है । फिर हम सोचते है कि उसके अनुसार आचरण बना लेगे । यह आचरण वैसा ही होगा जैसा रगमच पर अभिनेता का होता है । पहले उसे खेल की स्क्रिप्ट मिल जाती है, पाठ मिल जाता है, फिर वह उसे कठस्थ कर लेता है, इसके वाद वह रिहर्सल करता है और अन्ततोगत्वा आकर मच पर दिखा देता है । अभिनय का मतलव ही है विचार के अनुसार आचरण, लेकिन आत्मा का मतलब कुछ और है । इसका मतलब है आचरण के अनुसार विचार | अगर चोरी खोनी है तो ओढे हुए चेहरे खोने ही चाहिए और वह क्षण आना ही चाहिए जब आपका कोई चोर चेहरा न हो । चोर चेहरे को हटाइए, चाहे महावीर से लिये हो, चाहे बुद्ध या कृष्ण से । उन चेहरो को हटाइए और उसको खोजिए जो आपका है । जिस दिन आपके सारे चेहरे गिर जायँगे उस दिन अचानक आपके सामने वह रूप प्रकट होगा जो आपका है । जैसे ही वह रूप प्रकट होता है वैसे ही आप अचोरी को उपलब्ध हो जाते है । याद रखिए, जिस आदमी ने व्यक्तित्व चुराने बन्द कर दिए उसने चेहरे चुराने बन्द कर दिए। जिसने आचरण चुराने बन्द कर दिए वह आदमी वस्तुएँ नही चुरा सकता, यह असम्भव है । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २०३ काई कह सकता है कि हमार चोर होने म मात्राएँ हैं डिग्रीज हैं । हो मक्ता है कि हम दो पैसे न चुरात हा, लेकिन इसमे यह मत समझ लेना कि हम अचोर है । इमसे क्या पक पडता है कि हमन दा पसे चुगए वि दो लाख ? चोरी मे कोई माया हो सकती है ? दा पसे चुराऊँ तो भी मैं उतना ही चोर हू जितना दास चुराने चारा बोर हाता है। हम बच्चा से कहते हैं कि तुम विवकान द जस हा जाया। इस बच्चे की कौन सी गरता कि वह विवेकानद जसा हो जाय ? अगर वह विवकानद जसा हा गया तो चार हा गया। हम वह्ते हैं महावीर जसा हा जाओ। अब कोई गग्ता की है आपने पदा हाकर ? अगर महावीर का ही मिफ पैदा होने का हक है पथ्वी पर तो अबतक दुनिया सत्म हो जानी चाहिए। वह हो चुचे पदा मामला सरम हा गया। अब आपके होने की क्या जररत है ? महावीर की काबन कापा होन की क्या आवश्यक्ता है ? कृपा करक वह भी मत करना जो मैं कह रहा हूँ। मैं जो कह रहा हूँ उम समझ लेना और छोड दना । समझ आपये पास रह जाय, विचार नहीं । सुरभि रह जाय, नहीं । यह समय आपया जिदगी को बदले तो बदर देना, न बरले ता ऊपर से थापन की वाशिश मत करना अयथा चारी जारी रहेगा। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय अकाम सल्ल कामा विस कामा, कामा आसीविसोपमा । कामे य पत्थेमाणा, अकामा जन्ति दोगई ।। -उत्त० अ० २, गा० ५३ ऊपर जिन तीन व्रतो की हमने वात की उन नबके माधार में काम की शक्ति ही काम करती है। अकाम ही अहिंसा, अपरिग्रह और अचार्य का आधार है, कामवासना अर्थात् चाह, हिमा, परिग्रह और नीर्य का नाघार । काम ( कामना, इच्छा ) के मार्ग मे यदि बाधा उपस्थित हो तो काम हिंमक हो उठता है, अगर कोई वाधा न हो और काम सफल हो जाय तो वह परिग्रह बन जाता है। विज्ञान की दृष्टि मे आज सारा काम ऊर्जा का नमूह है, एनर्जी है । धर्म इन शक्ति को परमात्मा का नाम देता है। विज्ञान इस शक्ति को अभी एनर्जी मात्र ही कह रहा है। विज्ञान थोडा आगे बढेगा तो उससे एक और भूल टूट जायगी। जैसे विज्ञान को पता चला कि पदार्थ ऊर्जा का सघन रूप हे वने ही उसे आज नही तो कल पता चलेगा कि चेतना का सघन रूप एनर्जी है। प्रत्येक व्यक्ति इसी ऊर्जा का स्फुलिंग है, एक छोटा-सा रूप है। यह ऊर्जा अगर बाहर की ओर वहे तो वह काम वन जाती है और अगर भीतर की ओर बहे तो अकाम बन जाती है, मात्मा बन जाती है । भेद सिर्फ दिशा का है। जब कामना घर की ओर लौट पटती है तब अकाम का जन्म होता है; जब काम-ऊर्जा वाहर की ओर बहती है तब आदमी क्षीण, निर्वल और निस्तेज होता चला जाता है। जिसे हमे पाना है, शक्ति उसी की ओर प्रवाहित होनी चाहिए। अगर हमे बाहर की वस्तुएँ उपलब्ध करनी है तो शक्ति को बाहर जाना पडेगा और अगर हमे आत्मा पानी हो तो शक्ति को भोतर जाना पड़ेगा। काम को मैं बाहर वहती हुई ऊर्जा कहता हूँ • अकाम से मतलब है भीतर वहती हुई ऊर्जा । शक्ति चाहे तो बाहर की ओर वहे या भीतर की ओर । जव वह बाहर की ओर वहती है तब हमे सब-कुछ उपलब्ध हो सकता है, केवल आत्मा १. कामभोग शल्यरूप है, कामयोग विष के समान है और कामभोग भयंकर सर्पजैसे है । जो कामभोग की इच्छा करता है, वह उसे प्राप्त किए बिना ही दुर्गति मे जाता है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २०५ पर ध नही हो सकती । व्यक्ति सव-कुछ पा सकता है सिफ स्वयं का खो देता है। सब पा लेने का भी कोई सार नहीं, यदि स्वय सो जाय । जव ऊजा भीतर की ओर बहती है तब वह जबाम बन जाती है। काम का अर्थ है-इच्छा कामना निजायर । जब भी हम कोई कामना करत हैं तब हम बाहर की ओर रहना पड़ता है । पुछ पाने को है बाहर इमलिए हम बाहर की भार बहना पडता है। हम सब बाहर रहते हुए रोग हैं, हम सब कामनाए हैं। चौतीस घटे हम बाहर का भोर वह रह हैं किसी को धन पाना है, किसी को यश, रिसी का प्रेम । आश्चय उन सांगा का देखकर होता है जा परमात्मा का पाने के लिए बाहर का तरफ बहते चल जाते हैं। जिसे मोक्ष पाना है वह भी साचता है कि मान कही ऊपर है, बाहर है। परतु ध्यान रहे धम का बाहर से कोई सम्बध नहीं । इसलिए जिन इश्वर वाहर हा वे समझ ल कि उसका धम से कोई नाता नहीं है। जिनका माक्ष बाहर हो वे अच्छी तरह विश्वास कर लें कि वे धामिद नहा है। पाने की कोई भी चीज जिनके लिए बाहर हो वे समझ लें पिकामी हैं। सिफ एक ही स्थिति स काम म मुक्ति होती है और वह यह कि हम भीतर बहना शुरू करें। जम के साथ हम गक्ति लवर आते हैं और मृत्यु के साथ शक्ति गाकर वापस लौट जात हैं। जो व्यक्ति मत्यु के साथ भी शक्ति लेकर वापस रोटता है उस फिर आने की जरूरत नही रह जाती। अकाम जम मरण से मुक्ति है काम बार-यार ससार में लौट आने का कारण है। वाम है मृत्यु की खोज, अकाम है अमत को तराश । __स्मरण रहे कि मनुप्य की कोई भी कामना कभी ठीक अथों म पूरी नहीं हाती, होनहा सक्ती। याहर की तरफ दौडना ही जिसकी जिदगी बन गई है यह एक इच्या पूरी हुई नहीं नि दूसरी का जनमा लेता है । रहना चाहिए कि वह एक के बाद अनेय इच्छामा को जनमा स्ता है फिर दौरना शुरु कर देता है। सच पूटिए तो हम बाहर की तरफ दौड़ती हुई कर्जाएँ हैं इसलिए हम साली कारतूमा की तरह मर जाते हैं। इसलिए हमारी मृत्यु सौंदय नहा हो पाती, एक अनुभव नहा या गती । मृयु पी पीडा निस्तज और साला हो गए नादमी पा है जा सव भांति रिस्त हो गया है जिसम अव युछ भी नहीं बचा। रविन मौन मा आनन्द देती है उस जो सारी नही, भरा हुआ है। हम नरे हुए कस रह जाय, इस रहस्य का समय पामे रिए आम है रेग्नि अवाम का समापन के लिए पहले शाम की समस्त यात्रा रामप रनी चाहिए। इस ममम ता भीतर की तरफ यहना बडा मरल वान हो जाती है। हम पता है कि पटाय अपपा स बना है। इस सदी म पजारि प्रत्येर Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ महावीर : परिचय और वाणी अणु के भीतर अनन्त ऊर्जा छिपी है। अगर अणु को तोड दिया जाय तो विस्फोट होता है और शक्ति वाहर वह जाती है। विज्ञान ने अणु को तोटा है, धर्म ने जोड़ा है। इसलिए धर्म का नाम है योग, जोड । मनुप्य की चेतना भी अणु है और यदि हम उस अणु को टूटा हूआ रहने दे तो उससे सब वह जाता है, अनन्त ऊर्जा वाहर निकल जाती है। अगर वह अणु टुटे नहीं, वरन् सग्लिप्ट हो जाय, बन्द हो जाय तो भीतर अनन्त ऊर्जा उपलब्ध होती है । इस अनन्त ऊर्जा की अनुभूति अनन्त परमात्मा की अनुभूति है, इसका अनुभव अनन्त ग्रानन्द का अनुभव है । इस अनुभव के बाद फिर कुछ अनुभव करने को शेप नहीं रह जाता। लेकिन ऐमा समझना चाहिए कि आदमी टूटा हा अणु है, चेतना का टूटा हुआ ऐटम है। उनमें छेद है । जन्म के क्षण मे हम ऊर्जा से भरे हुए होते है । जब तक जन्म नहीं होता तव तक हम भरी वाल्टी होते है। जन्म के साथ वाल्टी पर उठी कुएँ से कि पानी गिरना शुरू हुआ । अगर ठीक से समझे तो जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु गुरु हो जाती है, हमारा खाली होना शुरू हो जाता है। हम फूटी वाल्टी की तरह खाली होने लगते है । अगर कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन की ऊर्जा को ठहरा ले तो वह जिम ताजगी का अनुभव करेगा उमका हमे कोई भी पता नहीं। और काम, ऊर्जा को खोने की विधि है । काम के अनेक रूप है जिनमे सर्वाधिक सघन रूप यौन है। इसलिए धीरेधीरे काम और यौन, काम और सेक्स पर्यायवाची बन गए । भोजन से ऊर्जा मिलती है, नीद से ऊर्जा बचती है और व्यायाम मे ऊर्जा जगती हे। इस ऊर्जा का वहत सा अश सिर्फ जीवन-व्यवस्था मे व्यय हो जाता है। भोजन के समय आप साधारण मृत पदार्थ को भीतर ले जाते है और आप की जीवन-ऊर्जा उसे जीवन्त बनाती है। इनमे बहुत ऊर्जा व्यय होती है। चलते-फिरते है तो ऊर्जा व्यय होती है, बैठते हैं तो ऊर्जा व्यय होती है । जीवन की इन सारी आवश्यक प्रत्रियाओ के वाद जो थोडीवहुत ऊर्जा बचती है उसका आप सिर्फ सेक्स मे उपयोग करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति दिन भर धन कमाए और सध्या समय जाकर उसे नदी मे फेक आए। यह बड़ी ऐसई जिन्दगी है। अजीव पागलपन है ! • इकट्ठा करना, फेकना, इकट्ठा करना, फेकना । ऊर्जा का इकट्ठा करना तो ठीक है, लेकिन खोने के लिए ही इकट्ठा करना बहुत वेमानी है। यह जिन्दगी नही हो सकती, कही भूल हो रही है। अगर कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए मकान बनाता हूँ कि गिरा दूं तो हम कहेगे कि उसका दिमाग ठीक नही । लेकिन हम सब जिन्दगी मे करते क्या हैं ? यही तो करते है। इधर आप ऊर्जा कमाते और यौन मे व्यय करते है उधर सन्यासी ऊर्जा को सदेह की दृष्टि से देखता है, उपवास करता है, खाना कम खाता है। आप कमाकर खो दतह, १९ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महावीर परिचय और वाणी २०७ फमाता ही नहीं । लेकिन सयासी लम्बे अरसे से अपने को घाखा दे रहा है । उप वास से यौन नष्ट नहीं हाता, वहाग पड़ा रहता है। पडा रहता है, प्रतीक्षा करता रहता है कि जब शक्ति मिले तो जळू। गहस्य और सयासी भ्रातियो के उलट छोर हैं । अवाम का अथ है कि शक्ति तो पदा हो रेक्नि यौन से विसर्जित न हो। जब शक्ति बहुत बडे पमाने पर सगहित होती है जब उस सम्भोग में विसजित नहीं किया जाता तब यह आपके भीतर जव गमन गुर करती है। जब भी कोई शक्ति रोकी जाती है तब वह ऊपर उठती है। अमा आपकी शक्ति योन केन्द्र के ऊपर नहा उठती। और ध्यान रह सक्म मनुप्यका निम्नतम सेंटर है। समय लें कि मनुष्य के भीतर सेक्स जैस छह द्वार और है और ऊजा एवंएक द्वार पर जाती है। जब वह यौन केद्र से ऊपर उठकर अय चना पर जाती है तब आप हरान होत है और कहत हैं कि मैं कमा पागल था, मैं शक्ति को कहाँ सो रहा था? सचमुच आपल्यक्तित्व की पहली परत पर ही जीत है--सनस की परत पर जहा क्वड-पत्थर से ज्यादा कुछ नहा मिल सकता। अगर वहा से ऊजर इटठा हा और थाडी माग बढे ता दूसरा चर सक्रिय हो उठता है, खुलन लगता है। जव जापफी ऊजा सातवें चर पर पहुँचती है मस्तिष्क तक, तर सेक्स सेटर (मूलाधार) और सहस्रार के बीच अन्भुत शक्ति प्रवाहित होने लगती है, आपकी कुडलिनी जाग जाती है, आप आत्मभान का उपाय होते है । जिस दिन आपकी समस्त जजा इक्टठी हार माप के मस्तिष्क के चत्रा वा चलान लगनी है, उस दिन पहली बार आप ब्रह्म का उपल ध हात ह। लेकिन हम ता पहले ही चद्र पर खो जाते हैं। वह हमारा छिद्र सब कुछ विदा परवा दता है। लेकिन मैं यह नही रहता कि आप सेक्स का काम-वासना यो दवाएँ। अगर आपने दवाया और रोका तो वह विद्राह पर उठेगी। शक्ति का दबाया नहा जा सरता, सिप माग दिया जा सकता है। सेक्स से रन्नेवारे लाग जिदगी भर के लिए कामुक हो जात हैं। सेस्म से एडवर भी कोई व्यक्ति ऊपर के चना तर नहीं पहुंचा । ब्रह्मचर्य सक्स से लडाई नहा है। इसरिए याद र- कि हमार पास अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए हा जो ऊपर से पत्रा फा गतिमान कर मर । ऊर्जा को पदा करने पा ही नहीं, उसे नई दिशाएं दन या भी इतजाम होना चाहिए । इस सम्म प म दा-तीन सूत्र स्मरणीय हैं। पहला सून ता यह है कि यदि हम वतमाम जीएं तो कर्जा इक्टठी होगी और ऊपर की ओर प्रवाहित होने लगगी । जो भविष्य म जीने की कोशिश करता है उसी कजा बह जाती है। भविष्य दूर है और भविष्य स हमारा जो सम्बध है यह कामना माही हो सपता है । भविष्य है नहा, भविष्य होगा। और हाणा से हमारा सम्पय सिफ वामना या इच्छा या हा मक्ता है। वासता या मतलब हो है भविष्य मे जीन Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महावीर : परिचय और वाणी ) पडेगे जो काम नही है, जो सिर्फ खेल है, लीलाएँ है । कृष्ण की तरह उसे यही समझना होगा कि जिन्दगी एक खेल है । नाच रहे हैं, पर कुछ मिलनेवाला नही । बाँसुरी वजा रहे है, पर कुछ मिलनेवाला नही । राम की तरह उनकी कसौटी उपयोगिता की न होगी। राम बहुत उपयोगितावादी है, इसलिए एक धोवी के कहने पर पत्नी को । बाहर कर देते है। रघुकुल-परम्परा के लिए वे क्या नहीं करते ? परन्तु यग, वग आदि सव-कुछ उपयोगिता है, बहुत गम्भीर मामला है। अगर की जगह कृष्ण होते तो सीता को न निकालते। हो सकता है, वे खुद ही बांसुरी बजाते हुए भाग जाते । वे सीता की अग्नि-परीक्षा भी न लेने---बहुत बेहूदी बात मालूम पडती । प्रेम की भी कही परीक्षा होती है ? प्रेम अपने आप में पवित्र है : उमकी और कोई पवित्रता नही हो सकती । सीता ने राम की अग्नि-परीक्षा नही ली, यद्यपि राम नी अकेले थे, उनका भी क्या भरोमा ? स्त्री का तो थोडा-बहुत भरोसा हो सकता है, पुरुष का होना जरा मुश्किल है । लेकिन सीता ने नहीं कहा कि राम की भी परीक्षा हो । सीता के लिए जिन्दगी एक गम्भीरता नही, खेल हे। और स्मरण रहे, प्रेम परीक्षा नही मॉगता, वह सब परीक्षाएं दे सकता है। जिन्दगी जितनी गम्भीर होती जा रही है कामकता उतनी ही बढती जा रही है। आप जितना गम्भीर होगे, तनाव से उतना ही भरते जायेंगे और तनाव से जितना ही भरेगे उतना ही रिलीफ चाहेगे, काम की ओर प्रवृत्त होगे और आपकी कामुकता वढेगी। आप गक्ति फेककर अपने वोझिल चित्त को हलका करेगे। तीसरा सूत्र है-जिन्दगी को गम्भीरता से न ले । गम्भीरता बुनियादी रोग है, लेकिन आमतौर से साधु-संन्यासी बहुत गम्भीर होते है। जिन्दगी गम्भीरता नही है। जो जिन्दगी मे गम्भीर है वह कभी काम से मुक्त नही हो सकता। जिन्दगी खेल वन जाय तो आदमी काम से मुक्त हो सकता है। ध्यान रहे कि वच्चे इतने अकाम इस कारण होते हैं कि उनकी जिन्दगी गम्भीर नहीं होती। जैसे-जैसे वे गम्भीर होते जाते है, वैसे-वैसे उनकी जिन्दगी मे सेक्स भरता जाता है। सेक्सुअल मैच्युरिटि की दृष्टि से लडकियॉ जहां चौदह साल मे सयानी होती थी वहाँ अव वे ग्यारह साल मे सयानी होने लगी है और सम्भावना है कि इस सदी के अत मे वे सात साल मे सयानी होने लगेगी। असल मे लडकियाँ अव सात साल मे ही उतनी गम्भीर हो जाती है जितनी चौदह साल में पहले हुआ करती थी। शिक्षा, व्यवस्था, शिष्टाचार, सभ्यता आदि रोज भारी होती जा रही है। इस बोझ और गम्भीरता के अनुपात मे ही बच्चे सेक्स की शक्ति को बाहर फेकने के लिए मार्ग खोजने लगते है। इससे उलटा भी हो सकता है। अगर हम देर तक उन्हे हलका रख सके तो वीस-पच्चीस साल तक वे काम से वचाए जा सकते हैं। जितना गम्भीरता बढ़ेगी, उतना वोझ वढेगा, जितना वोझ वढेगा, उतना तनाव होगा और Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २११ जितना तनाव हागा उतना ही निकास की माग होगा। इसी कारण पल गुरुकुल) म युवका का जिनगी को बेल बनाया जाता था। न परीक्षाआ की गम्भीरता थी। न जिदगी स लडन की गम्भीरता थी। जिदगी एक सेर था गुरतुर म, इस ए पच्चीस साल तक युवा काम के बाहर रह जात थे उन दिना। अब ऐसा नहा होता । वाप जब भी वेट मे मिलता है तब गम्भीर होता है । वटा भी बाप से बचा रहता है। मरा माह है कि आप बच्चा + साय खेलें--एक घटा परें और देखें भापकी पाम शक्ति म वितना फक पडन लगा है । चिन बनाएँ घर पी दीवालरा को स्वय रंगे। यह जारी नहा कि यह चिन पिसी बड़े चित्रकार के चित्र-जैसे हा, जरूरी यह है कि वह भापस शिवर । घर के लोगा के साथ नाचें, सरें--पभी घर के गाव साथ नाचा है आपन अकाम की मार वढना चाहत हो तो जीवन को सजनात्मव बनाएँ--दो चार क्षण भा सजन म रगाएँ, बगीचे म माम करें, ता, गाएँ, गम्भीरता या कुछ देर के लिए अलग कर द। पल पल जीयें, भविष्य और कामना से मुक्त हा, सजनात्मक बनें। चरित्र बनान म हा न रगें, बत्वि' जीवन मे थाटी मी रीला भी आन दें और, अतिम बात, व मी, मौका मिरे तो होशपूर्व समस्त दद्रिया के द्वार बद पर मातर द, भीतर सुनें। भीतर सूईं। इन्द्रिमा से जो बाहर किया है वह भीतर क न की माशि करें। भीतर वे अपने नाद है अपन स्वाद हैं। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय अप्रमाद दुमपत्तए पडुयए, जहा निवड रागणाण अच्चए । एव मणुयाण जीवियं, समयं गोयम । मा पमायए ।' -~-उत्त० २० १०, गा० १ यद्यपि मनुष्य मात मजिलो का भवन है, फिर भी वह केवल एक मजिल को जानता है, उस एक मे ही जीता मीर मर जाता है । जिन मजिल में हम जीते हैं, उसका नाम चेतन मन है । उसके नीचे दूसरी मजिल है जो तलघरे में है, जमीन के नीचे है। उस मजिल का नाम अचेतन मन है। उससे नी थोडा और नीचे समष्टि अचेतन का तल है और उसके भी नीचे ब्रह्म अचेतन का तल । जिस मजिल पर हम रहते है उसके ठीक ऊपर अति-चेतन की ( 'सुपर-कॉन्सस' की) मजिल है और उनके ऊपर समष्टि चेतन ('फ्लेक्टिव कॉन्सस') की मजिल । समष्टि चेतन की मजिल के ठीक ऊपर ब्रह्म-चेतन ('कॉज्मिक कॉन्सस') का तल है । यद्यपि यह मकान सतमजिला है, फिर भी हममे से अधिकाश लोग चेतन मन मे ही जीते और मर जाते है। आत्मज्ञान का अर्थ है सात मजिल की इसी व्यवस्था से पूर्णतया परिचित हो जाना। इसमे कुछ भी अनजाना रहा तो मनुष्य अपना मालिक कमी नहीं हो सकता। चेतन मन की मजिल मे ही जीते रहने का नाम प्रमाद है। प्रमाद का अर्थ है मूर्छा, वेहोशी, निद्रा या सम्मोहित अवस्था। और साधना का लक्ष्य है इस प्रमाद को तोड़ना, इस मूर्छा से जागना। चूंकि हम एक ही मजिल मे जीते है और केवल उससे ही परिचित रहते हैं, हमारी अवस्था उन लोगो की-सी होती है जो सोए हुए होते हैं। यदि हम जागे हुए होते तो वाकी मजिलो से अपरिचित रह जाना असम्भव होता । हम सोए हुए है, इसलिए हम जहाँ है वही जी लेते है। हमे और मजिलो का पता नही चलता। ___फ्रॉयड ने जिस अचेतन मन की बात की है वह उसका अनुभव नहीं है, केवल अनुमान है। इसलिए पश्चिम का मनोविज्ञान अभी भी योग नहीं बन पाया। 'मनोविज्ञान उस दिन योग बनेगा, जिस दिन वह अनुभव मे रूपातरित होगा। १. जिस तरह रात बीतने पर वृक्ष के पीले पत्ते झड़ जाते है, उसी तरह मनुष्य-जीवन का भी एक-न-एक दिन अन्त आता ही है; ऐसा समझकर हे गौतम ! तू समय-मात्र का प्रमाद न कर। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २१३ पर और नीचे फली हुई मन की मजिला या हमे तब तक पता नहीं चलेगा जब तक हम अपनी मजिल म सोए हुए हैं। इसलिए पहरे हम अपन सोए हुए हान के तथ्य को टीम समझ लें जिरासे जागने की यात्रा गुरु की जा सके। क्या आपने पभी पयाल क्यिा कि आप मोए हुए आदमी हैं गायद नहीं, क्यापि सोए हुए आदमी पा इतना भी पता चर जाय कि म साया हुआ हैं तो जागने वी गुरआत हो जाती है। असर म इतनी बात का पता चलना वि में सोया हुआ हू, जागन की सबर है। साए हुए का अनुभव भी जागने का अनुभव है नीद वा नहा । हम पोय करते हैं, गालिया बरते हैं सांप को क्षमा मांगते हैं और कहते हैंमाप करें, मेरे मुह से एसी बातें गिर गई जिहें मैं नहीं चाहता था। क्या पूछा जा सकता है कि मैं नहीं चाहता था तो वाते से निकल गई? क्या मैं जागा हुआ था या सोया हुया ? जब जब मैंने प्रोध किया है तब-तब मुझ यह अनुभव हुआ है कि जा मुये नहीं करना चाहिए वही में परता रहा हूँ। इससे जाहिर है कि मैं सोया हुआ आदमी हैं। यदि सोया हुआ न होता तो मुगे इस वात पा पता रहता कि मैं वही कर रहा हूँ जो मुये नहीं करना चाहिए। हम पश्चात्ताप इसलिए करते हैं कि हमारे समस्त पाय वेहाती म होते हैं । जव हो वा क्षण आता है तब पछतावा होता है। हो म जीनेवाले आदमी की जिदगी म पश्चात्ताप नहीं होता क्यामि वह जो भी परता है वह पूरी तरह समझ-यूझवर करता है। पछताता वह है जो सोया __ अंगरजी या एक मुहावरा है-पॉलिंग इन लव' । मुहावरा इसलिए ठीय है कि हम प्रेम भी सोयी हुई हालत म परत है, प्रेम म मूछित हो जात हैं। इसलिए प्रेमीजन अक्सर पहत हैं कि मैंने प्रेम नहा किया, हो गया । हो गया या क्या मतलब है? चीज नीट म ही होती हैं, जागन म की जाती हैं। आपने प्रेम दिया है या हा गया है ? अगर हा गया है ता आप बहो। बादमी हैं। आप मशीन हैं यत्र है आप पर चीजें घट रही हैं। आप उन्हें पर नहीं रहे, यही आपका प्रमाद है। आप जा मी वर रह हैं साए हुए पर रह हैं। प्रेम पणा दास्ती दुश्मनी, प्राप, क्षमा प्राय पित्त-गव साए हुए हो रहा है। आप जिया जा रहा है । आपपी इस अवस्था या नाम प्रमाद है। मैं रात पी की बात नहा कर रहा है दिन पी नीर पी थान पर रहा हूँ, जब कि हम जाग हुए भी साए हुए हात है। पमी-कभी, मिगी गनरे ये क्षण म, पानी दर हम जाग उटते हैं, अपया नहीं। इसरिए हमारे मा म पनर मी मा इच्छा पदा हानी है पतर म भी पाहा रस जान एगता है ग्यारि मार म हम जागत हैं । जुए मा पारपण जागन ने रस स ही आता है। हम हार तर ये रतर शो हैं जिनम हम पमर का जाग पाते हैं। पिरनाद शुम हो जाती है। इस आरस्मिा पापा से माननी पूरा तर जाग हा सपता । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी साधारण जन की बात तो दूर रही, आज का कलाकार भी मोया हुआ आदमी हे | सच पूछिए तो जहाँ कहानी खत्म होनी चाहिए वहाँ खत्म न होकर वह कही ओर भटक जाती है, कही और पूरी होती है । कवि चाहता कुछ है, लिखता कुछ । इसका कारण यह है कि सचेतन कला अभी तक पैदा ही नही हुई, निर्वैयक्तिक कला का अभी तक जन्म ही नही हुआ। अभी तो मोए हुए आदमी कविता लिखते है । दे शुरू कुछ करते है और हो कुछ जाना है । सोए हुए आदमी चित्र बनाते हैं, कहानियाँ रचते है, दुनिया चलाते है । सोए हुए आदमी का क्या नरोना ? लेकिन कहानी की बात छोड़ दे । जिन्दगी मे आप जो बनना चाहते थे, वह बन पाए ? नायद ही कोई ऐसा मिले जो कहे — मैं बन गया जो मैं बनना चाहता था । २१४ हमे इस बात का साफ-साफ ज्ञान नही होता कि हम क्या बनना चाहते है । नीद मे यह कैसे साफ हो सकता है ? पता ही नही चलता कि हमे क्या बनना है । एक धीमी-सी, सोयी हुई आकाक्षा होती है कि में यह बनना चाहता हूँ, माफ नही । साथ ही यह भी पता चलता रहता है कि मैं वह भी नही बन पा रहा हूँ जो में बनना चाहता था । मरते वक्त सभी को लगता है कि जिन्दगी बेकार गई, जो होना चाहते थे वह नही हो पाये - - हांलाकि मरता हुआ आदमी भी साफ-साफ नही कह सकता कि क्या होना चाहते थे । हम जो तय करते है वह खो जाता है, जो नही तय करते वह हो जाता है । तय करके लोटते है कि आज पत्नी से झगडा नही करना है । पत्नी तय करके रखती है कि अव कलवाली साँझ फिर न आ जाय । फिर वे आमने-सामने आते है और कल की सांझ वापस लौट आती है । जो तय किया था वह खो जाता है । यह हमारी सोयी हुई अवस्था है । महावीर ने इसे प्रमाद कहा है--प्रमाद, अर्थात्, सोए हुए होना। यदि यह स्मरण आ जाय कि मैं सोया हुआ हूँ तो खोज शुरू हो सकती है । इसलिए अप्रमाद का पहला सूत्र है इस बात की समझ कि मैं सोया हुआ हूँ, नीद का बोध । नीद को तोडने का पहला सूत्र है नीद को ठीक से पहचान लेना, यह जान लेना कि आप चाहे दूकान जाते हो या मन्दिर, आप हमेशा सोए हुए जाते हैं, सोए हुए मित्रता करते है, सोए हुए उठते-बैठते है । ध्यान रहे, कुछ प्रमादी धर्म को भी नीद मे ही साधते हैं, नीद मे ही मालाएं फेरते हैं, नीद मे ही व्रत करते है । धर्म सोएमोए नही हो सकता। सोए-सोए, सिर्फ अधर्म हो सकता है । इसलिए धर्म के नाम पर मी सिर्फ अधर्म ही होता है । साधना गहराई है और सिद्धि एक ऊँचाई । साधना नीचे जाती है, सिद्धि ऊपर जाती है । जडे जितना ही नीचे उतरने लगती है, वृक्ष उतना ही आकाश को छूने लगते है | अगर वृक्ष को ऊपर जाना है तो जड को नीचे जाना ही पड़ता है । सीधे ऊपर जाने का कोई उपाय नही है । इसलिए साधक को पहले अपनी ही गहराइयो Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २१५ म उतरना पडता है ताकि वह सिद्धि के आयाश का छू सके । उस चतन स अचतन म, अचेता से ब्रह्म अचेतन म जाना पड़ता है। जब वह चतन से अचेतन म जाता है तव अचानक उपर का भी एक दरवाजा सर जाता है-अतिचतन या दरवाजा। जय वह समष्टि अचतन में प्रवेश करता है तो साथ ही समष्टिगत चतन या भा दरवाजा सुल जाता है । जब वह ब्रह्म-अचता म जाता है तब उसी समय ब्रह्मचतन का दरवाजा सुर जाता है । वह जितना नीचे उतरता है उतना ही ऊंचा उठना जाता है। इस लिए ऊँचाई थी फिर छाड दें, गहराइ पी फिर करें। __ अपनी ही गहराइया म हम से उतरें? ___ अगर कोई पूछे कि हम तरना यमे सौखें तो उम हम क्या कहेंगे ? उस हम पहेंगे कि तरना गुरु परा। पहली बार जब कोई पानी में उतरता है तब बिना तैरना सीसे ही उतरता है। असल में बिना सीख लेरने के लिए उतर जाने से ही सीसन की शुरूआत होती है। हाँ, इतनी ही सावधानी बरतें वि गहरे पानी म न उतरें। ___ता आपस में परम जागरण की आक्षा नहा रसता हूँ। थाडे में पानी म उतरना T परें । अपनी छाटी छाटी वियाओ का जानना शुरू करें। छोटी छोटी नियामा य प्रति जागना शुरू करें। वपडा पह्न रह हा तो जागे हुए पहन, जूत टार रहे हा तो जागे हुए डालें, कुछ मुन रह हा तो जागे हुए मुनें। इसके बाद उन नियामा के प्रति जागें जिनके लिए पछताना पडता है । गोध घणा, अभद्रता आदि ये प्रति जागे। नगर थाप गुवह से उठकर सांप तक जागने का प्रयोग करेंगे तो पोडे ही दिना म माप एक्दम दूसरे आदमी हो जायगे । आपका प्रमाद टूट जायगा। इमपा प्रमाण पया हागा वि आपपा प्रमाद टूट गया? इसका प्रमाण यह होगा कि नाट म भी आपका जागरण शुरू हो जायगा। जिस दिन जागरण म आपको र टूटगी नगी दिन आप नीद म भी सचान प्रवेश पर सवंगे। गप रोज सोन हैं। यदि जापपी उम माठ साल की है तो आपने वीस वप सपिर विताए । सपिन आपका पता है कि नीद पर आती है कस आती है ? यया है नाद? अपन जावन की पत्ती वडी पटना सभी आपका परिचय नहीं हुआ रहता। अभी आप तो यह जानते हैं कि आप पर साए, या जरा आप पर यस गिग आप नाद म पसब आर न यह नि मुबह नीद यस टूटी, म से विदा होगा? जिग दिन आप जाग या पडिया म जाग जायंगे और जागन की पिया जागवर परन गेंग उस दित आपा नीद म भी सचेतन प्रया होगा। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ महावीर : परिचय और वाणी रचे । घर जाएं तो तय करके जाएँ कि टूट पडना है किसी के अपर । पूरी तरह क्रोध करें तो आप देख पाएंगे क्रोध को | इधर त्रोध चलेगा, उधर आप देखते रहेंगे कि क्रोध चल रहा है। अगर एक बार भी हम क्रोध का अभिनय कर सके तो फिर कभी क्रोध विना अभिनय के नही होगा । अभिनय ही हो जायगा। तो जो चीजे गहरी है उनको अभिनय से शुरू करे । जो चीजे गहरी है यदि उनपर होगपूर्वक अभिनय करें तो आप जाग सकेगे और अगर जागने के क्षणो मे जागना आ जायगा तो फिर नीद के क्षणो मे जागना शुरु हो जायगा । जिम दिन आप नीद मे जाग जाएंगे, उस दिन __ आप अचेतन मे प्रवेश करेगे। कृष्ण ने गीता मे यही बात कही है। रात मे जब योगी सोते है तब भी वे जागते रहते हैं। अगर आप नीद मे जागे हुए मो सके तो एक __ अद्भुत, चमत्कारपूर्ण घटना घटेगी-दूसरे दिन सुबह आप जैनी ताजगी का अनुभव __ करेगे वैसी ताजगी का आपको कभी पता भी न रहा होगा । उस ताजगी का शरीर से कोई सम्बन्ध न होगा। बहुत गहरे मे वह आपकी आत्मा की ताजगी होगी। आपके स्वप्न तिरोहित हो जायेंगे, क्योकि आप स्वप्नो के प्रति जाग जायेंगे । ऐसा नहीं कि आपको बाद में पता चलेगा कि स्वप्न आए थे। जव स्वप्न आने लगेंगे तभी आपको इसकी जानकारी हो जायगी। चेतन मन की क्रियाओ के प्रति जागने से अचेतन मन मे प्रवेश होता है, अचेतन मन की क्रियाओं के प्रति जागने से समप्टि अचेतन मे प्रवेश । स्वप्न अचेतन मन की ही क्रिया है। स्वप्न के प्रति जागते ही आप पाएंगे कि एक दरवाजा और खुल गया जो समष्टि अचेतन का दरवाजा है। इस समष्टिगत अचेतन की अपनी क्रियाएँ हैं जिनको धर्मो ने बडा महत्त्व दिया है। इस सामूहिक अचेतन से ही दुनिया के सभी निथक पैदा हुए है। सृष्टि का जन्म, प्रलय की सम्भावना, परमात्मा का रूपरग, आकार, नाद आदि का सम्बन्ध इसी अचेतन से है। नृत्य भी सामूहिक अचेतन से पैदा होता है, इसलिए नृत्य को समझने के लिए दूसरे की भापा का ज्ञान अनिवार्य नही। जो मासीसी भापा नही जानता वह भी पिकासो की पेटिग का आनन्द ले सकता है। चूंकि बहुत गहरे मे हम सब एक हैं इसलिए दुनिया के सारे धर्मों के प्रतीक कई बातो मे समान है। दुनिया की भिन्न-भिन्न भाषाओ मे जो समानता है वह समप्टिगत अचेतन की समानता है। सागर की लहरो की तरह हम अलग-अलग है, लेकिन बहुत गहरे मे हम परस्पर अभिन्न है। समष्टिगत या सामूहिक अचेतन की क्रियाओ के प्रति जागने से ब्रह्म-अचेतन मे प्रवेश होता है । ब्रह्म-अचेतन मे उतरने का अर्थ प्रकृति मे उतरना है। प्रकृति अर्थात वह जो कृति के भी पहले था, अर्थात् प्री-क्रीएशन । जो सृष्टि के पहले था, जिससे सब पैदा हुआ, जो पैदा होने के पहले भी था वह है प्रकृति । जिसे ब्रह्म-अचेतन कहा __ जाता है वह है प्रकृति । उससे ही सव आया । चेतन और अचेतन मन तो मेरा है, Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २१७ किन समप्टि-अचेतन हमारा है, मेरा नही । ब्रह्म चेतन हमारा भी नही, सबका है । उसमे पत्थर, पहाड पशु-पक्षी, नदी-नाले सव सम्मित्ति है। वह प्रकृति है। वहाँ जो उतर जाय उसके लिए जागे उतरन को नहीं रहता। वह अनत है, अथाह है गूय साई है। उसमे उतरने की प्ररिया अप्रमाद है । जहा आप हैं वहा में जागना गुरू परें। जिम दिन आप वहां जाग जाएगे उस दिन आपको नीचे वे दरवाजे की कुजी मिल जायगी। फिर वहां जागना शुरू कर और नीचे की वुजी मिल जायगी। जब तक आप चेतन मे हैं, तब तक आप अति चेतन में नही जासक्त ऊपर नहा बढ सक्ते । माप वी जडाको अचेतन म उतरना ही पड़ेगा । जिस दिन जापकी जड अचेतन मे उतर जायेंगी उस दिन आपकी शाखाएँ अति चेतन मे फैल जायेगी। आप जितना नीचे उतरेंगे अंधेरा उतना ही बढता चला जायगा। ब्रह्म अचतन म, प्रकृति म पूण अधकार है, अधकार ही अधकार है। इसके विपरीत आप जितना ही ऊपर बढ़ेंगे प्रकाश उतना ही बढता जायगा । वह जो ब्रह्म चेतन है ब्रह्म है, वह पूण प्रकाश है प्रकाश ही प्रकार है । रेक्नि ऊपर जाने का रास्ता नीचे होर जाता है। जो नीचे साई है उसके द्वारा ही चोटी तर पहुँचा जाता है। साधना की यही सबसे बडी कठिनाई है। यही समपना सबसे ज्यादा पाटिन हो जाता है कि ऊपर जाने के लिए नीचे जाने की आवश्कता होती है। ___ जत frस धम के अनुभव म जाना है उसे पहले नीचे उतरना पड़ेगा। जिसे मत होना हो उसे बहुत गहरे अर्यो म पापी होना पड़ता है । जा व्यक्ति गहरे अर्थों म पापी होने से बच गया. वह गहरे अर्थो म सत नही हो सकता। नीत्से ने ठीव ही कहा है कि मिस वक्ष को भावाश छूना है उसे अपनी जड़ें पाताल तक पहुँचाने की हिम्मत जुटानी पड़ती है। इसलिए ऊपर की फिर छो- दें, नीचे की फिर परें और एक एक कदम पर प्रमाद को तोडते चल जायें। वहां से शुरू करेंगे ? शुरू सदा वही से करना पड़ता है जहाँ आप हैं। जागने मे जागना शुरु करना पड़ेगा। महावीर अपने भिक्षुझा स निरन्तर रहते ये-विवक से उठो, विवेक से चलगे विवेक से बठा। विवेक का अथ है होश , 'अवयरनेस'। महावीर कहते है-जानत हुए चलो, होश म चाहो पूर्वक जो भी दिया जाता है वह सदा ठीक होता है। होशपूर्वक पुण्य ही किया जा मकता है. पाप नही। जो विश्व में जीता है वह गल्ती नहीं करता, गल्ती नही करने की पसम भी नहीं खाता । व्रत सिफ अधे लेते है। आँखवाल रोग व्रत नहीं रेत । व जिस ढग से जोते हैं, वही व्रत है। महावीर नब कहते हैं कि विवेक से चलो, तो इसका मतलब है वि चलने की किया हाशपूवव हो अप्रमादी हो। पर उठे ता जानो कि उठा । जमीन पर गिरे तो जानो वि गिरा। कोई भी किया. य। इसलिए महावीर से Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __२१८ महावीर : परिचय और वाणी जब किसी ने पूछा कि आप साघु किसे कहते है, तो उन्होने यह नहीं कहा कि जो मुंह पर पट्टी बाँचता है उसे मैं साधु कहता हूँ। मगर महावीर ऐमा कहते तो दो कीडी के आदमी हो जाते | उन्होने यह भी नहीं कहा कि जो नगा रहता है उने मैं साधु कहता हूँ। अगर वे ऐसा कहते तो बडे नासमझ सिद्ध होते । उन्होने कहा कि मैं 'सुरुता मुनि को साधु कहता हूँ। जो सोया हमा नहीं है, उमे मै मनि कहता हूँ। जो सोया हुआ है, उसे मै असावु कहता हूँ-'सुत्ता अमनि' । अगर आप जागकर जी रहे हैं तो आपकी जिन्दगी मे साधुता उतर नायगी। अगर आप नोकर जी रहे है तो आपकी जिन्दगी मे असावुता के सिवा और कुछ भी नहीं हो सकता। आप सोये-सोये भी साधु बन सकते है, लेकिन तब वह साधुता बनी हुई कृत्रिमहोगी और बने हुए माधु असाधुओ से भी बदतर होते है, क्योकि उन्हें यह भ्रम पैदा हो जाता है कि वे साधु है । जव असाधु को साधु होने का भ्रम पैदा हो जाय तब जनमजनम लग जायेंगे इस भ्रम से छूटने मे। ___ अप्रमाद साधना का सूत्र है । अप्रमाद सावना है । प्रत्येक क्रिया म्मरण-पूर्वक हो । एक भी क्रिया ऐसी न हो जो कि बेहोगी मे हो रही हो । वम आपकी धर्म-यात्रा शुरू हो जायगी । जाये पाताल मे ताकि पहुँच सकें मोक्ष मे । उतरे गहरे ताकि छु सके उँचाई को । जागने की कोशिश करे और जागने की कोशिश जब गहरी हो जाय तव रुक न जायँ, अन्यथा दूसरे चरण पर नीद पकड लेगी। स्मरण रखे कि याना लम्बी है परन्तु असम्भव नही, कठिन है। नीचे-नीचे उतरते जाएँ, ऊपर की फिक्र छोड दे। सात मजिलो का यह मकान जिस दिन पूरा जान लिया जाता है, उस दिन फिर इसमे सात मजिले नही रह जाती। बीच के सब परदे गिर जाते है । दीवाल हट जाती है और एक भवन रह जाता है । उस एक का अनुभव ही परमात्मा का अनुभव है | उस एक का अनुभव ही मोक्ष का अनुभव है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय खड Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ महावीर : परिचय और वाणी जापान के एक पर्वत-शिखर पर पच्चीस हजार वर्ष पुरानी मूर्तियों का एक समूह है । ये मूर्तियाँ 'दोवु' कहलाती है । अब तक उन मूर्तियों को समझना सम्भव नही हुआ था, किन्तु जिस दिन हमारे यात्री अंतरिक्ष में गए, उनी दिन 'दो' मूर्तियों का रहस्य खुल गया । अतरिक्ष मे यात्रियों ने जिन वस्तुओं का उपयोग किया, वे ही इन मूर्तियों के ऊपर है । पत्थर में खुदे है । अव मानना ही पडता है कि पच्चीस हजार साल पहले आदमी ने अतरिक्ष की यात्रा की थी और अतरिक्ष या किन्ही ओर ग्रहो से आदमी जमीन पर श्राता रहा है। आदमी जो जानता है वह पहली वार जान रहा है, ऐसी भूल मे पडने का कारण नही है। आदमी बहुत बार जान लेता है और भूल जाता है । बहुत बार गिवर छू लिये गए है और खो गए है । महावीर एक बहुत बडी संस्कृति के अन्तिम व्यक्ति है । उन संस्कृति का विस्तार कम से कम दस लाख वर्प है । महावीर जैन-विचार और परम्परा के अन्तिम तीर्थकर हैं— चौवीसवे । आज इन नूत्रो को समझना इसलिए कठिन है कि वह पूरा का पूरा वातावरण जिसमे ये सूत्र सार्थक थे, आज कही भी नही है । हो सकता है कि तीसरे महायुद्ध के वाद जब सारी सभ्यता विखर जायगी, लोगो के पास हवाई जहाज मे उडने की याददाश्त भर रह जायगी । हवाई जहाज तो विखर जायंगे, याददाश्त रह जायगी । यह याददास्त हजारो साल तक चलेगी और बच्चे हँसेंगे, कहेंगे कि कहाँ है हवाई जहाज ? ऐसा मालूम होता है कि ये कहानियां है, पौराणिक कथाएँ हैं, मिथ है । (३) चौवीस जैन तीर्थकरो की ऊँचाई, शरीर की ऊँचाई आज बहुत काल्पनिक मालूम पडती है । केवल महावीर की ऊंचाई सामान्य आदमी की ऊँचाई है । शेष तेईसो तीर्थंकर वहुत ऊँचे थे । इतनी ऊंचाई हो नही सकती । अव तक लोग ऐसा ही सोचते थे । अव वैज्ञानिक कहते हैं कि जैसे-जैसे जमीन सिकुड़ती गई है वैसे-वैसे जमीन का गुरुत्वाकर्षण भारी होता गया है और जिस मात्रा मे गुरुत्वाकर्षण मारी होता है, उसी मात्रा मे लोगो की ऊंचाई कम होती जाती है । छिपकली आज से दस लाख पहले हाथी से वडा जानवर थी । वह अकेली बची, उसकी जाति के अन्य सारे जानवर खो गए । अगर जमीन का गुरुत्वाकर्षण और सघन होता गया तो आदमी और छोटा होता चला जायगा । अगर आदमी चाँद पर रहने लगे तो उसकी ऊँचाई चौगुनीहो जायगी, क्योकि चाँद पर चौगुना कम है गुरुत्वाकर्षण | नमोकार को जैन-परम्परा ने महामत्र कहा है । पृथ्वी पर दस-पांच हो ऐसे मंत्र हैं जो नमोकार की हैसियत के है । असल मे प्रत्येक धर्म के पास महामत्र अनिवार्य है, क्योकि इसके इर्दगिर्द ही सारी व्यवस्था, सारा भवन निर्मित होता है । ये महामंत्र करते क्या है ? इनका प्रयोजन क्या है ? आज ध्वनि-विज्ञान बहुत से नए तथ्यो के करीब पहुँच रहा है। उसमे एक तथ्य Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २२३ यह है कि इस गत म पदा की गई काई भी ध्वनि कभी भी नष्ट नहीं होती। वह अन त माया म सगहीत होती चली जाती है, आकाश म मी मूश्म तर पर गूज वन जात है। (४) अगर सदभाव भार मगल्यामना मे भरा हुआ कोई आदमी जल की एक मटकी को कुछ देर हाथ म लिये रहे तो उस मटकी का जल गुणा मरम्पस परि वर्तित हो जाता है। स्मी वानिय कामेनियाव जोर अमरीकी नानिव डॉ० रुडाल्फ किर ने अनेक प्रयोगा से यह सिद्ध किया है कि एसे जल म रासायनिक परिवतन नहा होता रेविन गुणात्मय परिवतन अवश्य हो जाता है । अगर उस जल को वीजा पर छिडका जाय ता व जल्द अकुरित होत ह । उनम बडे फर रगत है उनके पोये ज्यादा स्वस्थ हात है। अगर रुग्ण, विक्षिप्त और 'नेगेटिव इमोगन से भरे हुए व्यक्ति के हाथ मे रसा गया जल बोजा पर छिटवा जाय ता वीज अकुरित ही नहीं होते, या अबुरित होते है तो रग्ण अकुरित होते हैं। यदि मगल-अमगल भावनाआ के कारण जल म यह रूपान्तरण हो मक्ता है तो हमारे चारा ओर फर हुए आयाम भी हो सकता है। किमी मत्र की प्राथमिक आधारशिला यही है । मगल भावनामा से भरा हुआ मम हमार चारा ओर आकाश म गुणात्मक असर पैदा करता रहता है। मोर उस मन से भरा हुआ यक्ति भी जब आपके पास मे गुजरता है तव आपम तत्काल परिवतन हा जाता है। (५) एक दूसरे स्मी धनानिक किररियान ने हाइ फ्रिक्वेंसी वी फाटोग्राफी विकसित की है। अगर एसी फोटोग्राफा स मेरे हाय का चित्र लिया जाय तो उससे मरे हाथ का ही चित्र नही आता इससे जो किरणें निपल रही हैं उनका भी चित्र आता है। आश्चय की बात तो यह है कि अगर मैं निषेधात्मक विचारा से भरा हूँ ता मेरे हाथ के भासपास जो विद्युत् ऐटम्स है उनका चिन अस्वस्थ, रुग्ण और अरा जय होता है, माना किसी पागल बादमी द्वारा सीची गई लवीरें हा। शुम भावनामा से भरे हुए व्यक्ति के हाथ में मासपास जो किरणें ह उनका चित्र लयवद्ध, सुदर और सानुपातिक होता है । विररियान का कहना है कि बहुत जल्द ही वह समय मानवाला है जब किसी के बीमार हान के पहले ही हम यह बताने में समय हो जायेंगे पि वह वीमार होनेवाला है। शरीर पर बीमारी के उतरन के पहले विद्युत के वतुल पर बीमारी उतर जाती है। इसके पहरे कि आदमी मरे, उसके विद्युत के वतुर का सिकुडना आरम्भ हो जाता है। इसके पहले पि कोइ आदमी हत्या करे, उस. विद्युत के वतर म ही हत्या के लक्षण दौरा पड़न रगत हैं। प्रत्यय मनुष्य अपने आसपास पय आमामडर रेपर चलता है। आप अवेल ही नहा चलत, जापर आसपास एव विद्युत वतुल, एक इलेक्ट्रोडाइनामिक फील्ड भी चलता है। यह आमामडल पशुआ और पड-पौधो के भी आसपास होता है। इसी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी लेकिन अरिहत शब्द नकारात्मक है । इससे उस व्यक्ति का बोध होता है जिनके सभी शत्रु समाप्त हो गए । असल मे इस जगत् मे जो भी श्रेष्ठतम अवस्था है, उसे निपेध से ही प्रकट किया जा सकता है । इसका कारण है । सभी विधायक शब्दों मे सीमा जा जाती हैं, निषेव मे सीमा नही होती । 'नहीं' की कोई सीमा नही, 'है' की तो सीमा है । 'नही' बहुत विराट् है । इसलिए अरिहत को परम शिखर पर रखा है। २२६ (१०) चूंकि अरिहत बहुत वायवीय और सूक्ष्म शब्द है, इसलिए ठीक दूसरे शब्द मे विधायक का उपयोग किया गया है - 'नमो सिद्धाणम्' । सिद्ध का अर्थ होता है वह जिसने पा लिया । अरिहत का अर्थ होता है वह जिसने कुछ छोड़ दिया । जिसने वो दिया उसे सिद्ध के ऊपर रखा गया है। क्यो ? सिद्ध अरिहंत से छोटा नहीं होता : सिद्ध वही पहुँचता है जहाँ अरिहत पहुँचता है । फिर भी, मापा में विधायक का स्थान दूसरा ही होगा । सिद्ध के सम्बन्ध मे भी सिर्फ इतनी हो सूचना है कि पहुँच गए । कुछ और कहा नही गया, कोई विशेषण भी नही जोडा । तीमरे सूत्र मे कहा है- आचार्यों को नमस्कार । (११) आचार्य उस व्यक्ति को कहते हैं जिसने केवल पाया ही नहीं, वरन् आचरण से भी प्रकट किया । आचार्य वह व्यक्ति है जिसका आचरण और ज्ञान एक है । ऐसा नही कि सिद्ध का आचरण ज्ञान से भिन्न होता है, लेकिन शून्य हो सकता है । ऐसा भी नही कि अरिहत का आचरण भिन्न होता है । लेकिन अरिहंत इतना निराकार हो जाता है कि हो सकता है, उसका आचरण हमारी पकड़ में न आए । आचार्य से शायद निकटता मालूम पडती है, ज्ञान और आचरण के अर्थो मे । आचार्य हमारी पकड मे आता है, लेकिन जहाँ से हमारी पकड शुरू होती है, वही से खतरा शुरू होता है । खतरा यह है कि कोई आदमी आचरण ऐसा कर सकता है कि वह आचार्य मालूम पडने लगे। जहां से सीमाएँ वननी शुरू होती है वही से हमे दिखाई पड़ता है और जहाँ से हमे दिखाई पडता है वही से हमारे अधे होने का डर है । पर मंत्र का प्रयोजन यही है कि हम उनको नमस्कार करे जिनका ज्ञान और आचरण अभिन्न है । (१२) आचरण वडी सूक्ष्म वात है और हम स्थूल बुद्धि के लोग हैं । आचरण को पकड़ पाना आसान नही । उदाहरणार्थ - महावीर का नग्न खड़ा हो जाना निश्चित ही लोगो को अच्छा नही लगा । गाँव-गाँव से उन्हें खदेडकर भगाया गया । गाँव-गाँव मे महावीर पर पत्थर फेके गए। महावीर की नग्नता लोगो को भारी पडी, उन्होने कहा कि यह आचरण-हीनता है । इसलिए मैं कहता हूँ कि आचरण को ठीक-ठीक पकड पाना मुश्किल है। महावीर का नग्न हो जाना निर्दोष आचरण है। जिसका कोई हिसाव लगाना कठिन है । उनकी हिम्मत अद्भुत है । वे इतने सरल Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २२७ हा गए हैं कि छिपान का कुछ नहीं बचा है। ऐसा नहीं कि उहाने कपडे छोडे हैं। उनके कपडे गिर गए है। एक दिन राह से गुजरत समय एक झादी म उनकी चादर उलय गई । इसलिए वि यादी के फूल गिर न जाये, पत्ते टूट न जाय काटा या चाट न लग जाय, उन्हान आधी चादर फाडकर वहा छोड दी। आधी रह गइ शरीर पर, फिर भी वह गिर गा। वह क्व गिर गई, इसका महावीर पो पता न चला । योगा को पता चला कि महानार नग्न खडे है। आचरण सहाा मुश्किल हो गया। लाचरण के रास्ते मम है, कि तु आचरण के मम्बध म हमार बंधे बंधाए बयार हैं। चौथे चरण म उपाध्याया वा नमस्कार कहा गया है। उपाध्याय-अर्यात भाचरण ही नहीं, उपदेश भी। उपा याय जानता है, जानकर वैसा ही जीता है और जसा वह जीता है और जानता है, वैसा ही बताता भी है। (१३) य चार स्पष्ट रेखाएं हैं । लेकिन इन चार के बाहर भी कुछ जानन वाले छुट सकते है क्याकि जाननवाला का वर्गीकरण नहा हा सक्ता । इसलिए पाचवें चरण म एक्सामा य नमसार है-नमा ललए स वसाहूण' । राक मजा भी माधु हे उन सबको नमस्कार। कुछ ऐस भी लाग हा मनन हैं जो बहुत सरर हा मोर उपदा देन म सकाच बरें। हा सकता है कि वे आचरण को भी छिपाएँ । पर उनका भी हमार नमस्कार पहुंचने चाहिए । ऐसी बात नहीं कि हमारे नमस्कार स उनका कुछ फायदा होगा । बात यह है कि हमारा नमस्कार हम स्पातरित करता है। न अरिहता को फायदा होगा न मिद्धा आचायाँ, उपाध्याया यार साधुजा को ही। पर आपको फायदा जस्र हागा। रेगिन हम अदभुत लाग हैं । अगर अरिहत भी सामन सडा हा जाय ता हम पहर इस बात का पता लगाएंगे कि वह अरिहत है भी या नहीं ? महावीर के बारे ममी लाग यही पता रगात लगाते जीवन नष्ट करते रहे। वे जाच परन आते वि महावीर जरिहत ह या नहीं तीयवर हैं या पहा । आप ाच भी कर लेंगे और यह मिद्ध भी हो जायगा कि महावीर भगवान नहीं हैं, ता आपदा क्या मिलगा असरी मवाल यह नहीं है कि महावीर भगवान है या नही । अमली मवाल यह है कि आपको पहा भगवान दीप सरते हैं या नहा-यहा भी? पथरा म, परत म ? असली गज तो नमन म है पुक जान म है। वह जा झुक जाता है उसके भीतर सब-कुछ बदर जाना है। मनवीर सिद्ध है या नहीं, यह वे खुद माने और पम । मापदे रिए चिन्तित होने वा का भी ता कारण नहा है। (१८) घ्यान म रस ले नि मन आप लिए है। मन्दिर म मूर्ति के चरणाम जब जाप सिर रखते हैं तव मवार यह नहीं हाता दिवे चरण परमात्मा के हैं या नहा । सवार इतना ही होता है दि चरण के ममा झुमाया। सिर परमात्मा के Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महावीर : परिचय और वाणी समक्ष झुक रहा है या नही । चरण तो निमित्त मात्र है । लेकिन झुकने मे पीडा होती है । अगर महावीर आएँ और आपके चरणो पर सिर रखे तो आपका चित्त Last प्रसन्न होगा | फिर आप महावीर को पत्थर न मारेगे | मारेगे ? लेकिन याद रहे, अगर महावीर आपके चरणो मे सिर रख दे तो आपको इससे कोई लाभ न होगा | आपकी अकड और गहन हो जायगी । महावीर ने अपने साधुओ से कहा है कि वे गृहस्थो को नमस्कार न करे । वड़ी अजीब-सी बात है । साधु को तो विनम्र होना चाहिए । लेकिन महावीर अपनी अगाध करुणा के कारण ही ऐसा कहते है ताकि गृहस्थ और गैर साधु मे नमस्कार पैदा हो – साधु उनको नमस्कार न करे । यदि साधु गृहस्थो को नमस्कार करेगा तो इससे गृहस्थो की अस्मिता और अहकार को प्रोत्साहन मिलेगा । नमोकार नमन का सूत्र है । नमन है ग्राहकता । जैसे ही आप नमन करते हैं। वैसे ही आपका हृदय खुलता है और आप भीतर किसी को प्रवेश देने के लिए तैयार हो जाते है | जिसके चरणो मे आपने सिर रखा, उसे आप भीतर आने मे बाधा न डालेगे, उसे निमत्रण देगे । लेकिन अगर भरोसा नही है तो नमन असम्भव है और नमन असम्भव है तो समझ असम्भव है | (१५-१६) मॉस्को यूनिवर्सिटी मे १९६६ तक एक अद्भुत व्यक्ति था, डॉ० वासिलिएव । उसने एक अनूठा प्रयोग किया है जिसका नाम है कृत्रिम पुनर्जन्म - आर्टिफिशियल री-इनफार्मेशन | ई० जी० नामक यत्र से पहले वह इस बात का पता 4 • लगाता था कि व्यक्ति कितनी गहरी निद्रा मे है । जव व्यक्ति अचेतन मन की अतल गहराइयो मे उतर आता तब वह उसे सुझाव देना शुरू करता । जिस व्यक्ति पर वह प्रयोग करता उसे -- यदि वह व्यक्ति चित्रकार होता तो बताता कि तुम पिछले जन्म मे माइकेल एन्जेलो या वानगाँग थे यदि वह व्यक्ति कवि होता तो उसे समझाता कि तुम पिछले जन्म मे शेक्सपियर थे । तीस दिन मे उस व्यक्ति का चित्त उस सुझाव को सचमुच ग्रहण कर लेता । उस साधारण से चित्रकार मे यह भरोसा हो जाता कि मै माइकेल एन्जेलो हूँ । और जब उसके भीतर भरोसा हो जाता तव तत्काल वह विशेष चित्रकार वन जाता । वासिलिएव कहता है कि अगर हमे भरोसा दिला दिया जाय कि हम बडे है तो हमारे चित्त की खिडकी वडी हो जाती है । इसलिए आनेवाले भविष्य मे हम जीनियस निर्मित कर सकेगे । सच तो यह है कि बासिलिएवोके अनुसार नव्वे प्रतिशत बच्चे प्रतिभा की क्षमता लेकर ही पैदा होते है, पर दुर्भाग्यका हम उनकी खिडकी छोटी करते जाते है। माँ-बाप, स्कूल, शिक्षक - सब मिलकर उन्हे साधारण आदमी बना डालते है | कुछ जो हमारी तरकीवो से बच जाते हैं, वे जीनियस वन जाते है, वाकी नष्ट हो जाते है । पर उसका कहना है कि असली सूत्र है ग्राहकता । इतना ग्राहक हो जाना चाहिए चित्त कि उसे जो कहा जाय वह उसके भीतर प्रवेश कर जाय । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २२९ आप यह जानकर हैरान हागे कि गहन सम्मोहन, निद्रा, ध्यान और श्रद्धा मे ई० जी० नामक मशीन एक मा ग्राफ बनाती है। श्रद्धा से भरा हुआ चित उसी नाति मी अवस्था में होता है जिस गान्ति की अवम्या म वह गहन ध्यान में होता है। आपको टेलिपथिय जगत म प्रवेश कराने म मन अयोगी सिद्ध होता है। अगर आप हृदय से अपने को छोड पाएँ और उस गदराई स कह पाएँ जहा सब आपकी अचेतना म डूब जाता है-- नमा मरिहताण । नमा सिद्धाण । नमो आयरियाण। नमा उवयायाण। नमा लाए स वसाहूण' । तब आप अपा अनुभव से कह पाएंगे-एसो पच नमुक्तारो, स पावप्पणासणो।' Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय धम्मो लोगुत्तमो केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमो।' -पचप्रति० सयारा० सू० (१) महावीर ने कहा है कि जिसे पाना हो उसे देखना गरू करना चाहिए, क्योकि हम उसे ही पा सकते है जिसे हम देखने में समर्थ हो जायें। जिसे हमने देखा नही, उसे पाने का भी कोई उपाय नही । जिसे खोजना हो, उसकी भावना करनी प्रारम्भ कर लेनी चाहिए, क्योकि इस जगत् मे हमे वही मिलता है, जिसके लिए हम अपने हृदय मे जगह बना लेते हैं। यदि स्वय मे अरिहत को निर्मित करना हो, कभी सिद्ध को पाना हो, किसी क्षण स्वय भी केवली वन जाना हो तो उसे देखने, उसकी भावना करने, उसकी आकाक्षा और अभीत्सा की ओर चरण उठाना जरूरी है। (२) जो मगल है, उसकी कामना स्वाभाविक है । हम वही चाहते है जो मगल है। अरिहत मगल है, सिद्ध मगल है, साहू मगल है । कवलिपन्नत्तो धम्मो मगलम् । जिन्होने स्वय को जाना और पाया, उनके द्वारा निरूपित धर्म मगल है। अरिहता मगल। सिद्धा मगल । साहू मगल । केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल । इनमे सिर्फ मगल का भाव है। जो भी मगल है, उसका भाव गहन हो जाय तो उसकी आकाक्षा शुरू हो जाती है- आकाक्षा को पैदा नहीं करना पडता । मगल की धारणा को पैदा करना पड़ता है। आकाक्षा मगल की धारणा के पीछे छाया की भॉति चली आती है। धारणा पतजलि योग के आठ अगो मे कीमती अग है जहाँ से अन्तर्यात्रा शुरू होती है । धारणा, ध्यान, समाधि । छठा सूत्र है धारणा, सातवाँ ध्यान और आठवॉ समाधि । मगल की यह धारणा पतजलि योग का छठा सूत्र हे और महावीर के योगसूत्र का पहला । महावीर का मानना यह है कि धारणा से सब शुरू हो जाता है। धारणा जैसे ही हमारे भीतर गहन होती है, वैसे ही हमारी चेतना रूपान्तरित होती है । न केवल हमारी, वरन् उसकी भी जो हमारे पडोस मे १. केवलोप्ररूपित अर्थात् आत्मज्ञ-कथित धर्म लोकोत्तम है। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २३१ है। यह जानकर आपका आश्चय होगा कि जाप अपनी ही धारणाओ से प्रभावित नही हाने आपरे निक्ट धारणाआ के जा प्रवाह हैं उनस भी होत है। इसलिए महा वीर ने कहा है कि अज्ञानी स दूर रहना मगल है नानी क निक्ट रहना मगल है। चेतना जिपयी स्वस्थ है उसके सानिध्य म रहना मगल है । जिस वातावरण मेधारणाएं पुभ हो उराम रह्ना हितकर है। (३) रस के एक विचार का नाम है डॉ. सिलोव । उनक यात्रिय आविष्कारा स पता चलता है कि पटोसी की धारणाएँ भी हम प्रभावित किए बिना नहीं रहता। उनका कहना है कि जो धारणा एक के मन म पना हुई, उसके वतुर आसपास फैल जाते हैं और दूसरा को पकड रेते है । आपको शायद पता नहीं कि आपको जो क्रोध हुआ है वह आपया नही है । शायद वह आपके पडोसी या है। (४) जिस राष्ट्र के हाथ में धारणा का प्रभावित करन वे मौलिक सूत्र आ जाएंगे, उस राष्ट्र का अणु धी गति से हराया नहीं जा सकता । सच तो यह है कि जिनके हाथ मे अणु बम हा, उनका भी धारणा मे ऐमा प्रभावित पिया जा सकता है कि वे उन्हें अपन ऊपर ही फेर लें। यदि कोई हवाई जहाज वम फेरने आ रहा हो तो उसने चालक या प्रमाविन किया जा सकता है कि वह वापस लौट जाय और अपनी ही रागवानी पर बम गिरा दे। इसरिए नामार नामक विचारस का कहना है कि पारणा की गक्ति ही अब युद्ध म आखिरी अस्त्र सिद्ध हाने जा रही है। वनानिक धारणा को गति पर काम करने म जुटे हैं। स्टालिन जैस लागावी उसुरना तो इस शक्ति ये विनावारी पत्र यो भार थी, पर महावीर जमे लाग इसके निर्माण और सुजनवारे पाम ही दिल यम्मी रसते थे। इसलिए उनकी मगल की धारणा है। महावीर ने कहा है-भूलकर भी, कमी स्वप्न म भी काई बुरी धारणा मत करना क्यापि उमा परिणाम पुरा ही होता है। माप राह मे गुजर रह हैं । आपरे मा म सयाल भर आता है कि इस आदमी पी हत्या पर दू। आपन बुक रिया नहा, वम गयाल पिया या मन म साचा कि इम दुपान र अमुक ची चुरा एं। आपन न हया पी आर न चोरा रेविन क्या आप निश्चित हो सकते हैं कि राह म मिमी हपारे या चार न आपरा धारणा न पपरी हागी (५) माँ अपन बच्च पे जाापी यामना करती है कहती है पि वह घडा हो, पिए। तेरित किया क्षण पोप में यह यह भी कर दना है कि यह जनमन ही मर जाता तो ठीक था । वचारी मो या पना TT शिपार दफा उसने या पामना मी है भार एप दपा मग या भी। उगी सभी गुम यामनाएँ इम अतुन पामना में गारण विकास हा उटी हैं मर गई हैं। उमे जानना चाहिए कि मनु या पोई भी पारा व्यय नहा जाती। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी (६) महावीर अपने साधुओ से कहते है कि चौवीस घंटे मगल की कामना मे डूबे रहो - उठते-बैठते, साँस लेते-छोडते । स्वभावत मंगल की कामना शिखर से गुरू करनी चाहिए | इसलिए वे कहते है कि अरिहत मंगल हे । जिनके समस्त आन्तरिक रोग समाप्त हो गए, वे मंगल है। सिद्ध मंगल हैं, साव मगल है । जिन्होने जाना, उन्हे जैन-परम्परा मे केवली कहते है । जानने की दिशा मे वे उस जगह पहुँच जाते है जहाँ जाननेवाला भी नही रह जाता, जानी जानेवाली वस्तु भी नही रह जातीसिर्फ जानना रह जाता है, केवल ज्ञानमात्र रह जाता है। जो केवल ज्ञान को उपलब्ध हो गया और वहाँ पहुँच गया जहाँ ज्ञान मात्र रह गया है और जहाँ न कोई जाननेवाला वचा, न जानी जानेवाली वस्तु वची, उसे केवली कहते है ! जैन - परम्परा कहती है कि जिस चीज का भी स्रोत होता है, वह कभी न कभी चुक जाती है, चुक ही जायगी, कितना भी वडा स्रोत क्यो न हो । सूर्य भी चुक जायगा एक दिन । २३२ (७) लेकिन महावीर कहते है कि चेतना अनन्त है, यह कभी चुक नही सकती । यह स्रोतरहित है । इसमे जो प्रकाश है वह किसी मार्ग से नही आता । वह वस, है— 'इट जस्ट इज' । कही से आता नही, अन्यथा एक दिन वह भी चुक जायगा । सागर भी चम्मचो से उलीचकर सुखाए जा सकते है । एक चम्मच थोडा तो काम कर ही जाती है । महावीर कहते है कि चेतना स्त्रोतरहित है, इसलिए उन्होने ईश्वर को मानने से इनकार कर दिया, क्योकि अगर हम ईश्वर को मानते है तो ईश्वर स्रोत हो जाता है और हम सब उसी के सोत से जलनेवाले दीए हो जाते है जो कभी-न-कभी चूक जाएँगे । इसमे सन्देह नही कि महावीर ने आत्मा को जितनी प्रतिष्ठा दी, उतनी प्रतिष्ठा इस पृथ्वी पर किसी अन्य व्यक्ति ने कभी नही दी । उन्होने इतनी प्रतिष्ठा दी कि यह कहने मे सकोच न किया कि परमात्ना अलग नहीं, आत्मा ही परमात्मा है । इतका स्रोत अलग नहीं, यह ज्योति ही स्वय स्रोत है । भीतर जलनेवाला जो जीवन है, वह कही से शक्ति नही पाता । वह स्वयं ही शक्तिमान् है । वह न तो किसी के द्वारा निर्मित है ओर न किसी के द्वारा नष्ट हो सकता है । वह स्वय में समर्थ और सिद्ध है | जिस दिन ज्ञान उस सीमा पर पहुँचता है, जहाँ हम स्रोतरहित प्रकाश को उपलब्ध होते हैं, उसी दिन हम मूल को उपलब्ध होते है । जैन- परम्परा ऐसे ही व्यक्ति को केवली कहती है । ऐसा व्यक्ति कही भी पैदा हो सकता है । वह क्राइस्ट हो सकता है, वुद्ध, कृष्ण या लाओत्से हो सकता है । इसलिए इस सूत्र मे यह नही कहा गया कि महावीर मगलम् या कृष्ण मगलम् । कहा गया – 'केवलिपन्नत्तो धम्मो मगल ।' जो केवल ज्ञान को उपलब्ध हो गए, उनके द्वारा जो प्ररूपित धर्म है, वह मंगल है | Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २३३ यदि मंगल की यह धारणा प्राणा की अतल गहराइया मे वठ जाय तो ममगल की सम्भावना कम हो जाती है। जो जैसी भावना करता है धीरे धीरे वह वसा ही हो जाता है । जो हम मांगत हैं वह हमे मिल जाता है । लेकिन हम सदा गत मांगत हैं । यही हमारा दुभाग्य है । हम उसी की तरफ आँख उठाकर देखत हैं जो हम हाना चाहते हैं। अगर आप किसी राजनीति के आस-पास भीड लगाकर दवटठे हा जात हैं तो यह सिफ इस बात की सूचना नही है कि किसी नता का पदार्पण हुआ 1 गहन रूप से यह इस बात को सूचना है कि आप वही राज होना चाहत हैं। हम उसी को आदर देत हैं जो हम होना चाहते बिसी अभिनेता के पास मीड लगाकर खड़े हो जाते हैं तो यह आपकी मोतरी आपला को खबर देती है । आप भी वही हो जाना चाहत है । अगर महावीर ने कहा कि वहो - नीतिक पद पर हैं | अगर आप अरिता मगर । सिद्धा मगर | साह मंगल | देवपिन्नत्ता धम्मो मगल | ता वे इस बात पर बल दे रहे हैं कि तुम यह वह ही तव पाओग जब तुम अरिहत, मिद्ध और साधु होना चाहोगे । या जब तुम यह यहना शुरू करोगे तब तुम्हार अरिहत होने की यात्रा शुरू हो जायगी । और वडी स बडी यात्रा बड़े छाट बदम मे शुरू होती है । धारणा पहा बदम है। भी आपने सोचा कि आप क्या होना चाहा हैं ? जो आप होना चाहत हैं वह सचेतन मन सहा, पर अचेतन में तो अवश्य ही घूमता रहता है । उसी व प्रति आप मा म बादर पैदा होता है जो आप होना चाहते हैं। आप होना चाहत हैं, उसी के सम्बध में आपने मन म चिता वे तु बनते हैं । वही आपने स्वप्ना म उतर आता है, आपका सांसा म सभा जाता है । (८) गरवा और खून व वर्णों में अन्यायाश्रय सम्बध है । महिल थाधार रत म सफेर वणा साइम बहती है कि आपने स्वास्थ्य की रक्षा का मू यी अधिकता है। मगर नावना से भर व्यक्ति के पास वटने पर इन सफेद बणा म १५०० पेट वणतरा बन जाता है । जा व्यक्ति आपके प्रति दुर्भाव रमता है उसके पास वर १६०० कम हो जाते है । ( ९ ) अमरीकी वनानिव बैक्मटर न सिद्ध किया है पोधे अपन मिश्रा पचात है और अपर मनुआ को भा । ये अपने मालिक या पहचानत हैं और जपमाली भी। अगर मालिक मर जाता है तब उनको प्राणधारा क्षीण हा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ महावीर : परिचय और वाणी जाती है और वे वीमार हो जाते है। वेक्सटर ने यह भी सिद्ध किया है कि पीयो मे स्मरण-शक्ति होती है। जब आप अपने गुलाब के पौधे के पास जाकर प्रेम से खडे हो जाते है तब वह कल फिर उसी समय आपकी प्रतीक्षा करता है। वेक्सटर का यह भी कहना है कि जिन पौधो के प्रति हममे प्रेम का भाव होता है वे हमारी ओर वडी पॉजिटिव भावनाएं छोडते है। उसने अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन को सुझाव दिया है कि शीघ्र ही हम मरीजो को खास-खास तरह के पीघो के पास ले जाकर स्वस्थ करने में समर्थ हो सकेगे। पीवो के पास अपना हृदय है। माना कि वे अशिक्षित है, लेकिन उनके पास हृदय है । आदमी बहुत शिक्षित होता चला जाता है, लेकिन हृदय खोता चला जाता है। (१०) धर्म शब्द का जैन-परम्परा मे वह अर्थ नहीं है जो अग्नेजी के 'रिलीजन' का है या उर्दू के 'मजहब' का। मत, पथ या क्रीड को मजहब कहते है और जोडने को 'रिलीजन' । अर्थात् अग्रेजी के 'रिलीजन' शब्द का अर्थ करीब-करीव वही है जो योग का है। वह जिस सूत्र से बना है वह है 'रिलिगेयर' जिसका अर्थ होता है जोड़नाआदमी को परमात्मा से जोडना । लेकिन जैन-चिन्तन परमात्मा के लिए जगह ही नही रखता । इसलिए आप यह जानकर हैरान होगे कि जैन योग का अर्थ अच्छा नही मानते । वे कहते हैं कि केवली अयोगी होता है, योगी नही । महावीर को कुछ भूल से भरे लोग अपनी नासमझी मे महायोगी कहते है। महावीर कहते हैं कि धर्म का लक्ष्य जोडना नही है किसी से, जो गलत है उससे ट्टना है, अलग होना है-अयोग, ससार से अयोग । योग बल देता है परमात्मा से मिलन पर, स्वरूप की उपलब्धि पर। किन्तु महावीर कहते है कि स्वरूप तो उपलब्ध ही है, जो हमे पाना है, वह हमे मिला ही हुआ है । सिर्फ हम गलत चीजो से चिपके खड़े है, इसलिए दिखाई नही पडता। जरूरत है कि गलत को छोड दे, अयुक्त हो जायं । इसलिए जैन-परम्परा मे अयोग का वही मूल्य है जो हिन्दू परम्परा मे योग का है। महावीर कहते है कि वस्तु का जो स्वभाव है, 'नेचर' है, वही धर्म है। महावीर की दृष्टि मे धर्म का वही अर्थ है जो लाओत्से के 'ताओ' का है। (११) वस्तु का जो स्वभाव है, जो उसकी स्वय की परिणति है, वही धर्म है । अगर कोई व्यक्ति किसी से प्रभावित हुए विना सहज आचरण कर पाए तो वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है। इसलिए प्रभाव को महावीर अच्छी बात नही मानते। किसी से भी प्रभावित होना बंधना है। पूर्णतया अप्रभावित हो जाना ही स्वय हो जाना है। इस निजता को-स्वय होने को-महावीर धर्म कहते है । जव कोई व्यक्ति केवल ज्ञान-मात्र या चेतना-मात्र रह जाता है, तब वह जैसे जीता है. वही धर्म है। __ महावीर कहते है कि जब कोई धुआं नही है तव अग्नि अपने धर्म मे है, जब Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महापोर परिचय और वाणी २३५ चेतना विलकुल शुद्ध होती है और पदार्थ का कोई प्रभाव नहा होता और न शरीर पा पता होता है, तव चेमना अपने घम म हाती है । महावीर कहते हैं कि प्रत्यक पा अपना धम होता है। अग्नि का अपना है जल का अपना है, पदाथ का अपना है। अपने घम मे शुद्ध हो जाना आनद है, अशुद्ध रहना दुस है। अपने स्वभाव म चले जाना धार्मिक हा जाना है। वे कहत है अरिहता लोगुत्तमा । सिद्धा लोगुत्तमा । माहू रागुत्तमा । देवरिपनत्ता धम्मा रोगत्तमो । मरिहत उत्तम है लोर म, सिद्ध उत्तम है लोक म, साघु उत्तम है लाप म, वेवरीप्रस्पित घम उत्तम है लक म । रेफिन मगल कह दन के बाद उत्तम पहने यी क्या जारत है ? कारण है हमारे भीतर। हम इतन नासमझ है दि जो उत्तम नहीं है, उसे भी हम मगलम्प मान सकते है। हमारी बासनाएँ एसी हैं कि जो याग म निकृष्ट है वे उसी की ओर बहती है। रामप्ण यहा करते थे कि चील मावाश म मा उठे तो यह मत समझना कि उसका ध्यान आयाम है। हमारी वामनाए चील की तरह नीच दगती हैं। उनका ध्यान पचरा पर या घर म पडे मास पर रगा होता है। महावीर के उत्तम शद या मथ स्पष्ट है । मरिहत उत्तम हैं। ये जीवा गिसर हैं, श्रेष्ठ हैं पाने और चाहने योग्य हैं। (१२) जय महावीर कहते हैं 'मरिहता लोगुत्तमा , तय है। इसे समझ हा पात। उहें क्या पता कि अरिहत कौन हैं सिद्ध और साधु यौन है ? 4 मायूरी म रहें मान रेत है यद्यपि अप7 भीतर उहान सी पाइ अनुभूति नहा जानी जसी अरिहतो, मिता और साघुमा वा उपलब्ध हाता है। अपनी मजवरी कोही व घम पी समा देत रहे हैं। जन धम म पटा हो जाना उसका मजबूरी है इसम उन कारय रही है। पयुपण मी उनी मजबूरी है उनका मदिर जागा उपवास करना प्रत परना-रार मजवरी है। उनम यही वाद स्पुरण, पोइ सहज भाव नहीं होता। व मदिर की ओर अपा परा या पसीटें जाते हैं। मन्दिर जाना, माना एक मजदूरी है काम है। प्रपुरता नहा हाती उन परणा म । वमा नत्य भी नहीं होता जमा सिनेमात जाम होना है। (१३) हो साता है नमोगर बापरे भाम-पाम पढ़ा जा रहा हो नि आपरे तर उारा यो प्रवेश नहीं हो पाता। जिही उमरे प्रवासी तयारा हा सी, यभार साचन हा पि क्षण म वामा प्रवेश को पापमा ता के भरम हैं हना Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ महावीर : परिचय और वाणी लोक मे उत्तम है', वह भले ही इसे यो ही दुहराता रहा हो, फिर भी उसे निराश होना नही पड़ता। यदि वह तोते की नाई इसे रटता भी है तो उसके चित्त पर निशान बनते है, ग्रन्ज निर्मित होते है जो किसी भी प्रकाश के क्षण मे सक्रिय हो सकते है। जिसने निरन्तर कहा है कि अरिहत लोक मे उत्तम है, उसने अपने भीतर एक धारा प्रवाहित की है। जब वह अरिहत होने के विपरीत जाने लगेगा तब उसके भीतर कोई उससे कहेगा कि तुम जो कर रहे हो वह उत्तम नही है, लोक मे श्रेष्ठ नही है। सिर्फ पुनरुक्ति भी हमारे चित्त मे रेखाएँ छोड जाती है, ऐसी रेखाएं जो किसी भी क्षण सक्रिय हो सकती है। जानकर, समझकर कहा गया लाभप्रद तो होता ही है, न समझकर कहा हुआ सूत्र भी लाभदायी होता है। ( १४ ) महावीर ने जिस परम्परा-धारा का उपयोग किया है उसमे श्रेष्ठतम स्थान मनुष्य की शुद्ध आत्मा को मिला है । उन्होने मनुष्य की ही शुद्ध आत्मा को परमात्मा माना है। इसलिए उनके हिसाब से इस जगत् मे जितने लोग हैं, उतने भगवान् हो सकते है, जितनी चेतनाएं है, वे सभी भगवान् हो सकती है। दुनिया के सारे धर्मों मे भगवान् की जो धारणा है वह ऐरिस्टोकैटिक है-वह सिर्फ एक सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान भगवान की धारणा है। महावीर की धारणा डेमोक्रेटिक है-प्रत्येक व्यक्ति स्वभाव से भगवान् है। वह जाने-न जाने, पाये-न पाये, फिर भी वह भगवान् है। और कित्ती-न-किसी दिन वह, जो उसमे छिपा है, प्रकट होकर रहेगा, सम्भावना सत्य वनकर रहेगी। अत कहने की जरूरत नहीं है कि महावीर अनन्त भगवत्ताओ को मानते हैं। जिस दिन सारा जगत् अरिहत तक पहुँच जाय, उस दिन जगत् मे अनन्त भगवान् होगे। महावीर का मतलव भगवान् से है-उससे है जिसने अपने स्वभाव को पा लिया। स्वभाव भगवान् है।। भगवान् की यह धारणा अनूठी है। महावीर के अनुसार न कोई जगत् को बनानेवाला है और न जगत् को चलानेवाला। वे कहते है कि कोई वनानेवाला नहीं है-वनाने की धारणा ही बचकानी है। बचकानी इसलिए है कि इसमे कुछ हल नहीं होता। हम कहते है कि जगत् को भगवान ने बनाया। फिर मवाल खड़ा हो जाता है कि भगवान् को किसने बनाया ? हम जवाब देते है कि भगवान् ने जगत् को बनाया, लेकिन भगवान् को किसी ने नही बनाया । महावीर कहते हैं कि जब यह मानना ही पड़ता है कि मनवान् को किसी ने नही बनाया तो फिर सारे जगत् को ही अनवना-अनक्रिएटेड-मानने मे कौन-सी अड़चन है ? अडचन एकही थी मन को कि विना बनाए कोई चीज कैसे बनेगी? फिर नास्तिक के पास जो उत्तर है वह तथाकथित ईश्वरवादी के पास नहीं है। नास्तिक पूछता है कि तुम्हारे भगवान् ने सृष्टि क्यो की ? ईश्वरवादी के लिए यह वडा कठिन प्रश्न है। उसे मानना पड़ता है कि ईश्वर मे जगत् को बनाने की वासना उठी। जब भगवान् तक मे वासना Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और पाणी २३७ उरती है चाह है, तब आदमी का वासना जोर चाह स मुक्त क्स पिया जा मक्ता है? इस्चरवादी रिवात म रहता है। उमनो स्वीकार करना पटता है कि ईश्वर म वामना और चार है। और तव अनक अनगर यात उम स्वीकार करनी पड़ती हैं । उस मानना पड़ता है कि ब्रह्मान स्था को जम दिया और वह उसका पिता हो गया। फिर उसने अपनी बेटी को चाहा आर सम्भोग के लिए मातुर हो गया। परिणाम म्वरप यह अपनी बटी ये पीछे भागन रगा। बटी अपने पिता से बचने लिए गाय वन गई । वह वर हा गया। तब वटी उमसे वचन के लिए कुछ और हा गई तो वह भी कुछ और हा गया। बेटी जो जा हाता चली गई, वह उसी-उसी जाति का हाता चरा गया। अगर ब्रह्मा भी चाह म ऐसा माग रहा होता तो आपका सिनेमा परा म जाना बिलकुल ब्रह्मस्वरूप है, आप विरकुल ठीक चो जा रह है । स्त्री फिल्म अभिनत्री हो गई तो आप फिल्म-दराक हो गए। फिर सारा जगत वासना या फेराव हा गया। महावीर ने इस धारणा का जड़ से काट दिया। वहान कहा कि अगर लोगा का भगवान् बनाना है तो भगवान की इस धारणा का अरग करो। उन्होंने कहा कि अगर पहरे भगवान् म भी चाह रख दाग तो फिर आदमी की चाह का य करने का पारण क्या बचेगा? जगत अनिर्मित है अनवना है। किसी ने बनाया नहीं है इस । विनान के लिए भी यही तकयुक्त मालम पडता है, क्यापि जगत में काइ चीज यसायी नहीं मालूम पढती और न कोई चीज नष्ट होती मालम पटती है-सिफ म्पातरित होता मारम पड़ती है। इसलिए महावीर ने पनाथ की जो परिमापा को है वह इस जगत् की सर्वाधिक वनानिक परिमापा है । उहान 'मटर' के लिए एक अभुत बार का प्रयोग किया है -'पुद्गल' । एमा दाल जगत की रिसा मी मापा म नहीं है । 'पुदगर या अय है--जो बनता मोर मिटता रहता है भार फिर मा है। जा प्रतिपर बन रहा है मिट रहा है और है नती की नाई । पदी भागी जा रही है, चली जा रही है, फिर भी है। 'पुदगल' या अय है 'बियमिंग', वह जा प्रतिपल जमल रहा है और प्रतिपल मर रहा है, फिर भी कभी न ता सिमित हाता है और न समाप्त हाता है। चरता रहता है, गत्यात्मक है। (१५) मापार | पहा रि यह जगत् पुरगर है। शाम सनी चौ सदा मे हैं, य बन रही हैं मिट रही हैं, न कोई चीज यमी समाप्त हाती है और न निर्मित होती है। इसरिए तिमाता का प्रश्न नही उठना और न परमारमा म वासना पी पत्तना ही तपयुक्त है। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ महावीर : परिचय और वाणी कहते हैं। महावीर का अन्हित अतिम मजिल है । व्यक्तिः भगवान् तव होना जत्र वह वहाँ पहुँच जाता है जिसने आगे और कोई याता नहीं है। दूसरे धर्मों का भगवान् आरम्भ है, वहां है जहां दुनिया शुर होती है। महावीर फा नगवान वहाँ है जहां दुनिया समाप्त होती है। सब कहते है कि दुनिया को बनानेवाला भगवान् है; महावीर कहते हैं कि दुनिया को पार कर जानेवाला भगवान् है । दुनिया का भगवान् वीज की तरह है, महावीर का गगवान् फूल की तरर । महावीर यह नहीं कहते कि शाम्प्र में लिसा हा धर्म लोकोत्तम है। वेदो को माननेवाला कहता है कि उनमे प्रस्पित धर्म ही लोग मे उतम है। पाविल और कुरान को माननेवाले लोग बाइबिल तया कुरान मे पर पित धर्म को ही लोलोनम मानते है। लेकिन महावीर कहते हैं-केवलिपनत्तो धम्मो नोगत्तमो । नही, शान्त्र मे कहा हुआ धर्म लोकोत्तम नहीं है। केवल जान के क्षण मे जो करता है वही प्ठ है, जीवन्त है। महावीर ने कभी नहीं कहा कि गास्नो मे प्ररपित धर्म लोकोत्तम है। ऐसा भी नहीं कहा कि मेरे गान्त्र मे कहा हुना धर्म श्रेष्ठ है। उन्होंने खुद कोई शास्त्र निर्मित नहीं किया। केवलिप्ररपित जो धर्म है वह शास्त्र में लिस लिया गया है। इसलिए जैन उस शास्त्र को सिर पर वैसे ही टोये चलते है जने को कुरान या गीता को ढोता है। यह महावीर के प्रति ज्यादती है। उन्होने कभी कोई जान्न निर्मित नहीं किया, कभी कुछ नही लिखवाया। उनके मरने के सैकडो वर्ष बाद उनके वचन लिखे गए । सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि महावीर बरावर मीन रहे। अत उनकी जो वाणी है वह कही हुई नहीं है, सुनी हुई है। महावीर का जो धर्मप्ररूपण है वह मौन सम्प्रेपण है, टेलिपथिक ट्रासमिशन है । वात पुराण-जैमी जत्र लगती है, लेकिन उसे वैज्ञानिक आधार मिलते चले जा रहे ह । महावीर जब बोलने थे तब वे वोलते नहीं थे, बैठते थे। न तो वे होठ का उपयोग करते थे और न कठ का। उनके अन्तर-आकाश मे ध्वनि जरुर गूंजती थी। ( १६ ) मैं कहता हूँ कि महावीर बोले नही, मुने गए। वे मान बैठे और पास वैठे लोगो ने उन्हे सुना । जो जिस भाषा मे उन्हे समझ सकता था, उमने उस भापा मे ही सुना और समझा। वहाँ पशु भी इकठे थे और पौधे भी खडे थे । कथा कहती है कि उन्होने भी सुना । वेक्सटर भी तो कहता है कि पौधो के भाव होते हैं और वे समझते है आपकी भावनाएँ । पौधो को प्रेम करनेवाला व्यक्ति जब दुखी होता है तव वे भी दुखी होते है और जब उसके घर मे उत्सव मनाया जाता है तब वे प्रफुल्लित होते है । जब घर मे कोई मर जाता है तब वे मातम मनाते है, जब उनका प्रेमी उनके पास खडा होता है तव उनमे आनन्द की धाराएँ बहती है। अचेतन पर जो वैज्ञानिक प्रयोग किए जा रहे है उन्होने यह सिद्ध कर दिया है कि अपने अचेतन मे हम कोई भी भापा समझ सकते है। यदि आपको गहन रूप से सम्मोहित किया जाय, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २३९ इतना वेहार किया जाय कि आपका अपना काई पता न रह जाय तो आपसे पिसी भी भापा म बात की जा मफ्ती है और आप उस समय लेंग। (१७) चेर वनानिक डॉ० रा डेक का कहना है कि हम महासागर म निकले हुए छोटे छोट द्वीपा की माति हैं । पर स अलग-अलग, वितु जमीन पर अपनी अतर गहराच्या म, परम्पर जुड़े हुए,। ऊपर हमारी भाषाएं पृथक् पृथक है। लेकिन दमारे अचेतनकी भापा एक है । गहरे उतर जाये तो पशुआ और मनुष्यो की भी भाषा एक है अचेतन की गहराइया में हम पौवा मे भी जुटे हुए हैं और हमारा अचेनन मगुप्या को ही मापा नहीं समाता, पशु-पक्षिया और पायो पी वारी भी मुनता समरता है। जत मानवारे वीम वपों म विनान बताएगा यि महावार ने निशद विचार-सचरण का जा प्रयोग किया था वह पुराण कथा मात्र नहीं है। इस पर काम तजी से चल रहा है और स्पष्ट हाती जा रही है बहत-सी अंधेरी गलिया जा पहले साफ न थी। इसका अर्थ यह भी हुआ कि अगर हम क्मिी व्यक्ति को दुमरी भाषा मिखानी हो ता उसके चेतन का नहा, प्रत्युत अचेतन का सहारा उपयुक्त हागा । राज डेय कहता है कि चेतन म्प से मिसान म जाप श्रम का दुरपयाग करत हैं व्यथ की परगानिया माल रेते है। यह टोक रहता है कि चेतन स्पस जा मापा जाप दा मार मसीगे, उसे ही बलारिया ये डा०ॉरेजो आपरा सम्माहित हालत म वीस दिन में सिखा सक्त हैं। उनका कहना है कि जब कोई व्यक्ति सचेतन रूप म सुनता है तब उसका ऊपरी मन सुनता है इसलिए च कहते है कि परी मन का ता लगा दा मगीत सुनने में और भीतरी मन के द्वार से सुना यह जा सुनना चाहिए। इस तरह दो साल का कोम वीस दिन म ही पूरा किया जा सकता है। बात क्या है ? वान बुर इतना ही है कि नीचे गहरे म हमारी बहुत सारी क्षमताए छिपी पड़ी हैं। आप अपन घर म यहाँ तक आ गए । अगर आप पैदर चल कर आए हा, तो क्या आप बता मरत हैं कि राम्त म रितन घर और खम्भे मिल? आप रहेंगे क्या मैं कोई पागल हूँ जा इसकी गिनती करता? लेविन आपका बहाा परक पूछा जाय ता जाप इनको सग्या बता सरत हैं। जब आप मा रह थे इधर तब जापमा परी मन आन म रगा था और नाचे का मन सव-वृछ अफ्ति परता जा रहा था। पानी के ऊपर निकला हुआ जा द्वाप है, उसे इसवा कुछ भा पता नहीं है दिन नीचे जो जुडी हुइ भूमि का विस्तार है उस सर पता है। (१८) चूकि महावीर वारे नही, इमाए उनका धम बहुत व्यापर नहीं हो पापा, घटत गेगा तर नहा पहुच पाया। परि वे बारत तो सवा समझ म आना। उनके न बालन कारण येवल व ही समप पाए जा उनन गहरे जान पो तयार थे। इसलिए महावीर प वक्त जा श्रेष्ठतम राग ये केवल प ही उनसरा सुन पाएव श्रेष्ठनम लाग चाह पौधा म हा या पशु-पलिया में, या मनुष्या म। महावीर का Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० महावीर : परिचय और वाणी सुनने के पहले प्रशिक्षण से, ध्यान की प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता था, ताकि आपका वाचाल मन शान्त हो जाय और आपकी गहन आत्मा महावीर के सामने आ जाय । संवाद हो सके उस आत्मा से । इसलिए महावीर की वाणी को पांच सौ वर्ष तक फिर लिसा नही गया । तब तक लिया नहीं गया, जब तक ऐसे लोग मौजूद थे जोम हावीर के शरीर के गिर जाने ने बाद मी महावीर के सन्देश लेने में समर्थ थे । जव ऐसे लोग भी समाप्त होने लगे तब ववराहट फैली और तब महावीर वाणी को सगृहीत करने की कोशिश की गई । इसलिए जैनो का एक वर्ग - दिगम्बरमहावीर की किसी भी वाणी को विश्वसनीय नहीं मानता। उनका कहना है कि चूंकि वह उन लोगो के द्वारा सगृहीत हुई है जो दुविधा में पड गए थे, इसलिए वह प्रामाणिक नही कही जा सकती । श्वेताम्बरो के पास भी जो शास्त्र हैं, वे भी पूर्ण नहीं है । लेकिन महावीर की पूरी वाणी को कभी भी पुन पाया जा सकता है। उसके पाने का ढंग यह नही है कि महावीर के ऊपर किसी गई किताबो मे उसे सोना जाय । उसके पाने का बस एक ही रास्ता है । ऐसा ग्रुप, ऐसा स्कूल कायम किया जाय जिसमे थोडे-से लोग, जो चेतना को गहराई तक ले जा सके, महावीर से आज भी सम्बन्ध स्थापित कर सके । महावीर ने कहा है कि वही धर्म उत्तम है जो तुम केवली से सम्बन्धित होकर जान सको, बीच मे शास्त्र से सम्बन्धित होकर नहीं । केवली से कभी भी सम्वन्धित हुआ जा सकता है । शास्त्र बाजार मे मिल जाते हैं, किन्तु केवली से सम्बन्धित होना हो तो वडी गहरी कीमत चुकानी पड़ती है । स्वय के भीतर बहुत कुछ रूपान्तरित करना पडता है। महावीर कहते थे, विना कीमत चुकाए कुछ भी नही मिलता और जितनी बडी चीज पानी हो, उतनी ही बड़ी कीमत चुकानी पडती है । इसलिए जब वे बार-बार कहते है कि अरिहत उत्तम है, सिद्ध उत्तम हैं, साधु उत्तम है, केवली - प्ररूपित धर्म उत्तम है, तब वे यह कह रहे हे कि इतने उत्तम को पाने के लिए सब कुछ निछावर करने की तैयारी रखना, सव-कुछ खोना पडेगा, स्वय को भी । जब भी कोई स्वय को खोने को तैयार होता है तब वह केवलीप्ररूपित धर्म से सीधे सयुक्त हो जाता है । वही धर्म जो जाननेवाले से सीधे मिलता हो अथवा विना मध्यस्थ के प्राप्त होता हो, श्रेष्ठ है । 不過全 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्याय गरण की स्वीकृति वलिपनत्त धम्म सरण पवज्जामि। ~प्रवप्रति० सधारा० मू० (१) कृष्णन गीता में कहा है सवधर्मापरित्यय मामेक शरण यज । (१८६६) "हे अजुन । तू सभी धर्मों पा छावर एप मरी ही गरण म आ।" कृष्ण जिन युग म बोल रहे थे यह युग यत्पात गरल एव मृदुल श्रद्धा पा युग था। मिमी या ऐसा न गा वि कृष्ण अवार मो यात कह रहे हैं रितू सब छोडकर मरी ही रण म आ। वस्तुत इससे ज्यादा अहमारग्रस्त घोपणा दूसरी नही हो सकती। एपित युद्ध और महावीर तय मात आन यादमी को चित्त-दाम बहुत पर हो जाता है। इसलिए जहां हिदूचिता माम एसम शरणम प्रज' या मरमार पहा है यहाँ धुर और महावीर को अपनी दृष्टि म आमूर परिवतन परसा प महावीर न नही यहा शि तुम सब छोडकरमरी गरण म आ जाओ। बुद्ध मी ऐमी यात हा पही। जो महापीर और बुद्ध पा मूब है मार पीमार है गिर पी आर मनहरी । परिहा, सिद्ध और पपरी प्रारित पम पोम्बीमार करता है-यह दूसरा घर है रणागत मा।दोही धार होगात हैं। चाह तामिद पर पि मरी गरण म आमा या गायर पर कि मैं आपणी गरम भाता है। (२) हिदू और जाविरम यही मौगिक है। हिंदू पिचार म सिर पहा आमा गरी धारप म, ना पिपारम मापन महता निमें आपरी गरा में मारा गरा पता परसामा माग बनाया गया यहा मश यार मा युग परापमा युग पामरायीर कासिमरी गरण म या जामा सारगा गा राग m fr परे मातारी। पुरमा परम्गम नी मागूर --पुरम मचागि रापम् गराम ref TIER रिमा गीर और पुरा गृर मजा पारा पायर • In और पासात पा + artोएर-गमापन पर मोई मरता है--सम् तम् १ लि (पर्या मा-पित) भी न पातर मा। ११ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ महावीर : परिचय और वाणी गच्छामि, तब वह पहला कदम उठाता है । जब कोई कहता है-अन्हिते गरणम् पवज्जामि, तब वह शरण जाने की अन्तिम स्थिति में है, वह अन्तिम कदम उठाता है। जव कोई कहता है कि गरण में आता है, तब वह बीच ने लीट भी सकता है। यह भी हो सकता है कि यह उनकी गना या प्रारम्न हो, याना पूरी न हो या उनके वीच मे व्यवधान हो जाय-याना के मन में ही कोई तर्क द्वारा समझाकर वापत लौटा दे, कारण कि तर्क गरण में जाने का निताल विरोधी है। (३) महावीर का मूत्र है--अरिहत की गरण स्वीकार करता हूँ। उनने लीटना नही हो सकता। यह प्वाइंट ऑफ नो रिटर्न' है। यदि 'शरण में जाता है' कहें तो इसमे अभी काल का व्यवधान होगा, ममय लगेगा गरग तक पहुँचते-पहुंचते । नान जो कहता है कि गरण में जाता हूँ, वह हो सकता है कि कितने जन्मो के वाद गरण ने पहुँचे। अपनी-अपनी गति और अपनी-अपनी मति पर निर्भर होगा यह । लेक्नि 'स्वीकार करता हूँ' की खूबी यह है कि यह 'मडेन जम्प' है, नमन छलांग है। 'स्वीकार करता हूँ'--अर्थात् स्वय को तत्काल अस्वीकार करता हूँ क्योकि गरण स्वीकार करता हूँ। अगर आप अपने को स्वीकार करते है तो दारण को स्वीकार नहीं कर सकेगे। शरण की स्वीकृति अहकार की हत्या है। चेतना में धर्म का विकास अहंकार के विसर्जन से शुरू होता है। कृष्ण के युग मे सत्य को उपलब्ध कर लेना जितना आसान था उतना महावीर के युग मे नही। हमारे युग मे सत्य को उपलब्ध कर लेना अत्यधिक कठिन है। नाज न तो सिद्ध कह सकता है कि मेरी शरण मे आ और न साधक कह सकता है कि मैं आपकी शरण मे आता हूँ। महावीर चुप रह गए। आज अगर साधक किसी सिद्ध की गरण जाए और सिद्ध मौन रहे तो साधक समझेगा कि अच्छा है, मौन सम्मति का लक्षण है। मतलब कि साधक की दृष्टि मे सिद्ध अहकारी है। आश्चर्य नही कि कुछ दिनो वाद साधक से सिद्ध को ही कहना पडे कि मैं आपकी गरण मे आता हूँ, मुझे स्वीकार कीजिए। गायद साधक तभी यह मानने को तैयार होगा कि यह आदमी ठीक है। शरण की स्वीकृति का मूल्य क्या है, इमे हम दो-तीन दिशाओ से समझने की कोशिश करे। (४) पहले तो शरीर के समर्पण को ही समझने की कोशिश करे। भारतीय योग मे गवासन का प्रयोग गरीर के पूर्ण समर्पण का प्रयोग है। शवासन का अर्थ है पूर्ण समर्पित गरीर की दशा, जव आदमी ने अपने शरीर को विलकुल छोड दिया हो, जब उसने अपने शरीर को पूरी तरह 'रिलक्स' कर दिया हो। यह बहुत ही अद्भुत वैज्ञानिक सत्यो से भरा हुआ प्रयोग है । वल्गेरियन डॉक्टर लोज़ानोव का कहना है कि जब हम पृथ्वी के साथ समानान्तर लेट जाते है तब जगत् की शक्ति हममे सहज ही -प्रवेश कर जाती है। जब हम खड़े होते है तब शरीर ही खड़ा नहीं होता, भीतर Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २४३ यहार भी इसर साय पहा हा जाता है । जब हम रेट जात हैं तब हमारा अहसार मास्ट जाता है। हमार टिफेस वे तत्व गिर जात है। मानिए परत हैं कि मनप्य की वृद्धि विन मित हुई है उसर सड़े होन स । यह सच है। ममी पतु पथ्वी में समाना तर जात हैं । वेनानिय पहत हैं रि भादमी था पर पर पड़ा हो जाना ही उसको तयावथित युरिया विकास है। रेपिन साथ हा गायन र अन्तरतम स जागनिब पाक्तिपा मे, उसय व गहर मम्बाप तिथि- और पीण हो गए हैं। उग रेटपर यह सम्बय पुन स्थापित परना पटता है। इसरिता अगर मदिरों म मूर्तियों व मामने, गिरतापरा म, मस्जिना म रोग सुकर जमीन पर रेट जात हैं ताउमा बंगानिक वारण है । रेटा पर हमारा टिफेस टूट जाता है हमारो अपडएट जाता है। पर या समपण पर देता है तब वह अपन या गर भांति छोट दता है एम ही र यो पदी यो घार म पायो साट द और घार वरान रग तर हा बहन द। तो शरणागति वहाय है पनगटारना है और जग ही पाई वहा है वम ही नित्तय ममा तनाय छूट जाते हैं। (५) शरणागति मानराि याति या यदान या राय है। जप जाप गरें होन हैं तो आपो भीतर पीिित गारपिम्म मा होता है और जब आप पथ्वी पर 72 जात है तर यह पुछ और होती है। पित योनी विशप आनियो हानी। अगर या परिपूण नाय गे पाये रिमें अरित की गण आता! गिर पी रण आग पग गी पर माता ता य ाव उमरी मानरिख आरति मो यार ना है और मारिय आति से बाही उग जादाम TATTण र हा आप र म आपका ITI पता है। आप जिस तरह से गाय परा ६, थापा | उगी तर पाप प्रदप परती है। (१)ीमी दोगाप मर र पेश IT जमीन म पार पर कार स्ट सा है और मिाट र न र पार पर गुरु मारण पार पापा गा। पैशानिमारा पी गई जापरिनि पद पा पागा Titजिनितीमा पारिदम दारा दम्प उगा ममा नाय म। Frमाम MERE राय : मगरानीमा रा र धना। सानो गा दी THI, T AIT में कार । सर Po , मरा समय में भरना । मा अपहा पूम। - परममा पर गया पर शेषाने पाfreatm arrest? मा7 hr_re ला भार कमी rrrrotगा Triral- पिसमा सा Rf AT HTTrm : ५ गामम Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ महावीर : परिचय और वाणी शरीर की मांग- भूख, प्यास आदि - छूट जाए' ? अगर जमीन कशिश छोड सकती है, अगर प्रकृति का एक नियम टूट सकता है, तो सब नियम टूट सकते है । यह भी स्मरण रहे कि सिद्धासन में बैठना गरीर मे पिरामिड की ही आकृति पैदा करना है । बुद्ध और महावीर की सारी मूर्तियां जिस आसन में है, वह पिरामिडिकल है। जमीन पर दोनो पैर का आधार वडा हो जाता है और ऊपर सब छोटा होता जाता है, सिर पर शिखर हो जाता है, एक त्रिकोण वन जाता है । ऐसे आसन को सिद्धासन कहते है | क्यो ? क्योकि इस आसन मे सरलता से प्रकृति के नियम अपना काम छोड देते है और प्रकृति के ऊपर परमात्मा के जो गहन सूक्ष्म नियम है, वे भी काम नही करते । ( ७ ) शरणागति की अपनी आकृति है, अहकार की अपनी आकृति । अहकार को हम सदा खडा हुआ ही सोच सकते है । शरण का भाव लेट जाने का भाव है, किसी विराट् शक्ति के समक्ष अपने को छोड देने का भाव है । महावीर ने बारह वर्षो मे केवल तीन सौ पैसठ दिन भोजन किया । ग्यारह वर्प बिलकुल नही । फिर भी महावीर से ज्यादा स्वस्थ शरीर खोजना मुश्किल है । महावीर के पीछे चलनेवाले व्यक्ति इसके रहस्य को समझ नही पाए । इस सम्बन्ध मे राबर्ट पावलिता द्वारा किए गए कुछ प्रयोग बड़े प्रासंगिक हैं । उसने वरफिलाव नामक व्यक्ति को तीन सप्ताह के लिए सम्मोहित रखा और सम्मोहन की अवस्था मे उसे बार-बार झूठा भोजन दिया । वरफिलाव की जाँच के लिए डॉक्टर नियुक्त किए। वे रोज आते और बताते कि वरफिलाव का शरीर और भी स्वस्थ होता चला जा रहा है । उसको जो शारीरिक तकलीफ थी, वह पांच दिन के बाद विलीन हो गई, उसका शरीर पूर्ण स्वस्थ हो गया । सातवे दिन के बाद शरीर की सामान्य क्रियाएँ भी वन्द हो गई । उसका वजन वढ गया । इस प्रयोग के बाद महावीर को समझना आसान होगा । इसलिए मैं कहता हूँ कि जिन लोगो को भी उपवास करना हो, वे तथाकथित जैन साधुओ के उपवास के पागलपन मे न पडे | उन्हे कुछ भी पता नही है । वे सिर्फ भूखे मरवा रहे है, अनगन को उपवास कह रहे है । उपवास की तो कोई और ही वैज्ञानिक प्रक्रिया है । और अगर इस भाँति प्रयोग किया गया तो वजन नही गिरेगा । परन्तु महावीर का वह सूत्र खो गया। सम्भव है, राबर्ट पावलिता-जैसे लोग उस सूत्र को फिर से पैदा कर ले | लेकिन हम अभागे लोग धर्म की बातो और विवादो मे इतना समय नष्ट करते और करवाते हैं कि सार्थक बातो को करने के लिए समय और सुविधा नही बच रहती । पावलिता का प्रयोग वेहोश और सम्मोहित आदमी पर किया गया है । महावीर तो पूर्ण जाग्रत पुरुष थे । वे उन जाग्रत लोगो मे से थे जो निद्रा मे भी जाग्रत रहे । तो महावीर का सूत्र क्या था ? Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २४५ (८) असर म सम्माहन मे और महावीर के सूत्र म एप या तरिफ सम्बध है। सम्माहित व्यक्ति वेहाती म विवश होकर समर्पित हो जाता है, उसमा सहकार पा जाता है। महावीर जाार उस अस्मिता और अह्वार वो खो देते हैं और समपित हो जात हैं। अगर आप होगपूवर मी, जागे हुए भी समर्पित हा सके और वह सकें कि 'अरिहत शरणम पयजामि' तो आप उसी रहस्य-लाय मे प्रवरा कर जाएंगे जहाँ रजरिव और पावलिता प्रयोग करता है। ___ ध्यान रहे मनुष्य के चित्त म जब तक अहकार है तब तक भय होता है। नय और अहवार एक ही का पे नाम हैं। अहवारी अत्य त मयातुर होता है । महावीर कहते हैं कि अभय तो वही हो सकता है जो समर्पित है शरणागत है। जिमने जपने का छाडा उसके भय का पोइ कारण नहीं रहा । (९) यह सूत्र गरणागति का है। इस सूप के साथ नमोवार पूरा हो जाता है। नमस्कार से शुम् हायर वह गरणागति पर पूरा होता है और इस अथ म मोपार पूरे धम पी यात्रा बन जाता है। गरणागति का पहला सम्बध उस आतरिय ज्यामिति म है जो आपके भीतर को चतना यो आरति बदरती है। दूसरी वात-आप प्रवृति ये साधारण नियमा के बाहर चरे जाते हैं, मिमी गह्न अथमे आप तिव्य हा जात हैं । और तीसरी वात-पारणागति आप जीवन द्वारा का परम कर्जा यी तरफ सोल देती है। विश्व-ऊर्जा के स्रोता की मार स्वय या साटना हो ता पारण म जान ये अतिरिक्त और काई उपाय नहीं है। (१०) इसलिए अहवारी व्यक्ति दीन-से-दीन व्यक्ति है सिने अपने को समस्त माता स तोड लिया है जो सिप अपन पर ही भरोसा कर रहा है। उसका जीवन सिप सदन या एक प्रम होगा, मरने की एक प्रक्रिया होगा। रग पाता है पूर अपना जय मे, मूय में चाटनारा स । अगर पूल ममर्पित है ता प्रफुल्लित हो जाता है। मय द्वारा मै उम रोशनी और प्रयाण मिलता है । जीवन-ऊना ये परम साता की सरप अपन वो पोल्ना ही परणागति है। (११) अगर आप मे भी कजा प्रवाहित हो जाती है, तो क्या परम गतिक प्रनि ममपित हारर आप उगी ऊनायो अपन म समाविष्ट नहीं कर सरते? कजा में प्रयार हम ना सरप होत हैं। जो कजा आपर यह राशी है यह आपकी तरपी यह सरती है। भार गगा सागर की तरफ बहती है तो पया सागर गगा की तरफ नहीं वह सरता? पहरणागति सागर। गगा को गगानी की तरण यहाने की प्ररिया है। पारणागति परती है मत, गिर जाम और तुम पालोग मि) जिमी रण म तुम गिर गए हो, उगस तुमा मुद सापा हा, पाया है। ईसा ममाह पता है कि जो भी अपाया बनाएगा यह मिट जायगा, रितु पय है व जो सपन। पो मिटा देन हैं क्यापि डारा मिगने भी पिर रिमी में सामप्य ही है ! Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ महावीर : परिचय और वाणी वह जो अमृत तथा जीवन का अनन्त रहस्य-स्रोत हे चारो तरफ, उसके प्रतीकशब्द है अरिहत, सिद्ध, साधु आदि। ये उस स्रोत की आकृति है हमारे पास । परमात्मा तो निराकार मे खडा है। (१२) लेकिन आकार में भी परमात्मा की छवि बहुत बार दिखाई पड़ती हैकभी किसी महावीर मे, कभी किसी वुद्ध या क्राइस्ट मे । लेकिन हम उस निराकार को पहचान नही पाते और उस आकृति मे कोई-न-कोई दोष निकाल लेते है । कहते है-क्राइस्ट की आकृति थोडी कम लम्बी है, यह परमात्मा की नही हो सकती। महावीर को तो बीमारी पकडती है, ये परमात्मा कैसे हो सकते है ? आपको खयाल नही कि आप आकृति की भूले निकाल रहे है और आकृति के भीतर जो मौजूद था, उससे चूके जा रहे है। आप वैसे आदमी हैं जो दीए की मिट्टी की भूले निकालता है और उसकी देदीप्यमान ज्योति की ओर दृक्पात नहीं करता। दीये की निराकार स्रोतरहित ज्योति ही मुख्य है, न कि दीये की मिट्टी, उसकी आकृति । लेकिन हम यह नही देखते कि कृष्ण ने क्या कहा, हम इसकी फिक्र करते है कि उनकी वाणी मे व्याकरण की भूले तो न थी । वे शास्त्र-सम्मत वाते करते है अथवा नही ! जब तक हम दीये की नाप-जोख करते है तव तक ज्योति विदा हो जाती है और हम मरे हुए दीयो को हजारो साल तक पूजते रहते है। मरे हुए दीयो का हम बडा आदर करते है । इस जगत् मे जिन्दा तीर्थकर का उपयोग नहीं होता, सिर्फ मुर्दा तीर्थकर का उपयोग होता है, क्योकि मुर्दा तीर्थकर के साथ भूल-चूक निकालने की सुविधा नही रह जाती। अगर आप महावीर के साथ रास्ते मे चलते हो और महावीर थककर वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे तो आपको शक होगा और आप कहेगे—'अरे, महावीर तो कहते थे कि भगवान् अनन्त ऊर्जा, अनन्त शक्ति और अनन्त वीर्य है | कहाँ गई अनन्त ऊर्जा ? ये तो थक गए | दस मील चले और पसीना निकल आया ।' असल मे दीया थकता है। महावीर जिस अनन्त ऊर्जा की बात कर रहे है, वह ज्योति की वात है। दीए तो सभी के थक जायेंगे और गिर जायँगे । (१३ ) लेकिन हम दीये की भूलो पर ही ध्यान क्यो देते है ? हम यह इसलिए करते है कि हमे शरणागति से बचने का कोई बहाना मिल सके । आकृति के दोष कारण वनकर हमे शरण में जाने से रोक सके । बुद्धिमान् वह है जो कारण खोजता है शरण मे जाने के लिए, बुद्धिहीन वह है जो कारण खोजता है शरण से बचने के लिए । दोनो प्रकार के कारण खोजे जा सकते है। महावीर जिस गाँव से गुजरते है उस गाँव के सभी लोग उनके भक्त नहीं हो जाते । उस गाँव मे भी उनके शत्रु होते ही है और वे भी अकारण नही होते होगे। वे कहते होगे कि अगर महावीर सर्वज हैं तो वे उस घर के सामने भिक्षा क्यो मांगते है जिसमे कोई है ही नही ? यदि ज्ञान को उपलव्ध व्यक्ति सर्वज्ञ होता है-महावीर खुद ऐसा ही कहते थे तो उन्हें पता होना Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी । २४७ हो चाहिए कि घर में कोई भी नहीं है । नही, वे सवा नहीं हैं। वस, वात यही खत्म हो गई, शरण से रुपने का उपाय हो गया। जिहें कारण ढूढना होगा व यह भी कहते हागे वि शास्ना म तीयवरा कह रक्षण वणित हैं जिनम एक रक्षण यह है कि जहा जहा तीथरा के चरण जाते है वहाँ वहाँ से घणा का भाव तिरोहित हो जाता है, शनुता का भाव मिट जाता है। यदि महाबीर तीथकर होते तो उनके कान मे कोई कीलें से ठोप पाता? कान मे कीलें तो बहुत दूर स नही ठोकी जा मक्ती, वहुत पास आना पडता है। यदि महावीर के पास आकर भी शनुता का भाव बच रहता है ता वात गडवट है, सदिग्ध है मामला, महावीर तीयवर नहीं हैं। मगर महावीर तीथकर हैं या नहीं इससे आप क्या पा लेंगे? हा उसकी शरण जाने मे आप बच सकेंगे, बस इतना ही। ऐसा प्रतीत होता है कि आपके शरण जाने से महावीर को कुछ मिलनेवाग है, जो आपने रोक लिया । मूल रहे है आप । शरण जाने से आपका ही कुछ मिर सकता था, जो आप चूर गए । अगर आपको शरण नहा जाना है तो आप कारण खाज ही लेंगे न जान के । आर अगर आपका भरण जाना है तो पत्थर की मूर्ति में भी आप कारण सोज मक्त हैं जाने के । मजा यह है कि शरण में जाएं तो पत्थर की मूर्ति भी आपके लिए उसी परम बात का द्वार खोल देगी, शरण न जाएं तो खुद महागेर सामने खडे रहगे और वह द्वार वद रहेगा । धार्मिक आदमी म उसे कहता हूँ जो कहीं भी शरण जाने का कारण खोजता ही रहता है। (१४) अगर इसा मसीह सूली पर चमकार दिसा दें और तब आप उनकी शरण में जाएं, ता, ध्यान रखना यह शरणागति नहीं है। इसमे कारण ईसा मसीह हैं, आप नही। यह सिफ चमत्कार को नमस्कार है, इसम कोई शरणागति नहा है। शरणागति तो तब होती है जव कारण आप हा, ईसा मसीह या बुद्ध या महावीर का चमत्कार नहीं। इस फ्फ को ठीक से समझ ल नही तो सूत्र का राज़ चूक जायगा। गरणागति उसी मात्रा मे गहन होती है जिस माना में शरणागति जाने का कोई। कारण नहीं होता। अगर कारण हाता है तो वह सौदा हो जाती है, शरणागति नहीं। रह जाती अगर बुद्ध मुर्दे कोपिला रहे हैं तो उसे नमस्कार करना ही पड़ेगा। इसम खूी आपकी नहीं है इसम तो कोई भी नमस्कार कर लेगा। परतु जब महा वीर-जैसा आदमी आपके सामने सडा हो जाता है जिसमे कोई चमत्कार नहीं है जिसम कुछ भी ऐसा नहीं है जो आपका ध्यान सोचे या जिससे आपको तत्काल राम दिपाई दे, जिसम कुछ भी ऐसा नही जो आपके सिर पर पत्थर की चोट-जैसा प्रमाण बन जाय, और आप उसकी शरण चले जाते हैं तब आपके भीतर प्रान्ति घटित हाती है, आपका बहकार विलीन हाने लगता है । सब तक, सब प्रमाण सव चालामा की बातें अहकार के ईद गिद हैं। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय धर्म का परम सूत्र : अहिसा और स्वभाव धम्मो मगलम क्किट्ठ अहिसा सजमो तवो । देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धम्म सया मणो॥ -दग० अ० १ गा० १ (१) महावीर कहते है कि धर्म सर्वश्रेष्ठ मगल है । जीवन मे आनन्द की जो भी सम्भावना है वह धर्म के द्वार से ही प्रवेश करती है। जीवन मे सौन्दर्य के जो फूल खिलते है वे धर्म की जडो मे पोपित होते है। जीवन मे जो भी दुख है वह किसी-न-किसी रूप मे धर्म से च्युत हो जाने मे या अधर्म मे सलग्न हो जाने मे है। महावीर की दृष्टि मे धर्म का अर्थ है-जो मै हूँ उस होने मे ही जीना, जो मैं हूँ उससे जरा भी च्युत न होना। जो मेरा अस्तित्व है उससे बाहर जाते ही मेरे दुख का प्रारम्भ हो जाता है । दुख का प्रारम्भ इसलिए हो जाता है कि जो मैं नही हूँ, उसे कितना ही चाहूं तव भी वह मेरा नही हो सकता। जो मै नही हूँ, उसे में कितना ही वचाना चाहूँ, उसे मै बचा नही सकता। वह खोएगा ही। मैं केवल उसे ही पा सकता हूँ जिसे मैने किसी गहरे अर्थ मे सदा से पा रखा है । मै केवल उसका ही मालिक हो सकता हूँ जिसका मै जाने-न-जाने अभी भी मालिक हूँ। मृत्यु जिसे मुझसे छीन नही सकेगी, वही केवल मेरा है । रुग्ण हो जायगा सव-कुछ, नष्ट हो जायगा सब-कुछ , फिर भी जो विलीन नही होगा, वही मेरा है। गहन अधकार छा जाए, अमावस आ जाए जीवन मे चारो तरफ, फिर भी जो अंधेरा न होगा, वही मेरा प्रकाश है । लेकिन हम स्वय को खोजते है उसमे जो हम नही है, वही से विफलता और विवाद जनमता है, निराशा उत्पन्न होती है । इस जगत् मे वहुत कम लोग है जो स्वय को चाहते है। (२) हम स्वय को पा सकते है और कुछ पा नहीं सकते । सिर्फ दौड सकते है । सत्य केवल एक है और वह यह कि मै स्वय के अतिरिक्त इस जगत् मे और कुछ भी नही पा सकता। हाँ, पाने की कोशिश कर सकता हूँ, श्रम कर सकता हूँ, आशा वाँध सकता हूँ। पाने के स्वप्न देख सकता हूँ। अधर्म का अर्थ है-स्वय को छोडकर १. धर्म सर्वश्रेष्ठ मगल है। (कौन सा धर्म ?) हिसा, संयम और तप। जिस मनुष्य का मन उक्त धर्म मे सदा सलग्न रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ महावीर परिचय और वाणी और कुछ भी पान का प्रयास । अधम या अय है-म्वय का छोडार अय पर प्टि। सच पूछि ता हमारी दष्टि सदा दूसरे पर रगी हाती है, यहां तक निम अपनी गरल भो रेयते हैं तो वह भी दूसर ये रिए। धम ता स्वय को सीधा चाहन से उन्पन होता है क्याकि धम या अथ है--स्वभाव, 'दि अस्टीमेट नेचर । (३) सात्र न पहा है वि दि अदर इ7 हेल , अयात यह जो दूसरा है वही नव है हमारा। 'दूसरा नक है, महावीर यह भी नहीं रहत, क्यादि इतना सहन म भी हमरे का चाहने की आकाक्षा और फिर निफरता छिपी है । दूसरा नर इमारिए मालूम पडना है यि हमन दूसरे को म्बा मातार खोज की। म दूसरे के पीछे गए माना वहा-उसके पाम-~-पग है। साग बहता है कि दूसरा नर है क्याधि उसम स्वग खोन की कोशिश पी गर है। जब स्नग नहीं मिलता तो वह व्यक्ति र मालूम पटता है। महावीर नहीं पहत विदूसरा नक है। यह जानना वि दूसरा नक है, दूसरे म स्वग का मानन स शिवार पड़ता है। अगर मैंन दूसरे से कमा सुम नही चाहा नो मुये दूसरे स कमी दुर नहा मिट सकता। हमारी अपेक्षाएं ही दुस बनती है । अपनाआ का भ्रम जब टूटता है तब निराशा हाथ लगती है। इसलिए दमरा नक नहा है। चनि तुमन दूमर को स्वग माना, इसलिए दूसरा नप हो जाता है। लेकिन तुम तो स्वय स्वग हो । स्वय को स्वग मानन को रूरत नहीं है । स्वय का म्वग होना स्वभाव है। महावीर का वक्त य बहुन पासिटिव है। वे कहते हैं धम मगल है स्वभाव मगल है, स्वय का होना मान है और स्वयं को मानने की जररत नहीं है कि मा है। ध्यान रह, मानना हमे यही पडता है जहाँ नही हाता । कल्पनाएं हम वहा करनी होती है जहा कि सत्य कुछ और है। स्त्रय को सत्य धम या मानद मानने की जरूरत नहीं है । म्यय म है मोग-यह तन दिखाई पडना शुरू हाता है, जब ध्यान वी चारा दूमर से हट जाती है और स्वय पर लौट जाती है। (४) महावीर की यह घोपणा कि धम मगर है, कोई परिसत्पनात्मक सिद्धात नहा है और न यह कोई दासनिस स्तम है। जिन अब म होगा, काटा बट्रेड ग्मर दानिक हैं उम अथ म महावीर दाशनिय नहीं हैं । महावीर का यह वक्तव्य मिफ एक अनुभव एक तथ्य की सूचना है। महावीर सोचत नहा कि धम मगर है वानते हैं कि घम मगल है। अगर पश्चिम म विसी दाशनिक' ने यह कहा हाना तो दूसरा वक्त य हाता--क्या? हाई ? लेकिन महावीर का दूसरा वक्तव्य ह्वाई या नहीं, ह्वाट का उत्तर देता है । वे कहत हैं-धम मगल है । कौन सा पम? लाहिंसा स तमो तथा । यदि अरस्तु ऐसा महता तो वह तत्काल बताता कि मैं घम मा मगल क्या कहता है। महावीर कोई कारण नहा देत । वस्तुन अनुभूति ५ लिए कोई प्रमाण नहा हाता, सिद्धान्ता के लिए तक और प्रमाण हाते हैं ! Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महावीर : परिचय और वाणी (५) महावीर-जैसे लोग प्रमाण नही देते, सिर्फ वक्तव्य देते है। उनके वक्तव्य वैसे ही वक्तव्य हैं जैसे आइस्टीन के या किसी और वैज्ञानिक के। अगर हम आइस्टीन से पूछते कि पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से मिलकर क्यो वना है, तो वह कहता कि क्यो का सवाल नही है, हम इतना ही कह सकते है कि वह बना है, ऐसा हुआ है। विज्ञान दूसरे के, अर्थात् पर के, सम्बन्ध मे वक्तव्य देता है, धर्म स्वय के सम्बन्ध मे। क्या आपको पता है कि जब भी आपके जीवन मे कोई दुख आता है तो दूसरे के द्वारा ही आता है ? चिन्ता भीतर से नही, बाहर से आती मालूम पडती है। क्या कभी आप भीतर से चिन्तित हुए है ? आपकी चिन्ता का केन्द्र सदा वाहर रहा है । वह धन हो, वीमार मित्र हो, टूटती हुई दुकान हो, हारा हुआ चुनाव हो, कुछ भी हो वह सदा दूसरा ही होता है । (६) कभी-कभी ऐसा लगता है कि दूसरा सुख का भी कारण बनता है। इस भ्रान्ति का टूट जाना जरूरी है। इसी से सव उपद्रव शुरू होते है । ऐसा तो लगता ही है कि दूसरा दुख का कारण है, लेकिन ऐसा भी लगता है कि दूसरो से सुख मिल सकता है। सुख भी दूसरो से आते मालूम पडते है। ध्यान रखे कि दूसरो से दुख मिलने का कारण यही है कि हम दूसरो से सुख की आशा करते है। दूसरी से दुख आता ही इसलिए है कि हमने उनसे एक भ्रान्ति का सम्बन्ध बना रखा है और समझ रखा है कि उनसे सुख आ सकता है। सुख का आना सदा भविष्य मे होता है। क्या कभी आपने जाना कि दूसरे से सुख आ रहा है ? सदा ऐसा लगता है कि आएगा, आता कभी नही। जिस मकान के लिए लालसा थी और कभी लगता था कि उसके मिल जाने से सुख मिलेगा, उसके मिलते ही सुख गायव हो जाता है। जब तक वह नहीं मिलता तब तक सुख की सम्भावना रहती है । यही बात अन्य चीजो पर भी लागू होती है। जिस दिन आपकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जायेंगी उस दिन पृथ्वी कितनी दुखी हो जायगी | इसलिए जिस मुल्क मे मुख की जितनी मुविधाएँ वढती है उसमे उतना ही दुख भी वढता है । गरीव मुल्क कम दुखी होते है। मेरे इस कथन से आपको थोडी हैरानी होगी, लेकिन यह न भूले कि गरीव कम दुखी होता है, क्योकि अभी उसकी आशाओ का पूरा का पूरा जाल जीवित है-अभी वह अपनी आशाओ मे जी सकता है, वह अभी सपने देख सकता है। वर्तमान मे सदा दुख है दूसरे के साथ । दूसरे के साथ सुख होता है सिर्फ . भविष्य मे। अगर सारा भविष्य नष्ट हो जाय और जो-जो भविष्य मे मिलना चाहिए वह आपको अभी, इसी क्षण मिल जाय, तो आप सिवा आत्महत्या करने के कुछ भी नही कर सकेंगे। इसलिए जितना सुख वढता है, उतनी आत्महत्याएँ बढती Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ महावीर परिचय और वाणी हैं। महावीर अपने घर म नितने दुसी हुए, उनके घर के मामने भीख मागनवाया मिनारी भी उनना दुसी न था। महावीर का दुस इस बात से पैदा हुआ है कि उस युग मजा भी मिल सकता था वह मिरा हुमा था। इन रिए कोइ भविष्य नहा बचा था। जन भविष्य बचे वा सपन कहा सटा कीजिएगा? जर भविष्य न बच तो कागज की नाव विस सागर में चलाइएगा ? भविष्य में सागर में ही चलती है कागज का नाय । अगर भविष्य न बच ता किम भूमि पर ताशा का भवन बनाइगार अगर तागा का भवन बनाना हा तो भविष्य की नाव चाहिए। (७) हम भी अनुमव है एकिन हम पीछे लौटकर नहीं देखत । हम आगे हो दखे चले जाते हैं। जा आदमी आगे ही देखे चला जाता है वह कभी धार्मिक नही हो सकेगा। उस अनुभव स कोई लाभ न होगा। भविष्य म साई अनुभव नहीं है अनुभव तो अतीत म है। आदमी की स्मृति भी बहुत अदभुत है । उसे खयार नहीं रहता कि जिस कपडे का गा विण्डो म दपकर उसे क्तिना गुनगुदी मालूम पडी थी, वही जब उसके शरीर परहाता है तब उनम कोई प्राति घटित नहीं हाती कोइ स्वग उतर) नहा आता | वह उतना का उतना ही दुग्ला रहता है। हा जब दूसरी दुकान का" गा विण्डो में उसका मुख रट जाता है। अव दुमरी दुवान की शो विण्डा उसकी नाद सराव कर देती है। पाछे लाटकर अगर दखें तो आप पाएंगे कि आपन जिनजिन सुसा की कामना की भी व सभी दुस सिद्ध हो गए। थाप एक भी ऐसा सुख नहीं बता सक्त जिसकी आपन कामना का थी और जो मिरने पर सचमुच मुस सिद्ध हुआ हो। आश्चय है कि आदमा फिर भी वही पुनरक्ति विए चला जाता है और कर के लिए पहली-जसी योजनाएं बनाता है। वह जिस गडढ म कर गिरा था आज फिर उसी की तलाश करता है। ऐसा नहीं कि वह केवल पर ही गिरा था । वह रोज रोज गिरता है फिर भी उसकी भ्राति नही टूटती । (८) असल म दूसरा पटक्ता है ता हम हसत है लेकिन हम अपने काही पगते चर जाते हैं। जिनगी भर ऐसा ही चरता है और आसिर म दुस क घाव के अतिरिक्त हमारी कोइ उप निहा होती । घाव ही घाव रह जात हैं। इतना हम जानत है कि अधम अमगर है और अवम का मतत्व समझ लेनादूमरे में सुख पाा को आयामा । दुख हो अमगर है। और कोई समगल नहीं। जब भी दुय मिले ता जाप जानना कि आपन दूसर से कहा सुख पाना चाहा था। भार म अपने शरीर से ही गुम पाना चाहूँ ता भी मुये दुस ही मिलेगा--वर वामारी आयगी गरीर माण होगा चूना होगा परसा मरगा। यह शरीर जो इतना निनट मारम हाता है, पराया है। महावीर कहत यदि शिसस भी दुस मिल, जानना कि वह और है वह तुम नहा हो। (८) मुस अपरिजित है, क्याकि हमारा सारा परिचय 'पुर । ह दूसरे से Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महावीर : परिचय और वाणी है। सुख सिर्फ कल्पना मे ही एक अनुभव है। लेकिन दुख, जो कि अनुभूत है, हम भुलाए जाते हैं और मुख, जो कि कल्पना है, हमे खीचे चला जाता है । महावीर का यह सूत्र इस पूरी बात को बदल देना चाहता है। धर्म मगल है। मानन्द की तलाग स्वभाव मे है। आपके जीवन मे कभी अगर आनन्द की कोई छोटी-मोटी किरण उतरी होगी, तो वह तभी उतरी होगी जब आप जाने-अनजाने किसी भॉति __ एक क्षण के लिए स्वय से सवद्ध होगे। (१०) एक पत्नी को बदलकर दूसरी पत्नी के साथ जो क्षण भर का नुख मिलता है, वह सिर्फ वदलाहट का मुख है। वदलाहट का सुख भी सिर्फ इसलिए कि दो चीजो के वीच से क्षण भर के लिए आपको अपने भीतर से गुजरना पडता है । अनिवार्य है कि जब मैं एक से टूटू और दूसरे से जुई, तो टूटने और जुड़ने के बीच मे जो गैप या अन्तराल है, उसमे कही तो रहूँगा। उसमे मैं अपने मे रहूँगा। वही अपने मे रहने का क्षण प्रतिफलित होगा और लगेगा कि दूसरे से सुख मिला। सभी बदलाहट अच्छी लगती है। बस, वदलाहट का-यानी 'चेन्ज' का जो सुख है, वह क्षण भर के लिए अचानक अपने से गुजर जाने का सुख है। इसलिए आदमी शहर से जगल भागता है, भारत से यूरप जाता है और यूरप से भारत आता है । (११) समी बदलाहटे आपके भीतर एक ऐसी स्थिति ला देती है कि आपको अनिवार्यरूपेण कुछ देर के लिए अपने भीतर से गुजरना पडता है। उसका ही प्रतिविम्ब आपको सुख मालूम पडता है। अपने भीतर से क्षण भर गुजरते ही यदि आप सुखी हो जाते हैं तो जो सदा अपने भीतर जीने लगता है, उसके सुख की क्या सीमा होगी। _ आधा सत्य हमारे पास है कि 'दूसरा' ही दुख है। कामना दुख है, वासना भी दुख है, क्योकि कामना और वासना सदा दूसरे की तरफ दौड़ानेवाले होते है । वासना का अर्थ है-दूसरे की तरफ दौडती हुई चेतन-धारा, भविप्य की ओर उन्मुख जीवन की नोका। अगर दूसरा दुख है तो उसकी ओर ले जानेवाला जो सेतु है, वह नर्क का सेतु है । उसको महावीर वासना कहते हैं। वही बुद्ध के लिए तृष्णा है । वासना का न दीडना आत्मा का हो जाना है। आत्मा उस शक्ति का नाम है जो अपने मे खडी है। अहिंसा, सयम और तप दौडती हुई ऊर्जा को ठहराने की विधियो के नाम हैं। धर्म के दो रूप है। धर्म स्वभाव है और धर्म विधि है स्वभाव तक पहुँचाने की। धर्म का जो आत्यन्तिक रूप है वह है स्वभाव, स्वधर्म । चूंकि हम स्वभाव से भटक गए है, इसलिए यह कहने की जरूरत पड़ती है। स्वस्थ व्यक्ति चिकित्सक से नहीं पूछता कि मैं स्वस्थ हूँ या नहीं। ( १२) धर्म का परम सूत्र है स्वभाव । अहिंसा धर्म की आत्मा है, केन्द्र है । तप धर्म की परिधि हे और सयम केन्द्र को Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २५३ परिधि से जोडनेवाला सेतु है । अहिंसा जात्मा है तप शरीर है और सयम प्राण है, यह दोना कता है साँस है । साम टूट जाय तो शरीर होगा आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होग। सयम टूट जाय ता तप हो सकता है अहिमा भी हो सकती है, लेकिन धम नही हो सकता । महावीर को दष्टि मे अहिंसा धर्म की आत्मा है । अगर हम महावीर से पूछें कि एक ही शब्द भ यह बता दें कि धम क्या है, तो वह हिमा । दूसरे लोग कहगे - परमात्मा, आत्मा सवा, यान समाधि याग, पूजा प्राथना आदि-आदि । किन महावीर के लिए धर्म का पर्याय है अहिंसा पर महावीर की अहिंसा वह बचकानी हिमानी है जो उनके माननवाले समझते रह ह । ( १३ ) धम की परिभाषा स्वभाव है। महावीर यह नहा वहग वि दूसरे का सुख देना ही धर्म है क्योकि इससे दूसरा जा खड़ा होता है। महावीर कहत है कि धम तो वही है जहाँ दूसरा है ही नहीं । दूसरे को दुस मत दो-यह भी महावीर की परिभाषा नहीं हो सक्ती वारण महावीर मानन वो तैयार नहीं कि हम दूसरे का दुस दे सकत है जब तक दूसरा लना ही न चाहे । यह भान्ति है कि मैं दूसर का दुसद सकता हूँ | यह भ्राति इस पर सड़ी है कि में दूसरे से दुस पा सकता है । मैं दूसरे से सपा सपना है, मैं दूसर को सुप्स दे सकता हूँ--य सब भ्रान्तियाँ एव ही आधार पर खड़ी हैं। क्या फाई महावीर को दुस द सकता है ही, आप महावीर का दुख ही दे सक्त, क्याकि वे दुस लेने को तयार नही हैं। आप उसी को दुम दे सकते हैं जो दुस लेने को तयार हा । आप यह जानकर हैरान हाने कि आप हमेशा दुख लेने को उत्सुर रहत है । अगर कोई आदमी आपकी चौबीसा घटे प्रशसा करे तो आपको सुप नहीं मिलेगा कि अगर वह एक गाली द द तो आप आजीवन दुखी रहगे । आपकी बरमा सेवा करे आपका सुख नही मिलेगा, लेकिन एव दिन वह आपके पि एवं शब्द बाल दे तो आप बहद दुखी हा जायेंगे, उसकी सारी सवा व्यथ हायगी । इमसे क्या सिद्ध होता है ? ? (१८) इसस यही सिद्ध होता है कि आप सुख देने को उतना आतुर नहीं है जितना दुस ने को। यानी आपनी उत्सुक्ता जितनी दुग लेन ग है उननी सुख लेने म नहीं है । अगर मुझे किसी न उनीस बार नमस्कार किया और एक बार नमस्कार नहीं दिया तो उतीन वार के नमस्कार से मैंन जितना सुख ही लिया है उससे अधिक दुस एव वार व नमस्कार न करने से लेता है । जाश्चय है । हम दुस के लिए जो इतन सवदनगीर है, उसका कारण क्या है ? उसका कारण यह है वि हम दूसरा मे सुस चाहत हैं । इतना ज्यादा कि वही चाह हमारे दुस वा द्वार बन जाती है। महावीर नहीं वह सक्त कि अहिंसा का अय है दूसरे को दुख न दना । दूसरे का कौन दुस द सकता है अगर दूसरा लेना चाह तो ? जा ऐना Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महावीर : परिचय और वाणी चाहता है उसको कोई न भी दे तो भी वह ले लेगा--यह भी मैं आपसे कह देना चाहता हूँ। (१५) जितने दुख आपको मिल रहे है, उनमे से ९९ प्रतिगत आपके आविप्रकार है । जरा सोचे, किस-किस तरह आप आविष्कार करते है दुख का ! असल मे विना दुखी हुए आप रह नही सकते । दुख भी जीने के लिए काफी वहाना है। देखते है न कि दुखी लोग कितने रस से जीते है और अपने दुख की कथा कितने रस से कहते है और उसे किस प्रकार वढा-चढ़ाकर सुनाते हैं ! यदि मुई लग जाय तो तलवार से कम नही लगती वह उन्हे ! (१६) वे अपनी सारी इन्द्रियो को चारो तरफ सजग रखते है एक ही काम के लिए कि कही से दुख आ रहा हो तो चूक न जाएँ, उसे जल्दी से ले ले । कही अवसर न खो जाय ! यही दुख हमारे जीने की वजह है । तो महावीर की अहिंसा का अर्थ यह नहीं है कि दूसरे को दुख मत देना । महावीर तो कहते है कि दूसरे को न तो कोई दुख दे सकता है और न कोई सुख दे सकता है। महावीर की अहिंसा का यह भी अर्थ नहीं है कि दूसरे को मार मत डालना । महावीर भलीभॉति जानते है कि इस जगत मे कौन किसको मार सकता है ? मृत्यु असम्भव है। (१७) लेकिन महावीर के पीछे चलनेवालो ने अत्यन्त साधारण परिभाषाओ का ढेर इकट्ठा कर लिया है । क्या अहिंसा का अर्थ यही है कि मुंह मे पट्टी बाँध ली जाय ? अहिसा का अर्थ यही है कि रात मे पानी न पिया जाय ? यह सव ठीक है; मुंह पर पट्टी बाँधने मे या पानी छानकर पीने मे कोई हर्ज नहीं है। लेकिन इस भ्रम मे न रहिए कि आप किसी को मार सकते है। किसी को दुख मत दीजिए, लेकिन इस भ्रम मे भी न रहिए कि आप किसी को दुख दे सकते है। मैं यह नही कहता कि आप जाएँ और मार-पीट करे (क्योकि मार तो कोई सकता नही) । मैं आप से यह नहीं कह रहा हूँ। महावीर की अहिमा का अर्थ यह नहीं है । महावीर के लिए अहिंसा वही अर्थ रखती है जो बद्ध के लिए तथाता रखती थी। तथाता का अर्थ है 'टोटल ऐक्सेप्टिविल्टिी ' ! जो जैसा है, वह वैसा ही हमे स्वीकार है। हम उसमे कुछ हेर-फेर नही करेगे । मान लीजिए कि एक चीटी चल रही है रास्ते पर । हम कौन है जो उसके रास्ते मे किसी तरह का हेर-फेर करने जाएँ ? शायद वह अपने बच्चो के लिए भोजन जुटाने मे लगी है। हो सकता है, योजनाओ का उसका निजी जगत् हो । महावीर कहते है कि मैं अपनी ओर से उसके वीच मे न आऊ । जरूरी नहीं है कि मै ही चीटी पर पैर रखू तो वह मरे । चीटी खुद मेरे पैर के नीचे आकर मर सकती है। यह चीटी जाने और उसकी योजना जाने । योजना छोटी नही है, यह जन्मो-जन्मो की है, कर्मों का विस्तार है। चीटी के अपने कर्मो और फलो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २५५ की लम्बी याना है। मैं किसी की यायाम किसी भी कारण बाधा न वनू । मैं चप चाप अपनी पगडडी पर चलता रहूँ । मैं ऐसा हो जाऊँ जसे है ही नहीं। (१८) महावीर की अहिंसा का यही गहनतम अर्थ है--में ऐसा हो जाऊँ जस मैं हूँ ही नहीं। मेरी उपस्थिति कही प्रगाढ न हो जाय, मेग होना कही किमी के होन में जरा सा भी अडचन और व्यवधान न बने । मैं जीते जी मर लाऊँ। __ अपनी उपस्थिति का अनुमय परवाना ही महावीर की दष्टि में हिंसा है। जब मैं चाहूँगा कि आप मेरी उपस्थिति का अनुभव पर ता मैं यह भी चाहूंगा कि थापकी उपस्थिति का मुझे पता न चले। मरी उपस्थिति का आपदा पता चले, यह तभी हो सकता है जब मैं आपको उपस्थिति का एम मिटा दू जस आप हैं ही नहीं । हम सबकी कोशिश यही होती है कि दूसरे को उपस्थिति मिट जाय और हमारी उपस्थिति कायम रहे लोगा का महसूस हो-यही हिसा है। अहिंसा इसके विपरीत है। दूसरा उपस्थित हो और इतनी छिी तरह उप स्थित हो कि मेरी उपस्थिति से उसकी उपस्थिति म कोई बाधा न पड़े। अहिंसा का गहन अथ यही है-~-अनुपस्थित व्यक्तित्व । चाहे हम हीरे का हार पहन कर खडे हा गए हो मा हमन लाखा क वस्य डार रसे हा या हम नग्न पडे हो गए हा-हमारी कोशिश यही है कि दूसरा अनुभव पर कि मैं हूँ। मैं चन से बैठने नहीं दूगा । आपका मानना ही पडेगा कि म हूँ 1 छोटे-छोटे बच्चे भी ऐसा हिंसा म निष्णात होना शुरू हो जाते हैं और मेहमाना के सामने अपन हान की पापणा दिए बिना नहीं रहते। इसका कारण यह है कि हमारा पूरा-या पूरा आयोजन, हमारा पूरा समाज हमारी पूरी सम्वृति अहवार पर निर्मित है, अधम की नीव पर खड़ी है। (१९२०) अहिंसक वह है जो परिवतन के लिए जरा भी चेष्टा नहा करता। उसके लिए जो हो रहा है वह ठीक है। जीवन रहे ता ठीक, मृत्यु आ जाए ता ठी । हमारी हिंसा किस बात से पदा हाती है ? इसस यि जो हो रहा है वह नहा, जो हम चाहते हैं वह हा । इसलिए जिस युग म परिवतन का जितनी ज्यादा भावाभा भरती है, वह यग उतना ही हिंसक हाता चल जाता है। (२१) महावार की अहिंसा या अथ यह है कि जो है उसके लिए हम राती हैं। कोई वदलहट नहीं करनी है। आपने चांटा मार दिया, ठीक है हम राजी हैं । हम अब कुछ भी नही करना है, बात समाप्त हा गट। हमारा याई प्रत्युत्तर नहीं है । जाजम पहते ह दूसरा गार मामने पर दो। महावीर इतना भी नहीं कहत, क्यावि दूसरा गा सागन करना भी एक उत्तर है । महावीर कहत है कि परना ही हिमा है कम ही हिंसा है जपम अहिंसा । तुम चुपचाप गुरते जाना। पानी म रहर उठतो है उसे मिटानी नहा पडती, वह अपने आप मिट जाती है । इस जगत म जा Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महावीर : परिचय और वाणी तुम्हारे चारो तरफ हो रहा है, उसे होने देना - वह अपने आप उठेगा और गर जायगा । उसके उठने और गिरने के नियम है। तुम बीच मे व्यर्थ मत जाना । (२२) लाओत्से ने कहा है कि श्रेष्टनम अग्राद वह में जिसकी प्रजा को पता ही नही चलता कि वह है भी या नही । महावीर की असा का वयं है--ऐगे हो जाओ कि तुम्हारे होने का पता ही न चले । लेकिन हमारी सारी चेष्टा यह दिखाने में लगी है कि हम भी कुछ है। हम चाहते है कि नारी दुनिया का ध्यान हम पर ही केन्द्रित के सभी हमे दे । यहीं हिमा है | पूरे वक्त हमारा यह चाहना कि ऐसा हो, ऐसा न हो, हिता है । यदि हम दौड रहे है कि वह मकान मिले, वह वन-यन और पद मिले, तो हमे हिंसा में गुजरना ही पडेगा । वासना हिंगा के बिना नहीं हो सकती । सलिए समझिए कि आदमी जितना वासनागरत है, वह उतना ही हिंसक भी है, वह जितना बासनामुक्त है, उतना ही अहिंसक भी। यदि आपमें मोक्ष पाने की वासना है तो आपकी अहिना भी हिंसक हो जायगी । बहुत से लोगो की अहिंसा हिमक है । जहिता भी हिंसक हो सकती है । जो मोक्ष की वासना से अहिंसा के पीछे जायगा, उसको प्रहिसा हिसक हो जायगी । इनलिए तथाकथित अर्हिमक नावको को अहिनक नही कहा जा सकता । महावीर कहते है कि पाने को कुछ भी नहीं है । जो पाने योग्य है, वह पाया ही हुआ है । वदलने को कुछ भी नही है, क्योंकि यह जगत् अपने ही नियमो से बदलता रहता है । क्रान्ति करने का कोई कारण नहीं है, कान्ति होती ही रहती है । कोई क्रान्ति-वान्ति करता नहीं, कान्ति होती ही रहती है । लेकिन क्रान्तिकारी को ऐना लगता है कि वह क्रान्ति कर रहा है। उसका यह दावा उन तिनके के दावे की तरह हे जो सयोग से सागर की एक बड़ी लहर पर चढ जाता है और कहता है कि लहर मैंने ही उठाई है 1 Se Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचम अध्याय जीवेपणा और महावीर की अहिंसा अहिंमा ममय चेव, एयावन्त नियाणिया ।। --सू० श्रु० १ ० ११, गा० १० (१) हिंसा पैदा ही क्या होता है ? हिंमा जन्म के साथ ही क्या जुडी है ? जिसे हम जीवन रहते हैं वह हिंसा का ही तो विस्तार है । ऐसा क्या ? पहली बात, और अत्यधिक जाधारभूत वात-वह है जीवेपणा । जीने की जो आकाक्षा है, उससे ही हिमा जम रेती है। अकारण भी हम जीने को आतुर । जीवन से कुछ परित न भी होता हो तो भी जीना चाहते हैं। जीन का एक अत्य त पागल और विक्षिप्त माव है हमारे मन म । मरने आखिरी क्षण तक भी हम जीना हा चाहत है दूसरे जीवन के मूल्य पर भी जीना चाहते है । जीवेपणा की इस विक्षिप्तता से ही हिंसा के मय रूप जमलेत हैं। (२) महावीर यही पूछते हैं कि जीना क्या है ? बडा गहन सवार उटात हैं। मप्टि किसन रची, माक्ष कहां है. ये सवाल नायद इतने गहरे नहा हैं । महावीर पूटने हैं-जीना ही क्या है ? इसी प्रश्न से महावीर का सारा चिता और सारी माधना निकलती है। महावीर कहत ह पिजीन की यह बात ही पागलपन है। जीने की इस आवाक्षा मनीवन बचता हा ऐमा नहा है क्बर दूसरा क जीवन को नष्ट करने की दौड पता होती है। जीवन बच पाता, तो मी ठीक था । वचंता भी नहीं है। अन्तत मौत हा दाथ रगती है। महावीर पहल हैं कि ऐसे जीवन में पागलपन को मैं छाडता निगवे रिए मैं दूमरा के जीवन का नष्ट करने के लिए तयार हाता हूँ और अपना वचा भी नहीं पाता । जो व्यक्ति जोयेपणा छोड़ देता है, यही महिसक हो सकता है। र उसम जीन या कोई आग्रह नहीं रहता तब वह किसी 4 विनाश के लिए भी गती नहीं होता। रविन इसका यह अथ नहा कि महावीर मरने को आकाक्षा रसते थे। प्रॉयड यहता था कि जिालागा यी जीवेपणा रण हा नाती है व फिर मृत्यु की जाकाक्षा . १ अहिंसा को हो गास्नकथित माश्यत धम समाना चाहिए। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ महावीर : परिचय जोर वाणी मे भर जाते हैं। लेकिन फ्रॉयड की नमल उतनी गहरी नहीं है जितनी महावीर की है । महावीर कहते ह कि आत्महत्या करनेवाला भी जीवेपणा ने ही पीड़ित रहता है। (३) इसे थोडा समझना पडेगा । कभी आपने किनी ऐने आदमी को आत्महत्या करते देखा है जिसकी जीवेपणा नष्ट हो गई हो? नहीं । मैं किसी स्त्री को चाहना हूँ और जब वह नहीं मिलती तो मैं आत्महत्या के लिए तैयार हो जाता हूँ। अगर वह मुझे मिल जाय तो मै आत्महत्या न करें। मैं चाहता हूँ कि बडे नम्मान, यन और इज्जत के साथ जीऊँ। मेरी इज्जत चली जाती है, प्रतिष्ठा मिट जाती है, तो मैं आत्महत्या करने को तत्पर हो जाता हूँ। मेरी प्रतिप्टा वापन लोट आए तो मैं मौत के आखिरी किनारे से वापस लौट सकता हूँ। महावीर कहते है कि यह मृत्यु की आकाक्षा नहीं हे, जीवन का प्रवल आग्रह है कि मैं इस टग ने जीऊँ। मगर यह ढग मुझे नही मिलता तो मैं मर जाऊँगा । मैं इन न्नी, इस धन, म भवन, इस पद के साथ ही जीऊँगा, अन्यथा नहीं । जीने की आकाक्षा ने एक दिगिप्ट आग्रह पकड लिया है । ___महावीर इस जगत् मे अकेले चिन्तक हे जिन्होने कहा कि मैं तुम्हे मरने की नी आज्ञा दूंगा, अगर तुममे जीवेपणा विलकुल न हो । (४) महावीर ने सथारा की आज्ञा दी। उन्होने कहा कि किसी व्यक्ति में अगर जीवन की आकांक्षा शून्य हो गई हो, तो वह मृत्यु मे प्रवेग कर सकता है । लेकिन पहले वह भोजन और पानी छोड दे---भोजन और पानी छोडकर भी आदमी ९० दिन तक नही मरता। जितनी भी आत्महत्याएं की जाती है, वे क्षण के आवेश मे की जाती है। क्षण खो जाय तो आत्महत्या नही हो सकती। महावीर ध्यानपूर्वक मर जाने की आज्ञा देते है और कहते है कि भोजन-पानी छोड देना ९० दिन । अगर उस आदमी मे थोडी भी जीवेपणा होगी तो वह भाग खडा होगा। अगर जीवेषणा बिलकुल न होगी तो वह ९० दिन रुक सकेगा। फ्रॉयड को माननेवाले मनोवैज्ञानिक कहेगे कि महावीर मे कही-न-कही आत्महत्यावाले तत्त्व अवश्य थे। लेकिन मैं आपसे कहता हूँ कि बात ऐमी नही है। असल मे जिस व्यक्ति मे जीवेषणा नही है, उसमे मरने की भी एपणा न होगी। मृत्यु की एपणा जीवेपणा का दूसरा पहलू है ( विरोधी नही, उसी का अग है ) । इसलिए महावीर ने मृत्यु की कोई चेष्टा नही की। महावीर के अनुसार मथारा का अर्थ आत्महत्या नहीं, बल्कि जीवेपणा का इतना खो जाना है कि पता ही न चले और व्यक्ति शून्य मे लीन हो जाय । आत्महत्या की इच्छा नही, क्योकि जहाँ तक इच्छा है, वहाँ तक जीवन की भी इच्छा होगी। मृत्यु की इच्छा मे ही जीवन की इच्छा भी छिपी होती है। महावीर कोई आत्मघाती नहीं हैं, ससार के सबसे बडे आत्मज्ञानी है। (५) लेकिन यह वात जरूर है कि अनेक आत्मघाती उनके विचार मे उत्सुक हुए Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २५९ को उहात महावीर में पीछे एप ग्मी परम्परा मही की जिसमा महावीर ग माई मम्य प नहा है। जीपा की आरामा त्याग 7 | साग महावीर ये परीव नही भात मग्न मी नारामासारण य उनर निपट आए । जो मरा ची इच्छा म आए ये महावीर पी परम्परा म बात अग्रणी हो गए । ग्पनावत जो मग्न यो मार है उगा नाहन म काई असुरिधा नहा हाती। पर इमग महावीर रिसर को आज या दुनिया म पाम बडी पटिगा हा गड, क्यापि गएम पागापि मापीर या चितन आत्मपीडा के लिए है जो अपन मतानकार है । ऐयिा महागीर मलि हुए यमर जम गरीर पादार एमा ना रगता EिT आणी ने अपनी जाग गाय ज्यादापीहा। महावीर रच पर भी आमपो थरिन छाप पोछे मालपीन्या पी म्बी परम्परा हाग हो गट, या मर गई। (6) मावार पो प्टि म जा म्बय पामता है यह ना दूगर या सा है, पापि यह परमपिर पर रता है। पररीर या मतास“गता है पारि गा दागहै। पर रार जो मर जापाम, उतना तो दूारा है मर दिए FTII मापारीर ॥ जरा दूर । भरा यह गरीर ना ही दूगरा जितना आपागर । पर गिर इतना है कि अपने शरीर या गाल पर पाई पाती मापोगी, गाई निरा बापा Tी बनगी । गरि जाशियारप मजान पा मग अपनी पगरा मतापर है। तिगामा मना EिTT दमा पानिमा म्यामोगा। या परिव दर में जाना fm पागप सप र पा अगर मग पा गामि दूसरे नीला पाट Tu TT ।नौर रोरा पिपा ' मारियाना बपना प्राम है। गायी उप्रान मायारा fmrTI भारा पानापाना है। TATEL जी { PAIR TIRITERTAI+ मय तु या गान मामा माTETTI FILTET पगारो स्याहार पाहिमा तु PMTAmirI TERI अचार परामरा F7.रामराम बस TATला AT मापन 1 rrrrent tranर र रमारम: 7 मा rTTER Erm fuTR पानि 172TI TITरानीपा परमार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० महावीर : परिचय और वाणी नही रह जाता जो मेरे जीवन को चोट पहुंचाता है। मेरे जीवन को चोट पहुँचा कर कोई क्या कर सकता है ? मृत्यु तो होने ही वाली है, वह मिर्फ निमित्त बन सकता है। अगर कोई आपकी हत्या भी कर जाय तो वह सिर्फ निमित्त है, कारण नहीं । कारण तो मृत्यु है, जो जीवन के भीतर ही छिपी है। जो होने ही वाला था, उनमें वह सहयोगी हो गया। इसलिए उस पर नाराज होने की भी कोई जररत नहीं। ___ महावीर कहते हैं कि मृत्यु को अगीकार करो, इसलिए नहीं कि मृत्यु कोई महत्त्वपूर्ण चीज है, बल्कि इसलिए कि वह विलकुल ही मामूली चीज है । जब जीवन ही साधारण और महत्त्वहीन है तब फिर मृत्यु महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकती है ? आप जितना मूल्य जीवन को देते हैं, उतना ही मूल्य मृत्यु मे स्थापित हो जाता है और ध्यान रहे कि जितना मूल्य मृत्यु मे स्थापित हो जाता है, उतने ही आप मुश्किल में पड़ जाते है। महावीर कहते है कि जब जीवन का कोई मूल्य नहीं तय मृत्यु का भी मूल्य समाप्त हो जाता है। जिसके चित्त मे न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का, क्या वह आपको मारने जायगा ? क्या वह आपको सताने मे रस लेगा? (७) जिसके लिए जीवन ही निर्मूल्य है, उसके लिए महल का कोई मूल्य होगा? जीवन का मूल्य शून्य हुआ कि सारे विस्तार का मूल्य शून्य हो जाता है, सारी माया ढह जाती है। जितना लगता था कि जीवन को बचाऊँ, उतना मृत्यु से वचने का सवाल उठता था। जीवेपणा इसलिए बाधा है कि इसके चक्कर मे आप वास्तविक जीवन की खोज से वचित रह जाते है। (८) महावीर कहते है कि जीवेपणा जीवन की वास्तविक तलाश से हमे वत्रित कर देती है। वह सिर्फ मरने से बचने का इन्तजाम बन जाती है, अमृत को जानने का नही । महावीर मृत्युवादी नहीं है। वे जीवेपणा की इस दौड को रोकते ही इसलिए है कि हम उस परम जीवन को जान सके जिसे बचाने की कोई जरूरत नही है-जो वचा ही हुआ है। (९) हिमा दूसरे को भयभीत करती है। आप अपने को बचाते है, दूसरे मे भय पैदा करके । महावीर कहते है कि सिर्फ अहितक ही अभय को उपलब्ध हो सकता है । जिसने अभय नही जाना, वह अमृत को कैसे जानेगा? भय को जाननेवाला मृत्यु को ही जानता रहता है। ___ महावीर की अहिसा का आधार है जीवेपणा से मुक्ति । जीवेषणा से मुक्ति मत्यु की एषणा से भी मुक्ति हो जाती है । लाओत्से ने जिसे 'टोटल ऐक्सेप्टिविलिटी' कहा है, उसे ही महावीर ने अहिंसा कहा है। जिसे सव स्वीकार है, वह हिंसक कैसे हो सकेगा ? (१०) जितने जोर से हम अपने को बचाना चाहते है, हमारा वस्तुओ का वचाव उतना ही प्रगाढ हो जाता है। जीवेषणा 'मेरे' का फैलाव बनती है। यह Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २६१ __ मरा है, य मेरे पिता हैं, यह मरा मा है यह मरी पनी है, यह मकान मरा है यह धन मेरा है-हम मर का एक जार सग करते हैं अपने चारा तरफ। उसे इसलिए बडा करते हैं कि उसके भीतर ही हमारा 'मैं' वच मरना है। मगर मेरा कोई मी नही ता में निपट अवेला महसूस करके बहुत भयभीत हा जाऊँगा। कोई मरा है तो सहारा है, सुरक्षा है। इसलिए जितनी ज्यादा चीजें आप इसकी कर लेते हैं आपकी अक्ड उतनी ही ज्यादा वर जाती है। (११) इम मरे के फलाव का महावीर हिमा कहते हैं। उनकी दष्टि म परिग्रह हिंमा है। उनका वस्तुआ से कोई विरोध नहीं है, पर इससे जरूर प्रयोजन है कि आपका उनम विनना मोह है किस हद तर आपने उन वस्तुमा को अपनी आत्मा बना रिया है। (१२) मालकियत के लिए हम इतने उत्सुक हैं कि अगर जिदा आदमी के हम मालिक हो सब तो उसे मारकर भी मालिक होना चाहते है। (१३) हमारे जीवन की अधिकतर हिंसा इमीलिए है । जब कोई अपनी पत्नी या मारिस होता है तब वह स्त्री तो प्राय न प्रतिशत मर ही जाती है। बिना मारे माठिप होमुश्किल है । अहिंसर की कोई मालवियत नही हो सकती। अगर योइ अपनी लगाटी पर भी मार वियत बनाता है तो यह हिंसक है। महल मेरा है और रंगाटी मेरी है दोना ये मूर म मालवियत या भाव है और मालकियत हिंसा है। इस रंगोटी पर भी गरदने क्ट सकती हैं। (१४) एक जन माधु | मेरे एक मित्र से 'अपने' महावीर को उस महावीर से भिन्न रहा है जिसके सम्म घ म मैं पालना रहा हूँ। 'अपने' महावीर । महावीर पर मा मालबियत ! यानी हिंमा का हम यहाँ तक भा नहीं छोड़ेंगे, पहेंगे कि यह धम मेरा है यह साम्य भरा है, जहाँ जहाँ मरा है वहा-यहाँ हिंसा है। इसे एसा रामावि नहिंसा मूग है आत्मा का जानन पा, क्यादि जब 'मेरे का सारा भाव गिर जाता तब फिर मैं ही बाता है बोर का नहा बचता। वचता है रिपट में'। और तभी व्यक्ति यह जान पाता है कि मैं क्या है कोई पहाँ से आया है यहां ऊँगा । तब रम्य व सार द्वार पर गात है। महावीर जपारप ही अहिंा या परम थम नहीं रहा है। परम पम पहा है इस दिन पूजी स जीवा य एम्पसार द्वार पर पत है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महावीर : परिचय और वाणी (१६) वे कहते है कि विचार की सम्पदा को भी अपना मानना हिंझा है, क्योकि जब भी आप किसी विचार को अपना कहते है, तभी आप सत्य से च्युत हो जाते है । जव भी मै कहता हूँ कि यह विचार मेरा है इसलिए ठीक है, तभी मैं सत्य से विलग हो जाता हूँ। (१७) जव हम कहते है कि यही है सत्य, तव हम यह नहीं कहते कि जो हम कह रहे हैं वह सत्य है, असल मे हम कहते है कि जो कह रहा है, वह सत्य है। जब हम सत्य है, तव हमारे विचार सत्य होगे ही। जगत् मे जितने विवाद है वे सत्य के विवाद नही है, 'मैं' के विवाद है । महावीर से अगर कोई विलकुल विपरीत वात भी कहता तो वे कहते--यह भी ठीक हो सकता है। ज्ञात इतिहास के पृष्ठो मे यह आदमी अकेला हे जो अपने विरोधी को भी ठीक कहता है। (१८) महावीर को इस बात का पता है कि ऐसी कोई भी चीज नही हो सकती जिसमे सत्य का कोई अश न हो। नही तो वह होती ही कैसे ?,स्वप्न भी सही है, क्योकि स्वप्न होता तो है । स्वप्न में क्या होता है वह सत्य भले न हो, लेकिन स्वप्न होता है, इतना तो सत्य है ही । असत्य का तो कोई अस्तित्व नही हो सकता। इसलिए महावीर ने किसी का विरोध नही किया। इसका अर्थ नही कि महावीर को सत्य का पता न था। महावीर को सत्य का पता था। लेकिन उनका चित्त इतना अनाग्रहपूर्ण था कि वे अपने सत्य मे विपरीत सत्य को भी समाविष्ट कर लेते थे । वे कहते थे कि सत्य इतनी बटी घटना है कि वह अपने से विपरीत को भी समाविप्ट कर सकता है। सत्य बहुत बड़ा है, सिर्फ असत्य छोटे-छोटे होते है। उनकी सीमा होती है । यही वजह है कि महावीर के विचार बहुत दूर तक, ज्यादा लोगों तक नही पहुँच सके । सभी लोग निश्चित वक्तव्य चाहते है, कोई सोचना नही चाहता। सव लोग उधार चाहते है । महावीर इतनी निश्चितता किसी को नहीं देते। (१९) वे कहते है कि दूसरा भी सही है । आग्रह मत करो, अनाग्रही हो जाओ। इसलिए महावीर ने किसी सिद्धान्त का आग्रह नही किया। उन्होने हर वक्तव्य के सामने स्यात् लगा दिया—'परहैप्स'। महावीर को पता है कि मोक्ष है, लेकिन उनको यह भी पता है कि अहिंसक वक्तव्य स्यात् के साथ ही हो सकता है। महावीर को यह भी पता है कि स्यात् कहने से शायद आप समझने को ज्यादा आसानी से तैयार हो जायँगे। अगर महावीर कहते कि मोक्ष है, तो वे जितना अकड़ से कहते, आपके भीतर तत्काल उतनी ही अकड प्रतिध्वनित होती और कहती--कौन कहता है कि मोक्ष है ? मोक्ष नहीं है, बिलकुल नही है । अगर कोई महावीर के प्रतिद्वद्वी गोशालक के पास जाता तो गोशालक कहता--महावीर गलत हैं, मैं सही हूँ। वही आदमी महावीर के पास आता तो महावीर कहते-गोशालक Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २६३ मही हो सकता है। अगर आप ही होते तो सोचिए आप गोशाला के पीछे जाते कि महावीर के पीछे ? मरा सयार है कि आप गोशारक के पोछ जाते । जि हाने दसा कि अनाग्रहपूण होना बडे माहस की बात है वे अपन बुद्धिमान लोग ही महावीर के पास आ सके । मैं बुद्धिमान उसे बहता है जो स य के सम्म प म अनाग्रह पूर्ण है। महावीर की अहिंसा का जो अन्तिम प्रयोग है वह अनाग्रहण विचार है. अथात् विचार भी मेरे नहा हैं । जिम विवार के साथ आर 'मेरे ला देंग, उसम भाग्रह जुड़ जायगा। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पष्ठ अध्याय समस्वरता और सम्यगाजीव जया व पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो ।' -दा० चू० १, गा० ४ एक मित्र ने पूछा है कि महावीर रास्ते से गुजरते हो और किसी प्राणी की हत्या हो रही हो तो महावीर क्या करेंगे ? किसी स्त्री के साथ बलात्कार की घटना घट रही हो तो महावीर क्या करेंगे ? क्या वे ऐसा व्यवहार करेने जैसे कि वे अनुपस्थित हो ? इस सम्बन्ध मे थोडी-सी वातें समझ लेनी चाहिए । एक तो यह कि हत्या मे हम जो देख पाते है, वह महावीर को दिलाई न देगा । जो महावीर को दिखाई पडेगा उसे हम देखने मे असमर्थ होगे । इस भेद को समझ लेना जरूरी है। हम मोचेंगे कि कोई मारा जा रहा है । लेकिन महावीर जानते हैं। कि जीवन का जो भी तत्त्व है वह मारा नही जा सकता, वह अमृत है । दूसरी बात- किसी की हत्या होते देख हम सोचते हैं कि मारनेवाला ही जिम्मेवार है, जबकि महावीर कहेंगे कि जो मारा जा रहा है वह भी बहुत गहरे अर्थो मे जिम्मेवार हैं, हो सक्ता है कि वह केवल अपने ही किए गए किसी कर्म का प्रतिफल पा रहा हो । (१) हमे मारनेवाला दोपी और मारा जानेवाला हमेशा निर्दोप मालूम पड़ता है । हमारी दया ओर करुणा उसी की तरफ बहेगी जो मारा जा रहा है । महावीर के लिए ऐसा जरूरी न होगा । उनकी दृष्टि बहुत गहरी है और वे जानते है कि कोई भी कर्म अपने मे पूरा नही है । हो सकता है कि जो मार रहा है वह केवल एक प्रतिकर्म पूरा कर रहा हो, क्योंकि इस जगत् में कोई अकारण नही मारा जाता । किसी का मारा जाना उसके ही कर्मो के फल की श्रृंखला का हिस्सा होता है । इसका यह अर्थ नही कि जो मार रहा है वह जिम्मेवार या दोपी नही है । लेकिन हमारे और महावीर के देखने मे फर्क पडेगा । जब भी हम देखते है कि कोई मारा जा रहा है, तो सोचते है कि निश्चित ही पाप हो रहा है, वुरा हो रहा है, कारण कि हमारी दृष्टि बहुत सीमित है । महावीर की दृष्टि इतनी सीमित १. जब मनुष्य संप्रमी होता है, तब पूज्य बनता है; परन्तु जब सयम से च्युत होता है तव अपूज्य बन जाता है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २६५ नही । वे देखते हैं जीवन वी बनत श्रृंखला का और जानते हैं कि यहा प्रत्यव कम पीछे मे जुडा है आर भाग से भी । हम जिन्दगी वो अववार और प्रवाश म तोड दत हैं | महावीर ऐसा नही कर सक्त, क्योंकि उह पता है कि पथ्वी पर अच्छ और बुर का चुनाव नही है वम घुरा और ज्यादा बुरा का ही चुनाव है । वे जानते हैं कि इस जीवन में चौबीस घंटे अनेक तरह की हत्याएँ हो रही हैं। जन आप चलत हैं मास लेते हैं भोजन करते हैं तब भी आप हत्या कर रहे होत हैं । जब आपरी पलक झपती है, तब हत्या हो गई होती है । लेविन जब कभी कोई किसी वी छाती म छुरा भाक्ता है तथा हम हत्या दिखाई पडती है । (२) महावीर देखते हैं कि जीवन को जा व्यवस्था है वह हिंसा पर ही खड़ी है | यहा चोवीस घटे प्रतिपर हत्या ही हो रही है। मेरे एक मित्र का सयाल है कि महावीर जहां रहा जाते थे वहीं वहा अनेक अनेक मोला तक बीमार लोग तत्काल चग हो जाते थे | मर मित्र को बीमारी के पूर रहस्या का पता नहीं है । जब आप बीमार हात है तो अनेक कीटाणु आपने भीतर जीवन पात है । अगर महावीर वे जाने से आप भल चगे हो जायेंगे तो हजारा कोटाणु तत्काल मर जायेंगे। इस लिए महावीर इस वयट मे पडने से रहे । यह ध्यान रसना और यह भी कि आप कुछ विशिष्ट सा महावीर नही मानत । यहाँ प्रत्यव प्राण वा मूल्य बराबर है, हर प्राण का मूल्य है । थाप उतन मूल्यवान नहीं हैं जितना आप साचते हैं । आपक गरीर म जन किसी रोग के कीटाणु पत्ते हैं तब उन्हें पता भी नहीं होता कि आप भी है | आप सिफ उनका भाजन होते हैं । महावीर के लिए जीवपणा ही हिंसा है हत्या है। वह जीवपणा किसको है, इमका सवाल नहीं उठता। जो जाना चाहता है, वह हत्या घरगा । ऐसा भी नही कि जो जीवेपणा छोड़ देता है उससे हत्या व द हो जाती हो । जब तब यह जिएगा तब तक उससे हत्या होती रहेगी । मान प्राप्ति के बाद महावीर चालीस वप जीवित रह। उन चालीस वर्षों म जब वे चले हारा तो कोइ जरूर भरा होगा, उठे होगे तो कोई जरूर मरा होगा, यद्यपि ये एतन गयम से जीवन यापन करत थे कि रात एक ही वरवट साते थे दूसरी करवट नही रत थे । रविन सांस ता ऐनी ही पती हे और वाई न कोई मरता ही है । हम यह सवत हैं विषूदपर मर वयो नहा गए ? अपन को समाप्त हो क्या न घर दिया ? लेकिन जब अपन को समाप्त करेंगे तब उनके शरीर मे पलनेवाले जावा का या होगा ? इसलिए हिमा या सवाल उतना आसान नहीं जितना कि आपका सीखें देती है । अगर महावीर किसी पहाट से कूदकर अपने को मार देते ता उाव दशरीर म पनवाले सात बरा जोवन भी नष्ट हो जात । हत्या प्रतिपर चल रही है । प्रत्यक प्राणी जीना चाहना है, इसलिए जब उग Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : परिचय और वाणी पर हमला होता है तब उसे लगता है कि हत्या हो रही है। वाकी समय हत्या नहीं होती। अगर जगल मे जाकर आप शेर का गिकार करते है तो यह आपके लिए खेल है और जब गेर आप का गिकार करता है तब आप उमे हत्या कहते हैं । आपके लिए वह जगली जानवर है और आप बहुत सन्य जानवर है ! और मजा यह कि शेर आपको तब तक नही मारेगा जब तक उसे भूख न लगी हो। (३) गैर-अनिवार्य हिंसा कोई जानवर नहीं करता, सिवा आदमी को छोड कर। लेकिन हमारी हिंसा हमे हिंसा मालूम नही पडती। जो जितना हमारे निक्ट पड़ता है, उसकी हत्या हमे उतनी ही ज्यादा महसूस होती है। मुसलमान मर रहा हो तो जैनी को तकलीफ नहीं होती । जैनी मर रहा हो तो हिन्दू को तकलीफ नहीं होती ! अपने परिवार का कोई मर रहा हो तो तकलीफ होती है, दूसरे परिवार का कोई मर रहा हो तो सहानुभूति दिखाई जाती है । (४) 'मैं' केन्द्र है सारे जगत् का । अपने को बचाने के लिए मैं सारे जगत् को दाँव पर लगा सकता हूँ। यही हिंसा है, यही हत्या है । महावीर जिस व्यापक परिप्रेक्ष्य मे देखते है, उसमे वह हत्या दिखाई नही पडती जो आपको हत्या दिखाई पड़ गई है। इसलिए महावीर के लिए हत्या का प्रश्न बहुत जटिल है। आप किसको वलात्कार कहते है ? पृथ्वी पर सौ मे ९९ मौको पर बलात्कार ही हो रहा है, लेकिन वलात्कार का क्या मतलब ? पति करता है तो वलात्कार नहीं होता, लेकिन अगर पत्नी की इच्छा न हो तो पति उसके साथ जो भी करता हे वह वलात्कार है। दूसरे की इच्छा के विना कुछ करना ही बलात्कार है । हम सब दूसरे को इच्छा के विना बहुत कुछ कर रहे हैं । सच तो यह है कि दूसरे की इच्छा को तोडने की ही चेप्टा मे सारा मजा है । जबर्दस्ती से अहकार की जो तृप्ति होती है वह सहज मे कहाँ होती है ! अगर महावीर से पूछते तो वे कहते कि जहाँ-जहाँ अहकार चेप्टा करता है, वहाँ-वहाँ बलात्कार हो जाता है। जब कोई व्यक्ति किसी स्त्री के माथ रास्ते मे बलात्कार करता है तब सदा वलात्कार करनेवाला ही हमे जिम्मेवार मालूम पडता है । लेकिन हम भूल जाते है कि स्त्री बलात्कार करवाने के लिए कितनी चेप्टाएँ करती है । अगर पुरुष को इसमे रस माता है कि वह स्त्री को जीत ले तो स्त्री को भी इसमे रस आता है कि वह किसी को इस हालत मे ला दे ! (५) हमे खयाल नही आता कि इस जगत् मे किसी को जिम्मेवार ठहराना इतना आसान नही । दूसरा भी जिम्मेवार हो सकता है और दूसरे की जिम्मेवारी गहरी और सूक्ष्म भी हो सकती है। महावीर जव देखेगे तव पूरा देखेगे और उस पूरे देख्ने मे और हमारे देखने मे फर्क पडेगा। महावीर की जो दृष्टि है वह टोटल है, पूर्ण है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २६७ (६) जब बलत्कार की घटना हा रही हो उस समय महावीर केवल द्रष्टा रहेंगे या कुछ करेंगे मी ? मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि महावीर कुछ भी न करेंगे । जो हाता होगा उसे वे होन देंगे । आप उस अवस्था में पच्चीम वातें साचेंगे तव करेंगे | लेकिन महावीर से कुछ होगा साचेंगे वे नहा । जो हो जायगा, वह हो जायगा । महावीर लौटकर भी नही सोचेंगे कि मैंने क्या किया क्याकि उन्होंने कुछ विया नही । इसलिए महावीर कहते हैं कि पूर्ण कृत्य कम वा बाधन नही बनता - टोटल ऐक्ट कोई वघन नहा लाता । कुछ उनसे होगा कि नहीं, इसे हम प्रिडिक्ट हा कर सकते। हम कह नहीं सकते कि वे क्या करगे । महावीर भी नहीं कह सकते पहले से कि मैं क्या करूंगा। हमार विषय म भविष्यवाणी की जा सकती है। जितनी गहरी नासमयी होगी, हमारे काय उतने ही अधिक सुनिश्चित होगे । जैसे- जैस जीवन चेतना विकसित होती है वैस वसे मनुष्य के काय-क्राप मुक्त और अनिश्चित हाते जाते हैं । साधारण आदमी के सम्बंध में वहा जा सकता है कि वह वल सुबह क्या करेगा। महावीर या बुद्ध के सम्बंध में ऐसी बात नही कही जा सकती । च क्या करेंगे, यह बहुत अनात और रहस्यपूर्ण है । उनको पूण दष्टि म न जानें क्या दिसाई पड जायगा । पर वे साचकर कुछ करने नही जायेंगे । वहा दिखाई पड़ेगा और यहाँ वृत्य घटित हो जायगा । और उसका दायित्व महावीर पर बिल्कुल न होगा | अगर वे किसी की हत्या में रकावट डालगे भी तो यह उहा कहेंगे कि मैंने किसी की हत्या होने न दी । वे कहेंगे कि मैंने दसा था हत्या हा रही थी और मैंन यह भी देखा था कि इस शरीर ने वाधा डाली थी। में साक्षी था इस घटना वा । महावीर साही बन रहेंगे वारके भी और बलात्कार ने राम जाने वे भी । तभी व बाहर हागे वम व विचार से वासना और इच्छा से किया गया बम पर लाता है। महावीर जो मी करत हैं वह प्रयोजन रहित लक्ष्य रहित, परहित, विचार रहिन और शून्य से निकला हुआ कम होता है। सूय साव कम रिक्तता है तब वह भविष्यवाणी के बाहर हो जाता है । में नहीं वह सरता वि महावार क्या करेंगे| अगर आपने महावीर से पूछा हाता तो महावीर भी नही यह सक्त थे कि मैं क्या यगा । (७) प्रश्न है कि हम पूछना क्या चाहते है ? हम पूछना इसलिए चाहत हैं अगर हम का पता घर जाय कि महावार क्या करेंगे, तो वहा हम भी बर सकते हैं। रेपिन ध्यान रहे महावीर हुए बिना आप वही नहा कर सकत । हो, यही बरत हुए मालूम पद सबत हैं। यही ता उपद्रव हना है। महावीर ने पोछ उनके अनुयायिया की लम्बी कतार खडा है और व महावीर वो नवल पर रहे हैं। परंतु इस नगर से आत्मा वा पाई अनुभव नही उपजता । उनवे-जस व्यक्तित्या Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महावीर : परिचय और वाणी की अनुकृति नही हो मकती। लेकिन सभी परम्पराएं यही काम कर रही है और इसी से दुनिया में सारे धर्मों के झगडे सटे होते हैं। हम कर्मों मे जान को नापते है, यही भूल हो जाती है। कर्म ज्ञान से पैदा होते है और ज्ञान कर्म से बहुत बटी घटना है। महावीर ने जो भी किया वह खास-खास स्थितियो मे किया। कृष्ण और क्राइस्ट की स्थितियाँ उन स्थितियो से अलग थी। आपकी स्थितियां भी अलग है। फिर भी, आप शास्त्रो मे खोजते हैं कि इन-इन स्थितियो मे महावीर ने क्या दिया, ताकि आप भी वैसा ही कर सकें। पर यह न भूलें कि न तो आज वह स्थिति है और न आप महावीर है । महावीर ने कभी लौटकर यह नहीं देता कि किसने क्या किया था, वैसा ही मै भी कहेंगा । इसलिए ठीक से समझे तो महावीर जो कर रहे है वह कृत्य नही है, ऐक्ट नहीं है। वह घटना है, कोई नियमबद्ध बात नहीं । वह नियममुक्त चेतना से घटी हुई स्वतत्र घटना है। इसलिए उसमे कर्म का भी वन्धन नहीं है। महावीर से जरूर कुछ होगा, लेकिन क्या होगा, यह नहीं कहा जा सकता । कर्म उसका नाम नहीं है, वह घटना है। इसलिए मैं कोई उत्तर नही दे सकता कि महावीर क्या करेंगे। (८) जीवन प्रतिपल बदल रहा है। वह भागती हुई फिल्म की भॉति है, चलचित्र की भाँति । वह डाइनैमिक है, उसमे सब बदल रहा है-सारा जगत् वदला जा रहा है। हर वार नई स्थिति है और हर बार नई स्थिति मे महावीर नए ढंग से प्रकट होगे। अगर महावीर आज हो तो जैनियो को जितनी कठिनाई होगी, उतनी क्सिी और को न होगी। जैन सिद्ध करेंगे कि यह आदमी-महावीर-गलत है । वे महावीर की २५०० साल पहलेवाली जिन्दगी उठाकर जांच करेगे कि यह आदमी वैसे ही कर रहा है कि नहीं कर रहा है, जबकि एक बात पक्की है कि महावीर वैसा नही कर सकते, क्योकि वैसी स्थिति नही है। सब बदल गया है। इसलिए महावीर को जैन लोग स्वीकार न कर सकेगे। यही वुद्ध और कृष्ण के साथ होगा। होने का कारण है। हम कर्मों को पकडकर बैठ जाते है। परन्तु कर्म तो राख की तरह है, धूल की तरह है। वृक्षो के सूख गए पत्तो से वृक्ष नही नापे जा सकते । वृक्ष मे प्रतिपल नए अकुर आ रहे है। वे ही वृक्ष के जीवन है । सव कर्म आपके सूखे पत्ते है । वे बाहर गिर जाते है । वृक्ष का सम्बन्ध तो प्राण की सतत धारा से है जहाँ नए पत्ते प्रतिपल अकुरित हो रहे है। और नए पत्ते कसे अकुरित होग, यह नहीं कहा जा सकता, क्योकि वृक्ष सोच-सोचकर पत्ते नही निकालता । वृक्ष से पत्ते निकलते है । सूरज कैसा होगा, हवाएँ कैसी होगी, वर्षा कैसी होगी, चाँद-तारे कैसे होगे, यह इन सब पर निर्भर करेगा। उन सबसे-समन से---पत्ते निकलेगे । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २६९ क्या महावीर जय राग समग्र म जीत हैं। कुछ नहीं रहा जा सकता कि हो सकता है, जिस पर पार हो रहा है उन छोटे-टपटें । फिर भी वृध नहा पण जा पाता । जरुरी नहा कि यह (९) दिगो बहुत जटिल है । यहाँ जा पिट रहा है यह पिटने में याग्य हा और जा पीट रहा है यह भी जरूरी नहीं यह गलत हा कर रहा हो । महावीर उस व्यक्ति किमीना घटना को उसका पूरी जटिलता म दमन हैं | इसलिए वक्या करेंगे, यह कहना आसान पहा है । * या हैं। (१०) सयम के सम्बाध में कुछ सूत्र याद र महावीर मयम को धम दूसरा महत्वपूर्ण सूत्र पहने हैं। हिमाधम को आत्मा है, सयम सांस है और तप देश | महावीरन शुरू किया जहा स-अहिमा गयमो तथा । तप या आखिर म रामपाबीच म ओर अहिमा यो सरस पत्र । हम तप या पहले देखते हैं, गम को पीछे दाता यही रिगाई पटती है। महावीर भीतर से बाहर तर मत है, हम वाह में मातर की तरफ इसलिए हम तपस्वी थी जितनी परते उतनी गिर की हा तप हम दिखाई पड़ता है वह देह जगा बाहर है। हम हर म है, जहृदय है । सपना हम अनुमान जब हम यो तपस्या है तब हम समय है यह संयमी है नहा तान समरगा परन्तु तपस्वी भी रायमोहागपता है और परम दिलाद पहनेगी भी गमी हा सा है । यद्यपि मयमी में जीवन में तप होता है। फिर भी जीवन सयम या होना ही है। महावार भीतर ग क्या यही रहना उचित है। क्षुद्र से विराट की तरफ मग भू होती हैं। विराट से क्षुद्र मा तरफ जाने में बना भूल नहीं होना । जामखोरमा तारा है राय, दमा, नियण, पाता है अपनी पतिया का बोधना है यह है की यह परि पिया यो निट है। एमिहार व्यक्ति जीवा पड़ा था। नियंत्रण है परिचित जाविशय र जिए गरमा ग या पाना है या जिन रहा है उनका दिला आ " है। उारी निहारा जाता है। (११) माझा वो पहरा है। मनही जीवन भर में है विनय पनीर निषेध महार Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० महावीर : परिचय और वाणी हमारे लिए सयमी है स्वय से लडता हुआ आदमी। महावीर के लिए सयमी है अपने साथ राजी हुआ व्यक्ति । हमारे लिए सयमी है अपनी वृत्तियो को सँभालता हुआ आदमी; महावीर के लिए सयमी है वह जो अपनी वत्तियो का मालिक हो गया है । सँभालता तो वही है जो मालिक नहीं है। लडना पडता इसलिए है कि आप वृत्तियो से कमजोर है। महावीर के लिए सयमी का अर्थ है आत्मवान्, इतना आत्मवान् की वृत्तियाँ उसके सामने खडी भी नही हो पाती। ऐसा नही कि उसे ताकत लगाकर क्रोध को दवाना पडता है। जिसे हम ताकत लगाकर दवाते है, वह दवता तो नही, उलटे परेशान करता है और आज नहीं तो कल, फूट पडता ही है। (१२-१३ ) शक्ति जब स्वय के भीतर होती है तो वत्तियो से लडना नही पडता । वृत्तियाँ आत्मवान् व्यक्ति के सामने सिर झुकाकर खड़ी हो जाती है। हम जिसे सयम कहते है वह दमन है और हमारा सयमी आदमी उस सारथी के समान होता है जो रथ मे घोडो की लगाम पकड़े वैठा है। महावीर की दृष्टि मे संयमी वह शक्तिवान् व्यक्ति है जो अपनी शक्ति में प्रतिष्ठित है। उसका शक्ति मे प्रतिष्ठित होना या अपनी ऊर्जा मे होना ही वृत्तियो का निर्वल और नपुसक हो जाना है। महावीर अपनी कामवासना पर वश पाकर ब्रह्मचर्य को उपलब्ध नहीं होते, वे अपनी हिंसा से लडकर अहिसक नही बनते और न अपने क्रोध से लड़कर ही क्षमा करते है। ब्रह्मचर्य की भी ऊर्जा है, इससे काम-वासना सिर नही उठाती। चूंकि वे अहिंसक है, इसलिए हिंसा का वश नहीं चलता। क्षमा की इतनी शक्ति है कि क्रोध को उठने का अवसर नहीं मिलता। महावीर के लिए स्वय की शक्ति से परिचित हो जाना ही सयम है । 'सयम' नाम वहुत अर्थपूर्ण है । इसके लिए अग्रेजी मे 'कट्रोल' शब्द का प्रयोग करते है, जो कि गलत है। अग्रेजी मे सिर्फ एक ही शब्द है जो सयम का पर्याय बन सकता है, यद्यपि भापागास्त्री उसे अनुपयुक्त कहेगे। वह शब्द है 'ट्राक्विलिटी' । सयमी वह है जो विचलित नहीं होता, जो अविचलित रहता है, निकम्प है, ठहरा हुआ है। गीता में कृष्ण ने जिसे स्थितप्रज्ञ कहा है, महावीर के लिए वही सयमी है। अमयम का अर्थ है कम्पन, वेभरिंग, ट्रेम्बलिंग। काँपते हुए मन का नियम है कि वह एक अति से दूसरी अति पर चला जाता है। फिर ऊवेगा, परेशान होगा। सव वासनाएँ उवा देती है। उनसे मिलता कुछ नही है। मिलने के जितने सपने थे, वे और टूट जाते है। वासना से घिरा मन अति पर जाता है, फिर वासना से ज्व जाता है और तव दूसरी अति पर चला जाता है, जहाँ वह वासना के विपरीत खड़ा हो जाता है। कल तक ज्यादा खाता था, आज से एकदम अनगन करने लगता है। (१४ ) इमलिए ध्यान रखिए, अनशन की धारणा सिर्फ ज्यादा भोजन उपलब्ध Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २७१ किए हुए समाजा म हानी है । अगर जैनिया को उपवास और आशन अपीर करता है तो इसका कारण यह है कि उनको ज्यादा माने को मिला हुआ है। गरीव का जा धार्मिक दिन होता है उस दिन वह अच्छे भाजन करता है और अमीर अपने धार्मिक दिन का उपयाम करता है। जहाँ जहाँ माजन बनता है, वहा वहां उपवास का पट' बरता,है। (१५) सच तो यह है कि ज्यादा सानवाला जब उपवास करता है तब उस कुछ उपर घ नही होता, सिवा इसके कि उसको भोजन करने का रस फिर स उप एप होन रगता है जीम म स्वाद लौट आता है। महावीर कहत ह पि उपवास म रस म मुक्ति होनी चाहिए, लेकिन उपवास के वाद साधारण लोगा के लिए भोजन का रम और प्रगाढ हो जाता है। यहाँ तक कि उपवास म भी सिवा रस के आदमी और कुछ भी नहीं सोचता। वह रम पर चितन करता है योजनाएं बनाता है। उसकी मरी हुई भूस फिर सजीव हा उठती है। दम दिन के बाद आदमी टूट पडता है भोजन पर । अति पर जाता है मन । और असयम है एष अति से दूसरी जति पर नाना, दा अतिया बीच डोरत रहना । सयम या अय है म य म हो जाना । अगर हम ममयत हो कि ज्यादा भोजन असयम है तो मैं आपस रहता हूँ कि फम भोजन भी असपम है, दूसरी अति पर हाना है। सम्यक आहार सयम है। ज्यादा सा ऐना या कम सा लेना जासान है सम्यर आहार अति पाठिन है फ्यावि मा गम्यर पर खता ही नहीं। महावीर की गलावली म अगर कोई गल मवस ज्यादा महत्त्वपूण है ता वह मम्य ही है । सम्यय या अय है--मध्य म, अति पर नहीं, वहा जहां सब चीज सम हो जाती है। जहाँ अति का तनाव हा रह जाता, वहाँ सब चीज ममम्वरता या उपर य हो जाती है। इसी समस्वरसा का नाम सयम है 1 निषेध सयम रहा है, पयाकि निषेध म रम दूमरी अति पर हात है। (१६) मन बीच म नहीं रखता क्यापि मन माजय है तनाव, टेंगन । बीच म रहेंगे तो तनाव नहा होगा। जब तर पति पर न हा, तर तर तनाय नहीं होता। इमरि ए मन र ति म दूमरी लति पर टाता रहता है। मन जीता हा है अति म और ममाप्त हो जाता है मयम म । इमरिए जर आप पहत है कि अमुक आमी प पारा यहुत सयमी मन है तब आप चिरकुर गलत महत हैं। सयमी के पास न शेता ही नहीं । अगर हम एसा पहें कि मन ही अरायम है का कोई अनियाक्ति न हागी। जेन चौसा माफकीर हैं । यहत हैं कि सयम तमी उपल ध "ता है व 'नो माइड या उपाधि हाती है--जव मा नहीं रह जाता। परीर न भी 'मन' मी अपरथा को सयम की अवस्था पहा है। एविन हम तनाय म ही जीत हैं। अगर चित्त म तनाव न होता हम लगता है, Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ महावीर : परिचय और वाणी हम मर जायँगे । जो लोग ध्यान मे गहरे उतरते हैं, वे कहते हैं कि ऐसा लगता है. कही मर न जायँ । डर इसलिए लगता है कि जैसे-जैसे व्यान गहरा होता है, वैसेवैसे मन शून्य होता जाता है । जव मन शून्य होता है तब ऐसा महसूस होता है कि हम मर रहे हैं । ( १७ ) तो सयम मे निषेध का भाव नही है । जब दोनो अतियाँ साथ खडी हो जाती है तब दोनो एक-दूसरे को काट देती है और आदमी मुक्त हो जाता है । चूँकि लोभ और त्याग दोनो सम्भव हो जाता है, इसलिए आदमी न तो त्यागी होता है और न लोभी । अकेला लोभ उतना ही बेचैन करता है जितना त्याग, क्योंकि त्याग उलटा खडा हुआ लोभ है । (१८) काम-वासना मे मन उतना ही वेचैन होता है जितना ब्रह्मचर्य मे; क्योकि ब्रह्मचर्य है क्या ? वह शीर्पासन करता हुआ काम है । वास्तविक ब्रह्मचर्य तो उस दिन उपलब्ध होता है जिस दिन ब्रह्मचर्य का पता भी नही रह जाता । वास्तविक त्याग तो उस दिन उपलब्ध होता है जिस दिन त्याग का बोध भी नही रह जाता । बोध कैसे रहेगा ? जिसके मन मे लोभ ही न रहा, उसे त्याग का पता कैसे रहेगा ? जब तक आपको पता है कि मै त्यागी हूँ तब तक जानना कि आपके भीतर लोभ मजबूती से खडा है । जव तक आप खड़ाऊँ बजाकर या चोटी - वोटी बॉवकर घोषणा करते फिरते है कि मैं ब्रह्मचारी हूँ, तब तक आप इसकी ही घोषणा करते है कि आप खतरनाक आदमी है । खड़ाऊँ वगैरह की आवाज सुनकर लोगो को सचेत हो जाना चाहिए । ब्रह्मचर्य का दावा काम-वासना का ही रूप है | हम सम को तव उपलब्ध होते है जब न काम रहता है और न ब्रह्मचर्य, न लोभ और न त्याग, न यह अति पकडती है और न वह अति- - जब आदमी अनति मे, मौन और शान्ति मे थिर हो जाता है, जब दोनो विन्दु समान हो जाते है और जब एक-दूसरे की शक्ति एक-दूसरे को काटकर शून्य कर देती है । (१९) इसलिए सयम सेतु है । इसके ही माध्यम से कोई व्यक्ति परम गति को उपलब्ध होता है । इसलिए सयम को मैने श्वास कहा । आप श्वास लेने मे भी असयमी होते है | चाहे तो आप ज्यादा श्वास लेते हैं या कम श्वास लेते है । पुरुष ज्यादा श्वास लेने से पीडित है, स्त्रियाँ कम श्वास लेती है । जो आक्रामक है वे अधिक श्वास लेते हैं, जो सुरक्षा के भाव मे पड़े है वे कम श्वास लेते है । कम लोग है जिन्होने सच मे ही सयमित श्वास लिया हो। हमारी सांस भी तनाव के साथ चलती है । कामवासना मे वह तेज हो जाती है, इसलिए पसीना आ जाता है, शरीर थक जाता है । ब्रह्मचर्य साधने मे कम श्वास लेना पडता है । असल मे जो ब्रह्मचारी है वह एक अर्थ मे सब मामलो मे कजूस है । वह वीर्य-शक्ति के मामले मे ही नही, श्वास के मामले मे भी कजूस होता है, सब चीजो को भीतर रोक Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २७३ रना चाहता है । य अतियाँ हैं । दवास की सरलता उस क्षण में उपवध होती है जब आपको पता ही नही लगता कि आप श्वास ले रहे हैं । जो व्यक्ति जितन समी होता है उसकी सास भी उतनी ही सयमित हो जाती है । ध्यान मे जो राग गहरे जात हैं वे मुयस आकर पूजत हैं कि वहा सास बन्द तो नहीं हो जायगी ? बद नही होती साम । लेकिन इतनी शान्त और समतुल हो जाती है कि इसका थाना जाना पता ही नहीं चत्ता । जिस व्यक्ति की मास जितनी सयमित हो जाती है उसके भीतर सयम की सुविधा उतनी ही वढ जाती है। इसलिए महावीर न सास वे ऊपर बडे गहर प्रयोग किए हैं। (२०) महावीर नही बहन कि कम साओ, कम सोआ । व बहत हैं कि उतना ही साओ जितना सम है साओ लेकिन न तो भूस का पता चले और न भाजावा । महावीर कहते हैं कि पता चलना वीमारी की पहचान है । नसर म रीर के उसी अग का पता चरता है जा बीमार होता है । स्वस्थ अग का पता हा चरता | महावीर बहत हैं सम्यक आहार करा कि पता ही न चले । भूस वा मोना, भोजन का भी नहा सान वा भी नही जागन वा भी नहीं, श्रम का भी नहा, विश्राम घा भी नही । मगर हम दो म स एव ही कर पात हैं। वुद्ध भी ज्यादा वर ऐन का कारण क्या है ? कारण है कि ज्यादा कर लेन में हम पता चलता है कि हम हैं। यह बहार है कि हम पता चलता रहे हिम हैं । औरा को भी मेरी उपस्थिति वा वाघ होता रहे । इसलिए यसयम के सिवा हमारे लिए और काई भाग नही रह जाता (२१) महावीर-जस व्यक्ति अनुपस्थित होने का ही सयम और हमा बहन हैं । अमयम अथात् हिंसा | हिंसा पर्याय है मारवियत की भावना वा अहवार या, अपनी उपस्थिति वा ओरा पर जाहिर करने या । जिगाविस बात का पता है हमें ? गुना है ठोकी गई था। लेकिन यह महावीर की जिन्दगी की घटना जिगीघटना है जहाने वोले ठापी थी । सुना है महानोर या तयार यह दिया था। यह भी महावार को दिगी को घटना नहीं है । अगर हम महावीर ये जीवन में घटनाओं की साज परे ता कोरा कागज ही हाथ आदमी को माइ जिनगी नहा होती । इसलिए बहानी चिनी हो या उपयागपुरे आदमी या ही चुना पढता है । अगर हम महावीर की कि उनके पान म वोलें ही है यह तो उनकी कि किसी चिल्लाकर गेगा। (२२) रावण व बिना हम रामायण या पन्ना भी नहा कर रावत । य होय लिए बुरा होना विकुल जरी है । विन्तु समीप जीवन से सारी घटना विवहा पानी है | असयमा आमी कहना चाहता है कि म हूँ । भी वह ज्यादा जाहिर करता हैम है मोर भी उपनाम, मो वश्यालय जावर છૂટ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ महावीर : परिचय और वाणी और कभी मन्दिर जाकर । मनोवैज्ञानिक कहते है कि जगत् में जितना बुरे आदमी को नाम मिलता है, अगर उतना अच्छे आदमी को भी नाम मिलने लगे तो कोई आदमी बुरा न होगा | बुरा आदमी भी अस्मिता की, अहकार की सोज मे ही बुरा होता है । ( २३ ) सयमी का अर्थ है - जो द्वन्द्व मे कुछ भी नही करता, जो कहता है। न दोस्ती करेंगे, न दुश्मनी करेंगे महावीर किसी से मित्रता नही करते, क्योंकि वे जानते है कि मित्रता एक अति है । वे किसी से शत्रुता भी नही करते, क्योकि शत्रुता भी अति है । लेकिन हम ? हम उलटा सोचते हैं । हम सोचते है कि अगर दुनिया से शत्रुता मिटानी हो तो सबसे मित्रता करनी चाहिए। हम गलती में हैं । मित्रता एक अति है, उसमे शत्रुता पैदा होती है । (२४) जब महावीर कहते है कि सबमे मेरी मैत्री है तो इसका मतलब है कि मेरी किसी से मित्रता नही, शत्रुता नही । कोई सम्बन्ध नहीं, एक निराकार भाव बचा है, एक सम्वन्धित स्थिति बची है । कोई पक्ष वचा नही है, एक तदस्य दशा वची है । जब कहते है कि सबसे मेरी मैत्री है तब हम इस मूल मे न पडे कि वह हमारीजैसी मित्रता है । हमारी मित्रता शत्रुता के विना हो नही सकती और न हमाराप्रेम घृणा के विना हो सकता है महावीर - जैसे लोगो को समझने में सबसे बडी कठिनाई यह है कि वे भी उन्ही शब्दो का प्रयोग करते है जिनका प्रयोग हम साधारण जन करते है । लेकिन वे भिन्न अर्थो मे उन शब्दो का प्रयोग करते हैं । उनका भाव हमारे भाव से मेल नही खाता । । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम अ याय सयम की विधायक दृष्टि इह लोए निप्पिनासस्स, नत्यि किंचि विदुक्कर ।। --उत्त० २० १९, गा० ४४ (१) सयम मृत्यु के भय स सिकुद गए चित्त की रुग्ण दशा नहीं है वह अमत ती वपा म प्रफुल्लित हा गए तथा नत्य करत हुए चित्त की दशा है । सयम विमी भय रा रिया गया साच रही है और न रिसा प्रलोभन स आरोपित की गई आदत । वह किमी अभय म चित्त का पलाव और विस्तार है, पिसी आनद की उपलधि म अतर्वीणा पर पटा हुआ मगीत । सयम निगेटिव नही, पाजिटिव है । लेकिन परम्परा उमे निषेध मानवर चलती है क्यापि निपेव जामान है। मरना आमान है जीना घहत कठिा है। सिकुड जान से ज्यादा आसान पुछ भी नहीं । मिलने के लिए अतर मा या जागरण चाहिए । सिकुडन ये रिए किती जाग रण या अथवा किसी नई शत्ति वा जनरत नहीं पड़ती। महावीर ता पूल जस सिले हुए व्यक्तित्व हैं। हां, उनके पीछे जा परम्परा वनती है, उराम सिवुड गए लागा की धारा की अस । बनती है। पीछे 4 युगा में इन सिटे हुए लागा का देणार महावीर के मम्मघ म निणय होने रात हैं। रगता है, महावीर कुछ छोट रहे हैं, यही रायम है। नहीं लगता कि महावीर कुछ पा रहे हैं. यही मयम है। और ध्यान रखें पाए बिना साइना असम्भव है। जा पाए विना छोडता है पर ण हो जाता है सिट जाता है। पाए बिना साइना असम्भव है। (२) महावीर या पाना इतना विराट है पि उसकी तुलना म जो पर तप उनये हाय मपा, वह मूवर्ग और व्यथ हा जाता है। (३) निषेधा मर गयम स पूर पदा नही हात घेवर बोट उपजत हैं। और जो पार बाहर जाम प्रवट हो से सजाते हैं भातर मात्मा म घिस जात है। गरिए जिले म मयमी ने * यह पोष्टित निपाइ पडता है रिसा पहाड नो दाता हुमा माम पडता है। उगम पारा तरप आमुना पी पाराए पटठी १ नोइस कोर मे सप्णारहित है उसके लिए पुछ भी पटिन नहीं है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ महावीर : परिचय ओर वाणी हो जाती है । जो सयमी परिपूर्ण चित्त से हँस न सके, वह अभी सयमी नही है । निपेध और दमन उसके व्यक्तित्व को खडित कर डालते है । उसके भीतर अनेक ग हो जाते है | वह अपने आपको ही वॉटकर लड़ना शुरु कर देता है । इनमें कभी जीत नही होती । स्वय से लडनेवाले कभी नही जीतते । परन्तु महावीर का रास्ता जीत का रास्ता है । (४) सयम से लडना अपने ही दोनो हाथो को लडाने जैसा है । न वायां जीत सकता है और न दायाँ, क्योकि दोनो के पीछे मेरी ही ताकत लगती है । खडित व्यक्तित्व विक्षिप्तता की ओर जाता है | अगर आप चोरी करे तो कभी अखड न होगे । आपके भीतर का एक हिस्सा चोरी के खिलाफ ही खड़ा रहेगा । इसी तरह झूठ के साथ पूरी तरह राजी हो जाना असम्भव है | लेकिन अगर आप सत्य बोलें, चोरी न करें, तो आप असड हो सकते है । महावीर ने उन्ही-उन्ही बातो को पुण्य कहा है जिनसे हम अखड हो सकते हैं । वह पाप है जो हमे खडित करता है, आदमी को टुकडो मे वांटता है । आदमी का जाना ही है । महावीर लडने को नही कहते, जीतने को जरूर कहते हैं । जीतने का रास्ता यह नही कि मै अपनी इन्द्रियो से लडने लगूं ; जीतने का रास्ता यह है कि मैं अपने अतीन्द्रिय स्वरूप की खोज मे सलग्न हो जाऊँ, अपने भीतर छिपे हुए खजाने की खोज मे जुट जाऊँ। जैसे-जैसे वे खजाने प्रकट होंगे, वैसे-वैसे कल की महत्त्वपूर्ण चीजें गैरमहत्त्वपूर्ण हो जायँगी । (५) महावीर जिसे सयमी कहते हे, वह व्यक्ति इसके पागलपन से मुक्त हो जाता है । महावीर एक और भीतरी रस खोजते है, एक ऐसा रस जो भोजन से नही मिलता । एक और रस भी है जो भीतर सम्बन्धित होने से मिलता है । हमारी इन्द्रियो का काम सयोजन करना है, जोड़ना है -- वे सेतु का, सयोजक कडी का, काम करती है । स्वाद की इन्द्रिय हमे भोजन से और आँख की इन्द्रिय दृश्य जगत् से जोड देती है । महावीर कहते है कि जो इन्द्रिय हमे बाहर के जगत् से जोड सकती है, वह हमे भीतर के जगत् से भी जोड सकती है । भीतर भी ध्वनियों का एक अद्भुत जगत् है । कान उससे भी हमे जोड सकता है । भीतर भी रस का सागर लहराता होता है । जीभ भीतर के इस रस से हमे जोड सकती है। (६) आपने सुना होगा कि साधक और जोगी अपनी जीम उलटा कर लेते है । साधक और योगी का यह काम सिर्फ प्रतीक है । इसका अर्थ यह है कि जीभ का जो रस बाहर पदार्थों से जुड़ता था, वह अव भीतर आत्मा से जुड जाता है । साधक अपनी आँख उलटी चढा लेता है । इसका कुल अर्थ इतना ही है कि वह जो बाहर देखता था, अव भीतर देखने लगता है । और एक बार भीतर का स्वाद आ जाय Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ महावीर परिचय और वाणी तो वाटर सर म्वाद बस्वाद हो पाते हैं। इद्रिया को भीतर की तरफ मोडना मयम की प्रमिया है। कम माग | कभी छोटा सा प्रयाग परें तो बात समझ म ला जायगी । __ घर म बठ हा तो गुनना शुरु करें बाहर की आवाजा का। जागर होकर मुनें सिवान क्या-क्या मुन रहे ह? सारी आवास के प्रति पूरी तरह जाग जाय । जन मारी आवास के प्रति पूरी तरह जागे हा तो एक बात यह भी सयाल करें कि काइ एसी भी नावाज है जो बाहर से नहीं या रही है। आप एवं सन्नाट गो अलग ही सुनना शुरु कर देंगे। बाजार को भीड म भी एक आवाज सुनाइ पडेगी जो आपने भीतर पूरे समय गजती रहती है। (७) इसकी प्रतीति जमे ही होगी धसे ही बाहर की आवाम रसपूण मालम पडने लगेंगी और मीतर या सगीत आपके रस का पकडना गुरू पर देगा । जसे जैस हम भीतर जाते हैं, बाहर और भीतर का पामरा गिरता चला जाता है। एक घडी आती है जब न कुछ बाहर रह जाता है और 7 कुछ भीतर। जिस दिन यह घडी जाती है जब जा जाहर है वही भीतर बार जो भीतर है वही बाहर उस दिन आप नयम का उपट पहा गए, उस इपयालिनियम यो सिम सब सम हो जाता है, जिसम राय ठहर जाता है, मौन हो पाता है, जिसम कोइ भाग दौड नहा रोती, काई कम्पा हा होता। (८) पिमी जी इन्द्रिय स र रें और भीतर की ओर बढत चले जायें। पौरन ही यह इद्रिय आपको भीनर से जाउने का कारण वा जायगी। मांस स देगना शुरु करें फिर स वर पर रें। बाहर य दश्य दसें, दसत रहें और पारधीरे अतर काय ये प्रति जागें। बहुत शीत आपना बाहर के दो दृश्या के बीच म नीवर पे दश्या पी पर जानी गुम हो जायेगी। कभी भीतर एसा प्रमाण मर जाय, जो बाहर गूय भी देन म अगमय होगा, यमी भीतर ऐम रग पर पायगे जो इनुपा म भी नही हैं। (९) प्रत्पेर इद्रिय भीतर र जान पा द्वार वन सरती है। स्पा बहुत पिया है जापन । तो वट जायें, बारा वायद कर लें और सा पर ध्यान पर । मर मा गडे हा जान दें चारा आर आर फिर साजना गुर पर पि क्या याद ऐसा ना पाजावाहर से 7 आया हो और पोडे ही श्रम और सपत्प स आपसा ऐग सा यो जनुभूति हा लगगी जो बाहर स नहीं आई है। जिग दिन नापरा उस पापा याप हागा, पानि समग लागिए पि आपो नौतर मा " पायिा। मशिन चारर ये स्पा स्यय हा जायेगे । जापसी जान्द्रिय सवन ज्या तीन है उसे आप दुरमा बना रत हैं। अगर भापमै लिए रायर मार पिप पामर "मा नहा है तो आपरी जो इद्रिय सर्वाधिप गप्रिय है यी सापपी मित्र Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महावीर : परिचय और वाणी है। आप उसी के द्वारा भीतर पहुंच सकेगे। जिस व्यक्ति ने अभी वाहर के रगो को भी नही जिया और जाना, उसे भीतर के रगो तक पहुँचने मे बड़ी कठिनाई होगी। (१०) आपकी जो इन्द्रिय सर्वाधिक सवेदनगील है, उससे अगर आप लडेगे तो वह कुठित हो जायगी। समझ ले कि आपने अपने हाथो ही अपना मेतु तोड लिया है। अगर आप विधायक सयम की धारणा से चले तो आप उसी इन्द्रिय को मार्ग वना लेगे, उसी पर आप पीछे लौट आएँगे। और ध्यान रहे, जिस रास्ते से हम वाहर जाते है. उसी रास्ते से सीतर आना सम्भव होता है। रास्ता वही होता है, सिर्फ दिशा बदल जाती है । यह आपको अजीव लगेगा, लेकिन मै जोर देकर कहना चाहता हूँ कि लोग इन्द्रियो के कारण वाहर नही भटक्ते, उन इन्द्रियों के कारण बाहर भटक जाते है जिनके रास्ते वे तोड देते है। __ महावीर ने आत्मा की तीन स्थितियाँ कही है । एक को वे कहते हैं वहिर् आत्मा अर्थात् वह आत्मा जो अभी इन्द्रियो को बाहर की ओर उपयोग कर रही है । दूनरी को महावीर अन्तरात्मा की संज्ञा देते है। यह वह आत्मा है जो अब इन्द्रियो का भीतर की तरफ उपयोग कर रही है । और तीसरी को महावीर कहते है परमात्माअर्थात् वह आत्मा जिसका वहिर् और अन्तर मिट गया है, जो न बाहर जा रही है और न भीतर आ रही है। जो बाहर जा रही है वह वहिर आत्मा हे, जो भीतर आ रही है वह अन्तरात्मा है, जो कही नहीं जा रही है और अपने स्वभाव मे प्रतिष्ठित है, वह परमात्मा है। इन्द्रियो का यह वहिरूप हमे पदार्थ से जोडता है। इन्द्रियाँ जब बाहर जोडती है तव वे पदार्थ से जोडती है और भीतर चेतना से जोड़ती है। जिस जगह वे हमे पदार्थ से जोडती है, उस जगह उनका रूप अति स्थूल होता है। लेकिन वे ही इन्द्रियाँ हमे स्वय से भी जोडती हैं । इन्द्रियो का बहुत स्यूल रूप ही बाहर प्रकट होता है। (११) परमात्मा तक पहुँचना हो तो अन्तरात्मा से गुजरना पडेगा। वहिर आत्मा हमारी आज की स्थिति है, मौजूदा स्थिति । परमात्मा हमारी सम्भावना है, हमारा भविष्य, हमारी नियति । अन्तरात्मा हमारा यात्रा-पथ है। उससे हमे गुजरना पडेगा भीतर जाने के रास्ते वे ही है जो बाहर जाने के रास्ते है। दूसरी बात यह है कि बाहर इन्द्रियाँ स्थूल से जोडती है और भीतर सूक्ष्म से। इसलिए इन्द्रियो के दो रूप है। एक को हम ऐन्द्रिक शक्ति कहते है और दूसरी को अतीन्द्रिय शक्ति । (१२) रूसी वैज्ञानिक वोसिलिएव के प्रयोगो के परिणामस्वरूप कई अधै लड़क हाथ से पढने लगे है। रूस मे ही एक अधी लडकी को पैर से पढवाने की कोशिश की गई। दो महीने मे वह लडकी पैर से भी पढ़ने लगी। फिर वह दीवाल के पीछे रखे हुए वोर्ड को भी पढने मे सफल हुई। अन्त मे उसे कई मील के फासले पर रखी हुई किताव को खोलकर पढवाया गया और वह उसे भी पढने लगी। वासिलिएव ने Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २७९ कहा कि हम जितनी पक्तिया के सम्बन्ध भ जानते हैं, निश्चित ही उनसे भिन्न काई अयक्ति भी हम मिली होती है । (१३) याग निरतर उस शक्ति वा चचा करता है । महावीर की सयम प्रक्रिया वाय उस अयक्ति को जगाना है । जस-जसे वह अन्य शक्ति जगती है वस वम इंद्रिया फीकी हो जाती है । जो श्रेष्ठनम है, आदमी उसे ही चुनता है। यि आपका इंद्रिया वा यतीत्रिय रूप प्रकट होना शुरू हा जाय ता निश्चित ही आप इन्द्रिया वा रम छोड देंगे और एक नए रस में प्रवेश कर जायेंगे । जो अभी इन्द्रिया म ही जीत हैं और जिनकी समय की सीमा इंद्रिया में पार नहीं है, व आपका महा त्यागी कहेंगे । लकिन आप केवल भाग की और गहनतम दिशा में आगे बढते हैं और उस रस का पान लगत है जा इंद्रिया में जीनवारे आदमी को कभी पता ही नहा चरता । अतीद्रिय सम्भावनाओ को बढान के लिए महावीर न बहुत ही गहन प्रयोग क्ि हैं। अगर व भोजन व बिना वर्षों रह जात हैं ता इसका कारण है । कारण यह है कि उन्होंने एक भोजन भीतर पाना शुरू कर दिया है । अगर वे पत्थर पर लेट जाने है तो इसका कारण यह है कि उहाने भीतर व एक नए स्पश जगत में रहना शु कर दिया है । अन उनके लिए बाहर की चीता का महत्व नहा है । इसलिए भरायार सिकुडे हुए मालूम नहा पडते, फ्ले हुए मालूम पडते हैं । व आनन्दित हैं, तथा कथित तपस्विया - जम दुसी नहीं हैं । (१४) बुद्ध ने भी वही साधना की जो महावीर न की है। लेकिन जहाँ महावीर आनन्दको उपल्ध हुए वही बुद्ध को बहुत पीड़ा हुई । महावीर महापक्ति को उप की हुए बुद्ध व निल हो गए। निरजना नदी को पार करते वक्त एक दिन व तन कमजार थे कि उनम विनारे कोटवर चढन की शक्ति मी न थी । एक कावडकर वे साचने लगे कि जिस उपवास से मैं नदी पार करन नसा चुका उसमे इस भवसागर का वस पार कर सकूंगा ? इसलिए बुद्ध इम निवप पर पहुँच र तपश्चर्या व्यय है । वे बुद्धिमान और ईमानदार थे । यदि व नाममण होत ता इस निष्यप पर नही पहुँचते । अनक नासमझ लाग उन दिशाओ म मी लगेच जाते हैं जा उनव लिए नहीं हैं और जा उन व्यक्तित्व स ताल्मल नहा वाती । ध्यान रहे कि जो आपकी दिशा नहा है, उसम आप पूरा प्रयास भा महा पर सक्ने | इसलिए यह भ्रम बना ही रहगा कि में पूरा प्रयास नहा कर पा रहा हूँ । अमर में वागजिनसे युद्ध प्रभावित हुए थे, निषेधमार्गी थे। जिस गुरु न जा छान या हा, वे छोडत गए । राय छोडवर उन्होंने पाया कि गयता छूट गया मिला कुछ भी नहा में वेपल दीन-हीन और दुग्र हो गया । 7 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ महावीर : परिचय और वाणी इससे वडा और क्या प्रमाण होगा ? ऐसा लगता है कि अनुभव मे हम कुछ नीखते ही नही । और जो अनुभव से नही सीखता, वह सयम मे नही जा सकता । सयम मे जाने का अर्थ ही है कि अनुभव से असयम गलत दीसा, दुस लगा | अनुभव ने बताया कि असयम पीडा है, नर्क है । ( २० - २१ ) फिर भीलगता है कि असमय न हो तो जीवन में कुछ नही । न स्वाद मे रम और न संगीत में रुचि । हमने जीवन को असयम का पर्याय बना लिया है और हमारी धारणा है कि अगर महत्त्वाकांक्षा न रही तो जीवन भी निस्सार हो गया। हमे लगता ही यह है कि पाप ही जीवन की विधि है, असयम ही जीवन का ढंग है । इसलिए हम मुन लेते है कि नयम की बात अच्छी है। लेकिन वह हमे छू नही पाती । इसका कारण है कि जब भी हमे संयम का खयाल उठता है तो लगता है, सयम निषेध है । सयम को निपेधात्मक मान लेने की वजह से हमारी तकलीफ है । मैं नही कहता कि यह छोटो, वह छोड़ो। मैं कहता हूँ, यह भी पाया जा सकता है, वह भी पाया जा सकता है। हाँ, इत पाने में कुछ छूट जायगा, निश्चित ही । लेकिन तव भीतर साली जगह नहीं छूटेगी, वहाँ एक नई तृप्ति होगी, एक नया भराव होगा हमारी सभी इन्द्रियाँ एक पैटर्न और व्यवस्था मे जीती है । जब आपको अतीन्द्रिय दृश्य दिखाई पडने शुरू हो जायेंगे तव आपको केवल अपनी आँखो से ही छुटकारा . नही मिलेगा । जिस दिन आँख से छुटकारा मिलता है, उस दिन कान के जगत् में भी भीतर की ध्वनि सुनाई पडने लगती है, कान से छुटकारा मिल जाता है । । (२२-२३) आपकी एक वृत्ति सयम की तरफ जाने लगे तो आपकी समस्त वृत्तियाँ उस ओर चल पडेगी । और ध्यान रहे, श्रेष्ठतर सदा शक्तिशाली होता है । अगर एक व्यक्ति घर मे ठीक हो जाय तो वह उस पूरे घर को ठीक कर सकता है । प्रकाश की एक किरण अनन्त गुना अधकार से भी शक्तिशाली हो सकती है, सयम का एक छोटा-सा सूत्र असयम की अनन्त जिन्दगियो को मिट्टी मे मिला देता है । हाँ विधायक दृष्टि होनी चाहिए । उस इन्द्रिय से काम शुरू करना चाहिए जो सबसे ज्यादा शक्तिशाली हो । अपने व्यक्तित्व की समक्ष होनी चाहिए ओर अधानुकरणसे वचने का सकल्प । उसी मार्ग से लौटने का यत्न होना चाहिए जिस मार्ग से हम बाहर गए है । नही मालूम आपको किस जगह द्वार मिलेगा । आप पहुँचने की फिक्र करे, नक यह जिद्द कि मैं प्रवेश करूंगा तो इसी दरवाजे से । हो सकता है, वह दरवाजा आपके लिए दीवाल सिद्ध हो, हो सकता है कि जीनेन्द्र के मार्ग से आप कही न पहुँचे । आप किसको माननेवाले है, यह उस दिन सिद्ध होगा जिस दिन आप पहुँचेगे । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय तपश्चर्या एव तव तु दुविह, जे सम्म आयरे मुणी | सो सिप्प मव्वससारा, दिप्पमुच्चड पटियो |" -उत्त० अ० ३०, गा० ३७ अहिमा है आत्मा, सयम है प्राण प है शरीर । स्वभावत जहिंसा और सयम सम्बध मे भू हुई है गलत व्याख्याएं हुई है । लेकिन य भूलें इनस जपरिचय के कारण हुए हैं । तप के सम्म म जा गलत व्याख्याएँ दुइ हैं वे हमारी परिचय की है। तप से हम परिचित हैं- -तप मे हम जमानी से परिचित हो जाते हैं । मतपत जान के लिए हम अपने को बदलना ही नहीं पडा । हम जस ह वस ही हम तप में प्रवेश कर जाते हैं। हम जम हैं वैम हो अगर तप म चले जाएँ तो तप हम बदल नहीं पाता, हम तप को ही बदर करते हैं। ( १ ) तप की गलत व्याख्याए निरतर होती रही है । इम समझ लेनी चाहिए हिमठी व्यायाम की आर म उठा सकें। हम भोग से परिचित हैं यानी उसकी आमाक्षास | गुप की मभी आकाक्षा दुय में जाती है। इससे स्वभावत एक भूल पदा होता है और वह यह है कि यदि हम सु को माग परख दुख में पहुँच जीत है तो क्या दुस की मांग रखे गुप में ही पहुँच सक्त ? यदि सुम की क्षा दुस ला सकती है ता क्या न हम दुस को जावाया करें और सुख पा लें । इमलिए तपस्या की जा पहले मूल है, वह उसके भागी चित्त न निवरती है। भागो चित्त वा अनुभव यही है कि सुप कुसम ले जाता है। हम विपरीत करें तामुस भ पहुँच सक्त है । ममी अपने वा सुमदन की वाणिण करत हैं हम अपा का दुस दन शिकरें। यदि मुसको पानिता है ता दु गी। तपस्या एम ही सीधे गणित में विश्वास करता है। माघी पहा है और जिन्गा का गणित इतना गाफ नहीं है । (२३) दुग की आशा मुग नहा से आती या एसी आना के भू मी ही है। सुम को कोई बाराक्षा पहा हा सती। ऊपर से को वाणि मुस ला रवि जिदगी इतनी " जो पडित, मुनि बाह्य और आग्यतर, दानों प्रकार के तपों का सम्पय आचरण करता है, यह समस्त ससार से ही मुक्त हो जाता है । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ महावीर : परिचय और वाणी दिखाई पडता है कि आदमी अपने को दुस दे रहा है, लेकिन वह दुख इसलिए दे रहा है कि सुख मिले। पहले वह मुख दे रहा था ताकि मुन मिले, अब दुख दे रहा है ताकि सुख मिले । आकाक्षा का केन्द्र अव मी सुख ही है, इसलिए इस मिलेगा | सच बात तो यह है - इसे न मूले-- कि दुख चाहा ही नही जा सकता । हाँ, अगर कभी कोई दुख चाहता है तो सुख के लिए हो । लेकिन वह चाह नुम की ही है । दुख चाहा नही जा सकता । यह असम्भव है । जिसने कुस के नाथ चाह को जोडकर तप बनाया, वह तपस्वी नही हो सकता और न उनका तप तप होता है । ( ४ ) आपने सुना होगा कि यूरप मे ईसाई फकीरो का एक सम्प्रदाय था जिसके सदस्य अपने को कोडा मार-मारकर लहूलुहान कर लेते थे । लोग उनकी तपश्च देख चकित रह जाते थे । इस सम्प्रदाय की मान्यता थी कि जब भी काम-वामना उठे, तव अपने को कोडा मारो। धीरे-धीरे कोडा मारनेवालो को पता चला कि कोडा मारने मे काम-वासना का ही आनन्द आता है । जब उनके शरीर मे लहू वहता, तब उनके चेहरे पर ऐसा मग्न भाव होता जो केवल सम्भोग रत जोडो मे ही देखा जा सकता है । इसलिए लोग तो उनकी तपश्चर्या से प्रभावित होकर उनके चरण छूते और वे तपस्वी स्वय काम-वासना का आनन्द लेते । लेकिन तप का यह अर्थ नही है । तप दुखवाद से उत्पन्न नही होता । तपस्वी कोडे मारकर भी सुख ही चाहता है, दुख नही । इसलिए यह न भूलें कि जब भी कुछ चाहा जाता है तो सुख ही । भूसे मरने ओर कांटे पर लेटने मे भी मजा आ सकता है, धूप मे खडे होने मे भी मजा आ सकता है, बातें एक बार आपके भीतर की किसी वासना से कोई दुख सयुक्त हो जाय । आदमी अपने को दुख इसलिए देता है कि वह किसी वासना से मुक्त होना चाहता है । जब हम शरीर से मुक्त होना चाहते है, इसकी सजावट की कामना से मुक्त होना चाहते है, तब या तो लगे खडे हो जाते हैं या शरीर मे राख लपेटते है अथवा उसे कुरूप कर लेते हैं । लेकिन हमे पता नही कि राख लपेटना या नग्न हो जाना शरीर से ही सम्बन्धित है | यह भी सजावट है । यह देखकर आप चकित होंगे कि राख लपेटने वाले साधु भी एक छोटा आईना रखते है । राख ही लपेटना है तो आईने का क्या प्रयोजन ? लेकिन आदमी अद्भुत है । उसके लिए राख लपेटना भी सजावट और शृगार है । शरीर को सुन्दर बनानेवाले के लिए ही आईने की जरूरत नही होती, शरीर को कुरूप बनाने - वाले को भी आईने की जरूरत पड जाती है | (५) शरीर को सतानेवाले की दृष्टि हमेशा गरीर पर लगी होती है । चूंकि शरीर से सुख नही मिलता, इसलिए इसे सताने की चेष्टाएँ होती हैं। शरीर को सताना कुछ वैसा ही है जैसा उस कलम को गाली देना, या जमीन पर पटककर तोड देना, जो ठीक न चले । कलम को तोड देने से कलम का कुछ भी नही टूटता, आपका Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २८५ ही टूटता है । गरीर का सतानवारे तपस्नी की चेतना गरीर द्रित ही होती है उमे गरीर कभी नहीं भूलता। ध्यान रखें, भागी और तथाकथित तपस्वी क वीच शगर के मम्ब प म बाई मतर नहीं पड़ता। (६) जा तप गरीर के माध्यम स जी रहा है वह माग का ही विकृत रूप है। जो तप शरीर-केद्रित है वह भोग का ही दूसरा नाम है, माग की शरीर के साथ बदला लेन की बाकाक्षा है । इम टोव से समझकर ही हम तप की दिशा म बाँसें उठा सक्त हैं। माज ये तथाकथित तपम्बी आत्म हिंमक हैं। अपने वो ना जितना सता सक्ता है, वह उतना वा तपस्वी पहा जाता है। लेपित मताने या, आत्मपीडन का कोई उमप तप से नहीं है । ध्यान रखें जो अपने को सता सकता है यह दूसरे को सतान से बच नहीं सकता। जो अपन को तप मसता सकता है. यह पिसी को भी सता सकता है। निश्चित ही भोगी का मताने का ढग सीधा होता है त्यागी का पराश । अगर आपने अच्छे कपड़े पहन रखे हैं और आपका त्यागी भभूत लगाए बैठा है ता यह आपये कपडा को एसे दरोगा जसे वह कोई दुरमन को देखता हो। उसकी आँखा म निदा होगी, आप कीडे मनोहे मालूम पड़ेंगे। (७) तथाकथित तपस्वी आपको न भेजने पी याजना म स्गे है। उनमा चित्त जापके ये सारे इतजाम कर रहा है। वे यह सोच नही सक्त कि आपया मी तुम मिल । और बड़े गा का बात है कि उनवे स्वग पा सुप आपो ही सुसा का विनीण रूप पिसी विल्पना स नगरता है यह सारी विचार धारा सच म जो तपस्वी है वह विमी के लिए दुग की याई बात साच मी हा रायता । लेकिन तथापित तपम्बिया न नव को जा विवचना की है और अपन गास्था म उमया जो चित्रण किया है वह उनकी रग्ण कल्पना गक्ति पा ही परिचय दता है। घ्यातव्य है कि तपस्वी आप मोगा वो बडी निता बरत है और उम निना म बटन रस रेत हैं। यह एक रोचर तथ्य है वि वात्स्याया। अपने याममून म स्था नै अगा पा वसा गुर सरस चित्रण नहीं दिया है जमा तपम्विया न म्नी पे अगा यो निता करन के लिए जपन मात्रा म पिया + । यत भी यम मजे की यात नी है रिभागिया के नामपाम Tग्न अप्सराएं आपर नहीं चसा, सिफ तपविया मसपास आपर नाचनी हा तपस्या सोचते है वि व नरा तप भक परन के लिए पाती हैं। रविन मनापिसान पा पता है रिइम जगत म अगरा पाई इतजाम नता है तपम्पिया यो भष्ट परन ये रिए। अम्निय तपल्विया यो प्रष्ट पराा पपा पारगा? चारा नपराएं शात प म ग्या एप ही पपा करेंगा-परिचया या पट मरने पा? उना लिए और साई याम होगा? (८) सप ता यह है रिये (अप्पराएं) पिता ग म ही डारा, यति Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महावीर : परिचय और वाणी तपस्वी के सघर्षरत मन से उतरती है, तपस्वी के मन मे जो छिया है उने ही बाहर प्रकट करती हैं। तप विकृत हो तो दमन होता है। और दमन मनुप्य को रुण करता है, स्वस्य नही । इसलिए मैं कहता हूँ कि महावीर के तप मे दमन का लेश भी न था। महावीर ने अगर दमन जैसे शब्दो का वही प्रयोग भी दिया है तो किसी और ही अर्थ मे । उनके लिए दमन का अर्थ था शान्त हो जाना । शान्त कर लेना भी नहीं, बरिफ शान्त हो जाना । जिस चीज से आपको दुस हुआ है, उसके विपरीत चले जाने ते दमन पैदा होता है । यदि काम-वासना ने मुझे दृस दिया है तो काम-वासना के विपरीत जाना और उससे लडना दमन कहलाएगा। (९) महावीर कहते है कि अगर घणा से मक्त होना है तो राग से भी मुक्त हो जाना पड़ेगा। अगर शव से बचना है तो मित्र से भी बच जाना पडेगा । जीवन के सभी रूप अपने विपरीत से बंधे हुए है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति जिस चीज से लडेगा वह उससे ही बँधा रहेगा। अगर आप धन से लड़ रहे हैं और धन के विपरीत जा रहे है, तो धन आपके चित्त को सदा घेरे रहेगा। तप इन्ही भूलो मे पडकर रुग्ण हो गया है और जिन्हें हम तपस्वी कहते है उनमे से ९९ प्रतिशत मानसिक चिकित्सा के लिए उम्मीदवार है। (१०-१२) पशु विकृत नही होता क्योकि वह प्रकृति मे ठहरा रहता है। भादमी दो कोशिशे कर सकता है । चाहे तो वह प्रकृति मे लड़ने की कोशिश करे और आज नही तो कल विकृति मे उतर आए, या फिर प्रकृति का अतिक्रमण करने की कोशिश करे और सस्कृति मे प्रवेश कर जाए । अतिक्रमण तप हे, न कि विरोध और सघर्प । बुद्ध ने एक बहुत अच्छे शब्द का प्रयोग किया है। वह गद है पारमिता । वे कहते है-लड़ो मत, इस किनारे से उस किनारे चले जाओ, पार चले जाओ। (१२) मैं कहता हूँ कि अगर घाटी के अँधेरे से लडना है तो घाटी के अंधेरे मे ही रहना पडेगा। अगर मैं घाटी के अँधेरे से नही लडता तो उस पर ध्यान देने की जरूरत नहीं है । जहाँ मै खडा हूँ वहाँ चारो ओर वृत्तियाँ है भोग की। वे भी है और आप भी है । गलत त्यागी का ध्यान वृत्तियो पर होता है, सही त्यागी का ध्यान स्वय पर। गलत त्यागी कहता है कि मै इस वृत्ति को कैसे मिटाऊँ; सही त्यागी कहता है कि मै इस वृत्ति के ऊपर कैसे उठ् ? वृत्ति से जो लड़ता है, उसका ध्यान वृत्ति पर होता है। स्वय को जो ऊँचा उठाता है, उसका ध्यान स्वय पर होता है। वृत्ति से लड़नेवाले का ध्यान वहिर्मुखी होगा, स्वय को ऊर्ध्वगमन की ओर प्रवृत्ति करने वाले का ध्यान अन्तर्मुखी। . (१३) तप का मूल सूत्र यही है कि ध्यान के लिए नए केन्द्र निर्मित करो । नए केन्द्र हमारे भीतर है। उन केन्द्रो पर ध्यान को ले जाओ । ध्यान को जैसे ही कोई नया केन्द्र मिलता है, वह वैसे ही नए केन्द्र मे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावोर परिचय और याणी २८७ गापित यो उल्न लगता है और पुरान या या मक्ति मिल जाती है, गिरर को और कध्वगमन शुरू हो जाता है। काम-वामना का हमारा वेद्र सवा नाने है । परी सहम प्रवृत स पुढे हैं। महनार हमारा सबसे ऊंचा पद । वहीं मे हम परमात्मा स-दिव्यता, भयता और भगवत्ता स-जुटे हैं। आपन यामी सयार रिया है कि आपरे मस्तिपम विचार चलता है वाम-वामना पा मोर नापरा नाम- पिम प्रचार तरार सत्रिय हा जाता है ? विचार चरना है मस्तिष में और तत्वार मनिय ही उटना है उाम दूर आपया साम मः। ठीर इसी प्रकार जरा ही तपस्वी गहसार की ओर ध्याा दता है वैसे ी सयार या सत्रिय होना शुरू हो जाता है और जब गति पर पी आर जाती * तब उसबा नीचे की तरफ पाना अमम्मर हा जाता है। जापत्ति पोगिव पर पर चढ़ायामाग मिरन लगता है तब वह पाटियाँ छान लगती है । जब प्रमाण पे जगन म गति या प्रवाहाने एगता है तब यह अंघर जगत् से चुपचाप स्टन लगती है। उसके मन मन तो बंधेर पी निन्दा हानी है और न विराप । प्याा काम्पानरण है तप । माप्य ये भातर जीयन का जो मग्नि है उम अगिमा कम्यगमा तपम्यो पा एग्य होता है उस नीच या आर र साना गोगा या रय । मागाया है जो जीयन पी अग्नि या तीच पी और प्रवाहित करता है। तपस्वी उम अगिया परमा मा और गिद्धापम्या की ओर " पाता है। (१) सच पूटिए ता अग्नि या म्याप ही जारपीआर जाता है। पानी नौदे को पार यता है पिन अगि? यह स्वगाय म कायगामी है । एर बार नापास पाया अग्नि ५ अघगामा हाा पाया जाय ता पिर आपका उगकर जान गिा प्रगम नग परना पगा। एर पार मायार पारप गस्ती या IT मुटजर ता पिर नगा पती पटती। पिर तो पर अगिमान भाग वमी रखी है। (१५) गत स्पीति भादत या Tी। टी साम्पीयर गोगान II माना ! FTP सरयो ताग टार रारम्या पार पर जा भी गती है, पर प्यार का माम जनामिना गम्बी - शीना पर IT तिनी TRITI मापारिया या गानी पीना पर पान frन र माता और तपा पति यती। या नि माग गरमा fry Infrने rim माग र जाताना दोarni मानोरा चौरामाती है Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महावीर : परिचय और वाणी जहाँ ध्यान दीड जाय और जहाँ नए केन्द्र सशक्त होने लगे । इसलिए तपस्वी कमजोर नही होता, शक्तिशाली होता है । (१६) ठीक विधायक तप कहता है-शक्ति पैदा करो, व्यान को रूपान्तरित कर उसे नए केन्द्रो पर ले जाओ ताकि शक्ति वही जाए । (१७) तप ध्यान के केन्द्र को बदलने की प्रक्रिया है । महावीर ने तप के बारह हिस्से किए है और इनमे प्रत्येक हिस्सा स्वभावत वैज्ञानिक प्रक्रिया है । DD SAS Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय तप की वैज्ञानिक प्रक्रिया खवेत्ता पुवाम्साइ सजमेण तवेण य । सव्वदुक्खपहीणटठा, पक्कमति महेसिणो ॥ -उत्त० अ० २८, गा० ३६ धम विनात ही नहा, परम विज्ञान है। जहा विनान केवल पदाय का स्पश कर पाता है, वहाँ घम उस चैतय का भी जिसका स्पश करना असम्भव मालूम पडता है। विज्ञान वर पदाथ को बदल पाता है, नए रूप दे पाता है, धम उम चेतना का मी रूपातरित करता है जिस स्सा भी नहीं जा सकता छुआ भी नहा पा सकता। इसलिए घम परम विनान है। विनान का लण्य होता है उस प्रक्रिया, पद्धति या यवस्था को जानना जिसस कुछ किया जा सकता है । बुद्ध कहते थे कि सत्य का अथ है वह जिससे कुछ किया जा सके। जो सत्य नपुमर है जिसस कुछ नहीं हो सकता, जो मिफ सिद्धात है, वह सत्य व्यथ है। सत्य वही है जो कुछ कर सके-~जो काइ यदराहट, कोई प्राप्ति, काई परिवतन ला सके । धम एसा । सत्य है। धम चितन नहीं है और न विचार, धम आमू रूपातरण है, म्यूटेगन है। तप धम के रूपा नरण की प्रप्रिया का प्राथमिक सूत्र है। (१) जगत म जा भी हम दिखाई पदता है, वह वैसा नहा है जैसा दिखाई पडता है। जा भी दिखाई पडता है यह स्थिर, ठहरा हुआ या तमा हुआ पदाथ है। लेकिन विनान कहता है कि इस जगत म काइ भी चीज ठहरी हुइ वा जमी हुए नहा है, जा भी है वह ग यात्मक है डाइनैमिव है। जिस कुर्सी पर भाप बठे हैं यह पूर समय नदा के प्रवाह की तरह वही जाता है। अगर गति अधिक हा जाय तो चीजें ठहरी हुई मालूम पडती ह। अधिक गति के कारण, ठहराव व वारण नहीं। आपकी कुर्सी पा एक एव परमाणु जपन केन्द्र पर उतनी ही गति से दौड रहा है जितनी गति से सूप या किरणें दौडती है--एक सेकड म एक राय रियासी हजार मील । परमाणुना का तौन गति की वजह से आप बुसी स नहीं गिरते। (२) याद रहे रि यह गति मा बहुआयामी है मल्टी डाइमे शनल है। आपको १ महषिगण सपम और तप द्वारा जाने सभी पूय धर्मों को क्षीग फरके सभी दुपा मे हित मोक्षपद को पाने के लिए प्रयत्न करते हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० महावीर : परिचय और वाणी कुर्सी के परमाणुओ का अपने भीतर घूमना कुर्ती की पहली गति है। प्रत्येक परमाणु अपने न्यूक्लियस पर--केन्द्र पर-चक्कर काट रहा है। फिर पुती जिस पृथ्वी पर रखी है, वह पृथ्वी अपनी कील पर घूम रही है। इसलिए कुर्सी भी पूरे समय पृथ्वी के साथ घूम रही है । यह उसकी दूसरी गति है । पृथ्वी सूर्य के चारो ओर परिभ्रमण कर रही है। यह कुर्सी की तीसरी गति है । उसकी चौथी गति का कारण यह है कि मूर्य अपनी कील पर घूम रहा है और उसके साथ उसका सारा सौर परिवार-कुर्नी भी-घूम रहा है। पांचवी गति-वैज्ञानिक कहते है कि सूर्य किमी महामूर्य का चक्कर लगा रहा है। बडा चक्कर है वह । कोई वीन करोट वपों में एक चक्कर पूरा होता है। यह पांचवी गति कुर्मी भी कर रही है, क्योकि वह भी सौर परिवार से बाहर नही है । वैज्ञानिको का खयाल है कि जिन महासूर्य का परिभ्रमण हमारा सूर्य कर रहा है, वह महासूर्य भी अपनी कील पर घूम रहा है और उसके साथ हमारी कुर्सी भी गतिमान् है। वैज्ञानिको ने एक और गति की चर्चा की है, सातवी गति की। उनका कहना है कि वह महासूर्य जो अपनी कील पर घूम रहा है, दूसरे सौर परिवारो से प्रतिक्षण दूर हटता जा रहा है। पदार्थ की ये ही सात गतियाँ हैं। आदमी मे प्राण अथवा जीवन मे, एक आठवी गति भी है। जहां कुर्सी चल नहीं सकती वहाँ जीवन चल सकता है। धर्म की दृष्टि मे नौवो गति भी है। वह कहता है कि आदमी तो चलता ही है, उसके भीतर की ऊर्जा भी नीचे या ऊपर की ओर जा सकती है । तप का संबंध इस नौवीं गति से ही है। आठ गतियो तक विज्ञान काम. कर लेता है, किन्तु धर्म की सारी प्रक्रिया का केन्द्र नौवी गति है । (३-५) हमारे भीतर की जो ऊर्जा है वह नीचे या ऊपर जा सकती है । जब हम काम-वासना से भरे होते हैं तब हमारी ऊर्जा नीचे जाती है, जब हम आत्मा की खोज से भरे होते है तब वह ऊपर की ओर जाती है। इसी प्रकार जब हम जीवन से भरे होते है तब हमारी ऊर्जा भीतर की तरफ जाती है। धर्म की दृष्टि मे भीतर और ऊपर एक ही दिगा के नाम हैं। (६-७) एक वडे मजे की वात है कि ठहरी हुई कील पर ही चाक को चलना पडता है। अगर कील भी चल जाए तो गाडी गिर जाए। इसका अर्थ यह हुआ कि विपरीत से ही सतुलन आता है। इसलिए तपस्वी की चेप्टा होती है कि वह अपने चारो ओर इतनी अग्नि पैदा कर ले कि उस अग्नि के अनुपात मे उसके भीतर शीतलता का बिन्दु पैदा हो जाए , वह अपने चारो ओर इतनी गत्यात्मक गक्ति को जनमा ले कि भीतर शून्य का विन्दु उपलब्ध हो जाए, वह अपने चारो ओर ऊर्जा के इतने तीन परिभ्रमण से भर जाए कि उसकी धुरी ठहर जाए, खडी हो जाए। तपस्वी वह है जो ताप से भरा हुआ है परन्तु जिसका केन्द्र शीतल है । तपस्वी वह है जिसके चारो ओर शक्ति जग जाती है परन्तु जिसके केन्द्र पर शीतलता आ जाती है। वैज्ञा Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २९१ निया का पहले सवाल था कि सूय जलती हुई अग्नि ही है, उबलती हुई अग्नि लेकिन अब नानक कहत है कि सय अपने केंद्र पर बिलकुल शीतल है। जहा इतना प्रचड अग्नि हो वहा उसका सलुलित करने के लिए केंद्र पर गहन शीतलता होती. ही चाहिए, नही तो सतुलन टूट जायगा । ठीक ऐसी घटना तपरवी के जीवन में, घटती है। उसके चारा ओर ऊजा उत्तप्त हो जाती है लेकिन उस उत्तप्त ऊर्जा को सतुलित करने के लिए केन्द्र बिरुकुल गीतल हो जाता है। इसलिए तप से भरे हुए व्यक्ति से ज्यादा शीतलता का विन्दु इस जंगल में दूसरा नहीं है । ( ८-१२) तपस्वी वा ताप बाह्य नही हाता । वैसा ताप शरीर के आस-पास आग की यगीठी जला लेने से पदा नहा होगा । यह ताप आन्तरिक है । इसलिए महावीर ने यह निषेध किया है कि तपस्वी अपने चारो ओर आग न जलाए धूनी न रमाए । धूनी स मिला हुआ ताप बाह्य होता है उससे बातरिय शोतलता पैदा न होगी। ध्यान रह विशीतलता आतरिक तभी होगी जब ताप भी आवरिष होगा । यदि ताप वाह्य होगा तो शीतलता भी बाह्य होगी। यदि अन्तर की यात्रा करनी है तो बाहर के स्टीट्यूट नहा सोजने चाहिए-वे धोखे के है सतरना है । ( १३१५ ) आम तौर से हम जिन्हें तपस्वी कहत ह व एसे लोग हैं जा - अपन for शरीर का ही सतान में लगे है । भौतिक शरीर से कुछ लना-देना नही है । इस शरीर के भीतर छिपा हुआ जो दूसरा शरीर है- ऊर्जा-शरीर या एनर्जी वाडीउसके ऊपर ही काम करना है। योग म दिन चक्रा की बात की गइ है, वचन इस शरीर में कही भी नहीं हैं। व ऊर्जा शरीर के चन हैं। यही कारण है कि गल्यचिकित्सा जब इम गरीर का वाटत हैं तब उन्ह य चत्र यही नहीं मिलते। जिन्हें हम चक्र वहत ह व ऊर्जा शरीर के बिंदु हैं यद्यपि इन विदुजा के अनुरूप, इनसे वारिस्पॉड वरन वाल स्थान इस शरीर में अवश्य है रविन य स्थान चक्र नहीं हैं । हमारे शरीर के भीतर छिपा हुआ भर इसके बाहर इसे चारा जार घेरे हुए जा आभा मंडल है, वही हमारा वास्तविक शरीर है हमारा तप शरीर 1 --- ( १६ २१ ) इस भूमि पर हिदुओं ने प्राण ऊर्जा के सम्बध में सवाधिक गहर अनुभव किए थे इसलिए जहाने मवाधिक तीव्रता मे शरीर को नष्ट करने के लिए आग वा इतजाम किया गाठने का नहीं । यदि गरीब गाड़ा गया तो उस गल्ने, टूटन जोर मिट्टी में मिलने म छह महीन लग जाएंगे। उन छह महीना तक आत्मा का भटकाव हो सकता है । तकार जला देन वा प्रयोग उन्होंने सिर्फ इसलिए किया fr मी क्षण आत्मा का पता पर जाए कि शरीर नष्ट हो गया है जन तक यह अनुभव में न आए कि म मर गया हूँ तब तक नए व्यक्ति मर गया है । जीवन की खोज शुर I हा हाती । मैं मर गया हूँ--यह अनुभव कर लेने पर आत्मा ए जीवन की साज म निवर पडती है । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ महावीर : परिचय और वाणी (२२-२३ ) अब मैं तप का पहला सूत्र आपसे कहता हूँ-इस शरीर से अपना तादात्म्य छोडे, यह मानना छोडे कि मैं यह शरीर हूँ। अपने को शरीर मानने से ही सारा भोग फैलता है। जिस आदमी ने अपने को भौतिक शरीर समझा, वह दूसरे भौतिक शरीर को भोगने के लिए आतुर हो जाता है। इससे ही सारी काम-वासना पैदा होती है । जिस व्यक्ति ने अपने को यह भौतिक शरीर समझा वह भोजन मे बहुत रसातुर हो जाता है, वह अपनी ही इन्द्रियो के हाथ बिक जाता है। इसलिए तप का पहला सूत्र है कि मै शरीर नही हूँ। शरीर के साथ अपने को तादात्म्य करने की आदत को तोडे । यदि सचमुच इस तादात्म्य को तोडना है तो स्मरण रखे कि इसके किए सकल्प अनिवार्य है। इस सकल्प के बिना गति नही है। और सकल्प से ही तादात्म्य टूट जाता है क्योकि वह सकल्प से ही निर्मित है। जन्म-जन्म के सकल्प का परिणाम है यह मानना कि मै यह शरीर हूँ। इस सकल्प को तोड़े विना तप की यात्रा नही हो सकती। इस सकल्प के साथ भोग की ही यात्रा होगी। यह संकल्प हमने किया ही इसलिए है कि हम भोग की ही यात्रा कर सके । (२४) अगर मुझे यह पता हो कि मै यह शरीर नही हूँ तो हाथ के लिए यह भाव नही जगेगा कि मैं इससे किसी सुन्दर शरीर का स्पर्श करूँ। यह हाथ मैं हूँ ही नही । तपस्वी का हाथ डडे की भाँति हो जाता है। डडे से किसी शरीर का स्पर्श किया जाय तो इससे आनन्द नही मिलता। जैसे ही सकल्प टूटा और प्रतीति हुई कि मैं हाथ नही हूँ, तपस्वी का हाथ वैसे ही डडा हो जाता है । उस हाथ' से किसी के सुन्दर चेहरे को छूना डडे से छूना-जैसा हो जाता है। भोग का सुत्र है कि मैं यह शरीर हूँ, तप का सूत्र है कि मै यह शरीर नही हूँ। भोग का सूत्र 'पॉजिटिव' है, तप का सूत्र नकारात्मक । जब आप कहते है कि मैं शरीर हूँ तो कुछ पकड मे आता है, जब आप यह कहते है कि मै शरीर नही हूँ तो कुछ पकड मे नही आता । यदि तप का यही एक सूत्र हो कि मै यह शरीर नही हूँ तो तप हार जायगा, भोग जीत जायगा। इसलिए तप का दूसरा सूत्र है कि मैं ऊर्जाशरीर हूँ, एनर्जी बॉडी हूँ, प्राण-शरीर हूँ। तो दो काम करे। इस शरीर से तादात्म्य छोडे और प्राण-ऊर्जा के शरीर से तादात्म्य स्थापित करे । वल इस बात पर पड़े कि मैं ऊर्जा-गरीर हूँ। अगर आपका जोर इस वात पर रहा कि यह शरीर मैं नही हूँ तो गलती हो जायगी। महावीर ने तप के दो रूप कहे है-आन्तरिक तप अथवा अतर तप और बाह्य तप । अन्तर और बाह्य तप के उन्होने छह-छह हिस्से किए हैं। पहले हम बाह्य तप से वात शुरू करेगे, फिर अन्तर तप पर आएँगे। अगर तप की प्रक्रिया खयाल मे आ जाए और सकल्प मे चली जाए तो जीवन उस यात्रा पर निकल जाता है जिस पर निकले विना अमृत का कोई अनुभव नही हो सकता। हम जहाँ हैं वहाँ तो बार Page #289 --------------------------------------------------------------------------  Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय महावीर की दृष्टि मे अनगन अत्यगयमि आच्चे, पुरत्या य अणुग्गए । आहारमाइय सव्व, मणमा वि न पत्थए ।' दग० अ० ८ गा० २८ महावीर ने तप को दो रूपों में विभाजित किया है । इसलिए नही कि 'तप दो रूपो मे विभाजित हो सकता है, बल्कि इसलिए कि हम उसे विना विभाजित किए समझ ही नही सकते । इसका भी एक कारण है । वह यह है कि हम विभाजित मनुष्य है । हम अपने को ही छोडकर, अपने से ही च्युत होकर, अपने ने ही दूर खडे है । ऐसा नही कि हम दूसरो से अजनबी है, सच तो यह है कि हम अपने से ही अजनबी है । इसलिए विभाजित मनुष्य की समझ के बाहर होगा अविभाज्य तप । महावीर तप को दो हिस्सो मे वांटते है हमारे कारण, अन्यथा उनकी - जैसी चेतना को बाहर और भीतर का कोई अन्तर नही रह जाता। महावीर तो वहाँ है जहाँ बाहर भी भीतर का ही एक छोर हो जाता है और भीतर बाहर का एक दूसरा छोर । वे वहाँ है जहाँ भीतर और बाहर एक ही अस्तित्व के दो अग हो जाते है । इसलिए वह विभाजन हमारे लिए है । (१) महावीर ने तप के दो रूप कहे है- बाह्य तप और अतर तप । उचित होता कि महावीर अतर तप को ही पहले रखते, क्योकि वह जो आन्तरिक है वही प्राथमिक भी है। लेकिन उन्होने अन्तर तप को पहले नही रखा, पहले रखा है वाह्य तप को । इसका कारण यह है कि महावीर के सुननेवालो के लिए आन्तरिक द्वितीय स्थान रखता है, वाह्म ही प्रथम है । महावीर की करुणा कहती है कि वे वही से बोले जहाँ सुननेवाला खड़ा है। यद्यपि उनके लिए आन्तरिक प्रथम है, उनके सुननेवालो के लिए आन्तरिक का स्थान द्वितीय है । इसलिए वे बाह्य तप को पहले रखते है, कारण कि हम बाहर है । और चूंकि महावीर ने बाह्य तप को पहले रखा है, इसलिए उनके अनुयायियो ने बाह्य तप को ही प्राथमिक समझ लिया है । यही भूल हुई है और यही से बाह्य तप मे लगे रहने की लम्बी धारा चल पड़ी है। अब तो स्थिति १. सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के बाद निर्ग्रन्थ मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की ( मन से भी) इच्छा नहीं करनी चाहिए । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २९५ ऐसी ला गइ है कि तप ही पूरा नहीं हो पाता इसलिए आनखि तप तक जाने या सवार ही नहीं उठना । बाह्य तप ही जीवन वा हुन लेता है। लेकिन इसे भी ध्यान में विजय तक आन्नखि तप पूरा नहा हो जाता तब तब बाह्य तप भी पूरा न होगा । अन्तर और बाह्य एक ही चीज है । इसलिए यह सोचना र वाह्य तप पहले पूरा हा जाए तब में अन्तर तप में प्रवेश वगा, गलत है । इसस बाह्य तप कभी पूरा नहा होगा, क्योकि बाह्य तप स्वय लावा हिम्सा है । वह कभी पूरा नही हो सकता । जन-साधना नहीं भटक गई है वह यही जगह है। यही से इस विश्वास का सूत्रपात होता है कि पहल बाह्य तप पूरा हो जाए तो फिर बातरिख तप में उतरेंगे। में पहता हूँ - बाह्य तप भी पूरा नहीं हो सकता, क्यादि बाह्य जो है वह अधूरा हो है। वह तो पूरा तभी होगा व आतरिख तप भी पूरा हो। इसका अय यह हुआ कि अगर य दोनो तप साथ-साथ चलें तभी पूरे हो पात है अन्यथा पूरे नहीं हो पान | लेकिन विभाजन न हम ऐसा समया दिया नि पहले हम बाहर पो पूरा वर से पहले बाहर को साथ लें फिर भीतर की यात्रा करेंगे। ध्यान रहे कि तप एक ही 1 बाहरी और भीतरी तप सिर्फ वामचलाऊ विभाजन है । (२) अगर कोई अपन परा को स्वस्थ करना चाह और सोच कि पहले पैर स्वम्य हा जाए फिर सिर स्वस्थ कर लें, तो वह गल्ती म है । शरीर एक है और उपवावा भी अगत्य तर स्वस्थ नहीं हो सकता जब सब पूरा शरीर स्वस्थ न हा । वन्तर और बाह्य पूरे व्यक्तित्य के हिस्त हैं। इन सभी हिम्मा का इलाज एक साथ परना होगा। हो, जब हम विवचन करने हैं तब उन्हें बारी-बारी से एना होता है । समाना बात एक साथ नहीं की जा सकती। या 'वन विवचन परत गमय में पहले आपने सिर म है इसीजी गीमाए है। यानार आपके हृदय बातगा और अन्न म आप पर की बात । सोना पीवान में एक गाय नहीं कर सकता। लेाि मतलब यह नहीं है ि मानों एक साथ नही हैं । जापका सिर, आपराहृत्य पर पर एए गाय है लगा नहीं है। यदि चया न करनी पता है फिर ना यति है । दया और छत हिस्सा को जा में पर्चा उगम महामारि जिरे शासक है उन नाही। ऐसी साधना मेंदूपा उन्हें एनामदारी है। र नाया पाएर जावर मोरा हूँ और बाद मेरे सामना पि रहती है धारण कि । अगर मेरी दो बाहर 1 frater, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महावीर : परिचय और वाणी सर्वप्रथम मैं पहले व्यक्ति का नाम लंगा, फिर दूसरे का, फिर तीमरे का, फिर चौथे का। इस प्रकार मेरे कथन मे कम होगा, लेकिन जो लोग मेरे मामने बैठे थे, उनके बैठने मे क्रम न था। वे एक साथ मौजूद थे। उनका अन्तित्व झट्ठा था, एक साथ था । मापा उनमे क्रम बना देगी। कोई आगे हो जाएगा और कोई पीछे । लेकिन अस्तित्व मे कोई आगे-पीछे नहीं होता। (३) वाह्य तप मे महावीर ने अनशन को पहला स्थान दिया है। अनशन के सम्बन्ध मे जो भी समझा जाता है वह गलत है । उसमे छिपे हुए मूत्र पर ही आज मैं विचार करूँगा । इन सूत्र को समझ लेने पर आपको एक नई दिया का बोध होगा। मनुष्य के शरीर मे दोहरे यन हे ताकि सक्ट के किसी क्षण में एक यत्र काम न करे तो दूसरा उपयोगी हो । आप भोजन करते है, गरीर उस भोजन को पचाता है, खून और हड्डियाँ बनाता है। गरीर के साधारण यत्रो से यह काम हो जाता है । लेकिन कभी कोई जगल मे भटक जाता है, नदी में बह जाता है और कई दिनो तक किनारा नहीं पाता। ऐसी अवस्था मे जब उसे भोजन नही मिलता तव गरीर के सकटकालीन यत्र सक्रिय हो जाते है। शरीर को भोजन की आवश्यकता बनी ही रहती है, उसे ईधन की जरूरत होती ही है । जब गरीर को भोजन नहीं मिलता तो वह उस ईधन को ही उपयोग ने लाने लगता है जो उसके भीतर पहले से इकट्ठा है। वह अपने भीतर की चर्वी को ही भोजन बनाना शुरू कर देता है। इसलिए उपवास मे एक पौड वजन रोज गिरता चला जाता है। फिर भी लगभग ९० दिन तक साधारण स्वस्थ आदमी उपवाम से नहीं मरता । गरीर के पास इतना संगृहीत तत्त्व मौजूद होता है कि कम-से-कम तीन महीने तक वह अपने को विना भोजन के जिन्दा रख सकता है। शरीर की ये दो व्यवस्थाएं है। इनमे एक तो मामान्य है और दूसरी केवल सकट की घडी के लिए बनी है। (४-५) अनशन की प्रक्रिया का राज यह है कि जब शरीर एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था पर सक्रमण करता है तव वीच मे कुछ क्षण के लिए आप वहाँ पहुँच जाते हैं जहाँ शरीर नही होता। यही अनशन का सीक्रेट है। जब भी आप एक चीज ते दूसरी पर बदलाहट करते है, एक सीढी से दूसरी सीढ़ी पर जाते है, तब एक ऐसा क्षण होता है जब आप किसी भी सीढी पर नहीं होते। जव आप एक स्थिति से दूसरी स्थिति पर छलाँग लगाते है तव बीच मे एक गैप-एक अन्तराल हो जाता है। उस अन्तराल मे आप किसी भी स्थिति मे नही होते, फिर भी होते अवश्य हैं। शरीर की एक व्यवस्था है सामान्य भोजन की। अगर यह व्यवस्था बन्द कर दी जाए तो अचानक आपको दूसरी व्यवस्था मे रूपान्तरित होना पड़ेगा। इस बीच कुछ ऐसे क्षण होगे जव आप आत्म-स्थिति मे होगे । उन्ही क्षणो को पकड़ना अनशन Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी २९७ या उपयोग है। इसलिए जो आदमी अनशन का अभ्यास करेगा, वह उसका फायदा नहीं उठा पाएगा। अनशन 'सडेन' प्रयोग है आरस्मिक और अचानक प्रयोग । वह जितना अचानव हागा, अतराल का उतना ही वाघ होगा। अगर आप अभ्यासी हैं ता एक स्थिति से दूसरी स्थिति म जाने म माप इतने कुशल हो जाएंगे पि वीच के अन्तराल का थापको पता ही नहीं चलेगा। इसलिए अभ्यासिया को अनशन से कोई लाभ नहीं होता । हम रोज स्थिति वदरत है लेकिन अभ्यास के कारण अतराल का पता नहा चलता। (६) अनान का प्रयोग सफ्टकालीन यत्र म प्रवेश का प्रयोग है। इस तरह के अनेक प्रयोग हैं जिनसे मध्य ये गप बा, अन्तराल वा वाच होता है। सूफ्यिा न अनशन का उपयोग नहीं दिया है, उहोंने जागने का उपयाग दिया है। प्रयोग अलग है कि तु परिणाम एक ही है । उहांने कहा है, सोना मत जागे रहना। इतना जागे रहना विजय नीद आए तब नीद म मत जाना-जाग ही रहना। अगर जागने की चेप्टा उस समय भी जारी हो रही जब जागने का यत्र विलकुर थक गया, तब थाप एक क्षण के लिए उस दिना म पहुँच जाएंगे जब जागना भी न रहा और नीद भी न रही-तव आप बीच ये अतराल में उतर आएंगे। इसलिए सूफिया न रात्रिजागरण को बडा महत्त्व दिया है। महावीर ने उसी प्रयोग को अनान के द्वारा किया है। तम ये एक अदभुत ग्रन्थ 'विज्ञान मरन' मे गर ने पावती से ऐसे सक्दों प्रयोग कहे हैं। हर प्रयोग दो पक्तिया का है। हर प्रयोग का परिणाम वही है वि वीप का, गप आ जाए। शकर कहते हैं-सांस भीतर जाती है और बाहर आती है। पावती तू दोना बीच म ठहर जाना तो तू स्वय का जान लेगी । वहाँ ठहर जाना जहाँ न प्रेम होता है और न घणा ही। दोना के बीच में ठहर जाने पर तू स्वय का उपर प हो जायगी । अनशन उसी का एक व्यवस्थित प्रयोग है। (७) महावीर ने अनान क्या चुना? इसलिए कि सांसा के बीच ठहरना पठिन है लेकिन भाजन और अनान के बीच ठहरसा अपेक्षाकृत अधिक आसान है। सांस नान-वालटरी है वह आपको इच्छा से ही चलती। लेकिन भोजन करना 'वॉर टरी पृत्य है । मूपिया न नीद चुनी है यह भी यठिन है, क्यापि नीद भी 'नान-बॉरटरी' है आप अपनी कोशिा से उस नही बुला सक्त । जब यह नहीं आती तो सारा उपाय घरो यह नहीं आ सकती। महावीर ने बहुत सरल सा प्रयाग चुगा है जिसे बहुत सांग पर सरें। इसमें एप तो सुविधा यह है कि ९० दिना तक हम मोतन न भी परें तो पोई सतरा नहीं है। अगर ९० दिना तय विना साए रहना पड़े तो हम पागल हो जाएंगे। आज मामा ये अनुयाया ची मो सवस या पीडा रहे हैं वह यह है कि वे अपाविरोधिया या सोने न देंगे। भूरो रसार ज्यादा Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ महावीर : परिचय और वाणी परेशान नही कर सकते, क्योकि सात-आठ दिनो के बाद भूख बन्द हो जाती है, शरीर दूसरे यत्र पर चला जाता है-वह भीतर से भोजन पाने लगता है। ___ मनुष्य के हाथ मे दो यत्रो के बीच मे ठहर जाने का जो सर्वाधिक मुविधापूर्ण और सरलतम प्रयोग है, वह है अनशन । लेकिन अगर आप अभ्यास कर ले तो फिर कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यह प्रयोग आकस्मिक है। अचानक आपने भोजन नहीं लिया और जब आपने भोजन नही लिया तव न तो ध्यान रखें भोजन का, न उपवास का, वस, ध्यान रखें उस मध्यम विन्दु का कि वह कब आता है-आँखें बद कर ले और भीतर ध्यान रखे कि शरीर का यत्र कब स्थिति बदलता है। तीन दिन मे, चार दिन मे, पाँच दिन मे, सात दिन मे। कभी तो स्थिति बदल ही जाएगी। और जब स्थिति बदलती है तब आप विलकुल दूसरे लोक में प्रवेश करते हैं। आपको पहली दफा यह पता चलता है कि आप शरीर नही है । न तो वह शरीर जो अब तक काम कर रहा था और न यह जो अव काम कर रहा है। दोनो के बीच मे एक क्षण का यह वोध भी कि मैं शरीर नही हूँ, मनुप्य के जीवन मे अमृत का द्वार खोल देता है । ' (८-९) लेकिन महावीर के पीछे जो परम्परा चल पड़ी है, वह अनशन का अभ्यास कर रही है। जो जितना अभ्यासी है उसे उतना ही अधा समझिए । अभ्यास अधा कर देता है। / भोजन और अनशन के बीच जो सक्रमण है, दाजिशन है, वह बहुत सूक्ष्म और वारीक है, बहुत नाजुक है । जरा से अभ्यास से आप उसको चूक जाएंगे। इसलिए अनशन का भूलकर अभ्यास न करे। कभी अचानक उसका प्रयोग बहुत कीमती सिद्ध होगा। (१०) महावीर जानते है और जिन्होने भी इस दिशा मे प्रयोग किया है वे जानते है कि इस शरीर से आपका जो सम्बन्ध है, वह भोजन के द्वारा है। इस शरीर और आपके बीच जो सेतु है, वह भोजन है। अगर आपको यह जानना है कि मैं यह शरीर नही हूँ तो उस क्षण मे जानना आसान होगा जव आपके शरीर में भोजन बिलकुल नहीं है। जब जोडनेवाली कडी विलकुल नही है तभी यह जानना आसान होगा कि मैं शरीर नही हूँ। भोजन ही सयोजक कड़ी है, वही जोडता है। इसलिए भोजन के अभाव मे ९० दिन बाद सम्बन्ध टूट जाएगा, आत्मा अलग हो जाएगी, शरीर अलग हो जाएगा। तो महावीर कहते है कि जब तक शरीर मे भोजन पडा है, तब तक जोड है। उस स्थिति में अपने को ले जाओ, जव शरीर मे बिलकुल भोजन नहीं हो। तभी तुम आसानी से जान सकोगे कि तुम शरीर से अलग हो, पृथक् हो। तभी तादात्म्य टूट सकेगा। (११-१२ ) याद रहे कि शरीर मे जितना ज्यादा भोजन होता है, उतना ही ज्यादा शरीर के साथ तादात्म्य भी होता है। इसलिए भोजन के बाद नीद तत्काल Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ महावीर परिचय और वाणी आनी शुरु हो जाती है । शरीर के साथ तादात्म्य बढ जाता है तो मूर्छा बढ जाती है, शरार के साथ तादात्म्य टूट जाता है तो होश बढ़ता है। महावीर का सारा का सारा प्रयोग जागरण अमूर्छा मार 'अवेयरनेस का है। महावीर बहन हैं कि चूकि भोगन मा को बटाता है, तद्रा पैदा करता है इसलिए यदि भोजन न लिया गया हो तो इमसे उल्टा परिणाम हाता है, हाश बढेगा, जागरण वढेगा। (१३) महावीर ने यह अनुभव दिया कि जब शरीर म भोजन बिर कुल नहा होता तो प्रना अपनी पूरी शुद्ध अवस्था म होती है क्यावि तब सारे गरीर की का मस्तिप्प हो जाती है। पेट के लिए पचाने की कोई जरूरत नहीं रह जाता । महावीर कहते ये भोजन बिलकुर बद हो, गरीर की सारी क्रियाएँ बद हा शरीर क्सिी मूर्ति की तरह ठहरा रह जाए, हाथ भी न हिले उँगरिया भी व्यथ न हिले, सब प्रिया मिनिमम पर आ जाए तो शरीर की पूरी कर्जा जो अलग अलग बेटी है, मस्तिप्व' को उपरब्ध हो जाती है और मस्तिप्प पहली दफे जागने में समथ होता है । अगर महावीर न भाजन म भी शाकाहार वा पसद दिया, मासाहार या नहा तो यह सिफ अहिंसा के कारण नही । इसस भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण कारण दूसरा था और वह यह था कि मासाहार पचने में ज्यादा शक्ति मांगता है और बुद्धि की मूग वाती है। ___यदि अहिंसा अकेला पारण होता ता महावार बह सकते थे कि मरे हुए जानवर रेने म को हज नहा है। बुद्ध न ता आना दे दी थी कि मरे हुए जानवर पा मास गाया जा सकता है। रेवित महावीर ने मरे हुए जानवरों का मास सान को भी आना नहा दा, क्यापि उनमा प्रयासन मात्र महिमा नहीं है। महावीर वा गहरा प्रयोजन यह था कि माम पचने में ज्यादा शत्ति मागता है गरीर और पेट का ज्यादा महत्त्वपूर्ण कर जाता है। इससे मस्तिष्क की ऊजा क्षीण होती है और तदा गहरी होती है। यदि मस्तिप्प म कजा का प्रवाह बना रहे तभी आप जाग्रत रह सक्ने हैं। इसलिए इसे बाह्य तप बहा आतरिय तप रहा। जो आदमी नआन्तरिय तप पा उपर प हो जाया वह नाद म भी जागा रगा। तो महावीर न परा है कि यदि चेतना का बनाना है ता जब गरीर म भोगन नहीं है तभी यह आसानी में हो सकता है। (१८) रेक्नि कुद्ध रोग जब भाजन छाडत हैं तब उनकी चेतना नहा घटती रेप मा का पितन बढ़ जाता है। यकै नोजन छोड दना पुष्य नही है । नगर भापो सापा है विसिफ भाजन छाड देना ही पुण्य है तो भोजन छापर आप भाजन का चितन करा रहेंगे। ध्यान रह विभाजन चिनन समान ही बेहतर है। भाजपा पितन भाग से बदतर है यादि ताजा तो पट परता है और नितन मस्तिप्र । मस्तिप्प पा काम भाज या महा है। अच्छा होगा विनाप पैट Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० महावीर : परिचय और वाणी को ही अपना काम करने दे । अगर मस्तिष्क में भोजन का चिन्तन न चले, तभी अनशन का कोई उपयोग है.--यानी तव, जव भोजन भी नहीं और भोजन का चिन्तन भी नही। ____ क्या आपको पता है कि आपके चिन्तन के दो ही हिम्ने है ? चाहे तो काम या भोजन ? गहरे मे तो स्वाद की वासना काम-वासना ही है, क्योकि भोजन के बिना काम-वासना सम्भव नही है। महावीर से पूछेगे तो वे कहेंगे कि जो आदमी भोजन के लिए बहुत आतुर होता है वह वस्तुत काम-वासना से भरा है। भोजन इसका लक्षण है, क्योकि भोजन काम-वासना की शक्ति को बढाता है। इसलिए महावीर कहेंगे कि जो भोजन के चिन्तन से भरा है वह काम-वासना से भरा है। भोजन की वासना के छूटते ही काम-वासना शिथिल होने लगती है। (१५-१६) यह भी ध्यान रहे कि हमारे मन की गहरी ने गहरी तरकीब परिपूरक-'सन्स्टीट्यूट क्रिएशन'-पैदा करना है। अगर आपको भोजन नहीं मिलेगा तो आप मन ही मन भोजन का चिन्तन करने लगेगे और इस चिन्तन में उतना ही रस लेने लगेगे जितना भोजन मे । ./ (१७) भोजन करते तो पन्द्रह मिनट में वह पूरा हो जाता। चिन्तन मे पन्द्रह “मिनट से काम चलने को नही। पन्द्रह मिनट का काम पन्द्रह घटे करना पड़ेगा। चूंकि भोजन की शक्ति तो मिलेगी नहीं, इसलिए मन को चिन्तन मे ही उलझाए रखना पडेगा। इसलिए महावीर ने कहा है कि आप कोई काम गरीर से करते हैं या मन से, इसमे मैं भेद नही करता। आपने चोरी की या चोरी की वावत सोचा, मेरे लिए दोनो बरावर है, दोनो पाप हैं। आपने हत्या की या हत्या के सम्बन्ध मे सोचा, दोनो समान है। अदालत फर्क करती है। अगर आप हत्या के सम्बन्ध मे केवल सोचे तो अदालत आपको सजा नही दे सक्ती। लेकिन महावीर कहते हैं कि धर्म भाव को भी पकडता है। आप धर्म की अदालत से वाहर नहीं हो सकते । भाव पर्याप्त हो गया । महावीर कहते हैं कि कृत्य तो भाव को वाह्य छाया मात्र है। मूल तो भाव ही है । अगर मैंने हत्या करनी चाही तो मैंने हत्या कर ही दी । अन्तत. आप भीतर तौले जाएँगे, आपकी परिस्थिति नहीं तीली जाएगी। अगर आपने भोजन का चिन्तन किया तो आपका उपवास नष्ट हो गया। इसका मतलब यह हुआ कि आप तब तक उपवास न कर पाएंगे जव तक अपने चिन्तन पर आपका नियत्रण न हो । अभी तो हालत यह है कि आपका चिन्तन ही जो चलाना चाहता है, वही आपको चलाना पडता है, मन जहाँ ले जाता है, वही आपको जाना पड़ता है। आपके नौकर ही आपके मालिक हो गए हैं। (१८) सभी इन्द्रियाँ आपकी नौकर है, लेकिन मालिक हो गई है । आपने कभी अपनी इनद्रियो को कोई आज्ञा नही , उन्होने ही आपको आज्ञा दी है। तप का एक Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३०१ वय आपका बताता हूँ। तप का अर्थ है-~~-अपनी इंद्रिया की मालवियत, उहें न दन और उनस आनापारन परवान का सामय्य । पट कहता है कि भूख लगी है लेकिन आप कहत हैं---मूरा लगा है ता लगे, मैं आज मान देने को राजी नहा हूँ और आप माजन नहीं रेत जार न भाजन का चितन परत है । जव लापमा सफल इस अवस्था या पहुंच जाता है और आपम अपनी इद्रिया पर शासन करने के क्षमता उत्पन हा जाती है तब आप अनान करने के याग्य हो जाते हैं । उपवास ह सरता है तभी जब चितन पर आपका वश हो । रेविन चितन पर आपका कोई वा नहीं है। विचार को मालक्यित या काई प्रशिक्षण आपरा नहीं दिया गया । । (१९) लेकिन अगर आप मुनिश्चित है और आपली ना का मतल्व नही और हाँ का मतलव हां होता है, जोर सच म होता है, तो इंद्रिया इस बात का बहुत जरद ममझ जाती हैं । वे जल समय जाता हैं कि आपकी नाका मतर व नहीं है और आपकी हाँ रा मतलव हां है । इसलिए मैं कहता हूँ कि अगर आप सकल्प करें तो उसे कमी न ता1 यदि तोडना ही हो तो भी सकप न करें क्यापि सरप करपे तोडना आपको इतना दुघर पर जाता है जिसका पाद हिसाव नहा है। थाप अपनी ही आराम अपन हा सामन दीन हीन हो जाते हैं। इमरिए छोटे सकल्प से गुम्द करें। (२०२१) मेरे पास लग बात हैं और कहते हैं कि पडे बदरन से क्या होगा, आत्मा बरलनी है। पड बदरन की हिम्मत नहीं है और आत्मा बदग्नी है। व साचते हैं कि यह दलील उनकी अपनी है पर यह दलील उनके पपडे दे रहे हैं । जो मूसा नहीं रह सकता, वह कहता है कि मनान स क्या होगा? भूसे मरन म क्या होगा? कुछ नही होगा । लेकिन मैं पूछना है कि उपवास स कुछ भी न होगा ता वया माजन करन स हो जायगा? नग्न सडे होन स नहीं होगा ता क्या पदे पहनने से हो जायगा? (२०) महावीर निश्चित नहीं करत थे रि पब माजन रेंगे। वे इस यात पा नियति पर छाड देत थे। बतुत पठिन प्रयाग था यह । एम्बी पर एमा प्रयोग रिमी यस व्यक्ति ने नहीं किया। महावीर महत पि भाजन में तब लूगा जब मरे सवल्प पी पटना घटे (जस-जय में रास्त पर निवल तब किसी बर गाडी व मामन काई या मी सडा होकर राता रहे वर वार रग हा, उम आदमी पी एप आस फूटो है। योर दूमरा औस स नौमू टपरत हा)। और वह भी तय जर यहा पाई मानन दन के लिए निमत्रण द, नहीं ता माग 43 जाऊंगा । महावीर गोवा म जात और मन ही मन यह तय कर जात दि बुद्ध विशेष समाग हाने पर ही भाजन सूगा धया नहीं। यदि वह सयाग पूरा नहीं होता तो य आनन्दित होरर वापस लौट मान। ये पह्त हि जय नियति की हा इच्दा नहा है ता हम क्या इच्चा परें! जय जागतिर शत्ति हा पाहती है rि आज में भोजन न ए सा बारा सत्म हो गई। गांव Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महावीर : परिचय और वाणी मे अनेक लोग भोजन लेकर सड़े होते हैं और तरह-तरह के इन्तजाम करते है । परन्तु महावीर भोजन नहीं लेते। गाँव के लोग दिगम्बर मनियो के लिए आज भी ऐसा ही करते हैं। फिर भी उनके सकरप जाहिर हो जाते है और लोग वैसा ही प्रवध कर लेते हैं। दिगम्बर मुनि पहले ही कह देते है कि वे भोजन वहीं करेंगे जहाँ किनी घर के सामने केले लटके हो। यह बात लोगो को मालूम हो जाती है और सब लोग अपने घर के सामने केले लटका लेते हैं। दिगम्बर मनि सकरत करते हैं कि वे तभी भोजन लेगे जब कोई स्त्री सफेद साडी पहनकर भोजन के लिए बामत्रित करे । उनका सकल्प प्रकट कर दिया जाता है पीर स्नियां सफेद नाटी पहनकर उन्हें आमंत्रित कर लेती है। इसलिए अब जैन मुनि कभी बिना भोजन लिये नही लौटते ।। महावीर की प्रक्रिया कुछ और थी। वे किसी से कुछ कहते नहीं थे। मन-ही-मन सकल्प कर लेते थे कि जब ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होगी और जब नियति को मजूर होगा तभी में भोजन लूंगा। कभी-कभी तीन-तीन महीने उन्हे भोजन लिये बिना ही गाँव से लौट जाना पडता । जव मन के लिए कोई नीमा नहीं होती तो मन को तोडना बहुत आसान हो जाता है। इसक विपरीत, जब मन के लिए सीमा होती हे' तो उसे बचाना बहुत सरल होता है । यदि सीमा है तो लगता है कि एक ही घटे की बात है, निकाल देगे, चौवीस घटे की बात है, गुजार देंगे। लेकिन महावीर का जो अनशन था, उसकी कोई सीमा न थी। वह कब पूरा होगा कि न होगा, या वह जीवन का अन्तिम अनशन होगा-भोजन उसके बाद कभी न होगा-इनका कुछ पक्का पता नहीं होता। स्पष्ट है कि महावीर ने उपवास और अनशन पर जैसे गहरे प्रयोग किए, वैसे गहरे प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति ने इस पृथ्वी पर नही किए। मगर आश्चर्य है कि इतने कठिन प्रयोग करने पर भी महावीर को कभी-कभी भोजन मिल ही जाता था। उन्हे वारह वर्षों मे ३६४ वार भोजन मिला । कभी पन्द्रह दिन वाद, कभी दो महीने वाद, कभी तीन महीने बाद । इसलिए महावीर कहते थे कि जो मिलनेवाला है, वह मिल ही जाता है। उसका त्याग भी कैसे किया जा सकता है ? त्याग तो उसी का किया जा सकता है जो नही मिलनेवाला होता है। महावीर कहते थे कि जो नियति से मिला है, उसका कोई भी सम्बन्ध मुझसे नही है, क्योकि मैने किसी से मांगा नहा, मैंने किसी से कुछ कहा नही । छोड दिया अनन्त के ऊपर कि यदि जगत् को मुझ चलाने की कोई जरूरत होगी तो वह मुझे और चला देगा, यदि जरूरत न होगी ता बात खत्म हो जाएगी। मेरी अपनी कोई जरूरत नही है । (२३) ध्यान रहे कि महावीर की सारी प्रत्रिया जीवेषणा छोड़ने की प्रकिया है। महावीर कहते है कि मै जीवित रहने के लिए कोई एषणा नहीं करता। अगर इस अस्तित्व को ही-इस होने को ही-मेरी कोई जरूरत हो तो वह स्वय इसका इन्त Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी गम पर । मुये कोई जरूरत नही । आश्चय तो यह दसकर होता है कि इन शतों के बावजूद महावीर चालीस वप जिए । व स्वस्थ रहे और आन द स जिए। भूख न मार न डाला। नियति पर स्वय का छोड देने में वे दीन-हीन न हो गए। जावेपणा को हटा दन से मौत ही आ गई। हमारी यह धारणा कि हम अपन को जिरा रह हैं, वेवल विक्षिप्तता है, हमारा यह पयाल कि जब तक हम नहीं मरत तब तक हम मर कम सक्त है, मात्र नासमझा है। बहुत कुछ हमारे हाथ के बाहर है । जो हमार हाय के बाहर है उसे हाथ के | भातर समयन से ही अहकार या जम हाता है । जो हमारे हाथ के बाहर है उसे हाय के बाहर ही ममयने से अहवार विसजित होता है। (२०) महावीर न ता अपना भाजन पदा परत ये और न अपनी ओर स स्नान ही परत थे। वपा या पानी उन्हें जितना धुला रेता, धुला रेता । लकिन वडी मगे नगर वात ता यह है कि महावीर के शरीर स कभी पसाने की दुगध नही आती थी। जापन व भी सयाल किया कि सरडा पशु-पक्षी हैं जा कभी स्नान नहा करते ? उनक लिए वपा का पानी ही काफी है। उनके शरीर से दुगध नहीं आती। आदमी ही अवेरा जानवर है जो बहुत दुगध देता है, जिसे डियाडरण्ट की जरूरत पडती है । गज सुगध छिन्यो, सावुन स नहाओ, सब तरह क इतजाम क्रो तादि शरीर से गध न आए। महावीर न जा बहुत निक्ट थे वे यह देखकर बहुत चक्ति ये कि उनक शरार से दुगध नही थाती । असल में महावीर वसे हो जोते थे जैसे पण पलो जोते है । उहाँने प्रकृति पर, नियति पर, यपने को छोड दिया था। अनत सत्ता यी मीं पर अपन का पूर्णतया निछावर पर दिया था। असल म राजा होन स एक नई तरह की सुगध जीवन म पानी शुम्ब हो जाती है। जब हा प्रति पर अपन पो छाड देत है उमपी दी हुई सभी चीज, चाहे वह पसीन हा या दुगप स्वीकार पर रेत हैं तो एक अनूठी सुगध स जीवन भर गता है। सब दुगध प्रति व अस्वीकार की दुगध है, सब युरुपता नियति स अस्वीकार की बुरुपता है। स्वीकार ये साय ही एक अनूठा मौन्दय आ जाता है, एन धनूठा मुगध से जीयन भर जाता है। महावीर ने समस्त पर अपने को छोड़ दिया पा। जय वादल बरसे तव स्नान हो गया । स्नान परना तो सिफ प्रताप है। वात पुर इतनी है कि महावीर न छोड दिया है स्वय को नियति पर । व नियति स, समस्त रो माना गहन है-जावरना हो पर, राजी । पर राजी होना अहिंसा है। और इस राजी हान पे लिए हो उहनि मनतामा प्रायमिर सून या है क्योगि जब तप मापकी इद्रियां आपसे राजी नहीं है तव तर आप प्राति से राजी ग हागे? भापती द्रिया ही आपम राजी नहीं है । पट कहता है भागादा, गरीर रहता Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ महावीर : परिचय और वाणी है कपडे दो, पीठ कहता है विश्राम चाहिए। आपकी समस्त इन्द्रियो ने आपसे वगावत कर रखा है। वे कहती हैं—यह दो, वह लाओ, नही तो तुम्हारी जिन्दगी बेकार है, अकारथ है, तुम वेकार जी रहे हो। इतने छोटे-से गरीर मे जब इतनी छोटीछोटी इन्द्रियाँ आपसे राजी नहीं हो पाती तो इस विराट गरीर से ब्रह्माड से-आप कैसे राजी हो पाएँगे? फिर, जब तक आपका ध्यान इन्द्रियो मे ही उलझा रहेगा तव तक वह उस विराट पर जायगा भी कैसे ? वह यही छुद्र मे अटका रह जायगा। महावीर कहते हैं-पहले इन्द्रियो को अपने से राजी करो। अनगन का यही अयं है कि पेट को अपने से राजी करो, तुम पेट से राजी मत हो जाओ। भली-भाँति जानो । कि पेट तुम्हारे लिए है, तुम पेट के लिए नहीं हो। (२५) अनगन का अर्थ यही हैं कि हम इन्द्रियो को ऊपर बुलाएँ, उनके साथ कभी नीचे नही जाएँ ।' Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादश अध्याय उणोदरी आदि शेप वाह्य तप ठाणे निमीयणे चेव, तहेव य तुयदृणे । उल्लघणपत्लघणे, इदियाण य जुजणे ॥ -उत्त० अ० २४, गा०२४ अनगन के बाद महावार न दूसरा वाह्य तप उणोदरी कहा है। उणोदरा का यथ है अपूण भोजन, अपूर्ण आहार । महावीर ने अनान के बाद उणोदरी को क्या रमा ? आम तौर से जा लाग अनान का अभ्यास परत है, वे पहले उणोदरी या अभ्यास करत हैं, व पहले आहार को कम करन की कोशिश करते हैं । जव यम आहार पी आदत हो जाती है तब वे अनान का प्रयोग शुरू करते है । यह विरपुल ही गलत है। महावीर ने जान-बूझकर पहर अनशन वहा और फिर उणादरी की चचा की। उणोदरी का अभ्यास आसान है रविन एप बार उणादरी का अभ्यास हो जाए तो उस अभ्यास के बाद अनसान या माई अय या प्रयोजन नहीं रह जाता। उपादरी या अय बुर इतना ही हाता है कि पट जितना मांगे उस उतना नहा देना। इसलिए उणाटरी बहुत याटिन है । पाठिन इस लिहाज से है कि आपका पहले से यही पता नहीं दि म्वाभाविक भूरा वितनी है। इसलिए आपको पहले अपनी स्वाभाविप भूत खाजनी पटेगी। इमलिए अनशन को पहले रगा गया है। अनान आपरी स्वामाविर भूपर का साजने म सह्यागी होगा। तब आप विल पुल पूरी रहेंगे और भूम रहन का साल करगे, तब कुछ ही दिना म पाएंगे कि आपको आदत यो समूग गइ । यह अगली भूस न यो । अनाना महावीर पहर रिया तारिठा मूत मिट जाए अमगे मूग या पता चल जाए और रोओ रो भाजन गरिए पुपाराग। (जीव विमानी पहत हैं कि आदमी व भीतर एक जविय परीही हा आदत पीती एव पडी हाती है। स्वामाविरमा ता - - १ सयमी पुष्प पा रहने मे, मटने म, सोने मे, उल्लघन प्रत्धन परने मे सपा इदियो प्रयोग में सदा दायरा पा नियत्रण परे । २ दूसरी भूग भादत सी होती है, यह मादत पोपड़ी से पारित होती है। ३ यायोरनिरा बनार । ४ हैबिट नाप । २० Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ महावीर : परिचय और वाणी वहुत मुश्किल से लगती है, पर नियम से बंधी हुई भूख रोज लगती है। अनशन से स्वाभाविक भूख का पता चलता है और नियम से बंधी हुई भूख मिट जाती है।) अनशन आपके भीतर वास्तविक भूख को उघाडने मे सहयोगी होगा। जव वास्तविक भूख उघड आए तव, महावीर कहते है, उणोदरी मे आइए । जव दास्तविक उघड आए तो वास्तविक से भी कम लीजिए और अवास्तविक भूख को तो कभी पूरा कीजिए ही मत । यह ( अवास्तविक भूख) खतरनाक है। वास्तविक भूख को पूरा करते समय थोडी जगह खाली रखिए। ____एक सीमा तक ही हमारी भूख, हमारी वासनाएँ ऐच्छिक होती है। इस सीमा के बाद वे 'नान-वालटरी' हो जाती है। जिस सीमा के पार भूख अनैच्छिक हो जाए, उसी सीमा पर रुक जाना उणोदरी है। तीन रोटी की जगह ढाईरोटी खा लेने से ही उणोदरी नही हो जायगी। उणोदरी का अर्थ है इच्छा के भीतर रुक जाना, अपनी सामर्थ्य के भीतर रुक जाना। (अपनी सामर्थ्य के बाहर जाते ही आप गुलाम हो जाते है।) महावीर कहते है कि चरम पर पहुँचने के पहले रुक जाना । जव क्रोध मे किसी पर हाथ उठ जाए और उसके करीव पहुँच जाए, तब उसे रोक लेना । जहाँ मन सर्वाधिक जोर मारे, उसी सीमा से वापस लौट आना । स्मरण रहे कि कुछ न करना आसान है, लेकिन चरम सीमा से लौट आना बहुत मुश्किल । फिल्म न देखने मे उतनी अडचन नही है जितनी अडचन इस बात मे है कि उस समय उसे छोड दिया जाए जिस समय आपकी उत्सुकता चरम सीमा का स्पर्श करती रहे । किसी को प्रेम ही नहीं किया तो इसमे क्या अडचन हो सकती है ? लेकिन प्रेम जब अपनी चरम सीमा पर पहुंचा हो तव उसके पहले ही वापस लौटना अत्यन्त कठिन है। उणोदरी अनशन का ही उपयोग है, लेकिन थोड़ा कठिन है । आम तौर से आपने सुना होगा कि यह सरल प्रयोग है और यह भी कि जिससे अनशन न बने वह उणोदरी करे । मैं आपसे कहता हूँ, अनशन से उणोदरी कठिन प्रयोग है । जिससे अनशन बन सकता है, वही उणोदरी कर सकता है। महावीर का तीसरा वाह्य तप है वृत्ति-सक्षेप । इसका परम्परागत अर्थ यह है कि अपनी वृत्तियो और वासनाओ को सिकोड लो-जहाँ दस कपड़ो से काम चल सकता है, वहाँ ग्यारह कपड़े न रखना, अगर एक बार भोजन से काम चल सकता है तो दो बार भोजन न करना। लेकिन महावीर का अर्थ गहरा है और परम्परागत अर्थ से भिन्न है । उनकी दृष्टि मे वृत्ति-सक्षेप एक प्रक्रिया है। आपके भीतर प्रत्येक वृत्ति का पृथक-पृथक केन्द्र है। सेक्स का एक निजी केन्द्र है, भूख का एक अलग केन्द्र । इसी प्रकार प्रेम का एक केन्द्र है और बुद्धि का एक केन्द्र । लेकिन साधारणत हमारे सारे केन्द्रो के कार्य मिश्रित हो गए है, 'कन्फ्यूज्ड' है, कारण कि एक केन्द्र का काम हम दूसरे केन्द्र से लेते रहते हैं, दूसरे का तीसरे से, तीसरे का चौथे से। इस प्रकार Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी वाम नहीं हो पाता और केद्र की गति भी नष्ट होती है । गुजिएफ रहता था कि प्रयक पेद्र को उसबै वाम पर सीमित कर दो । महावीर के वत्ति सक्षेप का यही अथ है। प्रत्येक वृत्ति को उसके वे द्र पर मक्षिप्त पर तो उस कही और अय के द्वा के आसपास मत भटकन दो। इससे व्यक्ति म एक मुघडना और स्पष्टता आती है और वह कुछ भी करने म समथ हो जाता है। उसकी प्रत्यर वत्ति टोटल इटेंसिटी म जीने रगती है। इसलिए वह व्यय हो जाती है। याद रहे कि जिस वृत्ति का भी आप उसकी समग्रता में जीते हैं वह व्यय हो जाती है। और आत्मदशन के पूर्व वतिया का व्यय हो जाना जरूरी है । इस सम्बध म यह भी स्मरणीय है कि साधारणत हमारी सारी वत्तिया बुद्धि या मन को घेर रहती हैं, क्याकि हम मन से ही सारा काम करते हैं। भोजन मा मन से करना पड़ता है, सभोग भी मन से करना पड़ता है क्पड़े भी मन से पहनने पुरते है। इसी कारण बेचारी बुद्धि निवर और निवीय हो जाती है, दुनिया म बुद्धिहीनता फलनी है। वत्ति-मक्षेप पर महावीर ने दो कारणा स बल दिया है। एक ता जो वत्ति अपन केंद्र पर सगहीत या एकाग्र हो जाती है आपको उस वत्ति के वास्तविक अनुभव मिलन गुरू हो जात हैं। दूसरा यह कि वास्तविक अनुभव से मुक्त हो जाना बहुत आमान है क्योकि वास्तविक अनुभव बहुत दुसद है । रत्री की कल्पना से मुक्त हाना बहुत याठिा है स्त्री से मुक्त हा जाना बहुत आसान । धन की कल्पना से मुक्त हो जाना बहुत कठिन है, धन र ढेर से मुक्त हो जाना बहुत सरल। कल्पना से मुक्त होना है क्याषि कपना पहा टहरन नहीं देती, वह बहती वहाती चली जाती है। कही अत ही नहीं आता। वुद्धि का निजी काम है ध्यान । जब पुद्धि अपन मन में ठहरती है, अपो मे रुकती है तव बदिमत्ता आती है। लेकिन हमने इस सब तरह से बोझिल पर रखा है। वह अपना काम कय कर ? इसीलिए हम बुद्धिमता का पाइ पाम जीरन म नहा कर पाते। इमसे केवल साधन का ही पामते रहे हैं-चमी पन पमान या काम कभी शादी करन वा काम कमी रेडियो सुनने वा पाम । लेगिन बुद्धि की धुद्धिमत्ता पनपने नहा देते। इसरिए महावीर ने कहा है कि प्रत्येय वत्ति का उसने अपन पत्र पर सक्षिप्न वरी। उसे परन मतदा। भूख लगे ता पट से लगन दो बद्धि से यहा । बुद्धि को यह दो पितू चुप रह इमपी फिर छाड दे कि कितना बना है पेट पर देगा नि मूब ली है सब हम मुन लेंगे। इसी प्रकार नीद व यत्र यो अपना काम परोदा पाम-वामना के यत्र का अपना काम परो दो । तब तुम्हें धन यी दा छोड़नी नहा पदेगी। तुम अचानन पाआगे पि जो जो ध्यय था वहट गया । तुम्हें बा मपान बनान या पागापन छोडना ही पडेगा, तुम्हें दिर जायगा मि पितना वा मपान तुम्हारे लिए जरूरी है। सा अध यह रहा कि अगर आप सब छाडपर नाग जाएं तो आप बदर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ महावीर : परिचय और वाणी जाएँगे । यह जरूरी नही है । अगर चीजो को त्यागने से आप बदल सके तो चीजें बहुत कीमती हो जाती है । अगर चीजो को छोडने से मुझे मोक्ष मिलता है तो ठीक है, मोक्ष का भी सौदा हो जाता है । चीजो की ही कीमत चुकाकर मोक्ष मिल जाता है । महावीर वस्तुओ को मूल्य नही दे सकते । इसलिए मैं कहता हूँ कि उनकी दृष्टि मे वस्तुग्रो के त्याग का नाम वृत्ति-सक्षेप नही है । कुछ लोग परेशानी को ही तप समझ लेते है । जो परेशानी को तप समझ लेते है उनकी नासमझी का कोई हिसाव नही है । तप से ज्यादा आनन्द की कल्पना नही की जा सकती । तपस्वी के आनन्द का कोई अन्त नही होता । जिस दिन आपकी सारी शक्ति वृत्तियो से मुक्त होकर बुद्धि को मिल जाती है, उसी दिन आप मुक्त हो जाते है । जिस दिन समस्त शक्तियाँ बुद्धि की तरफ उसी तरह प्रवाहित होने लगती है जिस तरह नदियाँ सागर की तरफ प्रवाहित होती हैं, उसी दिन वुद्धि का महासागर आपके भीतर फलित होता है । उस महासागर का आनन्द, उस महासागर की प्रतीति और अनुभूति दुख की नही, परे - ज्ञानी की नही, परम आनन्द की है । वह परम प्रफुल्लता की अनुभूति है, किसी फूल के खिल जाने-जैसी या किसी मृतक मे जीवन आ जाने जैसी । बाह्य तप का चौथा चरण है 'रस- परित्याग | रस परित्याग किन्ही रसो या स्वादो का निषेध नही है । वस्तुत साधना के जगत् मे स्थूल से स्थूल दिखाई पडनेवाली बात भी स्थूल नही होती । चूंकि सूक्ष्म के लिए कोई शब्द नही होता, इसलिए स्थूल शब्दो का प्रयोग करना पडता है । वाह्य जगत् के शब्दो का प्रयोग करना मजबूरी है । रस की पूरी प्रक्रिया क्या है ? स्वाद आपकी जिह्वा मे होता है या आपके मन मे? स्वाद कहाँ है ? रस कहाँ है ? यह जान लें, तभी रस- परित्याग का अर्थ खयालमे आ सकेगा । जो स्थूल मे देखते है, उन्हे लगता है कि स्वाद या रस वस्तु मे होता है, इसलिए वस्तु को छोड देना ही उनकी दृष्टि मे रस - परित्याग है । वस्तुत. वस्तु मे स्वाद नही होता । वस्तु केवल निमित्त बनती है । अगर भीतर रस की पूरी प्रक्रिया काम न कर रही हो तो वस्तु निमित्त बनने मे भी असमर्थ होती है । जैसे—यदि आपको फाँसी की सजा दी जा रही हो और उसी समय खाने को मिष्ठान्न, तो वह मिष्ठान्न आपको मीठा नही लगेगा, यद्यपि वह अभी भी मीठा ही है । पर जो मीठे सवेदनशील लेकिन मन को भोग सकता है, वह बिलकुल अनुपस्थित हो गया है । स्वाद-यत्र के तत्त्व अव मी भीतर खवर पहुँचाएँगे कि मिठाई मुँह पर है, जीभ पर है, उन खवर को लेने की तैयारी नही दिखाएगा । हो सकता है कि मन उस खबर को ले ले, फिर भी मन के पीछे जो चेतना है उसके और मन के बीच का सेतु टूट गया है, मम्बन्ध टूट गया है । मृत्यु के क्षण मे वह सम्वन्ध नही रह जाता । आपके व्यक्तित्व को बदलने के लिए चिकित्सक शॉक - ट्रीटमेट का उपयोग करते रहे है । शॉक Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३०९ ट्रारमट का दुर इतना ही अथ है कि आपकी चेतना और आपके मन का सतु क्षण भर को टूट जाए। वस्तु में रस नही होता, मिफ रस का निमित्त होता है। वैनानिक कहते है कि रिसी वस्तु म बाइ रग भी नहा हाता, वस्तु वेवल निमित्त होती है किसी रग का आपके भीतर पैदा करने के लिए। जब आप नहीं हाते, जब कोई देखनवाला नहीं होना तव वस्तु रगहीन हो जाती है। इसी प्रकार इस बात को सयाल म ले लें कि हमार मब रस वस्तुआ और हमारी जीभ ये वीच सम्बध हैं। लेकिन बात इतनी ही नहीं है । यदि रस वस्तुआ आर जीम के बीच सम्बघ-मान है ता रस-त्याग बहुत सरल हो जाता है। आप अपनी जीभ का सवेदनहीन कर लें या वस्तु का त्याग कर दें ता रम नष्ट हो जायगा । क्या इसे ही रस-त्याग कहेंगे? साधारणत महावीर की पर म्परा मे चलनेवाले साधु तो यही परते हैं। वे वस्तु को छोड़ देते हैं और सोचते हैं वि रस से मुक्ति हो गई। लेकिन रस से मुक्ति नहीं हुई। वस्तु म ममी भी उतना हा रस है और जीम म अमी भी उतनी ही सवेदनशीलता । महावीर न रस को अप्रस्ट परने की सलाह नहीं दी है। रस-परित्याग करने को कहा है। अक्सर तो वात एमा हाती है कि जो छिप जाता है, वह छिपकर और भी प्रवर तथा सशक्त हो जाता है। मन को मार डारन स रस-त्याग नहीं हा सकता। हम सोचते हैं कि मन का दवा-दबाकर मार डालना सम्गव है। लेकिन मन का नियम यह है कि जिस बात को हम मन से नष्ट करना चाहत है मन उसी बात में ज्यादा रमपूण हो जाता है। अगर आपको पोइ समयाए वि मर जाआ तो जीन का मन पदा होता है। मन विपरीत म रम रेता है। इसलिए मन को मारने स रम परित्याग नहीं हो सकता और न यस्तुआ को छोडने स ही यह सम्भव है । हम समी तो मन से लड़ते है, रेपिन हमन कौन स रस पा परित्याग पिया है ? मात्राआ ये भेद नरे हा रेविन है हम ममा मन स रहनवाले । लेविन भी इस एडाई सफाई पर नहीं पड़ता। इमरिए महावीर मन से रडन या नही रहत। ना मी मन स ल्हन मे लगेगा, वह रम को जगाने म लगेगा। रम-परित्याग अथवा रस विसजा पा सूत्र है कि चेतना और मा या समय टूट जाप। य सम्बध करा टूटगा ? जब तक में यह साचता हूँ कि मैं मन हूँ तब तर पह मम्य पायम रहेगा। इस सम्बध प टूट जान पा अय है यह जानना कि मैं मन नहीं हैं। इमा रमहिन मिन हो जाता है यो जाता है। रग-परित्याग का प्रापया है-मन के प्रति गाला नाय । गव भाप भोजन पर हैं तव में यह नहीं रहेगा कि आप भोजन 7 पर यह रमपूर्ण है। में आपगे यह भी नहीं पता कि घाप अपनी जीन पो जरा से परारि जाम रस पनी है । मैं आपगे पहुँगा कि आप नाना नरें, जीम गा पाद रेगे दें, मनमा पूग पियाम होन दें fr यह पहन Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० महावीर : परिचय और वाणी स्वादिष्ट है । सिर्फ भीतर इस सारी प्रक्रिया के साक्षी वनकर खड़े रहे । देखते रहें यह मानकर कि मैं सिर्फ देखनेवाला हूँ, मै द्रप्टा हूँ, साक्षी हूँ । इससे रस का आकर्षण खो जायगा पर इन्द्रियाँ वही रहेगी, उन्हें नष्ट करना नही पडेगा । जव क्रोध आए तव कहिए कि क्रोध आया, मैं इसे देखता हूँ । जव क्रोध आए तव रस- परित्याग की साधना करनेवाला व्यक्ति कहेगा कि क्रोध आ रहा है, क्रोध जल रहा है लेकिन मैं देख रहा हूँ । लेकिन साक्षी होना भी वाह्य तप है । अगर मै साक्षी हो रहा हूँ तो भी बाहर का हो रहा हूँ, वस्तुओ, इन्द्रियो और मन का हो रहा हूँ । ये सब पराए है । ध्यान रहे, महावीर कहते हैं कि साक्षी होना भी बाहर है । इसलिए जब कोई केवली होत है तब वह साक्षी भी नही होता। किसका साक्षी होना है ! साक्षी मे भी द्वैत है, कोई है जिसका मैं साक्षी हूँ । जव तक मैं ज्ञाता होता हूँ तब तक कोई ज्ञेय मौजूद होता है | इसलिए केवली ज्ञाता भी नही होता, वह ज्ञान मात्र रह जाता है । रस- परित्याग के बाद काया-क्लेश और सलीनता नामक वाह्य तपो का स्थान है । महावीर के साधना सूत्रो मे काया- क्लेश को सबसे ज्यादा गलत समझा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि काया- क्लेश का साधक गरीर को नष्ट करता है, काया को क्लेश देता है, काया को सताता है । लेकिन महावीर किसी भी सतानेवाली बात मे गवाह नही हो सकते, कारण कि सब तरह का सताना हिंसा है । अपने शरीर को सताना भी हिसा है । फिर भी महावीर की परम्परा ने ऐसा ही समझा कि काया को सताओ और इस तरह आत्मपीडको का एक बडा दल उनकी धारा मे सम्मिलित हो गया । महावीर यह नही कहते कि तुम अपनी काया को सताओ। उसे सताने की जरूरत नही है । काया खुद ही इतना सताती है कि अव तुम उसे क्या सतायोगे ? काया के अपने ही दुख पर्याप्त है, इसलिए और दुख इजाद करने की जरूरत नही । लेकिन काया के दुख पता न चले, इसलिए हम सुख ईजाद करते है, सुखका आयोजन करते है । आज नही मिला, कल मिलेगा, परसो मिलेगा । इस तरह आज के दुख को भुलाने के लिए हम कल के दुख का निर्माण करते रहते है । आज पर परदा पड जाए, इसलिए कल की तस्वीर बनाते है इसलिए कोई आदमी वर्तमान मे जीना नही चाहता । महावीर जानते हैं कि जैसे ही साधना मे प्रवेश होगा, कल टूटने लगेगा, आज मे जीना होगा । और सारे दुख प्रगाढ होकर चुभेगे, सब ओर बुढापा और मौत दिखाई देगी । न नाव होगा, न सहारा और न किनारा । तव वडा क्लेश होगा । उस क्लेश को महना और स्वीकार करना - जानना कि यह जीवन की निर्यात है, जानना कि यह प्रकृति का स्वभाव है । काया-क्लेश का अर्थ है कि जो आए, उसे स्वीकार करना । उससे वचने की कोशिश भविष्य के स्वप्न में ले जाती है । उसके विपरीत सुख बनाने Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३११ को चिन्ता म मन पडना । ध्यान रह कि इस जगत म जिसे मुक्त होना है उस दुष से हो मुक्त होना है। सुस है ही नहीं उससे मुक्त क्या होइएगा? वह भ्रम ह । दुख से मुक्त होना होता है और दुख से भक्ति दूख को स्वीकृति मे छिपी है, उसके समग्र स्वीकार म निहित है। वाया दुख है, इसके समग्र स्वीकार को ही काया-वा कहते ह । वाया क्लेग का अर्थ है कि स्वीकार कर लो दुख को । इतना स्वीकार करा कि तुम्हें क्लेश का बोध ही मिट जाए । क्लेश का वाघ उसी दिन मिट जाएगा जिस दिन पूण स्वीकृति होगी। इसलिए महावीर सब दुखा के बीच आनद से मरे धूमत रहत हैं। वाया-क्लेश को स्वीकृति इतनी गहन हो गई है कि उसे दुख का काई पता भी नहीं चलता। काया-क्लेश की साधना गुरू होती है दुस के स्वीकार से पूण होनी है दुप, विसान स। दुप वस्तुत विसर्जित नहीं हो जाता। जव तक जीवन है तब तक तो वह रहेगा ही, लेकिन जिस दिन स्वीकार पूरा हो जाता है उस दिन आपके लिए दुख नहा रह जाता। दुख की स्वीकृति द्वारा दुस से मुक्ति का उपाय करना ही पाया-करेग की साधना है। काया को क्प्ट देने की कोशिश काया-क्लेश की साधना नहीं कही जा सक्ती, क्याकि जो व्यक्ति काया को दुख देने म लगा है, वह किसी न किसी सुख की नाकाक्षा से प्रोत्साहित होता रहता है । जब तक हम काइ सुप के लिए प्रयत्न करत हैं तब तक हम सुख की ही आकाक्षा से करत हैं। हम अपने शरीर का भी सता सक्त हैं सिफ इस उम्मीद मे कि हम मोक्ष मिलेगा, आत्मा मिलेगी। किन्तु महावीर की दृष्टि म विसी सुन के लिए गरीर को दुस देना काया रेश नहीं है। बाह्य तप का अन्तिम सूत्र है सरीनता । सलीनता सेतु है वाह्य तप और जन्तर तप के बीच, वह सीमान्त है। वही स बाह्य तप समाप्त होत हैं और अन्तर तप का भारम्भ होता है । परम्परा के अनुसार अपने गरीर के अगा को व्यय संचालित न करना सलीनता है । लेकिन बात इतनी ही नहीं है, बत्ति यह तो कुछ भी नहीं है। सलीनता तय घरित होती है जब भौतर सब शान्त हो जाता है जब भीतर स एसी पाई तरग नही नाती जो शरीर पर कम्पन बने। सलीनता ये अभ्यास म जिमरा उतरना हा उस पहले अपन शरीर को गति विधिया का निरीक्षण परना हाता है। सलीनता का पहला प्रयाग है सम्यक निरी क्षण। जब आपका मन शान्त हो तब आईने के सामने खड़े हो जाइए। जब कोई गात चित से अपने प्रोध का निरीक्षण करता है तो प्रोष विलीन हो जाता है, निरोपण से शाति और गहरी हा पाती है। प्रोध इसलिए विलीन हा जाता है कि प्राप से आपका सम्य प टूट जाता है। प्रोध स सम्बद्ध होन के लिए बेचैन हाना जारी है वितु अध्ययन के लिए गान्त होना आवश्यक है। महावीर ने तल्लीनता मा उपयोग नहीं किया है। तल्लीनता सदा दूसरे म लीन होन का नाम है और Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ महावीर : परिचय और वाणी मलीनता अपने मे लीन होने का पर्यार । महावीर पाहते हैं : मीन तो जाना, मान में लीन हो जाना ताकि दूगग बने ही नहीं। उनका एक बल पास गरे आत्मरमण-~-अर्थात् अपने मे ही रमना । महावीरो निनो दे। ऐगा प्रतीत होगा कि वे एक ऐने फूल है जिनकी पगलिया बन्द हो गई। महानोर अपने भीतर है। जैसे फूल के भीतर कोई भंवरा बन्द हो गया हो। उनकी गारी नेतना नलीन हो गई है अपने मे। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय अतर्-तप सरभसमारभे, आरभे तहेव य । वाय पवत्तमाण तु नियत्तिज्ज जय जई ॥ -उत्त० अ० २४, गा० २५ तप के छ बाह्य अगो की चर्चा हो चुकी। अव आइए, हम छह अतर तपा की चचा करें। ये छ अतर् तप हैं (१) प्रायश्चित्त (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और (६) कायोत्सग । (१) प्रायश्चित, गरकाशा अनुसार, पश्चात्ताप का पयाय है। असर म प्रायश्चित्त का अर्थ यह नहीं है। पश्चात्ताप और प्रायश्चित म उतना ही अन्तर है जितना जमीन और आसमान म । पश्चाताप का अथ है-जा आपने किया उसके रिए पछतावा । आपस एक छोटी सी भूल हो गई थी, उसे मापने पश्चात्ताप करके पार दिया । आप ह बहुत अच्छे आदमी। गाली आप दे नही मक्ते। किसी परि स्थिति में गाली निकल गई होगी, इसलिए आप पछता लेत है और फिर से अच्छे आत्मी वन जात ह। पश्चात्ताप आपको बदलता नहीं, जो आप थे, आप वही रह जाते हैं। इसलिए पश्चात्ताप आपके अहवार को बचान की प्रक्रिया है। आप राज पश्चात्ताप करेंगे और आप रोज पाएंगे कि आप वही कर रहे हैं जिसके लिए आपने कर पश्चात्ताप किया था। पश्चात्ताप नापकी अतरात्मा मे कोई परिवतन नहा लाता। जन महावीर के पास काई साधर आता तो वे उसे पिछजमा ये स्मरण म ल जाते, सिफ इसलिए कि उसे इस बात का पता चल जाए कि उसने वितनी वार एक ही भूर की है और उसके रिए पश्चात्ताप किया है। पश्चात्ताप फम फे गलत हाने के बोध से सम्बंधित है, प्रायश्चित्त इस योष से सम्बन्धित है कि मै गलत हूँ। पश्चात्ताप करोवाला वही का वही बना रहता है, प्रायश्चित्त करनेवार का अपनी जावा चेतना रूपातरित कर देनी होती है । पश्चात्ताप तो जीवन का सहज प्रम है। हर नादमी पश्चात्ताप करता है इसलिए पश्चात्ताप को साधना बनाने की क्या जरूरत है । वस्तुत यह साधना नहा केवल मन का नियम है। १ सयमी पुरुष सरम्भ, समारम्भ लार आरम्भ म प्रयत्त होतो काया को सावधानी से नियत्रण करे। - - Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ महावीर : परिचय और वाणी प्रायश्चित्त बहुत अद्भुत घटना है। पञ्चात्ताप देस लेता है कि कर्म की कोई भूल है, प्रायश्चित्त देखता है कि मैं गलत हूँ, कर्म नही, क्योंकि कर्म क्या गलत होगा ? गलत आदमी से गलत कर्म निकलते है-कर्म कभी गलत नहीं होते। उनलिए पश्चात्ताप से सजग हो। पश्चात्ताप आपको बदलेगा नहीं, बदलने का पोसा देगा। प्रायश्चित्त को महावीर ने अन्तर तप का पहला हिस्सा इसी कारण बताया कि वही व्यक्ति अन्तर्यात्रा पर निकल सकता है जो कर्म की गलती छोटकर वय की गलती देखना शुरू करे । देखिए, तीन तरह के लोग होते हैं। एक व लाग है जो दूसरो की गलती देखते है, दूसरे वे है जो कर्म की गलता दखते है और तीसरे वे है जो स्वयं की गलती पर ही ध्यान देत है। जो दूसरो को गलती देखते है, वे तो पश्चात्ताप भी नहीं करते। जो कर्म की गलती देखते हैं, वे पश्चात्ताप करते हैं और जो स्वय की गलती देखते है, वे प्रायश्चित्त मे उतरते है । लन्तर्याना के पथिक को यह समझ लेना होगा कि दूसरा कभी भी गलत नहीं होता। वह गलत होता है तो स्वय के लिए। आप गलत होते हैं स्वय के लिए। दूसरों के लिए आप गलत नहीं हो सकते। दूसरा गलत नहीं है, इस स्मरण से ही अन्तर्यात्रा गुरु होती है । दूसरा गलत है, यह दृष्टि ही गलत है। प्रायश्चित्त तव शुरू होता है जब मैं मानता हूँ कि मै गलत हूँ। सच तो यह है कि जब तक मैं हूँ तब तक गलत होऊँगा ही। मेरा होना.ही मेरी गलती है। जब तक मैं नहीं न हो जाऊ, तव तक प्रायश्चित्त फलित नही होगा । और जिस दिन मै नहीं हो जाता हूँ-शून्यवत् हो जाता हूँ-- उसी दिन मेरी चेतना रूपान्तरित हो जाती है और नए लोक में प्रवेश करती है । प्रायश्चित्त जाग्रत चेतना का लक्षण है, पश्चात्ताप सोई हुई चेतना का लक्षण । प्रायश्चित्त मे वही उतर सकता है जो अपने को झकझोर कर पूछ सके कि इत्त जिन्दगी का मतलब क्या है ? यह सुबह से शाम तक का चक्कर, क्रोध और क्षमा का चक्कर, प्रेम और घृणा का चक्कर-~-यह सब क्या है ? धन, यश, अहकार, पद, मर्यादा-यह सब क्या है ? मैं कहता है कि प्रायश्चित्त जागरण का सकल्प है, पश्चात्ताप नीद मे की गई गलतियो की क्षमा-याचना है। प्रायश्चित्त सोये व्यक्तित्व को जगाने का निर्णय है, इस बात का बोध हे कि मैने आज तक जो भी किया, वह गलत था, क्योकि मै गलत हूँ। अब मै अपने को बदलता हूँ, कर्मों को नही । तथ्य की स्वीकृति प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त मे स्वीकार है, पूर्ण स्वीकार है। 'कही कोई चुनाव नही । मै चोर हूँ तो चोर हूँ, वेईमान हूँ तो वेईमान हूँ। इसलिए जहाँ पञ्चात्ताप दूसरो के सामने प्रकट करना पड़ता है, वहाँ प्रायश्चित्त स्वय के समक्ष । और ध्यान रहे कि महावीर प्रायश्चित्त को इतना मूल्य दे पाए क्योकि उन्होने परमात्मा को कोई जगह नही दी, नहीं तो पश्चात्ताप ही रह जाता। तुम ही हो, और कोई नहीं। कोई आकाश मे सुननेवाला नही, जिससे तुम कहो कि मेरे पाप क्षमा कर देना। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी याइ क्षमा करेगा नहीं, कोई है ही नहीं। इसलिए चिरलाना मत । इस घोपणा से कुछ भी न होगा। दया की मिक्षा मत मागना, क्योकि कोई दया नहीं हो सकती। काइ दया परनवाला नहा हैं सरिए प्रायश्चित्त दूस के समक्ष नही, अपा ही समक्ष हाता है। महावीर पहा आदमी हैं इस पथ्वी पर जिहाने कहा कि स्वग और नव मनो दशाए हैं, माड की स्टेटस हैं, चित दशाएं हैं। मोक्ष काई स्थान नहा है। इसलिए महावीर ने कहा है कि मोल स्थान के बाहर है वह सिफ एक जवस्था है। जहा हम बडे है वही नक है। इस नक की प्रताति जितनी स्पष्ट हो जाए, उतने ही आप प्रायश्चित्त म उतरेंगे। अगर जाप प्रायश्चित्त नहा कर सकत तो अतर तप म आपका प्रवरा नहा हा मक्ता। यह निश्चित जानिए क्याकि प्रायश्चित्त ही इस तप वा. (२) विनय के पदा होने की सम्भावना प्रायश्चित्त के बाद ही है, क्याकि जर तर मन दूसर के दाप दग्नता रहता है, तब तब विनय पदा नही हो सकती। विनय ता तमो पदा हा सक्ती ह जव अहकार दूमरा के दोष दसकर अपने को भरना बन्द पर द। सहकार का भोजन है इमरा व दोप देखना। असल म दूसरा या दोप हम लते ही इमरिए हैं कि दूसरा वा दोप जितना ही दियाई पडता है हम उता ही निर्दोप मालूम पडत हैं। दूसरे की निदा म रस मालूम होता है। स्तुति मे पीडा मालूम हाती है । इसलिए अगर मजबूर होकर आपका क्सिी की स्तुति करनी पड़ती है ना आप बहुत शीघ्र कहा जाकर उसको निदा करके वैव बरे म वरावर कर रत हैं। जब तक सतुलन न आ जाए तब तक आपके मन यो चन नहीं पड़ता। जब काई मिनी की हत्या मा कर देता है तब भी यह नहीं मानता कि मैं अपराधी हूँ। वह मानता ह कि उम आदमी ऐसा काम ही किया था कि हत्या करनी पडी दापी वही है मैं पहा । मुराद ही दूसर की तरफ तीर बनकर चलता है। वह कभी अपनी हातीही नहा । जब अपनी नहा हाती तो विनय का प्रश्न ही नहा उटता। इरिए महावीर प्रायश्चित्त को पहला मतर तप यहा और इस बात पर बल पिया कि पहले यह जान रेना जररी है विन पेवल मेर पृय गरत है, बल्कि मैं मा--मैं ही–रत है। "मरा तीर सब बदर गए, रग राय बदल गए । व दूसर का तरपन जाकर अपनी तरफ मुड गए। एसी स्थिति म विनय या साधा जा सरता है। महावीर ने विनय मी जगह निर-अहबारिता' नही यही । पहा विनय, फ्याकि निग्हार नगारात्मा है और उसम अहसार की स्वोति है अहसार यो इनर करने के लिए ही उसका स्वागार है । विराय है 'पाजिटिन । महावीर विधायर पर जार दे रहे हैं कि आपने भीतर यह अवस्था नाम जिसम दूसरा दापी न जान पहे। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ महावीर : परिचय और वाणी आपके क्रोध को बाहर निकाल लेता है, बस वह निमित्त बनता है । तो निमित्त पर इतना क्रोध क्यो ? वाल्टी को भला गाली देगे कि उसमे पानी है ? पानी तो कुएँ से ही आता है, वाल्टी तो पानी को लेकर मिर्फ बाहर दिखा देती है । नलिए विनयपूर्ण आदमी उसे धन्यवाद देगा जिसने गाली दी, क्योंकि अगर वह गाली न देता तो वह आदमी अपने भीतर के क्रोध के दर्शन न करता । गाली देनेवाला वात्टी वन गया। उसने क्रोध को बाहर निकालकर उनके दर्शन करा दिए । इसीलिए कवीर ने कहा है- ' निन्दक नियरे रासिए, आँगन फुटी छवाय ।' महावीर कहते हैं कि दूसरा अपने कर्मों की श्रृंखला में नया कर्म करता है, तुमने उसका कोई सम्बन्ध नही । इतना ही सम्बन्ध है कि तुम मौके पर उपस्थित थे और उसके भीतर विस्फोट के लिए निमित्त वने । इस वात को दूसरी तरह भी सोच लेना है कि तुम जव किसी के लिए विस्फोट करते हो तब वह भी निमित्त ही हैं। तुम भी अपनी शृखला मे जीते और चलते हो | यह न भूलो कि विनय वडी वैज्ञानिक प्रक्रिया है । इस प्रक्रिया मे दोप दूसरे मे नही होता। दूसरा मेरे दुख का कारण नही है । दूसरा श्रेष्ठ अथवा अश्रेष्ठ नही है। दूसरे से मैं कोई तुलना नही करता । दूसरे पर मैं कोई शर्त नही वॉचता । मैं जीवन को वेगर्त सम्मान देता हूँ । प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म से चल रहा हे । अगर मुझसे कोई भूल होती है तो मैं उसे अपने भीतर अपने कर्मों की श्रृंखला मे खोजूं। अगर दूसरे से कोई भूल होती है तो यह उसका काम है, इससे मेरा कोई सम्बन्ध नही । वही इसका फल पाएगा । यदि नहीं पाता तो यह भी उसकी ही बात है । यह मेरा काम नही हे । महावीर इतना जरूर कहते है कि अगर कोई मेरी छाती मे छुरा भोकता है, तो इससे मेरा इतना सम्बन्ध हो सकता है कि अपनी पिछली यात्रा मे पैने यह तैयारी करवाई हो कि मेरी छाती मे कोई छुरा भोके । छुरे का मेरी छाती मे जाना मेरे पिछले कर्मों की कुछ तैयारी होगी । वस, उससे मेरा इतना ही सम्बन्ध है। लेकिन उस आदमी के मेरी छाती मे छुरा भोकने से मेरा कोई सम्बन्ध नही । इससे उसकी अपनी अन्तर्यात्रा का सम्बन्ध है । हम सबके सब समानान्तर दौड रहे है और प्रत्येक व्यक्ति अपने भीतर से जी रहा है। इसलिए जब जब हम अपने से दूसरे की धारा को जोड लेते है तब-तब कष्ट शुरू होता है और अविनय आकार ले लेती है । विनय केवल इस बात की सूचना है कि अब मैं अपने से किसी को जोडता नही । इसलिए महावीर ने विनय को अन्तर तप कहा है । स्वय को दूसरे से तोड़ लेना ही विनय है । मैं ही अपना नर्क हूँ, मैं ही अपना स्वर्ग और मैं ही अपनी मुक्ति हूँ । मेरे अतिरिक्त कोई निर्णायक नही है मेरे लिए। ऐसे भाव के जगते ही एक विनम्रता का भाव पैदा होता है । महावीर यह भी नही कहते कि गुरुजनो को, अपने वड़ो को, माता-पिता को आदर न दो । मै भी नही कहता कि उन्हे आदर न दो । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३१९ बराबर दो। यही समाज का खेल है। साधुआ को आदर दो। खेल जारी रखो। उसमे व नुक्सान नहीं हो रहा है किसी पा । लेकिन उसे विनय न समझ लो। (३) वयावत्य वा अथ रोता है--सेवा । शायद पथ्वी पर अकेले इसाइयत ने घम म सेवा का प्राथना और साधना के रूप म विकसित किया। लेकिन वैयावत्य का अथ वह नहीं है जो ईसाइयो की सेवा का ह । महावीर के अनुयायी भी समझते रह हैं कि वयावत्य का अथ है वद्ध या रग्ण साघुओ की सेवा । ऐसा अथ रगाने का एक कारण है। साधु साधु की सेवा करने की बात सोच ही नहीं सकता। जा साधु नहीं हैं वे ही साधु की सेवा करने वाते हैं । ईसाइयत द्वारा दिया गया अथ भी ठीक नहा है। भारत ने विवेकानद स लेकर गाघी तक जा मी सेवा काय दिया है, वह ईसाइयत की सेवा है। पडित वेचरदास दोगी ने महावीर वाणी म पारिमापिर शदावे जो अथ दिए हैं उनमे वैयावत्य का वही अथ बताया है जो इसाइयत का है। उहाने कहा है कि वयावत्य का अथ है वार व रोगी जादि अपने समान धमिया को सेवा । ईसाइ भी सेवा का यही यथ वतात है । असल म ईसाइयत जपेला धम है जिसने सवा को ने द्रीय स्थान दिया है। विवेकानद न रामकृष्ण मिशन का जा गति दी, वह ठीक साई मिशनरी की नकल थी। वस्तुत विवेकानद से रेवर गाधी या विनोवा तर जिन लोगा ने भारत में सेवा का विचार किया है वे सब इसाइयत से प्रभावित हैं। इमाइयत की सेवा की जो धारणा है वह मविप्यो मस है, 'फ्यूचर ओरिएण्टेट' हैं। ईसाइयत मानती है कि सेवा के द्वारा ही परमात्मा को पाया जा सकता है मेवा के द्वारा ही मुक्ति होती है । सेवा एवं साधन है सा य मुक्ति है। ऐसी सवा म प्रयाजन छिपा है। वह पुछ पान के लिए है । वह पाना बुरा भी हो सकता है मच्छा भी हो सकता है नैतिक हो सकता है अनतिय हो मक्ता है। किंतु एक बात निश्चित है कि ऐसी सेवा की धारणा वासना प्रेरित है। इसलिए ईसाई प्रचारक एक पेगन, एक तोन वासना मे भरा हुआ हाता है । उसने सारी वामना को सेवा बना दिया है और यही कारण है कि उसके सामने दुनिया के अय धमों के प्रचारक टिक नहीं सक्त। भारतीय धम ईमाइयत की नकर भले ही करें, परतु वे ईसाइयत की धारणा का नहा पक्ह सपते । इसका कारण यह है कि भारतीय मन का खयाल है कि जिस सेवा म प्रयोजन है वह सेवा हा नहा रटी । महावीर भी यही कहते हैं। सेवा होनी चाहिये निप्प्रयाजन । उनक अनुमार सवा तीता मुस हो 'पास्ट ओरिएण्टड' हो भविष्य के लिए न हो । महावीर बहत हैं कि अतीत म हम्न जा बम निए हैं, उन विसजन व लिए सेवा है । इमरा और कोई प्रयाजन नहा है आगे । इसस कुछ मिलेगा नहा बलि जा वल गलत इपटसा हो गया है उसकी निजग होगा ससया विमजन होगा। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० महावीर : परिचय और वाणी यह दृष्टि वहुत उलटी है। महावीर कहते हैं कि अगर सेवा करने मे थोडी-सी भी वामना है, इतना भी मजा आ रहा है कि मैं कोई विशेप कार्य कर रहा हूँ, तो फिर मै नए कर्मों का संग्रह करता हूँ। फिर सेवा भी पाप वन जाएगी, क्योकि वह भी कर्म-बन्धन लाएगी। ____ महावीर की दृष्टि मे अगर पुण्य भी भविष्योन्मुख है तो वह पाप बन जाता है । यह वडा मुश्किल होगा समझना। पुण्य भविष्योन्मुख होने से पाप बन जाता है, क्योकि वह भी वन्धन बन जाता है। महावीर कहते है कि पूण्य भी पिछले किए गए पापो का विसर्जन है। यदि मैने आपको एक चॉटा मार दिया है तो मुझे आपके पैर दवा देने पडेगे । इससे वह जो जागतिक गणित है, उसमे सन्तुलन हो जाएगा । ऐसा नहीं कि पैर दवाने से मुझे कुछ नया मिलेगा, वल्कि सिर्फ पुराना कट जाएगा। और जब मेरे सब पुराने कर्म कट जाएँगे तव मै गन्यवत हो जाऊँगा-मेरे खाते में दोनो तरफ ऑकडे वरावर हो जाएंगे। महावीर कहते है कि यही शून्यावस्था मुक्ति कहलाती है । मोक्ष तो तब तक नही हो सकता जब तक धन या ऋण कोई भी ज्यादा है । मुक्ति का अर्थ ही यही है कि अब मुझे न कुछ लेना है और न कुछ देना । इसको महावीर ने निर्जरा कहा है। निर्जरा के सूत्रो मे वैयावृत्य वहत कीमती है। महावीर नही कहते हैं कि दया करके सेवा करो, क्योकि दया ही बन्धन बनेगा। कुछ भी किया हुआ बन्धन बनता है । महावीर कहते है कि खुला रखो अपने को, कही कोई सेवा का अवसर हो और सेवा की भावना भीतर उठती हो तो रोको मत, सेवा हो जाने दो और चुपचाप विदा हो जाओ । पता भी न चले किसी को कि तुमने सेवा की । तुमको भी पता न चले कि तुमने सेवा की । यह वैयावृत्य है । वैयावृत्य का अर्थ है-उत्तम सेवा, साधारण सेवा नहीं। अगर किसी की सेवा करने मे रस लिया तो फिर सम्बन्ध निर्मित होगे और यह भी समझ लेना चाहिए कि रस लेकर सेवा करना एक तरह का गोषण है महावीर की दृष्टि मे। अगर कोई दुखी है, पीडित है और मैं उसकी सेवा करके स्वर्ग जाने की चेष्टा कर रहा हूँ तो मैं उसके दुख का शोपण कर रहा हूँ, मै उसके दुख को स्वर्गजाने का साधना बना रहा हूँ। अगर वह दुखी न होता तो मै स्वर्ग न जाता । जव धनपति धन चूसता है तव आप उससे कहते है कि वह दूसरो के दुख पर सुख इकट्ठा कर रहा है। लेकिन जब एक पुण्यात्मा दीन-दुखियो की सेवा करके अपना स्वर्ग खोज रहा है तव आपको खयाल नही आता कि वह भी किसी गहरे अर्थ मे गोपण कर रहा है। महावीर कहते है कि सेवा से मिलेगा कुछ भी नही, केवल कुछ कटेगा, कुछ छुटेगा, कुछ हटेगा। महावीर की दृष्टि मे सेवा मेडिगनल है, दवाई की तरह है। दवा से कुछ मिलेगा नहीं, सिर्फ बीमारी कटेगी। ईसाइयत की मेवा टॉनिक की तरह है। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३२१ उमसे कुछ मिलेगा। उसका विप्य है। महावीर की सेवा मेडिसिन की तरह है। उसमे बीमारी पटेगी, कुछ मिरेगा नही । वे कहते हैं कि अगर कोई सेवा भरता है तो यह इसलिए करता है कि उसने किसी पाप का प्रक्षालन हाना है । अगर नहा है पाप या प्रक्षालन, ता यात समाप्त हो गई-ता काई मेरी मेवा नहीं कर रहा है। इसलिए आप जब भी सवा कर रह हा तव ध्यान रखें पि" वह भविष्यो मुग न हो। तभी आप अतर्तप कर सकते हैं । जब आप सवा पर रह हा तो वह निप्पयाजन हो, अयथा आपकी सवा. अन्तरतप न होगी। वयावृत्य अतरतप इसी पारण है कि इसका वरना परिन है। वह सवा सरर है जिसम पोई रस आ रहा हो। वह मवा वयावृत्य नहीं है जिससे मवा करनेवाले ये मन म सिमी तरह के गौरव की भावना या उमौरन हो। (४) महावीर न वयावत्य के बाद ही जा तप रहा है वह है स्वाध्याय । यया वत्य ये सम्यर प्रयोग के बाद स्वाध्याय म-इस चौथे तप म-उतरना अत्यत सरर है। लेकिन म्वाध्याय का अथ शास्त्रा का अध्ययन या पटन मनन नहीं है। महावीर इसकी जगह अध्ययन गर का प्रयाग पर रावते थे, लेरिनरहा न स्वा घ्याय या ही प्रयाग किया। अध्ययन मे 'स्व' जाडने की क्या आवश्यकता थी? अध्ययन पापी था। वस्तुत स्वाध्याय वा अथ होता है स्वय का अध्ययन, शास्त्रा पा अध्यया नहीं। लेकिन साधु शास्त्र सारे वठे हैं। उनसे पूछिए सुबह से क्या पर रह हैं ? वे कहेंगे म्वाध्याय पर रहा हूँ। पास्त्र, निश्चित ही, विमी और या होगा । 'स्व' का शास्त्र नहा बन सकता और अगर गुद के ही शाम्म पढ रहे हैं तो विरसुल बार पढ़ रहे हैं। माध्याय या जय है-स्वय पा अध्ययन । यह वडा कठिन है (इसीलिए इस अतरतप कहा है) जर बिगास्त्र पड़ना बडा सरर है। आप यहून जटिल हैं, उरपना में भरे हैं अथिया व जाल हैं एक पूरी दुनिया हैं। हजार तरह ये उपद्रव है यहाँ । सासवर उध्ययन का नाम स्वाध्याय है। अगर आप अपन प्राप या अध्ययन कर रह हैं ता भी स्वाप्पाय कर रहे हैं । पिन अगर आप प्रोष में सम्बप मनास्ता मा अध्ययन कर रहे हैं ता यह स्वाध्याय नहा है। जो भी विमी शास्त्र मगिया है वह मय आपो भीतर मौजूर है। इस जगत म जितना भी जाना गया है यह प्रत्यर आमी पातर यतमान है। आदमी स्वय एव शास्त्र है, परम गारत्र, अन्टीमट रित्र पर। इस बात का समसा महापौर का स्वाध्याय ममा म मा जाएगा। माष्य परम गाम्य है, पापियामा आ गया है यह माप्य नही जाना है और जो भी जाग जायगा पर मनुष्य ही जाना। इगलिए महावीर ने पहामि एर का-यय या-जान देने में सपरा ना लिया जाता है। ग्याध्याय या अप Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ महावीर : परिचय और वाणी है-स्वय मे उतरो और स्वयं का अध्ययन करो। पूरा जगत्--आत्मा का जगत्-- पूरा भीतर है। उसे जानने चलो। लेकिन इसके लिए रुख बदलना पड़ेगा। वस्तु के अध्ययन को छोडो, अध्ययन करनेवाले का अध्ययन करो। शास्त्र से जो मिलता है, वह सत्य नही हो सकता । स्वय से जो मिलता है, वही सत्य होता है। वह स्वय से मिला सत्य शास्त्र मे लिखा जाता है, लेकिन शास्त्र से जो मिलता है, वह स्वय का नही होता । शास्त्र कोई और लिखता है। वह किसी और की खवर है जो आकाग मे उड़ा है, जिसने प्रकाग के दर्शन किए हैं, जिसने सागर मे डुबकी लगाई है। इसका मतलब यह नहीं कि महावीर शास्त्रो के अध्ययन को इनकार करते हैं । वे केवल इतना ही कहते है कि ऐसा अव्ययन स्वाध्याय नहीं है । यदि यह बात खयाल मे रखी जाय तो शास्त्राध्ययन भी उपयोगी हो सकता है। हां, उपयोगी हो सकता है अगर यह खयाल मे रहे कि शास्त्र का सागर सागर नही है, उसका प्रकाश प्रकाश नहीं है। यह भी स्मरण रहे कि शब्दो मे कहते ही सत्य खो जाता है, केवल छाया रह जाती है। यह सव स्मरण रहे तो शास्त्र को फेककर किसी दिन सागर मे छलॉग लगाने का मन हो जाएगा। इसलिए कई बार अज्ञानी कूद जाते हैं परमात्मा मे और ज्ञानी वचित रह जाते है।। जव हम अपने को भूलते है तभी स्वाध्याय वन्द होता है। इसका आरम्भ तव होता है जब हम अपने को स्मरण करते है । महावीर कहते है कि जब तुम मौजूद होते हो तो वह जो गलत है, कभी नही घटता। स्वाध्याय मे गलत कभी घटता ही नही । अगर शराब पीते वक्त भी तुम मौजूद रहो तो हाथ से गिलास छुटकर गिर जाएगा, तव शराब पीना असम्भव हो जाएगा, कारण कि जहर सिर्फ वेहोगी मे ही पिया जा सकता है। जब मैं आपसे कहता हूँ कि क्रोध करते वक्त मौजूद रहें तो मैं यह नही कहता कि आप क्रोध करे और मौजूद रहे, वस, शर्त इतनी है कि मौजूद रहे और क्रोध करे, फिर कोई हर्ज नही। मै आपसे यह कह रहा हूँ कि आप क्रोध करते वक्त अगर मौजूद रहे तो इन दो मे से एक ही हो सकता है-चाहे तो क्रोध होगा या फिर आप होंगे। जब क्रोध करते वक्त आप मौजूद होगे तो क्रोध खो जाएगा, आप होगे, क्योकि आपकी मोजूदगी मे क्रोध-जैसी रही चीजे नही आ सकती । जव घर का मालिक जगा हो तो चोर प्रवेश नहीं करते। जब आप जगे हो तव क्रोध घुस जाए, यह हिम्मत भला क्रोध कैसे कर सकता है ! महावीर कहते है कि रोशनी कर लो और निकल जाओ, क्योकि अँधेरे मे मोक्ष भी खोजोगे तो टकराओगे। परमात्मा को भी खोजोगे तो टकराओगे। अंधेरे में कुछ भी करोगे, टकराओगे। हमारा सारा ध्यान वाहर की तरफ है, इसलिए भीतर अंधेरा है। ध्यान वस्तुयो की तरफ है। स्वाध्याय करनेवाला इस रोशनी को भातर की तरफ मोडता और भीतर की तरफ देखना शुरू करता है। जव उसे कोई गाला Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और वाणी ३२३ देता है तर यह गारी पर ध्यान नहीं दना, वह अपने प्रोष पर ध्यान देता है । जय कोई सुदर म्ली रास्न पर दिखाई पड़ता है तब वह उस स्त्री से ध्यान हटाकर अपने भीतर जाता है और दपना काम वामता विस तरह भीतर उठ रही है। अगर आपका गारी दी जाय तो आपने भीतर क्या-क्या होगा, आप उस दसें । आप उसपी क्या क्या व्यवस्था परत है ? आपर गीतर भोप पंस उठता है ? आप गाली देने वार मे क्या प्रतिकार लेना चाहो है । हत्या करना चाहते हैं गाली देना चाहते हैं, गावाना चाहते हैं ? क्या करना चाहते है? इन समी याता पर ध्यान से जाएं और तब आप पाएंगे कि आपन स्वाध्याय रिया है। इस स्वाध्याय स आप गानी बनकर बाहर रौटेंगे । आपको अपन सम्बध म जानकारी बढ़ जाएगी। आपा यह भी पता चल पाएगा नि महत्वपूर्ण यह नहा है कि पिगी ने गाली दी, महत्त्वपूर्ण यर है पिमा यसा अनुभव दिया। ओर मा यह पि आप उस गाली या उत्तर दने बनवमी 7 जाएग, क्यापि आप बदर गए हागे। इस गान से, इस स्वाध्याय से आप वही भादमी नहा रह गए जिम गाली दी गई थी। (५) ग्यारहवां तप या पांचवां तर तप है ध्यान । जा दस तपा से गुजरते हैं, उहें ध्यान को समयना पाठिन नहीं होता। ध्यान पा ता करपे ही समझा जा सकता है। यह प्रेम जमा है या तरन जमा। उसे जो करता है वही जानता है। प्रेम एप पाट है, एर आमव, एक अस्तित्वगन प्रतीति । सरना भी एव सत्तागत प्रतीति है। दूगर व्यक्ति को तरते हुए दयपर भी नाप नहीं 117 सपने कि घर अनुभव कमा हाता है। दूसरे को प्रेम म डूबा हुआ देकर भी आप नहा जान रावते पि प्रेम उरो ति मामाजापार र जाता है। ध्यान म सहे महावीर यो देगर आप नही जान सपते घ्या क्या है। ध्यान से सम्पब म रवय महावीर पुरानी यता भी टीगे समाना पहा पाने पिया क्या है। ठीर ध्यान पी बात तो यहत दूर है गरप्त ध्यान पा भी हम मार स्वार ही ६ गिरे जापार पर समाया जा सर पि टोर वया है। महावीर इस पप्पी पर असर नागी पिहोंने गला मामी पायी। गा पान पो पचा ता बहुत गान है। य यी विशिष्ट याशिमीर से शुसार तीय पोप मा जागी एr तर गा प्यान म आ जाना है। frieम तीन ग्राम ही आग पनि नान जी की उपरती हार Tथा। अगर मार इनने गहर और भ ा जा frजीपापो गारी जग मोरये frg पर लगे जो झार पतिमा गारा पिरणे शाप पर टररमा पानापासा पान पानाहा पाएगा। जिला ज्यान मारामार . होमा मामान पर मनाए ताटार पा TV । पतना जार तापार पर गहर - - - - - - - - Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ महावीर : परिचय और वाणी के बल खडे हुए ध्यान मे कोई गति नही हो सकती। सिर के बल कोई चलेगा कैसे ? यात्रा करनी हो तो पर के बल होगी। चेतना जव पैर के वल खडी होती है तब अपनी ओर उन्मुख होती है, तव गति करती है। ध्यान 'डायनेमिक फोर्स' है, गत्यात्मक शक्ति है। उसे सिर के बल खडे करने का मतलब है उसकी हत्या कर देना। इसलिए जो लोग गलत ध्यान करते हैं, वे आत्मघात मे लगते है, रुक जाते है। मजनू ठहरा हुआ है लैला पर, बुरी तरह ठहरा हुआ है उस पर, मानो तालाव बन गया हो । वह अव ऐसी सरिता नही रहा जो सागर तक पहुँच पाए। इसलिए उसे लैला कभी नही मिल सकती। गलत ध्यान के सम्बन्ध मे यह न भूले कि जिस पर आप ध्यान लगाते हैं, उसकी उपलब्धि कभी नही होती। पर' पर केन्द्रित चेतना कुछ भी उपलब्ध नही कर पाती, क्योकि दूसरे को पाने का कोई उपाय ही नही है । इस अस्तित्व में सिर्फ एक ही चीज पाई जा सकती है, और वह है मोक्ष । वह मै स्वय हूँ। उसको ही मै पा सकता हूँ। शेप सारी चीजो को मै पाने की कितनी ही कोशिश करूँ, वह सारी कोशिश असफल होगी । जो मेरा स्वभाव हे वही केवल मेरा हो सकता है । इसलिए गलत ध्यान नक में ले जाता है। गलत ध्यान का अभाव ध्यान की शुरुआत है। गलत ध्यान का अर्थ है-अपने से बाहर किमी भी चीज पर एकाग्र हो जाना। दूसरे की ओर बहती हुई चेतना गलत ध्यान है। इसलिए महावीर ने परमात्म की तरफ बहती हुई चेतना को भी गलत ध्यान कहा है। परमात्मा को आप दूसरे की तरह ही सोच सकते हैं और अगर स्वय की तरह सोचेगे तो बड़े साहस की जरूरत होगी। अगर आप यह सोचेगे कि मै परमात्मा हूँ तो बड़ा साहस चाहिए। न तो आप ही ऐसा सोच पाएंगे और न आपके आसपास के लोग यह सोचने देगे कि आप परमात्मा है । जव कोई सोचंगा कि मैं परमात्मा हूँ तो उसे परमात्मा की तरह जीना पडेगा, क्योकि सोचना खडा नही हो सकता जब तक आप जिये नही । सोचने मे खुन नही आएगा जब तक आप जियेगे नही । अगर परमात्मा की तरह जीना हो, तब तो ध्यान की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। इसलिए महावीर कहते हैं कि परमात्मा को आप सदा दूसरे की तरह सोचेगे। यही कारण है कि परमात्मा को मान कर शरू होनेवाले धर्मो मे ध्यान विकसित नही होता, प्रार्थना विकसित होती है। प्रार्थना और ध्यान के मार्ग विलकुल भिन्न-भिन्न हैं। प्रार्थना का अर्थ है दूसर के प्रति निवेदन । ध्यान मे कोई निवेदन नही है। प्रार्थना का अर्थ है दूसरे की सहायता की मांग। ध्यान मे सहायता की मांग नहीं है, क्योकि महावीर कहते है दूसरे से जो मिलेगा वह मेरा नही हो सकता । पहले तो वह मिलेगा ही नहीं, लेकिन मै मान लूं कि वह मिल गया । तव तो स्पष्ट है कि दूसरे से मिला हुआ 'माना हुआ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३२५ मिला हुआ है । वह आज नही क्ल छूटेगा, दुख लाएगा, पीडा होगी। इसलिए महा वीर कहते हैं कि अगर पीडा के बिल्कुल पार हो जाता है तो दूसरे से ही छूट जाना पड़ेगा । दूसरे के साथ जो भी सम्बध है वह टूट सकता है। परमात्मा के साथ भी सम्बध टूट सकता है। महावीर कहते हैं कि जो बन सकता है वह बिगड सकता है, इसरिए बनाने की कोशिश ही मत करो। महावीर कहते हैं कि ईश्वर हो या न हो इससे धम का कोई सम्बध नहीं, क्याकि दूसरे का जब भी मैं ध्यान मे लाता हूँ तो गलत ध्यान हो जाता है। निश्चित हो ईश्वरवादियो को महावीर गहन नास्तिक मालम पडे नास्तिका से भी ज्यादा। इसलिए तथाकथित आस्तिकों ने चार्वाक से भी ज्यादा निदा महावीर की है। __महावीर मूर्छा विरोधी थे। इसलिए उहोने एसी किसी भी पद्धति की सलाह नही दी जिससे मूच्छी आने की जरा भी सम्भावनाही । यह महावीर की और भारत की दूसरी पद्धतिया या भेद है । भारत म ध्यान की दो ही पद्धतियाँ रही हैं । यहना चाहिए कि सार जगत म ध्यान की दा ही पद्धतियाँ रही हैं । एक पद्धति को हम ब्राह्मण-पद्धति कह सकते हैं और दूसरी का श्रवण पद्धति । महावीर की पद्धति श्रवण पद्धति है । जहाँ ब्राह्मण पद्धति विश्राम की पद्धति है वही श्रवण पद्धति-महावीर की पद्धति-श्रम की पद्धति है। चूवि विश्राम और नीद या गहरा अत सम्बध है, इसलिए महावीर ने विश्रामवाली पद्धति का उपयाग नही किया। वे कहते हैं कि श्रमपूर्वक ध्यान में जाना है, विश्रामपूवक नही। विधामवाली ब्राह्मण पद्धति के प्रस्तोता वाहते हैं-हाथ पाव ढीले छाड दो, सुस्त हो जाओ, शिथिल हो जाआ ऐसे हो जाओ जसे मुर्दा हो गए । श्रवण-पद्धति कहती है कि जितना तनाव पैदा कर सकते हो उतना ही अच्छा है । अपने को इतना खीचो इतना खीची जमे विकाई वीणा के तार को खीचता चला जाए और टवार पर छोड दे--अपने को तीव्रतम स्वर तक खीच दो । निश्चित ही एक सीमा आती है जव अत्यधिक तनाव के कारण सितार का तार टूट जाता है । लेकिन चेतना के टूटने का प्रश्न नही उठता वह कभी टूटती ही नहीं। इसलिए-महावीर कहते हैं-नोचते चले जाआ, चेतना का अपनी अति पर पहुंचा दा। तब अनजाने तुम्हारी चेतना विश्राम को उपर घ हो जाएगी। यह विश्राम बहुत अनूठा होगा। ऐसा विधाम कभी नीद मे नही ले जा सकता । वह सीधा विश्राम मेरे जाता है। ठीक ध्यान के लिए कुछ प्रारम्भिक बातें स्मरणीय हैं। उनके विना इस ध्यान म नही उतरा जा सकता। एक तो उपरिलिखित दस तप अनिवाय हैं उनके विना इस प्रयोग को नहीं किया जा सकता। उन दस सूत्रा के प्रयोग से आपक व्यक्तित्व म वह कर्जा और शक्ति आ जाती है जिनसे आप चरम तक अपने का तनाव म ले जाते हैं। इतनी सामथ्य और क्षमता आ जाती है कि आप विक्षिप्त नही हो सकते । अयया Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ महावीर : परिचय और वाणी अगर कोई महावीर के ध्यान को मीवा शुरू करे तो वह विक्षिप्त हो मकता है । इसलिए भूलकर भी इस प्रयोग को सीधे न करे। पहले के दस हिस्ने अनि - वार्य हैं । कि जेन माधुओं मे करने की बात तो पूरे मुल्क मे घूमकर मेने देखा है एक आदमी भी नहीं है जो महावीर के ध्यान को समझ सका हो, दूर है । वे नित्य प्रवचन करते है, लेकिन में यह देखकर चकित हुआ कि उनके गणी, प्रमुख और आचार्य एकान्त मे मुझसे पूछते है कि ध्यान कैसे करें ? तद उन बेचारे साधुओ को क्या कर वाया जा रहा होगा जबकि उनका गुरु ही पूछता है कि व्यान कैसे करें ? उनमे इतना साहस नही कि वे चार लोगो के सामने यह प्रश्न करे । 1 पश्चिम के एक बहुत विचारगील वैज्ञानिक 'रान हुव्बाई' ने व्यान की प्राथमिक प्रक्रिया मे प्रवेश के लिए तीन शब्दों का प्रयोग किया है। ये तीनो शब्द महावीर के हैं, यद्यपि वार्ड को महावीर के शब्दो का कोई पता नही है । उनके तीन शब्द हैं- रिमेम्बरिंग, रिटर्निंग, और रि-लिविंग । महावीर ने इनके लिए स्मृति, प्रतिक्रमण और जाति-स्मरण ( पुन जीना, उसको जो जिया जा चुका है ) का प्रयोग किया है । महावीर के ध्यान मे अगर उतरना हो तो जब रात सोने लगे और नीद करीब आने लगे तो उस दिन के पूरे जीवन को 'रि-लिव' कर ले। जीवन की घटनाओ का स्मरण ही न करे, वल्कि उन्हें इस तरह देखें मानो आपने उन्हें फिर से भोग लिया है मृत्यु क्षण मे -- आकस्मिक मृत्यु के क्षण मे --- जब बचने का कोई उपाय नही रह जाता, तब ऐसी घटना घटती है । पहले रमृति से शुरू करें। सुबह से लेकर शाम तक की घटनाओ का स्मरण करे । एक महीने के गहरे प्रयोग से आपको पता चलेगा कि स्मृति धीरे-धीरे प्रतिक्रमण वन गई । अब पूरी स्थिति याद आने लगी । प्रतिक्रमण पर तीन महीने और प्रयोग करे। तब आप पाएंगे कि अव प्रतिक्रमण पुनजीवन वन गया --अब आप 'रि-लिव' करने लगे। कोई नौ महीने के प्रयोग के बाद आप पाएँगे कि सुबह से लेकर शाम तक की घटनाओ को आप फिर से जी सकते हैं, दुवारा । मजे की बात यह है कि जिस जीवन को आप फिर से जियेंगे वह दिन के जीवन की तुलना मे ज्यादा होगा, क्योकि दिन मे और भी पच्चीत उलझाव थे । हुवाई कहता है कि यह ट्रैक पर वापस लौटना है और फिर से यात्रा करनी है उलटी दिशा मे । अगर महावीर के ध्यान में, सामायिक में प्रवेश करना हो तो कोई नौ महीने का समय - तीन-तीन महीने एक-एक प्रयोग पर --विताना जरूरी है। आप स्मरण करना शुरू करे, पूरी तरह स्मरण करे कि सुबह से शाम तक क्या हुआ, फिर प्रतिक्रमण करें । पूरी स्थिति को याद करें कि किस-किस घटना मे कौन-कौन सी पूरी स्थिति थी । आप बहुत हैरान होगे और आपकी सवेदनशीलता वहुत वढ जाएगी । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर परिचय और वाणी ३२७ दूसरे दिन आपके जीने वा रम भी बहुत बढ़ जाएगा। दूसरे दिन धीरे धीरे बाप बहुत-सी चीजो के प्रति जागरूप हो जाएंगे, जिनके प्रति आप कभी भी जागरूप न थे | अगर आप प्रतिक्रमण की पूरी यात्रा करते हैं तो आपने जीवन मसौदय और रस व अनुभव का एक नया आयाम सुरना शुरू हो जाएगा । पूरा घटना आप जी सक्ने म समय होंगे । और जब भी पूरी घटना वो जी रिया जाता है तब आप उस घटना वा दुवारा जीने की आकाक्षा से मुक्त होने लगते हैं । अगर कोई व्यक्ति एक बार भी किसी घटना को पूणतया भागवार निवल जाता है ता उसकी इच्छा उसे दुहरान की नहीं होती । इस प्रकार प्रतिक्रमण भविष्य और अतीत, दानों से छुटकारे की विधि है। इस प्रतिक्रमण को इतना गहरा करते जाएं fr एक घडी ऐसी आ जाए जब आप याद न करें, केवल घटनाओं को रिलिव' बरें, उहें पुनरुज्जीवित करें उन्हें फिर से पियें। आप यह पावर हैरान होंगे कि वे घटनाए फिर से जियी जा सकती है । जिस दिन आप दिन की घटनाओं का फिर से जीने में समय हो जाएंगे उस दिन रात में सपना का आना बंद हो जाएगा, क्याकि सपने में आप उही घटनाया को फिर से जीन की कोशिश करते है, और कुछ नहीं करते। अगर आपने रात सोने से पहले होशपूर्वक पूरे दिन को पूरा जी लिया है तो आपने उससे निपटारा कर लिया है अब वह अध्याय समाप्त हो गया है। अब कुछ न तो याद करने की जरूरत रही और न पुन जीने की जरूरत । ध्यान वा अभाव ही विक्षिप्तता है। ध्यान को उपरुष व्यक्ति के सपन राय हो जाते ह । जब रात स्वप्न समाप्त हो जात है, तब आप सुबह एसे उठते है जसे सूरा जगा है । उस जागी हुई चेतना में विचार आपके गुलाम हो जाते हैं मालिक नही होते । महावीर कहते है कि जब तक विचार मालिक है तब तक ध्यान क्स हो पाएगा ? विचार वी मालकियत आपकी होनी चाहिए तभी ध्यान हो सकता है । दूसरा प्रयोग सुबह जागने के समय करें। जैसे ही जागे वैसे ही पहले विचार की प्रतीक्षा करें। जब पहा विचार आए उसे तत्काल पक्डें देखें कि वह कब आता है। धीरे धीरे आप हैरान होंगे कि आप उसे पवटन की जितनी ही कोशिश करत ह वह उतनी ही देर से आता है। कभी घटा लग जाएंगे और पहला विचार नही जाएगा । विचार रहित यह एवं घटा आपकी चेतना का शीवासन से हटाकर सीधा सड़ा करने में सहयागी बनेगा। आप पैर के बल खड़े हो सकेंगे । घटा भर तो बहुत दूर की बात है, अगर एक मिनट के लिए भी काई विचार न आए तो आपको अनुभव होना गुरू हो जाएगा कि विचार है और निविरार होना स्वग मे होना है । पिस दिन कोई यक्ति निविचार हो जाता है उस दिन उसका ध्यान चेतना पर जाता है और एक बार चेतना पर ध्यान चल जाए तो फिर चेतना का विस्मरण नही Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ महावीर : परिचय और वाणी होता । चाहे आप कुछ भी करते रहें-दुकान मे हो, बाजार मे काम कर रहे हों, कही भी हो -- चेतना की स्पष्ट प्रतीति बनी रहती है । तब शरीर को कोई दुख नही होता, क्योकि आप शरीर नही रहे । जब महावीर के कान मे कोले ठोकी जा रही थी तब वे शरीर को नहीं देख रहे थे, वे अपनी चेतना को देख रहे थे । जव ध्यान चेतना पर होता है तब कीले ठोकी भी जाती है तो ऐसा प्रतीत होता है कि वे किसी और ही शरीर मे ठोकी जा रही है। महावीर ने पृथकत्व या साक्षी भाव का प्रयोग किया है। इसके लिए उनका शब्द है 'भेद विज्ञान' अर्थात् चीजो को अपने-अपने हिस्सो मे तोडकर देखने का विज्ञान । भोजन वहाँ है, शरीर यहाँ है, मैं दोनो के पार हूँ - इतना भेद स्पष्ट हो जाए तो साक्षी भाव हो जाता है । तो तीन वा स्मरण रखे रात नीद के समय - स्मरण, प्रतिक्रमण और पुनजीवन, सुवह पहले विचार की प्रतीक्षा, ताकि अन्तराल दिखाई पडे और अन्तराल मे सारा गेस्टाल्ट बदल जाए ( धूलकण नही दिखाई पडें, प्रकाश की धारा स्मरण मे आ जाए), ओर पूरे समय चौवीसो घंटे, चेतना पर ध्यान, यह होग कि न तो मैं भोजन हूँ और न भोजन करनेवाला हूँ। मैं दोनो से अलग हूँ, मैं त्रिभुज के तीसरे कोण पर हूँ । इस तीसरे कोण पर चोवीसो घंटे रहने की कोशिश साक्षी भाव है | ( ६ ) महावीर के माधना-मूत्र मे बारहवां और अन्तिम तप है कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग का मतलब काया को सताना नही है । हाथ-पांव काट-काटकर चढाते जाना कायोत्सर्ग नही है । कायोत्सर्ग तब होता है जब ध्यान परिपूर्ण शिखर पर पहुँच जाता है और गेस्टाल्ट बदल जाता है, काया का उत्सर्ग हो जाता है। उसका कही कोई पता नही रह जाता। निर्वाण या मोक्ष क्या है ? ससार का खो जाना है । ठीक इसी तरह आत्मानुभव काया का खो जाना है । आप कहेंगे, महावीर तो चालीस वर्ष जिए; ध्यान के अनुभव के बाद भी उनकी काया सुरक्षित थी। असल में वह आपको दिखाई पडती है, लेकिन महावीर के लिए अब कोई काया न थी, कोई शरीर न था। उनका कायोत्सर्ग हो गया था, यद्यपि यह घटना हमे दिखाई नही पडती । परम्परा कायोत्सर्ग का कुछ और ही अर्थ करती रही है। उसके अनुसार कायोत्सर्ग का अर्थ है—काया पर आने वाले दुखो को सहज भाव से सहना । कायोत्सर्ग का यह असली अर्थ नही है । परम्परा जिसे कायोत्सर्ग कहती है वह तो वाह्य तप है । कायोत्सर्ग का अर्थ है काया को चढा देने की तैयारी, काया को छोड देने या उससे दूर हो जाने की तैयारी, यह जान लेने की तैयारी कि मैं काया से भिन्न हूँ, ऐसा हो जाने की तैयारी कि काया मरती भी हो तो मैं देखता रहूँगा । जहाँ हम खडे है, वहाँ मालूम पडता है कि शरीर मेरा है और मैं शरीर हूँ । हमे कभी कोई एहसास नही होता कि शरीर से अलग भी हमारा कोई होना होता है। इसलिए जब शरीर पर कष्ट आते Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महायोर परिचय और घाणी 329 हैं तब मुन्न पीटा होती है, शरीर को भूख लगती है तब मुये भी भूम रगती है, गरार पोथकान हाती है तो मैं थर जाता है। गरीर और मर वीच म तादात्म्य है हम जुड़े है सयुक्त है। हम यह भूर ही गए हैं कि म गरीर नहा, चेतना हैं आत्मा है। काया मग पा अय भी आग पेवर इनना ही रह गया है कि अपनी पाया पर प्ट जाए तो उस सह लेना। यह काया अपनी है, यह बात नही छटती / मगधीर का यह मतरम नहीं है कि वाया ना उत्सग करना क्यापि जा अपनी ही उस तुम उत्मग करोगे ही से अपने को उत्मग किया जा सकता है, रमिन ना मरा नहीं है, उम में उत्मग करेंगा ही पैस? महावीर पत्त हकाया तुम्हारी नहीं है यर जााना कायोत्सग है। मैं वाया चादूगा, एगा भाव वाया मग नहीं है यापि र ता इस उत्सग म भी ममत्व यो धारणा मीद है / आत्महत्या करन वाला भी पाया पो मिटा डालता है सचिन उसका त्याग कायोत्मग नहीं है। शहीदा या मूरी पर हा मी मायात्मग नहीं है, क्यापि यह मानता है कि शरीर मेरा है। एफ तपस्वी बापरेगरीर को नहा मताता,अपने शरीर का ही सता देता है। तीन वह भो मागताह वि शरीर भरा है। महावीर बहते हैं कि यह जानना कि शरीर मरा गे है, पापात्सग ह / रेविा यह वाघ बहुत पठिन है / इसीरिए आस्तिमा ने एक पाप किराहा घे यहत हैं कि गरीर मरा नहा, परमात्मा का है। महावीर के लिए तो वह भा उपाय नहीं है वपापि ध परमात्मा का नहीं मानत / तथाकथित आस्तिर व चार सान है। व कहत है-रार मरा नहा है, परमात्मा का है आर परमात्मा मग / गाार म पिरपर सर अपना हा हा जाता है। नापीर क लिए परमामा मानहा हैं। यस्तुत महागीर की धारणा बढ़त पर मुत है। व बहन है कि तुम अपा हा मगर गरीर पा-यह परमात्मा या नहीं हो सकता। परीर भरीरा ही है। प्र यम्नु अपगी है पो स्वभाव की है, किसी और की नहा हो साती। मार रियन पूर है इन जगत् म परमात्मा को भी मार पिया हो ताठ है / म तप्प सी तरह गमा रें। __जार प्रतिपर मारले गर है। एरण पर जा सॉस आपसी या व दूगर माक्षागा और गाहा जाती | ETर पहल वर आपर पटासा पी पी! र म-मिग बाप अपना रहते हैं-मिट्टी व आगिनत कण हैं / सभा भगा और गेर महाग | Rifrat या म सगे भी पिगी पत्र म / न नाम तिनी यात्राएं भी है। नगर पाम पूछि तुम शिर हा सायगे हम अपन है हम यात्रा परा है तुम मगन हा जिना हम गुजरी है / मा TIPaa पाना मग है। तब म नम्हार मग मात