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महावीर : परिचय और वाणी
स्वादिष्ट है । सिर्फ भीतर इस सारी प्रक्रिया के साक्षी वनकर खड़े रहे । देखते रहें यह मानकर कि मैं सिर्फ देखनेवाला हूँ, मै द्रप्टा हूँ, साक्षी हूँ । इससे रस का आकर्षण खो जायगा पर इन्द्रियाँ वही रहेगी, उन्हें नष्ट करना नही पडेगा । जव क्रोध आए तव कहिए कि क्रोध आया, मैं इसे देखता हूँ । जव क्रोध आए तव रस- परित्याग की साधना करनेवाला व्यक्ति कहेगा कि क्रोध आ रहा है, क्रोध जल रहा है लेकिन मैं देख रहा हूँ ।
लेकिन साक्षी होना भी वाह्य तप है । अगर मै साक्षी हो रहा हूँ तो भी बाहर का हो रहा हूँ, वस्तुओ, इन्द्रियो और मन का हो रहा हूँ । ये सब पराए है । ध्यान रहे, महावीर कहते हैं कि साक्षी होना भी बाहर है । इसलिए जब कोई केवली होत है तब वह साक्षी भी नही होता। किसका साक्षी होना है ! साक्षी मे भी द्वैत है, कोई है जिसका मैं साक्षी हूँ । जव तक मैं ज्ञाता होता हूँ तब तक कोई ज्ञेय मौजूद होता है | इसलिए केवली ज्ञाता भी नही होता, वह ज्ञान मात्र रह जाता है ।
रस- परित्याग के बाद काया-क्लेश और सलीनता नामक वाह्य तपो का स्थान है । महावीर के साधना सूत्रो मे काया- क्लेश को सबसे ज्यादा गलत समझा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि काया- क्लेश का साधक गरीर को नष्ट करता है, काया को क्लेश देता है, काया को सताता है । लेकिन महावीर किसी भी सतानेवाली बात मे गवाह नही हो सकते, कारण कि सब तरह का सताना हिंसा है । अपने शरीर को सताना भी हिसा है । फिर भी महावीर की परम्परा ने ऐसा ही समझा कि काया को सताओ और इस तरह आत्मपीडको का एक बडा दल उनकी धारा मे सम्मिलित हो गया ।
महावीर यह नही कहते कि तुम अपनी काया को सताओ। उसे सताने की जरूरत नही है । काया खुद ही इतना सताती है कि अव तुम उसे क्या सतायोगे ? काया के अपने ही दुख पर्याप्त है, इसलिए और दुख इजाद करने की जरूरत नही । लेकिन काया के दुख पता न चले, इसलिए हम सुख ईजाद करते है, सुखका आयोजन करते है । आज नही मिला, कल मिलेगा, परसो मिलेगा । इस तरह आज के दुख को भुलाने के लिए हम कल के दुख का निर्माण करते रहते है । आज पर परदा पड जाए, इसलिए कल की तस्वीर बनाते है इसलिए कोई आदमी वर्तमान मे जीना नही चाहता । महावीर जानते हैं कि जैसे ही साधना मे प्रवेश होगा, कल टूटने लगेगा, आज मे जीना होगा । और सारे दुख प्रगाढ होकर चुभेगे, सब ओर बुढापा और मौत दिखाई देगी । न नाव होगा, न सहारा और न किनारा । तव वडा क्लेश होगा । उस क्लेश को महना और स्वीकार करना - जानना कि यह जीवन की निर्यात है, जानना कि यह प्रकृति का स्वभाव है । काया-क्लेश का अर्थ है कि जो आए, उसे स्वीकार करना । उससे वचने की कोशिश भविष्य के स्वप्न में ले जाती है । उसके विपरीत सुख बनाने