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________________ विशिष्ट असाधारण का पर्याय है। हम गय साधारण है, पर हा नव अमाण हो सकते है । जव तक हम साधारण है, तब तक साधारण-जनाधारण ने बीन बजा पिया गया हमारा भेद नासमझी का भेद है । साधारण बन साधारण ही है। वह चाननी है कि राष्ट्रपति, इसमे कोई फर्क नहीं पटना । दोनो साधारण के ही दोस्प है। चपरासी पहली सीढी पर और राष्ट्रपति आखिरी मीटी पर । माघारण की नीटी परमनी साधारण है, चाहे वे किसी भी पायदान पर पपयो न हो । अनाचारण की को. बीटी नही होती। ऽमलिए दो अनाधारण व्यक्तियो मे कोई नीने-जार नहीं होता। लोग पूछते है कि युद्ध ऊँचे कि महावीर, कृष्ण ऊंचे कि नाट। ये भूल जाते है कि नायारण की सीढी का गणित अमाधारण लोगो पर घटित नही होता । फिर भी कर पागलो ने अपनी पुस्तको मे किसी को ऊँचा घोपित किया है, विनी को नीचा। उन्हें पता नही कि ऊँचे और नीचे का खयाल साधारण दुनिया का खयाल है । जनाधारण ॐना और नीचा नहीं होता। अनल मे जो इस ऊँच-नीच की दुनिया से बाहर चला जाता है, वही असाधारण है । जहाँ तक कोई दीया है, वही तक ऊंच-नीच का भेद है पार्थक्य है। ज्योति बड़ी और छोटी होती नहीं। निराकार में सो जाने की क्षमता छोटी ज्योति की उतनी ही है जितनी बडी-से-बडी ज्योति की। और निराकार में जो जाना ही अमाधारण हो जाना है। जिस प्रकार पृथ्वी मे एक कशिश है, नीचे सीचने का गुरुत्वाकर्षण है, उसी प्रकार परमात्मा में भी एक कशिश है। वह जो निराकार है और फैला हुआ है ऊपर, वह चीजो को अपनी ओर ऊपर-खीचता है। इसी कशिश का नाम प्रभुप्रसाद या ग्रेस है। उसके लिए छोटी और बडी ज्योति में कोई अन्तर नहीं । ज्योति होनी चाहिए। जिस तरह पृथ्वी की कशिश छोटे-बड़े का भेद न मानकर बडे पत्थर को छोटे पत्थर के साथ ही गिरने को मजबूर करती है, उसी तरह परमात्मा की कशिश भी छोटी ज्योति को उतनी ही गति से खीचती है जितनी गति से बडी ज्योति को। लेकिन, अनुयायी का मन साधारण दीए का मन होता है। तोलता है, तुलना करता है। इसलिए वह कभी समझ नहीं पाता, समझ ही नहीं सकता। समझने के लिए वडा सरल चित्त चाहिए; अनुयायी के पास सरल चित्त नही । वह कुछ थोपता है अपनी तरफ से । विरोधी भी नहीं समझ पाता, क्योकि उसमे छोटा करने का आग्रह होता है, अपनी ओर से थोपने की जगह कम करने की जिद होती है। इसलिए जिसे समझना हो, उसे प्रेम करना है, और प्रेम तदा वेशर्त होता है। प्रेम यह नही कहता कि तुम मुझे कुछ देना, भवसागर से पार ले चलना, धन-धान्य से परिपूर्ण कर देना। प्रेम का मॉग से कोई सम्बन्ध ही नहीं। इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नही कर पाता। और विरोधी किसी और से मौदा कर लेता है, इसलिए वह विरोध मे खडा हो जाता है। वह विरोधी इसलिए हो गया है कि उसे लाभ का आश्वासन नहीं मिला।
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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