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महावीर : परिचय और वाणी नही रह जाता जो मेरे जीवन को चोट पहुंचाता है। मेरे जीवन को चोट पहुँचा कर कोई क्या कर सकता है ? मृत्यु तो होने ही वाली है, वह मिर्फ निमित्त बन सकता है। अगर कोई आपकी हत्या भी कर जाय तो वह सिर्फ निमित्त है, कारण नहीं । कारण तो मृत्यु है, जो जीवन के भीतर ही छिपी है। जो होने ही वाला था, उनमें वह सहयोगी हो गया। इसलिए उस पर नाराज होने की भी कोई जररत नहीं। ___ महावीर कहते हैं कि मृत्यु को अगीकार करो, इसलिए नहीं कि मृत्यु कोई महत्त्वपूर्ण चीज है, बल्कि इसलिए कि वह विलकुल ही मामूली चीज है । जब जीवन ही साधारण और महत्त्वहीन है तब फिर मृत्यु महत्त्वपूर्ण कैसे हो सकती है ? आप जितना मूल्य जीवन को देते हैं, उतना ही मूल्य मृत्यु मे स्थापित हो जाता है और ध्यान रहे कि जितना मूल्य मृत्यु मे स्थापित हो जाता है, उतने ही आप मुश्किल में पड़ जाते है। महावीर कहते है कि जब जीवन का कोई मूल्य नहीं तय मृत्यु का भी मूल्य समाप्त हो जाता है। जिसके चित्त मे न जीवन का मूल्य है और न मृत्यु का, क्या वह आपको मारने जायगा ? क्या वह आपको सताने मे रस लेगा?
(७) जिसके लिए जीवन ही निर्मूल्य है, उसके लिए महल का कोई मूल्य होगा? जीवन का मूल्य शून्य हुआ कि सारे विस्तार का मूल्य शून्य हो जाता है, सारी माया ढह जाती है। जितना लगता था कि जीवन को बचाऊँ, उतना मृत्यु से वचने का सवाल उठता था। जीवेपणा इसलिए बाधा है कि इसके चक्कर मे आप वास्तविक जीवन की खोज से वचित रह जाते है।
(८) महावीर कहते है कि जीवेपणा जीवन की वास्तविक तलाश से हमे वत्रित कर देती है। वह सिर्फ मरने से बचने का इन्तजाम बन जाती है, अमृत को जानने का नही । महावीर मृत्युवादी नहीं है। वे जीवेपणा की इस दौड को रोकते ही इसलिए है कि हम उस परम जीवन को जान सके जिसे बचाने की कोई जरूरत नही है-जो वचा ही हुआ है।
(९) हिमा दूसरे को भयभीत करती है। आप अपने को बचाते है, दूसरे मे भय पैदा करके । महावीर कहते है कि सिर्फ अहितक ही अभय को उपलब्ध हो सकता है । जिसने अभय नही जाना, वह अमृत को कैसे जानेगा? भय को जाननेवाला मृत्यु को ही जानता रहता है। ___ महावीर की अहिसा का आधार है जीवेपणा से मुक्ति । जीवेषणा से मुक्ति मत्यु की एषणा से भी मुक्ति हो जाती है ।
लाओत्से ने जिसे 'टोटल ऐक्सेप्टिविलिटी' कहा है, उसे ही महावीर ने अहिंसा कहा है। जिसे सव स्वीकार है, वह हिंसक कैसे हो सकेगा ?
(१०) जितने जोर से हम अपने को बचाना चाहते है, हमारा वस्तुओ का वचाव उतना ही प्रगाढ हो जाता है। जीवेषणा 'मेरे' का फैलाव बनती है। यह