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महावीर परिचय और वाणी
२६१ __ मरा है, य मेरे पिता हैं, यह मरा मा है यह मरी पनी है, यह मकान मरा है यह
धन मेरा है-हम मर का एक जार सग करते हैं अपने चारा तरफ। उसे इसलिए बडा करते हैं कि उसके भीतर ही हमारा 'मैं' वच मरना है। मगर मेरा कोई मी नही ता में निपट अवेला महसूस करके बहुत भयभीत हा जाऊँगा। कोई मरा है तो सहारा है, सुरक्षा है। इसलिए जितनी ज्यादा चीजें आप इसकी कर लेते हैं आपकी अक्ड उतनी ही ज्यादा वर जाती है।
(११) इम मरे के फलाव का महावीर हिमा कहते हैं। उनकी दष्टि म परिग्रह हिंमा है। उनका वस्तुआ से कोई विरोध नहीं है, पर इससे जरूर प्रयोजन है कि आपका उनम विनना मोह है किस हद तर आपने उन वस्तुमा को अपनी आत्मा बना रिया है।
(१२) मालकियत के लिए हम इतने उत्सुक हैं कि अगर जिदा आदमी के हम मालिक हो सब तो उसे मारकर भी मालिक होना चाहते है।
(१३) हमारे जीवन की अधिकतर हिंसा इमीलिए है । जब कोई अपनी पत्नी या मारिस होता है तब वह स्त्री तो प्राय न प्रतिशत मर ही जाती है। बिना मारे माठिप होमुश्किल है । अहिंसर की कोई मालवियत नही हो सकती। अगर योइ अपनी लगाटी पर भी मार वियत बनाता है तो यह हिंसक है। महल मेरा है और रंगाटी मेरी है दोना ये मूर म मालवियत या भाव है और मालकियत हिंसा है। इस रंगोटी पर भी गरदने क्ट सकती हैं।
(१४) एक जन माधु | मेरे एक मित्र से 'अपने' महावीर को उस महावीर से भिन्न रहा है जिसके सम्म घ म मैं पालना रहा हूँ। 'अपने' महावीर । महावीर पर मा मालबियत ! यानी हिंमा का हम यहाँ तक भा नहीं छोड़ेंगे, पहेंगे कि यह धम मेरा है यह साम्य भरा है, जहाँ जहाँ मरा है वहा-यहाँ हिंसा है। इसे एसा रामावि नहिंसा मूग है आत्मा का जानन पा, क्यादि जब 'मेरे का सारा भाव गिर जाता तब फिर मैं ही बाता है बोर का नहा बचता। वचता है रिपट में'। और तभी व्यक्ति यह जान पाता है कि मैं क्या है कोई पहाँ से आया है यहां ऊँगा । तब रम्य व सार द्वार पर गात है।
महावीर जपारप ही अहिंा या परम थम नहीं रहा है। परम पम पहा है इस दिन पूजी स जीवा य एम्पसार द्वार पर पत है।