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________________ महावीर परिचय और वाणी २५३ परिधि से जोडनेवाला सेतु है । अहिंसा जात्मा है तप शरीर है और सयम प्राण है, यह दोना कता है साँस है । साम टूट जाय तो शरीर होगा आत्मा भी होगी, लेकिन आप न होग। सयम टूट जाय ता तप हो सकता है अहिमा भी हो सकती है, लेकिन धम नही हो सकता । महावीर को दष्टि मे अहिंसा धर्म की आत्मा है । अगर हम महावीर से पूछें कि एक ही शब्द भ यह बता दें कि धम क्या है, तो वह हिमा । दूसरे लोग कहगे - परमात्मा, आत्मा सवा, यान समाधि याग, पूजा प्राथना आदि-आदि । किन महावीर के लिए धर्म का पर्याय है अहिंसा पर महावीर की अहिंसा वह बचकानी हिमानी है जो उनके माननवाले समझते रह ह । ( १३ ) धम की परिभाषा स्वभाव है। महावीर यह नहा वहग वि दूसरे का सुख देना ही धर्म है क्योकि इससे दूसरा जा खड़ा होता है। महावीर कहत है कि धम तो वही है जहाँ दूसरा है ही नहीं । दूसरे को दुस मत दो-यह भी महावीर की परिभाषा नहीं हो सक्ती वारण महावीर मानन वो तैयार नहीं कि हम दूसरे का दुस दे सकत है जब तक दूसरा लना ही न चाहे । यह भान्ति है कि मैं दूसर का दुसद सकता हूँ | यह भ्राति इस पर सड़ी है कि में दूसरे से दुस पा सकता है । मैं दूसरे से सपा सपना है, मैं दूसर को सुप्स दे सकता हूँ--य सब भ्रान्तियाँ एव ही आधार पर खड़ी हैं। क्या फाई महावीर को दुस द सकता है ही, आप महावीर का दुख ही दे सक्त, क्याकि वे दुस लेने को तयार नही हैं। आप उसी को दुम दे सकते हैं जो दुस लेने को तयार हा । आप यह जानकर हैरान हाने कि आप हमेशा दुख लेने को उत्सुर रहत है । अगर कोई आदमी आपकी चौबीसा घटे प्रशसा करे तो आपको सुप नहीं मिलेगा कि अगर वह एक गाली द द तो आप आजीवन दुखी रहगे । आपकी बरमा सेवा करे आपका सुख नही मिलेगा, लेकिन एव दिन वह आपके पि एवं शब्द बाल दे तो आप बहद दुखी हा जायेंगे, उसकी सारी सवा व्यथ हायगी । इमसे क्या सिद्ध होता है ? ? (१८) इसस यही सिद्ध होता है कि आप सुख देने को उतना आतुर नहीं है जितना दुस ने को। यानी आपनी उत्सुक्ता जितनी दुग लेन ग है उननी सुख लेने म नहीं है । अगर मुझे किसी न उनीस बार नमस्कार किया और एक बार नमस्कार नहीं दिया तो उतीन वार के नमस्कार से मैंन जितना सुख ही लिया है उससे अधिक दुस एव वार व नमस्कार न करने से लेता है । जाश्चय है । हम दुस के लिए जो इतन सवदनगीर है, उसका कारण क्या है ? उसका कारण यह है वि हम दूसरा मे सुस चाहत हैं । इतना ज्यादा कि वही चाह हमारे दुस वा द्वार बन जाती है। महावीर नहीं वह सक्त कि अहिंसा का अय है दूसरे को दुख न दना । दूसरे का कौन दुस द सकता है अगर दूसरा लेना चाह तो ? जा ऐना
SR No.009967
Book TitleMahavir Parichay aur Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year1923
Total Pages323
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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