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महावीर परिचय और वाणी
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ऐसी ला गइ है कि तप ही पूरा नहीं हो पाता इसलिए आनखि तप तक जाने या सवार ही नहीं उठना । बाह्य तप ही जीवन वा हुन लेता है। लेकिन इसे भी ध्यान में विजय तक आन्नखि तप पूरा नहा हो जाता तब तब बाह्य तप भी पूरा न होगा ।
अन्तर और बाह्य एक ही चीज है । इसलिए यह सोचना र वाह्य तप पहले पूरा हा जाए तब में अन्तर तप में प्रवेश वगा, गलत है । इसस बाह्य तप कभी पूरा नहा होगा, क्योकि बाह्य तप स्वय लावा हिम्सा है । वह कभी पूरा नही हो सकता । जन-साधना नहीं भटक गई है वह यही जगह है। यही से इस विश्वास का सूत्रपात होता है कि पहल बाह्य तप पूरा हो जाए तो फिर बातरिख तप में उतरेंगे। में पहता हूँ - बाह्य तप भी पूरा नहीं हो सकता, क्यादि बाह्य जो है वह अधूरा हो है। वह तो पूरा तभी होगा व आतरिख तप भी पूरा हो। इसका अय यह हुआ कि अगर य दोनो तप साथ-साथ चलें तभी पूरे हो पात है अन्यथा पूरे नहीं हो पान | लेकिन विभाजन न हम ऐसा समया दिया नि पहले हम बाहर पो पूरा वर
से पहले बाहर को साथ लें फिर भीतर की यात्रा करेंगे। ध्यान रहे कि तप एक ही
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बाहरी और भीतरी तप सिर्फ वामचलाऊ विभाजन है ।
(२) अगर कोई अपन परा को स्वस्थ करना चाह और सोच कि पहले पैर स्वम्य हा जाए फिर सिर स्वस्थ कर लें, तो वह गल्ती म है । शरीर एक है और उपवावा भी अगत्य तर स्वस्थ नहीं हो सकता जब सब पूरा शरीर स्वस्थ न हा । वन्तर और बाह्य पूरे व्यक्तित्य के हिस्त हैं। इन सभी हिम्मा का इलाज एक साथ परना होगा। हो, जब हम विवचन करने हैं तब उन्हें बारी-बारी से एना होता है । समाना बात एक साथ नहीं की जा सकती। या 'वन
विवचन परत गमय में पहले आपने सिर म
है इसीजी गीमाए है। यानार आपके हृदय बातगा और अन्न म आप पर की बात । सोना पीवान में एक गाय नहीं कर सकता। लेाि मतलब यह नहीं है ि मानों एक साथ नही हैं । जापका सिर, आपराहृत्य पर पर एए गाय है लगा नहीं है। यदि चया न करनी पता है फिर ना
यति है ।
दया और छत हिस्सा को जा में पर्चा उगम महामारि जिरे शासक है उन नाही। ऐसी साधना मेंदूपा
उन्हें एनामदारी है। र नाया पाएर
जावर मोरा हूँ और बाद मेरे सामना पि
रहती है धारण कि
। अगर मेरी दो बाहर
1 frater,