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दशम अध्याय
महावीर की दृष्टि मे अनगन
अत्यगयमि आच्चे, पुरत्या य अणुग्गए । आहारमाइय सव्व, मणमा वि न पत्थए ।'
दग० अ० ८ गा० २८
महावीर ने तप को दो रूपों में विभाजित किया है । इसलिए नही कि 'तप दो रूपो मे विभाजित हो सकता है, बल्कि इसलिए कि हम उसे विना विभाजित किए समझ ही नही सकते । इसका भी एक कारण है । वह यह है कि हम विभाजित मनुष्य है । हम अपने को ही छोडकर, अपने से ही च्युत होकर, अपने ने ही दूर खडे है । ऐसा नही कि हम दूसरो से अजनबी है, सच तो यह है कि हम अपने से ही अजनबी है । इसलिए विभाजित मनुष्य की समझ के बाहर होगा अविभाज्य तप । महावीर तप को दो हिस्सो मे वांटते है हमारे कारण, अन्यथा उनकी - जैसी चेतना को बाहर और भीतर का कोई अन्तर नही रह जाता। महावीर तो वहाँ है जहाँ बाहर भी भीतर का ही एक छोर हो जाता है और भीतर बाहर का एक दूसरा छोर । वे वहाँ है जहाँ भीतर और बाहर एक ही अस्तित्व के दो अग हो जाते है । इसलिए वह विभाजन हमारे लिए है ।
(१) महावीर ने तप के दो रूप कहे है- बाह्य तप और अतर तप । उचित होता कि महावीर अतर तप को ही पहले रखते, क्योकि वह जो आन्तरिक है वही प्राथमिक भी है। लेकिन उन्होने अन्तर तप को पहले नही रखा, पहले रखा है वाह्य तप को । इसका कारण यह है कि महावीर के सुननेवालो के लिए आन्तरिक द्वितीय स्थान रखता है, वाह्म ही प्रथम है । महावीर की करुणा कहती है कि वे वही से बोले जहाँ सुननेवाला खड़ा है। यद्यपि उनके लिए आन्तरिक प्रथम है, उनके सुननेवालो के लिए आन्तरिक का स्थान द्वितीय है । इसलिए वे बाह्य तप को पहले रखते है, कारण कि हम बाहर है । और चूंकि महावीर ने बाह्य तप को पहले रखा है, इसलिए उनके अनुयायियो ने बाह्य तप को ही प्राथमिक समझ लिया है । यही भूल हुई है और यही से बाह्य तप मे लगे रहने की लम्बी धारा चल पड़ी है। अब तो स्थिति
१. सूर्य के उदय होने से पहले और सूर्य के अस्त हो जाने के बाद निर्ग्रन्थ मुनि को सभी प्रकार के भोजन-पान आदि की ( मन से भी) इच्छा नहीं करनी चाहिए ।